Book Title: Shastravartta Samucchaya Part 1
Author(s): Haribhadrasuri, Badrinath Shukla
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
Catalog link: https://jainqq.org/explore/090417/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ चौखम्भा प्राच्यविद्या प्रन्थमाला ७ महत्तरा - १४४४ शास्त्रसूत्रधार आचार्य पुरन्दर श्रीमद् हरिभद्रसूरि-रचित शास्त्रवार्त्ता समुच्चय तथा न्यायविशारद-न्यायाचार्य विद्वन्मूर्धन्य - महोपाध्याय श्री यशोविजयकृत स्याद्वाद कल्पलता ( उक्त ग्रन्थ की व्याख्या) का हिन्दी विवेचन (स्तबक - १) हिन्दी विवेचनकार :आचार्य श्री बदरीनाथ शुक्ल न्याय - वेदान्ताचार्य, एम. ए. भू० पू० प्रथम अध्यापक एवं प्राचार्य राजकिय संस्कृत कालेज, बनारस तथा आचार्य तथा अध्यक्ष. न्या० दे० विभाग, सम्पूर्णानन्द - संस्कृत – विश्वविद्यालय, वाराणसी • स्वाध्यायान्मा है KHAM BHA अमदत स्व० श्रीमद्विजयप्रेमसूरीश्वरजी महाराज के पटालङ्कार न्यायदर्शनतत्त्वज्ञ - जैनाचार्य श्रीमद्विजयभुवनभानुमूरीश्वरजी महाराज RANASI ORIENTALIA 4875 हिन्दी विवेचन - अभिवीक्षक: सिद्धान्तमहोदधि - आचार्यवर्य चौखम्भा ओरियन्टालिया प्राच्यविद्या तथा दुर्लभ ग्रन्थों के प्रकाशक एवं विक्रेता पो० आ० चौखम्भा, पो० बाक्स नं० ३२ गोकुल भवन के० ३७/१०९, गोपाल मन्दिर लेन वाराणसी - २२१००१ ( भारत ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दीविवेचनकार के दो शब्द भाचार्य श्रीमद् हरिभदसूरिजी म० जैन परम्परा में १४ ४ ४शास्त्रप्रणेता बहुश्रुन आचार्य माने जाते हैं। जैन इतिहाप्त लेखकों का कहना है कि वे जन्मतः ब्राह्मण थे तथा वेद और वेदानुमामी अनेक शास्त्रों के पारदृश्वा विद्वान थे, किन्तु जैन सम्प्रदाय के सम्पर्क में आने पर जब उन्हों ने जैन शास्त्री का विधिवत् अध्ययन किया तब उन्हें ऐसा अनुभव हुमा कि जैन शास्त्र हो पूर्ण एवं प्रमाणभूत शास्त्र है, उसीने वस्तुके सत्य स्वरूप अनेकान्त का प्रतिपादन मिया है । अन्य विद्वानों ने जैन शास्त्रों के ही प्रांतपाद्य तत्वों का अंशतः ग्रहण कर और उन्हें एकान्तवाद का परिधान देकर अन्यान्य अनेक मतवादो को जन्म दिया है। जैनाचार्यों का कहना है कि 'द्वादशाङ्गी' का बारहवाँ भङ्ग 'दृष्टिवाद' यदि आज उपल. ब्ध होता तो सुधौवर्गको स्पष्ट अवगत हो जाता कि वह ज्ञान का एक अगाध सागर है जो उसमें है वहीं अंशतः इतर सम्प्रदायों के शास्त्रों में है और जो उसमें नहीं है वह अन्यत्र कहीं भी नहीं हैं। पर दुर्भाग्य की बात है कि वह माज उपलब्ध नहीं है। संसार के सम्बन्ध में जैनों की यह मान्यता है कि संसार प्रयाहरूपप्ते अनादि और अनन्त है, जिसमें जीव अनादि कालसे अपने उच्चावच कर्मों के अनुरूप विभिन्न गति प्राप्त करता है भोर यथासमय अपनी भव्यता के अनुसार अपने आत्मोद्धार का मार्ग पाने की चेष्टा करता है । संसार अनादि होनेसे हो उसका कोई कर्ता नहीं है। ईश्वर के सम्बन्ध में जैनों को मान्यता है कि ईश्वरत्व कोई नित्य नै पर्गिक वस्तु नहीं है अपि तु जीव के पुरुषार्थ को हो उपलब्धि है। सम्यक् ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यक चारित्र की साधना के फलस्वरूप जिनके परमात्मस्वरूप के घातक समस्त को बन्धन तट जाते हैं एवं जिनके हृदयमें अन्तिम भव के पूर्व तृतीय भव में उस्थित प्राणी मात्र के आत्मोद्वार की प्रबल भाकाक्षा के प्रभाव से उपार्जित तीर्थकरनाम कर्म का विपाक प्रादुर्भूत होता है वेही केवलज्ञान और जीवन्मुक्ति प्राप्त होने पर अर्हत् तीर्थकर परमेश्वर को महामहिम संज्ञा से मण्डित होते है और ही धर्मशासन की स्थापना करते हैं जिसमें जीवादि तत्त्व, सम्यग्दर्शनादि मोक्षमार्ग व ज्यादादादि सिद्धांत एवं नय-प्रमाण-सप्तभङ्गी आदि वस्तुबोधक प्रमाणों का समावेश होता है। उन्हीं के शासनमें रह कर मानबजाति आत्मकल्याण की साधना कर सकती है। जैनों की यह भी मान्यता है कि तीर्थकर भगवान के मुखारविन्द से निर्मत 'उप्पन्नेह वा विगमेइ वा धुवेद वा' इस त्रिपदी को सुनकर उसमें समाविष्ट समग्र अर्थसमूह को ग्रहण करने की क्षमता रखने के कारण गणधर कहे जाने वाले प्रमुख शिष्यों को मति श्रुत ज्ञानावरण कर्मों का अपूर्व क्षयोपशम हो जाता है और वे ही द्वादशा आगमकी रचना कर जगत् का उपकार करते हैं । जैनों को यह भी मान्यता है कि जिन (अर्हत्) और जिनमत ही सत्य है और एक मात्र Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहीं मानव के उत्थान का सहो उपमा जान कर जिन शा वस्तुको सापेक्ष दृष्टि से न देख कर निरपेक्ष दृष्टि से देखने का आग्रह प्रदर्शित किया है, जैन मान्यता के अनुसार उन्हें सत् शास्त्र नहीं कहा जा सकता । यही कारण है कि जैनाचार्य एकान्तवादी दर्शनों को कुदर्शन कहते हैं और मुमुक्षुजनो के लिये उन्हें अनुपादेय बताते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य को आत्मा का वास्तव उन्नयन करने के हेतु जैन मतानुसार अपूर्ण असव एकान्तवाद) शास्त्रों के मार्ग पर न चलकर अनेकान्तवादों वीतराग सर्वज्ञोदित जैन शास्त्र के बताये मार्ग पर हो पूर्ण आस्था के साथ अग्रप्तर होना चाहिये । प्राचार्य श्री हरिभद्रसूरिजो ने इन विषयों के प्रतिपादनार्थ जिस विशाल साहित्य की रचना की है-'शास्त्रवार्तासमुच्चय उस साहित्य का एक जाज्वल्यमान रत्न है। आचार्य श्री ने इस ग्रन्थ में आस्तिक नास्तिक सभी दर्शनों की अनेक मान्यताओं का विस्तार से वर्णन किया है और यथासम्भव अत्यन्त निष्पक्ष और निराग्रभाव से सभी के युवतायुक्तत्व की परीक्षा कर अनेकान्तवाद का विजयध्वज फहराने का पूर्ण एवं सफल प्रयत्न किया है। न्यायविशारद उपाध्याय श्री यशोविजयजो जो जैन सम्प्रदाय में लघु हरिभद्र कहे जाते हैं उन्होंने नव्यन्याय को शैली में इस ग्रन्थ पर 'स्याहाद कल्पलत्ता' नाम को एक पाण्डित्यपूर्ण विस्तृत व्याख्या लिखकर ग्रन्थ के अन्तर्निहित महिमा को उद्भावित किया है । और सैकड़ों प्रसङ्गोमें कारिका के सूक्ष्म संकेतों के आधार पर सम्बद्ध विषयों का प्रौढ पूर्वोत्तर पक्षके रूपमें इतना गंभीर और विस्तृत विचार किया है, जिससे अनायास यह धारणा बनता है कि भाचार्य ने छोटे छन्द की कारिकाओ में इतनो विस्तृत और गारेष्ठ ज्ञानराशि को संचित कर गागरमें सागर भरने जैसा कार्य किया है । । हमें इस ग्रन्थ को पहलीबार देखने का अवसर तब प्राप्त हुआ जब जैन जगत् के मूर्धन्य महामनीषी आचार्य श्री रामचन्द्रसूरि महाराज सा० ने लगभग ४० वर्ष पूर्व राधनपुर गुजरातमें इस प्रन्थ का गौरव वर्णन किया व इसे देखने के लिए हमें प्रेरित किया और इम भी इस महान् शास्त्र व उसकी टोका देखकर उसकी बहुमूल्यता पर मुग्ध हुथे, जिसके फल स्वरूप इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में हमारी अभिरूचि उत्पन्न हुई । बाद में अनेक वर्षों के अनन्तर उसके प्रिय सतीर्थ्य न्यायादि अनेक शास्त्रों में विद्यारसस्नात जैनाचार्य श्री विजय भुवनभानुसूरिजी म. ने यह इच्छा व्यक्त की कि इस मूलग्रन्थ और व्याख्या दोनों का हिन्दी भाषा के माध्यम से एक विवेचन प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिससे ग्रन्थ को समझने में सहायता मिल सके तया अन्य का परा मर्म विशद रूप से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हो सके । इस प्रन्थ को गम्भीरता और विषयसमृद्धता के कारण इसके प्रति हमारा आकर्षग पहले से था ही जो आचार्य श्री भुवनभानुसूरिजी के मनुरोध से उद्दीत हो ऊठा । Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फलतः बसे आदर और उत्साह से हमने इस कार्य को अपने हाथमें लिया और भाचार्यजी ने इस प्रस्तावित विवेचन की प्रकाशनान्त सम्पन्नता के लिये आवश्यक सभी सुविधामों कि व्यवस्था करायी। जिज्ञासु पाठक वर्ग को यह सूचना देना आवश्यक प्रतीत होता है कि प. प्राचार्य श्री राम चन्द्रसूरि महाराजा की यह इच्छा है कि इस ग्रन्थ ही एक ऐसो भूमिका लिखी जाये जिसमें सभी शास्त्रों की प्रमुख मान्यताओं का विशद समावेश हो तथा जैन दर्शन के सिद्धान्तों का विशद समावेश हो तथा जैन दर्शन के सिद्धान्तो का ऐसा सुस्पष्ट और विस्तृत वर्णन हो जिससे जैनेतर पाठको के समझ भी जैन दर्शन की मुख्य मान्यताओं का पुरा चित्र उपस्थित हो सके। उनकी यह इच्छा मुझे अत्यन्त महत्वपूर्ण और उचित प्रतित होती है, अतः विवेचन का जो भाग इस के बाद प्रकाशित होगा उसमें इस प्रकार की भूमिका सन्निविष्ट की जाएगी। __सहृदय दाचको को यह सूचना देना भावश्यक प्रतीत होता है कि अब तक इस प्रन्थ के आठ स्तवको का विवेचन लिखा जा चुका है, शेष तीन स्तबकों का भी विवेचन यथासम्भव शीघ्र ही पूर्ण हो जाने की आशा है। प्रथ के पूरे विवेचन की उपलब्धि की माकाङ्क्षा जाग्रत् करने के अभिप्राय से 'प्रथम स्तरक' मात्र का विवेचन सम्प्रति मुद्रित कर जिज्ञासु विद्वानो के समक्ष सादर एवं सप्रेम उपस्थित किया जा रहा है। प्रस्तुत स्तरक के पूर्वरूप का संशोधन करने का समय न मिल पाने के कारण मुद्रण में अनेकत्र कुछ त्रुटियां रह गई है जिनके लिये हमें खेद है, भविष्य में इस सम्बन्ध में पूरी सावधानी रखी जायगी जिससे अग्रिम मुद्रण इन त्रुटियों से मुक्त रह सके । आचार्यसम्राट श्रीहरिभद्रसूरि-विरचित ग्रन्थों का परिचय (असीमप्रतिभाशाली श्रीहरिभवसूरि महाराज ने भव्य जीवों के ज्ञान नेत्र का विकास करने के लिये सेंकड़ों की संख्या में तर्क-आचार-योग-ध्यान आदि विषयों के अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया। उनसे रचे गये प्रत्यक चाप का अधिकांश आज अनुपलब्ध ही है, जो कृतियां आज उपलब्ध हो रही हैं और जिनके अनुपलब्ध होने पर भी संकेत प्राप्त हो रहे हैं ऐसे ग्रन्थों के परिचय के लिये यह प्रयास है जिससे ग्रन्थकर्ताकी प्रकाण्डविदत्ताका भी परिचिय प्राप्त होगा) [१] सम्प्रति उपलब्ध-स्वोपज्ञटीकायुक्त ग्रन्थकलापः-- (१) अनेकान्तजयपताका-इस ग्रन्थमें परस्परविरुद्ध अनन्तधर्मों का एक वस्तु में समावेश रूप 'भने कान्त' के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिये सत्त्वाऽसत्त्व, नित्यानित्यत्व इत्यादि विविध द्वन्द्रों का एक वस्तु में उपपादन विस्तार से किया गया है-प्रसङ्ग प्रसङ्ग पर बौद्धमत्त का कठोर प्रतिकार किया गया है -टोका में मूलमन्थ को समझने के लिये दिप्रदर्शन किया गया है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२) पञ्चवस्तु प्रकरण-इस ग्रन्थ में साधु-आचार सम्बन्धी ( दीक्षा-दैनिक कियाबड़ी दीक्षा-अनुयोग और गण की अनुज्ञा–संलेखना इन ) पाच विषयों का विस्तार से विवेचन किया गया है। (३) योगदृष्टि समुच्चय-इस ग्रन्थमें मित्रा-तारा आदि माठ दृष्टियों के प्रकार से 'जैन योग' पर प्रकाश डाला गया है । प्रसंग से योगाऽनश्चकयोग आदि का भी सुन्दर विवेचन दिया गया हैं । इस ग्रन्थमें प्राप्य विषय अन्यत्र दुर्लभ है । (४) योगशतक-इस ग्रन्थमें सम्यग्दृष्टि-देशविरत और सर्वविरत मुमुक्षुजन के लिये विभिन्न प्रकार का उपदेश है । प्रसंग से मरण कालविज्ञान के उपाय भी बताये गए हैं। (५) शास्त्रवाती समुच्चय-इस ग्रन्थमें चार्वाक आदि भिन्न भिन्न दर्शनों की विस्तार से समालोचना की गई है । ७०० श्लोकप्रमाणग्रंथ है-'दिक्प्रदा' नाम की टीका है। (4) सर्वज्ञसिद्धि-इस ग्रन्थमें सर्वज्ञ की सत्ता सिद्ध करने के लिए सफल एवं स्तुत्य प्रयास किया गया है । सर्वज्ञ को न मानने वाले मीमांसकमत की समालोचना की गई है । (७) हिंसाष्टक अवचूरि-इस लघुकृति में हिंसा के विषयमें सूक्ष्म विवेचन किया गया है। [२] अन्यकते कग्रन्थो की टीका स्वरूर सम्प्रति उपलब्ध ग्रन्थराशि: (१) अनुयोगद्वार लघुवृत्ति-नियुक्ति आदि में प्रसिद्ध जैनव्यापापद्धति का चारु व्युत्पादन करनेवाले मूलग्रन्थ की यह टीका है | (२) आवश्यकसूत्र लघुदोका (शिष्याहिता)-आवश्यकसूत्रों का विस्तार से रहस्य प्रकाश करनेवाले नियुक्तिप्रन्थ का सुन्दर विवरण है । यह लघुटीका २२००० लोक प्रमाण है । (३)ललितविस्तरा-जैनाचार में प्रसिद्ध चैत्यन्दनक्रिया के सूत्रों पर गाम्भीर्यपूर्ण यह वृधि है । जिसमें अन्य दार्शनिकों की मान्यताओं का सूक्ष्म तर्क से निराकरण किया गया है। इस वृत्ति से उपमितिकथाकार श्रीसिद्धर्षिगणी को सदबोध एवं जिनमत में स्थिर श्रद्धा की प्राप्ति हुई थी। (४) जीवाभिगमलघुवृत्ति-मूल उपांगसूत्र जीवाभिगम के अभिधेय को संक्षेप से इस में स्फुट किया गया है। (५) दशवकालिक लघुवृत्ति-दशवकालिक सूत्र के अर्थ मात्र को स्पष्ट करनेवाली अवचूरि स्वरूप यह वृत्ति है । (६) दशवकालिक बृहद्युत्ति--इसमें मूलसूत्रा दशवकालिक नियुक्ति का प्राचीन अनुयोगद्वार प्रसिद्ध व्याख्याशैली से विस्तार से विवरण किया गया है | (७)ध्यानशतकवृत्ति-पूर्व ऋषि प्रणीत ध्यानशतक ग्रन्थ का गम्भीर विषय आ-रौद्ध Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९ अ धर्म शुक्त ४ प्रकार के ध्यान का सुगम एवं मनोहर विवरण किया गया । विश्वमें ध्यान के विषय में द्वितीय ग्रन्थ है । (८) नन्दीसूत्र टीका -मति श्रुत आदि पांच ज्ञान का स्वरूप बतानेवाले मूलग्रन्थ नन्दी सूत्र के उपर संक्षिप्त विवरण है । (९) न्यायप्रवेशक टीका --बौद्ध दर्शन के प्राचीन विद्वान दिग्नाग का मूलग्रन्थ न्यायप्रवेशक की यह सुगम और संक्षिप्त व्याख्या है । (१०) पञ्चसूत्र पञ्जिका - पापप्रतिघात - गुणबीजापान आदि पाँच मोक्षोपयोगी विषयों का प्रकाश करनेवाले मूलग्रन्थ पञ्चसूत्र की यह संक्षिप्त व्याख्या है । (११) पिण्डनिर्युक्ति टीका- विविध दोषरहित पिण्ड-माहारादि को ग्रहण करने स्वरूप साधु आचार का निरूपण करनेवाले मूलग्रन्थ को यह दोका है। जो अपूर्ण रह जाने से पीछे से वीराचार्य भगवंत से पूर्ण की गई थी। (१२) प्रज्ञापना प्रदेश व्याख्या - मूल उपांगसूत्र प्रज्ञापना को यह संक्षिप्त व्याख्या है । (१३) तत्वार्थ लघुवृत्ति-वाचक श्रीउमास्वातिनी विरचित तवार्थसूत्र का संक्षेप में विवरण किया है । विवरण अपूर्ण रह जाने से यशोभद्रसूरि ने इस को पूर्ण किया था । (१४) लघुक्षेत्र समासवृत्ति - इसप्रन्थ में संक्षेप से जैन भूगोल के महत्वपूर्ण विषय का निरूपण किया गया है। इस वृत्ति के अन्त में उसका रचना समय वि. सं. ५८५ बताया I (१५) श्रावकप्रज्ञप्तिवृत्ति - श्री उमास्वाति वाचक विरचित मूलग्रन्थ की टोका में श्रावक आचार का संक्षेप में विवरण किया गया है। ३) सम्प्रति उपलब्ध स्वतन्त्र ग्रन्थ रचनाः (१) अनेकान्तवादप्रवेश - अनेकान्त - स्याद्वाद मत का संक्षेप में इस ग्रन्थ में समझाबा गया है । ग्रन्थकारकृत अनेकान्तजयपताका ग्रन्थ में प्रवेश करानेवाला यह अद्भूत प्रन्थ है। t (२) अष्टक प्रकरण - इस ग्रन्थ में ८-८ श्लोक प्रमाण ३२ विभाग में महादेवश्वरूप विषयों का निरूपण किया गया है। श्री जिनेश्वरसूरिजी म० इसके टीकाकार है । (३) उपदेशपद - इस ग्रन्थ में व्यादिधार्मिक से ब्रेकर साधु पर्यन्त विविध पात्रों के लिये विविध प्रकारका उपदेश दिया गया हैं। आ० श्री मुनिचन्द्रसूरिजी म० इसके टीकाकार है । आदि (४) दर्शनसप्ततिका - इस प्रकरण में सम्यक्त्वयुक्त श्रावक धर्म का १२० गाथा में उपदेश दिया गया हैं । इस ग्रन्थ पर आ श्रीमान देवसूरिजी म० की टोका है Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (५) देवन्द्र नरकेन्द्र प्रकरण-इस ग्रन्थमें सा और नरक के स्वरूप का विवरण है। मा. श्री मुनिचन्द्रसुरिजीम. इसके टीकाकार है। १६) धर्मबिन्द- इस ग्रन्थ में मार्गानुसारिता देशविरति तथा सर्वविरति धर्म का सूत्रात्मक प्रतिपादन किया गया है। सुवर्ण की भाँति धर्म को तीन प्रकार की परीक्षा भी बतायी हैं। (७) धर्मसंग्रहणी-इस ग्रन्थ में आत्मा की सिद्धि, आत्मा के नित्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व आदि की सिद्धि विस्तार से की गई है । अन्त में भावधर्म की प्ररूपणा तथा सर्वसिद्धि भी की गई है । इस ग्रन्थ की भाचार्य मलयगिरिकृत महत्त्वपूर्ण विस्तृत टीका है। (८) धुर्ताख्यान-यह पक चार धूर्तों की कहानी है । जिस में अघटित कथाप्रसंगों के साथ पुराणादि की अघटित बातों की तुलना की गई है। (९) नाणाचित्तपयरण-इस प्राकृत भाषा के ग्रन्थ में संक्षेर से धर्मतत्व का सुन्दर प्रतिपादन किया गया है। (१०) पञ्चाशक-इस ग्रन्थ में करीब ५०-५० गाथाओं के १९ प्रकरण है । जिस में श्रावधर्मविधि, दीक्षाविधान, चैत्यवन्दना इत्यादि १९ विषयों पर मार्मिक उपदेश दिया गया है। . (११) ब्रह्मप्रकरण-इस ग्रन्थ में सुखारम्भ, मोहपराक्रम, मोहन, परमज्ञान, सदाशिव इन इन पाँच प्रकार के ब्रह्म का निरूपण है। (१२) यतिदिनकृत्य-इस ग्रन्थ में दैनिक साधुक्रिया का वर्णन है। (१३) योगबिन्दु-इस ग्रन्थ में अध्यात्म, भावना, ध्यान,समता, वृत्ति संक्षय इन पाँच प्रकारके योग का अमूल्य उपदेश है। (११) लग्नशुद्धि-इस ग्रन्थ में ज्योतिःशास्त्रा प्रसिद्ध लग्नकुण्डली का विवेचन हैं। १५) लोकतवनिर्णय- इस ग्रन्थ में जगत् -सर्जक-संचालक रूप में माने गए की मनु चित चेष्टाओं की असभ्यता बताई गई है । तथा लोक (Universe) स्वरूप को तारितकता का विचार किया गया है। (१६) विंशतिविशिका-२०-२० श्लोक प्रमाण २० प्रकरण वाले इस ग्रन्थ में योगादि विविध विषयों का स्पष्टीकरण किया गया है। (१७) षड्दर्शनसमुच्चय-इस ग्रन्थ में न्याय-चौद्ध-जैन इत्यादि छ दर्शन के सिद्धान्तो' का निरूपण मात्र किया है। (१८) षोडशकप्रकरण इस ग्रन्थ में १६-१६ गाथाओ के १६ प्रकारणों में धर्म का आन्तरिकस्वरूप-कक्षा-देशना-लक्षण-मन्दिरनिर्माण इत्यादि विषयों पर मार्मिक विवेचन किया गया है। ( अनुसंधान पेज १४ देखिये ) Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (९. - महोपाध्यायं श्रीमद् यशोविज्यविरचिंतग्रन्थ परिचय- . . प्राकृत संस्कृत भाषामें उपलब्ध स्थोपाटोका युक्त स्वरचित ग्रन्यकलापं . १) अध्यात्ममतपरीक्षा- केवलीभुक्ति और स्त्रीमुक्ति का निषेध करने वाले दिगम्बर मत का इस ग्रन्थ में निराकरण किया है। एवं निश्चयनय-व्यवहारनय का तर्कभित विशदपरिचायक । , २) आध्यात्मिकमतपरोक्षा- इस ग्रन्थ में केवलिकवलाहार विरोधी दिगम्बरमत का खंडन करके केवलि के कवलाहार की उपपत्ति को गई है। ३) आराधक-विराधकचतुर्भङ्गो- देशतः आराधक और विराधक तथा मर्वतः आराधक और विराध क इन चार का स्पष्टीकरण । ४) उपदेशरहस्य- उपदेशपद ग्रन्थ के रहस्य भूत मार्गानुसारी इत्यादि अनेक विषयों पर इस ग्रन्थ में प्रकाश डाला गया है । ५) ऐन्द्रस्तुतिचतुविशतिका - इस ग्रन्थ में ऋषभदेव से महावीरस्वामी तक २४ तीर्थंकरों की स्तुतिओं और उनका विवरण है । ६) कूपवृष्टान्त-विशदोकरण- गृहस्थों के लिये विहित द्रव्यस्तव में निर्दोषता के प्रतिपादन में उपयुक्त कूप के दृष्टान्त का स्पष्टीकरण । ७) गुरुतत्त्वबिनिश्चय - निश्चय और व्यवहार नय से सदगुरु और कुगुरु के स्वरूप का प्रतिपादन इस ग्रन्थ में है। ८) ज्ञानार्णव- मति-ध्रुत-अवधि-मनःपर्यव तथा केवलज्ञान इन पांचो ज्ञान के स्वरूप का विस्तृत प्रतिपादन । • ९) द्वात्रिंशद्वात्रिशिका- ३३ श्लोकपरिमाण ३२ प्रकरणों में योग आदि विविध विषयों का इस में निरूपण किया गया है । १०) धर्मपरीक्षा- उपा० धर्मसागरजी के ' उत्सूत्रभाषी नियमा अनन्तसंसारी होते है । इत्यादि अनेक उत्सूत्रप्रतिपादन का इस में निराकरण है। __, ११) नयोपदेश - नंगमादि ७ नयों पर इस अन्य में श्रेष्ठकोटि का विवरण उपलब्ध है। १२) महावीरस्तव- न्यायखण्डखाइटीका- बोल और नैयायिक के एकान्तवाद का इस ग्रन्थ में निरसन किया है। , १३) प्रतिमाशतक- भगवान के स्थापतानिक्षेप की पूज्यता को न मानने वाले का निरसन कर मूर्तिपूजा को कल्याणकरता इस में वर्णित है । Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . १४) भाषारहस्य- प्रशापनादि उपाङ्ग में प्रतिपादित भाषा के अनेक भेद-प्रभेदों का इस में विस्तृत वर्णन है। १५) सामाचारीप्रकरण- इच्छा- मिथ्यादि दशविध साधुसामाचारी का इस ग्रन्थ में सकथेली से स्पष्टीकरण है। -: अन्यकर्तृकग्रन्थ की उपलब्ध टीकाएँ :१) उत्पादादिसिद्धि- ( मूलक -चन्द्रसुरि )- इस ग्रन्थ में जैनदर्शनशास्त्रों के अनुसार सत् के उत्पादव्ययप्रीवात्मक लक्षण पर विशद प्रकाश डाला गया है- उपाध्यायजी विरचित टीका पूर्ण उपलब्ध नहीं हो रही है ।। २) कम्मपयडि बहद् टीका- ( मूलका - शिवशर्मसूरि )- जैनदर्शन का महत्त्व का विषय कम के ' बन्धनादि' विविध करणों पर बिवरणात्मक टीका है । ३) कम्मपडि लघुटीका- इस टीका का प्रारम्भिक पत्र मात्र उपलब्ध होता है । ४) तत्त्वार्थसूत्र ( प्रथम अध्याय मात्र ) टीका- (मू-या० उमास्वाति ) इस टीका ग्रन्थ में तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय का रहस्य प्रकाश में लाया गया है । " ५। योगविशिका टीका- इस में श्री हरिभद्रसूरि विरचित विशितिविशिका - अन्तर्गत योगविशिका की विशद व्याख्या है- इस में स्थान - उर्ग - अर्थ आलम्बन और निरालम्बन पांच प्रकार के योग का विशद निरूपण किया गया है। ६) स्तवपरिज़ा अब रि- द्रव्य-भाव स्तव का स्वरूप संक्षेप से इस में स्फुट किया गया है । ०७) स्याद्वादरहस्य- वीतरागस्तोत्र के आठवे प्रकाश के उपर लघु-मध्यम और उत्कृष्ट परिमाण-तीन टोकात्मक इस ग्रन्थ में स्याद्वाद का सूक्ष्म रहस्य प्रकट किया गया है। . ८) स्याद्वादकल्पलता- आ. हरिभद्रसूरि विरचित - शास्ववार्ता - समुच्चय ग्रन्थ की नव्यन्याय में विस्तृत व्याख्या । . ९) षोडशक टीका - इस टीका ग्रन्थ मे जैनाचार के आभ्यन्तर विविध प्रकारों का सुन्दर निरूपण किया गया है । १०) अष्टसहस्रो टोका- दिगम्बरीय विद्वान् विद्यानन्द के अष्टसहस्री मन्थ की ८००० श्लोक परिमाण व्याख्या ग्रन्थ है, जिस में दार्शनिक विविध विषयो की चर्चा है। ११) पातञ्जलयोगसूत्र टीका- पतझलो के योगसूत्र के कतिपयसूत्रों पर जैन दृष्टि से स्यास्या एवं समीक्षा प्रस्तुत की गई है । Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२) काव्यप्रकाश टीका- मम्मट कृत काव्यप्रकाश अभ्य की दीका । १३) पायसिद्धान्तमञ्जरी- (१४)-स्यावादमअरी टीका (?) । अन्य स्वतन्त्र - उपलब्ध - रचनाएँ:--- १) अध्यात्मसार- इस ग्रन्थ में अध्यात्ममाहात्म्य-अध्यात्मस्वरूप-दम्भत्याग-मवस्वरूपचिन्ता -वैराग्यसम्भव-वैराग्यभंद-बैराग्यविषय-ममतात्याग-समता-सदनुष्ठान- मनःशुद्धि- सम्यक्त्व-मिथ्यास्वत्याग-असद्ग्रहत्याग-योग-ध्यान-ध्यानस्तुति-आत्मनिश्चय-जिनमतस्तुति- अनुभव- मज्जनस्तुति इस प्रकार २१ विषयों का हृदयङ्गम विवेचन किया गया है । २) अध्यात्मोपनिषत्- इस ग्रन्थ में शास्त्रयोग- ज्ञानयोग-क्रियायोग - साम्ययोग इन चार मेव से अध्यात्मतत्त्व का उपदेश है। ३) अनेकान्त व्यवस्था- इस ग्रन्य में बस्तु के अनेकान्तस्वरूप का तथा नेगम आदि नयों का सतर्फ प्रतिपादन है । - ४) अस्पृशद्गतिवाद- इस वाद में तिर्यग् लोक से लोकान्त तक के मध्यवर्ती आकाश प्रदेशों के स्पर्ण दिना मुक्तात्मा के गमन का उपपादन किया गया है। ..५) आत्मख्याति- इस ग्रन्थ में आत्मा का विभु तथा अणु परिमाण का निराकरण किया गया है। - ६) आर्षभीयचरित्र- ऋषभदेव के पुत्र भरतचक्रवर्ती के चरित्र का काव्यात्मक निरूपण इस ग्रन्थ में है। ७) जन तकभाषा- जैन तकंपति के प्राथमिक परिचय की दृष्टि से इस ग्रन्थ में प्रमाण-- नय और निक्षेपों का सरल विवेचन है । ८) ज्ञानबिन्दु- इस ग्रन्य में संक्षेप से पांच ज्ञान का न्याययुनत विवरण है । - १) ज्ञान सार-- पूर्णता-मग्नता आदि ३२ आध्यात्मिक विषयों का ३२ अष्टक में सुन्दर वर्णन है- इस अन्य मे मुमुक्ष के लिये अति आवश्यक ज्ञातथ्य विषयों का रहस्य बताया गया है। १.) तिइन्वयोक्ति- तिङन्तपदों के शाब्दबोध का व्युत्पादन इस ग्रन्थ में किया गया है । ११) देवधर्मपरीक्षा- देवों में सर्वथा धर्माभाव का प्रतिपादन करने वाले मविशेष का इस चे निराकरण है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १२) सप्तभङ्गी नयप्रदीप- इस ग्रन्थ में अति संक्षेप से सप्तमङ्गी नया ७ नय का विवेचन किया गया है । . १३) नयरहस्य- इस ग्रन्थ में नय के सामान्य लक्षण तथा ७ नयों का मध्यमकक्षा का विवरण है। १४) न्यायालोक- इस में मोक्ष के स्वरूप आदि की सर्कपूर्ण विचारणा है। - १५) निशाभुक्ति प्रकरण- इस लघुकाय ग्रन्थ में । रात्रि भोजन स्वरूपत: दुष्ट है। इस का उपपादन किया गया है। १६-१७) परमज्योति:पविशिका- परमात्मपञ्चविशिका- विषय - परमात्मस्तुति । -- १८) प्रतिमास्थापनन्याय- इस में प्रतिमापूज्यत्व का व्यवस्थापन किया गया है । . १९) प्रमेयमाला यह ग्रन्थ विविध वादों का संग्रह है। - २०) मार्गपरिशुद्धि- इस ग्रन्थ में हारिभद्रीय 'पंचवस्तु शास्त्र के साररूप मोक्षमार्ग की विशुद्धता का सुन्दर प्रतिपादन है । .. २१) यतिदिनचर्या- जैन साधुओं के दैनिक आचार का वर्णन इस ग्रन्थ में है। २२) यतिलक्षणसमुच्चय-- इस प्रन्थ में भावसाधुता के लक्षणों का वर्णन है । २३) वादमाला (१)- इस में १) चित्ररूपविचार, २) लिगोपहितलैङ्गिकभान, ३) द्रव्यनाशहेतुताविचार, ४) सुवर्णात जसत्व, ५) अन्धकारद्रव्यत्व, ६) वायस्पार्शनप्रत्यक्ष, ७) शदानित्यत्व इन ७ वादों का निरूपण है ।। २४) पादमाला (२)- इस में १) स्वत्ववाद, २) संनिकर्षवाद इन दो वादों का निरूपण है। २५) वादमाला (३)- इस में १) बस्तुलक्षणविवेचन, २ सामान्यवाद, ३) विशेषवाद, ४) इन्द्रियवाद, ५) अतिरिक्तशक्तिवाद और ६) अदृष्टवाद इन छ वादों का निरूपण है । - २६) विजयप्रभसूरिस्वाध्याय- इस में गच्छनायक श्री विजयप्रभसूरिजी का नर्कभित स्तुति की गई है। . २७) विषयतावाद-- इस में विषमता, उद्देश्यता, आपाद्यता आदि का निरूपण है। .. २८) मिसहस्रनामकोश-- भगवान् के १००८ नाम का संग्रह इस ग्रन्थ में है । - २९) स्याद्वादरहस्य पत्र- 'स्वभात' नगर के पण्डित गोपालसरस्वती आदि पण्डितवर्ग पर प्रेषित पत्र है जिस में संक्षेप से 'स्यावाद' को समर्थक. युक्तियां का प्रतिपादन है। -३०) स्तोत्रावली- इस में आदीश्वर, पाश्वनाथ और महावीरस्वामी भगवान के विविध ८ स्तोत्र है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = (१) अध्यात्मबिंदु (२) अध्यात्मोपदेश १३ अनुपलब्ध-संकेत प्राप्त अन्यग्रन्थ : (८) तत्वालोक विवरण (९) त्रिसूत्र्याक (१०) द्रव्यालोक (११) न्यायवादार्थ (१५) वादार्णव (१६) विधिवाद (१२) प्रमारहस्य (१३) मंगळवाद (३) अनेकान्तवादप्रवेश (४) अलंकारचूडामणि टीका (५) लोकहेतुतावाद (६) छन्दम् चूडामणि टोका (२०) श्री पूज्यष्ठे ख (७) ज्ञानसार अवचूर्णि (१४) वादरहस्य (२१) सिद्धान्ततर्क परिष्कार प्रकीर्ण:- संस्कृत प्राकृत भाषा के अलावा श्रीमद् उपाध्यायजी को गूर्जर भाषा में भी अनेक लोकभोग्य स्तवन, सञ्ज्ञाय, रास, पूजा, टवा इत्यादि कृतियां है जिसका बहुभाग 'गुर्जर साहित्य संग्रह' भा १ में, तथा भाग २ में 'द्रव्यगुणपर्याय का रास' प्रसिद्ध हो चुका है। (१७) वेदान्त निर्णय (१८) वेदान्त विवेक सर्वस्व (१९) राठप्रकरण Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१९)समराइचकम-प्राकृत साहित्य में इस प्रन्थ का महत्वपूर्ण स्थान है। इस में मग्निशर्मा तथा गुणसेन के ९ भवों का वैराग्यरसपूर्ण निरूपण है गुणसेन ने नववे भव में समरादिस्य हो उपशम की चरम सीमा पर पहुंच कर केवलज्ञान प्राप्त किया। मुमुक्षचनो के लिये यह अन्य कषाय की आग शान्त करने के लिए अमृतौषधितुल्य है। (२.)सम्बोधप्रकरण-इस प्रकरण में १२ अधिकार में देव का तात्त्विकस्वरूप, वारिखक श्रद्धा इत्यादि विषयों का निरूपण किया गया है। ज्ञापमानातान इस ना में २६ गाथा में ज्ञान के पांच प्रकारो का व्याख्यान किया गया है। (२२)बोटिकप्रतिषेध- इस प्रन्थ में दिगम्बर मत की मालोचना की गई है। (२३)सम्यक्त्वसप्ततिका-इस ग्रन्थ में सम्यक्त्व के ६७ प्रकार के व्यवहार का सूक्ष्मता से निरूपण किया गया है। (२४) संसारदावानल स्तुति-महावीरस्वामी इत्यादि की स्तुतिरूप है। अनुपलब्ध-संकेतप्राप्त ग्रन्थसमूह ११) अनेकान्तप्रघट्ट (११) क्षेत्रसमासवृत्ति (२१) पञ्चनियंठी (२) अनेकान्तसिद्धि (१२) चैत्यवन्दनभाष्य (२२) पश्चलिङ्गी (३) महच्छीचूडामणि (१३)जम्बूद्विपप्रज्ञप्ति टीका (२३) पञ्चस्थानक (४) आत्मसिद्धि (१४)जम्बूद्विपसंग्रहणि (२8) परलोकसिद्धि (५) आवश्यकसूत्र बुहटीका (१५)त्रिभङ्गोसार (२५) बृहन्मिथ्यात्वमचन (६) उपदेश प्रकरण (१६)दिनशुद्धि (२६) भावनासिद्धि (७) उपदेशमाला टीका (१७)द्विजवदनचपेटा (२७) संग्रहणीवृत्ति (८) ओघनियुक्तिवृत्ति (१८) धर्मलाभसिद्धि (२८) सम्बोधसित्तरी (९) कथाकोश (१९) धर्मसार (२९) संस्कृतात्मानुशासन (१०) कुलकानि (२०) न्यायावतारवृति Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिका आज से २५०० वर्ष पूर्व ३० साल तक पृथ्वी पर मोक्षमार्ग तथा तत्त्वज्ञान को दिव्यवाणी की पावनधारा प्रवाहित कर वीतराग, देवाधिदेव चरमतीर्थकर, सर्वज्ञ श्रमण भगवान् श्री महावीरस्वामी स्वयं मोक्षपद पर आरूढ हुये । मोझारूढ होने के तीस साल पूर्व भगवान ने चतुर्विध जैनसंघ की स्थापना की थी। श्री सुधर्मास्वामी ने उसे अपना इस्तानलम्ब देकर दृढ़ बनाया । श्री सुधर्मास्वामी की पाटपरम्परा में कई ऐसे महर्षि हुये जिन्होंने भगवान महावीर के सदुपदेशों का यथावत् पालन करते हुये जिज्ञासु मुमुक्षुजीवों को तत्वज्ञान का उपदेश देकर भगवान द्वारा प्रदर्शित मोक्षमार्ग पर यात्रा करने की परम्परा को लम्बे समय तक अखण्ड एवं अविच्छिन्नरूप में गतिशील तथा सप्राण बनाये रखा । इसी पुनीत परम्परा में एक बहुश्रत चतुरनप्रतिभासम्पन्न महषि प्रादुर्भूत हुये, जिन का नाम था आचार्य भगवान श्रीहरिभद्रसरि । १. पू. आ. श्री हरिभद्रसूरि महाराज का जीवनवृत्त इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि जैन तथा जैनेतर दोनों ही परम्परा में उच्चकोटि के उद्भट विद्वान् बराबर होते रहें और उनके वैचारिक संघर्ष से तस्वविधा का वाङ्मय सदैव परिष्कृत और विकसित होता रहा। जिन महापुरुष का संस्मरण भगलो पङ्क्तियों में रखा जाने वाला है वे प्रारम्भ में जेनेतर परम्परा से ही सम्बद्ध थे। यह प्रामाणिक अनुसन्धान पर भाधारित है कि पुरोहित हरिभद्र अपने समय के जनेतर विद्वानों में मप्राण्य बामण पण्डित थे। वे चित्रकूट (मेवार) के राजपण्डित थे | उनकी कीर्ति दिगन्त तक फैली हुयी थी । छहो दर्शन शास्त्रों का तलस्पर्शी पाण्डित्य और वेदविद्याओं में परम निष्णात होने के कारण वे वादीन्द्र और विद्वत्-शिरोमणि कहे जाते थे । अपनी असाधारण प्रतिभा पर उनका बड़ा विश्वास था। उनका यह आत्मविश्वास था कि जगत् में ऐसी कोई विद्या नहीं है जिसे थे न जानते हो अथवा जिसे समझने में उन्हें कोई कठिनायी हो । उनको यह मनोगत प्रतिज्ञा भी कि यदि कभी कोई ऐसा शास्त्र उनके सम्मुख उपस्थित होगा जिसे वे न समझ सकेंगे तो उसे समझने के लिये उन्हें किसी का भी शिष्य बनने तक में कोई संकोच न होगा । संयोगवश एक दिन ऐसा ही उपस्थित हुमा जिसने उनके सारे जीवन को ही परिवर्तित कर दिया । घटना यह हुई कि एक दिन याकिनी महत्तरा (जैन) प्लाचीगण को एक साध्वी स्वाध्याय के समय अपने मधुर कण्ट से एक गाथा बोल रही थी--जो इस प्रकार थी, 'चक्रीदुगं हरिपणगं पणगं चक्रोण केतवो चक्की, केसव चक्की केसब दुचक्की केतवो चक्कि ।।' Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय विद्वान् विप्र श्री हरिभद्र उस ओर से कहीं जा रहे थे। उन्होंने यह गाथा सुनी किन्तु उसका साथ उनकी समझ में न भाया । इस मनवबोध से पीड़ित हो कर वे उस स्थान पर गये जहाँ गाथा की घरतन्त्री झकृत हो रही थी। वहा विधमान साध्वी की प्रसन्न और प्रशान्त मुद्रा तथा पवित्र जीवनचर्या को देख कर वे चकित और चमत्कृत हो उठे । उन्होंने बडे निरभिमान भाव से प्रवर्तिनी महत्तरा साची से उसका अर्थ बताने को प्रार्थना की। साध्वी ने हरिभद का विनय और बुद्धिवैभव देख कर कहा कि इस गाथा का अर्थ समझने के लिये हमारे गुरुदेव जैनाचार्य श्री जिनभट्टसरिजी महाराम से आप सम्पर्क स्थापित करें । यह सुन कर ब्राह्मण हरिभद्र अपने घर गये किन्तु अनवरत यह चिन्तन करते रहें कि महसरा व साथी गण का जीवन कितना स्वच्छ, शान्त और सुन्दर है । उनका विनय, उनका पवित्र जीवन क्रम उनके धर्म की महत्ता और श्रेष्ठता को स्पष्ट रूप से इनित करता है। उसे मानना और सममना बड़ा लाभदायक हो सकता है। इस चिन्तन तथा गाथा के अर्थ को प्रबल विज्ञासा से प्रेरित होकर वे दूसरे दिन साध्वी द्वारा बताये गये जैनाचार्य की सेवा में उपस्थित हुए । आचार्यश्री बड़े व्यवहारकुशल और उच्च कोटि के शास्त्रवेत्ता थे। एक ही दृष्टि में उन्हें हरिभद्र की भव्यता और योग्यता का परिज्ञान हो गया । हरिभद्र ने बड़ो नम्रता से उक गाथा के अर्थ को बताने को प्रार्थना की । आचार्यश्री ने कहा कि इस गाथा का अर्थ समझने के लिये पापको सम्बद्ध परम्परा का अमिक अध्ययन करना होगा तथा पापबन्धनों से मुक्त हो चारित्र्यपूर्ण जीवन स्वीकार करना होगा | इसकी दीक्षा विना गाथा का मर्मावबोध नहीं हो सकता । हरिभद्र अपनी मानसिक प्रतिज्ञा पालन करने के लिये पहले से ही तय्यार थे । उन्हो ने तत्काल कह दिया. कि आप मुझे अपनी दीक्षा देकर गाथा का अर्थ बोध देने को कृपा करें । आचार्य जिनभट्टसूरि ने उसी समय हरभद्र को जैन दीक्षा दो तथा संयम का व्रत प्रदान किया, साथ ही गाथा का अर्थ बता कर उनको जिज्ञासा पूर्ण की । दीक्षित होकर श्रीहरिभद्र मुनि ने जैनागम-शास्त्र का अध्ययन प्रारम्भ किया । जैसे जैसे अदृष्ट-कर्म के गम्भीर रहस्य, जोव के भेद प्रभेद, उनकी गति आगति, १४ गुणस्थानक की प्रक्रिया, अनेकान्तवाद, नय प्रमाण सप्तभङ्गो आदि विषय का-जो मन्य सम्प्रदाय और शास्त्रो में उपलभ्य नहीं है-- उन्हें ज्ञान मिलता गया, वैसे वैसे उनके भात्मामें वैराग्य और संवेग की तीव्र भावना भी प्रबल होती गयी। साथ ही उन्हें इस बात का भी स्पष्ट माभास होने लगा कि मैंनेतर शास्त्र और सिद्धान्तों में कितनी अपूर्णता और अपरिपक्वता है, कितने ऐसे अंश हैं जो तर्क और प्रमाण की कसौटी पर खरे नहीं उतर सकते । जैनशास्त्रों और सिमान्तो में जो तार्किकता प्रामाणिकता और निर्दोषता एवं श्रेष्ठता है उनका भी उन्हें अत्यन्त स्पष्ट Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अवबोध होने लगा । भाखिर एक दिन उनके मुँह से यह उद्गार निकल पड़ा कि "हा अपाहा काहं हुन्मा, जइ न दुनो जिनोमारे जो अनाथजीवों की क्या गति होती यदि विश्व में जैनागमों की सत्ता न होती। परिश्रम, निष्ठा और गुरुभक्ति के साथ अध्ययन के फलस्वरूप बहुत थोडे ही समय में श्री हरिभद्र मुनि ने जिनागम के सूक्ष्मतम सिद्धान्तों का तलस्पर्शी विस्तृतज्ञान अर्जित कर लिया । उन्होंने जैनशास्त्रों का विशालज्ञान पाण्डित्यप्रदर्शन, शास्त्रीय विवाद अथवा कीर्तिलाभ के लिये अर्जित नहीं किया था किन्तु ज्ञान-दर्शन और चारित्र रूप रत्नत्रयो की आराधना द्वारा अपने जीवन के परिष्कार और आत्मिक उत्थान के लिये किया था । इसी लिये उनकी परिपूर्ण योग्यता और पवित्र मुनिजीवन में निष्ठा देखकर उनके गुरुदेव ने उन्हें जिनशासन के उत्तरदायित्वपूर्ण महान् तृतीय आचार्यपद पर प्रतिष्ठित कर दिया ।। २-आचार्य श्री हरिभद्रपूरि का महत्त्वपूर्ण शास्त्रग्रथन माचार्य श्री हरिभद्रसूरि को केवल अपने आत्मा का स्थान और अकेले मोक्ष पद पर आरूढ होना ही अभीष्ट नहीं था, अपितु उनके मन में अनन्त संसारी जीव को पाप, अज्ञान और दुःख से मुक्त करने को महती करुणा भी तरङ्गत हो रही थी । वह चाहते थे कि समो भव्य जीव अपने आन्तरशत्रुओं पर विजय प्राप्त करें, उनका मिथ्यातत्त्वमार्ग का कदाग्रह दूर हो, अपसिद्धान्त पर चिरकाल से जमी हुई उनकी आस्था समान हो, तथा जनता के बीच तप्रमाणसम्मत यथार्थ तत्वज्ञान का प्रकाश फैले, श्रेष्ठ शास्त्रीय सिद्धान्त का व्यापक प्रचार हो, जनजीवन में पवित्रता और चरित्रसम्पन्नता का स्वर्णमय अवतरण हो। उनकी इस भरवनाने उम्हें नवीन तर्कपुष्ट प्रामाणिक ग्रन्थों को रचना के लिये प्रेरित किया । वह समय ऐसा था अब द्वादशाक जिनागम में बाहरवा अङ्ग 'दृष्टिबाद' केवल मुख पाठ के बल पर जीवित था किन्तु स्मरणशक्ति के हास से वह भी नष्ट होता चला था । केवल एकर्व के कुछ अंश बच गये थे । यदि उन बचे हुये अंश को संकलित करने का महत्तम कार्य श्री हरिभद्रसूरि ने न किया होता तो जैन शासन के कई पदार्थ जो अब उपलब्ध है वे उपलब्ध न हो सकते । फलतः माज हम मी यह कह सकते हैं कि "हा प्रणाहा कह हुन्ता, जद न हुन्ती हरिभदो।" विषय और कपाय की आंग्नज्वाला में जलते हुए प्राणियों पर शम और वैराग्य की शीतल जलधारा की वर्षा के लिये आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने 'सराइचकहा' नामक संवेगवैराग्य के उछलते हुए तरङ्गों से भरपा एक ऐमा अन्य लिखा जो प्राकृ भाषा के साहित्य में अपना प्रतिस्पर्धी नहीं रखता और जिसे निर्विवादरूप से प्राकृतभाया के भण्डागार की सर्वोच्च निधि कहा जा सकता है | बाळ जीवों के ज्ञानचक्षु के उन्मोलनार्थ उन्होंने 'पइदर्शनसमुच्चय 'अनेकान्तवादप्रवेश' आदि कतियय लघु काय ग्रन्थी' को रचना को जिनसे भन्यान्य दर्शनों के Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिद्धान्तों का समीचीन परिचय प्राप्त हो सकता है और तुलनात्मक दृष्टि से सभी दर्शनों के अध्ययन कर जैनदर्शन की अन्यापेक्षया विशिष्टता ओर श्रेष्टता का परि ज्ञान किया जा सकता है। आत्मवाद के क्षेत्र में प्रचलित दर्शनों के तत्वसिद्धान्तों का तथा उनकी समीक्षा का प्रकाश प्रसारित करने के उद्देश्य से आचार्यश्री ने 'शास्त्रवत्र्तासमुच्चय' नामक एक महान ग्रन्थ की रचना की। इस ग्रन्थ में न केवल जैनशास्त्र के विषयों का विवेचन ही है अपितु जैनेतर सम्प्रदायों और शास्त्री के प्रतिपाय विषयों का संकलन, यथासम्भव तर्कों द्वारा उनका प्रतिपादन और उनके सभी पक्षों को विस्तार के साथ समर्थन देकर अत्यन्त निष्पक्ष भाव से उनकी समीक्षा की गयी है। उन शास्त्रों के सिद्धान्तों में जो त्रुटियो प्रतीत होतो हैं उनके परिमार्जन के लिये जितने भो तर्क हो सकते हैं उन सभी को प्रस्तुत करते हुये उनका खोसलापन दौखा कर बड़ी स्पष्टता से यह सिद्ध किया गया है कि उन सिद्धान्तों में ये त्रुटियाँ वास्तविक हैं और उनका कोई परिहार नहीं हो सकता । जैनसिद्धान्तों की चर्चा के प्रसङ्ग में भी उनके प्रति कोई पक्षपात नहीं दिखाया गया है, उन्हें त्रुटिपूर्ण बताने के लिये जो भी तर्क सम्भव हो सकते हैं उन सभी को सामने खड़ा कर उनकी असतकता (अयोग्यता) बतायी गया है और यह प्रमाणित किया है कि जैन सिद्धान्तों में जिन त्रुटियों को परिकल्पना की जा सकती हैं उनका कोई आधार नहीं है । इस ग्रन्थ की रचना का यह पवित्र लक्ष्य भो प्रारम्भ में ही बता दिया गया है कि यह प्रन्थ जगत् को यथार्थ तत्त्वज्ञान का उपदेश इस दंग से देने के लिये लिखा जा रहा है जिससे विभिन्न दर्शनों के अनुयायियो में परस्पर वेप का उपशम और सत्य ज्ञान का लाभ हो कर सभी का कल्याण हो सके । इस ग्रन्थ के अतिरिक्त 'ललितविस्तरा' 'अनेकान्तजयपताका' आदि अन्य भी कई ग्रन्थ आचार्य श्री को समर्थ लेखनी से प्राकट्य में आये हैं, जिनका अध्ययन और मनन जिज्ञानु जनों के लिये अनिवार्यरूप से अपेक्षित है। आज के विद्वर्ग के सम्मुख एक महान् कार्य कर्तव्य रूप में उपस्थित है- वह हैं आचार्य श्री हरिभद्रमूरि के दार्शनिक ग्रन्थों के भाधार पर एक तर्कपूर्ण व्यवस्थित सिद्धान्तमाला का संकलन | यदि एक ऐसा विशुद्ध संकलन हो सके तो निश्चितरूप से इसके द्वारा विभिन्न दर्शनो के अनुयायियों में परस्पर सोहार्द और सौमनस्य एवं सामनस्य की भावना जागृत हो सकती है और एक दूसरे की संगत दृष्टि के प्रति यथोचित आस्था की प्रतिष्ठा हो सकती है । प्रत्येक दर्शन का अनुयायी यह तथ्य हृदयङ्गम कर सकता है कि उसे अभिमत दार्शनिक सिद्धान्त नयदृष्टि से कथञ्चित् मान्य एवं उपादेय है और वह इस सत्य को भी स्वीकार कर सकता है कि जैन दर्शन में नय और प्रमाण का विभेद बताकर सभी दार्शनिक सिद्धान्तों के Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ न्याय करते हुये सभी नयों के समन्वय से एक प्रमाणपरिपुष्ट दार्शनिक सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गयी है। श्री हरिभद्रसूरि महाराज को इस बात का ध्यान सदैव रहता था कि जो बात कही जाय वह सुपरीक्षिन हो. किसी सिद्धान्त को त्रुटिपूर्ण और अपने सिद्धान्त को निर्दोष बतानेका एक सर्वमान्य परीक्षात्मक आधार हो । इसी दृष्टि से प्रेरित हो उन्होंने 'धर्मबिन्दु' नामक एक प्रन्थ को रचना कर यह बताने का प्रयास किया है कि जैसे कष-छेद और ताप इन तीन प्रकारों से सुवर्ण की परीक्षा की जाती हैं उसी प्रकार समीचीन तकों के आधार पर निष्पक्षभाव से स्थापना, प्रतिस्थापना और इन दोनों की समीक्षा द्वारा निष्कर्षप्राति की प्रणाली से शास्त्रीयविषयों की भी परीक्षा को जानी चाहिये तथा इस प्रकार की परोक्षा से विशुद्ध सिद्ध होने वाले पक्ष को ही सिद्धान्त का रूप देना चाहिये । सुपरीक्षित सत्य का आश्रय लेने से मनुष्य कुमार्ग पर जाने से बच जाता है तथा सन्मार्ग पर चल कर अपने वास्तविक आत्महित की साधना कर सकता है और दिशाहीन हो कर इधर उधर भटकने में जीवन के बहुमूल्य क्षणों को नष्ट करने की दुःस्थिति में वह नहीं पड़ता। आचार्य श्री ने गः महा है कि बुदा पदार्गरे हैं जो निदलातीत एवं तर्कातीत हैं, उनकी अवगति (बोध) केवल भाव और श्रद्धा से ही सम्भव हो पाती है। ऐसे पदार्थों के विषय में उन्होंने श्री सिद्धसेन दिवाकर का अनुसरण किया है और कहा है कि इन श्रद्धागम्य अतीन्द्रिय पदार्थों को तर्क की तुलापर तोलने का प्रयास अनुचित है क्योंकि तर्कों में इन पदार्थों का भार सहन करने की क्षमता नहीं होती । इस संबन्ध में बुद्धिधन भर्तृहरि के इस कथन को उन्होंने दोहराया है कि श्रद्धागम्य-अतीन्द्रिय पदार्थ यदि तर्क को परिधि में आ सकते तो तर्कवादियों ने अब तक उनके विषय में अन्तिम निष्कर्ष की दुन्दुभि बजा दी होती। अतः विवेकशील मुमुक्षुजनों का हित इसी में है कि वे ऐसे पदार्थों के विषय में शुष्क तर्कों के बीच निरर्थक. चक्कर न लगाकर उन्हें श्रद्धापूर्वक स्वीकार कर उनका मात्मा के उन्नयन में उपयोग करें। ___ भाचार्य श्री हरिभद्रपूरि ने केवल दार्शनिक तत्त्वों पर ही अपनी लेखनी को गतिशील नहीं रखी है अपितु जनता को निष्कलुष जीवन बिताने और सञ्चारित्र्य का पान करने की शिक्षा देने के लिए भगवान द्वारा उपदिष्ट आचारों का संकलन कर 'पञ्चवस्तु' जैसे यतिआचारशास्त्र तथा 'पञ्चाशक' जैसे श्रावक-आचारशास्त्र की अवतरणा के लिये भी उसे क्रियाशील किया है जिसके फलस्वरूप प्राचारशास्त्र के ऐसे उत्तम ग्रन्थ भाग्यवान जनों को सुलभ हो सकते हैं। इतना ही नहीं कि उनको लेखनी ने मात्र दार्शनिक तत्त्व और जीवन के परिकारक आचार तक ही यात्रा कर विश्राम ले लिया किन्तु वह उस विषय के प्रतिपादन तक Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अविश्रान्तभाव से चलती रही जिसके विना मनुष्य का न तो तत्वदर्शन ही पूरा हो पाता और न चारित्र्य हो मोक्षात्मक लक्ष्य के साधन में सफल हो पाता । वह विषय है ध्यानसाधना, इस पर भी आचार्य ने कई ग्रन्थ लिखे, जैसे ध्यानशतकटीका, योगशतक, योगविंशिका, योगबिंदु, योगदृष्टिसमुच्चय, सप्रकरण आदि । निश्चय ही ये ग्रन्थ मोक्षमार्ग के पथिक साधक के लिये महान शंकल है । परवर्ती प्रायः सभी जैनाचार्यों ने कहा है कि आचार्य श्री हरिभद्रसूरि ने मनुष्य जाति के आत्मोन्नायक विविध विषयों पर करिब १४४४ शास्त्रग्रन्थ की रचना की है। यह विशाल रचना अत्यन्त स्पष्टरूप से इस तथ्य को संकेतित करती है कि आचार्य श्री के जोबन का सम्पूर्ण समय श्रुतोपासना में ही जाता रहा जिसके फलस्वरूप अज्ञानजगत् को उनकी कृतियों के रूप में पर्याप्त समृद्धि सुलभ हो सकी । ३- आचार्य श्री हरिभद्रसूरि के जीवन की विशिष्ट घटना आचार्य श्री के संवारावस्था के दो भगिनींपुत्र थे जिनका नाम था हंस और परमहंस । इन दोनों ने आचार्य श्री का शिष्यत्व स्वीकार कर शास्त्र का अच्छा वैदुष्य प्राप्त किया था ! एक दिन दोनों ने आचार्य श्री के चरण का स्पर्श कर उस बात के लिए उसकी आशिर्वादपूर्व अनुमति माँगी कि वे बौद्ध पाठशाला में जाकर बौद्धमत का साम्प्रदायिक अध्ययन करें जिससे उस के एकान्तमत का यथोचित खण्डन कर सके। गुरुदेव ने इस प्रयास को संकटपूर्ण बताकर उन्हें ऐसा करने से विरत करना चाहा किन्तु उनका प्रबल उत्साह देखकर (मूक) अनुमति दे दी। इन शिष्यों ने बौद्धमठ में जाकर तदनुकूल वेष में रहते हुए बौद्धशास्त्रों का अध्ययन प्रारम्भ किया। ये प्रति दिन बौद्धसिद्धांत के समर्थन में जिन तर्कों का अध्ययन करते थे उनके खण्डनक्षम प्रतिकूल तर्क गुप्तरूप से भोजपत्र पर लिखते जाते थे। एक दिन एक भोजपत्र बौद्धाचार्य के पास पहुँच गया। उसने इन अकाट्य प्रतितर्कों को देखकर सोचा कि ये किसी जैन के हो हो सकते हैं। अन्वेषण करने पर उसे ज्ञात हुआ कि यह कार्य हंस और परमहंस का है । वह इन दोनों पर आगबबूला हो उठा और इन्हें मार डालने के लिए अपने वक्र गतिमान कर दिये । बौद्धाचार्य के इस क्रूर कर्म की जानकारी होते ही बौद्ध तर्कों के austress प्रतितर्कों लिखने का अभी तक का सारा परिश्रम बेकार न हो जाय, इस विचार से वे दोनों ही शिष्य अपने भोजपत्र को लेकर बौद्धमठ से भाग निकले । बौद्धाचार्य के दूसरे बौद्ध शिष्य ने उनका पीछा किया। भागनेवाले शिष्य ने मार्ग में किसी एक राजा से आश्रय की माँग की । राजा यद्यपि बौद्ध के क्रूर आवार से बौद्ध के प्रति कुदृष्टि रखता था, फिर भी बौद्ध के दाक्षिण्य के कारण उन्हें आश्रय न दे सका। हंस और परमहंस वहाँ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से भागे किन्तु बौद्ध ने निकट माकर संघर्ष मचाने पर उन्होंने सोचा कि अर भागने से काम न चलेगा, उचित यह है कि हम इमसे संघर्ष कर ले और जब ये संघरित हो जाय तर हम में से एक व्यक्ति इन्हें संघर्ष में फंसा रखे और दूसरा व्यक्ति लिखित भोजपत्र के साथ चुपकीदी से भाग निकले । फलतः इस संकटग्रस्त बुद्धिमान शिष्ययुगल में से एकने जिनशासन की सेवा में आत्म-बलिदान को अपूर्व लाभ मानकर बौद्ध शिष्यों के साथ संघर्ष करते हुये जिनधर्म की सेवा की वेदी पर अपने प्राण न्योछावर कर दिये और दूसरा भागता दौडता किसी प्रकार भाचार्य श्रीहरिभद्ररि के चरणों के निकट पहुँच गया और भोजपत्र पर लिखित बौद्ध तकौ का खण्डनात्मक पुस्तक गुरुदेव को समर्पित कर दिया और चौड़े। की करता से भरी बीती घटना का वर्णन करते हुए श्रमजन्यपीडा और बौद्धो की क्रूरतासे जनित मनोदुःख को न सह सकने के कारण उसे अकाल काल के कराल गाल में समा जाना पड़ा । जिनशासनामृत के अनवरत पान से मत्यन्त प्रशान्त भी आचार्य का हृदय अपने शिष्यों पर बीती करतापूर्ण घटना और उनके फरुण अन्त से उदीत हो ऊठा और क्रोधाग्नि की प्रचण्ड ज्वाला से तमतमा ऊठा | उन्होंने तत्काल राजा के पास पहुँचकर इस पणबन्ध के साथ भी राजसभा में बौद्धों के साथ शास्त्रार्थ करने की घोषणा की कि जो शास्त्रार्थ में पराजित हो वह अग्नि की तीत्र ज्वाला पर उबलते हुये तैल के तप्त कटाह में कूद कर प्राणत्याग करे । राजा की देखभाल में शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ | श्री हरिभद्रसूरि ने स्याद्वाद के अभेद्य कवच का आश्रय ले अपने सिद्धांत की रक्षा करते हुए अपने अकाट्य तों से एक एक कर १४११ बौद्धषिद्वानों का मानमर्दन कर समग्र बौद्धसिद्धान्तों को धराशायो बना दिया। राजसभा में जैनशासन की विजय-दुन्दुभी बजने लगी । और पराजित बौद्धों को पूर्व घोषित पणबन्ध के अनुसार उबलते तेल के कटाहों में निक्षिप्त करने की तय्यारी होने लगी । जब यह घटना आचार्य के गुरुदेव श्री जिनभरि को ज्ञात हुई तो उन्होंने इस महान् अनर्थ को रोकने के लिये आचार्य के पास तीन प्राकृत गाथायें लिख भेजी, जिनमें गुणसेन तथा अग्निशर्मा के प्रथम अब से समरादित्य केवलो तथा गिरिसेन नामके नवम भवनक के नामों का उल्लेख था और अन्समें लिखा था 'एक्कस्स तो मोक्खो, बोअस्स अणंतसंसारो' अर्थात् अनेक जन्मों से क्षमा-उपशम का अभ्याप्त करने वाले अकेले समरादित्य को मोक्षलाभ हुआ और अन्य अग्निशर्मा को उनके क्रोधी स्वभाव के कारण अनन्तसंसार परिभ्रमण का उपार्जन करना पड़ा । इन गाथाओं ने आचार्य के क्रोधतात हृदय पर शीतलजल की मूसलघार वर्षा का काम किया । उनका हृदय शान्त हो गया। उन्होंने पराजित बौद्धों को प्राणदान दिया मोर स्वयं अपने गुरुदेव के पास जा कर उनके चरणों में शिर रखा और अपने क्रोध के लिए Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्त को मांग को तथा अपनी ओर से मात्मशुद्धि के लिए १४५५ ग्रन्थों की रचना करने की भीष्म-प्रतिज्ञा को जिसके पालन को पहला फलश्रुति 'समराइचकहा' की रचना हुई। ४.आ. श्री हरिभद्रमूरिजी का समय-निर्णय भाचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी ने बहुत प्रन्थों की रचना की है किन्तु किसी भी ग्रन्थ में रचना संवत् का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त न होने के कारण उनका समय विद्वानों के बीच भारी चर्चा का विषय बन गया । श्री टिभद्रसूरिजी के समय का निर्णय करने के लिए जितनी सामग्री उपलब्ध है उत्तप्त तान मत फालत होन है दिन में दो मत प्राचीन हैं और एक माधुनिक है। [१]-प्रथम मत यह है कि हरिभद्रसूरिनी विक्रम संवत ५८५ में स्वर्गवासी हुएइस मत के समर्थन में अनेक प्रमाण दिये जाते हैं, जिनमें यह गाथा मुख्य है पंचसए पणसीए विक्रमकालाओ शत्ति अथमिओ। हरिभदसूरीसरो भवियाण दिसउ कल्लाणं ॥ यह गाथा वि. सं. १३३० में श्री मेरुतुजसूरि द्वारा विरचित प्रबन्धचिन्तामणि नामक अन्ध में उद्धृत की गई है जिसके कारण इस मत की प्राचीनता सिद्ध होती है। इसके अतिरिक्त विचारश्रेणी आदि अनेक ग्रन्थों में भी यह उपलब्ध होती है । यद्यपि कुछ अन्धकारों ने वि. सं. ५५५ वर्ष में भी हरिभद्र सुरि के स्वर्गवास का कथन किया है, फिर भी विक्रम की छटो शतान्दी तो प्रायः सर्वमान्य है। श्री हरिभद्रसूरिजीने लघुक्षेत्रसमास की वृत्ति बनाई है--जिसका उल्लेख जेसलमेर और संवेगी उपाश्रय (अहमदाबाद) के भाण्डागार की हस्तलिखित प्रत के अन्त भाग में निम्नलिखितरूप में प्राप्त होता है-- "लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समामतः । रचिताऽबुधशेषार्थ श्रोह रिभद्रमूरिभिः ॥१॥ पश्चाशितिकवर्षे विक्रमतो व्रजति शुक्लपश्चभ्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे पुष्ये शस्ये च नात्र ॥२॥ यहाँ द्वितीयगाथा में विक्रम से ८५ वर्ष में शुक्लपञ्चमी के दिन शुक्रवार को ग्रन्थ रचना का समय बताया है-किन्तु पञ्चाशिति शब्द से मात्र ८५ ईने में तो बहुत बाधायें है, अतः पञ्च-अशिति से ५८० का ग्रहण सम्भव हो सकता है जिससे प्रथम मत हो पुष्ट होता है | जैन परम्परा में यह भी एक वृद्धप्रवाद है और कई प्रकार ने भी बताया है कि श्री हरिभद्रसूरि 'पूर्व' नामके श्रत का बहुमात्र विच्छेद होने के निकटकाल में ही हुए थे और उस समय तक बचे हुए पूर्व के अंशो का संग्रहकार्य उन्होंने किया था। श्री Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रसूरि-चिरचित महान् ग्रन्थराशि को देखने से भी इस कथन को पुष्टि होती है और साथ ही विक्रम के बाद साधिक ५०० वर्ष पश्चात् पूर्वश्रुत का विच्छेद होने से आचार्यदेव श्रीहरिभद्रसुरिजीके उपर्युक्त समय का समर्थन होता है ।। [२]- आधुनिक विद्वानों का एक मत यह है कि श्रीहरिभद्रर्ति का जीवनकाल वि. सं. ७५७से ८२७ के बीच में था। जिनविजय नामके गृहस्थ ने 'जैन साहित्य संशोधक' के पहले मई में 'हरिभद्रसूरि का समय निर्णय' शीर्षक से एक विस्तृतनिबन्ध में इस मत को प्रमाणित करने का प्रयत्न किया हैं-इस का सांराश यह है कि श्रीहरिभद्रसूरि ने अपने प्रन्थों में व्याकरणवेत्ता भर्तृहरि, बौद्धाचार्य धर्म कोर्ति और मोमाप्तक कुमारिल आदि अनेक ग्रन्थकासे का नामशः उल्लेख किया है। जैसे अनेकान्तजयपताका के चतुर्थ अधिकार की स्वोपज्ञ रीकामें 'शब्दार्थतत्वविद् भर्तृहरिः' तथा 'पूर्वानायः धर्मपाल-धर्म कीादिभिः' इस प्रकार उल्लेख किया है । शास्त्रवात्ता-समुच्चय के लोकांक २९६ को स्वोपज्ञ टीकामे 'सूक्ष्मबुद्धिना शान्तरक्षितेन' तथा लोकाङ्क ८९ में आई च कुमारिलादिः' ऐसा कहा गया है। इन चार आचार्यों का समय इस प्रकार प्रसिद्ध है-ई. स. की ७ वीं शताब्दो में भारतप्रवासी चीनदेशीय इसिंग ने ७०० लोकमित 'वाक्यपदीय' ग्रन्थ की रचना करने बाले भर्तृहरि की वि. सं. ७०७ में मृत्यु होने की बात कही है। कुमारिल का समय विक्रम की ८ वी शताब्दी का उत्तरार्ध बताया जाता है । धर्मकीर्ति का भी नामोल्लेख इसिगने किया है इससे जिनविजय ने उसका समय इ. स. ६३५-६५० के बीच मान लिया है। 'शास्त्रवार्ता' में जिस शान्तरक्षित का नामोल्लेख है यदि वह ही तत्वसंग्रह का रचयिता हो तो उसका समय विनयतोप भट्टाचार्य के अनुसार इ. स. ७०५ से ७६२ इ. स. के बीच है। यहाँ एक बात पर ध्यान देने योग्य है कि तत्वसंग्रह के टीकाकार कमलशील ने परिक्षका तथा चोरतमाचार्यसूरिपादैः। ऐसा कह कर जिस सरि का उल्लेख किया है उस सरि को विनयतोषभाचार्य ने तत्वसंग्रह के इंगलिश फोरवर्ड में हरिभद्रसूरि ही बताया है। पीटरसन के रीपोर्ट के 'पञ्चसए' ऐसा पाट वाली गाथा के अधार पर उन्होंने हरिभद्रसरिजी का स्वर्गवास वि. सं. ५३५ में माना है । किन्तु श्रीहरिभद्रसरिजी ने ही स्वयं शान्तरक्षित का नामोल्लेख किया हैं इस लिये लगता है कि तत्वसंग्रह पञ्जिका में उल्लिखित अचार्यसूरि हरिभद्रसूरि न होकर अन्य होंगे । इन ४ प्राचीन विद्वानों का समय विक्रमीय ८ वी शताब्दी होने से जिनविजय ने श्री हरिभद्रसूरि जी को ८ वी शताब्दी के विद्वान माना है और ८ वी शताब्दी के उत्तरार्ध में विशेषत: उनका अस्तित्व सिद्ध करने के लिए. 'कुवलयमाला' के प्रशस्तिपथ की साधी दी है वह पच इस प्रकार है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "आयरियवीरभदो महावरों कापरुक्खोव्य ॥ सो सिद्धन्तेण गुरु जुत्तिमत्येईि जस्स हरिभयो । बहुगंथसवित्थरपस्थारियपयडसम्वत्थो । . इस पद्य का जिनविजय ने यह अर्थ किया है 'आचार्य वोरभद तो जिसके सिद्धान्तों को पढ़ाने वाले गुरु है और जिन्हों ने अनेक ग्रन्थों की रचना कर समस्त श्रुत का सर्वार्थ प्रकट किया है वे आचार्य हरिभद्र जिसके प्रमाण और न्यायशान के पढाने वाले गुरु हैं।' कुवलयमाला की रचना यतः वि. सं. ८३५ में होना निश्चित है इसलिए इस पद्य के अधार पर जिनविजय ने श्री हरिभद्रसूरिजी और कुवलयमाला का पूर्वापरभाव निश्चित कर के श्री हरिभद्रसूरजी को ८ वी शताब्दी के उत्तरार्ध और नवी शताब्दी के मध्य में माना है। जिनविजय की भ्रान्ति श्री हरिभदसूरिजा का समय अन्यप्रमागों से कुछ भी निश्चित हो किन्तु कुवलयमाला के उस पद्य के आधार पर तो जिनविजय ने जो निर्णय किया है यह अवश्य भ्रमपूर्ण प्रतीत होता है-इसका कारण यह है कि जिनविजय को उस पथ का अर्थ समझने में गलती हुई है क्योंकि उन्होंने 'सो सिद्धन्तेण गुरु' यहाँ तत्पद के प्रतिनिधि 'सो' पद से वीरभद्र का ग्रहण किया है और उसो पद्य के अगले पाद में 'जस्स' पद से उन्हों ने कुवलयमालाकार का ग्रहण कर हरिभद्र यूरिनी को कुछयमालाकार का युक्तिशास्त्रगुरु बताया है । अब व्याकरण का यह नियम प्रायः सर्वविदित है कि जिस पद्य में तत्पदसे जिसका ग्रहण होता है उस पध में यत्पद से भी उसो का प्रण होता है क्योंकि यत् और तत् पद परस्पर में नित्य सारांश होते हैं। इस नियम के अनुसार 'सो (सः) पद से यदि आचार्य वीरभद्र को लिया जायगा तो 'जस्म (यस्य) पर से भी (वीरभहस्स) वीरभद्र को ही लेना होगा और ऐसा करने से पद्य का अर्थ यह होगा कि 'तर्कशास्त्रों के विषयमें आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी भाचार्य विरभद्र के गुरु थे' न कि जैसा जिनविजय ने माना है कि 'श्री हरिभद्रसूरि कुवलयमालाकार के गुरु थे । इस प्रकार उक्त पद्य के अनुसार भाचार्य वीरभद्र कुवलयमालाकार के सिद्धान्त गुरु और भाचार्य हरिभदरि आचार्य वीरभद्र के तर्कशाबगुरु सिद्ध होते है। इस विधान में कुवलयमालाकार के ही अन्य पद्य को साक्षिरूप में प्रस्तुत किया जा सकता है-जैसे-- "जो इच्छइ भवनिरहं भवविरई को न वेदए सुजणो । समय सयसत्थगुरुणो समरभियंका कहा जरस ॥" Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. इस पथ में कुललयमालाकार ने श्रीहरिभद्रसूरिजी की स्मरण तो किया है किन्तु उनकी अपना तर्कशास्त्रगुरु बताने की कोई सूचना नहीं दी है | यदि श्री हरिमदपुरि कुवलयमालाकार के तर्कशास्त्रगुरु होते तो उन्हों ने उनका उसरूपमें अवस्य स्मरण किया होता, किन्तु उन्हों ने ऐसा नहीं किया इससे सिद्ध होता है कि श्री हरिभदसूरिजी कुवलयमालाकार श्री उद्योतनसूरिजी के साक्षात् तर्कशाखगुरु नहीं थे । निष्कर्ष यह है कि जिनविजय के प्रयास के अनुसार श्री हरिभद्रसूरि यदि ८ वीं शताब्दी के विद्वान् सिद्ध होते हो तो भो जिन जिन ग्रन्थकारों का नामोल्लेख श्री हरिभद्रसूरि ने अपने ग्रन्थो में किया है उन सभी के उनका पूर्ववत्त होने से उन्हें ८ वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विद्यमान मानना हो उचित होगा जिससे कुवलयमालाकार के सिद्धान्तगुरु वीरभद्र के तर्कशास्त्रगुरु से उनके श्री हरिभद्रसूरि का समय कमसे कम ५० से ७५ वर्ष तक पूर्व युक्तियुक्त हो सके ! ३ ) - तृतीयमत जो हर्मन जेकोबी को अधिक अभिमत है - श्री हरिभद्रसूरि उपमिलिभवप्रपचकथाकार श्री सिद्धार्षि के गुरु थे । इस बात में 'उपमिति०' के ये प्रशस्तिपद्य प्रमाणरूप से प्रस्तुत किये जाते है आचार्यहर मे धर्मोकरो गुरुः । प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाये निवेदितः ॥१॥ अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया । मदर्थैव कृता येन वृत्तिर्ललित विस्तरा ||२||" इन दो पद्यो से यह तो स्पष्ट है कि इस में उल्लिखित हरिभद्रसूरिजी वही व्यक्ति है जिनके समय का विचार किया जा रहा है । किन्तु उपमितिकार का समय 'उपमिति ० के निम्नोक्त पद्यसे विक्रम की दशवीं शताब्दी में सिद्ध होता है जैसे " संवत्सरशतनव के द्विषष्टिसहितेऽतिलखिते चास्याः 1 ज्येष्ठे सिपम्यां पुनर्व सौ गुरुदिने समाप्तिरभूत् ||" इस लोक से ज्ञात होता है कि 'उपमिति' ० की समाप्ति दि० सं० ९६२ में हुई थी। जेकोबी के मतानुसार यदि श्री हरिभद्रसूरि जी को श्री सिद्धषि के साक्षात् गुरु माना जाय तो अत्यन्त प्रामाणिक शक संवत् ६९९ ( दि० सं० ८३५ ) में कुवळयमाला की समाप्ति करने वाके उद्योतनसूरि द्वारा किया गया श्री हरिभद्रसूरि का नामोल्लेख असंगत हो जाता है और ५८५ में श्री हरिभद्रसूरि का स्वर्गवास के मत का भी विरोध होता है, इसलिए दर्मन जैकोबी के इस तृतीयमत को कोई भी आधुनिक विद्वान् नहीं मानते । श्री सिद्धर्षि ने अपने गुरु रूप में श्री हरिभद्रसूरि जा का जो स्मरण किया है वह इसलिए कि उन्हें श्री हरिभद्रसूरिबिरचित 'तिविस्तारा' वृत्ति से सदोष हुआ था । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निस्कर्ष उपर्युक्त तीन मतों के सम्बन्ध में निष्पक्ष विचार करने से यह तथ्य प्रकट होता है कि उक्त मतो में प्रथम मत जो कि ५८५ वि. सं. के पक्ष में है, श्रेष्ठ और मधिक विश्वसनीय है। प्राचीन अनेक ग्रन्थकारों ने श्री हरिभद्रसूरि को ५८५ वि० सं० में बताया है। इतना ही नहीं, किन्तु श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं भी अपने समय का उल्लेख संवत्-तिथि-वार-माप्त और नक्षत्र के साथ लघु क्षेत्रसमास की वृत्ति में किया है जिसवृत्तिके ताडपत्रीय जेसलमेर की प्रत का परिचय मु. श्री पुण्यविजय सम्पादित 'जेसलमेरकलेक्शन' पृष्ठ ६८ में इस प्रकार प्राप्य है-'क्रमांक १९६- जम्बूद्विपक्षेत्रसमास वृत्ति-पत्र २६-भाषाः प्राकृत-संस्कृत-कर्ताः हरिभद्र आचार्य, ले० सं० अनुमानतः १४ वीं शताब्दी।' इस प्रति के अन्त में इस प्रकार का उल्लेख मिलता है -- इति क्षेत्रसमासवृत्ति: समाप्ता । विरचिता श्री हरिभदाचार्यः ॥छ। लघुक्षेत्रसमासस्य वृत्तिरेषा समासतः । रचिताऽबुधबोधार्थ श्री हरिभदसूरिभिः ॥१॥ पञ्चाशितिकवर्षे विक्रमतो बज्रति शुक्लपञ्चम्याम् । शुक्रस्य शुक्रवारे शस्ये पुष्ये च नक्षत्रे ।।२।। ठीक इसी प्रकार का उल्लेख अहम्मदाबाद-संवेगी उपाश्रय के हस्तलिखित भांडार की एक सम्भवतः १५ वा शताब्दी में लिखी हुयी क्षेत्रसमास की कागज की प्रति में उपलब्ध हो दूसरी गाया में स्पष्टशब्दों में श्री हरिभद्ररिजी ने लघुक्षेत्र समासवृत्ति का रचना काल वि.सं. (५)८५, पुष्य नक्षत्र शुक(ज्येष्ठ) मास-शुक्रवार-शुक्लपंचमी बताया है। यद्यपि यहाँ वि.स. ८५ का उल्लेख हैं सथापि जिन वार-तिथि–मास-नक्षत्र का सह उल्लेख है उनके साथ वि.सं. ५८५ का ही मेल बैठता है । अहमदाबाद-वेघशाला के प्राचीन ज्योतिषविभाग के अध्यक्ष श्री हिम्मतराम जानी ने ज्योतिष और गणित के आधार पर जांच कर के यह बताया है कि उपर्युक गाथा में जिन वार तिथि इत्यादि का ऊलेख है वह वि.स. ५८५ के अनुसार बिलकुल ठीक है-ज्योतिषशास्त्र के गणितानुसार प्रामाणिक है । उन्होंने सारा गणित कर के उक्त बात बतायी है किन्तु यहाँ भावश्यक न होने से उस विस्तारापादक प्रस्तुति का परित्याग किया गया है। इस प्रकार श्री हरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं ही अपने समय की अत्यन्त प्रामाणिक सुचना दे रखी है तब उससे बढ़कर और क्या प्रमाण हो सकता है जो श्री हरिभद्रसूरि के इस समय की सिद्धि में बाधा डाल सके ! शंका हो सकती है कि-" यह गाथा किसी अन्य ने Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रक्षिप्त की होगो"-किन्तु वह ठोक नहीं, क्योति प्रक्षेप करने वाला केवल संवत् का उल्लेख कर सकता है किन्तु उसके साथ प्रामाणिक वार-तिथि आदि का उल्लेख नहीं कर सकता । और यदि इतने प्रामाणिक उल्लेख को भी प्रक्षिप्त कहा जायगा तब तो कुवलयमाला आदि में प्राप्य उल्लेखो के बारे में भी यह कैसे कहा जा सकेगा कि यह उल्लेख प्रक्षिप्त नहीं किन्तु प्रामाणिक है । हो, यदि धर्मकीर्ति आदि का समय इस समय में बाधा कर रहा हो तो उचित यह है कि उनके समय के निर्णय को ही पुन: जांच की जाय, यतः धर्मकीर्ति आदि के समय का बोधक नो इसिग आदि का लेख है उससे केवल संवत्सर की हो सूचना मिलती है-जब कि श्री हरिभद्रसूरिजी के इस उल्लेख से तिथि आदि का भो बोध मिलता है । इस लिये श्री हरिभद्रसूरि के समयोल्लेख के इत्सिग आदि के समयोल्लेख से अधिकपुष्ट एवं बलवान होने से धर्मकीर्ति आदि के समयोल्डेख के आधार पर श्रीहरिभद्सरिजी को विक्रम की छट्टी शताब्दी से खींच कर ८वी शताब्दी के उत्तरार्ध में ले जाने की अपेक्षा उचित यह है कि श्री हरिभद्रसूरिजी के इस अत्यन्त प्रामाणिक समय उल्लेख के बल से धर्मक्रीति मादि को ही बढी शताब्दो के पूर्वार्ध या उत्तरार्घ में जाया जाय । अतः श्रीहरिभद्रसूरि को कुवलय. मालाकार के साक्षात् तर्कशास्त्रगुरु मान कर उनको ८वीं शताब्दी में अवस्थित मानना अत्यन्त भ्रमपूर्ण है - इस बात की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। कुवलयमालाकार का उल्लेख श्री हरिभद्र सूरिजी को विक्रमीय छटो शताब्दी का विद्वान् मानने में तनिक भो बाधक नहीं हो सकता । श्री वीरभद्राचार्य कुवलयमालाकार के साक्षास् गुरु माना नाय तो भी 'युक्तिशालो द्वारा श्री वीरभद्राचार्य के गुरु श्री हरिभद्रसूरिजी है, इस उल्लेख का यह अर्थ करने में कोई बाधक नहीं है कि 'परम्परा से श्रीहरिभद्रसुरिजो प्रो वोरमद्राचार्य के विद्यागुरु थे। क्योंकि श्री हरिभद्रसूरे के ललितविस्तरा' शास्त्र से जैसे उअमितिकथाकार: श्री सिद्धर्षि प्रबुद्ध हुए थे उसी प्रकार श्रीहरिभद्र सूरि के तके ग्रन्थों से श्री वीरभद्राचार्य ने जैन-जनेतर तर्क सिद्धान्तों का पर्याप्त बोध प्राप्त किया होगा । सारांश यह है कि (१) पूर्वश्रुत के विच्छेदकाल के निकट के समय में विधमान होने से तथा विचारश्रेणिप्रकरण कार भादि अनेक प्राचीन ग्रन्धकारों का वि० सं० ५८५ बाला प्राचीन मत होने से तथा श्रीहरिभदसूरिजो ने स्वयं अपना काल लघुक्षेत्रसमासवृत्ति में बताया है इसलिये श्री हरिभद्ररि महाराज विक्रम को छटो शताब्दी में हुए यह सत्य निश्चित होता है। (२) धर्मकिर्ति आदि विद्वानों का समय प्रमाणिक और निश्चित न होने से उपयुक्त मत में तनिक भी बाधक नहीं है । