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________________ बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा द्वारा किये गये विवादका स्मरण हो पाता है । कुमारिलकी युक्ति यह है कि सामान्य लक्षण अथवा व्याप्तिज्ञान कल्पनाविरचित है फलतः तार्किक दृष्टि से स्वलक्षणसे उसका कोई सम्बन्ध नहीं है । और जब उनका सत् वस्तुअोमें आरोप किया जायगा तो वे वस्तु स्वभावको भी कुछ हीन ही कर देंगे । इस प्रकार स्वलक्षणके आश्रित अनुमान वस्तु स्वभावको परिवर्तित करते हुए कैसे स्वयं ज्ञानका कारण हो सकता है ? फलतः कुमारिलके समान जैन भी श्रारोप करते हैं कि सौत्रान्तिक सम्मत प्रमाण अर्थात् साकारज्ञान हमें संसार के पदार्थों का बोध नहीं करा सकता तथा अर्थ निर्णय अथवा अर्थ संसिद्धि में असफल ही रहता है । व्याप्तिज्ञान या व्याप्ति निश्चय ही अनुमान ज्ञानकी अाधार शिला है, व्याप्तिज्ञान दृष्टान्त पूर्वक ही होता है तथा दृष्टान्त प्रत्यक्षसे ज्ञात होना चाहिये, किन्तु सौत्रान्तिककी यह स्वयं सिद्ध मान्यता है कि वाह्य वस्तुका प्रत्यक्ष नहीं होता । निष्कर्ष यह हुआ कि दृष्टान्तपर आश्रित होने के कारण व्याप्तिज्ञान तथा व्याप्ति मूलक होनेके कारण अनुमान समाप्त होजाते हैं । और साथही साथ ‘पदार्थों का प्रत्यक्ष नहीं होता अपितु वे अनुमेय हैं --, सत्रान्तिकका यह सिद्धान्त भी धराशायी हो जाता है । योगाचार प्रमाण सिद्धान्त-समीक्षा योगाचार बौद्धोंकी प्रधान मान्यता यह है कि समस्त सत् तथा ज्ञेय वस्तुओंका जोकि पृथक पृथक् परमाणु हैं, साक्षात्कार 'प्रत्यय' या 'विज्ञान' रूपसे होता है। कोई ऐसी चेतनावस्था नहीं है जिसमें उनकी उत्पत्ति और सन्बन्धकी कल्पना कीजाय, न कोई ऐसी वाह्य वस्तु है जिसपरसे उनके श्राकार प्रकारका निश्चय किया जाय । प्रत्यय या विज्ञान कल्पना तो पालम्बन प्रत्ययके लिए है जहांपर स्वतः भिन्न भिन्न प्रत्ययोंकी स्थिति तथा सम्बन्ध होता है । यह भी कहा गया है कि ऐसे विज्ञानकी कल्पनाका हेतु वह साधारण चिन्ता शैली है जो उक्त प्रकारके अाधारके विना ज्ञानकी कल्पना भी नहीं कर पाती है | साधारण चिन्ता शैली सुगम मार्ग से चलती है, और 'अभ्युपेतवाद से सकुचाती है, यद्यपि ऐसी प्रक्रिया वस्तुस्थिति ( सम्वृत्त्य ) का आवरण है क्योंकि वस्तुस्थिति समस्त प्रत्ययोंको अभ्युपेत हीन ही मानती है । अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्ठा करनेके इच्छुक योगाचारको सबसे पहिले प्रत्ययके मूलाधार अपने ही अभावको स्पष्ट दिखाना होगा । दूसरे दृश्य बाह्य जगतका अभाव सिद्ध करना पड़ेगा। क्योंकि उसके अनुसार संसारका मूलस्रोत तथा ज्ञान सन्तानकी श्रृंखला स्वरूप आत्मा तत्त्वज्ञानसम्बन्धी शुद्ध कल्पना १, श्लो. वा. श्लो ५२, शून्यवाद पृ० २८३-४ । २. तत्व. वो. वि. स. पृ, ४५९ ३, शान्तरक्षितका तत्वसंग्रह इलो २०८२--४। (कमलपूशीकी पलिका सहित) ४, परमार्थतस्तु निरालम्बनाः सर्वाः एव प्रत्ययाः इति । त० सं० पृ० ५८२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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