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________________ शब्दनय श्वेताम्बर आचार्य भी शब्दनयके उक्त स्वरूपके विषयमें एकमत हैं । वादिदेव' कहते हैं''काल आदिके भेदसे जो पदार्थ भेदको स्वीकार करता है वह शब्दनय है। जैसे-'सुमेरु था, है और रहेगा' । जो काल, आदिके भेदसे सर्वथा अर्थभेद को ही स्वीकार करता है वह शब्दाभास है"। ____मल्लिषेण लिखते हैं-शब्दनय एक अर्थके वाचक अनेक शब्दोंका एक ही अर्थ मानता है । जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्द एक 'देवराज' अर्थ का ही कथन करते हैं। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस प्रकार यह नय पर्याय शब्दोंका एक ही अर्थ मानता है उसी प्रकार लिंगादिके भेदसे वस्तुके भेदको भी स्वीकार करता है । भिन्न भिन्न धर्मों के द्वारा कही जाने वाली वस्तुमें धर्मभेद न हो, यह नहीं हो सकता"। सिद्धर्षिगणि और उपाध्याय यशोविजयजी का भी यही मत है। सर्वार्थसिद्धिका लक्षण शब्दनयके विषयमें अकलंकदेवकी परम्पराका अनुशीलन करनेके बाद अब हम पूज्यपादकी परम्पराका विश्लेषण करेंगे। इस परम्परामें हमें तीन ही विद्वान् दृष्टिगोचर होते हैं—एक स्वयं पूज्यपाद दूसरे राजवार्तिकके रचयिता भट्टाकलंक और तीसरे तत्त्वार्थसारके कर्ता अमृतचन्द्रसूरि, श्वेताम्बर विद्वानोंमें सन्मतिकी टीकाके रचयिता श्री अभयदेवसूरि पर भी पूज्यपादकी परम्पराकी कुछ छाप लगी सी जान पड़ती है। ___ सर्वार्थसिद्धि में लिखा है-"लिंग संख्या, साधन, आदिके व्यभिचारको जो दूर करता है उसे शब्दनय कहते हैं' । राजवार्तिक' में मामूलीसे हेर फेरके साथ यही लक्षण किया गया है । इस लक्षण में 'व्यभिचार निवृत्तिपरः' पद स्पष्ट होते हुए भी अस्पष्ट है । लक्षणकार और उसके अनुयायियोंने व्यभिचारकी परिभाषा तो स्पष्ट कर दी किन्तु निवृत्तिपरः को अस्पष्टसा ही छोड़ दिया । एकवचनके १-कालादिभेदेन ध्वनेरर्थभेदं प्रतिपद्यमानः शब्दः ।। ३३ । यथावभूव, भवति, भविष्यति सुमेरुरित्यादि ॥ ३४ ॥ तद्भेदेन तस्य तमेव समर्थयमानस्तदाभासः ।। ३४ ॥ प्रमाणनयतत्त्वालोक परि०७। २-शब्दस्तु रूढितो यावन्तो ध्वनयः करिमश्चिदर्थे प्रवर्तन्ते यथा इन्द्र शक पुरन्दरादयः सुरपती तेषां सर्वेषामप्येकमर्थमभिप्रेति किल प्रतीतिशाद् । 'यथा चायं पर्यायशब्दानामेकमर्थमभिप्रेति तथा तटः,तटी, तटम् इति विरुद्धलिंग लक्षण धर्माभिसम्बन्धाद् वस्तुनो भेदं चाभिधते । नहि विरुद्धाकृतं भेदमनुभवतो वस्तुनो विरुद्धधर्मा योगो युक्तः।-स्याद्वादमज्जरी पृ० ३१३ । ३ कालादि भेदेन ध्वनेरर्थभेद प्रतिपद्यमानः शब्हुं। एतस्दार्थः-सकेताद्व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययसमुदायेन सिद्धः काल कारक लिंग संख्या पुरुषोपसर्गभेदेनार्थ पर्यायमात्र प्रतीयते स शब्दनयः । कालभेद उदाहरणम्-यथा बभूव, भवति. भविष्यति सुमेरुरिति अत्रकालत्रत्वं यविभेदात् सुमेरोरपि भेदाशब्दनयेन प्रतिपाद्यते । -नयप्रदीप पृ०१०३ ४ सर्वार्थ० पृ० ८० ५ लिंग संख्या साधनादिव्यभिचार निवृत्तिपरः शब्दनयः । सर्वार्थ पृ० ७९ १५
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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