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________________ वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ "काहे को होत अधीरा रे" - जब वर्णी जी उक्त प्रकारसे समाजका सम्मान और पूजा तथा मातुश्री बाईजी के मातृस्नेहका श्रविरोधेन रस ले रहे थे उसी समय बाईजीका एकाएक स्वास्थ्य बिगड़ा | विवेकी वर्गीजीकी आखोंके धागे श्राद्यमिलनसे तब तककी घटनाएं धूम गयीं । और कल्पना आायी प्रकृत्या विवेकी, बुद्धिमान, दयालु तथा व्यवस्था प्रेमी बाईजी शायद अब और मेरे ऊपर अपनी स्नेह छाया नहीं रख सकेंगी। उनका सरल हृदय भर आया और श्रांखें छलछला आयीं, विवेक जागा, 'माता ? तुमने क्या नहीं दिया और किया अपने उत्थानका उपादान तो मुझे ही बनना है। आपके अनन्त फलदायक निमित्त को न भूल सकूंगा तथापि प्रारब्धको टालना भी संभव नहीं ।' फलतः अनन्त मातृ-वियोगके लिए अपनेको प्रस्तुत किया । बाईजीने सर्वस्व त्याग कर समाधिमरण पूर्वक अपनी इहलीला समाप्त की । विवेकी लोकगुरु जी भी रो दिये और अन्तरंग में अनन्तवियोग दुःख छिपाये सागर से अपने परम प्रिय तीर्थक्षेत्र द्रोणगिरिकी ओर चल दिये । पर कहां है शान्ति ? मोटरकी अगली सीटके लिए कहा सुनी क्या हुई; राजर्षिने सवारीका ही त्याग कर दिया । सागर वापस आये तो बाईजीकी "भैया भोजन कर लो" आवाज फिर कानोंमें श्राने सी लगी । सोचा मोहनीय अपना प्रताप दिखा रहा है । फिर क्या है अपने मनको दृढ़ किया ौर अबकी बार पैदल निकल पड़े वास्तविक विरक्तिकी खोज में। फिर क्या था गांव, गांवने बाइजी के लाड़ले से ज्योति पायी । यदि सवारी न त्यागते पैसेवाले भक्त लोग आत्म-सुधारके बहाने उन्हें वायुयान पर लिये फिरते, पर न रहा वांस, न रही वांसुरी । वर्णांजी झोंपड़ी झोंपड़ी में शान्तिका सन्देश देते फिरने लगे और पहुंचे हजारों मील चलकर गिरिराज सम्मेदशिखर के अंचल में । शायद पूजनीया बाईजी जो जीवित रहकेन कर सकती वह उनके मरणने संभव कर दिया। यद्यपि वर्णीजीको यह कहते सुना है "मुझे कुछ स्वदेशका ( स्वजनपद ) अभिमान जग्रत हो गया और वहांके लोगोंके उत्थान करनेकी भावना उठ खड़ी हुई। लोगों के कहने में आकर फिरसे सागर जानेका निश्चय कर लिया। इस पर्याय में हमसे यह महती भूल हुई जिसका प्रायश्चित्त फिर शिखरजी जानेके सिवाय अन्य कुछ नहीं, चक्रमें आ गया । " तथापि श्राज वर्णीजी न व्यक्तिसे बंधे हैं न प्रान्त या समाजसे, उनका विवेक और विरक्तिका उपदेश जलवायु के समान सर्वसाधारण के हिताय है । अठारह
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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