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________________ वर्णो अभिनन्दन ग्रन्य भी उक्त बातें करना अतिचार है । हाथों पड़ते हैं मध्यान्हके सूर्य के उपयोगी रूप पाया है। स्वामीकी दृष्टिमें क्षेत्र-वस्तु हिरण्य सुवर्ण धन-धान्य, दासी दास तथा कुप्य' के कृत प्रमाणका अतिक्रम मात्र परिमित परिग्रह व्रतके प्रतिचार नहीं है अपितु प्रति वाहन, अतिसंग्रह, ति विस्मय (विषाद), अतिलोभ तथा अतिभार वहन ये पांच प्रतिचार हैं। उनकी दृष्टिसे कृत प्रमाणके अतिक्रमका तो अवसर है ही नहीं । हां; कृत प्रमाण में स्वामीकी यह मौलिक मान्यता उनके टीकाकार प्रभाचन्द्र श्राचार्यके समान तापक और प्रकाशक हो उठी है। लोभकी अत्यन्त लोलुपताको रोकने के लिए परिग्रह परिमाण कर लेने पर भी पुनः लोभके फिमें आकर जो बहुत चलाता है अर्थात् बैल, घोड़ा, आदि सहज रूपसे जितना चल सकते हैं उससे अधिक चलाना अतिवाहन है। कागज, अन्न आदि आगे विशेष लाभ देंगे फलतः लोभके वश होकर इन सबका प्रतिसंचय करता है। अथवा दुकानसे हटाकर गुत कर देता है ताकि और अधिक लाभ हो तथा अधिक भार लादता है। ये पांचो अतिचार है" | 1 स्वामी ऐसे प्रबल प्रतापी एवं पुरुषार्थी गुरुके मन्तव्योंकी इससे अच्छी टीका अन्य कोई भी नहीं कर सका है। क्योंकि जहां इसमें कृत प्रमाण में जरासा भी हेर फेर करनेका अवकाश नहीं है वहीं यह भी स्पष्ट है कि जितना सहज है स्वाभाविक है अनिवार्य है उससे अधिक कुछ भी नहीं कराया जा सकता, अन्यथा इच्छापरिमाण असंभव है । स्वामो समयको परिस्थितियों से पूर्ण परिचित न होकर भी यह कहा जा सकता है कि आजकी परिस्थितियोंके लिए तो यह व्याख्या सर्वथा उपयुक्त है - वर्तमान युगमें पशुत्रोंकी तो बात ही क्या है मानव समाजका एक बहुत बड़ा भाग ही कामके भारके प्रति वाहन ( ओवर टाइम) काम करनेके कारण समय में ही काल कवलित हो रहा है । नरवाहन ( रिकशा ) सहज हो गया है। किसानोंसे लेकर बड़े से बड़े व्यापरियोंने धान्य, वस्त्रादिका खूप संचय करनेकी ठान रखी है। शासन द्वारा थोड़ी सी भी कड़ायी किये जाते ही सार्वजनिक रूप से मानवता शत्रु ये तथोक्त सम्पत्तिशाली 'हाय तोत्रा ( श्रति विस्मय) मचा देते हैं । दैनंदिन जीवनोपयोगी वस्तुओं के दाम चतुर्गुण मिलने परभी ये इसीलिए नहीं बेचते हैं ि लाभ होगा । तथा प्रतिवहन श्रारोपणकी तो चर्चा उठना ही व्यर्थ है । फलतः कहा जा सकता है कि वर्तमान विश्वकी अन्य समस्याओं के समान श्राजकी जटिल आर्थिक वृत्तियोंका भान भी जैनाचार्योंको था तथा उन्होंके मार्गपर चलनेसे इनका स्थायी निकार हो सकता है। १ सर्वार्थसिद्धि पृ० २१६, राजवार्तिक पृ० २८८, सभाज्य तत्वार्थाधिगम पृ० १६८ । २ "अतिवाहनातिसंग्रह विस्मयलोभातिभार वहनानि । परिमितपरिग्रहस्य पंच विक्षेपाः पञ्च लक्ष्यन्ते ।" रत्नकरंड ३, १६ ३ लोभातिगृद्धि (नि) वृत्यर्थं परिग्रहपरिमाणे कृते पुनर्लोभावेशवशादति वाहनं यावन्तं हि बलीवर्दादयः सुखेन गच्छन्ति ततोऽप्यतिरेकेणवाहनं करोति... आदि । दृष्टव्य रत्न० श्रा० ३, १६ को टीका पृ० ४७ १८६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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