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५-स्याद्वादकल्पलता-व्याख्याकार श्रीमद् यशोविजय उपाध्याय आचार्य श्री हरिभद्रसुरि महाराज के बाद जैन परम्परा में अनेक मुनीश्वर हुए जिनमें सिद्धर्षिगणी-आचार्य मनिचन्द्र सुरि-आचार्य हेमचन्द्रसूरि-पा० गुणरत्नसूरि आदि विद्वान् प्रभावक आचार्यों का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन आचार्यों ने अनेक जैन तर्कशास्त्रग्रन्मो का प्रणयन कर जिनशासन के प्रकाश भरे प्रदीप को चिरकाल तक जाज्वल्यमान रखा । इसी रत्नप्रसू परम्परा में १७ वी शती में एक ऐसे पुरुषरत्न श्री यशोविनय महाराज का उद्गम हुआ जिनका चतुर्दिकप्रसरी बौद्धिक प्रकाश प्रन्यो' के रूप में आज भी मुमुक्षुजनों के लिए जैन शास्त्रों का रहस्य जानने का उत्तम साधन बना हुआ है। उनकी अनेकमुली प्रखर प्रतिभा ने श्रीहरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थों का सलस्पर्शी मध्ययन कर जो नवनीत निकाल कर जिज्ञासुओं को प्रदान किया है उस के कारण जैन मुनिवर्ग में लघु हरिभद्र के उपनाम से उनकी प्रसिद्धि है । उन्होंने स्याद्वाद के बल से दुर्जय वदियों को पराजित करके जैनशासन और अनेकान्तवाद की जयपताका काशी के गगन में लहराई थी। उनके उस विजय से आश्चर्यमुग्ध हो काशी की विद्वन्मंडली ने उन्हें 'न्यायविशारद' चिरुदप्रदान किया था। नवीनन्यायशैली के प्रणेता 'तत्त्वचिन्तामणि' ग्रन्थकार ग?शोपाध्याय और उनके प्रसिद्ध टोकाकार रघुनाथ शिरोमणि के मन्तव्यों के सूक्ष्म समालोचन और खंडन भरे उनके अनेक तर्कप्रन्थों को देख कर मामा में भट्टाचार्य ने उन्हें 'न्यायाचार्य' को उपाधि प्रदान को थी । शास्त्रया -समुच्चय मूलगन्थ की रचना करने वाले आचार्य श्रीहरिभद्रसूरिमहाराज ने स्वयं उस ग्रन्थ की गृहन्थियों को खोलने के लिये 'दिकादा' नामक एक व्यारव्याग्रन्थ की रचना की थी। किन्तु नाम अनुप्तार इस ग्रन्थ में श्लोक का अर्थ लगाने के लिये केवल दिशा. प्रदर्शनमात्र किया गया था जिससे उसके तात्पर्य तक पहुँचने के लिये मध्येतावर्ग को उसकी विशद व्याख्या की आवश्यकता का अनुभव होता था । उपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज ने सरलता से इस समस्या का समाधान कर दिया । अध्येतागण शास्त्रवार्ता के हार्द को भात्मसात करते हुये उसका अध्ययन सुगमना से कर सके इस उद्देश्य से उन्हों ने 'त्याद्वादकल्पलता' नामक एक विस्तृत व्याख्या लिखी जिसमें मूलग्रन्थ और उसकी स्वोपज्ञ व्यारव्या के अनुसार मुलग्रन्थ के मर्मस्थलों पर विशद प्रकाश डाला गया अभ्यासी वर्ग को शास्त्रबार्ता के तात्पर्यफल को हस्तगत करने में सचमुच इस व्याख्या ने कल्पलता का ही कार्य किया है। केवल इतना ही नहीं किन्तु जैनेतर-दर्शन के अनेक अपक्व अपूर्ण या अर्धपूर्ण सिद्धान्तों की नवीनन्याय- शैली से कडी आलोचना कर उन सिद्धान्तो को किस प्रकार पूर्ण बनाया जा सकता है इस दिशा में भो Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ इस व्यारव्या द्वारा पर्याप्त मार्गदर्शन किया गया है। इस में कोई सन्देह नहीं है कि अनेक वादस्थलों को विस्तृत चर्चा से यह व्याख्याग्रन्थ भो एक स्वतन्त्र ग्रन्थ जैसा बन गया है। __ मूल शास्त्रवाग्रिन्थ को ११ विभागों में वर्गीत करके प्रत्येक विभाग में भिन्न भिन्न दर्शनों के अनेक सिद्धान्तों को विस्तार से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत कर अनेक नवीन युक्तियों से उनके उत्तरपक्ष को उपस्थित किया गया है जो अतीव बोधप्रद एवं आनन्ददायक है। प्रथमस्तबक में भूतचतुष्टयात्मवादी नास्तिक मत का खण्डन है । दूसरे में काल-स्वभावनियति-कर्म इन चारों की अन्यानपेक्ष कारणता के सिद्धान्त का वण्डन है । तीसरे में न्याय-वैशेषिक अभिमत ईश्वरकतत्व और सांख्या भिमत प्रकृति--पुरुषवाद का खण्डन है। चतुर्थ स्तबक में बौद्धसम्प्रदाय के सौत्रान्तिकसम्मत क्षणिकरब में बाधक स्मरणाअनुपपत्ति दोस्खाकर क्षणिक बाह्यार्थवाद का खण्डन है । पंचम स्तबकमें योगाचार अभिमत क्षणिकविज्ञानवाद का खण्डन है। छट्वे स्तबकमें क्षणिकत्वसाधक हेतुमों का निराकरण किया गया है। सातवे स्तबकमें जैन मत से स्याद्वाद का सुंदर निरूपण किया गया है। आठवेस्तबकमें घेदान्ती अभिमत अद्वैतवाद का खंडन विस्तार से बताया गया है । नववेस्तबमें जन भागों के अनुसार मोक्षमार्गकी मीमांसा की गई है। इसवे नकारें गर्वन के मालिक का समर्थन किया गया है और ग्यारहवे स्तबकमें शास्त्रप्रामाण्य को स्थिर करने के लिये शब्द और अर्थ के मध्य सम्बन्ध न मानने वाले बौद्धमत का प्रतिकार किया गया है। इन सभी स्तमको में मुख्य विषय के निरूपण के साथ अनेक अवान्तर विषयों का भी निरूपण किया गया है, जिन में अन्त में स्त्रीवर्ग की मुक्ति का निषेध करनेवाले जैनाभास दिगम्बरमत की पूर्ण एवं गम्भौर आलोचना की गयी है। श्रीउपाध्यायजी ने अपनी स्याद्वाद-कल्पलता में जैन तर दार्शनिकों के अने मतों की बड़ी गहरी समीक्षा और अलोचना की है। स्याद्वाद-कल्पलता की रचना करनेवाले श्रीयशोविजयजी महाराज ने भागमप्रकरण-तर्क-साहित्य-काव्य आदि अनेक विषयों पर अन्य भी कई विस्तृत व्याख्यायें लिखी है तथा कतिपय स्वतन्त्र प्रन्थो की भी रचना की है, इस प्रकार उन्हों ने जीवनव्यापी साहित्य साधना से जैनदर्शन को महत्ता और यशस्विता का जो गान किया है एवं अल्पमति मध्येतावर्ग के उपर जो अनन्यसाध्य उपकार किया है उसके लिये जैन तथा जैनेतर सभी जिज्ञासु प्रजा उनकी सदा के लिये ऋणी है । हमारी समझ से उनके ग्रन्थों की आलोचना करने की स्थानिक कल्पना भी दुर्भाग्य की बात है। हा- यदि उनके प्रन्थो का मर्मस्पर्शी अध्ययन करने का तथा उनके विषयप्रतिपादन के भांशिक तात्पर्य को भी हृदयंगम करने का अवसर इमें मिल सके तो यह हमारे परम सौभाग्य की बात है। ऐसे समर्थ विहान् श्री Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्रसरि भोर श्रीमद् उपाध्यायजी के बारे में भी कतिपय विद्वानों की ओर से मसंगत विधान होते रहते हैं यह भी एक कम खेद की बात नहीं । ६-ग्रन्थकार और व्याख्याकार के बारे में कतिपय वक्तव्यो का अनौचित्य आर्यदेश भारत में अहिंसा की आधारशिला पर सामाजिक मुदृढ चारित्रप्रासाद के निर्माण में यदि किसी के महत्वपूर्ण सहयोग का उल्लेख करना हो तो वह भगवान महावीर की परम्परा में होने वाले जैनाचार्य श्रमणवर्ग का हो सकता है । विश्व में आज नैतिकता और भाप्तता के अधिकाधिक प्रसार की गवेषणा यदि की जाय तो उसका सर्वोत्तम स्थान आर्यदेश-भारतवर्ष ही हो सकता है । जैन संध के निस्पृह, त्यागो, संयमी महामुनियों ने देश में सदाचार सद्विचार और सम्यक्श्रद्धा की प्रतिष्ठा के लिये जो पर्याप्त श्रम ऊठाया है उस का यह शुभ परिणाम है कि आर्य देश भारत में आज भी लोगों के जीवन में पर्याप्त शान्ति और अहिंसा की भावना विद्यमान है । इन महापुरुषों में से किसी में किसी कपोलकल्पित अतथाभूत सद्गुण का आरोप कर उसकी श्रेष्ठता बताना और उन आरोपित गुण की न्यूनता को व्यञ्जना से अन्य आचार्यों में हीनता बताने का प्रयास करना अथवा मनमाने ढंग से असहिष्णुता, परावगणना आदि दोषों का आरोप कर उनके गौरव को गिराने की चेष्टा करना अत्यन्त घृणास्पद प्रवृत्ति है । यह बडे खेद को बात है कि यह प्रवृत्ति आजकल पाश्चात्यसंस्कृति से प्रभावित कतिपय जैन लेखकों की भी प्रकृति बन गयी है, ऐसे लोगों की इस प्रवृत्ति का क्या लक्ष्य है यह तो ज्ञानी भगवन्तो को ही ज्ञात हो सकता है, किन्तु इस का एक दुष्परिणाम स्पष्ट देखने में आ रहा है. वह यह कि मार्य प्रजा के हृदय में पूर्व महर्षियों के प्रति मादरसम्मान और श्रद्धाको जो भावना थी उसका दिन प्रतिदिन हास होने लगा है और उसके फल स्वरूप उन महर्षियों से उपदिष्ट सर्वजीवकल्याणसापक सदाचार को उपेक्षा होने से आर्य प्रजा का नैतिक एवं चारित्रिक पतन उत्तरोत्तर वेगवान होता जा रहा है। भाचार्य श्रीहरिभद्रसूरि म, और श्रीमान् उपाध्याय यशोविजय महाराज के बारे में कतिपय जैन लेखकों ने जो अभिप्राय प्रकट किये हैं वे अत्यन्त खेदजनक हैं। शास्त्रवार्ता मूलमन्थ के बारे में एक महाशय ने लिखा है कि-'The text contains several verses borrowed from the works of others.? इस प्तन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि पूर्वपक्ष के लिये अथवा स्वमत के समर्थन के लिये जिन लोकों का उद्धरण अन्य ग्रन्था से लिया जाता है उन्हें Borrowedया Loaned नहीं कहा जा सकता किन्तु quoted या repeated कहा जा सकता है, अतः ऐसे भन्यतः गृहीत वचनों को Borrowed कहना अत्यन्त असंगत है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी प्रकार एक विदुषी ने लिखा है कि 'Haribhadra in writting on yoga does not succumb to any narrowmindness or prejudices.' यह कथन भी अर्धसत्य जैसा ही है, अतः पाँच महावतो का पालन करने वाले जैनमुनि किसी भी विषय में किसी के भी प्रति किसी द्वेषदृष्टि को वशीभूत हो कर कोई कार्य नहीं करते । अतः श्रीहरिभद्रसूरिजी जो आरम्भ में वीतराग दे। को नमस्कार कर के ही प्रायः अपने ग्रन्थों की रचना करते हैं, उन्हें केवल योग की ही चर्चा में दृष्टिविशेष से अनभिभूत और निष्पक्ष बताना एक प्रकार से उनके अपकर्ष का ही प्रदर्शन है, क्योंकि वे वीतरागता के प्रति अनन्यनिष्ठा वाले होने के कारण सदा और सर्वत्र असंकीर्ण एवं निष्पक्ष भाव से ही किसी विषय पर विवेचना करते हैं, लेखिका ने उनके शास्त्रवार्ता प्रथमस्त चक्र द्विसीय लोक के 'जायते द्वेषशमनः' अंश पर ध्यान देना चाहिये । आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि के जीवन की विविध विशेषतायें तथा विच्छेदोन्मुख पूर्वश्रुत में से विकीर्ण श्रुतपुपों का इनके द्वारा गठन आदि की बातें बतायी जा चुकी है, किन्तु एक चचा और भी करनी है, वह यह कि एक पड़ा राय ने श्रीहरिभद्रसूरिजी की विशेषता प्रदर्शित करते हुये लिखा है कि 'हरिभदे जे उदात्तदृष्टि, असाम्प्रदायिकवृत्ति भने निर्भयनम्रता पोतानी चर्चाओ मां दाखदी छे तेवो तेमना पूर्ववर्ती के उत्तरवर्ती कोई जैन, जैनेतर विद्याने बहावेली भाग्ये न देखाय छे' स्पष्ट है कि लेखकने श्रीहरिभद्रसूरि को उदात्तदृष्टि-अप्साम्प्रदायिक आदि कह कर भाज तक के सभी जैन जैनेतर विद्वानें। से श्रेष्ठ बताने का प्रयास किया है, किन्तु इस प्रयास से अन्य सभी जैन विद्वानों की जो अवगणना प्रतीत होता है, वह उचित नहीं हैं । श्रद्धाल एवं विवेकशील जैनजनता की दृष्टि में सभी जैन विद्वान् और संयमी मुनिगण निर्दोषता और रागद्वेषरहितता के आधार पर उपास्य हैं, अतः उन में अनुचित उत्कर्षापकर्षे बताना जैन जगत की उदात्त संस्कृति के अनुरूप नहीं कहा जा सकता । लेखक ने श्री हरिभद्रसुरजो को असाम्प्रदायिक कह कर उन्हें स्कृष्ट और अन्योको अपकृष्ट बताने का संकेत किया है, यह भी एक अनुचित प्रयास है, क्योंकि भारत की भार्य संस्कृति में साम्प्रदायिकता को मद्गुण माना गया है, विशेष कर उप्त साम्प्रदायिकता की जिससे सामान्य जनता में अहिंसा, त्याग, संयम मादि बहुमुल्य सद्गुणों की प्रतिष्ठा और उनका संरक्षण होने की अत्यनिक सम्भावना है । जो सम्प्रदाय नैतिकता, धार्मिकता, आध्यात्मिकता, चारित्रिक संयम और समस्त जीव के अभ्युत्थान की भावना पर प्रतिष्ठित हुआ है उस सम्प्रदाय से सम्बद्ध होना उसके संरक्षण और संवर्धन का प्रयाप्त करना दूषण नहीं अपि तु भूषण है । आज राजनीति और विज्ञान के जाश्वल्यमान युग में भी साम्प्रदायिकता का महत्व Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ववत् मान्य है -यही कारण है कि आज भारत देश के स्वतन्त्र अस्तित्व के संरक्षण तथा राज्य की सन्यवस्था के लिये जिस राजनैतिक सम्प्रदाय संगठन को समर्थ समझा जाता है उसे मत देकर पुष्ट बनाने का भरपूर प्रयास किया जाता है । यदि किसो सम्प्रदाय का कोई व्यक्ति आवेश में भाकर दूसरे सम्प्रदाय के अस्तित्व का लोप करने के लिये निन्द्य प्रयास फरे तो ऐसी साम्प्रदायिकता अवश्य त्याग्य है किन्तु इस त्याग्य साम्प्रदायिकता की दृष्टि से मात्र श्री हरिभद्ररि हो असाम्प्रदायिक नहीं हैं, किन्तु सभी जैन विद्वान् तथा जैनमुभि असाम्प्रदायिक हैं, अतः एकमात्र श्री हरिभद्रसूरि को ही उक्त अर्थ में असाम्प्रदायिक मताने से अन्य विद्वानों के प्रति तथा सरसम्प्रदायों के प्रति देवप्रदर्शन के आतरिक भोर कोई उपलब्धि नहीं होती। निर्भय-नम्रता को जो बात की गयी है उसे भी मात्र श्री हरिभद्रसूरि में ही सीमित करना ठीक नहीं है, क्यो कि यह विशेषता भी समस्त जैन विद्वानो में सदैव मक्षुण्ण रही है । यतः अपने से अधिक बहुश्रुत, गुणवान, सम्यग ज्ञानी व्यक्तियों के प्रति गुरुवत् बहुमान आदि प्रदर्शन के शौचित्य का पालन समी विद्वान निरन्तर करते रहे हैं। इतना ही नहीं, अन्य सम्प्रदाय के व्यक्ति में भी जब कोई विशेषता ज्ञात हुई तब उसका भी औचित्यपूर्ण स्मरण भनेक जैन विद्वानों ने अपने ग्रन्थो में निर्भयता एवं उदारतापूर्वक किया है । कुवलयमाला में उद्योतनसूरि ने वाल्मिकी और बाणभट्ट के कथाप्रबन्धी का औचित्यपूर्ण स्मरण किया है। तथा धनपालकवि ने अपनी तिलकमञ्जरी में अनेक जैनेतरकाययों का स्मरण किया है । ऐसे अनेक दृष्टान्त जैमसाहित्य में उपलब्ध हैं । उक्त महाशयने श्रोहरिभद्रमुरिजी के कतिपय ग्रन्थों के श्लोक मादि का उद्धरण देकर भी इस विषय में भ्रम और मिथ्यावासना से पूर्ण अपनी मान्यताओं का समर्थन करने का प्रयास किया है, जिससे लेखक की मनोविकृति का स्पष्ट दर्शन हो पाता है, उसके कतिपय उदाहरण इस प्रकार हैं षदर्शनसमुच्चय में चाकिदर्शन का निरूपण है, उसके बारे में महाशयजी का कहना है कि "न्याय भने वैशेषिक ए बे दर्शनो जुदा नथी, एम माननारनी दृष्टिए तो आस्तिकदर्शनो पांच ज श्रया तेथी करली प्रतिज्ञा प्रमाणे छठु दर्शन निरूपवानुं प्राप्त थाय के तो ए निरूपण चार्वाक ने पण दर्शनतरीके लेखी पुरु कर जोइए । आम कही तेमो (श्री हरिमद्रसूरि) चार्वाक प्रत्ये समभाव दाखवे छे ।' -इस वक्तव्य से स्पष्ट है कि महाशयत्री ने कारिका का अर्थ समझने में भूल की है, क्यों कि कारिका का वास्तविक अर्थ यह है कि १-षट् दर्शनसंख्या तु पूर्यते तन्मते किल । लोकायतमतक्षेपे कथ्यते तेन तन्मतम् ।। - - - - - - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "जो लोग न्याय-वैशेषिक दर्शन में भेद नहीं मानते उनके मत से लोकायतमत के प्रक्षेप से दर्शनों की संख्या छः होती है, इसलिये उस मत का कथन किया जा रहा है ।" इस कारिका से यह तथ्य निकालना कि 'श्री हरिभद्रसूरि ने चार्वाकमत को भी दर्शन माना है अतः चार्वाक के प्रति उनके इस समागाद ना , अन् संगन है, डोंकि कारिका में 'तन्मते' शब्द में तत्पदले उन्हों ने स्पष्ट रूप से उनका संकेत किया है जो न्याय और वैशेषिक को दो दर्शन न मान कर एक दर्शन मानते हैं । यह भी ध्यान देने को बात है कि जब श्री हरिभद्रसुरि जी ने चार्वाक मत को स्वयं अपनो भोर से दर्शन नहीं माना है तब चार्वाक के प्रति उनका समभाव बताने का क्या अर्थ हो सकता है ! ऐसा लगता है कि महाशयी ने समभाव का भी कोई मनगढन्त अर्थ मानकर उस शब्द का प्रयोग किया है क्योंकि किसी के प्रति द्वेषपूर्ण माचरण न करना', समभाव के इस सत्य अर्थ को यदि उन्होंने समझा होता तो वे उसे केवल हरिभद्रसूरि में ही बांधने का साहस न करते, क्योंकि यह समभाव सभी जैन विद्वानो में समानरूप से उपलभ्यमान है-क्योंकि द्वेषाचरण मिटाने के लिये सभी जैन विद्वान् सदा उद्यमशील रहे है । महाशयजी को दृष्टि से समभाव का अर्थ यदि यह हो कि 'अन्यमत के मिथ्यावाद का प्रतिकार न करना' तो उनका यह व्यक्तिगत समभाव हो सकता है न कि सर्वमान्य । वास्तव में तो यह समभाव नहीं किन्तु अविवेक है, क्योंकि उसमें असत्य का समर्थन या मूकानुमोदन होता है। श्री हरिभद्रसूरिजी तो अनेकान्तजयपताका आदि में शटोक्तिओं का निराकरण कर ऐसे अविवेक के त्याग का महत्त्वपूर्ण भादर्श हमारे सम्मुख रख गये हैं। श्रीहरिभदसूरिजी के शास्त्रवानादि ग्रन्थों में जैने तर विद्वानों के लिये सुमधुद्धि, महामुनि, महर्षि इत्यादि विशेषणों का प्रयोग प्राप्त होता है, इस आधार पर महाशयनी का कहना है कि-'परवादी मन्तव्यो थी जुदा पड़वा छतां तेमना प्रत्ये जे विरल बहुमान अने आदर दर्शाये छे ते तेमणे (श्रीहरिभद्रसूरिबीए) आध्यात्मिकक्षेत्रमा मापेली एक विरल भेट गणवी जोइये" इस संदर्भमें यह ज्ञातव्य है कि जैनेतर विद्वानों के लिये जो उक्तविशेषण प्रयुक्त है उन से यह निष्कर्ष निकालना कि 'श्रीहरिभद्रसूरिने उन्हें अपनी ओर से आदर दिया है। ठीक नहीं है, क्योंकि अपने सिद्धान्त के विपरीतपक्ष को समर्थन देने वाले को आदर देने का अर्थ होता है 'उसके पक्ष को आदर देना' जो उचित नहीं है । अतः उक्त विशेषणों का प्रयोग अनुवादमात्र समझना चाहिये । हाँ यदि श्रीहरिभद्रसूरि में महत्ता, उदारता और विवेक कि कमी होती तो वे विशेषण का त्याग कर केवल नाम मात्र से भी उनका निर्देश करते, किन्तु वे स्वयं संयमशील महान् पुरुष होने के नाते ऐसा न कर सके, यह विशेषता उनके समान हो जैनसम्प्रदाय के अन्य विद्वान में भी प्राप्य है । दूसरी जानने योग्य बात यह है कि अन्य सम्प्रदाय के भी विद्वान् इसी दृष्टि Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० से मादर देने योग्य है कि वे भी अपनी दृष्टि से संसार वासना को शिथिल और आध्यात्मिक भावना को जागृत करने का प्रयास करते है । किन्तु जहाँ दृष्टियों और सिद्धान्तों के सत्याऽसत्य के निर्णय की बात है वहाँ उन्हें मसत्पक्षानुयायां होने से मना करने में श्रीहरि भनसुरिजी को तथा अन्य जैनविद्वानों को कभी कोई हिचक नहीं होती असा कि-'कुवादियुक्त्यपव्याख्यानिरासेन', 'पापश्रुतं सदा धीरैर्वज्यं नास्तिकदर्शनम्' 'को विवादो नो बुद्धिशून्येन सर्वथा', 'दृष्टेष्टाभ्यां विरुद्धता दर्शनीया कुशास्त्राणाम्' ऐसे उनके अनेक प्रयोगों से स्पष्ट है। आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजीने कहीं कहीं परवादियों के मन्तव्यों की आंशिक युक्तता भी बतायी है जिनका तात्पर्य उन्होंने इस प्रकार स्पष्ट किया है कि जैनेतर विद्वानों के कतिपय मन्तव्यों में अनेक विनयजनों का भादर है, उनमें उनका बुद्धिभेद न हो इसलिये उन मन्तव्यो की किंचित् युक्तता बताने का प्रयास किया गया है, उदाहरणार्थ शास्त्रवार्ता अन्ध में ईश्वरवाद में कहा गया है कि-'कर्तायमिति तद्वाक्ये यतः केषाञ्चिदादरः । अतस्तदानुगुण्येन तस्य कर्तृत्वदेशन "॥२०६॥ ईश्वरकर्तृत्ववाद का कञ्चित् समर्थन ऐसे लोगों के उपकार की भावना से किया गया है जिनका उस वाद में आदर है, जिन्हें उसी से नैतिक होने में सहायता मोलती है। इससे स्पष्ट है कि श्रीहरिभद्रसरिजी दूसरे दर्शनों के सिद्धान्तों में सत्य का अन्वेषण नहीं करते किन्तु जैन दर्शन के अनुसार उसमें कितना पत्यांश है और कितना असत्यांश है यह बताने का प्रयास करते हैं । अथवा असत्यांश बताने पर भी उन दर्शनों के अनुयायोओ में बुद्धिमेद न हो इस बात का भी पूरा ध्यान रखते हैं। अपने सभी ग्रन्थो में श्री हरिभद्र सारे जी महाराज ने वीतराग जिनको मङ्गलश्लोक में अभिवादन कर जैनदर्शन के प्रति अपनी गाढ श्रद्धा और अपने महान् मादरभाव का प्रदर्शन किया है, फिर भी उन्हें सभी दर्शनों में समभावधारक बताना कोरी धृष्टता है । यह भी एक विचित्र बात है कि महाशयजी ने एक ओर तो श्रीहारेभद्रमरिजो की विशेषता बताने का यत्न किया है और दूसरी ओर स्थान स्थान में सम्मान सूचक शब्द से मुक्त केवल 'हरिभद्र' शब्द का प्रयोग किया है । यह शब्दव्यवहार उस महाशय की किस मनोदशा का घोतक है, पाठक स्वयं इसे समझ सकते हैं । महात्माजी के नाम से लोकप्रसिद्ध माधुनिक पुरुषविशेष का जहाँ उल्लेख होता है यहाँ भी उक्त महाशय को पूज्य महात्मा मादि शब्दों के प्रयोग में भी प्रमाद नहीं होता, पर आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी के लिये सम्मानबोधक शब्दों से मुक्त केवल कोरे नामगात्र का प्रयोग करने में उसे कोई हिचक नहीं होती । इस से स्पष्ट हो जाता है कि महाशय की क्या वचनदरिदता है, सम्प्रदाय के महामहिम आचार्यों और विद्वानों के प्रति उसकी क्या धारणा है, महाशय के ऐसे तुच्छत्र्यवहार से पाठको को यह समझने में विलम्ब नहीं होगा कि आचार्य श्री के प्रति लेखक के हृदय में कोई Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्तविक निष्ठा नहीं है, किन्तु उसने अपना मिथ्यामान्यतामा की पुष्टि के लिये उनके पवित्र नाम का अनुचित लाभ ऊठाया है। कुछ लोग श्रीहरिभद्रसूरि के ग्रन्थों को अन्य जैन-जैनेतर अन्यों में वर्णित विषयो और तथ्यों का संकलन मात्र मानते हैं, उन्हें श्री हरिभद्रसूरि के ग्रन्थों में कोई मौलिकता या अपूर्वप्रतिभा का दर्शन नहीं होता । