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________________ जैन दर्शनका उपयोगिता वाद वैशेषिक दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्थाका आधार अस्तित्ववादको ही समझना चाहिये अर्थात् सांख्य और वेदान्त दर्शनों की तत्त्व व्यवस्था प्राणियोंके संसार और मोक्ष तक ही सीमित है और न्याय और वैशेषिक दर्शन अपनी पदार्थ-व्यवस्था द्वारा विश्वकी वस्तुस्थितिका विवेचन करनेवाले ही हैं। जिन विद्वानोंका यह मत है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था न्याय और वैशेषिक दर्शनोंकी तरह अस्तित्व वाद मूलक ही है उन विद्वानोंके इस मतसे मैं सहमत नहीं हूं क्योंकि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंका गंभीर अध्ययन हमें इस बातकी स्पष्ट सूचना देता है कि पदार्थ व्यवस्थामें इन दोनों दर्शनोंके अाविष्कर्ताओंका लक्ष्य उपयोगिता वाद पर ही रहा है । इस लेखमें इसी बातको स्पष्ट करते हुए मैं जैनदर्शनके उपयोगितावादपर अवलम्बित संसार तत्त्वके साथ सांख्य और वेदान्त दर्शनकी तत्त्व व्यवस्थाका समन्वय करनेका ही प्रयत्न करूगा। सांख्यका उपयोगिता वाद श्रीमद्भगवद्गीताका तेरहवां अध्याय सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक है, इसपर गहरा प्रकाश डालता है और इस अध्यायके निम्नलिखित श्लोक तो इस प्रकरणके लिए अधिक महत्त्वके हैं “इदं शरीरं कौन्तेय ! क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः ॥ १॥" इस श्लोकमें श्रीकृष्ण अर्जुनसे कह रहे हैं कि हे अर्जुन ! प्राणियोंके इस दृश्यमान शरीरका ही नाम क्षेत्र है और इसको जो समझ लेता है वह क्षेत्रज्ञ है । "तत्क्षेत्रं यच्च याक् च यद्विकारी यतश्च यत् । स च यो यत् प्रभावश्च तत्समासेन मे शृणु ॥ ३॥" इस श्लोकमें श्रीकृष्ण ने अर्जुनको क्षेत्र रूप वस्तु, उसका स्वरूप और उसके कार्य तथा कारणका विभाग, इसी तरह क्षेत्रज्ञ और उसका प्रभाव इन सब बातोंको संक्षेपमें बतलानेकी प्रतिज्ञा की है। "महाभूतान्यहंकारो बुद्धिव्यक्तमेव च । इन्द्रियाणि दशैकं च पञ्च चेन्द्रियगोचराः ॥५॥ इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं, संघातश्चेतना धृतिः। एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥ ६॥" इन दोनों श्लोकोंमें यह बतलाया गया है कि पञ्चभूत, अहंकार, बुद्धि, अव्यक्त ( प्रकृति ), एकादश इन्द्रियां, इन्द्रियोंके पांच विषय तथा इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना और धृति इन सबको क्षेत्रके अन्तर्गत समझना चाहिये । यहां पर यह बात ध्यान देने योग्य है कि पहिले श्लोकमें जब शरीरको ही क्षेत्र मान लिया गया है और पांचवे तथा छठे श्लोकोंमें क्षेत्रका ही विस्तार किया गया २७
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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