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________________ पौराणिक जैन इतिहास वंशज एवं मित्र थे । हनूमानजी रावणके दामाद थे । रावण तथा राक्षस दैत्य नहीं थे अपितु ये जैनी सद्गृहस्थ थे तथा इन्ही वानरवंशी हनूमानादिकी सहायता से सीताका उद्धार हुआ था । साहसगति नामके व्यक्तिने मायारूप धारण करके सुग्रीवकी पत्नीको छलना चाहा था । फलतः वापस श्रानेपर जब द्वारपालादिने उस महलके भीतर न जाने दिया, तब राम-लक्षमण की सहायता से उसने साहसगति को मार कर अन्तःपुर तथा राज्य बचाया इस प्रकार जैन पुराण बालिको भ्रातृबधू- गमन तथा रामको छल-वधके पापसे बचाता है । लक्ष्मणने कोटिशिला उठाकर वानर वंशियोंको यह विश्वास दिल दिया था कि उनका जन्म रावणको मारनेके लिए ही हुआ था । जैन पुराणों में सेतु बनानेकी कथा नहीं है, मेघनाद, इन्द्रजीत दो भाई थे रावण के पुत्र नहीं । लक्ष्मणकी शक्तिका उपचार व्रणमेघकी पुत्री विशल्याका स्नान जल बताया है । हनूमान उसे विमानमें लाये थे तथा उसके स्नान जलको लगाने से सब सैनिक भी स्वस्थ हो गये थे । अन्त में वह लक्ष्मणको व्याही गयी थी । इसी प्रकार लक्ष्मणपर रावणने चक्र चलाया जो उनके हाथमें श्रागया फिर वही चक्र लक्ष्मणने रावणपर चलाया और मार डाला। यह जैन वर्णन वैदिक 'मृत्युवाण' कथा के सदृश है । कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाद युद्ध में बन्दी बनाये गये थे मुक्त होते ही साधु होगये और तप करके श्रात्मसिद्धि की । युद्ध समाप्ति पर जब तीनों अयोध्या श्राये तो लक्ष्मणको राजा बनानेका प्रस्ताव हुआ पर उन्होंने स्वीकार नहीं किया राम राजा हुये । कैकयी, मन्दोदरी, दिने दीक्षा धारण की। मथुराके राजा मधुको दुराचरण के कारण हटा दिया गया था उसके स्थान पर शुत्रुघ्नको राजा बनाया गया था । सीताके पुनः वनवासकी कथा समान होनेपर भी वे वाल्मीकि - श्राश्रम में नहीं गयी थीं । पुण्डरीकपुर के राजा वज्रजंघने उन्हें अपने यहां आनेको निमन्त्रण दिया था। उनके पुत्रोंके नाम अनङ्गलवण और मदनाकुंश थे। पिता काकासे युद्ध, इनकी विजय, सीताकी अभिपरीक्षा श्रादिका उल्लेख पहले हो चुका । अन्तमें सीता पृथ्वीमती श्रार्थिकासे दीक्षा लेती हैं । राम लक्ष्मणकी मृत्यु कथा भी विचित्र है । भाइयोंके स्नेहकी परीक्षा करनेके लिए देवोंने रामको मूर्च्छित करके लक्ष्मणको उनके मरणका समाचार दिया । सुनते ही लक्ष्मणके प्राण पखेरू उड़ जाते हैं । चेतन होनेपर राम पूरे छह मास तक लक्ष्मणका शरीर लेकर घूमे अन्तमें अपने कार्यकी व्यर्थता को जानकर उन्होंने संसार छोड़कर तप करना प्रारम्भ किया और मोक्ष गये । कुकल्पना परिहार- जैसा कि पहले उल्लेख हो चुका है राक्षस, वानर, आदि न दैत्य थे और न बन्दर । जैन पुराण इन्हें विद्याधर कहते हैं अर्थात् ये रामचन्द्रजीके समानही संस्कृत थे । महाभारत तथा पुराणों के श्रार्यअनार्य विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि यह जैन मान्यता सर्वथा उचित एवं मानवता पूर्ण २८५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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