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में अधिक कुछ न कह कर केवल इतना ही कहना है कि उन्हें सद्गुरुजी के चरणें। में बैठ कर श्री सरिजी के ग्रन्थों का श्रम पूर्ण अध्ययन फिर से करना चाहिये । विना अध्ययन किये भ्रम और अज्ञान की निवृत्ति संभव नहीं है । प्रन्थ और ग्रन्थकार का महत्व अज्ञजनों की आलोचना से क्षीण नहीं होता । यह उक्ति सर्वथा सत्य है कि शैत्य-गाम्भीर्य-माधुप-चैधुर्य मवधार्यते । नावगाथ न चाऽऽस्वाध तरङ्गिण्यास्तु तेन किम् ॥१॥ [अर्थ-]-किसी नदी में प्रवेश न कर और उसके जलका पास्वाद न कर यदि कोई अपना यह मत प्रकट करता है कि नदी में शीतलता, गहराई तथा मीठास नहीं है, तो इससे नदी का क्या बिगड़ता है !! कतिपय लोगों ने श्री हरिभद्रसूरि तथा उपाध्याय श्री यशोविजयजी के ग्रन्थों का अन्य दर्शनिको के ग्रन्थों के साथ तुलनात्मक अध्ययन करने को हास्यास्पद चेष्टा की है, उनके इस निष्फल प्रयास को देखकर खेद होता हैं और उनकी बौद्धिक स्थिति पर दया पाती है, क्योंकि वे तुलनात्मक अध्ययन का बहुत छिछला अर्थ समझते है-उनके अनुसार टिप्पणो में विभिन्न ग्रन्थों में प्रतिपादित विषयों को भभिन्नता या असमानता का उल्लेख मात्र कर देना हो तुलनात्मक अध्ययन हैं, जब कि तुलना शब्द से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि तुलनात्मक अध्ययन का का अर्थ है समानरूप से भासमान दो मन्तव्यों का सर्वमान्य युकि-प्रमाण की तुला द्वारा गुरु-लघुभाव का निश्चय करना अर्थात् युक्ति और प्रमाण की तुला पर दोनो मन्तव्यों को चढाकरे यह स्पष्ट करना है कि कौन मन्तव्य उच्च कक्षा का है और कौन निम्न कक्षा का हैं। प्राचीन काल में सभी तर्कशास्त्री अपने अपने मन्तव्यों का समर्थन और पर मन्तव्य का खण्डन युक्ति और प्रमाण द्वारा करते थे, दूसरे दार्शनिक सिद्धान्त को अपने सिद्धान्त के साथ युक्ति और प्रमाण को तुला पर तोलते थे । उनके प्रामाण्य-अप्रामाण्य का विवेक करते थे । इस प्रकार किये जाने वाले अध्ययन को ही वास्तव में तुलनात्मक अध्ययन कहा जा सकता है। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - न कि विभिन्न सिद्धान्तों के दोष-गुण का विवेचन किये बिना ही किसी एक सिद्धान्त का निरूपण कर देना, जो कि भाजकल के तुलनात्मकअध्येता वर्ग की लाक्षणिकता हैं । एक विद्वान् का कहना है कि-“उपाध्याय श्री यशोविजयजी थे तो पक्के जैन और श्वेताम्बर, फिर भी विद्याविषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने सम्प्रदाय मात्र में समा न सकी, अत एव उन्हों ने पातञ्जल योगसूत्र के उपर भी लिखा" यह विचारणीय है कि लेखक ने विद्याविषयक दृष्टि का सम्प्रदाय में समावेश न होना और योगसूत्र पर लिखना इन दोगों में हेतुहेमरी ला किस उट कर लो है ! यह भी विचारणीय है कि विद्याविषयकदृष्टि संप्रदायमात्र में न समा सकी' इसका क्या अर्थ है !-'दृष्टि के समक्ष केवल स्वसम्प्रदाय मात्र का न रहना किन्तु इतर सम्प्रदायो का भी दृष्टि के समक्ष उपस्थित होना' यदि यह उसका अर्थ हो तो इससे श्रीउपाध्यायजी को कौन सी विशेषता प्रकट हुई ? यह तो जैन-जैनेतर सभी विद्वानों के लिये समान है । योगसूत्र के कतिपय सूत्रो पर ही वृत्ति लिखने के पीछे श्री उपाध्यायजी का जो उद्देश्य है वह योगसूत्र के प्रथमसुत्र की वृत्ति में बताये गये परिष्कार से ही पाठको को भलीभांति ज्ञात हो जाता है, जो साधारणतया यह है कि योगसूत्र में जैनदर्शन संवादो जितना अंश है उस पर जैन दर्शन की दृष्टि से प्रकाश डालना । अतः अपने सम्प्रदायमात्र में विद्याविषयकदृष्टि के असमावेश को योगसूत्र पर वृत्ति लिखने में कारण या प्रयोजक बताना एक प्रकार की अज्ञानता ही हैं। जैनदर्शनालङ्कार आचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी तथा श्री यशोविजय उपाध्यायजी के बारे में आधुनिक विद्वानो के सारहीन-असमत कथनो को अन्य लेखको द्वारा पुनरावृत्ति न होकेवल इसी दृष्टि से उपर्युक्तरूप में थोड़ी सी चर्चा को गई है। भाशा है लेखकगण हमारे इसो भाशयको ग्रहण करेंगे, यदि किसी को इस वक्तव्य से जिनशासन के प्रति किञ्चित् भी वैपरीत्य का आभास हो और वास्तव में यदि ऐसा कोई अनवधान हो गया हो तो उसके लिये हमें पर्याप्त मनस्ताप हैं, और यदि उपर्युक्त चनों से निनशासन तथा उसके विद्वानो, पूर्वाचायौं, मुनिजनों तथा उनकी शास्त्रीय कृतियों के संबंध में आधुनिक लेखकों को धारणा और चर्चा की प्रवृत्ति परिष्कृत हो सकी तोहम जिनशासन को यत्किचित् सेवा कर सके उस का आत्मिक सन्तोष होगा। सं. २०३२ भा. भु. ११ मुनि जयमुन्दरविजय अमलनेर -x-x Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -: विषयानुक्रमणिकाःविषय पृष्ठाक विषय स्याद्वादकल्पलता-मजला लोक २ दर्श-पूर्णमास का अर्थ (टि.) मङ्गलश्लोक का हिन्दी विवेचन २ 'प्रत्ययाना' नियम में दूषण शाखावा. मङ्गलश्लोक शास्त्रबार्ता अन्ध का प्रयोजन निर्देश [मङ्गलवाद पूर्वपक्ष] तत्त्वविनिश्चय का अर्थ (टि.) समाप्ति के प्रति मङ्गल में व्यभिचार उद्भावन ९ मुक्ति में सुख नहीं हैं-[पूर्वपक्ष] मङ्गल स्वरूप (टिप्पन) ९ 'नित्यं ।' अति नित्य सुख में प्रमाण नहीं है- ३६ समाप्ति स्वरूप (टि.) , मुक्ति में सुख हैं-उत्तपक्ष अन्वय और व्यतिरेक का स्वरूप (टि.) १. अवेद्य दुःखाभाव पुरुषार्थ नहीं है । अन्य - व्यतिरेक व्यभिचार का स्वरूप (टि०)१२ देहाभाव मोक्षसुख में बाध नहीं अन्वयव्यभिचार से कारणता का विरोव्य पाप से दुःख और धर्म से सुख अश (टि.) १२ पाप और धर्म के विविध हेतु। व्यतिरेक व्यभिचार से कारणता का विरोद्धव्य अहिंसा आदि के साधन साधुसेवा इत्यादि ५५ अंश (टि०) १३ धर्मसाधना का अधिकारी कौन ! समाप्ति में विघ्न विशेषण या उपक्षण-क्या अधिकारप्राप्ति के लिये ३२आदिकमोपदेश ५९ मानना १४ अपुनर्बन्धक दशा-निर्णय के उपाय विशेषण का स्वरूप (टि.) १५ धर्म ही उपादेय है उपलक्षण का स्वरूप (दि.) अविरत सम्यग्दृष्टि की निषिद्ध कर्म में प्रवृत्ति मङ्गल का फळ विघ्नध्वंस सम्भवित नहीं हैं। १७ स्यो। १३ विशेषण और उपलक्षण में वैलक्षण्य १७ प्रवृत्ति में इष्टसाधनता-ज्ञानहेतुता विचार ६१ विश्नप्रागभाव भी मङ्गल का फल नहीं है। १९ मोह की प्रबलता से निषिद्ध कर्म में प्रवृत्ति की। शिष्टाचारपालन भी मङ्गल का फल नहीं है २० उपपत्ति ६५ विघ्नध्वंस ही माल का फल है-उत्तरपक्ष २२ प्रियसंयोगादि की अनित्यता आत्माश्रय दोष स्वरूप (टि०) २३ सांसारिक सुख भी दुःखरूप है भावविशेष का विवरण (टि०) २३ धर्म भी त्याज्य है [पूर्वपक्ष) निकाचित शब्दार्थ (दि.) २५ धर्म द्वैविध्य बताकर पूर्वपक्ष के आक्षेपों का अपवर्तना शब्दार्थ (टि०) समाधान ३ 'अनुमान ' जैमिनिसूत्र का विवरण (टि.) २६ ज्ञानयोग का स्वरूप और फल १५ ६९ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क विषय पातजलमत से समर्थन परमार्थवादी जैन का उत्तरपक्ष वैराग्य के पर और अपर भेद __७७ शक्तिरूप में प्रत्येक भूत में चेतना के पातञ्जल मत की समीक्षा अस्तित्व की शंका १०७ चतुर्विध संप्रज्ञात समाधि का शुक्लध्यान के शक्ति-चेतना के भेदाभेद उभयपक्ष में क्षति १०८ दो भेद में अन्तर्भाव ८३ मनभिव्यक्त रूप से चैतन्य भूतो में नहीं ध्यानात्मक तप ही परमयोग है-मुक्ति का हो सकता ११० का कारण है ८५ भूतस्थ चेतना का आवारक भूत नहीं १११ शुद्ध तय भी धर्म हैं ? हाँ ८६ कायाकारपरिणाम का अभाव आवरण नहीं ११२ 'शुदतप केवल मोक्षजनक ही है' इस विधान ___ में आशंका-पूर्वपक्ष ८७ कायाकार परिणाम चेतना-व्यजक नहीं है ११३ अर्धस्वीकार से उक्त शंका का समाधान लोकसिद्धानुमानप्रमाण्यवादी नव्य नास्तिक का -उत्तरपझ ८८ पूर्वपक्ष ११५ निरन्वयनाशवादी बौद्धमत का निराकरण ९१ परामर्श से अनुमितिस्थानीय स्मृति के जन्म विवेकीजनो के लिए धर्मभिन्न सब दुःखमय है ९४ को मान्यता ११६ परिणाम से विषयो की दुःखमयता ९५ गौरवादि दोष प्रदर्शन ११८ ताप से विषयों की दुःखरूपता अनुमानप्रमाणान्तर प्रसंग नहीं है ११९ संस्कार से विषयो की दुःखरूपता प्रत्तोति और लिङ्ग से काम को सिद्ध १२० दुःखानुषङ्ग के कारण दुःखरूपता " कालबत् आत्मा का स्वीकार अनिवार्य हैप्रसङ्गसङ्गति से शास्त्रपरीक्षा का उपक्रम ९६क उत्तरपक्ष १२१ प्रथम नास्तिकमत का उपन्यास ९७ जातिस्मरण से मात्ममिद्धि १२२ अनुमान प्रामाण्य का अपलाप ९८ जातिस्मरण का प्रभाव भी विचित्रकर्मविपाक बौद्धदर्शन के अनुसार पदार्थ का स्वरूप से प्रयोज्य है १२३ [प्रासनिक] १०० स्मरणप्रतिबन्धक-अदृष्ट की कल्पना आवश्यक १२४ दृष्ट साधर्म्य से अनुमान प्रमाण्य का स्मृति में प्राग्भवीय संस्कार अनुपयुक्त है १२५ निराकरण १०१ वर्चमान जन्म में अतुभूत पदार्थ के स्मरण शन्दाऽनुमानाऽभ्यतर प्रामाण्य की आपत्ति से आत्मसिद्धि १२७ का परिहार १०२ उपादान से अनुभून अर्थ का स्मरण उपादेय शब्द को प्रमाण न मानने में कारेण १०५ को नहीं हो सकता १२८ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क विषय पूर्वविज्ञान स्कन्ध से उत्तरविज्ञानस्कन्ध को प्रायोगिक और वैनसिक-विनाश के दो भेद १५२ स्मरण नहीं हो सकता १२९ अवयवी की सिद्धि से परमाणु में स्थूलत्व को दिव्यपुरुष के पात्रावतार से आत्मसिद्धि मानने में शंका-पूर्वपक्ष १५३ अदृष्ट का आश्रय भोग्य विषयादि नहीं है १३२ आवृत्तत्व और अनावृत्तत्व के विरोध की लोकसिद्ध का स्वीकार चार्वाक के लिये । __शङ्का और समाधान १५३ अनुचित है १३३ सकम्पत्व और निष्कम्पत्व में विरोध की शङ्का १५४ धर्मी और स्वप्रकाशत्व दो अंश में प्रामाणिक कम्प और कम्पाभाव के विरोध की शङ्का विशिष्टज्ञान से प्रवृत्ति उपपत्ति की शंका १३४ और समाधान १५५ मानसप्रत्यक्ष में अनुमति का अन्तर्भाव कर्म के सरेणुमात्रगतस्त्र-शरीर सकर्मता की। ___ अशक्य है १३६ आपत्ति और परिहार १५५ चेतना भूतों का कार्य भी नहीं हो सकती १३८ केवल शरीर में कम्प मानने से लाघव शङ्का १५६ अविद्यमान चेतना भी उम्पन्न हो सकती है- केवल शरीर में कम्प मानने पर अवयव में पूर्वपक्ष १४० निष्क्रियत्व की आपत्ति १५६ असत् की उत्पत्ति में अतिप्रसंग-उत्तरपक्ष १४१ स्थूलत्व को भिन्न मानने पर निष्कारणत्व की कथञ्चित् सदसत्कार्यबाद को सिद्धि १४२ पत्ति-उत्तरपक्ष १५७ भिन्न भिन्न दो दृष्टि से पूर्वोत्तर काल में स्थूलत्व में निष्कारणता आपत्ति के परिहार कार्य की सत्ता १४५ का प्रयास १५८ उत्पत्ति के पूर्व स्थूलल्ब को विद्यमानता १४७ समवाय अमान्य होने से यह प्रयास परमाणुओं से स्थूलद्रव्योत्पत्ति की प्रक्रिया १४७ अनुचित है १५८ तन्तुपरिणामप्राप्त अणुओं का पटात्मक पृथक् अवयवी की सत्ता अप्रामाणिक है १५९ परिणाम कैसे ? १४८ अवयवी की सिद्धि में सकम्पत्व और निष्कम्पत्य पूर्वद्रव्य के नाश अनन्तर ही उत्तरद्रव्य की का विरोध बाधक है १६० उत्पत्ति हो सकती-पूर्वपक्ष १४९ अतिरिक्त अवयव के गुरुत्व से अवनमनाधिक्य परमाणुगत अतिशय से ही द्रव्योत्पत्ति का को आपत्ति १५१ सम्भव है-उत्तरपक्ष १५० स्थूलत्व के समान चैतन्य भृतसंघातजन्य एक काल में अनेक पट को आपत्ति १५१ नहीं कह सकते १६१ एकानेक स्वभाव अविरुद्ध होने से 'इष्टापत्ति १५१ घटादि में पुरुषवैलझण्याभाव प्रत्यक्षबाधित १६२ पर काल में तन्तुओं की प्रतीति न होने की शरीर और घट में चैतन्य और जडता भूत आपत्ति और परिहार १५१ वैलक्षण्य प्रयुक्त नहीं है १६३ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय ____ पृष्ठाङ्क विषय पृष्ठाक भेदकविशेषणाभाव में भूतो में स्वभावभेद अचैतन्य का प्रयोजक प्राणाभाव या नहीं हो सकता १६३ आत्माभाव ! १७८ स्व का स्वरूपमात्र भूतो का भेदक नहीं हो नलिका से वायुसंचार से प्राण में चैतन्य के सकता १६४ अन्वयव्यतिरेकाभाव की सिद्धि १७९ शरीरगतधर्म से घटादिभूतो का भेद नहीं नलिकासंचारित वायु प्राण से भिन्न नहीं है १८० हो सकता १६५ आत्मधर्मानुविधान से चैतन्योत्पत्ति का प्रयोजक चैतन्य का उपादान कारण शरीर नहीं है १६६ मात्मा ही है १८१ कार्यभेद से स्वभाव भेद की आशंका १६७ प्राण-निमित्तकारण, शरीर-उपादान कारण स्वभावभेदप्रयोजक कार्यभेद को शसिद्धि १६७ नव्यनास्तिक पूर्वपक्ष १८२ संस्थान आदि के भेद से भी मिन्नावमाक्ता विजातीयमनः संयोगाभाव चैतन्याभावप्रयोजक का असम्भव १६८ नहीं हैं १८२ भारमा के अभाव में शरीरादि का भेद सुषुतिभिन्नदशा में विजातीयमनःसंयोगहेतुता अघटित है १६९ की अनुपपत्ति १८३ देह और घटादि तुल्य होने से घटा दिवत् अदृष्ट को शरीराश्रित मानने में गौरव शरीर भी भात्मा नहीं है १७० प्राण ही आत्मा ई-पूर्वपक्ष १८४ पट और पाषाण की विलक्षणता का निमित्त १७१ प्राण आत्मरूपत्ववादी का खण्डन १८५ समवाय से ज्ञानोत्पत्ति का कारण शरीर है- कायाकारपरिणत भूत ही आत्मा है-पुनः नूतन नास्तिक १७२ ___ भाशा १८६ स्मरणानुपपत्ति की शङ्का का समाधान १७३ कार्याऽव्यवहित कारण से कार्योत्पत्ति नियम शरीरात्मवादी को मात्मानम प्रत्यक्ष की का अस्वीकार १८६ आत्ति का परिहार १७४ विलक्षण भावो में कार्य-कारणभाव नहीं होने शरीरात्मवादी को प्रत्यासति में लाय १७५ की शंका का परिहार १८६ नन्यनास्तिक के मत का परिवार १७५ वैजात्य न होने से चैतन्य का कारण चैतन्य ज्यभिचारशङ्का और परिवार १५६ ही होगा १८७ लावण्यादि के अनुालम्भ और उक्तनियमासिद्धि पुत्रचैतन्य के प्रति मातृचैतन्य निमित्तकारण को आशंका १७७ भी नह] १८८ पाक से परमाणु:र्यन्त श मानने में बाधा १७५ निष्कर्ष-चैतन्य का उपादान कारण आत्मा छावण्यादि में सात्मकदार प्रयोज्यता की सिद्धि१७८ भूत से भिन्न है १९. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क विषय पृष्टाङ्क भामा इन्द्रिय से भी भिन्न है अन्धकार को द्रव्य मानने में उसके चाक्षुष किसी भी कार्य की उत्पत्ति अहेतुक होती की अनुपपत्ति-पूर्वपक्ष २०८ नहीं है १९१ आलोकसंयोगहेतुता का समर्थन २०९ उत्पत्ति और विनाश द्रव्य से सर्वथा पृथन्छ मनःप्रतियोगिक विजातीय संयोगसम्बन्ध नही है १९१ से हेतुता में गौरव उत्पत्ति-स्थिति-नाश की समानाऽसमान २१० कालीनता १९२ मन्धकार के चाक्षुषप्रत्यक्ष की उपपत्तिउत्पादादि अतिरिक भी है भाषक्षणसम्बन्धा उत्तरपक्ष २११ मालोकर्सयोग के व्यभिचार का वारण करने दिरूप नहीं है १९३ का निष्फल प्रयास २११ 'जीव उत्पन्न हुआ' इस व्यवहार की आपत्ति का निराकरण १९५ क्षयोपशमरूप चाक्षुषयोग्यता द्रव्यचाक्षुप के गुरुधर्म की अवच्छे इकता मान्य है १९५ प्रति कारण २१२ मालोक संयोग को कारण मानने में चक्षुपरमाणुनित्यता-व्यवहारभ्रान्तता की आपत्ति और परिहार १९६ कारणताभन की आपत्ति २१२ उत्पत्ति और नाश के विषय में व्यास को मालोकसंयोग की कारणता मानने में गौरख २१२ सम्मति १९७ प्रकाशज्ञान बिना अन्धकारज्ञान न होने उत्पत्ति और श के विषय में दूसरे विद्वानो की आपत्ति २१३ की सम्मति १९७ अभावज्ञान में प्रतियोगिज्ञान कारणतः पर मन्धकार अभावरूप नहीं है १९८ विचार-पूर्वपझ २१३ उद्भूतरूपव्याप्य उद्भूतस्पर्श की अन्धकार 'सदभाव.' के निवेश में प्रमाणाभाव २१५ में आपत्ति १९९ 'न' ह्याकारक प्रत्यक्षापत्ति-उत्तरपक्ष २१५ उद्भूतस्पर्श में उद्भूतरूप की व्याप्ति नहीं है १९९ अभावरूप से प्रतियोगीअधिशेषित अभाव नीलित्रसरेणु में व्यभिचागपत्ति के उद्धार प्रत्यक्षइष्टता का खण्डन २१६ का प्रयत्न २०. योग्यधर्मावच्छिन्नज्ञानत्वरूपेण हेतुता मानना अनुभूत रूप में उपभूतरूपजनकता पर प्रश्न २०१ निर्दोष नहीं है २१६ त्रसरेणु के स्पार्शन प्रत्यक्ष को आपत्ति २०३ 'न' इत्याकारकप्रत्यक्षापत्ति के वारण का अन्धकार में पृथिवीत्व की आपत्ति की शङ्का २०४ प्रयास-पूर्वपक्ष २१७ स्पर्शयुक्त अवयव से अन्धकारोत्पत्ति की पूर्वपक्षी का अवान्तर विस्तृत पूर्वपक्ष २१८ आपत्ति २०६ 'न' इत्याकारक प्रत्यक्ष को पुनः भापत्ति २१९ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क २२० आपत्ति का उद्धार अमवांश में निर्विकल्प की मापत्ति भी नहीं है २२० अवान्तर पूर्वपक्ष समाप्त २२१ तथापि केवल अभावत्वनिर्विकल्प की आपत्ति २२१ घटपट के अज्ञान में भी 'घटपट न' इस अध्यक्ष की आपत्ति २२१ 'अभावो न घटीय:' इस प्रत्यक्ष में अन्वय व्यभिचार अभावत्व निर्विकल्प की आपत्ति का अंगीकारविस्तृत पूर्वपक्ष समाप्त २२३ पूर्वोक्त सन्निकर्ष से 'घटाभावोऽमावश्च' २२५ समूहालम्बन की आपत्ति - उत्तरपक्ष २२४ इदन्त्वादिरूप से अमावप्रत्यक्ष न होने की आपत्ति २२४ सामान्य कार्य की सामग्री से विशेषकार्य की अनुपपत्ति घटादिज्ञांनघटित सामग्री में विशेषसामग्रीव की शङ्का का उत्तर २२६ पूर्वोक्त नियम में विशेष प्रवेश से दोषाभाव की शाका उत्तर विशिष्ट कार्यकारणभाव से निर्वाह होने की शङ्काका उत्तर अन्धकार को द्रव्य मानना ही उचित है। आलोकप्रतियोगिको भावमात्र तमोव्यवहार विषय नहीं है २२८ २२७ आलो कान्यद्रव्यवृत्तित्वविशिष्ट आलोकाभाव तमव्यवहार का विषय नहीं है नियतसङ्ख्याक आलोक का प्रभाव अन्यकार नहीं है २२९ २२२ २२७ २२८ २२९ विषय अन्धतमस - अवतमस के लक्षण को अनुपपत्ति 'तम उत्पन्नं नष्टं वा प्रतीति की पृष्ठाङ्क २३० अनुपपत्ति २३२ 'नोलं तमः ' प्रतीति में भ्रमरूपत्य की आपत्ति २३३ वर्धमान उपाध्याय के मत का खण्डन २३३ सक्रियत्वादि प्रतीति की अनुपपत्ति २३४ आश्रयगति का अनुविधान द्रव्य में बाधक नहीं हैं २३५ व्यवहार विशेष से अन्धकार में अलोकाभाव भिन्नत्व की सिद्धि आलोकज्ञानाभाव हो तम हैं- प्रभाकर प्रभाकरमत का परिहार २३७ आरोपित नीलरूप ही तम है- कन्दलोकाश्मत २३८ कन्दलीकार मत का खण्डन २३८ 'नीलं तमः ' प्रयोग में नीलपद विशेष्य वाचक है शिवादित्यकृत तम के लक्षण का निरसन २३५ २३६ २३९ २३९ २४० अन्धकार द्रव्यत्ववाद समाप्त आत्मसिद्धि का उपसंहार २४० २४२ आत्मा का प्रत्यक्षदर्शन क्यों नहीं होता ? २४१ अनुपलब्धिमात्र अभावसाधक नहीं है। अहं प्रत्यय में भ्रम की आशंका 'अहं' प्रत्यय प्रामाणिक है २४४ २४५ २४५ 'अ' प्रत्यय प्रामाण्य का समर्थन 'अहं गुरु: ' इस ज्ञान की भ्रान्तता में युक्ति २४६ षष्ठी विभक्ति का अर्थ केवल सम्बन्ध या भेदविशिष्ट सम्बन्ध २४० Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क विषय पृष्ठा 'मह' प्रत्यय की प्रत्यक्षता में विस्तृत आशंका चिन्तामणि कारमत-निरसन -पूर्वपक्ष २४८ तृतीयक्षणभाविज्ञान को द्वितीय क्षणभाविज्ञान ज्ञान की स्वप्रकाशता का खण्डन-पूर्वपक्ष २४९ का प्राहक मानने में भापत्ति २६६ त्रिपुटीप्रत्यक्ष से स्वप्रकाशत्व की सिद्धि 'भत्र प्रमेयं' इस ज्ञान से प्रवृत्ति की आपत्ति दुःशक्य २५० की आशंका २६७ इन्द्रियसन्निकर्ष के अभाव में ज्ञान प्रत्यक्ष प्रवृत्ति के प्रति मुख्यविशेष्यता से ज्ञान की कैसे ! २५१ हेतुता का खण्डन २६७ पूर्वोक नियम में दूषण २६१ सा सजावा गौस आपत्ति ज्ञान मनोग्राह्य है-पूर्वपक्ष अनुवर्तमाम २५३ का परिहार २६८ प्रत्यक्षत्व जातिरूप हैं २५४ ज्ञान को मनोग्राह्य मानने में गौरव दोष २६९ ज्ञानसामग्रीजन्यतावच्छेदक मात्र ज्ञानत्व है २५४ स्वप्रकाश ज्ञानपक्ष में गौरव आपत्ति का ज्ञान की ज्ञानवेद्यता के नियम का भङ्ग २५५ परिहार २७० अनुभवबल से स्वसंवेदितत्व की सिद्धि प्रत्यक्षविषयता में इन्द्रियसन्निकर्षनियामकत्व ___-उत्तरपक्षारम्भ २५६ का खण्डन २०१ ज्ञान स्वप्रकाश है २५७ स्पष्टतानामक विषयता साक्षात्कारअनन्ताकारतापत्ति का परिहार नियामिका है २७२ कर्ता-कर्म और क्रिया का ज्ञान अनन्यपदार्थ में विषय-विषयीभाव का समर्थन २७३ परप्रकाशमत में ज्ञानप्रत्यक्षानुपपत्ति २५९ स्वविषयत्व स्वयवदारशजत्वरूप नह' हैं २७३ ज्ञान में वर्तमानकालोनत्वज्ञान की अनुपपत्ति २६० 'प्रत्यक्षाजनक-प्रत्यझाविषय' नियम भङ्ग २७४ 'मयि घटज्ञानं' अनुभव में व्यवसायप्रत्यक्षानु- इन्द्रियग्रास्यत्व का नियामक लौकिकविषयत्व पपत्ति २० नहीं है २७४ ज्ञान के अलौकिक प्रत्यक्ष को उपपत्ति का ज्ञान के मानसप्रत्यक्ष का मन्तव्य अयुक्क है २७५ निष्फल प्रयास २६१ प्रत्यक्षत्व का जातिरूप न होना इष्ट है २७५ चाक्षुषत्वांश में भ्रमज तक दोष से 'घटं किञ्चिदंश में अलौकिक वहिप्रत्यक्ष में पश्यामि' की उपपत्ति अशक्य २६२ अपत्यक्षस्व की आपत्ति का परिहार २७६ व्यवसायान्तर की उत्पत्ति की मिथ्या कल्पना २६२ पुनः अप्रत्यक्षत्व आपत्ति का परिहार २७६ 'विशेष्य में विशेषण ....' इत्यादि रीति से - स्पष्टता नामकविषयता ही प्रत्यक्षत्व है २७८ ज्ञानप्रत्यक्ष का परिहार २६३ प्रत्यभिज्ञा का पृथक् परिगणन अनुचित नहीं है २७९ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय पृष्ठाङ्क विषय विज्ञानवादो को आत्मविरोधिनी शंका २८० सुपात्रदानादि क्रिया से शक्ति का आविर्भाव अहन्त्वाधाकारालोकत्ववादो माध्यमिकमतका शक्य नहीं ३०५ खंडन २८३ सुपात्रदानादि से व्यङ्गय शाश्वतशक्ति के स्वाप्रकाश मत में सदाग्रहण की भापत्ति का अभ्युपगम में दोष ३०६ परिहार २८४ शक्ति के आवारक अतिरिक्त अदृष्ट को सिद्धि ३०६ सदा अग्रहण की उपपत्ति के लिये स्वप्रकाशा- अशुक्रियाजन्य पाप और शुभक्रियाजन्य ग्रह छोडने को सलाह-पूर्वपक्ष २८४ पुण्य ३०७ सुषुप्तिकालमें मानसप्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ! २८५ ज्ञानमात्ररूपवासना पक्ष में मोक्षाभाव की सुषुप्तिकालमें आत्मज्ञानोत्पत्ति का परिहार २८६ आपत्ति ३१० सुषुप्ति में जीवनयोनियत्नकी सत्ता आवश्यक अदृष्ट का शक्ति-वासनारूपत्व अघटित है ३१० उत्तरपक्ष २८७ पात्मा से भिन्न पौदगलिक अदृष्ट का स्वरूप ३११ नास्तिकमतनिराकारण का उपसंहार २८८ किवावंसात्मक व्यापार से मध्य के मतार्थत्व परतःप्रकाशज्ञानवादी मीमांसकमत का खंडन २८८ की शङ्का-उच्छंखल ३१२ ज्ञाततालिङ्गक अनुमान का खंडन २८९ संस्कार उच्छेद आपत्ति का परिहार ज्ञातसा से ज्ञान का अनुमान अशक्य है २९० प्रायश्चित्तअभाववकर्म से फलोत्पत्तिका समर्थन मात्मा के बारे में बौद्धमत २९१ ११३ मात्मस्वरूप की पहचान २९२ अङ्ग-प्रधान भावानुपपत्ति का परिहार ३१४ आत्मवैचित्र्य प्रयोजक अदृष्ट की उपपत्ति २९३ उच्छखक मत का अपहरण कार्यवैचित्र्य का उपपादक अदृष्ट २९५ योगनाश्यत्वरूप से अदृष्टसिद्धि कारिका ९२ का वैकल्पिक अर्थ २९५ अदृष्ट के भिन्न भिन्न दर्शनाभिमतभिन्न भिन्न भदृष्ट के दो भेद धर्माऽधर्म २९६ ___ नाम ३१७ भदृष्ट का स्वीकार आवश्यक है २९७ अदृष्ट और आत्मा के सम्बन्ध को प्रक्रिया ३१८ फलमेदोपपत्ति के अन्यप्रकार का निरसन २९७ इन्द्र को ठगने के लिये चार्वाकमतप्ररूपणा की कर्म भौतिक होने से चार्वाक के मत का बात युक्तिशून्य ३१९ औचित्य २९८ नास्तिकदर्शन सर्वथा त्याज्य है--उपसंहार ३२० अदृष्ट में जातिभेद अप्रमाणिक नहीं है २९९ परिशिष्ट -१ मूल लोक अकारादिक्रम ३२२ अदृष्टपौद्गलिकत्व का अनुमान ३०१ -२ उद्धत लोकादि शक्तिरूप अथवा वासनात्मक मदृष्ट का मत ३०३ , -३ उल्लिखित न्याय शक्ति का आकस्मिक अस्तित्व प्रसिद्ध है ३०४ शुद्धिपत्रक ३२७ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्राद कल्पलता ( माल ) ऐन्द्रश्रेणिनताय दोपहुतभुनीराय नीरागता ___धीराजद्विभवाय जन्मजलधेस्तीराय धीरात्मने । गम्भीरागमभाषिणे मुनिमनोमाकन्दकीराय स नासीराय शिवाध्वनि स्थितिकृते वीराय नित्यं नमः ॥