SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 526
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ धवलादि सिद्धान्तग्रंथोंका संक्षिप्त परिचय शिमोगा के एक शिलालेख से ज्ञात होता है कि उक्त बन्निकेरे चैत्यालयका निर्माण शक सं० १३०५ में हुआ है । ताडपत्र ग्रंथ सं ० १ धवलाको देमियक्कने जिन्नपसेठीसे लिखवाकर शास्त्र दान किया था । इसका श्र. बे. शिलालेख सं० ४६ (१२९ ) में सविस्तर वर्णन है । उसमें उनका नाम देमति, देवमति, देमियक इत्यादि दिया है। उन्हें शुभचन्द्रदेवकी शिष्या तथा श्रेष्ठिराज चांमुंडरायकी पत्नी लिखा है । उनकी धर्मानुबुद्धिकी खूब प्रशंसा की है । उक्त देमियक्का का स्वर्गवास शक. सं० १०४२ विकारि संवत्सर फाल्गुन कृष्ण ११ को हुआ था । अतएव पता चलता है कि धवला सं० १ प्रतिको लिखवाकर मिक्कने अपने स्वर्गवासके पूर्व अर्थात् शक १०३७ और १०४२ के बीच में शुभचन्द्रदेवको अर्पण किया होगा | अब तक उसे करीब ८२७ वर्ष हुए हैं। अन्तिम तीन 'बंद' पद्योंमें लिखा है कि कोपल नामके प्रसिद्ध निर्त्यवे पुर में जिन्न पसेठी नामका एक श्रावक रहता था। वह दानशूरं एवं समस्त लेखक वर्ग में या विद्वानों में अत्यंत चतुर और जिनभक्त था । इत्यादि विशेषणोंसे उसकी प्रशंसा की है। इतना ही नहीं तीसरे पद्य में उसके सुन्दर अक्षरोंका वर्णन करते हुए लिखा है कि उसकी अक्षर पंक्ति ऐसी प्रतीत होती है मानो समुद्रमें स्थित मोतियों को निकालकर उन्हें छेद करके सरस्वती देवीके कंठका अलंकार हार ही गूंथा हो । सचमुच में इस प्रतिके अक्षर मोती के समान अत्यंत सुंदर हैं । उपरोक्त प्रशंस्ति-पद्योंका संग्रह यहां श्रावश्यक नहीं है । धवलाकी दूसरी प्रति इसकी अंतिम प्रशस्तिसे ज्ञात होता है कि, इसे राजा गंडरादित्यदेवके पडेवल अर्थात् सेनापति मल्लिदेव ने लिखवाकर कुलभूषण मुनिको अर्पण किया था। वे कुलभूषणमुनि आचार्य पद्मनंदिके शिष्य थे । मूल संघ में कुंदकुंदाचार्यकी परंपरामें हुए थे । उक्त मल्लिदेवकी प्रशंसा में कई पद्य हैं। 'सुजन चूडामणि' रत्नत्रयभूषण' आदि विशेषणों से उनका स्मरण किया है । उक्त पद्योंमें से कुछ पद्य निम्न प्रकार हैं गुणनिधि-मल्लिनाथ-डे वल्लननिंदित, कुंदकुंद-भूषण कुलभूषणोद्ध-मुनिपंगे जिनागम तत्र सत्प्ररूपणमेनिसिर्दुदं धवलेयं परमागममं जिनेश्वरप्रणुत मनोल्पिनि बरेयिसित्तनिदं कृतकृत्य नादनो ॥ सेनानिर्मल्लिनाथाख्यो विश्रुत्या विश्वभूतले । गंडरादित्यदेवस्य मंत्री मंत्रिगुणान्वितः ॥ धवलाकी तीसरी प्रतिमें प्रशस्ति नहीं है, तो भी समकालीन अक्षरोंसे जान पड़ता है कि पूर्वोक् दोनों प्रतियां लगभग ८०० वर्ष पहले की हैं । ४३९
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy