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________________ राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्मश्री डाक्टर अ० स० अल्तेकर, एम० ए०, डी० लिट० दक्षिण और कर्नाटक अब भी जैनधर्मके सुदृढ़ गढ़ हैं । यह कैसे हो सका ? इस प्रश्नका उत्तर देनेके लिए राष्ट्रकूट वंशके इतिहासका पालोचन अनिवार्य है। दक्षिण भारतके इतिहासमें राष्ट्रकूट राज्यकाल ( ल० ७५३-९७३ ई० ) सबसे अधिक समृद्धिका युग था। इस कालमें ही जैनधर्मका भी दक्षिण भारतमें पर्याप्त विस्तार हुआ था । राष्ट्रकूटोंके पतनके बाद ही नये धार्मिक सम्प्रदाय लिङ्गायतोंकी उत्पत्ति तथा तीव्र विस्तारके कारण जैनधर्मको प्रबल धक्का लगा था। राष्ट्रकूट कालमें जैनधर्मका कोई सक्रिय विरोधी सम्प्रदाय नहीं था फलतः वह राज्य-धर्म तथा बहुजन-धर्मके पदपर प्रतिष्ठित था । इस युगमें जैनाचार्योने जैन साहित्यकी असाधारण रूपसे वृद्धि की थी। तथा ऐसा प्रतीत होता है कि वे जनसाधारणको शिक्षित करनेके सत्प्रयत्नमें भी संलग्न थे । वर्णमाला सीखनेके पहिले बालकको श्री 'गणेशायनमः' कण्ठस्थ करा देना वैदिक सम्प्रदायोंमें सुप्रचलित प्रथा है, किन्तु दक्षिण भारतमें अब भी जैननमस्कार, वाक्य 'श्रोम् नमः सिद्धेभ्यः [ोनामासीधं' ]' व्यापक रूपसे चलता है । श्री चि० वि० वैद्यने बताया है कि उक्त प्रचलनका यही तात्पर्य लगाया जा सकता है कि हमारे काल (राष्टकर जैनगुरुओंने देशकी शिक्षा पूर्णरूपसे भाग लेकर इतनी अधिक अपनी छाप जमायी थी कि जैनधर्मका दक्षिणमें संकोच हो जानेके बाद भी वैदिक सम्प्रदायोंके लोग अपने बालकोंको उक्त जैन नमस्कार वाक्य सिखाते ही रहे । यद्यपि इस जैन नमस्कार वाक्य के अजैन मान्यता परक अर्थ भी किये जा सकते हैं तथापि यह सुनिश्चित है कि इसका मूलस्रोत जैन संस्कृति ही थी। इसकी भूमिका राष्ट्रकूट युगमें हुए जैनधर्मके प्रसारकी भूमिका पूर्ववर्ती राज्यकालोंमें भलीभांति तयार हो चुकी थी । कदम्ब वंश (ल० ५ वी ६ ठी शती ई०) के कितने ही राजा जैनधर्मके अनुयायी तथा अभिवर्द्धक १ मध्यभारत तथा उत्तर भारतके दक्षिणी भागमें इस रूपमें अब भी चलता है । २ इण्डियन एण्टीक्वायरी ६-पृ० २२ तथा आगे। "
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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