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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ अलग गिनाया है । इनका वर्णन थेरवाद (वि० १२० ) के ही समान है । तपस्वियोंके गम्य ( साध्य ) का श्रेणि विभाग भी रोचक है । इस वर्णनमें बौद्ध प्रपञ्चसूदनी तथा उपनिषदोंके वर्णनमें समता है । घोषालके षड्-अभिजात सिद्धान्तकी इससे तुलना की जा सकती है ।
औपपातिकसूत्रके मतसे गृहस्थसाधु व्यन्तर, वानप्रस्थ ज्योतिषी, परिव्राजकब्रह्मलोक, और आजीविक अच्युत पदको मरणके बाद प्राप्त करते हैं । बौद्ध ब्रह्मघोषके मतसे ब्राह्मण ब्रह्मलोक, तापस आभस्सार लोक, परिव्राजक सुभ-किण्णलोक तथा आजीविक अनन्तमानस लोक जाते हैं । इस सूत्रमें ऐसे विरक्तोंका भी वर्णन है जो अपना सारा संसार त्यागकर गृहस्थोंके भलेके लिए ही प्रयत्न करते हैं, ऐसे लोग ही अनेक जन्म बाद अभियोगिक देव होते हैं। णिण्हण (निहक ) साधुअोंका भी उल्लेख हैं जो प्राप्त वचनों की उपेक्षा करके विपथगामी हो जाते हैं । वे द्रव्य-साधु मात्र हैं। ऐसे ही लोगों में तेरासियों ( त्रैराशिक) की गणना है अनेक जन्म धारण करके ये लोग भी उपरि वेयकोंमें जन्म लेते हैं ।
ऐसे भी धर्मात्मा हैं जिनका आचार शुद्ध है तथा नैतिकतासे अपनी आजीविका करते हैं । अपने ग्रहीत व्रतोंका पालन करते हैं तथा हिंसासे दूर रहते हैं । क्रोध, मान, माया, लोभसे परे रहते हैं । वे आदर्श गृहस्थ उपासक हैं जो मर कर अच्युत कल्प तक जाते हैं । गृहस्थ सर्वथा राग द्वेष मुक्त नहीं हो सकता है और न पूर्ण रूपसे हिंसाका ही त्याग कर सकता है। यह सब वे ही कर सकते हैं जो वीरप्रभुके मार्गपर चलकर सब कुछ छोड़कर गुप्ति-समिति आदि का पालन करते हैं । दीक्षित साधुओंमें जिनका परम
आत्म विकास नहीं होता वे मर कर सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न होते हैं । तथा जिन्हें पूर्ण तप द्वारा कैवल्य प्राप्ति हो गयी है वे "लोग-अग्ग-पैट्ठाणा हवन्ति ।" अन्तमें सिद्धोंका विशद विवेचन है। इसे केवलकथा, ईसपब्भार, तणु, तणुतणु, सिद्धिलोक, मुक्ति, आदि नामोंसे कहा है। यह अविनाशी, अनन्त और लोकोत्तर है। ईसपब्भार अति प्रचलित नाम है । यह देवलोक तथा ब्रह्मकल्पसे बहुत ऊपर है । यद्यपि इसे 'पृथ्वी' शब्द द्वारा कहा जाता है जहां सिद्ध अनन्त काल पर्यन्त रहेंगे । जन्म, हानि, मरण तथा पुनर्जन्म चक्रसे सिद्ध लोक परे है । संसारमें रहते हुए सिद्ध ( भव्य ) जीव शारीरिक कष्ट,सीमित आयु, नाम, वंश आदि बन्धनोंसे मुक्ति नहीं पा सकते । फलतः आत्माको बांध रखनेवाली समस्त सांसारिक उपाधियोंको सर्वथा नष्ट करके वे मुक्त होते हैं । संसारी अवस्थामें वे नित्य नैमित्तिक कार्य करते हैं । इस प्रकार जब पूर्ण कैवल्यको प्राप्त कर लेते हैं तो वे पौद्गलिक स्थितिको समाप्त कर देते हैं और समस्त उपाधियोंका आत्यन्तिक क्षय कर देते हैं । जैनधर्म सम्मत जीवका चरम विकास वह चिरस्थायी शाश्वत विश्व है जहां मुक्त जीवोंका निवास है । साधारण जिज्ञासुकी ‘वे वहां कैसे समय व्यतीत करते हैं ? इस जिज्ञासाका यह सूत्र उत्तर नहीं देता।
१, प्रपञ्चसूदनी २, पृ. १ टिप्पण ।
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