SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 391
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ बाद ही जमे थे । इस समय तक दोनों ही जैन सम्प्रदायोंमें नाना गच्छ और संघ हो गये थे । श्रमण लोग मठों और उपाश्रयोंमें रहने लगे थे। जैन जनता में ब्राह्मणोंकी रूढ़िवादता घर कर गयी थी। फलतः जैनियोंने भी मुसलमानोंको अपने धर्म में दीक्षित करना बन्द कर दिया। उन्हें अपने धर्मायतनों और साधर्मियोंकी रक्षा करनेकी ही फिक्र थी। इसलिए मसलमानोंको 'म्लेच्छ' कहकर उनके सम्पर्कमें हिन्दुओं को नहीं आने दिया गया । किन्तु ज्योंही मुसलमान यहांके शासनाधिकारी हुए और शान्ति स्थापित हुई, त्योंही जैनाचार्यों और साधुओंने उनपर अपना प्रभाव डालनेका प्रयत्न किया। मुसलिम युग सुल्तान मुहम्मद गोरीके सम्बन्धमें कहा जाता है कि उन्होंने अपनी बेगमके आग्रहसे एक दिगम्बर जैन साधुको बुलाकर अपने दरबारमें सम्मानित किया था। कर्णाटक देशसे श्री महासेन श्राचार्य बुलाये गये थे जिन्होंने अलाउद्दीनके दरबारमें परवादियोंका मद चूर करके जैननधर्मका सिक्का जमाया था । दिल्लीके सेठ पूर्णचन्द्र सुलतान अलाउद्दीनके कृपापात्रोंमें थे। वह दिल्लीसे एक जैनसंघ श्री गिरिनार तीर्थकी वन्दनाको ले जानेमें समर्थ हुये थे । गुजरात विजयके समय सुलतानका समागम दि. जैन साधु श्रुतवीर स्वामीसे हुआ था । उन्होंने श्वेताम्बर जैन आचार्य रामचन्द्र सूरिका भी सम्मान किया था" । गुजरातके शासक अलपखांके द्वारा श्रोसवाल जैनी समरसिंह सम्मानित हुये थे । इस समय वैयक्तिक प्रभावों द्वारा ही जैनधर्मको प्रतिष्ठा थी । जैनियोंकी संख्या करोड़ोंमें थी वे अपने ज्ञान, सदाचार और सम्पत्तिके कारण सर्वत्र सम्माननीय थे । गयासुद्दीन तुगलकके मन्त्री होनेका गौरव प्राग्ग्राट कुलके दो जैनी भाइयों सूर और वीरको प्राप्त था। बादशाह मुहम्मद तुगलकको कर्णाटक देशके दिगम्बर जैनाचार्य सिंहकीर्तिने प्रभावित किया था । तुगलक वंशके सम्राट् फीरोजशाहने भी एक दिगम्बर जैन आचार्यको निमंत्रित किया था। यह प्राचार्य एक खंडवस्त्र धारण करके राजमहलमें भी गये थे और बेगमको धर्मोपदेश दिया था। राजमहलसे वापस श्राकर उन्होंने वस्त्र उतार दिया था और १. इंडियन ऐंटीक्वायरी, भा० २१ पृ० ३६१ । २. जेनसिद्धान्त भास्कर भा० १ कि० ४ पृ० १०९ व भा० ५ पृ० १३८ । ३. जनहितैषी, भा० १५ पृ० १३२ । ४. जैन सिद्धान्त भास्कर, भा० ३ पृ ३५ व भा०५ पृ४ १३९ । 4. Der Jainisms, p. 66. ६. पुरात्तव ( अहमदाबाद ) पुरतक ४ अंक ३-४ पृ० २७७-२७९ । ७. कर्णाटक हिस्टोरीकल रिव्यू, भा० ४ पृष्ठ ८६ फुटनोंट । ८, कर्णाटक हिस्टो० रिब्यू०, भा० पृय ८५ । ३०४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy