SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन टोला' इन दो भागोंमें बट गया । संवेगी लोग अधिक सूत्र ग्रंथ माना करते हैं पर इनमें से बाइसटोलाने थोड़ेसे हो सूत्र ग्रंथोंको प्रमाण माना है । अाजसे करीब दो सौ वर्षके पहिले बाईसटोलासे निकलकर श्री भीखमदासजी मुनिने तेरह पंथ नामका एक पन्थ चलाया। इसमें सूत्रोंकी मान्यता तो बाईसटोलाके बराबर है परन्तु स्वामी दयानन्दके सत्यार्थ प्रकाशकी तरह इन्होंने भी भ्रम विध्वंसन और अनुकम्पाकी ढाल बना रखी है। इस मतने दया दानका बड़ा अपवाद किया है। जैन साधुमें सत्ताईस गुण' रहने चाहिये । उसका अाहार भी सेंतालीस दोषोंसे रहित होना चाहिये । मठधारी यतियोंको छोड़करके शेष सर्व जैनसाधुत्रोंमें कष्ट सहनेकी अधिक शक्ति पायी जाती है । तेरह पंथ तथा बाईसटोलाके साधु गण मुख पर पट्टी बांधते हैं । संवेगी साधु उसे हाथ ही में रखते हैं । बाकी साधुओंमें इसका व्यवहार नहीं है, शास्त्रोंमें इनका नाम श्रमण है । अन्य सम्प्रदायोंमें साधारण लोग यतियों के सिवा इन साधुओंको ढूंढ़िया कहकर व्यवहार करते हैं । पहले तो इसका अधिकांश प्रचार यतियोंने ही किया था। सम्प्रदायोंकी प्रतिद्वन्दित के साथ कुछ लोग यह भी समझने लग गये हैं कि हमारा सनातन धर्म के साथ कोई सम्बन्ध नहीं हैं । कतिपय सम्प्रदायोंने तो अपना रूप भी ऐसा ही बना लिया है कि मानों इनका सनातन धर्मके साथ कभी कोई सम्बन्धी नहीं रहा था । यह भोले लोगोंकी नासमझी ही है । जैनधर्मके परिरक्षकोंने जैसा पदार्थके सूक्ष्म तत्त्वका विचार किया है उसे देखकर अाजकल के दार्शनिक बड़े विस्मयमें पड़ जाते हैं, वे कहते हैं कि महावीर स्वामी अाजकलके विज्ञानके सबसे पहिले जन्मदाता थे । जैनधर्मकी समीक्षा करते समय कई एक सुयोग्य प्राध्यापकोंने ऐसा ही कहा है । श्री महावीर स्वामी ने गोसाल जैसे विपरीत वृत्तियोंको भी उपदेश देकर हिंसाका काफी निवारण किया। भगवान बुद्ध देव व महावीर स्वामीके उपदेश उस समयकी प्रचलित भाषाओं में ही हुश्रा करते थे जिससे सब लोग सरलतासे समझ लिया करते थे। उस समयकी भाषायोंके व्याकरण हेमेन्द्र तथा प्राकृतप्रकाशके देखनेसे पता चलता है कि वह भाषा अपभ्रंशके रूपको प्राप्त हुई संस्कृत भाषा ही थी । उसी को धर्मभाषा बना लेनेके कारण श्री बुद्ध भगवान और महावीर स्वामीके सिद्धान्त प्रचलित तो खूब हुए पर भाषाके सुधारकी ओर ध्यान न जानेके कारण संस्कृतिको स्थिति और अधिक बिगड़ गयो । जिससे वेदोंकी भाषाका समझना नितान्त कठिन होकर वैदिकों की चिन्ताका कारण बन गया। १. गुणोंकी यह संख्या श्वेताम्बर सम्प्रदायके अनुसार है । दि० स० के अनुसार साधुके २८ मूलगुण हैं। इसी तरह आहार दोषोंकी संख्या भी ४६ मानी गयी है।
SR No.012085
Book TitleVarni Abhinandan Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKhushalchandra Gorawala
PublisherVarni Hirak Jayanti Mahotsav Samiti
Publication Year1950
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy