SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 495
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ पं० विवुधश्रीधरके संस्कृत भविष्यदत्त चरित्रकी और दूसरी अपभ्रंश भाषाके सुकुमालचरितकी प्राप्त हुई हैं । इनके सिवाय, संवत् १५०६ की एक अपूर्ण लेखक-प्रशस्ति कविवर धनपालकी 'भविसयत्तपंचमीकहा' की प्राप्त हुई है । जो कारंजाके शास्त्रभंडारमें सुरक्षित है। इन सब उल्लेखोंसे राजा डूंगरसिंहका राज्यकाल संवत् १४८१से वि० सं० १५१०तक ३२ वर्ष तो निश्चित ही है। इसके बाद और कितने वर्ष राज्यका संचालन किया यह प्रायः अभी अनिश्चित है, परन्तु उसकी निश्चित सीमा संवत् १५२१ से पूर्व है । कीर्तिसिंह3-यह वीर और पराक्रमी राजा था, इसका दूसरा नाम कीर्तिपाल भी प्रसिद्ध था। इसने अपने पिताके राज्यको और भी अधिक विस्तृत कर लिया था। यह दयालु, सहृदय और प्रजावत्सल था । यह भी जैनधर्मपर विशेष अनुराग रखता था और उसने पिता द्वारा आरब्ध जैन मूर्तियोंकी अविशिष्ट खुदाईको पूरा किया था। ग्रंथकार कवि रइधूने सम्यक्त्वकौमुदीकी रचना इसके राज्यकालमें की है । उसमें कीर्तिसिंहके यशका वर्णन करते हुए लिखा है कि यह तोमर कुलरूपी कमलोंको विकसित करनेवाला सूर्य था और दुर्वारशत्रुओंके संग्रामसे अतृप्त था,और अपने पिता डंगरसिंहके समान ही राज्य भारको धारण करने में समर्थ था । सामन्तोंने जिसे भारी अर्थ समर्पित किया था तथा जिसकी यशरूपी लता लोकमें व्याप्त हो रही थी और उस समय यह कलिचक्रवर्ती था।" जैसा कि नागौर भंडारकी सम्यक्त्वकौमुदीकी प्रति (पृ० २) से प्रकट है। राजा कीर्तिसिंहने अपने राज्यको खूब पल्लवित एवं विस्तृत किया था और वह उस समय मालवेके समकक्ष हो गया था। और दिल्लीका बादशाह भी कीर्तिसिंहकी कृपाका अभिलाषी बना रहना चाहता था; परन्तु सन् १४६५ (वि० सं० १५२२) जौनपुरके महमूदशाहके पुत्र हुशेनशाहने ग्वालियरको विजित करने के लिए बहुत बड़ी सेना भेजी थी, तबसे कीर्तिसिंहने दिल्लीके बादशाह बहलोललोदीका पक्ष छोड़ दिया था और जौनपुरवालोंका सहायक बन गया था । सन् १४७८ १ नागपुर विश्वविद्यालयकी पत्रिका १९४२ स. ८ । तथा जैन सिद्धान्तभास्कर भाग ११ किरण दोमें प्रकाशित 'भ० यशःकीर्ति' नामका मेरा लेख । २ मध्यप्रांत तथा बरार के संस्कृत प्राकृत ग्रन्थोंकी सूची पृ० ९४ । ३ स्व० श्री गोरीशंकर हीराचन्द ओझा द्वारा सम्मादित टाडराजस्थानके पृष्ठ २५० की ग्वालियर के तंबरवाली टिप्पणीमें कीर्तिसिंहके दूसरे भाई पृथ्वीराजका उल्लेख किया हुआ है जो सन् १४५२ (वि० सं० १५०९) में जीनपुर के सुल्तान महमूदशाह शी और दिल्लीके बादशाह बहलोल लोदीके बीच होनेवाले संग्राममें महमूदशाहके सेनापति फतहखां हावीके हाथसे मारा गया था। परन्तु कविवर रइधुके ग्रंथोंमें डूंगरसिंहके एक मात्र पुत्र कीर्तिसिंहका ही उल्लेख पाया जाता है। ४ "तहु कित्तिपालु, गंदण, गरिछु, णं रूब कामु सब्बह मणठु। -सिद्ध चक्रावधानकी अन्तिम प्रशास्त । ४०८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy