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________________ वर्णीजी : जीवन-रेखा ने प्रारम्भिक और माध्यमिक शिक्षा देने में बड़ी तत्परता दिखायी हैं । इन सबमें सागर विद्यालयकी सेवाएं तो चिरस्मरणीय है । बर्णी जाने पाठशाला स्थापना के तीर्थ का ऐसे शुभ मुहूर्त में प्रवर्तन किया था कि जहांसे वे निकले वहीं पाठशालाएं खुलती गयीं। यह स्थानीय समाजका दोष है कि इन संस्थाओं को स्थायित्व प्राप्त न हो सका । इसका वर्णीजी को खेद है । पर समाज यह न सोच सका कि प्रान्त भरके लिए व्याकुल महात्माको एक स्थानपर बांध रखना अनुचित है । उनके संकेतपर चलकर आमोद्धार करना ही उसका कर्त्तव्य है । तथापि वर्णित्रय सतत प्रवास तथा विशुद्ध पुरुषार्थने बुन्देलखण्ड ही क्या अज्ञान अन्धकाराच्छन्न समस्त जैन समाजको एक समय विद्यालय पाठशाला रूपी प्रकाश स्तंभों से आलोकित कर दिया था । इसी समय वर्णीजीने देखा कि केवल प्राच्य शिक्षा पर्याप्त नहीं है फलतः योग्य अवसर आते ही श्रापने जबलपुर 'शिक्षामन्दिर' तथा जैन विश्व विद्यालयकी स्थापनाके प्रयत्न किये। यह सच है कि जबलपुरकी स्थानीय समाज fat कारणों से प्रथम प्रयत्न तथा समाजकी दलबन्दी एवं उदासीनता के कारण द्वितीय प्रयत्न सफल न हो सका,तथापि उसने ऐसी भूमिका तयार कर दी है जो भावी साधकोंके मार्गको सुगम बनावेगी । आज भी वर्णांजी बौद्धिक विकास के साथ कर्मठताका पाठ पढ़ाने वाले गुरु कुलों तथा साहित्य प्रकाशक संस्थानोंकी स्थापना व पोषण में दत्तचित्त हैं। ऊपर के वर्णन से ऐसा अनुमान किया जा सकता है कि वर्णीजीने मातृमण्डल की उपेक्षा की, पर ध्रुव सत्य यह है कि वर्णोजीका पाठशाला श्रान्दोलन लड़के लड़कियोंके लिए समान रूपसे चला है । इतना ही नहीं ज्ञानी त्यागी मार्गका प्रवर्तन भी आपके दीक्षागुरू बाबा गोकुल चन्द्र ( पितुश्री पं० जगमोहनलालजी सिद्धान्तशास्त्री ) तथा आपने किया है । "वर स्वारथ के कारने" आश्चर्य तो यह है कि जो वर्णीजी अधिक पैसा पास न होने पर हफ्तों कच्चे चने खाकर रहे और भूखे ही रह गये, अपनी माता ( स्व० चिरोंजा - ) बाईजीसे भी किसी चीजको मांगते शरमाते थे, उन्हींका हाथ पारमार्थिक संस्थाओंके लिए मांगनेको सदैव फैला रहता है । इतना ही नहीं संस्थाओं का चन्दा उनका ध्येय बन जाता था । यदि ऐसा न होता तो सागर में सामायिकके समय तन्द्रा होते ही चन्देकी लपकमें उनका शिर क्यों फूटता। पारमार्थिक संस्था की झोली सदैव उनके गले में पड़ी रही है । आपने अपने शिष्यों के गले भी यह झोली डाली है । पर उन्हें देखकर वणी जीकी महत्ता हिमालय के उन्नत भालके समान विश्व के सामने तन कर खड़ी हो जाती है। क्योंकि उनमें " मर जाऊं मांगूं नहीं अपने तनके काज ।' का वह पालन नहीं है जो पूज्य वर्गीजीका मूलमंत्र रहा है । वर्गीजीकी यह विशेषता रही है कि जो कुछ इकट्ठा किया वह सीधा संस्थाधिकारियोंको भिजवाया या दिया और स्वयं निर्लिप्त । बर्णीजीके निमित्त से इतना अधिक चन्दा हुआ है कि यदि वह केन्द्रित हो पाता तो उससे विश्व पन्द्रह
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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