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________________ वी-अभिनन्दन-ग्रन्थ चिकित्सा प्रकार आयुर्वेदिक चिकित्सा (१) काय तथा (२) शल्य चिकित्साके भेदसे दो प्रकारकी है । इन दोनों को ही १-काय, २- बाल, ३-ग्रह ४-ऊर्जाग य शालाक्य, ५-शल्य, ६-दंष्ट्रा, -जरा तथा ८-वृष के भेदसे ग्रहण करने पर इनकी संज्ञा अष्टांग आयुर्वेद हो जाती है। अष्टांगका विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि सप्तधातु, त्रिदोष और रक्तसे होने वाले दोषोंके प्रतिकार से लेकर भूत, ग्रह, आदि तक की चिकित्सा पद्धति प्राचीन भारतमें सुविकसित हो चुकी थी। ___ शल्य चिकित्सा भी कोरी कल्पना न थी अपितु इसकी वास्तविकता तथा सर्वाङ्गीण विकास सुश्रुत, आदि ग्रन्थों से हाथका 'कंगन' हो जाती है । जिस समय 'सरजरी' के सर्जकों को मछली भूनकर खाना नहीं आता था उस सूदूर भूतमें भारत के चिकित्सक बद्धगुदोदर, अश्मरी, आवृद्धि, भगंदर, मूगर्भ, आदिका पाटन (ोपरेशन) करते थे । ___वात, पित्त तथा कफ इन तीनों दोषों, रस रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात धातुओं, दूष्यके ही अन्तर्गत मलमूत्रादि, वातादिके स्थान लक्षण, अादिके विवेचन लघुकाय लेखमें स्पष्ट संभव नहीं हैं । तथा अभिनन्दन ग्रन्थ ऐसे बौद्विक आयोजनों को प्रत्येक विषयकी ज्ञान धारामें वृद्धि करना चाहिये । फलतः आयुर्वेद के प्रेमियों तथा विचारकों के लिए 'जैन वाङ्मयमें आयुर्वेद के स्थान' का संकेत ही पर्याप्त है। ५०६
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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