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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ मरण बिगड़ जानेके कारण द्वीपायन मरकर यक्ष हुए तथा प्रतिशोध लेनेके लिए द्वारका पहुंचे, किन्तु वहांका धार्मिक जीवन देखकर विवश हो गया। वह ग्यारह वर्ष तक प्रतीक्षा करता रहा। तथा निराश हो ही रहा था कि द्वारकावासी कठोर धार्मिक जीवनसे ऊबने लगे। लोगोंका यह भाव देखकर उसका साहस बढ़ा और जब फिर द्वारकामें मदिरा बही तथा मांस भक्षणादि अनाचार फैला वह टूट पड़ा । भीषण बवण्डर आया तथा द्वारका भभक उठी। यक्ष शक्तिसे कीलित यादव इतने निशक्त' होगये थे कि कुछ भी न कर सके । सबसे दुःखद मरण तो वासुदेव, रोहिणी और देवकी का था जिन्हें बचाने के लिए राम ( बलदेव ) तथा कृष्णने कोई प्रयत्न न छोड़ा था । तथापि अपनी आंखोंके आगे माता पिताको जलते देखना पड़ा था। इसके बाद दोनों भाई निकल गये और द्वीपायनके उत्पातमें द्वारका छह मास तक जलती रही। कृष्ण मरण-इसके बाद दोनों भाइयोंने पाण्डवोंके यहां जानेका निश्चय किया। जब वे कौशम्ब वनसे जा रहे थे तो दुःखी, शोकसंतप्त, श्रान्त श्रीकृष्णजीको जोरकी प्यास लगी। वे थककर बैठ गये और चिन्तित तथा अनिष्ट अाशंकासे पूर्ण राम जलको खोजमें गये । श्रान्त कृष्ण कपड़ा अोढ़कर पड़ गये और सो गये । उनका उघडा रक्त पादतल दूरसे दिख रहा था। बारह वर्षसे वनमें घूमते हुए जराकुमारने दूरसे हिरण समझ कर बाण मारा । तीव्र वेदनासे कृष्णजी जाग पड़े और मारकको पुकारा उसने अपनी कथा कही । भावीकी सत्यतापर विश्वास करके कृष्णजीने जराकुमारको गले लगाया जो उन्हें देखते ही मूञ्छित हो गया था, चैतन्य आनेपर रोने लगा, कृष्णजीने कहा “जाश्रो, जो होना था हो गया, राम यदि तुम्हें देखें गे तो मार डाले गे।" मरते भाईका आदेश मानकर वह चला गया। जब कमलपत्रोंमें पानी लेकर बलदेव लौटे और भाईको चुप पाया तो पहिले सोता समझा। फिर मत समझकर उनका विवेक ही नष्ट हो गया । इनके विलाप तथा छह मास तक भटकनेकी कथा इतनी करुणाद्र है कि पत्थरको भी आंसू आ जाय । अन्तमें उन्होंने दाह संस्कार किया तथा मुनि हो गये। जब वे मरकर ब्रह्मलोक स्वर्ग गये तो वहां उत्पाद शय्यासे उठते ही उन्हें भाईकी स्मृति आयी किन्तु स्वर्ग तथा मनुष्य लोकमें उनके जीवको न पा सके तब अधोलोकों (नरकों) में दृष्टि डाली-और वालका प्रभामें भाईको देखा । वहीं पहुंचे, लानेका मोहमय प्रयत्न किया किन्तु असफल रहे । विवेकी कृष्णजीने बतलाया कि मरते समय मैं अत्यन्त अशान्त, क्रुद्ध तथा द्वीपायनके प्रति प्रतिशोध पूर्ण था अतः मेरा यह पतन हुआ । अब तो यह सहना ही है । इसके बाद मैं मरकर मध्यलोक, फिर अधोलोक, फिर वैमानिकदेव, तथा अन्तमें जितशुत्रके 'श्रमान' नामका तीर्थङ्कर पुत्र होऊ गा। इसके बाद किस प्रकार रामकृष्णको ईश्वर का रूप प्राप्त हुआ, आदिका वर्णन है । जैन कृष्णकथा भी यही सिद्ध करती है कि वे काल्पनिक पुरुष नहीं थे अपितु ऐतिहासिक व्यक्ति ये । हुएनसांगका वर्णन भी इस निष्कर्षका समर्थक है। उसने लिखा है “धर्म अथवा कुरुक्षेत्र २९०
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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