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वों-अभिनन्दन-ग्रन्थ
येनैतत्समकालमेव रुचिरं भव्यं च काव्यं तथा । साधु श्रीकुशराजकेन सुधिया कीर्तिश्चिरस्थापकम् ॥
उपदेशेन ग्रन्थोऽयं गुणकीर्ति महामुनेः।
कायस्थ पद्मनाभेन चितः पृवसूत्रतः॥ यतः वीरमदेवका समय वि० सं० १४६२ ( ई० सन् १४०५ ) है; क्योंकि उस समय मल्लूइकबालखांने ग्वालियर पर चढ़ाई की थी परन्तु उसे निराश होकर दिल्ली लौटना पड़ा था । अतः यही समय भट्टारक गुणकीर्तिका है, वे विक्रिमकी १५ वीं शतीके अन्तिम चरण तक जीवित रहे हैं।
भ० यशःकीर्ति-यह भट्टारक गुणकीर्तिके शिष्य और लघुभ्राता थे, और उनके बाद पट्टधर हुए थे । यह अपने समयके अच्छे विद्वान् थे । इन्होंने संवत् १४६६ में विबुधश्रीधरका संस्कृत भविष्यदत्त चरित और अपभ्रंश भाषाका सुकमालचरित ये दोनों ग्रन्थ अपने ज्ञाना वरणी कर्मके क्षयार्थ लिखवाये थे । महाकवि रइधूने अपने 'सम्मइजिन चरिउ' की प्रशस्तिमें यशःकीर्तिका निम्न शब्दोंमें उल्लेख किया है
"तह पुणु सु-तव-ताव-तवि यंगो, भय कमल संबोह पयंगो। णिच्चोभासिय पवयण अंगो, वंदिविसिरि जसकित्ति असंगो। तासु पसाए कव्वु पयासमि, आसि विहिउ कलिमलु णिरणासमि।"
"भव्व-कमस-सर-बोह-पयंगो, बंदिवि सिरि जसकित्ति असगो।
सम्मतगुणनिधानकी आदि प्रशस्तिमें निम्नरूपसे स्मरण किया है। भ० यश-कीर्तिने स्वयं अपना 'पाण्डव पुराण' वि० सं० १४६७ में अग्रवालवंशी साहू बील्हाके पुत्र हेमराजकी प्रेरणासे बनाया था, यह पहले हिसारके निवासी थे और बादको देहलीमें रहने लगे थे, और देहली के बादशाह मुबारकशाहके मंत्री थे, वहां इन्होंने एक चैत्यालय भी बनवाया था।
१. हिन्दी टाड-राजस्थान ओझाजी द्वारा सम्पादित पृ० २५१।।
२. “सम्बत् १४८६ वर्षे अश्वणिवदि १३ सोम दिने गोपाचलदुर्गे राजा डुगरसिंहदेव विजयराज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठासंधै माथूरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री भावसेनदेवास्तत्प? श्री सहस्रकीर्तिदेवास्तत्प? श्रीगुणकीर्ति देवास्तशिष्येन श्रीयश कीर्ति देवेन निजज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ इदं सुकमालचरितं लिखापित, कायस्थयाजन पुत्र थललेखनीय ।"
"सम्बत् १४८६ वर्षे आषाणवदि ९ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूगरसी (सिं) ह राज्य प्रवर्तमाने श्री काष्ठारांधे माथुरान्वये पुष्करगणे आचार्य श्री सहस (स्र) कीर्तिदेवास्तत्पटें आचार्य गुण कीर्तिदेवा स्तच्छिष्य श्री यशःकीर्तिदेवास्तेन निजज्ञानायरणी कर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्त पंचमीकथा लिखापितम् ॥
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