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________________ श्रस्ति नास्तिवाद परक्षेत्र ( दूसरे स्थान या आधार ) की अपेक्षा निषेध दृष्टि कार्यकारी है। जैसे उपरिलिखित दृष्टान्त में एथेन शतक्रतुका स्वक्षेत्र है और रोम परक्षेत्र है । काल इसी प्रकार एक ही सत् वस्तुको लेकर कालकी अपेक्षा दो परस्पर विरोधी दृष्टियां हो सकती हैं । कोई भी ऐतिहासिक घटना अपने समयकी अपेक्षा सत्य होगी । यदि कोई कहे खारवेल १९ वीं शती में लिंगका राजा था तो यह कथन इतिहास विरुद्ध होगा, कारण, खारवेल १९ वीं शतीमें नहीं हुआ है 1 . इसी प्रकार यदि कोई कहे शतक्रतु दार्शनिक ४ थी शती में ग्रीस में हुआ था तो यह असत्य कथन होगा | वह ईसाकी ४ थी शतीमें नहीं हुआ यह निषेधात्मक कथन उतना ही प्रामाणिक होगा जितना कि वह ईसा पूर्व ४ थी शती में हुआ था यह विध्यात्मक कथन सत्य है । इस प्रकार के दृष्टि भेदके कारणको शास्त्र में निश्चित शब्द 'काल' द्वारा स्पष्ट किया है । कोई भी ऐतिहासिक तथ्य 'स्वकाल' की अपेक्षा विध्यात्मक दृष्टिका विषय होता है और 'परकाल' की अपेक्षा निषेध पक्ष में पड़ जाता है । भाव यही वस्था किसी भी सत् वस्तुके आकार ( भाव ) की है; अपने आकार विशेषके कारण उसे है या नहीं कहा जा सकता हैं। जलके कथन के समय आप उसे द्रव या घन रूपसे ही कह सकते हैं । हिम जलका घन रूप है । यदि कोई हिमके रूपमें जलको कहना चाहता है तो उसे यही कहना होगा कि 'स्वभाव' की अपेक्षा जल घन है । किन्तु यदि उसे तपाया जाय तो उसका आकार (भाव) बदलकर तरल हो जायगा । तब कहना पड़ेगा कि हिम न द्रव है और न भाप है । स्वभावकी अपेक्षा पदार्थका कथन विधि रूपसे होता है और परभावकी अपेक्षा उसका ही वर्णन निषेधमय होता है । कहा ही जाता है कि हिम न द्रव है, न वाष्प है और न कुहरा है क्योंकि वक्ताका उद्देश्य जलके घनरूपसे ही है । व्याख्या ये चारों दृष्टियां अस्तिनास्तिवादके मूल आधार हैं। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल तथा स्वभावकी अपेक्षा किसी भी पदार्थका विधि रूपसे कथन किया जाता है । तथा वही वस्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव की अपेक्षा पूर्ण प्रामाणिकता पूर्वक निषेध रूपसे कही जाती है । जब स्थिति को इस प्रकार समझा जाता है तो स्पष्ट हो जाता है कि क्यों एक ही पदार्थ के विषयमें विधिदृष्टि सत्य होती है तथा उसी प्रकार निषेध दृष्टि भी कार्यकारी होती है । इसमें न भ्रान्तिकी सम्भावना है और न तत्त्वज्ञान सम्बन्धी कोई रहस्यमय गुत्थी ही सुलझानेका प्रश्न उठता है। हम सहज ही कह सकते हैं कि यह ज्ञानप्रणाली इतनी सर्व- श्राचरित होकर भी न जाने क्यों बड़े बड़े विचारकोंको भली भांति समझमें नहीं आयी और इसमें उन्हें अनिश्चय तथा भ्रान्ति दिखे । यह सत्य है कि यह सिद्धान्त वास्तविक पदार्थों के ज्ञानमें ही साधक है ५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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