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________________ वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ "जीव तो सर्वत्र भरे हुए हैं ऐसी दशामें यदि भावोंके ऊपर बंध और मोक्ष निर्भर न होता तो • कौन कहां रहकर मोक्षको प्राप्त करता ?'१ _ “यदि राग द्वेषादि परिणाम न हो, आचरण यत्नपूर्वक हो, तो केवल प्राण पीडनसे हिंसा नहीं हो सकती है, अथवा कोई हिंसक नहीं कहा जा सकता है ।"२ "यदि शुद्ध परिणाम वाले जीवको भी केवल द्रव्य ( शरीर द्वारा होने वाली) हिंसाके संबंधसे पापका भागी माना जावेगा तो कोई अहिंसक बन ही नहीं सकेगा।"3 "सूक्ष्म जीव तो पीडित नहीं किये जा सकते, और स्थूल जीवोंमें से जिनकी रक्षा की जा सकती है, की जाती है। फिर संयमीको हिंसाका पाप कैसे लग सकता है ? अर्थात् नहीं ही लगता है "४ ___“जीवोंका घात न करता हुश्रा भी अधिक पापी ( हिंसक ) होता है और जीवोंका घात करता हुअा भी न्यून पापी होता है, यह केवल संकल्पका फल है, जैसे धीवर और किसान ।"५ इत बातोंपरसे यह प्रमाणित होता है कि-संसारी जीवोंके द्वारा अहिंसाकी साधना संभव है। अहिंसाके साधकोंकी योग्यता अहिंसाके साधक दो तरहके हैं, एक 'अणु' साधक दूसरे 'महा' साधक । अणु-साधक संज्ञी पचेंद्री पशु तथा मनुष्य दोनों ही हो सकते हैं और महा-साधक सिर्फ मनुष्य हो सकते हैं । ज्ञान-संहनन -- मनुष्यके पास दो उपादान शक्तियां हैं एक ज्ञान दूसरी संहनन । बस इन्हीं दो शक्तियोंके बलपर मनुष्य हिंसा या अहिंसाका साधक बनता है। जैसे १-जिसका ज्ञान ( दृष्टि विज्ञान) असम्यक् होगा और संहनन उत्तम न होगा वह हिंसाका अणु साधक होगा। १ “विश्वग्जीव चिते लोके क्व चरन् कोऽप्यमोक्षत । भावैकसाधन बधमोझी चेन्नाभविष्यताम् ।" (सागार ध० ४, २३ )। २ "युक्ताचरणस्य सतो रागद्यावेशमन्तरेगापि । न हि भवतु जातु हिंसा प्राणव्ययरोपणादेव ॥” (पु. सि. ४५) ३ "जइ सुद्धस्स य बंधो हो हिदि वहिरगवत्थुजोएण। णत्थदु अहिंसगो णाम वाउ-कायादियध हेदू ।" ४ “मूक्ष्मा न प्रतिपीड्य ते प्राणिनः स्थूलमूर्तयः । ये शक्यास्ते विवय॑न्ते का हिंसा संयतात्मनः ।" (त. जपा० ) ५ “अनन्नपि भवेत्यापी निघ्नन्नपि न पाप भाव । अभिध्यानविषेण यथा धीवरकर्षकी ।” (यश. चन्प्. ) ६. शारीरिक संगठन १५४
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
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