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________________ जैनधर्म तथा सम्पत्ति सबसे बड़े निन्दक हैं और अविनयी, अशिष्ट, अादि कहकर दबाना चाहते हैं। क्या यह सब भी भागमानुकूल माध्यस्थ भाव है ? परिमित-परिग्रहके अतिचार व्रतोंके अतिचारोंकी स्पष्ट व्याख्याका श्रेय सूत्रकार उमास्वामी महाराजको है । उनके अनुसार भूमि ( जमींदारी ), वास्तु ( सब प्रकारके मकान ), हिरण्य (परिवर्तन व्यवहारका कारण मुद्रा), सुवर्ण ( सोना चांदी, श्रादि ), धन ( गाय-भैंस ), धान्य ( सब अनाज ), दासीदास ( प्रधानतया घरू तथा खेत, मिलों आदिमें काम करने वाले भी ) तथा कुप्य ( कपड़े, विलास सामग्री ) के पूर्व निश्चित प्रमाणको लोभके कारण बढ़ानेसे परिग्रह परिमाण व्रतमें दोष पाते हैं । जब मर्यादाका उल्लंघन हा तो अव्रत ( व्रत-भंग ) ही हो जायगा, दोष क्यों ? प्राचार्यका अतिक्रम शब्दका प्रयोग साभिप्राय है। क्योकि कृतनिश्चयके विषयमें उल्लंघनकी इच्छा द्वारा मानसिक शुद्धिको क्षत करना ही अतिक्रम है, शील व्रतादिका उल्लंघन होनेपर व्यतिक्रम हो जाता है, त्यक्त विषयमें प्रवृत होना अतिचार है तथा कृत निश्चयका बारम्बार उल्लंघन अनाचार है । यद्यपि उत्तरकालमें प्रथम तीन शब्दोंका पूरी सावधानीसे प्रयोग नहीं हुआ ऐसा लगता है, पर प्राचार्यों को अन्यमनस्क मानना उचित नहीं। वस्तुस्थिति तो ऐसी प्रतीत होती है कि जहां 'व्यतिक्रमाः पञ्च' 3 अदि प्रयोग है वहां श्राचार्य मनोवैज्ञानिक गम्भीरताका संकेत करते हैं । इसी दृष्टि से जब हम वैयाकरण, तार्किक, धर्मशास्त्री पूज्यपादको 'अतिक्रम'का भाष्य अत्यन्त लोभके कारण उक्त पदार्थोंके प्रमाणका ‘अतिरेक'४ करते पाते हैं, तथा अकलंक भट्टको इस वाक्यको वर्तिकका" रूप देते पाते हैं तो आपाततः यह शब्द विशेष विचारणीय हो जाते हैं। प्रकृति प्रत्ययका विचार करनेपर अतिरेक शब्दका अर्थ होता है अस्वाभाविक वृद्धि अथवा खींचना । फलतः सूत्रकार तथा भाष्यकारोंको कृत प्रमाणके उल्लंघनकी भावना अथवा 'वर्तन' ही अभीष्ट नहीं है अपितु वे इनके प्रमाणकी अस्वाभाविक मर्यादाको भी अतिचार ही मानते हैं । स्वामि समन्तभद्र प्रणीत अतिचार-- समस्त तत्त्व व्यवस्थारूपी लोहेको स्याद्वाद पार्श्वपाषाणका स्पष्ट स्पर्श कराके स्वर्णमय कर देने वाले स्वामी समन्तभद्रकी चिन्ताधारामें अवगाहन करके परिग्रह परिमाणके अतिचारोंने भी अधिक १ तत्वावसूत्र ७, २९। २ "क्षति मनःशुद्धिविधरतिक्रम, व्यतिक्रमं शीलवृत्तविलंघनम् । प्रभोऽतिचार विषयेषु वर्तनं बदन्त्यनाचार मिहातिसक्तताम् || ९ ॥ ( अमितगतिसूर द्वात्रिशतिका ) ३ रत्नकरण्ड श्रावकाचार ३, १० । ४ सर्वार्थसिद्धि पृ० २१६ । ५ 'तीव्रलोभाभिनवेशादतिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः।" राजवर्तिक पृ० २८८ । १८५ २४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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