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________________ संस्मरण वीजी लोकोत्तर पुरुष हैं । उनका सम्पूर्ण जीवन साधनामय रहा है। वे मुमुक्षु हैं । उनके जीवनपर जैन संसकृति और दर्शनकी गहरी छाप है । अध्यात्मवादके वे अपनी कोटिके एक ही पण्डित हैं । उत्तरोत्तर साधनाके विकास और चरम उत्कर्षको जिज्ञासाने, उन्हें मानवके अत्यधिक निकट ला दिया है। उनकी सतत ज्ञान पिपासा कभी विराम नहीं लेती । वह उनके जीवनकी चिर-संगिनी है। यही कारण है कि उनमें मानवताके समस्त गुणोंका अप्रतिम सामञ्जस्य मूर्तिमान हो उठा है । उदारशील, प्रचारकार्य, शिक्षा संस्था स्थापन एवं द्रव्य संग्रह जैसी उनकी बाह्य क्रियात्रोंकी पृष्ठभूमिमें, उनका विशुद्ध ब्रह्मचर्य-जन्य तेज, हृदयकी शालीनता, असीम सरलता परोपकारी वृत्ति, पतितपावनताकी उच्चाभिलाषा और युक्तियुक्त मिष्ट संभाषण जैसे आकर्षण गुण चमक उठे हैं । ये ही उनके जीवनको इस आदर्श स्तर पर ले आये हैं। ये सम्राट भरतके समान लौकिक व्यवहारिक कार्यों में प्रवृत्त रहते हुए भी उससे अलिप्त हैं और हैं आत्मोद्धारके प्रति सदैव जागरूक और सचिन्त । वे अन्तरङ्गमें प्रभाव या भावुकतामें बहनेवाले जीव नहीं हैं । उनकी सरल किन्तु सूक्ष्म वीक्षणी दृष्टि किसी भी व्यक्तिके मनोभावोंको परखने या वस्तुस्थितकी गहराई में पहुंचनेमें जरा भी विलम्ब नहीं लगातो । उनका विशाल हृदय दरिद्र, दुःखी, क्षुधात, पीड़ित, दलित, तिरस्कृत, पतित और असहायोंके लिए सतत संवेदनशील है । इन्हें देखते ही वह द्रवित हो उठते हैं और हो जाते हैं अत्यन्त व्याकुल । कष्ट निवारण ही उन्हें स्वस्थ कर पाता है। भारतीय प्राचीन श्रमण संस्कृति और मानव धर्मके यथार्थ दर्शन इनमें ही मिलते हैं । भीषण परिस्थितियोंमें जीवन निर्वाह कर आपने जो शिक्षा प्राप्त की उसीका यह सुफल है, जो आज हम भारतवर्ष में बोसों शिक्षा संस्थानोंको फूलते फलते देख रहे हैं । उनकी वाणीमें जो मिठास और प्रभाव है उसका वैज्ञानिक मूल कारण है अन्य प्रान्तोंमें रहनेके बाद भी अपनी मधुर मातृभाषा-बुन्देलखण्डीका न छूटना । विशाल शिक्षाके क्षेत्रमें जब अपने पदार्पण किया तब उनके कण्ठ में जन्मभूमिकी वाग्देवीका निश्चित निवास हो चुका था । इस दृढ़ संस्कारने उनकी जन्मजात मीठी बोलीके रूपको नहीं बदलने दिया और चूड़ान्त प्रतिभा सम्पन्न होकर जव वे संसार के सामने आये तो सहज ही वह सरल भाषा मुखसे झरने लगी। वर्णीजीने एक राजयोगीकी तरह पढ़ा लिखा है । उनके रहन-सहन और भोजनका मापदण्ड सदा काफी ऊंचा रहा है । इस सम्बन्धमें अगणित जनश्रुतियां हैं । आपको साधारण भोजनपान और वेशभूषा कभी नहीं रुचा । बाईजी अविकल रूपसे उनकी तृप्तिके लिए सदैव साधन सामग्री जुटाने में तत्पर रहीं और वणींजीकी भावनाएं सदैव बढ़ चढ़कर सामने आयीं। वाईजी व्यवहार कुशल थों इसी लिए बढ़िया चांवलोंको दूधमें भिगो कर बादमें पकाती थीं, तो भी "बाईजी तिरपन
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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