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________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ जड़ कैसे जमायी । द्राविड़ोंने अनोखी सभ्यताकी उत्पत्ति की थी। स्वर्गीय श्री कनकसबाई पिल्लेके अन् सार, उनके धर्ममें बलिदान, भविष्यवाणी और आनन्दोत्पादक नृत्य प्रधान कार्य थे। जब ब्राह्मणोंके प्रथम दलने दक्षिण में प्रवेश किया और मदरा या अन्य नगरोंमें वास किया तो उन्होंने इन प्राचारोंका विरोध किया और अपनी वर्ण-व्यवस्था और संस्कारोंका उनमें प्रचार करना चाहा, परन्तु वहांके निवासियोंने इसका घोर विरोध किया। उस समय वर्ण-व्यवस्था पूर्णरूपसे परिपुष्ट और संगठित नहीं हो पायी थी। परन्तु जैनियोंकी उपासना, आदिके विधान ब्राह्मणोंकी अपेक्षा सीधे सादे ढंगके थे और उनके कतिपय सिद्धान्त सर्वोच्च और सर्वोत्कृष्ट थे । इसलिए द्राविड़ोंने उन्हें पसन्द किया और उनको अपने मध्यमें स्थान दिया, यहां तक कि अपने धार्मिक जीवन में उन्हें अत्यन्त अादर और विश्वासका स्थान प्रदान किया। कुरलोत्तर काल-- ___ कुरलके अनन्तरके युगमें प्रधानतः जैनियोंकी संरक्षतामें तामिल साहित्य अपने विकासकी चरम सीमा तक पहुंचा । तामिल साहित्यकी उन्नतिका वह सर्वश्रेष्ठ काल था । वह जैनियोंकी भी विद्या तथा प्रतिभा का समय था, यद्यपि राजनैतिक-सामर्थ्य का समय अभी नहीं आया था। इसी समय ( द्वितीय शती) चिर-स्मरणीय 'शिलप्पदिकारम्' नामक काव्यकी रचना हुई । इसका कर्ता चेर-राजा सेंगुत्तुवनका भाई 'इलंगोब दिगाल' था । इस ग्रन्थमें जैन-सिद्धान्तों, उपदेशों और जैनसमाजके विद्यालयों और श्राचारों श्रादिका विस्तृत वर्णन है। इससे यह निःसन्देह सिद्ध है कि उस समय तक अनेक द्राविडोंने जैनधर्मको स्वीकार कर लिया था। ईसाकी तीसरी और चौथी शतियोंमें तामिल-देशमें जैन धर्मकी दशा जाननेके लिए हमारे पास काफी सामग्री नहीं है। परन्तु इस बातके यथेष्ट प्रमाण प्रस्तुत हैं कि ५ वीं शतीके प्रारम्भमें जैनियोंने अपने धर्मप्रचारके लिए बड़ा ही उत्साहपूर्ण कार्य किया। 'दिगम्बर दर्शन' (दर्शन सार १) नामक एक जैन ग्रन्थ में इस विषयका एक उपयोगी प्रमाण मिलता है। उक्त ग्रन्थमें लिखा है कि सम्वत् ५२६ विक्रमी ( ४७० ईसवीं ) में पूज्यपादके एक शिष्य वज्रनन्दी द्वारा दक्षिण मथुरामें एक द्राविड़-संधकी रचना हुई और यह भी लिखा है कि उक्त संघ दिगम्बर जैनियोंका था जो दक्षिणमें अपना धर्मप्रचार करने आये थे। यह निश्चय है कि पाण्ड्य राजाओंने उन्हें सब प्रकारसे अपनाया। लगभग इसी समय प्रसिद्ध 'नलदियार' नामक ग्रन्थकी रचना हुई और ठीक इसी समयमें ब्राह्मणों और जैनियोंमें प्रतिस्पर्धाकी मात्रा उत्पन्न हुई। इस प्रकार इस 'संघकाल' में रचित ग्रन्थोंके आधारपर निम्नलिखित विवरण तामिल-देश स्थित जैनियोंका मिलता है। २१८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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