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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ लिए यदि विशेषज्ञ चौकीके किसी कोनेको खरोंच देगा तो स्पष्ट हो जायगा कि चौकी किसी साधारण लकड़ीकी है । तब ग्राहकको विशेषज्ञसे अपने प्रश्नका ठीक उत्तर मिल जायगा कि चौकी अामकी साधारण लकड़ीसे बनी है ! इस प्रकार एक ही चौकीके विषयमें दो कथन-एक निषेधात्मक (गुलाबकी लकड़ीकी नहीं है ) और दूसरा विध्यात्मक ( अामकी लकड़ीकी है )-सर्वथा न्याय्य और सत्य है । अर्थात् जब हम जानना चाहें 'क्या यह चौकी वास्तवमें गुलाबकी है ?' तो 'नहीं' उत्तर सत्य है, तथा वास्तव में किस लकड़ीकी बनी है ? इसका उत्तर चाहें तब 'श्रामकी हैं' सत्य है । अतः कह सकते हैं कि निषेधात्मक दृष्टिका उदय तब ही होता है जब वस्तुमें परकी अपेक्षासे कथन होता है । वास्तवमें लकड़ी तो आमकी है किन्तु जिसकी अपेक्षा नहीं कहा गया है वह गुलाबकी लकड़ी चौकोसे पर (अन्य ) है। इसी स्थितिको जैनाचार्योंने निश्चित शब्दावलि द्वारा व्यक्त किया है। स्व और पर ___ दो विरोधी दृष्टियोंमें 'स्वद्रव्य' यानी अपनेपनकी अपेक्षा विधिदृष्टि न्याय्य है तथा 'पर द्रव्य' यानी दूसरेपनको लेकर निषेधदृष्टि भी सत्य है । इसके अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं- हमारे पास शुद्ध सोने का गहना है । प्रश्न होता हैं 'गहना किस वस्तुका है ? ठीक उत्तर होगा 'सोने का' । यदि यही गहना अशुद्ध सोनेका होता तो उत्तर होता 'नहीं, यह सोने का नहीं है। यहां पर भी स्वद्रव्य-शुद्ध सोने-की अपेक्षा विधिदृष्टि है, पर द्रव्य नकली सोने-की अपेक्षा निषेधदृष्टि है। इसी प्रकार जब आप जानना चाहते हैं कि आपकी गाय गौशालामें है या नहीं। नौकरसे पूंछा; गाय कहां है ? यदि गाय गौशालामें हुई तो, उसका उत्तर विधिरूप होगा । यदि ऐसा न हुअा तो निषेधरूप होगा वह उत्तर दे गा गौशालामें गाय नहीं है। यदि ग्वाला उसे चराने ले गया होगा तो गौशालाकी अपेक्षा निषेधात्मक दृष्टि ही सत्य होगी। किन्तु यदि जिज्ञासा हो कि क्या गाय हार ( मैदान) में है ? तो उत्तर विधिरूप ही होगा; क्योंकि गाय हारमें चर रही है और गोशालामें बंधी नहीं है। इस प्रकार किसी भी वस्तुके दृष्टान्त दिये जा सकते हैं। हम किसी पुस्तकको खोजते हैं, वह पुस्तकोंकी पेटीमें नहीं है तब हमें यही कहना होगा “पुस्तक पेटीमें नहीं है।" और यदि पेटीमें हो तो "हां, है" यही उत्तर होगा। क्षेत्र ऐतिहासिक घटनाओंकी सत्य प्रामाणिकता अपने स्थानकी अपेक्षा होती है। जैसे शतक्रतु (Socrates ) एथेनियन दार्शनिक था। यह विध्यात्मिक दृष्टि सत्य है क्योंकि इतिहास प्रसिद्ध दार्शनिक शतक्रतु एथेनमें रहता था। किन्तु यदि कोई अन्वेषक कहे 'शतक्रतु रोमन दार्शनिक था' तो यह वाक्य असत्य होगा क्योंकि शतक्रतुका रोमसे कभी कोई सम्बन्ध नहीं रहा है। इसके लिए ही निश्चित शास्त्रीय शब्द 'क्षेत्र' है । किसी सत् वस्तुके विषयमें कोई विशेष दृष्टि 'स्वक्षेत्र' (अपने स्थान ) की अपेक्षा सत्य है और
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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