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________________ पुरातत्त्वकी शोध जैनोंका कर्तव्य तूस्प बनाये थे और अपनी पवित्र इमारतोंके चारों ओर पत्थरके घेरे लगाये थे । कनिंघम ऐसे घेरोंको हमेशा 'बौद्ध घेरे' कहा करते थे और उन्हें जब कभी किसी टूटे फूटे स्तूपके चिन्ह मिले तब उन्होंने यही समझा कि उस स्थानका संबंध बौद्धोंसे था । यद्यपि बम्बईके विद्वान पंडित भगवानलाल इन्द्रजीको मालूम था कि जैनोंने स्तूप बनवाये थे और उन्होंने अपने इस मतको सन् १८६५ ईसवीमें प्रकाशित कर दिया था, तो भी पुरातत्त्वान्वेषियोंका ध्यान उस समय तक जैनस्तूपोंकी खोजकी तरफ न गया जब तक कि तीस वर्ष बाद सन १८९७ ईसवीमें बुहलरने अपना “मथुराके जैनस्तूपकी एक कथा" शीर्षक निबंध प्रकाशित न किया । मेरी पुस्तक-जिसका नाम “मथुराका जैनस्तूप और अन्य प्राचीन वस्तुएं" है सन् १६०१ ईसवीमें प्रकाशित हुई जिससे सब विद्यार्थियोंको मालूम हो गया कि बौद्धोंके समान जैनोंके भी स्तूप और घेरे किसी समय बहुलतासे मौजूद थे । परन्तु अब भी किसीने जमीनके ऊपरके मौजूद-स्तूपोंमें से एकको भी जैनस्तूप प्रकट नहीं किया । मथुराका स्तूप जिसका हाल मैंने अपनी पुस्तकमें लिखा है बुरी तरहसे खोदे जानेसे बिलकुल नष्ट हो गया है। मुझे पक्का विश्वास है कि जैनस्तूप अब भी विद्यमान हैं और खोज करने पर उनका पता लग सकता है और स्थानोंकी अपेक्षा राजपूतानेमें उनके मिलनेकी अधिक संभावना है। कौशाम्बी विषयक चर्चा मेरे ख्यालमें इस बातकी बहुत कुछ संभावना है कि जिला इलाहाबादके अंतर्गत 'कोशम' ग्रामके भग्नावशेष प्रायः जैन सिद्ध होंगे-वे कनिंघमके मतानुसार बौद्ध नहीं मालूम होते । यह ग्राम निस्संदेह जैनोंका कौशाम्बी नगरी रहा होगा और उसमें जिस जगह जैन मन्दिर मौजूद है वह स्थान अब भी महावीरके अनुयायीयोंका तीर्थक्षेत्र है। मैंने इस बातके पक्के सबूत दिये हैं कि बौद्धोंकी कौशाम्बी नगरी एक अन्य स्थान पर थी जो बारहटसे दूर नहीं है। इस विषय पर मेरे निबंधके प्रकाशित होनेके बाद डाक्टर फ्लीटने यह दिखलाया है कि पाणिनिने कौशाम्बी और वन-कौशाम्बीमें भेद किया है। मुझे विश्वास है कि बौद्धोंकी कौशाम्बी नगरी वन ( जंगल) में वसी हुई वन-कौशाम्बी थी। मैं कोशमकी प्राचीन वस्तुओंके अध्ययनकी ओर जैनोंका ध्यान खास तौर पर खींचना चाहता हूं। मैं यह दिखलानेके लिए काफी कह चुका हूं कि इस विषयकी बहुत सी बातोंका निर्णय होना बाकी है। प्राप्त प्रतिष्ठित स्मारकोंका पुनः निरीक्षण-- भूमिके ऊपर प्राप्त जैन खण्डहरोंके रूपको सावधानीके साथ अनुशीलन करने और लिखने से बहुतसी बातोंका पता लग सकता है। इन भवनोंका अध्ययन जैन ग्रंथों और चीनी प्रवासियों तथा अन्य लेखकोंकी पुस्तकोंके साथ करना चाहिये । जो मनुष्य इमारतोंके निरीक्षण करने और उनका २३५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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