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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ दमन करना चाहिये । इस प्रकार राजाको चतुर मालीकी तरह समस्त पृथ्वीका पालन करना चाहिये । जिस प्रकार किसी वृक्ष पर पड़े हुए पीपलके छोटेसे बीजसे बड़ा वृक्ष तैयार हो जाता है उसीप्रकार छोटेसे छोटे शत्रुसे भी बड़ा भय उपस्थित हो सकता है इसलिए कौन बुद्धिमान् छोटेसे भी भयकी उपेक्षा करे गा'।' ये सब वे मार्मिक उपदेश हैं जिनसे राजाओंका जीवन लोक कल्याणकारी बन जाता है। राजाका जीवन केवल भोग विलासके लिए नहीं है, बल्कि दुष्टोंका निग्रह और सज्जनोंका अनुग्रह करके जगतीकी सुन्दर व्यवस्था करनेके लिए है । यद्यपि अन्य पुरुषोंकी तरह राजाके भी दो हाथ, दो पैर और दो अांखें होती हैं, उसे भी अन्य पुरुषोंकी तरह ही खाना, पीना, सोना आदि नित्यकर्म करने पड़ते हैं तथापि वह अपनी सेवावृत्ति, अलौकिक प्रतिभा और योग्य लोगों के निर्वाचन तथा सहयोगसे समूचे राष्ट्रको शान्त, समृद्ध और शिक्षित करता है। अपनो राजधानीमें बैठा राजा गुप्तचरोंके द्वारा स्व-परराष्ट्रकी समस्त हलचलोंसे परिचित रहता है । गुप्तचर विहीन राजाका न राज्य ही स्थिर रहता है और न प्राण । यही कारण है कि नीतिकारोंने गुचप्तरोंको राजाओंके लोचन बतलाये हैं और राजानोंको सावधान भी किया है कि वे चरोंकी उपेक्षा न करें अन्यथा चक्षुकी उपेक्षा होनेपर जिस प्रकार पद पदपर पतन होने लगता है उसी प्रकार चरोंकी उपेक्षा होनेपर भी पद पदपर पतन होना संभव हो जाता है। श्राचार्य सोमदेवने यही भाव नीतिवाक्यामृतमें स्पष्ट किया है । प्रा० सोमदेवके मतसे दूत वही हो सकता है 'जो चतुर हो, शूरवीर हो, निर्लोभ हो, प्राज्ञ हो, गम्भीर हो, प्रतिभाशाली हो, विद्वान् हो, प्रशस्त वचन बोलनेवाला हो, सहिष्णु हो, द्विज हो, प्रिय हो और जिसका प्राचार निर्दोष हो ।' यशस्तिलकके इस कथकका नीतवाक्यामृतमें भी समर्थन है । पूर्ण राजतंत्रका संचालन अर्थ द्वारा होता है इसलिए राजाओंको चाहिये कि वे प्रत्येक वैध उपायके द्वारा अपनी आयकी वृद्धि करें तथा जितनी आय हो उससे कम खर्च करें, अावश्यक श्राकस्मिक अवसरों के लिए संचय भी करते रहें, जैसा कि नीतिवाक्यमृतके सूत्रसे स्पष्ट है । राजाओंकी आय और व्यय व्यवस्थाका मुनियोंको कमण्डलुका निदर्शन है ।' जिस प्रकार कमण्डलुमें पानी भरनेका द्वार तो बड़ा होता है और निकालनेका छोटा, उसी प्रकार राजाअोंकी अायका द्वार बड़ा होना चाहिये और खर्च कम । 'जो राजा अपनी बायका विचार न करके अधिक खर्च करता है वह राज्य स्थिर नहीं रख सकता। इसी प्रकरणमें कहा गया है कि 'बायका विचार न करके खर्च करनेवाला कुवेर भी नंगा हो जाता है। १ यशस्तिलकचम्यू आ. ३ श्लो० ९५, ९७, १००, १०७-८ । २ यशस्तिलक चम्पू, आ०३ श्लोक १११ । नीति वाक्य. चारसमु..मू. २ । ३ 'आयव्ययमुखयोर्मुनिकमण्डलु दर्शनम्' । नीति. चार० मू०३। * 'आयमनालोक्य व्ययमानो वैश्रवणोऽपि श्रमणायते' नीति. अमात्यसमुद्देश।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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