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________________ उत्तराध्ययनसूत्रका विषय श्री प्रा० बलदेव उपाध्याय साहित्याचार्य, एम० ए०, आदि __ जैन सिद्धान्तके अन्तर्गत उत्तराध्ययनसूत्र' की पर्याप्त प्रतिष्ठा तथा महत्ता है। यह प्रथम 'मूलसूत्र' माना जाता है । 'मूलसूत्र' का मूलत्व किंमूलक है, यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। मूल शब्दका प्रयोग ब्राह्मण तथा बौद्ध ग्रन्थों में प्राचीन विशुद्ध ग्रन्थके लिए पाया जाता है। पैशाची बृहत्कथाके अनुवादक सोमदेवने अपने 'कथासरित्सागर' में मूल ग्रन्थके अनुगमन करनेकी प्रतिज्ञा की है (यथामूलं तथैवैतन्न मनागप्यतिक्रमः )। 'महाव्युत्पत्ति' में प्रयुक्त मूलग्रन्थ का प्रयोग भगवान् बुद्ध के साक्षात् कहे हुए वचनोंके लिए ही प्रतीत होता है। सूत्र' से अभिप्राय दार्शनिक सूत्रोंके समान अल्पाक्षर विशिष्ट वाक्यां या वाक्यांशोंसे नहीं है, प्रत्युत महावीरके उपदेशोंके सार प्रस्तुत करनेके कारण ही ये ग्रन्थ इस शब्दके द्वारा अभिहित किये गये हैं । 'उत्तराध्ययन' के प्रथम पद 'उत्तर'की व्याख्या भी टीकाकारोंके मतमें विभिन्न सी है। एक टीकाकारने 'उत्तर' का अर्थ श्रेष्ठ बतलाकर इन सूत्रोंको सिद्धान्त ग्रन्थों में श्रेष्ठ माना है । परन्तु ग्रन्थोंके नाममें उत्तर शब्दका प्रयोग अधिकतर 'अन्तिम' 'पिछला' के ही अर्थमें दीख पड़ता है। उत्तर नाम विशिष्ट ग्रन्थोंकी संख्या कम नहीं है, परन्तु सर्वत्र इसका संकेत 'पूर्व' के विपरीत 'पिछल।' या 'अन्तिम अर्थमें ही उपयुक्त दीखता है। उत्तरकाण्ड, उत्तरखण्ड, उत्तरग्रन्थ, उत्तरतन्त्र, उत्तर तापनीय -आदि ग्रन्थोंके नाम इस कथनके स्पष्ट प्रमाण है। भगवान महावीरके अन्तिम उपदेश होने के कारण हो इस ग्रन्थका यह नामकरण हैं। जैनियोंका सचेल सम्प्रदाय बतलाता है कि महावीरने अपने अन्तिम पजुसनमें बुरे कर्मोंके निर्देशक पचपन अध्यायोंको तथा छत्तीस विना पूछे हुए प्रश्नोंकी व्याख्या करके अपना शरीर छोड़ा (छत्तोस...अपुट्ट वागरणाई ) । अन्तिम ग्रन्थसे टीकाकार इसी उत्तरा १ एतान्यध्ययन:नि निगमनं सर्वेषामध्ययनानाम् । प्रधानत्वेऽपि रूढ्याऽमून्येव उत्तराध्ययन शब्द वाचकत्वेन प्रसिद्धानि। -नन्दी टीका। २ वर्तमानमें प्रचलित सूत्रग्रन्थों को केवल श्वेताम्बर सम्प्रदाय ही सर्वथा सत्य मानता है। मूल सम्प्रदायकी दृष्टि में म.र्य सम्राट चन्द्रगुप्तके राज्यकालके अन्तमें हुए द्वादशवाय दुर्भिक्षके कारण तथा श्रुतकेवलियोंके अभावके कारण अंग साहित्य दूषित हो गया था। ४२६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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