१॥ ... ...---.-.. हिन्दी विवेचना -- - ऐन्द्र ---इन्द्र आदि देवगणों द्वारा नमस्कृत । सम्यक मान, सम्यक दर्शन और सम्यक् चारित्र का चरम विकास कर अन्तिम तीर्थकर श्री महावीरप्रभुने जब कैप एवं परमेश्वरत्व प्राप्त किया तब न्द्र मादि देवताओं ने उनके निकट पहुंचकर उनकी स्तुति और वन्दना की । इस शन्द शारा यही घटना पुराणमें सूचत की गयी है। दोष-दोषरूपी अग्नि के लिए जलस्वरूप राग, द्वेष और मोद्द को दोष कहा जाता है। ये दोष मनुष्य को आग के समान दग्ध करते रहते है। महावीर प्रभु इस दोषाग्नि के लिए जलस्वरुप है। जल का सम्पर्क होने पर जैसे आग बुझ जाती है वैसे महावीर प्रभु की उपासना करने पर मनुष्य के मारे दोष दूर हो जाते है । नीरागता.-इस विशेषण के कई अर्थ।से (१) 'नीरामताया धिया राजन् विभवो यस्य तस्मै इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस का अर्थ है-'नीरागता' राग से शून्यता अर्थात् वैराग्य के मान से जिसके विभन्न की शोभा हो। 1- रटन्य उ• पुराण, पृष्ठ ५६७ श्लोक १५५ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका और हिन्दी विवेचना इस कथन से यह सूचित होता है कि महावीर प्रभु का जन्म एक विभय -- सम्पन्न परिवार में हुआ था । उनके जन्म से पूर्व उनके परिवार के लोग विभव को माया से उसके अर्जन और रक्षण में उसुक रहा करते थे किन्तु भगवान महावीर को विभव के सम्बन्ध में वैराग्य बुद्धि रहती थी । वे समझते थे कि विभघ में राग करना स्वयं उनके लिए तथा मानवजात के लिए अच्छी बात नहीं है। उनके इस ज्ञान से विभव की शोभा बढ गई क्योंकि इस ज्ञान के होने से उनके परिवार का चिरसवित विभव अन्य जनों के भी विनियोग में आने योग्य हो गया । विभव की शोभा इसी में है कि उससे बहुत लोगों को लाभ पहुंचे और विद्या, धर्म तथा दीनों की सहायता के कार्य में उसका व्यय हो । ( २ ) 'नीगगताया धीः एव राजन् विभयो यस्य तस्मे इस गुत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है - बैंगग्य ही मनुष्य के महल का मूल है यह बुद्धि ही जिसका शोभन धन है, जो लोकप्रसिद्ध धन को धन न मान कर वैराग्य बुद्धि को ही अपना उसम धन समझता है। (३) मीरागतासहिता धी: नीरागना धीः मध्यमपदलोपी समास, सैव राजन विभयो यस्य तस्मै' इस व्युत्पत्ति के अनुसार नीरागता शब्द का वैराग्य-प्रधान चरित्र. अर्थ और 'श्री' शब्द का ज्ञान तथा दर्शन अर्थ लेने पर इस शब्द का अर्थ है चारित्र, ज्ञान और दर्शन ही जिसका शोभन धन है, जो सम्यक् चारित्र, सम्यक् छान एवं सम्यक दर्शन से सम्पन्न होने में ही अपनी शोभा मानता है । (४) 'मीगगतायाः जनिका धी: नीरागताधीः, मैं राजन् विभवो यस्य तस्मै' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इसका अर्थ है- वैराग्य उत्पन्न करने वाली बुद्धि - 'संसार राग द्वेष से भरा होने के कारण दुःखमय है । संसार की वासनाओं से आत्मा को उपर उठाने का प्रयत्न करना ही सुख और शांति का उपाय है।" इस ज्ञान से वैराग्य का उदय होता है, यह ज्ञान ही जिसकी दृष्टि में शोभन धन है । (५) 'नीरागताची राजद्विभवाय' पद में विभव शब्द का एक दूसरा भी अर्थ हो सकता है वह यह है- 'विशिप्रो भयो यस्य स विभवः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार विशिष्ट जन्मशाली' विभव शब्द का यह अर्थ लेने पर उसके साथ 'नीरागताधीराजन्' शब्द का कर्मधारय समास होगा और पूरे शब्द का अर्थ होगा जो वैराग्यबुद्धि से राजिन हो रहा हो तथा जिसे विशिष्ट जन्म प्राप्त हुआ हो । महावीर का जन्म एक विशिष्ट जन्म था क्योंकि उस जन्म में उन्हें कैवल्य सिद्धि प्राप्त हुई थी, और वे तीर्थ कर हुए थे । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाखवा समुचय 'जन्मजलधेस्तीराय' जम्मरुपी समुद्र के तटस्वरुप । जन्म-बार-बार जन्म होना यह जन्मों की अविच्छिन्न परम्परा समुद्र के समान है। से समुद्र में पडे मनुष्य का समुद्र से बाहर हो पाना कठिन होता है उसी प्रकार संसारासक्त मनुष्य का पुनर्जन्म के चक्कर से याहर हो पाना भी कठिन होता है। पूर्व जन्म में किये कर्मों के फल-भोगने के लिए नया जन्म होता है और नये जन्म में किये जाने वाले कर्मों के फल-भोगने के लिए पुनः अगले जन्म की आवश्यकता होती है। इस प्रकार जन्मों की श्रखला बढती चलती है, उससे छूट पाना दुष्कर होता है। इसीलिए जन्म एक प्रकार का समुद्र । महावीर प्रभु उस समुद्र के तट है । जिस प्रकार तट पा जाने पर मनुष्य समुद्र को पार कर लेना है उसी प्रकार महावीर प्रभु को पा कर, उनके जीवन क्रम को आलम्बन रख उनके उपदेश को अपना करके मनुष्य जन्मों के सागर को तैर जाता है। 'धीरात्मने'–'धीर भान्मा चिस यस्य तस्मै' इस व्युत्पत्ति के अनुसार इस पद का मर्थ है धीर चित्त से युक्त । जिसके चित्त में धैर्य हो, अनुचित उतावलापन न हो, मध्यात्म मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य की प्राप्ति में विलम्ब होने से जिसका चिन अधीर म हो, जिसका यह अटल विश्वास हो कि उसकी अध्यात्मयात्रा पक दिन अवश्य परी होगी वह अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त करेमा । अथ धीरात्मा' का मतलब साधना काल में अनेक उपस्थिर उपद्रयो में जो अपनी साधना में व्याकुल न हो । अडिग रहे स्थितप्रज्ञ रहे, जिस थद्धा से साधना में प्रवेश किया था उसमें लेश भी न्यूनता न होने देते हुए घरना अधिकाधिक प्रबलता करने वाले। गम्भीरागम-म्भीर आगम-शास्त्र के वक्ता । मागम वह शान है जिसमें भून, भविष्य और वर्तमान तीनों काल के शातत्य श्रेष्ठ अर्थों का वर्णन हो, महावीरने जिस आगमशास्त्र का उपदेश किया है वह असर्वज्ञात सभी आगमों की अपेक्षा गम्भीर है । गम्भीर इस लिए है कि उसके उपदेष्टा महावीर सर्व तीर्थ कर है । अतः अपने आगममें पूर्वके सभी असर्वभागमो के शानका समावेश करना, भविष्य के लिए कोई बात छूट न पाये इसका ध्यान रखना नथा वर्तमानकी कोई समस्या असमाहित न रह जाय इस घातकी सावधानी रखना उनके लिए मत्यावश्यक था। __ अथवा भगाध स्यादवाद सिद्धांत, अगाध जीवाजीयादितत्व अगाध अष्टविध शानाधरणीयादि कम , पदार्थ विस्तार आदिसे प्रयुक्त गाम्भीर्य चाले आगम पदार्थ के वक्ता है। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० फ- टीका भौर हिन्दी विवेचना मुनि---मुनिजनों के मनरुपी माकन्द-आम्न के लिए शुकस्वरुप । जिस प्रकार शुक पक्षों आम्र की ओर निरन्तर आकृष्ट रहता है, उसके सम्पर्क में स्थित रहना चाहता हैं, उसे चखते कभी तृप्त नहीं होता उसी प्रकार महावीर मुनि-मानस की ओर सदा आकृष्ट रहते है, अनकन दुनियों ने किया का चिरप बने रहते हैं. पचं ध्यान का विषय बने रहने में कभी थकते नहीं । इस कथन से यह संकेत प्राप्त होता है कि मुनिजनों को अपना चित्त इतना निश्छल मृदु और मधुर बनाना चाहिए कि सर्वत्र विरक्त भी महावीर उसे अपना श्राश्रय बनाने के लिए आकर्षित रहे। ___महावीर में राग और राग-योग्यता स्थायी रूप से समाप्त हो जाने के कारण यदि उनमे राग-साध्य आकर्षण की असम्भाव्यता के नाते यह अर्थ उचित न लगे. तो इस शब्द का एक दूसरा अर्थ लेना चाहिए। वह यह कि महावीर मुनि जनों के मनरूपी माकन्द के शोभाधायक शुक हैं । अर्थात् जैसे शुक के सम्पर्क से माकन्द को मनारमना बढ़ती है. शुक के असन्निधान में यह उपेक्षित एवं शोभाहीन रहता है, उसी प्रकार मुनिजनों का मन महावीर के ध्यानात्मक सम्पर्क से रमणीय हो जाता है। जो मुनिजन महावीर के चिन्तन से धञ्चित रहता है, यह अशोभन होता है। मुनिमन की शोभा इसी में है कि बद्द महावीर का निरन्तर चिन्तन करे । सन्ना•--सत्पुरुषों में नासीर--अग्रणी । ___ जो पुरुष संसार के विषय-सुग्वों में लिप्त नहीं होते, धर्मोपार्जन के सभी स्रोतों को समानभाव से सय के लिए खुला रखने को नैतिकता मानते है, आत्मिक उत्थान में ही मनुष्य जन्म की सार्थकता समझते है, उन्हें सत्पुरुष कहा जाता है। महावीर से पुरुषों में अग्रणी थे। शिवा०....कने- इस शब्द के दो अर्थ है शिवमार्ग-कल्याणमार्ग-मोक्षमार्ग पर न्धय स्थित होने वाले तथा दूसरों को उस मार्ग पर स्थित करने वाले। महावीरने मसार से विरक्त हो स्वयं इस मार्ग को प्रहण किया. साथ ही अपने आचरणों और उपदेशों से अन्य अनेक लोगों को उस मार्ग का पथिक बनाया। वीराय-नाकदेशग्रहणे नामग्रहणम्-नाम का एक भाग कहने पर . पूरे नाम का बोध होता है' इस नियम के अनुसार 'वीर' का अर्थ है महावीर, बोधीसवे तीर्थकर श्री महावीर स्वामी ।। नित्यम्-प्रतिदिन, प्रतिक्षण | 'नमः'--'नमः' शब्द से महावीर स्वामी को नमस्कार कर व्याख्याकार ने उनके उत्कर्ष का ज्ञापन किया है क्यों कि उत्कर्ष योधक व्यापार को ही नमस्कार कहा जाता है. और यह व्यापार यहां पर 'नमः' शब्द का प्रयोग ही है। ___ अथवा नमस्कार द्रव्य-भायसन्कोचस्वरूप है । हस्त पाद शिर आदि द्रव्यों को संकोच कर नमनविधि योग्य विशिष्ट अवस्था में रखना यह द्रव्य नमस्कार है, पर्व इदय Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानवासां समुचय (स्या०) प्रणम्य शारदां देवी गुरुनपि गणान् । विमोमि यथाशक शास्त्राचा-समुचयम् ॥२॥ को दुष्ट भावों से संकोच कर प्रशस्त भाव में यानी परमात्मा से सम्बन्धित शुभ अध्यवसाय में स्थापित करना यह भाव नमस्कार है। द्रव्य नमस्कार यह भाव नमस्कार का पोषक होता है. और भाष नमस्कार से विध्न-अंतरायकर्म नष्ट हो प्रन्थरचना आदि इन की सिद्धि निर्विघ्न सम्पन्न होती है । __व्याख्याकार यशोविजयजी ने इस पद्य द्वारा महावीर को बदना की है और उनकी वन्दनीयता के समर्थन में उनके उत्सम गुणों और विशिनाओं की चर्चा की है जो पद्य में आये शब्दों का अर्थ यता देने से स्पष्ट है ॥॥ दुसरे पद्य में यशोविजयजीने सरस्वती और अपने गुण-गौरवशाली गुरुजनों को सपना कर मूलमन्य शास्त्रवातासमुच्चय' का विवरण करने की प्रतिज्ञा को है। पद्य में चिवरिष्यामि-विवर ग करूंगा' के अर्थ में घिणोमि विवरण करता हुँ' का प्रयोग किया गया हैं। पैसे प्रयोग के लिए व्याकरण शास्त्र में व्यवस्था है। 'वर्तमानसामीप्ये धर्तमानवदा' इस पाणिनि-सूत्र के अनुसार धर्तमान के समीपवर्ती भविष्य के लिये वर्तमान का प्रयोग मान्य है। उससे भविष्य का नेकटय सूचित होता है। पद्य में मूलग्रन्थ का विवरण करने की प्रतिक्षा का उल्लेख है। 'विवरण' का अर्थ होता है 'तुल्यार्थक स्पष्ट कथन'। मूल वाक्य से जो अर्थ विवक्षित हो किन्तु स्पष्ट न होता हो उसे स्पष्ट करने वाली शब्दार्याल को 'चिचरण' कहा जाता हैं। जैसे 'पचति' का विवरण है-'पाक करोति।' इस विवरण वाक्य से 'पचनि' के पच्' का पाक' अर्थ और 'ति' का करोति' अर्थ स्पष्ट हो जाता है । यशोविजयजी ने अपनी व्याख्या का विवरण कह कर यह सूचित किया है कि वे अपनी व्याख्या में जो कुछ कहेंगे यह सब मूलमन्थ काही अर्थ होगा उममे कुछ नया नहीं होगा । वह तो मूलप्रन्थ को खोलने की पक कुखी मात्र है इस कथन से मूलप्रन्थ की गम्भीरता. उसके प्रामाण्य से व्याख्या की प्रामाणिकता, तथा मूल अन्धकार के प्रति व्याख्याकार के धिनय की सूचना होती हैं। यथाशक्ति विवरण करने की बात कह कर यह सूचित किया गया है कि व्याख्या में भी कुछ कहा जायगा. मूलग्रन्थ में उतना ही नहीं है। प्रतिभाशाली अध्येता उसमें और भी अर्थ प्राप्त कर सकते है | व्याख्या में नो मूलमन्थ के उतने ही अर्थ का सन्निवेश है जितने मक व्याख्याकार की पहुंच हो सकी है। कथन से भी मूलप्रन्थ की गम्भीरता और व्याख्याकार के विनय का सघन होता है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वाकडीका और हिन्दी विवेचना शास्त्रवार्तासमुच्चयः । मूलम् -प्रणम्य परमात्मानं वक्ष्यामि हितकाम्यया । सत्त्वानामल्पदुद्धीनां शास्त्रवार्ता-समुच्चयम् ।। १ ।। (स्या०) हारिभद्रं वचः क्वेदं बहुतर्क-पचेलिमम् । क्वच इं शास्त्रलेशज्ञस्ताइक्तन्त्राविशारदः ॥३॥ श्रमो ममोचितो भावी तथाप्येष भुभायतिः । अईन्मतानुसारेण मेधेनेव कृषिस्थितिः ॥४॥ (स्या०) इह खलु निखिलं जगदज्ञानवान्तनिरस्ताऽऽलोकमवलोकमानस्तदुपचिकीर्षुभगवान् इरिभद्रसरिः' प्रकरणमिदमारब्धवान् । तत्रादौ प्रारिप्सिदग्रन्थस्य निर्विघ्नपरिसमाप्तये मङ्गलमाचरन् प्रेक्षावत्प्रधृसयेऽभिधेयमाह-प्रणम्येति तीसरे पध में व्याख्याकार ने मूलग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषयों की बु यता और अपनी अस्पक्षता बताते हुए पुनः अपने विनय की सूचना दी है। पथ का भाशय निम्नाहित है। हरिभद्रसूरि का वचन 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' अनेकविध तकों द्वारा पचनीय-अयबोधयाग्य है। उसमे' जो विषय वर्णित है, ये अनेक तकों पर आश्रित तथा भनेक तकों द्वारा ज्ञातव्य है । मूलकार की अपेक्षा व्याख्याकार को शास्त्रों का अत्यन्त संक्षिप्त सान है। वे शास्त्रवार्ता समुश्शय जैसे तकपूर्ण गम्भीर शास्त्र को समझने में दक्ष नहीं है। अथया मूलग्रन्थकारके समान वे अनेक शास्त्रों के मर्मश नहीं है । अनः शासवार्ता-समुच्चय' की व्याख्या करना उनके लिए एक दुष्कर कार्य है । ऐसा. व्याख्याकार का विनम्र भाशय है। बौथे पद्य का आशय यह है शास्त्रवार्ता समुच्चय की व्याख्या करना व्याख्याकार के लिए यद्यपि एक दुःसाध्य कार्य है फिर भी वे न्याख्या करने के अपने प्रयास को उचित मानते है. क्यों कि अईन्मत-जैनसिद्धांत के प्रति उनका अनुराग और आदर है। उनका विश्वास है कि ग्रन्थ की व्याख्या करने में जो उन्हें थम होगा उसका परिणाम शुभ होगा। उनकी भारणा है कि जैसे मेघमण्डल जलवर्षा से ऋषि की स्थिति को पुट करते हुये उसके भविष्य को सुन्दर बनाता है उसी प्रकार जैन सिद्धांतों के प्रति अपना प्रेम सिद्धांतों का बोध उनके व्याख्याश्रम को परिपुष्ट कर उसके भविष्य को उत्तम बनायेगा । उत्तर काल में उनकी व्याख्या को उपयोगिता होगी और उसकी निर्मल प्रशंसा होगी। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शालचासो समुख्य मूलप्रन्थ के प्रथम पप में तीन बातें बतायी गई है - (१) प्रन्थ की रचना के पूर्व परमात्मा को प्रणामरुप मंगल किया गया है। ( २) ग्रन्थ की रचना भल्गबुद्धि मनुष्यों के हितार्थ की जा रही है। ( ३ ) प्रन्थ में सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का वर्णन तथा उनमें प्रतीत होने वाले विरोधों का समन्यय किया जायेगा। इस पद्य की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए व्याख्याकार का कहना है कि भगवान हरिभद्रसूरि ने देखा की (१,जगत् के सभी जीष अशान के अन्धकार में पड़े है। इस अशान ने उनके झान--प्रकाश को निरस्त कर दिया है। जीवों की यह दशा देख कर भगवान् को उनका उपकार करने की अशान को दूर कर उनके शान-आलोक को उद्दीप्त करने की इच्छा हुई । इस सछाके वशीभूत हो श्राचार्य भगवान् ने 'शाखवातासमुच्चय' नामक प्रस्तुत (२)मकरण प्रन्थ की रचना प्रारम्भ की । प्रन्थ के आरम्भ में उन्होने परमात्मा को प्रणाम करते हुए मङ्गलाचरण किया और ग्रन्थ के प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख किया । मङ्गलाचरण इसलिये किया कि जिससे प्रस्तुत ग्रन्थ की निर्विघ्नता पूर्वक समाप्ति हो, और प्रतिपाद्य विषय का उल्लेख इसलिये किया, जिससे उस विषय के जिज्ञासु (३)प्रेक्षाधान पुरुषों की प्रस्तुत प्रन्थ के अध्ययन में प्रवृत्ति हो । (१)-जगत्-इसका अर्थ है संसार में आसक्त जीवसमूह । द्रष्टव्य-गङ्गेशोपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि प्रत्यक्षखण्ड में प्रामाण्यवाद पर तार्किकशिरोमणि रघुनाथ की व्याख्या दोधिति । अथवा जगन्ति जनमान्याहुजंगा झेयं चराचरम् ।'-ध्यानशतकटीका । (२)-प्रकरण---शास्त्रकदेवासम्बद्धं शास्त्र कार्यान्तर स्थितम् । आहुः 'प्रकरण' माम प्रन्यभेदं विश्चितः || पराशर उपपुराण । जिम ग्रन्थ में किसी एक शास्त्र के प्रतिपाय विषयों में किसी एक ही विषय का प्रधान रूपसे प्रतिपादन होता है, और साथ ही सम्बद शास्त्र से अतिरिक्तशास्त्र के विषयों का भी प्रयोजनानुसार समावेश किया गया होता है, विद्वज्जन उसे 'प्रकरण' ग्रन्थ कहते है । ३)-प्रक्षावान्-इसका अर्थ है प्रयोजन का सम्यक प्रेक्षण करके ही किसी भी कार्य में प्रवृत्त होने वाला । इष्टव्य-प्रामाण्यवाद दीधिति पर गदाधर भट्टाचार्य की विवृति । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० ० टोका व हिं० वि० (स्पा.) अथ समाप्तिमात्रे मङ्गलं न हेतुः, कादम्बरी- नास्तिकानुष्ठितयोरन्बयव्यतिरेकाभ्यां व्यभिचारात् । माल के प्रयोजन के सम्बन्ध में व्याख्याकार ने पर्याप्त विचार किया है, जो इस प्रकार है,-समाप्ति को माल का फल मानने पाले प्राचीन आस्तिकों के विस नास्तिकों की ओर से यह थाक्षेप किया जाता है कि मैगल सर्वत्र समाप्ति का कारण नहीं हो सकता क्योंकि कादम्बरो' में मजल के रहने हुये भी उसकी समाप्ति न होने से तथा मास्तिकों के प्रन्यो में माल न होने पर भी उनकी समाप्ति होने से मगल में समाप्ति का अग्धयतः और व्यतिरेकातः दोनों प्रकार से व्यभिचार है। १-मबल-मई-विन लुनाति इति मंगलम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार उसका अर्थ है विध्न का नाशक । 'विहन्ति इष्ट यः स विश्न: इस व्युत्पत्ति के अनुसार विन शब्द का अर्थ है इविधातक । इट का विधातक होता है पाप, अतः पाप ही विघ्न है । माल के मुख्य भेद तीन है-नमस्कार, आशीर्वाद और वस्तुनिर्देश | नमस्कार का अर्थ है-नमस्का में नमस्कार्य की अपेक्षा अपकर्ष का अथवा नमस्कार्य में नमस्कर्ता की अपेक्षा उत्कर्ष का बोरक व्यापार । उस व्यापार के कई रूप हैं, जैसे नमः इत्यादि शब्द का प्रयोग, नमस्का द्वारा नमस्कार्य का चरणस्पर्श, नमस्कर्ता के शिर के साथ उसके कर का संयोग, नगस्कर्ता का अञ्जलिबन्ध आदि | आशीर्वाद का अर्थ है-इष्ट सिद्धि की कामना का बोधक शब्द । वस्तु-निर्देश का अर्थ है ग्रन्थ के प्रतिपाद्य वस्तु की बोधक शब्दावलि, जिसमें किसी पूज्य या किसी प्रशस्त घटना की चर्चा हो । २. समाप्ति . समाप्ति का अर्थ है 'नरम वर्ण का दम' चरम वर्ण का अर्थ है 'अन्तिम वर्ण'वर्णविशिष्टान्यवर्ण' । वैशिष्टय लेना है स्वान्यवहितपूर्वस्व, स्वसमानक कल, स्वप्रयोजकाभिप्रायप्रयोज्यत्व, इन तीन सम्बन्धोंसे । इस परिभाषा के अनुसार किसो अन्ध का चम्मवर्ण बह होता है जिसके बाद अन्यकार उस ग्रन्थ के अङ्ग रूप में किसी वर्ण का प्रयोग नहीं करता, क्योंकि वही ऐसा वर्ग है जो उक्त तीनो सम्बन्धों से वर्णविशिष्ट नहीं होता। पहले के सारे वर्ण अपने बाद वाले वर्ण से विशिष्ट हो जाते है, स्योंकि पूर्व वर्ण उत्तर वर्ण का अव्यवहितपूर्व होता है, इसलिये पूर्व वर्ण में उत्तर वर्ण का पहला सम्बन्ध रहता है । दोनों वर्ण एक ही पुरुष द्वारा उचरित होने से समामकर्तृक होते हैं, अतः पूर्व वर्ग में उत्तर वर्ण का दूसरा सम्बन्ध भी रहता है। पूर्व और उत्तरवर्ती दोनों वर्ण एक ही अर्थबोध के अभिप्राय से प्रयुक्त होते है, अतः पूर्व वर्ण के साथ उत्तरवर्ण का तीसरा सम्बन्ध होता है । इस प्रकार ग्रन्थ के समस्त पूर्ववर्ती वर्गों में उत्तरवर्ती वर्गों के इन तीन सम्बन्चा के रहने के कारण पूर्ववर्ती सभी वर्ण वर्ण-विशिष्ट हो जाते हैं । अन्तिम वर्ण में किसी भी वर्ण के उक्त तीनो सम्बन्ध न होने से वह वर्ग-विशिष्टान्य होने के कारण चरम वर्ण होता है। प्रश्न हो सकता है कि जब चरमवर्ण का उच्चारण होते ही अन्य समाप्त हो जाता है तब चरमवर्ण को समाप्ति न कह कर चरमवर्ण-वस को समाप्ति क्यों कहा जाता है इसका उत्तर यह है कि यदि चरमवर्ण को समाप्ति माना जायेगा तो उस वर्ण का नाश होने पर समाप्ति का अभाव हो जायेगा। फलतः शा, वा. २ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० शा० वा० समुचय समास ग्रन्थ में असमाप्तता के व्यवहार की आत्त होगी । चरमवर्णध्वंस को समाप्त मानने पर उक्त आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि ध्वंस का विनाश न होने से समाप्ति का कभी अभाव नहीं हो सकता । समाप्ति के प्रति मंगल की कारणता -- समाप्ति के प्रति मंगल को कई प्रकार से कारण माना जा सकता है, ( १ ) ग्रन्थकर्त्ता को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मान कर इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध होगा 'स्वम तियोगिचरमवर्णानुकृष्टकृतिमत्व' | स्व का अर्थ है चरमवर्णध्वंस, उसका प्रतियोगी है चरमवर्ण, उसको सम्पन्न करने वाली कृति ( प्रयत्न) मन्थकता में कारण का सम्बन्ध होगा 'रत्रानुकूलकृतिमत्व' | स्व का अर्थ है मङ्गल, उसको सम्पन्न करने वाली कृति है ग्रन्थकर्त्ता में । ( २ ) ग्रन्थकर्त्ता के शरीर को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मानकर । इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध होगा स्वप्रतियोगिचरमवर्णानुकूलकृत्यवच्छेदकता' । 