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जैन पुराणोंके स्त्रीपात्र थी तथा उसके भव भवान्तरोंके दिव्य चरित्रका निरूपण कर नारी चरित्रको बहुत ऊंचा उठा दिया है। आचार्यने विशल्याके चरित्रको अत्यन्त उज्ज्वल बनाया है। वस्तुतः उस नारीके चरित्रको मानवके चरित्रसे बहुत ऊपर उठा दिया है । क्या कोई भी निष्पक्ष विद्वान् उस वर्णनको देखकर नारी की महत्तासे इंकार कर सकता है ? विशल्याकी पूर्व भवावलीके वर्णनमें अनंगसराकी दीक्षाका चित्र भी कम सुन्दर नहीं है । इस चित्रने भारतीय रमणीको बहुत ऊंचा उठा दिया है। वह केवल वासना या गृहस्थीके जंजालकी कठपुतली ही नहीं रह गयी है प्रत्युत त्याग और तपस्याकी प्रतिमूर्ति बन गयी है। जैनाचार्योंकी यही सबसे बड़ी विशेषता है।
इस प्रकरणके दो श्लोकोंमें नारीकी सहानुभूति और दयाका अंकन आचार्य प्रवर रविषेणने कितना सुंदर किया है । सतीको भूखा अजगर निगल रहा है, रक्षक उसकी रक्षा करना चाहते हैं । किन्तु अनंगसरा रक्षकोंको इशारेसे मना कर देती है और बतलाती है कि इस बेचारे भूखे जन्तुकी हिंसा न कीजिये । यह
आत्मा अमर है विनाशशील शरीर अनादि कालसे ही उत्पन्न और नष्ट होता चला आ रहा है फिर इसमें मोह क्यों ? यह अब बच नहीं सकता । पद्मपुराणमें आचार्य रविषेणने मन्दोदरीके राग विरागात्मक गंगा जमुनी चरित्रका निर्माण कर पौराणिक नारी चरित्र चित्रणको आजके मनोवैज्ञानिक स्तरपर पहुंचा दिया है । मन्दोदरीकी दयाका चित्र देखिये
"पतिपुत्र वियोग दुःखज्वलनेन विदियिता सती जाता।"
"हा पुत्रेन्द्रजितेदं व्यवसितमोहक्कथं त्वया कृत्यम् । हा मेघवाहन कथं जननी नापेक्षिता दोना ॥" "त्यक्ताशेषग्रहस्थवेषरचना मन्दोदरी संयता। जाताऽत्यन्त विशुद्धधर्मनिरता शुक्लैकवस्त्राऽऽवृता।"
"संशुद्धश्रमणा व्रतोरुविभवा जाता नितान्तोत्कटा।"
(प० पु० भा०३ पृ० ९१-९२) जो मन्दोदरी एक क्षण पहले पति, पुत्र, पौत्र, आदिके शोकसे विह्वल दृष्टिगोचर होती है वही दूसरे क्षण बदली हुई परम धार्मिक, संसार-विरक्त, मोह मायासे हीन और आत्माकी साधिका नजर आती है। पुराण निर्माताओंका नारी चरित्रका यह विकास क्रम क्या अाजके अंतर्द्वन्दको प्रकट करनेवाला नहीं है ? मन्दोदरीकी दोलायमान मानसिक स्थितिका शब्द-चित्र क्या इससे सुंदर बन सकता है ?
१५० पु० पृ. ४२५-२६