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शब्दनय श्री पं० कैलाशचन्द्र, सिद्धान्तशास्त्री प्रास्ताविक
इतर दर्शनोंसे जैनदर्शनोंमें जो अनेक विशिष्ट बातें है, उन्हीमें से नय भी एक है। यह नय प्रमाणका ही भेद है । स्वार्थ और परार्थके भेदसे प्रमाण दो प्रकारका माना गया है। मतिज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान स्वार्थ प्रमाण हैं क्यों कि इनके द्वारा ज्ञाता स्वयं ही जान सकता है। किन्तु श्रुतज्ञान स्वार्थ भी होता है और परार्थ भी होता है । जो ज्ञानात्मक श्रुत है वह स्वार्थं प्रमाण है और जो वचनात्मक श्रुत है वह परार्थ प्रमाण है। ज्ञानात्मक श्रुतसे ज्ञाता स्वयं जानता है और वचनात्मक श्रुतसे दूसरोंको ज्ञान कराता है। उसी श्रुत प्रमाणके भेद नय हैं । नयका लक्षण
द्रव्य पर्यायात्मक वस्तुके जानने वाले ज्ञानको प्रमाण कहते हैं । और केवल द्रव्य दृष्टि या केवल पर्यायदृष्टिसे वस्तुके जानने वाले ज्ञानको नय कहते हैं । इसीसे नयके दो मूल भेद हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्यार्थिक नयके तीन भेद हैं—नैगम, संग्रह और व्यवहार । तथा पयार्थिक नयके चार भेद हैं -ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत । इन सात नयोंमें से शुरूके तोन नयोंको अर्थनय और शेष चार नयोंको शब्दनय भो कहते हैं क्योंकि वे क्रमशः अर्थ और शब्दकी प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करते हैं ।
एक बार मेरे एक विद्वान् मित्रने नयोंके उक्त सात भेदोंमें से पांचवें भेद शब्दनयके लक्षण की ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया । उनका पत्र पढ़कर मुझे इस दिशामें खोज करने की उत्सुकता हुई । अनेक ग्रन्थोंके देखनेसे मुझे मालूम हुआ कि शब्दनयके लक्षणको लेकर कुछ टीकाकारोंमें मतभेद है । विद्वानोंसे पूछा गया तो वे भी इस विषयमें एकमत न थे । अतः पूर्वाचार्योंके वचनोंका आलोडन करके कुछ निष्कर्ष निकालना ही उचित प्रतीत हुआ। प्रश्न और समाधान
मित्रका प्रश्न था कि शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंका अनुसरण करता है या नहीं? अनेक