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________________ मानवजीवनमें जैनाचारकी उपयोगिता रिश्ता था तो केवल एक, नर-और नारीका, और वह भी जन्मजात । संतान उत्पन्न होते ही माता पिता स्वर्गस्थ हो जाते और वह बालक-बालिका या युगल विना माताके स्तन-पानके केवल अपने हाथ या पैरका अंगूठा चूसते चूसते ही बाल्यकाल समाप्त कर युवावस्था सम्पन्न हो जाते थे । न उसे पालक ही जरूरत होती न और कोई उसे पालने की चिन्ता करता था । युवा होनेपर दोनों पति पत्नीके रूपमें रहने लगते थे । तब वैवाहिक पद्धति नहीं थी। इस तरह उस युगमें न सामाजिक जीवन था और न सामाजिक समस्याएं ही थीं। सब सुख पूर्वक जीवन यापन करते थे। इसीसे इस युगको भोग भूमि कहते थे । भोग-भूमिसे कर्म-भूमि कालको गति विचित्र है । उसका चक्र सदा घूमता रहता है। वह किसोको भी स्थिर नहीं रहने देता। उक्त भोग भूमिका क्रम भो धीरे धीरे बदलने लगा। मनुष्यको इच्छाएं बढ़ने लगीं । उसमें सञ्चयशीलताके भाव आने लगे । प्रकृति भो अपनो असंख्य अनुपम विभूतिमें न्यूनता करने लगी। मनुष्यकी उदारताके साथ ही साथ प्रकृतिकी उदारता भी घटने लगो। अब वृक्षोंसे उतने पदार्थ नहीं मिल पाते थे जो मनुष्यकी सञ्चयशीलताकी वृत्तिका निर्वाह करते हुए भी जन साधारणको आवश्यकता की भी पूर्ति कर सके । फलतः परस्परमें झगड़े होने लगे । तब क्रमशः चौदह 'कुलकर' या 'मनु' पैदा हुए । समय समयपर उत्पन्न हुई समस्याओंका निराकरण करके ये महापुरुष जनताका मार्गप्रदर्शन करते थे अतः कुलकर कहे जाते हैं। __ जब वृक्षोंको लेकर झगड़ा होने लगा तो पांचवे कुलकरने वृक्षोंकी सीमा निर्धारित कर दी। जव सीमापर भी झगड़ा होने लगा तो छठे कुलकरने सीमाके स्थानपर चिन्ह बनाना प्रारम्भ किया । तब तक पशुअोंसे काम लेना कोई नहीं जानता था और न उसकी आवश्यकता ही प्रतीत थी। किन्तु अब अावश्यक होनेपर सातवें कुलकरने घोड़े वगैरहपर चढ़ना सिखाया। पहले माता-पिता सन्तानको जन्म देकर मर जाते थे किन्तु जब ऐसा होना बन्द हो गया तो आगेके कुलकरोंने जनताको बच्चोंके लालन पालन आदिकी शिक्षा दी। पहले इधर उधर जानेका काम न होनेसे कोई नदी पार करना नहीं जानता था । अतः बारहवें कुलकरने पुल, नाव, अादिके द्वारा नदी पार करना सिखाया । पहले कोई अपराध ही नहीं करता था, अतः दण्डनायक और दण्डव्यवस्थाकी भी आवश्यकता नहीं थी। किन्तु जब मनुष्योंमें सञ्चय वृत्ति और लालचने अपना स्थान जमा लिया और उनकी आवश्यकता पूर्तिमें बाधा पड़ने लगी तो मनुष्योंमें अपराध करनेकी प्रवृत्ति भी शुरू हो गयी । अतः दण्डनायक और दण्डव्यवस्थाकी आवश्यकता हुई । पहले केवल 'हा' कह देनेसे ही अपराधी लज्जित हो जाता था । जब उससे काम नहीं चला तो 'हा' ! अब ऐसा काम मत करन।' इतना दण्ड रखा गया। किन्तु जब उससे भी काम नहीं चला तो उसमें 'धिक्कार' शब्द और जोड़ा गया। १०७
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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