'स्व' है चरमवर्णध्वंस, उसका प्रतियोगी है चरमवर्ण, उसके अनुकूलकृति का अवच्छेदक है ग्रन्थकर्ता का शरीर, क्वांकि शरीररूप अवच्छेदक से अवच्छिर आत्मा में ह्रीं कृति आदि की उत्पत्ति होती है । कारण का सम्बन्ध है 'स्वानुकूलकृतिसमानाधिकरणादृष्टजन्यत्व' | 'स्व' है मंगल, उसके अनुकूलकृति का समानाधिकरण अदृष्ट है मंगलकर्त्ता का अदृष्ट, उससे जन्य है मङ्गलकर्त्ता अन्धकार का शरीर । ( ३ ) ग्रन्थ को -- ग्रन्थ के चरमवर्ण को समाप्ति का उत्पत्तिस्थल मानकर इस पक्ष में कार्य का सम्बन्ध है 'चरमवर्णनिष्टप्रतियोगिता' और कारण का सम्बन्ध है 'स्वसमानकर्तृकत्व' । मङ्गल और चरमवर्ण का कर्त्ता एक होने से चरमवर्ण के साथ मङ्गल का स्वसमानकर्तृकत्व सम्बन्ध निर्विवाद है। इस सम्बन्ध से पूर्ववर्ती वर्षों में भी मङ्गल रहता है, पर सभाप्ति नरमवर्णनिष्ठप्रतियोगिता सम्बन्ध से उनमें नहीं रहती, एतावता तृतीय पक्ष के कार्यकारणभाव में व्यभिचार की शङ्का करना उचित नहीं, क्योंकि चरमवर्णनिष्टप्रतियोगिता सम्बन्ध से समाप्ति के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध से चरमवर्ण भी कारण होता है। पूर्ववर्ती वर्णों में इस कारण के न रहने से उनमें समाप्ति के एक कारण के रहने भी व्यभिचार नहीं क्योंकि कार्य की व्याप्ति कारणसमुदायरूप सामग्री में होती है, न कि एक कारणमात्र में हो सकता, ३ कादम्बरी यह एक उच्चकोटि का गद्यात्मक काव्यग्रन्थ है । इसके रचयिता है महाकवि चाण भट ( सातवीं शताब्दी) । ग्रन्थ के आरम्भ में ग्रन्थकार ने मङ्गल क्रिया है । किन्तु ग्रन्थकार द्वारा उसकी समाप्ति नहीं हुई है । ग्रन्थ के पूर्वार्द्ध की रचना के बाद ही ग्रन्थकार की मृत्यु हो गई । अतः ग्रन्थ के शेषभाग की पूर्ति उनके पुत्र भूषणभट्ट ने की। ४ नास्तिक-पुण्य, पाप, पुनर्जन्म आदि में जिसका विश्वास नहीं होता उसे नास्तिक कहा जाता है । ऐसे पुरुष ष्ट पदार्थ को ही किसी कार्य का कारण या क मानते हैं । महल से किसी कारण का सम्पादन अथवा दृष्टाधक का निवारण नहीं होता, अतः वे अपने ग्रन्थों में मङ्गल नहीं करते, फिर भी उनके ग्रन्थों की समाप्ति होती है । पूर्वकाल में ऐसे अन्य चार्वाक और उसके अनुयायी विद्वानों के होते थे, वर्तमान में समाजबादी, मार्क्सवादी, नक्सलवादी आदि ग्रन्थकारों के अनगिनत ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं । १९ अन्वयतः और व्यतिरेकतः - अन्वय का अर्थ है सम्बन्ध सद्भाव; और व्यतिरेक का अर्थ है अभाव । कतिपय स्थानों में दो भावात्मक वस्तुओं के अन्वय- सद्भाब - महचार को देख कर जो व्यासि Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व द्वि०वि० शात की जाती है उसे अन्वय व्याप्ति कहा जाता है और उस व्याप्ति के विरोधी को अन्वय व्यभिचार कहा जाता है । जैसे महानस चत्वर आदि कई स्थानों में धूम और वष्टि के सहचार को देख कर यह व्याप्तिज्ञान की जाती है कि "यत्र यत्र धूमस्तत्र सत्र वह्नि" | जहां जहां धूम होता है वहां वहां अग्नि होता है । इस व्याप्ति को मुख्य रूप से दो प्रकार से कहा जाता है। एक यह कि 'शून्य में धूम का प्रसत्त्व-वहून्यभाववदवृत्तित्व' । दूसरा यह कि 'वह्नि धूम का व्यापक होता है और धूम उस बह्नि के साथ रहता है— नव्या कामानाधिकरण्य | पहली व्याप्ति का विरोधी होगा 'वहिशून्य में रहना- वहन्यभाव, वद्वृत्तित्व' | दूसरो व्यामि का विरोधी होगा 'धूमं के अध्यापक के साथ रहना - धूमाव्यापक महान सी बहिसामानाधिकरण्य' | धूम का व्यापक सामान्य वह्नि होता है महानस आदि विशेषर्या नहीं। इस लिये धूम में महानसा व का व्यभिवार होता है । ये दोनों प्रकार के व्यभिचार अन्वयव्यभिचार कहे जाते हैं । ११ इसी प्रकार कतिपय स्थानों में दो व्यतिरेक—अभावों के सहचार को देख कर जो व्याप्ति ज्ञात की जाती है उसे व्यतिरेकव्याप्ति कहा जाता है, जैसे नदी हृद आदि में वहून्यभाव के साथ धूमाभाव के सह. चार को देख कर यह ज्ञात को जाता है कि यत्र वह्निः नास्ति तत्र धूमो नास्ति'- जहां वह्नि का अभाव होता है वहां धूम का अभाव होता है- धूमाभाव भाव का व्यापक होता है और धूम उस अभय का प्रतिगा होता है - वहूत्यभावच्या कामावप्रतियोगित्व', यह व्याप्ति व्यतिरेक व्यामि है । इसका विरोधी होगा बहून्यभाव के अव्यापक अभाव का प्रतियोगी होना । जैसे बहून्यभाव का अध्यापक अभाव है दयाभाव और द्रव्य उस अमात्र का प्रतियोगी है | यह व्यभिचार व्यतिरेक व्यभिचार है । अन्वयव्याप्ति :– प्रकृत में अन्वयव्याप्ति का अर्थ है 'कारण के अन्वय में कार्य के अन्वय की व्याति-कारण के होने पर कार्य के होने का नियम' । एक कार्य के कई कारण होते हैं । जैसे लिखना एक कार्य है, उसके कई कारण है कागज, कलम, स्याही, लेखक, लेखनीय विषय आदि। इन सब कारणों के उपस्थित होने पर लिखने का कार्य होता है । इनमें किसी में भी लेखकी कारणता का निश्चय करने के लिये इस प्रकार की अन्य व्याति का निश्वय आवश्यक है कि 'अन्य सभी कारणों के रहने पर अमुक के होने पर लिखने का कार्य होता है' जाय तो जैसे कागज से अतिरिक्त कलम आदि सभी कारणों के विद्यमान रहने पर यदि कागज भी विद्यमान हो लिखने का कार्य अवश्य हो जाता है । इस प्रकार अन्वयव्याप्ति का स्वरूप है 'तरसत्ये तत्सच्वम्' अर्थात् 'तदितर सकल तर कार्यकारणसत्त्वे तत्सत्त्रे तस्कार्यसत्त्वम्' । इसका अर्थ है 'अमुक कारण से अतिरिक्त अमुक'कार्य' के समस्त कारणों के रहने पर, अमुक के उपस्थित हो जाने पर अनुक 'कार्य' का सम्पन्न होना । इस व्याप्ति के न होने पर, - कारणता का निश्चय नहीं होता । व्यतिरेक व्यामि :― प्रकृत में व्यतिरेकव्याप्ति का अर्थ है, कारण के अभाव में कार्य के अभाव की व्यामि कारण न होने पर कार्य न होने का नियम । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा०पा समुच्चय nuwarnima---- -www.w-... एक कार्य के कई कारण होते हैं जैसे लेखरूप कार्य के कारण हैं, कागज,-कलम-स्याही,-लेखक, लेखनीय विषय आदि । इन सभी कारणों में लेख की कारणता का निश्चय इसी आधार पर होता है कि इन सबों में किसी एक का भो अभाव रहने पर लेख का कार्य नहीं हो पाता । कारणाभाव में कार्याभाव की यह व्याप्ति ही कार्य में कारण की व्यतिरेकम्याप्ति का मूल होती है, और उसका स्वरूप होता है 'कारणाभावव्यापककार्याभावपतियोगित्व' । इसका अर्थ यह है कि कार्य का अभाष कारण के अभाव का व्यापक होता है और कार्य उस अभाव का प्रतियोगी होता है । कारणाभाव में कार्याभाव की व्याप्ति के अभाव में भी कारणता का निश्च य नहीं होता । अन्वय-व्यतिरेक-व्यभिचार: यह कहा जा चुका है कि अन्वय व्यतिरेक मेद से व्यास दो प्रकार की है, अन्वयव्याप्ति और व्यतिरेकब्यास्ति । इसलिये क्याप्ति के विरोधी व्यभिचार के मा दो भेद है- अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेक-यमिचार । अब इस बात पर विचार करना है कि इन व्यभिचारों के ज्ञान से कारणता के निश्चय का प्रतिबन्ध क्यों होता है 1 अन्वय-व्यभिचार से कारणता का विरोद्धय अंश :-... कारणता का स्वरूप है 'अनन्यथासिद्धत्वे सति कार्यनियतपूर्ववत्तित्व' । इसका अर्थ है-...कार्य के प्रति अन्यथा सिद्ध न होते हुये उसके अव्यवहित पूर्वश्चग में साक्षात् उत्पत्ति स्थल में स्वयं अथवा अपने व्यापार द्वारा विद्यमान होना । कुछ कारण से होते हैं जो अपने कार्य के उत्पत्ति से पूर्व स्वयं विद्यमान रहते है, जैसे पट के कारण तन्तु आदि । और कुछ कारण ऐसे होते हैं जो कार्य से पूर्व स्वयं विद्यमान नहीं होते किन्तु उनका व्यापार विद्यमान होता है, जैसे स्मरण का कारण पूर्वानुभव ! पूर्वानुभव स्मरण से पूर्व स्वयं विद्यमान नहीं रहता किन्तु उसका व्यापार संस्कार विद्यमान रहता है। कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध न होने का अर्थ है 'कार्य का नियतपूर्ववर्ती होते हुये भी जो कार्य के कारण नहीं माने जाते उन सभी पदार्थों से भिन्न होना । जैसे कागज, कलम आदि के रूपरंग, उनकी जाति, उनके उत्पादक, उनसे सम्बद्ध आकाश, उन्हें एकत्र करनेवाला नौकर, ये सब लेख कार्य के नियत पूर्ववर्ती होते हैं, पर ये लेव के कारण नहीं माने जाते । अतः लेाव कार्य के प्रति अन्यथासिद्ध होने से ये लेख के कारण नहीं होते । कागज, कलम आदि अन्यथासिद न होने से लेत्र के कारण होते हैं । अन्वय व्यभिचार के ज्ञान से कारणता के इस अनन्यथासिद्धृत्व अंश के ज्ञान का ही प्रतिबन्ध होता है। इस संदर्भ में वह ज्ञातव्य है कि अन्वयव्याप्ति के शरीर में व्याप्यांश में अनन्यथासिद्धत्त्व विशेषण देना आवश्यक है, क्योंकि उसके अभाव में अन्यथासिद्ध में भी कार्य की अन्वय और व्यतिरेक व्याप्ति होने से अन्यथासिद्ध में भी कारगता के निश्चय की आपत्ति होगी, और जब अन्वय व्याप्ति के शरीर में व्याप्यांश में अनन्यथासिद्धत्व विशेषण रहेगा तब अन्यथासिद्ध में उस विशेषण के न होने से अन्वयम्याप्ति का ज्ञान न हो सकने के कारण उसमें कारगर्ता के निश्चय की आपत्ति न होगी । व्यान्यांश में अनन्यथासिद्धस्य विशेषण देने पर अन्नव व्याप्ति का स्वरूप होता है "तदितरसफलतत्कार्यकारणसत्वे अनन्यथासिद्धतस्सरचे तत्कार्यसत्त्वम्' । इसका अर्थ है--अमके कार्य के अमुक से अतिरिक्त मकल कारणों के रहने पर अमुक के विद्यमान होने पर अमुक कार्य का होना और अमुक का अमुक कार्य के प्रति अन्यथा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका बहिनि सिद्ध न होना । जैसे लेख कार्य के कागध से अतिरिक्त सकल कारणों के रहने पर कागज के विद्यमान हो जाने पर लेख कार्य होता है और कागज लेख के प्रति अन्यथासिद्ध नहीं होता । अतः कागज में लेख को अन्वयच्याप्ति होने से कागज लेख का कारण होता है और कागज के रूप रंग आदि अन्यथासिद होने से लेख की अन्षय व्याप्ति से हीन होने के नाते लेख का कारण नहीं होते । अन्य व्यभिचार का स्वरूप है 'तदितरसकलतकार्य कारणसत्त्वे तस्सवेऽपि तत्कार्य जातीयकान्तरासत्त्वम्' । इसका अर्थ है-'अमुक कार्य के अमुक से अतिरिक्त सम्पूर्ण कारण होने पर अमुक के होने पर भी अमुक कार्य के सजातीय कार्यान्तर का न होना । जैसे 'कादम्बरी' से अन्य आस्तिक ग्रन्थों में समाप्ति के मङ्गलाति-रक्त सभी कारणों एवं मंगल के होने से उन अन्यों की समाप्ति हुई है पर, कादम्बरीमें वैसी ही दशा में समाप्ति नहीं हुई है । मंगल में समाप्ति के इस अन्य व्यभिवार को देख कर यह कल्पना की जा सकती है कि आस्तिकन्या में जहां मंगल समारत का नियत पूर्ववत्तों है वहां भी वह समाप्ति का कारण नहीं है किन्तु उसके प्रति अन्यथासिद्ध है। इस प्रकार अन्वय-व्यभिचार के शान से अन्वय व्याप्त के शान का साक्षात् प्रतिबन्ध न होने पर भी उससे अन्यथासिद्धत्व का ज्ञान हो कर उसके द्वारा अन्वय व्याप्ति ज्ञान का तथा कारणता के अनन्यथासिव अश के ज्ञान का प्रतिबन्ध होता है । इस प्रतिबंध के कारण ही अन्वय-व्यभिचार को कारणतानिश्चय का विरोधी माना जाता है। इस प्रसंग में इस रहस्य पर ध्यान देना आवश्यक है कि उक्त अन्वयन्या.म में तदितरसकलतत्कार्यकारणसहिततत्सव' ब्यान्य और 'तत्कार्य' त्र्यापक है । किन्तु उक्त अन्वय व्यभिचार में व्याप्य तो वहीं है पर अध्यापक तरकार्य नहीं है किन्तु 'तत्कार्य सजातीयकार्यान्तर' है | व्यापकता और अध्यापकता के धर्मियों में भेद होने से अन्वय व्याप्ति शान के प्रति अन्वयव्यभिचार की विरोधिता व्यापकत्व और अव्यापकत्व की दृष्टि से नहीं हो सकती । किन्तु अन्वय व्याप्ति के शरीर में व्याध्यांश में विशेषणभूत अनन्यथासिद्धत्व की दृष्टि से ही हो सकती है, और यह भी साश्चात् नहीं, किन्तु अन्यथासिद्धवज्ञान के सम्पादन वारा. क्योंकि अन्वयव्यभिचार के शरीर में व्याप्यांश में अन्यथासिद्धव का प्रवेश नहीं है अपितु उक्त प्रकार से अन्वयव्यभिचार होने पर व्यायांश में अन्यथासिद्धत्व की कल्पना कर ली जाती है। व्यतिरेक-व्यभिचार से कारणता का विरोद्धव्य अंश :-- कारण का अभाव होने पर भी कार्य के होने का नाम है 'कारणव्यतिरेक में कार्यव्यतिरेक का व्यभिचार' । इससे कारण में कार्यनियतपूर्ववर्तिता' के शान का प्रतिबन्ध होता है। स्पष्ट है कि जन कार्य उत्पत्ति से पूर्व कार्य के उत्पत्तिस्थल में कारण का अभाव रहेगा तब कारण कार्य का नियतपूर्ववर्ती न होगा। इस प्रकार व्यतिरेकष्यभिचार कारणता के विशेष्य भाग कार्यनियतपूर्ववृत्तित्व अंश का विरोधी होता है । इस सन्दर्भ में यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि अन्वय व्यभिचार और व्यतिरेकम्यभिचार में दोनों अन्वयन्यामि और व्यतिरेकव्याप्ति के ज्ञान के प्रतिबन्ध द्वारा भी कारणता निश्चय के विरोधी होते हैं और सीधे भी विरोधी होते हैं, क्यों कि अन्वयव्यभिचार से कल्पनीय अन्यथासिद्धत्व का कारणलागत अनन्यथासिद्धत्व के । साथ सौधा विरोध है। इसी प्रकार कारणाभाव में कार्याभावके व्यभिचार-कारण में कार्यसमानाधिकरणअभाव के प्रतियोगिल्य का पारणतागत कार्यनियतपूर्ववृत्तित्व-कारण में कार्यन्यापकत्य-कार्यसमानाधिकरण अभाव के अप्रतियोगित्व के साथ सीधा विरोध है। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र -------------------- -- शा. वा० समुच्चय । न च स्वसमसरव्यविघ्नस्थलीयसमाप्तौ मङ्गलं हेतुः, नास्तिकानुष्टितस्थले च जन्मान्तरीयमङ्गलादेव समाप्तिरिति वाच्यम् , विघ्नाधिकसंख्यमजलस्थले समाप्त्यभावप्रसङ्गात् । न च 'स्वानधिकन्युनसंख्यविघ्नस्थलीयत्वं निवेश्यम, यत्र दश विघ्नाः पञ्च च पायश्चित्तेन नाशिताः, पञ्च च मङ्गालानि, तत्र समाप्त्यभावप्रसङ्गात् । नच प्रायश्चिसाधनाश्यस्वानधिकसंख्यविघ्नस्थलीयत्वं निवेश्यम् , बलवतो विघ्नस्य बहुभिर्राप मंगलैरनाशात् , बलवता मंगलेन बहूनामपि विघ्नानां नाशाच्च ।। किंच विनः समाप्तौ विशेषणम्, उपलक्षणं वा? नायः, विघ्नस्यापि जन्यत्यापत्र, नात्या, नियतोपलक्ष्यतावचच्छेदकाभारादिति दिक् । (प्राचीन आस्तिकों की ओर से इस पर कहा जा सकता है क) मङ्गल उसी स्थल में समाप्ति का कारण होता है जहां विनों की संख्या महल की संख्या के समान होती है। कादम्बरों' में विघ्नों की संख्या मंगल की संख्या से अधिक है। अतः मंगल के रइते भी उस ग्रन्थ को समाप्ति न होने से अन्धय-व्यभिचार नहीं है। इसी प्रकार नास्तिक ग्रन्थों में मंगल के अभाव में भी समाप्ति होने को बात बतला कर जो व्यतिरेक व्यभिचार प्रदर्शित किया गया है, उस सम्बन्ध में यह बात कहो जा सकती है, कि नास्तिक ग्रन्थों की समाप्ति भी ग्रन्थकार द्वारा पूर्वजन्म में किये गये मंगल से की होती है। मंगल के अभाव में नहीं होती है। अतः व्यक्तिरेक-व्यभिचार भी नहीं है। किन्तु यह कथन उचित नहीं है, क्योंकि मंगल को उक्त रीति से समाप्ति का कारण मानने पर जहां मंगल की संण्या विघ्नों की संख्या से अधिक होगी. वहाँ समाप्ति न हो सकेगा। अगर कहे 'मंगल यहीं समाप्ति का कारण होता है जहाँ विघ्नों को संख्या मंगल की संख्या से अधिक नहीं होती । अतः जहां विनों की संख्या मङ्गल की संख्या से न्यून है घहां भी मंगल से समाप्ति होने में कोई बाधा न होगी:' तो यह भी कल्पना ठीक नहीं है, फ्योंकि पेला मानने पर जहां यिनों की संख्या दश हैं, जिनमें पांच का नाश प्रायश्चित्त से और पांच का नाश पांच मंगलों से होता है, यहां मंगलों को संख्या से विघ्नों की संख्या अधिक होने के कारण समाप्ति न हो सकेगी। इस प्रकार, 'मंगल उसी स्थल में समाप्ति का कारण होता है जहां प्रायश्चित आदि अन्य उपायों से नष्ट न होने वाले विनों की संख्या मंगल की संख्या से अधिक नहीं होती' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जहां एक ही विनाना बलवान है कि उसका माश अनेक मंगलों से भी नहीं हो पाता, वहां मंगल की संख्या से विनों की संख्या अधिक न होने के कारण समाप्ति की आपत्ति होगी, पधं जहां एक ही वलयान् मंगल से छोटे मोटे अनेक विश्नों का नाश होता है यहां मङ्गल फी संख्या से विघ्नों की संख्या अधिक होने के कारण समाप्ति की उत्पत्ति न हो सकेगी। १ अहम्मदाबाद-संवेगी उपाश्रयको प्रतमें 'स्वात्विकसूनसंख्या पाट है । विचार करने पर 'स्वाविकशून्यसंख्य'० अथवा 'स्थानधिकसंख्य'० बाट उचित लगता है । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था र टीका व हिदि इस सन्दर्भ में एक बान और विचारणीय है। वह यह कि, समाप्ति और माल के बीच उक्त प्रकार से कार्यकारणभाव मानने पर मङ्गल से उत्पन्न होने वालो समाप्ति का स्वरूप छोगा मंगलसमसंख्यविघ्नस्थलीयसमाप्ति, अथवा मंगलानधिकसंख्यविघ्नस्थ. लीय समाप्ति, किंवा प्रायश्चित्तायनायम गलानधिकसंग्यविनस्थलीपसमाप्ति, इनमें विनस्थलीयसमादि: है निवासमात ४८मा लामामाधिकर-- सम्बन्ध से घिरनवती समापित । अब प्रम यह उगा कि समापित में विश्न 'विशेषण ६ घाइपरक्षण(१) यदि विन को समाप्ति का विशेषण माग कर विघ्नविशिष्ट समाप्ति को मल का कार्य मामा मायगा तो विघ्न को भी माल का कार्य मानना होगा, क्योंकि विशेषण और विशेष्य से अतिरिक्त विशिष्ट का अस्तित्व न होने से विश्न और समाति दोनों मंगल के कार्य न होंगे तो निषिशिसमाप्ति भी मैगल का कार्य न हो सकेगी। (९) और यदि विक्षा को समाप्ति में उपलक्षण मान कर विश्नोपलक्षित समाप्ति को माल का कार्य मामा जायगा, तो यह इसलिये उचित न होगा कि विश्न का समाप्ति में उपलक्षण होना सम्भव नहीं है, क्योंकि उपलक्षण घही होता है जो उपलक्ष्यतावच्छेदक धर्म को व्यापक होता है. प्रस्तुत में समाप्ति उपलक्ष्य है, समाप्तित्य उपलक्ष्यतावच्छेदक है, वह निसर्गतः निर्विघ्न स्थल में होने वाली समाप्ति में भी है, उस समाप्ति में विघ्न का सामानाधिकरणय न होने से समाप्तित्व रूप उपलक्ष्यतावच्छेदक-उपलक्षणत्वेन विवक्षणीय घिन का व्यापक नहीं है अतः नियत-यापक उपलक्ष्यतावच्छेदक न होनेसे विघ्न समाप्ति में उपलक्षण नहीं हो सकता। १ विशेषण-विशेषण का लक्षण है 'विद्यमागत्वे सति व्यावर्तकत्व' । व्यावर्तक का अर्थ है , ईतर भेद का अनुमापक, इस पक्ष के अनमार विशेषण यह होता है 'नो विद्यमान रहने पर अपने आश्रय में इतरभेद का अनुमान करावे, जसे अपनच घर में नीलरूप, यह रूप जिस समय घट में रहता है उसी समय अपने आश्रय भूत घटको अनील घनों से व्यावृत्त कर सकता है, किन्तु पाक से नीलरूप का नाश होकर मरूप की उत्पत्ति हो जाने से पट जय रत्त हो जाता है तब निद्यमान न होने से नीलरूप उस पट का व्यावर्तक नहीं होता और इसी लिये उस समय वह पट का विशेषण नहीं कहा जाता । २ उपलक्षण-उपलक्षाग का लक्षण है 'अविद्यमानत्वे सति ज्यावर्तकल' । इस लक्षणके भनुमार उपलक्षण वह होता है जो विद्यमान न रहने पर भी उन वस्तुको, जिसके साथ उसका कभी सम्बन्ध रहा हो, अन्यों से व्यायन करे; जसे 'कुरुक्षेत्र' में कुरु । पूर्वकाल में कुरु नाम का एक राजा हो चुका है, जिसका उस समव इम क्षेत्र के माय सम्बन्ध था, वह इस समय नियमान नहीं है फिर भी इस क्षेत्र को अन्य क्षेत्रोंसे म्यावृत्त करता है अतः कुरुक्षेत्र में कुरु उपलक्षण है. विशेषण नहीं है। __ ग्रन्थों में एक प्रकार के और भी उपलक्षय का उहालेख मिलता है, उसका लक्षण है 'स्वचोधकत्वे सति स्वेतरोधकत्व-अपनी और अपने जैसी अन्य वस्तु की सूचना देने वाला । जैसे यदि यह कहा जाय कि पट का रूप तन्नुरूप से उत्पन्न होता है, तो रूप यहां स्पर्श आदि का उपलक्षय हो जाता है और उसका फल यह होता है कि 'पर का प तन्नुरुपसे उत्पन्न होता है, इस बात का ज्ञान होने पर 'पट के स्पर्श आदि तन्तु के स्पर्श आदि से उत्पन्न होते हैं ' इस बात का भी ज्ञान हो जाता है। किन्नु प्रस्तुत सन्दर्म में उपलक्षण का यह अर्थ पाहा नहीं है। चालु Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ........ ... ... शा० वा समुच्चय (स्या०) "श्रावश्यकत्वाद् विघ्नध्यस एव मालफलम् , समाप्तिस्त्वसति प्रतिबंधे स्वकारणादेव भवति, कारीरीत इवावग्रहनिवृत्तौ वृष्टिः । 