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जैन-न्यायका विकास करना ही चाहिये था । न्यायका अर्थ है-जिसके द्वारा वस्तु तत्त्व जानाजाय और इसलिए वह न्याय प्रमाण नयात्मक है क्योंकि प्रमाण और नयके द्वारा ही वस्तुतत्त्व जाना जाता है । अकलङ्कने विभिन्न दार्शनिकों की विप्रतिपत्तियोंके निरसन पूर्वक इन दोनोंके स्वरूप, संख्या ( भेद ), विषय, फलका विशद विवेचन, प्रत्यक्षके सांव्यवहारिक और मुख्य इन दो भेदोंकी प्रतिष्ठा, परोक्ष प्रमाणके रति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क अनुमान, अागम इन पांच भेदोंकी इयत्ताका अवधारण, उनका सयुक्तिक साधन और लक्षणनिरूपण, तथा इन्हींके अन्तर्गत उपमान, अर्थापत्ति, सम्भव, अभाव, अादि पर-कल्पित प्रमाणोंका समावेश, सर्वज्ञत्वका अपूर्व युक्तिमय साधन, अनुमानके साध्य-साधक अङ्गोंके लक्षणों और भेदोंका विस्तृत प्ररूपण तथा कारणहेतु, पूर्वचरहेतु, उत्तरचरहेतु, सहचरहेतु, अादि अनिवार्य हेतुओंकी ही प्रतिष्ठा, अन्यथानु पत्तिके अभावसे एक अकिंचित्करात्मक हेत्वाभासका स्वीकार और उसके भेदरूपसे असिद्धादिका प्रतिपादन, दृष्टान्त, धर्मी, वाद, जाति और निग्रहस्थानके स्वरूपादिका जैन दृष्टि से व्याख्यान, जयपराजयव्यवस्था, आदि कितना ही निर्माण करके जैनन्यायको न केवल समृद्ध और परिपुष्ट किया है अपितु उसे
और भारतीय न्यायोंमें वह गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है जो प्रायः बौद्धन्यायको धर्मकीर्तिने दिलाया है । इस तरह अकलङ्क जैनन्यायके मध्ययुग प्रवर्तक हैं और इसलिए इस युगको 'अकलङ्ककाल' के नामसे कहना उचित ही है।
श्रकलङ्कने जैनन्यायकी जो दिशा और रूपरेखा निर्धारित की उसीपर उनके उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किक चले हैं। हरिभद्र, वीरसेन, कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, सिद्धसेनगणी, वादिराज, माणिक्यनन्दि, आदि इन मध्ययुगीन उत्तरवर्ती श्राचार्योंने उनके कार्यको बढ़ा करके उसे सुविस्तृत, सुप्रसारित और स्पुष्ट किया है । हरिभद्रके अनेकान्त जयपताका, शास्त्रवार्ता समुच्चय, वीरसेनकी तर्क बहुल धवला-जयधवला टीकाएं, कुमारनन्दिका वादन्याय, विद्यानन्दके विद्यानन्द महोदय, तत्त्वार्थश्लोक वार्तिक, अष्टसहस्री, यातपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा, युक्त्यनुशासनालंकार आदि, अनन्तवार्यकी सिद्धिविनिश्चय टीका, प्रमाणसंग्रहभाष्य, सिद्धिसेनगणीकी गन्धहस्ति-तत्त्वार्थभाष्यटीका, वादिराजके न्यायविनिश्चयविवरण, प्रमाणनिर्णय र माणिक्यनन्दिका परीक्षामुख इस कालकी अनूठी तार्किक रचनाएं हैं । यह काल जैनन्याय विकासका पूर्ण मध्यान्ह काल है ।
'प्रभाचन्द्रकाल-इसके बाद प्रभाचन्द्रकाल आता है जो जैनन्याय-विकासका मध्यान्होत्तर अथवा अन्तिमकाल है । प्रभाचन्द्रने जैनन्यायपर जो विशालकाय व्याख्या ग्रन्थ लिखे-प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्र, उनके बाद जैनन्यायपर वैसा व्याख्याग्रंथ दिगम्बर परम्परामें फिर नहीं लिखा गया । हां, श्वेताम्बर परम्परामें अभयदेवने सन्मतितर्कटीका और वादी देवसू रिने स्यावादरत्नाकर अवश्य लिखे हैं फिर
१ 'प्रमाणनयैरधिगमः '-तत्वार्थसूत्र १-६ । 'नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः अर्थपरिच्छेदकोपायो न्याय इत्यर्थः । स च प्रमाणनयात्मक एव'-न्यायदीपिका पृ० ५ (टिप्पण ) ।