________________
वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अाजकलकी विद्वन्मंडली हर बातके प्रमाण मांगती है और यह चाहती है कि जो बात कही जाय वह ठीक हो और उसके विषयमें जो विवाद किया जाय वह स्पष्ट और न्याययुक्त हो । दक्षिणका धार्मिक युद्ध
जिन बड़े बड़े प्रदेशोंमें जैनधर्म किसी समय फैला हुआ था बल्कि बड़े जोर पर था वहां उसका विध्वंस किन किन कारणों से हुश्रा, उनका पता लगाना हमारे लिए सर्वथा उपयुक्त है । और यह खोज जैनविद्वानों के लिए बड़ी मनोरंजक भी हो गी ।
इस विषयसे मिलता जुलता एक विषय और है जिसका थोड़ा अध्ययन किया गया है । वह दक्षिणका धार्मिक युद्ध है और खासकर वह युद्ध है जो चोलवंशीय राजाओंको मान्य शैवधर्म और उनके पहले के राजाओंके श्राराध्य जैनधर्ममें हुअा था। अध्ययनके लिए कुछ पुस्तकें--
इन बातोंकी अच्छी तरह खोज करनेके लिए हमको पहले जैनस्मारकों, मूर्तियों और शिलालेखों का कुछ ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये । बहुतसे ऐसे स्मारक (मन्दिर, महल, श्रादि) अब भी जमीनके नीचे दबे पड़े हैं और आवश्यकता है कि कोई कुशल शोधक उनको खोदकर निकाले । जो व्यक्ति जैनोंके महत्त्वपूर्ण भग्नावशेषोंकी जांच करना चाहे उसको प्राचीन चीनी यात्रियों और विशेषकर हुएनसांग की पुस्तकोंका अध्ययन करना चाहिये । हुएनसांगको यात्रियोंका राजा कहनेमें अत्युक्ति न हो गी । उसने ईसाकी सातवीं शती में यात्रा की थी और बहुतसे जैन स्मारकोंका हाल लिखा, जिनको लोग अब बिलकुल भूल गये हैं। हुएनसांगकी यात्रा संबंधी पुस्तकके विना किसी पुरातत्त्वान्वेषीका काम नहीं चल सकता। हां मैं जानता हूं कि जो जैन विद्वान् उपयुक्त पुस्तकोंसे काम लेना चाहता है वह यदि चीनी भाषा न जानता हो, तो उसको अंगरेजी या फ्रेंच भाषाका जानकार होना चाहिये । परन्तु मैं ख्याल करता हूं कि आजकल वहुत से जैनी अपने धर्मशास्त्रोंके विद्वान होकर अंगरेजी पर भी इतना अधिकार रखते हैं कि वे इस भाषाकी उन तमाम पुस्तकोंका उपयोग कर सकते हैं, जो उनको सफलता पूर्वक अध्ययन करनेमें जरूरी हो और एक ऐसे समाजके मनुष्योंको, जो सम्पत्ति शाली हैं, पुस्तकोंके मूल्यसे न डरना चाहिये । जैनस्मारकोंमें बौद्धस्मारक होनेका भ्रम--
कई उदाहरण इस बातके मिले हैं कि वे इमारतें जो असल में जैन हैं गलतीसे वौद्ध मान ली गयी थीं। एक कथा है जिसके अनुसार लगभग अठारह सौ वर्ष हुए महाराज कनिष्कने एक बार एक जैन स्तूपको गलतीसे बौद्ध स्तूप समझ लिया था और जब वे ऐसी गलती कर बैठते थे, तब इसमें कुछ आश्चर्य नहीं कि अाजकलके पुरातत्त्ववेत्ता, जैन इमारतोंके निर्माणका यश कभी कभी बौद्धोंको दे देते हों। मेरा विश्वास है कि सर अलेक्जेण्डर कनिंघमने यह कभी नहीं जाना कि जैनोंने भी बौद्धोंके समान स्वभावतः
२३४