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संतोंका मत
युगमें सर्वत्र पाया जाता है । जैन पाहुड़ दोहोंके द्वारा भी गुरूकी महिमा सर्वत्र विघोषित हुई है । सम्भवतः यह गुरुभक्ति भी आयको आर्येतर स्थानोंसे ही मिली है। कारण वेद के आदि युगमें गुरुभक्तिका इतना प्रादुर्भाव देखनेको नहीं मिलता । धीरे धीरे इसका प्रभाव बढ़ने लगा । ब्रह्मचारियोंके लिए आचार्य वन्दनीय एवं अनुसरणीय गिने जाते थे – वन्दन एवं अनुसरण करनेकी भावनाके पीछे भी गुरुभक्तिका थोड़ा बहुत संधान मिलता है । लेकिन बाद के गुरुवाद में गुरूका स्थान और भी बड़ा है ।
पाश्चात्य शिक्षा एवं भारतीय शिक्षा-संस्कृति में एक विशेष प्रभेद यह है कि ग्रीस प्रभृति देशों के अधिवासियोंके गुरू विद्या बेचा करते थे । विद्या उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थी। पैसे देकर उनको विद्या खरीदनी पड़ती थी । बोल कर गुरू इच्छानुकूल इसे बेच भी सकते थे । भारतके ब्रह्मचारी एवं गुरू सम्पूर्णं मानव समाजके पालक थे । एवं चूंकि गुरुयोंकी साधना विश्व सत्यवर केन्द्रित होती थी इसलिए उनसे अर्जित ज्ञान भी विश्वके समस्त अधिवासियों के लिए था । इसलिए गुरूयोंको ज्ञान बेचने का कोई अधिकार न था । तक्षशिला, पुरुषपुर प्रभृति स्थानोंमें ग्रीक प्रभावसे प्रभान्वित गुरू कहीं कहीं विद्या बेचा करते थे | लेकिन ऐसा करनेके कारण उनकी यथेष्ट निन्दा होती थी । भारतकी साधना में विद्या किसी भी स्थान पर व्यक्तिगत कोई वस्तु न गिनी गयी, वह सब मानवकी थी । बृहत् संहिता की भूमिका में डा० एच कर्ण० भू० पृ० ५२ ) साहबने बड़े आश्चर्य के साथ इसका उल्लेख किया है। उपनिषद के युग लेकर आज तककी भारतकी साधना में गुरुत्रों के लिए एक बड़ा स्थान है । वहां गुरू विद्या नहीं बेचते बल्कि वे शिष्यों का पालन करते हैं एवं साधना के बलसे शिष्योंको धन्य कर विश्वसाधनाको आगे बढ़ते चलते हैं ।
कवीर प्रभृति साधक निरक्षर हो सकते हैं, लेकिन गुरूकी कृपासे वे तत्त्वज्ञानी थे । उनकी अपनी प्रतिभा भी अतुलनीय थी इसलिए पण्डित न होने पर भी उनका किसी तरहका नुकसान नहीं हुआ । बल्कि कबीर प्रभृति साधक यदि पण्डित होते तो शायद ऐसी अपूर्व तत्वपूर्ण बातें उनके मुंहसे न निकलती । कबीर जातिके जुलाहा थे जिनपर हिन्दू-मुसलमान किसी संस्कारका बोझ न लदा था । सत्र प्राचीन संस्कारों से वे मुक्त थे । सब तरहके भारोंसे मुक्त होनेके कारण ही इतनी सहजमें उनके कानों तक भगवानकी वाणी पहुंच पायी है । बंगालके बाउल भी इसीलिए इतने मुक्त हैं । उनके गीतों में है-
तोमार पथ ढेके छे मन्दिरे मसजेदे |
तोमार डाक सुनि साँद चलते ना पाद रुखे दांड़ाय गुरुते मरशेदे ||
मन्दिर और मसजिदने तुम्हारे पास पहुंचने के रास्तेको ढक रखा है। तुम्हारी बुलाहट सुनायी दे
रही है लेकिन आगे बढ़ा न जाता है । गुरु एवं मरशेद रास्तेमें डपटकर खड़े हो जाते हैं ।
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