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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ लिया है क्योंकि धवलामें इसके साथ जो एक दूसरा श्लोक उद्धत है उसे भी उसी क्रमसे तिलोयपण्णत्तिकारने अपना लिया है। इससे भी यही प्रतीत होता है कि तिलोयपण्णत्तिकी रचना धवलाके बाद हुई है। (४) "धवला द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वारके पृष्ठ ३६ में तिलोयपण्णत्तिका 'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगोत्ति' । गाथांश उद्धृत किया है। वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें इसकी पर्याप्त खोज की, किंतु उसमें वह नहीं मिला । हां, “चंदाइच्च गहेहिं...इत्यादि' गाथा स्पर्शानुयोगद्वारमें उद्धृत है ! किन्तु वहां यह नहीं बतलाया कि यह कहां की है। मालूम पड़ता है कि उक्त गथांश इसीका परिवर्तित रूप है। वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें इसका न पाया जाना यह सिद्ध करता है कि यह तिलोयपण्णत्ति उससे भिन्न है।" (५) तिलोयपण्णत्तिमें यत्र तत्र गद्यभाग भी पाया जाता है। इसका बहुत कुछ अंश धवलामें आये हुए इस विषयके गद्य भागसे मिलता हुआ है। अतः यह शंका होना स्वाभाविक है कि इस गद्यभागका पूर्ववर्ती लेखक कौन रहा होगा । इस शंकाके दूर करनेके लिए 'एसा तप्पाअोग्गसंखेज्जरूवाहिय जंबूदोवछेदणयसहिद दीवसायररूपमेत्त रज्जुच्छेदपमाण परिक्खाविही ण अण्णाइरिअोवएस परंपराणुसारिणो केवलं तु तिलोयपण्णत्ति सुत्ताणुसारि जोदिसियदेव भागहार पदुप्पाहद-सुत्तावलंबिजुत्तिबलेण पयदगच्छसाहणट्टमम्हेहि परूविदा ।' गद्यांशसे बड़ी सहायता मिलती है। यह गद्यांश धवला स्पर्शानुयोगद्वार पृ० १५७ का है। तिलोयपण्णत्तीमें यह इसी प्रकार पाया जाता है। अन्तर केवल इतना है कि वहां 'अम्हेहि' के स्थानमें 'ऐसापरूवणा' पाठ है। पर विचार करनेसे यह पाठ अशुद्ध प्रतोत हाता है; क्योंकि ऐसा पद गद्यके प्रारम्भमें ही पाया है अतः पुनः उसी पदके देनेको आवश्यकता नहीं रहती। तथा 'परिक्खाविही' यह पद विशेष्य है; अतः 'परूवणा' पद भी निष्फल हो जाता है । ( गद्यांशका भाव देनेके अनन्तर ) "इस गद्यभागसे यह स्पष्ट हो जाता है कि उक्त गद्यभागमें एक राजुके जितने अर्धछेद बतलाये हैं वे तिलोयपण्णत्तिमें नहीं बतलाये गये हैं किन्तु तिलोयपण्णत्तिमें जो ज्योतिषीदेवोंके भागहारका कथन करने वाला सूत्र है उसके बलसे सिद्ध किये गये हैं । अब यदि यह गद्यभाग तिलोयपण्णत्तिका होता तो उसोमें 'तिलोयपण्णत्तिसुत्तानुसारि' पद देनेकी और उसीके किसो एक सूत्रके बलपर राजुकी चालू मान्यतासे संख्यात अधिक अर्धछेद सिद्ध करनेकी क्या आवश्यकता थी। इससे यह स्पष्ट मालूम होता है कि यह गद्यभाग धवलासे तिलोयपण्णत्तिमें लिया गया है । नहीं तो वीरसेनस्वामी जोर देकर 'हमने यह परीक्षाविधि कही है' यह न कहते । कोई भा मनुष्य अपनी युक्तिको ही अपनी कहता है । उक्त गद्यभागमें आया हुआ 'अम्हेहि' पद साफ बतला रहा है कि यह युक्ति वीरसेनस्वामीकी है। इस प्रकार इस गद्यभागसे भी यही सिद्ध होता है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्ति की रचना धवलाके अनन्तर हुई है। इन पांचों प्रमाणोंको देकर कहा गया है-"धवलाकी समाप्ति चूंकि शक संवत् ७३८ में ३४१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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