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वेदनीय कर्म और परीषर
श्री पं:, इन्द्र चन्द्र शास्त्री, न्यायतीर्थ
___तत्त्वार्थ सूत्रमें सात तत्त्वोंका वर्णन किया गया है। मुमुक्षु प्राणियोंको सात तत्त्वोंका बोध होना आवश्यक है । तत्वोंका वर्णन करते हुए उमात्वामीने तत्त्वार्थसूत्रके नौवें अध्यायमें संवर तत्त्वका वर्णन करते हुए गुप्ति समिति-धर्म-अनुप्रेक्षा परीषहजय, अादिको संवरमें कारण बताया है । श्रास्रवका निरोध करना ही संवर है और निरोध न होने पर श्रास्रव होता है । अर्थात् परीषहजय संवरका कारण है; इससे विपरीत परीषह श्रास्रवमें कारण है । 'श्रास्रव निरोधः संवरः' इस सूत्रकी व्याख्या श्री सिद्धसेन गणीने निम्न प्रकार की है।।
'कायादयस्त्रयः इन्द्रियकषायाऽव्रतक्रियाश्च पञ्चचतुः पञ्चपञ्चविशंतिः संख्या तेषां निरोधः संवरः।" अर्थात् योग, इन्द्रिय, कषाय, अवत, क्रियाएं आस्रवमें कारण हैं । इसका निरोध करना संवर है । संवर कैसे होता है ? इसके लिए 'स गुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजयचरित्रैः' सूत्रका प्रतिपादन किया गया है । इस सूत्रक्रमसे स्पष्ट ज्ञात होता है, कि योग, आदि अास्रवके कारणोंके विरोधी गुप्ति, समिति
आदि हैं । अतः परीषहको श्रास्रवमें और परीषहजयको संवरमें कारण मानना उचित है। श्रास्रवसे बंध होता है बंधका कारण मोहनीय कर्म है। अतः परीषहको श्रास्रवमें कारण मानने पर मोहनीय का साहचर्य श्रावश्यक है । विना मोहनीयके परीषह-अास्रव और बंधमें कारण नहीं हो सकतीं। परीपहका लक्षण--
“परीति समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थसाध्वादिभिः सह्यन्त इति परीषहः ।” ‘समन्तादापतिताः क्षुत्पिपासादयः सह्यन्त इति परीपहः।' (तःवाधिगम आ० ९ मू० २)
परीषहके इन लक्षणों में समन्ते' इस पदसे ज्ञात होता है कि परीषह क्लेशरूप हैं। उस क्लेशके अनुभवको “सहन करना” पदसे प्रकट किया है । 'सहन करना" शब्दका प्रयोग उसी स्थान पर किया जाता है जहां दुःखरूप क्लेश होता है, जहां क्षुधा, अदि क्लेशरूप नहीं वहां सहन करना शब्द निरर्थक ही होगा । जब कुछ है ही नहीं तो सहन किसका किया जाय ? पारीषहसे क्लेश रूप परिणाम होते हैं । उन संक्लेश परिणामों पर जब विजय कर ली जाती है, तब वह परीषहजय कहलाती है और वही