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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ में पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिके जिन वाक्योंको वार्तिकादिके रूपमें विना किसी सूचनाके अपनाया गया है अथवा न्याय विनिश्चयमें समन्तभद्रके 'सूक्ष्मान्तरित दूरार्थाः' जैसे वाक्योंको अपनाया गया है उन सब को भी अकलंक-देवकी 'मौलिक कृति' कहना होगा । यदि नहीं, तो फिर उक्त श्लोकको अकलंकदेवकी मौलिक कृति बतलाना निर्हेतुक ठहरे गा । प्रत्युत इसके, अकलंकदेव चूंकि यतिवृषभके बाद हुए हैं अतः यतिवृषभकी तिलोयपण्णत्तीका अनुसरण उनके लिए न्याय प्राप्त है और उसका समावेश उनके द्वारा पूर्व पद्यमें प्रयुक्त 'यथागम' पदसे हो जाता है; क्योंकि तिलोयपण्णत्तिं भी एक श्रागम ग्रन्थ है, जैसा कि गाथा नं० ८५, ८६, ८७ में प्रयुक्त हुए उसके विशेषणोंसे जाना जाता है। धवलाकारने भी जगह जगह उसे 'सूत्र' लिखा है और प्रमाण रूपमें उपस्थित किया है । एक जगह वे किसी व्याख्यानको व्याखानाभास बतलाते हुए तिलोयपण्णत्ति सूत्रके कथनको भी प्रमाण में पेश करते हैं और फिर लिखते हैं कि सूत्रके विरुद्ध व्याख्यान नहीं होता है जो सूत्र विरुद्ध हो उसे व्याख्यानाभास समझना चाहिये-नहीं तो अतिप्रसंग आये गा'। इस तरह यह तीसरा प्रमाण असिद्ध ठहरता है। तिलोयपण्णत्तिकारने चूंकि धवलाके किसी भी पद्यको नहीं अपनाया अतः पद्योंके अपनानेके आधार पर तिलोयपण्णत्तो धवलाके बादकी रचना बतलाना युक्ति युक्त नहीं है। (४) चौथे प्रमाणरूपसे कहा जाता है कि 'दुगुण दुगुणो दुवग्गो णिरंतरो तिरियलोगो' नामका जो वाक्य धवलाकारने द्रव्यप्रमाणानुयोगद्वार (पृ० ४६ ) में तिलोयपण्णत्तिके नामसे उद्धृत किया है वह वर्तमान तिलोयपण्णत्तिमें पर्याप्त खोज करनेपर भी नहीं मिला, इसलिए यह तिलोयपण्णत्ति उस तिलोयपण्णत्तिसे भिन्न है जो धवलाकारके सामने थी। परन्तु यह मालूम नहीं हो सका कि पर्याप्त खोजका रूप क्या रहा है। क्या भारतवर्षके विभिन्न स्थानों में पायी जाने वाली तिलोयपण्यत्तीकी समस्त प्रतियोंका पूर्णरूपसे देखा जाना है ? यदि नहीं,तब इस खोजको 'पर्याप्त खोज' कैसे कहें ? वह तो बहुत कुछ अपर्याप्त है । क्या दो एक प्रतियोंमें उक्त. वाक्यके न मिलनेसे ही यह नतीजा निकाला जा सकता है कि वह वाक्य किसी भी प्रतिमें नहीं है ? नहीं निकाला जा सकता। इसका एक ताजा उदाहरण गोम्मटसार कर्मकाण्ड (प्रथम अधिकार ) के वे प्राकृत गद्यसूत्र हैं जो गोम्मटसारकी पचासों प्रतियोंमें नहीं पाये जाते परन्तु मूडविद्रीकी एक प्राचीन ताडपत्रीय कन्नड प्रतिमें उपलब्ध है और जिनका उल्लेख मैंने अपने गोम्मटसार-विषयक निबन्धमें किया है। इसके सिवाय, तिलोयपण्णत्ती जैसे बड़े ग्रन्थमें लेखकोंके प्रमादसे दो चार गाथाओंका छूट जाना कोई बड़ी बात नहीं है। पुरातन जैन वाक्यसूचीके अवसरपर मेरे सामने तिलोयपण्णत्तीकी चार प्रतियां रही हैं-एक बनारस स्याद्वाद महाविद्यालय १. "तं वक्खाणाभासमादि कुदो गव्वदे ? जोइसियभागहारसुत्तादो चंदाइच्च बिंवपमाण परूवण-तिलोय पण्णति सुत्तदो च । ण च सुत्तविरुद्धं वक्खाणं होइ, अइपरांगादो।" धवला १, २, ४ पृ. ३६ । ३५२
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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