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________________ धो-अभिनन्दन-ग्रन्थं हुई थी इसलिए वर्तमान तिलोयपण्णत्ति उससे पहलेकी बनी हुई नहीं है और चूंकि त्रिलोकसार इसी सिलोयपण्णत्तिके अाधारपर बना हुआ है और उसके रचयिता सि० चक्रवर्ती नेमिचन्द्र शक संवत् ९०० के लगभग हुए हैं, इसलिए ग्रन्थ शक सं० ९०० के बादका बना हुश्रा नहीं है फलतः इस तिलोयपण्णतिकी रचना शक सं० ७३८ से लेकर ९०० के मध्यमें हुई है । अतः इसके कर्ता यतिवृषभ किसी भी हालतमें नहीं हो सकते । इसके रचयिता संभवतः वीरसेनके शिष्य जिनसेन हैं-वे ही होने चाहिये, क्योंकि एक तो वीरसेन स्वामीके साहित्यकार्यसे ये अच्छी तरह परिचित थे। तथा उनके शेष कार्यको इन्होंने पूरा भी किया है । संभव है उन शेष कार्योंमें उस समयकी आवश्यकतानुसार तिलोयपण्णत्तिका संकलन भी एक कार्य हो । दूसरे वीरसेन स्वामीने प्राचीन साहित्य के संकलन, संशोधन और सम्पादनकी जो दिशा निश्चित की थी वर्तमान तिलोयपण्णत्तिका संकलन भी उसीके अनुसार हुआ है । तथा सम्पादनकी इस दिशासे परिचित जिनसेन ही थे । इसके सिवाय, 'जयधवलाके जिस भागके लेखक आचार्य जिनसेन हैं उसकी एक गाथा ('पणमह जिणवरवसह' नामकी) कुछ परिवर्तनके साथ तिलोयपण्णत्तिके अन्तमें पायी जाती है। इससे तथा उक्त गद्यमें 'अम्हेहि पदके न होनेके कारण वीरसेनस्वामी वर्तमान तिलोयपण्णतिके कर्ता मालूम नहीं होते । उनके सामने जो तिलोयपण्णत्ति थी वह संभवतः यतिवृषभ श्राचार्यकी रही होगी।' 'वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके अन्तमें पायी जाने वाली उक्त गाथा ('पणमह जिणवरवसहं') में जो मौलिक परिवर्तन दिखायी देता है वह कुछ अर्थ अवश्य रखता है । और उस परसे, सुझाये हुए 'अरिसवसहं' पाठके अनुसार, यह अनुमानित होता; एवं सूचना मिलती है कि वर्तमान तिलोयपण्णत्तिके पहले एक दूसरी तिलोयपण्णत्ति आर्ष ग्रन्थके रूपमें थी, जिसके कर्ता यतिवृषभ स्थविर थे और उसे देखकर इस तिलोयपण्णत्तिकी रचना की गयी है।' उक्त प्रमाणोंकी परीक्षा (१) प्रथम प्रमाणकी भूमिकासे इतना ही फलित होता है कि 'वर्तमान तिलोयपण्णत्ती वीरसेन स्वामीसे बादकी बनी हुई है और उस तिलोयपण्णत्तीसे भिन्न है जो वीरसेनस्वामी के सामने मौजूद थी; क्योंकि इसमें लोकके उत्तर दक्षिणमें सर्वत्र सातराजुकी उस मान्यताको अपनाया गया है और उसीका अनुसरण करते हुए घनफलोंको निकाला गया है जिसके संस्थापक वीरसेन हैं । वीरसेन इस मान्यताके संस्थापक इसलिए हैं कि उनसे पहले इस मान्यताका कोई अस्तित्व नहीं था, उनके समय तक सभी जैनाचार्य ३४३ धनराजुवाले उपमालोक (प्रमाणलोक ) से पांच द्रव्योंके अाधारभूत लोकको भिन्न मानते थे । यदि वर्तमान तिलोयपण्णत्ती वीरसेनके सामने मौजूद होती अयवा जो तिलोयपण्णत्ती वीरसेनके सामने मौजूद थी उसमें उक्त मान्यताका कोई उल्लेख अथवा संसूचन होता तो यह ३४२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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