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________________ वर्णी - अभनन्दन ग्रन्थ है तो इन श्लोकोंका परस्पर सामञ्जस्य बिठलाने के लिए यही मानना उपयुक्त है कि उपर्युक्त विस्तार कार्य और कारणके रूपमें शरीरके ही अन्तर्गत किया गया है। इसका फलितार्थ यह है कि सांख्यदर्शनकी प्रकृति और पुरुष उभय तत्त्वमूलक सृष्टिका अर्थ भिन्न-भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिसे निष्पन्न उन पुरुषोंके अपने अपने शरीरकी सृष्टि ही ग्रहण करना चाहिये । यह फलितार्थ हमें सरलता के साथ इस निष्कर्ष पर पहुंचा देता है कि सांख्य दर्शनकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक ही है । सांख्य सृष्टिक्रम सांख्य दर्शनकी मान्यतामें पुरुष नामका चेतनात्मक श्रात्मपदार्थ और प्रकृति नामका चेतना शून्य जड़ पदार्थ इस तरह दो अनादि मूल तत्त्व हैं, इनमें से पुरुष अनेक हैं और प्रकृति एक है। प्रत्येक पुरुषके साथ इस एक प्रकृतिका अनादि संयोग है, इस तरह यह एक प्रकृति नाना पुरुषोंके साथ संयुक्त होकर उन पुरुषों में पाये जाने वाले बुद्धि, अहंकार, श्रादि नाना रूप धारण कर लिया करती है अर्थात् प्रकृति जब तक पुरुषके साथ संयुक्त रहा करती है तब तक वह बुद्धि अहंकार आदि नानारूप है और जब इसका पुरुषके साथ हुए संयोगका प्रभाव हो जाता है, तब वह अपने स्वाभाविक एक रूपमें पहुंच जाती । प्रकृतिका पुरुषके संयोग से बुद्धि, अहंकार आदि नाना रूप हो जानेका नाम ही सांख्य दर्शन में सृष्टि या संसार मान लिया गया 1 सांख्य दर्शन में प्रकृतिका पुरुषके साथ संयोग होकर बुद्धि, अहंकार, आदि नाना रूप होनेकी परम्परा निम्न प्रकार बतलायी गयी है – “प्रकृति पुरुषके साथ संयुक्त होकर बुद्धि रूप परिणत हो जाया करती है यह बुद्धि अहंकार रूप परिणत हो जाया करती है और यह अहंकार भी पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन तथा पांच तन्मात्राएं इस प्रकार सोलह तत्त्व रूप परिणत हो जाया करता है । इन सोलह तत्त्वोंमें से पांच तन्मात्राएं अन्तिम पांच महाभूतका रूप धारण कर लिया करती हैं । इसका मतलब यह है कि प्राणियों में हमको जो पृथक् पृथक् बुद्धिका अनुभव होता है वह सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार उस उस पुरुष के साथ संयुक्तं प्रकृतिका ही परिणाम है । प्राणियोंकी अपनी अपनी बुद्धि उनके अपने अपने कारकी जननी है और उनका अपना अपना अहंकार भी उनकी अपनी अपनी ग्यारह ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियों को पैदा किया करता है, अहंकारसे ही शब्द तन्मात्रा, स्पर्श तन्मात्रा, रूप तन्मात्रा, रस तन्मात्रा और गन्ध तन्मात्रा ये पांच तन्मात्राएं पैदा हुआ करती हैं और इन पांच तन्मात्राओंोंमें से एक एक तन्मात्रा से एक एक भूतकी सृष्टि होकर पांच स्थूल भूत निष्पन्न होते रहते हैं । यद्यपि सांख्य दर्शनकी मान्यता के अनुसार शब्द तन्मात्रा से श्राकाश तत्त्वकी, शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं से वायु तत्त्वकी, शब्द, स्पर्श और रूप तन्मात्राओं से अग्नि तत्त्वकी, शब्द स्पर्श रूप और रस तन्मात्राओं से जल तत्त्वकी और शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध तन्मात्राओं से पृथ्वी तत्त्वकी सृष्टि हुआ करती है, परन्तु हमने ऊपर जो एक एक २८
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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