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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
सदी में हुए हों और उन्होंने सम्भवतः धर्म कीर्त्तिके ग्रन्थोंको देखा हो " माना है। ज्ञान और दर्शनोपयोग विषयक दिगम्बर मान्यता भी इसकी समर्थक है । कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, पूज्यपादादि के मतसे वह 'यौगपद्य वाद' है किन्तु श्वेताम्बर आगमों में 'क्रमवाद की सूचना है, जो देवर्द्धिगणी द्वारा आगमोंके संकलन ( ४५३ ई० ) के पश्चात् ही अस्तित्वमें आयी और भद्रबाहु ( ५५० ई० ) द्वारा नियुक्तियों में स्पष्ट की गयो तथा जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ( ५८८ ई०) द्वारा युगपत् - वादके खंडन तथा मंडनात्मक युक्तियों से पुष्ट हुई। इसी कारण जिनभद्रगणि ही उत्तरकालीन विद्वानों द्वारा उक्त 'क्रमवाद' के पुरस्कर्त्ता कहे गये हैं । सिद्धसेनदिवाकरने अपने 'सन्मतितर्क' में 'युगपत' तथा 'क्रम' दोनों पक्षोंका सबल खण्डन करके ज्ञान और दर्शन उपयोगोंका 'अभेद' ही स्थापित नहीं किया वरन मतिश्रुति तथा अवधि- मन:पर्यय का भी अभिन्नत्व सिद्ध किया, जिसका समन्तभद्र और पूज्यपादकी कृतियों में कोई जिक्र नहीं, किन्तु अकलंक आदि विद्वानोंने इस अभेदवादका जोरोंके साथ खंडन किया । इस सब विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धसेन समन्तभद्रके ही पर्याप्त उत्तरवर्ती नहीं थे । बल्कि दिङ्नाग और पूज्यपाद के बहुत पीछे हुए और धर्मकीर्त्ति, अकलंक आदि के प्रायः समकालीन विद्वान थे । इतना सुनिश्चित है कि समन्तभद्र के समय को आगे खींच लानेका जो प्रयत्न किया जाता है वह निराधार एवं निरर्थक है । समन्तभद्रने युगपत्वादका परम्परागत प्रतिपादन तो किया किन्तु श्वेताम्बरीय क्रमवादका उल्लेख तक नहीं किया, अतः उनका आगमोंके संकलन ( ४५० ई० ) से पूर्व होना स्वयं सिद्ध है ।
३. दिगम्बर विद्वानोंमें अकलंकदेव ( ६२० - ६८० ई० ) तो समन्तभद्र के ज्ञात सर्वप्रथम व्याख्याकार हैं ही, उनसे पूर्व देवनन्दि पूज्यपाद ( ४५० -५२० ई० ) ने, जो अविनीत कोंगड़िके पुत्र दुर्विनीत गंग (४८२ - ५१५ ई० ) के गुरु थे, समन्तभद्रका अपने जैनेन्द्र व्याकरणमें स्पष्ट नामोल्लेख किया है । और जैसा कि 'सर्वार्थसिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव " लेखसे स्पष्ट है, पूज्यपादकी महानतम कृतिपर समन्तभद्रकी आप्तमीमांसा युक्तत्यानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, तथा रत्नकरंडश्रावकाचार का स्पष्ट गम्भीर प्रभाव है । अतः वे निर्विवाद रूपसे पूज्यपादके पूर्ववर्ती थे ।
४. समन्तभद्रकी प्राचीनता में एक अन्य साधक कारण उनकी कृतियोंमें जैनमुनि संघकी प्राचीन वनवास ४ प्रथाका उल्लेख है जिसका विवेचन 'रत्नकरंड श्रावकाचारकी प्राचीनतापर अभिनव प्रकाश
१ न्याय कु० चं० भा० २ प्रस्तावना पृ० ३७ तथा 'ज्ञानबिन्दु' भूमिका पृ० ६० ।
२ 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ' -- जैनेन्द्र स्० ५-४-१४० ।
३ अनेकान्त, व. ५ कि. १०-११, पृ. ३४५ ।
४ रत्नकरं डा० इलो. १४७। पं. प्रेमीजीकृत जैनसाहित्य, और इतिहास, पृ. ३४७ ।
५ जैन सिद्धांत भास्कर, भाग १३ कि. २, पृ. ११९, ( पं. दरबारीलाल न्यायाचार्य का लेख )
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