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________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा वर्णाजीने जाकर वे शरीफे खरीद लिए । लक्ष्मी-वाहनने इसमें अपनी हेठी समझी और अधिक मूल्य देकर शरीफे वापस पानेका प्रयत्न करने लगे । कूजडिनने इस पर उन्हे आड़े हाथों लिया और वर्णीजीको शरीफे दे दिये । उसकी इस निलोभिता और वचनकी दृढ़ता का वर्णीजी पर अच्छा प्रभाव पड़ा और बहुधा उसीके यहांसे शाक सब्जी लेते थे। पर चोर यदि दुनियाको चोर न समझे तो कितने दिन चोरी करेगा ? फलतः स्वयं दुर्बल और भोग लिप्त समाजमें इस बातकी कानाफूसी प्रारम्भ हुई, वर्णाजीके कान में उसकी भनक आयी । सोचा संसार १ तूं तो अनादि कालसे ऐसा ही है, मार्ग तो मैं ही भूल रहा हूं, जो शरीरको सजाने और खिलाने में सुख मानता हूं। यदि ऐसा नहीं तो उत्तम वस्त्र, पाठ रुपया सेरका सुगंधित चमेलीका तेल, बड़े बड़े बाल, आदि विडम्बना क्यों ? और जब स्वप्नमें भी मनमें पापमय प्रवृत्ति नहीं तो यह विडम्बना शतगुणित हो जाती है । प्रतिक्रिया इतनी बढ़ी कि श्रीछेदीलाल के बगीचेमें जाकर श्राजीवन ब्रह्मचर्यका प्रण कर लिया । मोक्षमार्गका पथिक अपने मार्गकी ओर बढ़ा तो लौकिक बुद्धिमानोंने अपनी नेक सलाह दी । वे सब इस व्रतग्रहणके विरुद्ध थीं तथापि वणींजी अडोल रहे । इस व्रत ग्रहण के पश्चात् उनकी वृत्ति कुछ ऐसी अन्तर्मुख हुई कि पतितोंका उद्धार, अन्तर्जातीय विवाह, आदिके विषयमें शास्त्र सम्मत मार्ग पर चलनेका उपदेशादि देना भी उनके मनको संतुष्ट नहीं करता था । यद्यपि इन दिनों भी प्रतिवर्ष वे परचार सभाके अधिवेशनोंमें जाते थे तथा बाबा शीतलप्रसादजीके विधवा विवाह आदि ऐसे प्रस्तावोंका शास्त्रीय आधारसे खण्डन करते थे । बुन्देलखण्डके अच्छे सार्वजनिक आयोजन उनके विना न होते थे । तथापि उनका मन वेचैन था। इन सबमें आत्मशान्ति न थी। व्यक्तिगत कारण से न सही समष्टिगत हितकी भावनासे ही विरोध और विद्वेषको अवसर मिलता था। ऐसे ही समय वीजी बाबा गोकुलचन्द्रजीके साथ कुण्डलपुर (सागर म० प्रा०) गये यहां पर भी बाबाजीने उदासीनाश्रम खोल रखा था। वणींजीने अपने मनोभाव बाबाजीसे कहे और सप्तम 'प्रतिमा' धारण करके पदसे भी अपने आपको वर्णी बना लिया । ज्ञान और त्यागका यह समागम जैन समाजमें अद्भुत था । अब वीजी व्रतियोंके भी गुरु थे । और सामाजिक विरोध तथा विद्वेषसे बचने की अपेक्षा उसमें पड़नेके अवसर अधिक उपस्थित हो सकते थे किन्तु वणींजीकी उदासीनतासे अनुगत विनम्रता ऐसे अवसर सहज ही टाल देती थी। तथा वर्णी होकर भी उनके सार्वजनिक कार्य दिन दूने रात चौगुने बढ़ते जाते थे। "पुण्य तो" लोग कहते हैं “वणोजी न जाने कितना करके चले हैं । ऐसा सातिशय पुण्यात्मा तो देखा ही नहीं।" क्योंकि जब जो चाहा मिला, या जो कह दिया वही हुआ ऐसी अनेक घटनाएं उनके विषयमें सुनी हैं। नैनागिर ऐसे पर्वतीय प्रदेश में उनके कहने के बाद घंटे भरमें ही अकस्मात् अंगूर पहुंच जाना, बड़गैनीके मन्दिरको "प्रतिष्ठाके समय सूखे कुत्रोंका पानीसे भर जाना, आदि ऐसी घटनाएं हैं जिन्हे सुनकर मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाता है। सत्रह
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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