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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
डोलते थे जीवनके अर्थ, किन्तु असफल होते थे व्यर्थ ! तुम्हारा मानव करूणा-स्रोतसुकोमल-ममता अोनप्रोतन सह पाया यह त्रास महान, महामनु-वंशज का अपमानहो उठा पाहत-सा कटि-बद्ध, प्रतिज्ञा-बद्ध, वज्र-संकल्प, विश्व-कल्याण-भावना साथ ! तुम्हारा ही वह पौरूष धन्य ! तुम्हारा ही वह साहस धन्य !! कि स्थापित करा दिए सर्वत्र बड़े-छोटे अनेक वे स्थान
जहां विद्या करती है हास
संस्कृति करती समुद विलास; जहां की पावन रज में लोट दुध मुहे शिशु भोले नादान शनैः बनते सक्वेिक जवान ;
और यौवन-मय नारी-प्राण-- तरूण पाकर विद्याका दान सहज ही बन जाते विद्वान् , सीख जाते संस्कृतिका ज्ञान-- कि कैसे लायी जा सकती कठिन सूनी घड़ियों में भी मनोहर मन्द मन्द मुस्कान ! किया जा सकता है कैसे सुखी जीवनका शुभ अाह्वान !!
और लाया जा सकता है अनिशि में भी स्वर्ण-विहान !!!
श्रीस