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________________ जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध समान संसारके सभी मनुष्य, अनेक पक्षु, पक्षी और वनस्पतियां सन्तान-अनु-सन्तान, अनादि कालसे ही चले आते हैं, किसी समयमें इनका श्रादि (प्रारम्भ) नहीं हो सकता । और इन सबके अनादि होनेके कारण इस पृथ्वीका भी अनादि होना जरूरी है जिसपर वे अनादि कालसे उत्पन्न होते और वास करते हुए चले श्रावें । साथही, वस्तुओंके गुण, स्वभाव और आपसमें एक दूसरे पर प्रभाव डालने तथा एक दूसरेके प्रभाव को ग्रहण करनेकी प्रकृति, आदि भी अनादि कालसे ही चली आती है । अर्थात् दुनियामें जो कुछ भी हो रहा है वह सब वस्तुओंके गुण और स्वभाव के कारण ही हो रहा है । संसारकी इन सब वस्तुओंके सिवाय न तो कोई भिन्न प्रकारकी शक्ति ही इस प्रबन्धमें कोई कार्य कर रही है और न किसी भिन्न शक्तिकी किसी प्रकार की कोई जरूरत ही है । जैसा कि समुद्रके पानी पर सूरजकी धूप पड़ना, उस तापसे प्रभावित हो (तप्त हो) भाप बनना है । फिर ठण्ड पाकर पानीका पानी होना तथा बरसना, बरसे पानीका भूमिके विषम स्वभावके कारण बहना, जो पानीमें घुल सकते हैं उन्हें घोलकर बहाना, तैर सकने योग्य वस्तुओं तथा घन पदार्थों को धक्कोंसे कुछ दूर तक ले जाना, अपने मार्गकी हलकी हलकी रुकावटोंको हटाना, बलवान् रुकावटोंसे अपना मार्ग बदलना, गड्ढेमें भर जाना तथा समुद्र में फिर पहुंचनेसे स्पष्ट है। धूप, हवा, पानी मिट्टी, आदिके इन उपर्युक्त स्वभावोंसे दुनिया भर में लाखों और करोड़ों ही परिवर्तन हो जाते हैं, जिनसे फिर नवीन नवीन लाखों करोड़ों काम होने लग जाते हैं और भी जिन जिन कार्योंपर दृष्टि दौड़ाते हैं उन उनपर इसी प्रकार 'वस्तु-स्वभावके' द्वारा ही कार्य होता हुआ पाते हैं और होना भी चाहिए ऐसा ही; क्यों कि जब संसारकी सारी वस्तुएं तथा उनके स्वभाव सदासे हैं, जब संसारकी सारी वस्तुएं आपसमें एक दूसरे पर अपना अपना प्रभाव डालती हैं और दूसरी वस्तुओंके प्रभावसे प्रभावित होती हैं तब तो यह बात अनिवार्य ही है कि उनमें सदासे ही बराबर खिचड़ी सी पकती रहे और संसारको वस्तुत्रोंके स्वभावानुसार नाना प्रकारके परिवर्तन होते रहें। यही संसारका सारा कार्य-व्यवहार है जो वस्तु स्वभावके द्वारा अपने आप हो रहा है और न सोचनेवाले पुरुषोंको चकित करके भ्रममें डाल रहा है। इसप्रकार जिन वस्तुओंसे यह दुनिया बनी हुई है वे सभी जीव, अजीव तथा उनके गुण श्रीर स्वभाव अनादि अनन्त हैं । उनके इन अनादि स्वभावोंके द्वारा ही जगतका यह सब कार्य व्यवहार चल रहा है। इन जीव अजीव पदार्थों के सिवाय न तो कोई तीसरी वस्तु सिद्ध होती है और न उसके होनेकी कोई जरूरत ही मालूम होती है । यदि विचारके वास्ते कोई तीसरी वस्तु मान भी लें तो उसके विरुद्ध आक्षेपोंकी एसी झड़ी लग जाती है कि उसको हटा कर और विचार क्षेत्रमें खड़ा रहना ही असम्भव हो जाता है। हां, विचारके क्षेत्रसे दूर भाग जाने पर, पक्षपात और अन्धविश्वासकी लाठीको चारों तरफ घुमाकर किसी भी हेतु या प्रमाणको अपने पास न फटकने देनेकी अवस्थामें हम जो चाहें मान सकते हैं; पर ऐसी दशामें हमारे लिए यह बात भी जरूरी हो जाती है कि न अपनी कहें और न किसीकी सुनें
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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