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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ भी अधिक अनायास प्राप्य थीं। मैं मित्रोंके साथ दूर दूर घूमने चला जाया करता । सरकारी मोटर पर सैर करनेके लिए शॉफरको दो चार 'क्रेवन ए' पिला देना पर्याप्त होता । नगरके बाहर दूर जंगलों में हम लोग घमा करते । यहांकी धरतीपर प्रकृति माताकी ऐसी ममता देखकर इस जनपदको स्वर्ग समझ लेनेकी मेरी धारणा और भी दृढ़ हो गयी। मैं जिस प्रदेशका निवासी हूं, उसे कालिदासने देवभूमि कहा है। हिन्दुस्तान के जिन मनुष्यों के पुण्यभोग अभी तक अखंड है, वे प्रति वर्ष ग्रीष्म में मेरे उस देशका उपभोग करने चले जाया करते हैं। हिमालय की मुक्त वायु, चीड़के वृक्षोंसे ढकी उपत्यकाएं, पिण्डारी ग्लेशियरकी शीतल छाया-देवताओंकी उस धरती पर आज-कल सभी कुछ पैसे से खरीदा जा सकता है। किन्तु मुझ जैसे पृथ्वी-पुत्रोंको, जिन्हें भैरव देवताकी लात लगी हैं, ये सारी वस्तुएं स्वत्व होने पर भी दुष्प्राप्य हैं । सो-,बुन्देलखंडकी भूमिमें लगा कि हिमाचल तो गया, किन्तु मैं घाटे में नहीं रहा। कालिदासका यक्ष निर्वासित होने पर स्विट्जरलैंड नहीं गया था। इसी जनक-तनया-स्नान-पुण्योदक भूमिने उसे भी कहीं शरण दी थी। यहाँके हरे-भरे आम और जामुन के जंगल, प्रसन्न-जला नदियां, वेतवा, धसान, केन, जामनेर-सैकड़ों तालाब, तालाबोंके बांध पर बने पुराने राजाओंके प्रासाद, किले, स्मृति-स्तूप । चप्पे चप्पे पर इतिहास और प्रकृति को गाढ़ालिंगन किये देखा । पुराणोंमें हिमालय और विन्ध्याचलकी प्रतिस्पर्धा वाली कहानी पढ़ी-सुनी थी। विन्ध्याचल का उद्दण्ड प्रताप और विनम्र भाव, मुझे दोनों मानो इस जनपदके स्वभावमें भीगे हुए लगे। यहां की मीठी बोली, लोगोंका बिनीत स्वाभिमानी श्राचरण। पांच बर्षकी धूलभरी खानाबदोश कहानीका यह नया अध्याय था। सोचता था, अब सुखसे जी सकंगा। दो महिनेके बाद समयने करवट बदली तो स्वप्नोंकी यह अजीमुश्शान इमारत 'धड़ाम-धम' गिर पड़ी। ईटें, पत्थर, चूना-सब कुछ खाकमें मिल गये। अतिथिनिवास का चपरासी आया, बोला-'हुजूर, साहब की मर्जी हुई है कि आप कोई मकान ढूढ लो। गेस्टहाउसमें ज्यादा दिन रहना कायदेके खिलाफ है। अब आप मेहमान तो रहे नहीं ; रियासतके नौकर हैं।" उस दिन पहिले पहल लगा कि मैं नौकर हूं. शाहजादा नहीं। नौकरोंके लिए स्वर्गका निर्माण नहीं हुआ है। शाहजादोंके जिस स्वर्गको देख देख कर मैं स्वप्नोंका निर्माण किया करता था, वह सत्य नहीं था। बुन्देलखंडके जिस रूप पर मैं रीझ गया था, वह शाश्वत नहीं था । वह छल था-प्रवंचना थी। वह आवरण था, कि जिसे भेदकर श्रात्माका दर्शन होना मुझे बाकी था । जो सत्य है, चिरन्तन है, सुन्दर है-किन्तु जो कुरूप है, भयावह है, बुन्देलखंडकी उस मानवताका भी अब दर्शन मैंने किया। यहांके वन, यहांकी नदियां, तालाब, गगनस्पर्शी राज प्रासाद, मोटरे, शराबकी बोतलें, वारांगनाएँ, मृत-संस्कृतिके गायक राजकवि-ये ५३८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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