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मध्ययुगीन सन्त-साधनाके जैन मार्गदर्शकश्री आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी
हिंदी साहित्यके जिस अंगका नाम 'सन्त साहित्य' है वह विक्रमकी चौदहवीं शतीके बाद प्रकट हुआ है । इसका प्रधान स्वर भक्ति और प्रेम है । दक्षिणके रामानुज, रामानंद श्रादि आचार्योंकी प्रेरणासे यह भक्ति-साहित्य प्राणवान हुआ था । लेकिन यह साहित्य केवल दक्षिणके वैष्णव प्राचार्यों का अनुकरण या अनुवाद नहीं है। उत्तरके शैव, शाक्त, बौद्ध और जैन साधकोंने इसके लिए भूमि तयार कर रखी थी । इस सन्त-साहित्यकी पृष्ठभूमिके अध्ययन के लिए जिस प्रकार पुराण, आगम, तंत्र,
और वैष्णव संहिताएं आवश्यक हैं उसी प्रकार सहज-यानियों, नाथ-पंथियों, निरंजनियों और जैन साधकों के लोक भाषामें लिखे ग्रन्थ भी आवश्यक हैं, बल्कि सच पूछा जाय तो यह दूसरे प्रकारके साहित्य ही अधिक आवश्यक हैं।
___ अठवी-नवीं शतीमें वह विशाल नाथ-संप्रदाय श्राविर्भूत हुआ था जिसने लगभग समूचे उत्तर भारतको प्रभावित किया था। आज भी इस संप्रदायके स्थान कामरूपसे काबुल तक फैले हुए हैं । नाथ-पंथीं सिद्धोंमें से अनेक ऐसे हैं जो वज्रयानके आचार्य भी माने जाते हैं। इन दिनों नाथपंथी योगियोंमें अनेक पुराने संप्रदायोंके योगी रह गये हैं । इन में लकुलीश, बौद्ध, वाममार्गी योगी तो हैं ही; वैष्णव
और जैन योगी भी हैं । वस्तुतः आठवीं-नवीं शतीमें एक ऐसे शक्तिशाली लोकधर्मका आविर्भाव हुआ था जो किसी संप्रदाय विशेषमें बद्ध नहीं था। इस शक्तिशाली लोकधर्मका केंद्रबिंदु 'योग' था । 'योग' में भी काया-योग या हठयोग ही उसका प्रधान साधन मार्ग था । बाह्याचारका विरोध,चित्तशुद्धिपर जोर देना, पिंडको ही ब्रह्माण्डका संक्षिप्त रूप मानना, और समरसी भावसे स्वसंवेदन आनन्दके उपभोगको ही परम आनन्द मानना इस योगकी कुछ खास विशेषताएं थीं । सन् ईसवीकी आठवीं नवीं शतीमें 'जोइन्दु' या योगेन्द्र नामके जैन साधक हो गये हैं । उनकी अपभ्रंश रचनात्रों में वे सभी विशेषताएं पायी जाती हैं जो उस युगकी साधनामें मुख्य रूपसे, घूम फिरकर बार बार आ जाया करती है । इसी प्रकार जोइन्दुके प्रायः एक शती बाद उत्पन्न हुए मुनि रायसिंहजी के पाहुड़ दोहे पाये गये हैं जिनमें बाह्याचारका खण्डन और देहमें परमशिवके मिलनका बड़ा भावपूर्ण और सुन्दर वर्णन पाया जाता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि जैन साधकोंके ग्रंथों में 'परमात्मा' या 'निरंजन' का ठीक वही अर्थ नहीं है जो
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