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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
"तहो रज करत हो जणुपालंत हो मंत महलि हिं परियरिउ । एत्तहिं राय उरहो धणकण पउरहो संपत्तउ कउलायरिउ ॥ तहिं जगह भयाउलु अलिय रासि भइरउ अहिं हाणि सव्वगासि । तहि भमहि भिक्खयरू देइ सिक्ख अणुगयहं जराहं कुलमग्ग दिक्ख । बहुसिक्ख हिंस हियउ डंभधारि, घरि घरि हिंडइ हुंकार कारि । सिरि टोप्पी दिगण खरण वरण सा झंपवि संठिय दोरिण करण । अगुल दुतीस परिमाण दंडु हत्थे उप्फालिवि रहई चंडु। गलि जोगवट्ट सजिउ विचित्तु पाउडिय जुम्भु पइ दिराणु दित्तु । तड तड तड तड तडिय सिंगु सिंगग्गु छेवि किउ तेण चंगु । अप्पि अप्पहो माहप्पु दप्पु अणउंछिउ जंपई थुणइ अप्पु । मह पुरउ पसप्पिय जयचयारि हर जरइ ण घिप्पमि कप्प धारि। णल णहुस वेणु मंधाय जेवि महि भुंजिवि अवरई गयई ते वि। मई दिह्र रामरावण भिडंत संगामरगि णिसियर पडत । मई दिछ जुहिट्ठिलु वंधुसहिउ दुज्जोहणु ण करइ विण्हु कहिउ । हउँचिरजीविउ माकरहु भंत्ति हउ सयलहं लोयहं करमि संति । हउ थंभिभि रविहि विभाणुजंतु चंदस्स जोण्ह छायमि तुरंतु । सव्वउ विजउ महु विप्फुरंति बहु तंत मंत अग्गइ सरंति । जोइसरु मणि तुट्ठउ चिंतइ दुठ्ठउ इंदिय सुहु महु पुज्जइ । जं जं उद्देसमि तं भुजेसमि आरासहु संपजइ । ता चवइ जोइ महु सयलु रिद्धि विप्फुरइ खणंतरि विजसिद्धि । हउं हरण करण कारण समत्थु हरं पयडु धरावलि गुण पसत्थु । जं जं तुहुँ मग्गति किं पि वत्थु तं तं हां देमि महा पयत्थु ॥"
गन्धर्व तथा राजशेखरके उद्धरणोंकी सूक्ष्म समीक्षा द्वारा मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि साक्षात् अथवा परम्परया प्रथम विद्वान् द्वितीयके ऋणी हैं । 'कर्पूरमञ्जरी' में आये 'भैरव' तथा 'जोइसरु' शब्दोंका प्रयोग 'जसहर चरिऊ' में भी हुआ है । अन्तर इतना है कि प्रथममें 'भैरवानन्द' पद है। दोनों वर्णनोंमें कौलाचार्य के अधिकांश गुण समान हैं तथा 'सूर्यको मध्य अाकाशमें रोक दूर कथनका तो शब्द-विन्यास भी समान है।
बहुत संभव है कि कौलधर्म तथा कौलाचार्य के उपर्यल्लिखित वर्णनों तथा उल्लेखोंको धार्मिक पक्षपातने कुछ अतिरंजित किया हो, तथापि राजशेखर तथा देवसेनके उद्धरणोंमें तथा उक्त अन्य सामग्रीमें दशमीं शतीमें प्रचलित कौलधर्मका अच्छा चित्र मिलता है जो कि उसके स्थूल ज्ञानके लिए पर्याप्त है ।
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