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________________ पौराणिक जैन इतिहास चक्रवर्ती सगर-- रामायणके अश्वमेध यज्ञकर्ता सगर, उनके यज्ञ-अश्वकी इन्द्र द्वारा चोरी, अधोलोकमें कपिल ऋषिके निकट बांधना, सगरके पुत्रोंका भूमि खोदकर सागर ( समुद्र ) बनाते हुए घोड़े को खोजना, ऋषिकी चोर समझ कर अवज्ञा करना, उनकी कोपाग्निमें भस्म होना, इनके उद्धारके लिए, सगरसे भगीरथ तककी साधना तथा गंगावतरण भारतकी सुविदित कथायें हैं। जैन पुराणोंके सगर चक्रवर्ती थे तथा इनके साठ सहस्त्र प्रतापी पुत्र थे। पुत्रोंने पितासे कर्यादेश चाहा फलतः उन्होंने कैलाश पर्वतपर स्थित उक्त बहत्तर जिन मन्दिरोंको सुरक्षित बनानेके लिए उसके चारों ओर खायी खोदकर गंगानदीके पानीसे भर देनेकी आज्ञा दी जिसे उन्होंने पूर्ण किया। मणिकेतु नामका विद्याधर सम्राट सगरका मित्र था जो इन्हें संसारसे विरक्त करना चाहता था पर सगरका मोह शान्त न होता था अतः उसने एक युक्ति निकाली-उसने सर्परूप धारण करके कैलाशपर काम करने वाले सगर पुत्रोंको विष ज्वालासे मृतवत् मूञ्छित कर दिया। फिर ब्राह्मणका रूप धारण करके अपने पुत्रके शवको लेकर सगरके पास गया और पुत्रको जीवित करनेकी प्रार्थना की। सगरने संसारकी अनित्यताका पाठ पढ़ाकर दीक्षा लेनेकी सम्मति दी। इसपर ब्राह्मणने सगरको पुत्रोंकी कैलाशपर हुई तथोक्त मृत्युका समाचार देकर मुनि होनेका काकु (व्यङ्गय) किया । सगरने रानी विदर्भाके पुत्र भगीरथको राज्य देकर दीक्षा ली। इसके बाद मणिकेतुने कैलाशके निकट गंगा तटपर सब पुत्रोंको चेतन कर दिया। वे सब भी मुनि हो गये । पिताके निर्वाणके बाद भागीरथने भी और घोर तप किया। देवोंने अाकर गंगा जलसे उनका अभिषेक किया, अभिषेक जल उनके पैरों के नीचेसे फिर गंगामें गया। उसी दिनसे गंगा भागीरथी कहलायी और पुण्य मानी जाने लगी। इसके बाद भगीरथका निर्वाण हो गया। रुगरके वर्णनोंकी विशेष छान बीनके विना ही इतना कहा जा सकता है कि गंगा; जैन दृष्टि में स्वर्गसे अाने. ब्रह्माके कमण्डलुसे निकलने अथवा शिवजीके मस्तकपर गिरनेसे पवित्र नहीं है, अपितु मानव ऋषि भगीरथके पुण्य चरणोदकके प्रवाहके कारण पवित्र हो गयी है। अर्थात् यह वर्णन भी जैनधर्म में प्रधान मानवताका पोषक है। नारायण-- ब्रह्मवैवर्त पुराण' तथा विष्णुपुराण के लोकोत्तर दैव पुरुष नारायण भी जैनधर्ममें मनुष्य थे । वे विश्व नियन्ता परमब्रह्म नहीं थे जो कि पृथ्वी पर आये हों। १ नर शब्दका अर्थ मुक्ति है, जिसमें मुक्त आत्मा परमब्रह्म तुल्य हो जाता है अतः ईश्वर नारायण है। अथवा नर-पापी, उसका अयन-मार्ग (मोक्ष) अतएव नारायण परमब्रा है। अथवा नर तथा अयनके अर्थ मुक्ति तथा ज्ञान भी है । २ नर अर्थात् आप (जल) अथवा मनुष्य सन्तान अतएव क्षीर समुद्र निवास अथवा अवारके कारण परमब्रह्म ३६ २८१
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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