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________________ तिलोयपण्णत्ती और यतिवृषभ श्रसम्भव था कि वीरसेनस्वामी उसका प्रमाणरूपमें उल्लेख न करते। उल्लेख न करनेसे ही दोनोंका अभाव जाना जाता है ।' अब देखना यह है कि क्या वीरसेन सचमुच ही उक्त मान्यताके संस्थापक हैं और उन्होंने कहीं अपनेको उसका संस्थापक या आविष्कारक कहा है ? धवला टीकाके उल्लिखित स्थलको देख जानेसे वैसा कुछ भी प्रतीत नहीं होता। वहां वीरसेनने क्षेत्रानुगम अनुयोगद्वारके 'श्रोघेण मिच्छा दिट्ठी केवड़िखेत्ते, सव्वलोगे' इस द्वितीय सूत्रमें स्थित 'लोगे' पदकी व्याख्या करते हुए बतलाया है कि यहांके 'लोग' से सात राजुका घनरूप ( ३४३ घनराजु प्रमाण ) लोक ग्रहण करना चाहिये; क्योंकि यहां क्षेत्र प्रमाणाधिकारमें पल्य, सागर, सूच्यंगुल, प्रतरांगुल, घनांगुल, जगश्रेणी, लोकप्रतर और लोक ऐसे आठ प्रमाण क्रमसे माने गये हैं । इससे यहां प्रमाणलोकका ही ग्रहण हैजो कि सातराजु प्रमाण जगश्रेणीके घनरूप होता है। इसपर किसीने शंका की कि यदि ऐसा लोक ग्रहण किया जाता है तो फिर · पांच द्रव्योंके अाधारभूत श्राकाशका ग्रहण नहीं बनता; क्योंकि उसमें सातराजुके घनरूप क्षेत्रका अभाव है । यदि उसका क्षेत्र भी सातराजुके घनरूप माना जाता है तो 'हेट्रा मज्झ उवरि' 'लोगो अकट्टिमो खल' और 'लोयस्स विक्खंभो चउप्पयारो' ये तीन सूत्र गाथाएं अप्रमाणताको प्राप्त होती हैं । इस शंकाका परिहार ( समाधान ) करते हुए वीरसेनस्वामीने पुनः बतलाया है कि यहां 'लोगे' पदमें पंचद्रव्योंके श्राधाररूप श्राकाशका ही ग्रहण है. अन्यका नहीं। क्योंकि 'लोगपूरणगदो केवली केवडिखेते, सव्व लोगे' [ लोकपूरण समुद्घातको प्राप्त केवली कितने क्षेत्रमें रहता है ? सर्वलोकमें रहता है ] ऐसा सूत्रवचन पाया जाता है। यदि लोक सातराजुके घनप्रमाण नहीं है तो यह कहना चाहिये कि लोकपूरण-समुद्घातको प्राप्त हुआ केवली लोकके संख्यातवें भागमें रहता है । और शंकाकार जिनका अनुयायी है उन दूसरे प्राचार्यों के द्वारा प्ररूपित मृदंगाकार लोकको प्रमाणको दृष्टिसे लोकपूरण-समुदघात-गत केवलीका लोकके संख्यातवें भागमें रहना प्रसिद्ध भी नहीं है; क्योंकि गणना करने पर मृदंगाकार लोकका प्रमाण घनलोकके संख्यातवें भाग हा उपलब्ध होता है। इसके अनन्तर गणित द्वारा घनलोकके संख्यातवें भागको सिद्ध घोषित करके, वीरसेन स्वामीने इतना और बतलाया है कि 'इस पंचद्रव्योंके अाधाररूप अाकाशसे अतिरिक्त दूसरा सात . राजु घनप्रमाण लोक-संज्ञक कोई क्षेत्र नहीं है, जिससे प्रमाण लोक [ उपमालोक ] छह द्रव्योंके समुदयरूपलोकसे भिन्न होवे । और न लोकाकाश तथा अलोकाकाश दोनोंमें स्थित सातराजु घनमात्र श्राकाशप्रदेशोंकी प्रमाणरूपसे स्वीकृत घनलोक संज्ञा है। ऐसी संज्ञा स्वीकार करने पर लोक संज्ञाके यादृच्छिकपनेका प्रसंग आता है और तब संपूर्ण आकाश, जगश्रेणी, जगप्रतर और घनलोक जैसी संज्ञाओंके यादृच्छिकपनेका प्रसंग उपस्थित होगा। [ इससे सारी व्ववस्था ही बिगड़ जाय गी।] इसके सिवाय, प्रमाणलोक और षद्रव्योंके समुदायरूपलोकको भिन्न मानने पर प्रतरगत केवलीके क्षेत्रका ३४३
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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