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संस्मरण
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दिनोंके बाद उनके दर्शनार्थ स्थाद्वाद विद्यालय गया। आर्यसमाजके वर्णाश्रम धर्मपर बात चली । मुसकरा कर उनने पूछा--अच्छा, श्राप किस वण के हैं ?
मैंने कहा-स्वामीजी, मैं जन्मसे तो कायस्थ हूं। पढ़ लिख कर विद्वान् हो जानेके कारण सिद्धान्तके अनुसार मैं ब्राह्मण हो जाऊंगा ।
प्र०-क्या तब ब्राह्मणलोग आपके साथ रोटी-बेटी करनेको तयार होंगे ? उ०--वे भले न तैयार हों, किन्तु आर्यसमाज तो मुझे वैसा सम्मान अवश्य देगा । प्र०-अच्छा, आर्यसमाजमें जो ब्राह्मण हैं क्या वे भी आपके साथ रोटी-बेटीके लिए तैयार होंगे? उ.-मैं कह नहीं सकता । प्र०-तब, क्या आर्यसमाजकी वर्णव्यवस्था केवल बातों ही में है, व्यवहारमें नहीं ?
वीजीसे मिलकर जब मैं विश्वविद्यालय लौट रहा था तो यह खूब अनुभव कर रहा था कि आर्यसमाजका मेरा उत्साह मन्द हो गया था। मेरे मनमें पश्न हो रहा था-स्वामी दयानन्दजीने अन्य धर्मों के विषयमें विना जाने केवल हिंसात्मक प्रेरणासे अमुक समुल्लासमें ऐसा क्यों लिख दिया ? क्या यह सत्यकी बात है ! xx
XX दो वर्ष के बाद एम. ए. पास करके मैंने अपनी सेवा गुरुकुल महाविद्यालय (आर्यसमाज) वैद्यनाथधाम (बिहार) को अर्पित की। गुरुकुलका मैं श्राचार्य बना । आर्यसमाजकी प्रणालीके अनुसार मुझे लोग पंडितजी कहने लगे। मुझे यह गौरव पाकर बड़ा आनन्द आया-और कुछ नहीं तो आर्यसमाजने मुझे इतना सम्मान तो दिया । प्राचार्य पदधर रहने के कारण लोग मेरा भय मानते थे, किन्तु मुझे ऐसा लगा कि ब्राह्मण अध्यापकोंके मेरे प्रति आदर नहीं है । शायद कायस्थ होनेके कारण !!
एक दिन कमरेके भीतरसे सुना गुरुकुलके एक अध्यापक श्री ....... "तिवारीजी पुकार रहे थे-यो, पण्डित टाइगर ! यो पण्डित बाइगर !!
मैं बाहर आया और पूछा कि यह पण्डित टाइगर कौन है ?
श्री.......... तिवारीजीने गुरुकुलके एक कुत्तेकी ओर इशारा करते हुए कहा-श्राचार्यजी, यही पण्डित टाइगर है, आर्यसमाजमें सभी पण्डित हैं ।
बस, आर्यसमाजकी वर्णव्यवस्था अच्छी तरह समझ गया। वर्णीजीकी बातें झट याद आ गयीं । सिद्धान्तमें तो पहले ही हलचल पैदा हो गयी थी । १९३३ में फिरसे बनारस आया--संस्कृतमें एम, ए. परीक्षा देने । दूसरे ही दिन स्याद्वाद
तैंतालीस