________________
मानवताका कीर्तिस्तम्भ
__ मैं वर्णीजीको सन् '१४-१५में नन्हूलाल जी कंडयाके यहां एक प्रौढ़ विद्यार्थी तथा पण्डितके रूपमें कभी कभी देखता था। जैन समाजकी उन पर उस समय भी श्रद्धा थी किन्तु संभवतः केवल एक ज्ञानाराधक विद्वान के रूपमें। सन् '२४-२५ में जब कि परवार समाजके सागर अधिवेशन में मुझे बोलनेका सौभाग्य वीजीकी कृपाके कारण प्राप्त हो सका था तब विषयके सम्बन्ध में पूछे जाने पर मैंने कहा कि 'मैं जैनधर्मका अकिञ्चन विद्यार्थी हूं, विषय मैं क्या बताऊं? तथापि आपने १५ मिनट बोलनेका अवसर दिया था। मुझ पर उस कृपाने जो प्रभाव किया वह मैं भुला नहीं सकता।
आज वर्णीजी केवल जैन समाजकी ही विभूति नहीं है, यद्यपि जैन समाजका ऋण भार उनके भाल प्रदेश पर अंकित है । अजैन कुटुम्बमें जन्म लेकर उनके द्वारा व्यवहार जैनधर्मने कूपमण्डकत्व को त्याग दिया। उनकी ओर देखकर जैनी कौन है इस भावनाकी एक स्पष्ट रूप-रेखा गैरजैनी व्यक्तिके हृदयमेंभी अंकित हो जाती है । अाजकी जैन समाजकी संकुचित भावना उनकी ओर देखने मात्रसेतिरोहित हो जाती है और मानव समझता है कि जैनधर्म वास्तवमें मानवताके हृदयको झंकृत कर सकता है । - यह पुण्य कमाया जैन समाज तथा अजैन समाजने क्रमशः अपने एक छोटेसे लालको खोकर और एक महानताके सिंहासनपर बैठा कर । कौन कह सकता है कि वोजी आज मानवताकी जिस तह तक पहुंच पाये उसका कारण; किसी भी रूपमें सही उनका जैन समाजके बाहरका प्राथमिक विचरण नहीं ही है ? जहां रहते हुए उन्होंने कल्पना की होगी कि जैन-तत्त्व किस तरह सर्वोपकारक हो सकता है। इस दृष्टि से वर्णीजी जैन तथा अजैन समाजके बीचकी एक कड़ी हैं जिसमें दोनों धर्मोकी महानता खिल उठी है।
वर्णीजी तपस्विनी चिरोंजाबाईके मूर्तिमान् स्मारक हैं। उनके त्याग विद्याव्यासंग और सम्पत्तिके सदुपयोगकी भावनाने वर्णी जीमें अमरता पायी है। 'स्वयंबुद्ध जैन' पर व्यय की गयी रकमने अतिकृतज्ञ अतिमानवका जन्म दिया है ।।
. आजके पैदल यात्रा करने वाले उस परिव्राजक के मुखपर न केवल जैनधर्मकी विद्वत्ता अंकित है किन्तु दुःख दलित मानवताकी कसक भी विराज रही है। सारी सांसारिक निम्न प्रवृत्तियों से सन्यस्त इस यतिकी उदात्त वृत्तियां असहाय मानवताके आर्त चीत्कारके प्रति सदा सहानुभूतिसे मुखरित होती हैं और यथाशक्ति मार्ग दर्शन करती हैं। आजके युगमें वैरागियोंका उपयोग लोकहिताय कैसा होना चाहिए इसके श्राप मूर्त रूप हैं।
इकावन