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पौराणिक जैन इतिहास
लोगोंको अाकृष्ठ किया है। महाभारतके सूत्रधार महान राजनीतिज्ञ श्री कृष्ण इनके ककेरे भाई थे । फलतः अात्मवत् सर्वगुण सम्पन्न भाईकी श्रोरसे इनका अाशंकित हो उठना सर्वथा स्वाभाविक था । दोनों भाईयोंमें द्वन्द्वका अवसर प्राया पर अहिंसक नेमि किसी सशस्त्र प्रतियोगिताके लिए तैयार न हुए । भार-उठानेकी प्रतियोगिता हुई जिसमें दर्शक जनताने नेमिनाथको विजयी घोषित किया । बलभद्रने कृष्णजी को समझाया अतएव कृष्णजी भी होनहार ऋषि छोटेभाईका आदर करने लगे। श्रीकृष्णजी तथा रुक्मिणीके आग्रह पर नेमिनाथ राजपुत्री राजीमतीके साथ विवाह करनेको सम्मत हुए । बारात जिस समय कन्याके पिताके द्वार पर जा रही थी, नेमिनाथने घिरे हुए पशुओंकी दीन ध्वनि सुनी। कारण पूछने पर जाना कि विवाहमें पाये विविध राजाओं के भोजनके लिए कन्याके पिताने उन निरपराध पशुत्रोंको बांध रखा है। उनका हृदय भय तथा उदासीसे व्याप्त हो गया, पशुत्रोंको तुरन्त मुक्त करवा दिया । 'और विवाह ? जिसका प्रारम्भ ही इतना घातक है उसका परिणाम ?' कल्पना करते ही अपने आप सब वस्त्राभूषण उतार कर फेंक दिये, ऊर्जयन्त (गिरनार) पर चढ़ गये और तपलीन हो गये । कुमारी राजीमतीने यह सब सुना "मनसे मैं उनकी ही धर्मपत्नी हूं" कहकर उनके ही पीछे पीछे गिरनार पर चली गयीं । राजुलके वियोग, विलाप, आदिका चित्रण इतना कारुणिक है कि पत्थरको भी प्रांसू आ जाते हैं। तथा उनकी दृढ़ता तथा साधना ऐसी थी कि सचमुच ही 'नीलकमलकी पंखुड़ीने विजलीको काट दिया' था । नेमिनाथ सर्वज्ञ हो जानेपर जब धर्मोपदेश दे रहे थे तब यादवोंके विषयमें प्रश्न किये जाने पर उन्होंने यादवकुलका नाश, द्वारका जलना और अपने कुटुम्बी द्वारा श्रीकृष्णजीको मृत्युकी भविष्यवाणी की थी जो कि अक्षरशः सत्य हुई थी।
श्री नेमिनाथ कृष्णजीके भाई थे। कृष्णजीके समयके विषयमें विविध मान्यताएं हैं, सबसे अधिक प्रचलित मान्यता यही है कि कृष्णजी ३०००-१४०० ई०पूर्वके लगभग हुए हों गे । इसी आधार पर नेमिनाथका समय निर्णय करना अनुचित न हो गा । तथापि जैन मान्यताके अनुसार नेमिके ८५००० वर्ष बाद पार्श्वनाथ हुए हैं । यतः भारतीय कालक्रमका अन्तिम निर्णय नहीं हुआ है अतएव जैन काल गणनासे लाभ उठाया ही जा सकता है । श्री पार्श्वनाथ--
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ अधिक ख्यात हैं जैसा कि कलकत्ता, आदि नगरोंमें प्रतिवर्ष निकलने वाले विशाल रथोत्सवों, सर्वत्र प्राप्त मूर्तियों, श्रादिसे सुस्पष्ट है। जैन पुराणों के अनुसार ये भ० महावीरसे २४६ वर्ष पूर्व मुक्तिको गये हैं । जैन मान्यतानुसार ही वे पूरे १०० वर्ष जीवित थे अर्थात् वे८७२ ई० पू० में उत्पन्न हुए ८४३ में ३० वर्षकी अवस्था होनेपर दीक्षा ली और ७७२ ई० पूर्वमें सम्मेद शिखर अथवा 'पार्श्वनाथ पर्वत' से मुक्ति पधारे । यह स्थान पू० भा रे० के प्रधान शाखा ( ई० ई० रे० ग्राण्ड कोर्ड) मार्गपर स्थित है। यहां प्रतिवर्ष हजारों जैनी ही नहीं अपितु विचारक एवं शान्त पुरुष भी जाते हैं ।
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