'निर्विघ्न परिसमाप्यताम्' इति कामनाऽपि 'सविशेषणे हि.' इतिन्पायाद् विनध्वंसमानावगाहिनी"-इत्यपि मतं न रमणीयम्, माल बिनाऽपि विनध्वंसस्य प्रायश्चित्तादितो भावेन व्यभिधारात् । विघ्न-वंस को ममल का फल मानने वाले नवीन मास्तिकों का मत है कि समाति माल का कार्य नही अपितु उसकी सम्पन्नता के लिये भावश्यक होने से विघ्न सही मजल का कार्य है, क्योंकि माल से प्रतिवन्धक विघ्न की मिति होने पर समाति अपमे सर्वसम्मत मण्य कारणों से ही ठीक उसी प्रकार सम्पन्न हो सकती है विशेषण और उपलक्षण में अन्य लक्षण्य-विशेषण और उपलक्षण में उनके लक्षणों से जो वेल. शुण्य ज्ञात होता है उससे अतिरिक्त भी उनमें वैलक्षण्य होता है, जैसे विशेषण अभावीयप्रतियोगिता का सदर, मसिरियनिगति शेगम के संसर्ग का पटक तथा विशिषमें रहने वाले धर्म का आश्रय होता है; उपलक्षण ऐसा नहीं होता। इस विषय को इस प्रकार समझा जा सकता है, पाक से नीलरूप को खो कर रक्तरूप को प्राप्त हुआ घट जिस समय जिम स्थान में रहता है उस समय उस स्थान में "इदानीमत्र नोलपटो नास्ति"-इस समय यहाँ नील घट नहीं है यह प्रतीति होती है। स्पष्ट है कि इस प्रतीति में नील रूपको घट में अगर उपलक्षण माना जायेगा तो यह प्रतीति न हो सकेमी; क्योंकि प्रतीति के समय नील से उपलक्षित घट के विद्यमान होने से नील से उपलक्षित घट का अभाव न हो सकेगा, और जब उक्त प्रतीति में नील रूपको घट का विशेषण माना जायेगा तब उक्त प्रतीति के समय नीलरूपविशिष्ट घट के अभाव के होने में कोई बाधा न होने से उक्त प्रतीति निर्वाध रूप से सम्पन्न हो सकेगी । अतः यह निर्विवादसिद्ध है कि उक्त प्रतीति में नीलरूप ट का दिशेपणा होने से ही प्रतियोगिता का अवच्छेदक है, उपलक्षण होने से नहीं। इसी प्रकार 'भूतलं नीलघटवत्-भूतल नीलबट से सम्बद्ध है। इस बुद्धि में नीलरूप पट में कभी विशेषण होता है और कभी उपलक्षण होता है, जिस बुद्धि में घर में मीलरूप विशेषण होता है, उसे नीलरूपविशिष्टघट के वैशिष्टय को विषय करने वाली बुद्धि कहा जाता है। उसमें भूतल में नीलघट के सम्बन्ध के रूप में नीलरूपविशिष्टघटप्रतियोगिकसंयोग का भान होने से नीलरूप सम्बन्ध का घटक होता है तथा उस बुद्धि की उत्पत्ति के पूर्व 'घटो नीलः - एट नीलरूप से विशिष्ट है इस बुद्धि की आवश्यकता होती है। जिस बुद्धि में घर में नीलरूप उपलक्षण होता है उसे नीलरूपोपलकितघटवैशिष्टयविषयक कहा जाता है, उस में भूतल में नीलपट के सम्बन्ध के रूप में केवल संयोग का भान होने से नीलरूप सम्बन्ध का घटक नहीं होता, और उसकी उत्पत्ति के पूर्व 'घटो नीलः' इस बुद्धि की आवश्यकता नहीं होती । इसी प्रकार नीलरूप जब घट में विशेषण होता है तब नीलरूपविशिष्टघट में रहने वाला पाकपूर्व. कालवृत्तित्व नीलरूप में भी रहता है, किन्तु नीलरूप जब घर में उपलक्षण होता है तब नीलरूपोपलक्षितघट में रहनेवाला पाकोत्तरकालकृत्तित्व नीलरूप में नहीं रहता । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० क० टीका० हिं० वि० ( स्था० ) न च प्रायश्विचाद्यनाश्य विघ्नध्वंसे मङ्गलं हेतुरतो न दोष इति वाच्यम्, प्रायश्वितादीनामपि मङ्गाद्यनाश्यविघ्नध्वंसं प्रति हेतुत्वेऽन्योन्याश्रयात् । जिस प्रकार "कारीरी' से प्रतिबन्धक की निवृत्ति होने पर अपने अन्य कारणों से ही वृष्टि सम्पन्न हो जाया करती है । १७ यदि यह कहा जाय कि “समाप्ति को महल का फल मानने पर मङ्गल से निषिधमतापूर्वक समाप्ति रूप फल की कामना नहीं हो सकेगी तो यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि 'सविशेषणे हि विधिनिषेध विशेषणमुपसंक्रामतः सति विशेष्यबाधे - विशेषणसहित विशेष्य में बताये जाने वाले विधि या निषेध विशेष्य में बाधित होने पर विशेषणगामी हो जाते हैं' इस नियम के अनुसार निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति में बतायी जाने वाली मङ्गलकाम्यता उसके विशेष्य अंश " समाप्ति में बाधित होने के कारण, उसके विशेषणअंश निषिघ्नता में मान ली जायगी, अतः मंगल से निर्विघ्नतापूर्वक समाप्ति की कामना होने में कोई बाधा नहीं हो सकती विचार करने पर नधीन आस्तिकों का यह मत भी समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि मंगल के न होने पर भी प्रायश्वित आदि विघ्नध्वंस के होने से व्यतिरेकव्यभि चार होने के कारण विघ्नध्वंसको भी मङ्गल का कार्य मानना सम्भव नहीं है । यदि यह कहा जाय कि 'प्रायश्चित्त आदि से उत्पन्न न होनेवाले विघ्नध्वंस के प्रति मंगल को कारण मानने से यह दोष न होगा, तो यह ठीक नहीं है; क्योंकि जैसे प्रायदिवस आदि से होने वाले विघ्नध्वंस को ले कर व्यतिरेकव्यभिचार होने से विघ्नध्वंसमाजके प्रति मङ्गल कारण नहीं हो पाता, उसी प्रकार प्रायश्चित्त आदि के अभाव में मंगल से होने वाले बिघ्नध्वंस को ले कर व्यतिरेकव्यभिचार होने से विघ्नध्वंसमात्र के प्रति प्रायश्चित आदि भी कारण नहीं हो सकता, अतः जैसे प्रायश्चित आदि से उत्पन्न न होने वाले विघ्नध्वंसके ही प्रति मंगल को कारण माना जायगा उसी प्रकार मङ्गल से उत्पन्न न होने वाले विघ्नviसके ही प्रति प्रायश्चित आदि को भी कारण मानना पड़ेगा, फलतः विघ्नध्वंस और मंगल के बीच इस प्रकार के कार्यकारणभाव की कल्पना करने पर अन्योन्याश्रय दोष हो जायगा, क्योंकि जब यह निश्चय न हो जायेगा कि विघ्नध्वंस तो मंगल से भी उत्पन्न होता है और प्रायश्रित आदि से भी उत्पन्न होता है तो विघ्नध्वंस किस प्रकार का है ? मंगल से जननयोग्य ? या प्रायश्चित से जननयोग्य ? तब तक विघ्नध्वंस में 'प्रायश्चित आदि से उत्पन्न न होने वाले तथा 'मङ्गल से उत्पन्न न होने वाले' इन विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न होगा, और जब तक इन विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न होगा, तब तक १. ' कारीरी' एक वैदिक इष्टि-लघुयज्ञ है, जिसके लिए वैदिक मान्यता है कि जिसे पूर्वकाल में देश में अवर्षण होने पर किया जाता था और जिसका विधिवार अनुष्ठान होने पर वृष्टि हुआ करती थी । उसके यथा विधि अनुष्ठान से आज भी वर्षा करायी जा सकती है; उस दृष्टि में 'करोर' से होम करने का विधान है । 'भय' के अनुसार 'करीब' सोमलता जैसी एक विशेष प्रकार की लता का अह्कर है और 'निघण्टु' के अनुसार बाँसका अङकुर है, उत्तर भारत के कई प्रदेशों में उसे 'करोम' कहा जाता है । 'कार्याष्टिकामो यजेत' इस अति से उसका विधान है । शा. वा. ३ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० पा समुन्यक ध्यतिरेकव्यभिचार होने के कारण बिनध्वंस के प्रति मंगल तथा प्रायश्चित मावि की कारणता का शान न होगा, और जब तक इस कारणता का बान न होगा तब तक मंगल से भी विध्नध्वंस होता है और प्रायश्चित आदि से भो विघ्नध्वंस होता है, इस बात का शान न हो सकेगा। अतः विघ्नध्यंस और मगल के बीच उक्त प्रकार से कार्यकारणभाव की कल्पना में 'अन्योन्याश्रयदोष होना स्पष्ट है। अन्योन्याश्रय दोष तब होता है जब किन्हीं दो वस्तओं को परस्पर में ही एक सरे की अपेक्षा हो जाती है. यह अपेक्षा कभी उत्पत्ति के लिये कभी स्थिति के लिए और कमी शति-ज्ञान के लिये होती है, अतः इस दोष के तीन भेद हैं उत्पत्ति में अन्योन्याश्रय, स्थिति में अन्योन्याश्रय, और ज्ञप्ति में अन्योन्याश्रय । उत्पत्ति में अन्योन्याश्रय यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपनी उत्पत्ति के लिये परस्पर में ही एक दूसरे की अपेक्षा हो जाती है, जैसे यदि यह कल्पना की जाय कि विनध्वंस के प्रति मजल कारण है और मङ्गल के प्रति विघ्नध्वस कसा है तो पहला मामा दोर से : हो पायगी, क्योंकि इस कल्पना के अनुसार न माल के विना विधाभ्वंस की उत्पत्ति हो सकेगी और न निजध्वंस के बिना माल की उत्पत्ति हो सकेगी, फलतः दोनों ही उत्पन्न न हो सकेंगे । स्थिति में अन्योन्याश्रय यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपनी स्थिति के लिये परस्पर में ही एक दूसरे की अपेक्षा हो जाती है, जैसे परमाणुओं से पृथक समुदाय की और समुदाय से पृथक् परमाणुओं की उपलब्धि न होने से उन दोनों को यदि परस्पराश्रित मान लिया जाय, तो यह मान्यता अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होगी, क्योंकि परमाणु जब स्वयं समुदाय में आश्रय पा लेंगे तगी समुदाय के आश्रय बन सकेंगे, इसी प्रकार जन समुदाय स्वयं परमाणुओं में आश्रय पा लेगा तभी परमाणुओं का आश्रय बन सकेगा, फलतः दोनों ही आश्रय हीन हो जाने से अपना अस्तित्व ही खो बैठेंगे। सप्ति में अन्योन्याश्रय यह अन्योन्याश्रय तब होता है जब किन्हीं दो वस्तुओं को अपने ज्ञान के लिये परस्पर में ही एक दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा हो जाती है । जैसे यदि गौ का लक्षण किया जाय सास्ना-सादड़ी-गले के नीचे लटकनेवाला चमड़े का थैला और सास्ना का लक्षण किया जाय गौ का एक विजातीय अवयव, तो ये द्वोनी लक्षण अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त हो जायेगे, क्योंकि सास्ना का ज्ञान हुये बिना गौ का और गौ का शान हुये विना सास्ना का ज्ञान न हो सकेगा। प्रकृत में प्रायश्चित आदि से अजन्य विघ्नध्वंस के प्रति मंगल को, एवं मंगल से अजन्य विनध्वंस के पनि प्रायश्चित्त आदि को कारण मानने पर अप्ति में अन्योन्याश्रय होगा, क्योंकि जब तक कुछ विघ्नवसों में पाश्चियतादि जन्यता एवं कुछ विश्नवतों में मंगलजन्यता का ज्ञान न होगा तब तक उन अजन्यान्त विशेषणों की सार्थकता का ज्ञान न हो सकेगा और जब तक उनकी सार्थकता का ज्ञान न होगा तब तक व्यभिचार होने के कारण विनस में प्रायश्चित्तादिजन्यता अथवा मंगलजन्यता का शान न हो सकेगा । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० ० टोका व हिं० वि० (स्या०) 'विघ्नो मा भूत् ' इति कामनया प्रवृत्तेविनप्रागभाव एव मङ्गलफलमित्यपि न पेशलं वचनम्, प्रागभावस्यामाध्यत्वात्, स्वत आगन्तुकस्य समयविशेषस्य 'सम्बन्धरूपस्य तत्परिपालनस्यापि मालासाध्यत्वात् । . विघ्न की उत्पत्ति न हो इस कामना से ही माल के अनुष्ठान में शिष्टजनों की प्रवृत्ति होती है, अतः विष्म की अनुत्पत्ति ही माल का फल है' यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विघ्न की अनुत्पत्ति का अर्थ है विघ्नका प्रागभाष, और प्रागभाव होता है अनादि, अतः उसे मकल का फल अर्थात् उत्पाद्य मानना सम्भव नहीं है। 'मङ्गल न करने पर मालरूप प्रतिबन्ध के न होने से विघ्न के कारणों से घिन को उत्पत्ति अवश्य होगो, और विघ्नकी उत्पसि होने पर विघ्न का प्रागभाव नष्ट हो जायेगा अतः विघ्न की उत्पत्ति का प्रतिबन्धक खड़ा कर विघ्न प्राणभाष की रक्षा करने के लिये माल का अनुष्ठान आवश्यक होने से यह मानना उचित है कि विघ्न प्रागभाव की रक्षाही . मकल का फल है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि विधन प्रागभाव की रक्षा का अर्थ है, आने वाले काल के साथ विधन प्रागभाव का सम्बन्ध , और उसके लिये आवश्यक है काल और प्रागभाष दोनों का होना, जिसमें प्रागभाव पहले से विद्यमान है और काल प्रवाहकम से स्वयं उपस्थित होता रहेगा, फलतः काल और प्रागभाय इन दोनों सम्ब. धियों के विद्यमान होने से उनका सम्बन्ध स्वयं होता रहेगा, उसके लिये माल की कोई अपेक्षा न होगी, दोनों लम्बन्धियों के होते हुए भी यदि उनका सम्बन्ध न हो पाता तो सम्बन्ध को सम्पन्न करने के हेतु माल की अपेक्षा हो सकती थी, और यह स्थिति तब होगी जब उनका सम्बन्ध घट और भूतल के संयोग के समान सम्बन्धियों से भिन्न होता पर यह बात नहीं, क्योंकि काल और प्रागभाव का सम्बन्ध सम्बन्धियों से भिन्न न हो कर तरस्वरूपात्मक ही है, अतः उसके लिये किसी अन्यकी अपेक्षा नहीं है। १ प्रागभाव का अर्थ है वह अभाव, जो अनादि कालसे होता हुआ, वस्तु की उत्पत्ति से पूर्व उसके उत्पत्ति स्थान में रहता है और वस्तु को उत्पत्ति होते ही नष्ट हो जाता है, जैसे तिल में तैल का अभाव, जब तक तिल का पेषण नहीं होता तब तक तिल में तेल का अभाव रहता है, तिल का पेपण होने पर तैल की उत्पत्ति होते ही तिल में रहने वाले तैलाभाव का नाश हो जाता है। पेषण से पूर्व तिल में तेलका अभाव कब आया, यह नहीं बताया जा सकता, इस बारे में तो केवल इतना ही कहा जा सकता है कि तिल में तैल का गभाव अनादि है, उसका कोई प्रारम्भकाल नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि तिल तो स्वयं सादि है तो उसमें रहने वाला तेल का प्रागभाव अनादि कैसे हो सकता है ? इसका उनर यह है कि यतः तिल के साथ तेल के प्रागभात्र का जन्म नहीं होता अतः यह तिलकी उत्पत्ति से पूर्व भी रहता है, किन्तु उस समय वह केवल काल और दिशा में ही कालिक और दैशिक सम्बन्ध से विद्यमान रहता है, जब तिल उत्पन्न होता है तब उसमें बह स्वरूप सम्बन्ध से रहने लगता है, तिल के स्वरूप को ही तेल प्रागभाव का सम्बन्ध माना जाता है, काल, दिशा या अन्य किसी वस्तु के स्वरूप को उसका सम्बन्ध नहीं माना जाता, अतः तैल की उत्पत्ति से पूर्व तैल प्रागभाव के सर्वध अनादि काल से होते हुए भी किसी अन्य वस्तु में स्वरूप सम्बन्ध से उसकी स्थिति नहीं होती । तिल के साथ तिल में तेल प्रागभाव की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि सा मानने पर तिल से पूर्व तैल प्रायभाव का अभाव मानना Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० वा० समुचय (स्पा० ) शिष्टाचार परिपालनं मङ्गलफलमित्यपि वार्त्तम्, तत्परिपालनस्यादृष्टद्वारामी प्लससिद्धिहेतुत्वे मङ्गलस्यैवादृष्टार्थत्वौचित्यात् विनमविनाश्य धर्मविशेषस्य समाप्त्यहेतुत्वे विनाशस्यैवाश्यकत्वाच । किं च शिष्टाचारेण विधिवोधितकर्तव्यत्वमनुमाय मङ्गले प्रवृत्तिरेव तत्परिपालनम्, न सा तत्फलं किन्तु तज्ञ्जनिकेति । २० 'शिष्टजनों का यह आधार है कि ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल किया जाय, मङ्गल न करने से इस शिष्टाचार का भङ्ग होगा, अतः इस शिष्टाचार के परिपालनार्थ मङ्गल का अनुsara आवश्यक होने से यदि कहना उचित है कि उक्त शिष्टाचरण का पालन ही मङ्गल का फल है। किन्तु यह कहना ठीक नहीं हैं, क्योंकि शिष्टाचार का पालन स्वयं कोई इष्य नहीं है, अतः प्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति रूप इष्ट की सिद्धि के लिये ही वह उपादेय हो सकता है, उसकी यह उपादेयता भी उसे समाप्ति का साक्षात् कारण मान कर नहीं उपपन्न की जा सकती, क्योंकि समाप्ति होने से विर पूर्व ही नष्ट हो जाने से वह शिष्टाचार पालन समाप्ति का साक्षात् कारण नहीं हो सकता । अतः अदृष्ट द्वारा दी उसे समाप्ति का कारण मानना होगा, तो फिर जब उसे भी अदृष्ट द्वारा ही समाप्ति का का रण मानना है तो उसकी अपेक्षा तो यही उचित है कि महल को ही अष्ट द्वारा समाप्ति का कारण मान लिया जाय, मङ्गल और समाप्ति के बीच शिष्टाचारपरिपालन १ को खड़ा कर उसे समाप्ति का कारण क्यों माना जाय इसके अतिरिक्त यह भी एक विचारणीय बात है कि शिष्टाचार पालन या जससे उत्पन्न होने वाला अष्ट भी वित्तध्वंस को उत्पन्न किये बिना तो समाप्ति का कारण होगा नहीं, तो यदि बीच में विघ्नध्वंस को मानना अनिवार्य ही है तो फिर उसी को शिष्टाचारपालन या तजनित अ का फल मानना उचित है, न कि समाप्ति को उसका फल मानना उचित है । इस सन्दर्भ में यह बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि विचार करने पर शिष्टाचारपरिपालन का जो स्वरूप सामने आता है उसे देखते हुए शिष्टाचारपरिपालन को महल का फल मानना सम्भव नहीं प्रतीत होता, जैसे ग्रन्थ के आरम्भ में शिष्टजनों द्वारा मङ्गल करने की परम्परा को देखकर यह अनुमान किया जाता है कि इस प्रकार का कोई विधिशास्त्र - कर्तव्यता बोधक शास्त्र अवश्य है जिससे शिष्टजनों को ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल की कर्तव्यता का बोध होता है; क्योंकि यदि ऐसा शास्त्र न होता तो शिष्टसमाज में ग्रन्थ के आरम्भ में मकूल करने की परम्परा प्रतिष्ठित न होतो, इस होगा, और तेल प्रागभाव के अभाव का अर्थ होगा तैल का होना, जो तिल से पूर्व कथमपि सम्भव नहीं है । 'तैल प्रागभाव का अभाव होने पर भी तैलात्यन्ताभाव के कारण तेल के होने की आपत्ति का परिहार हो सकता है,' यह कहना ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि तैल का कालात विरोध तैल प्रागभाव और तैलध्वंस के ही साथ होता है, तैलास्यन्ताभाव के साथ नहीं होता, क्योंकि तेल और तैलात्यन्ताभाव दोनो स्थान मेद से एक काल में रहते हैं । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व द्वि० वि० (स्या० ) न चाचारप्राप्ताविलङ्घने प्रत्यवायस्मरणात् प्रत्यवायित्व पर्यवसन्नाशिष्टत्वशङ्कानिरास एव तत्फलं तत्परिपालनमिति वाच्यम्, तादृशशक्ङ्कायाः शिष्यावधानप्रतिपक्षत्वेऽपि समाप्त्यप्रतिपक्षत्वात्, 'कामनाविशेषनियतकर्तव्यता कस्य मङ्गलस्य तदभावेनाकरणेsपि न प्रत्यवायः' इति विशेषदर्शनेन वच्छानिवृत्तेश्च । तस्माद् मङ्गलं निष्फलमिति चेत् ? अनुमान से अपेक्षणीय विधि शास्त्र का ज्ञान होने पर उससे महल की कर्तव्यता का अगम होकर मङ्गल के अनुष्ठान में नये ग्रन्थकार की प्रवृत्ति होती है। प्रन्थारम्भ में महल करने की यह प्रवृत्ति ही मङ्गल के सम्बन्ध में शिष्टाचार का परिपालन है । स्पष्ट है कि यह प्रवृत्ति मङ्गल से पूर्व होती है, अतः यह मङ्गल का फल नहीं हैं किन्तु मङ्गल का कारण है, क्योंकि इस प्रवृत्ति से ही मङ्गल का उदय होता है, इस लिये शिष्टाचार का परिपालन मङ्गल का फल नहीं हो सकता | "ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल करना एक शिष्टाचार प्राप्त कार्य है और शिष्टाचारप्राप्त कार्य के परित्याग को शास्त्र में प्रत्यवाय (पाप) का जनक माना गया है, अतः जो प्रन्थकार ग्रन्थके आरम्भ में मङ्गल न करेगा उसके विषय में यह शेङ्का हो सकती है कि यह ग्रन्थकार शिष्टाचार प्राप्त कर्तव्य का उल्लखन करने के कारण अशिष्ट और प्र त्यवाय का भागी है । प्रन्थकार के सम्बन्ध में अशिष्टत्व को यह शङ्का न हो, पतदर्थ उसके लिये यह आवश्यक है कि वह ग्रन्थ के आरम्भ में भङ्गल करे, इस प्रकार अशि शङ्का का निरास ही मङ्गल का फल है और यही महल के सम्बन्ध में शिष्टाचार का परिपालन है" यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि मङ्गल करने पर ग्रन्थकार में अ शिष्टत्य की शङ्का होने या उसके प्रत्यवायभागी होने से उसके बनाये ग्रन्थ के अध्ययन में शिष्टजनों की प्रवृति का प्रतिबन्ध हो सकता है किन्तु ग्रन्थ की समाप्ति का प्रतिबन्ध नहीं हो सकता तो जब मकूल न करने पर ग्रन्थ की समाप्ति में कोई बाधा नहीं हैं तब ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल करने का प्रयास व्यर्थ ही है । यदि यह कहा जाय कि "जैसे ग्रन्थ की समाप्ति ग्रन्थकार को काम्य होती है, उसी प्रकार उसे यह भी काम्य होता है कि उसके बनाये ग्रन्थ के अध्ययन में शिष्यजनों की प्रवृत्ति हो। पर मङ्गल न करने से ग्रन्थकार में अशिष्टत्व की शङ्का होगी और उसके ग्रन्थ को अशिष्टरचित जानकर उसके अध्ययन में शिष्यजनों की प्रवृत्ति न होगी, अतः प्रवृति प्रतिबन्धकभूत अशिष्टत्व शङ्का के निरासार्थ मङ्गल का अनुष्ठान आवश्यक है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मङ्गल न करने से ग्रन्थकार में अशित्य की शङ्का अथवा प्रत्यवाय का उदय नहीं हो सकता है यह शङ्कादि की बात तब हो सकती थी, जब ग्रन्थ के आरम्भ १ यहाँ शङ्का का अर्थ है भ्रम न कि सन्देहात्मक भ्रमविशेष, क्योंकि जिस बुद्धि को शङ्का शब्द से निर्दिष्ट करना यहाँ अभी है, वह एक वस्तु में परस्पर विरोधी भाव और अभाव का अवगाहन न करने से सन्देहलम नहीं है । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा. वा० समुच्चय - - (स्या०) अत्रोच्यते- विघ्नथ्यंस एव मङ्गलं हेतुः, न चोक्तव्यभिचारः, प्रायश्चित्तादीनामपि मालत्वात् । 'प्रारिप्सितप्रतिबन्धकदुरितनिवृत्त्यसाधारणकारणं मालम्' इति हि सल्लक्षणे परैर्गीयते, तत्र चास्माभिलाषवात् 'प्रारिप्सितप्रतिबन्धक' इति विशेषण त्यज्यत इति । तदिदमुक्तमाकरे-'स्वाध्यायादेपि मगाळत्वाविरोधात' इति । में माल के अनुष्ठान को शास्त्र में अवश्य कर्तव्य बताया गया होता, पर ऐसा कोई शास्त्र नहीं है। इसके विपरित पस्तुस्थिति यह है कि 'शास्त्र में मङ्गलानुष्ठान को अवश्य कर्तव्य म बताकर एक विशेष कामना की पूर्ति के लिप उसे कर्तव्य बताया गया है, अतः उस कामना के अभाव में माल न करने से प्रत्यवाय नहीं होता,' इस शान का होना स्वाभाविक है, तो फिर इस शाम से ही ग्रन्थारम्म में माल न करने वाले प्रन्धकार में अशिष्टत्व शङ्का का निरास हो जायगा अतः उक्त शङ्का के निरासार्थ मङ्गल करने की कोई आवश्यकता नहीं है। ___ उपर्युक्त युक्तियों से मङ्गल के सभी सम्भवित फलों का निराकरण हो जाने से यह निधियाद है कि मङ्गल का कोई फल नहीं हैं, बद्द नितान्त निष्फल है। (मङ्गल सफल है-उत्तर पक्ष) इस आक्षेप के उत्तर में व्याख्याकार उपाध्याय श्री यशोविजयजी का कहना है किमङ्गल निष्फल नहीं है, क्योंकि विघ्नध्वंस को मङ्गल का फल मानने में कोई बाधा नहीं है। प्रायश्चित्त बादि से उत्पन्न होने वाले विध्नध्वंस को ले कर जो व्यभिचार बताया गया है, यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रायाश्चित आदि भी मङ्गल ही है, और वह इस प्र. कार कि अन्यलोगों ने मङ्गल का जो यह लक्षण बताया है कि 'प्रारम्भ करने को अभिमत कार्य को पूर्ति के प्रतिबन्धक विघ्न के बिनाश का जो कारण हो यह मङ्गल है' उसमें प्रतिबन्धकपर्यन्त भाग को 'निकाल देने पर मङ्गल का यह लघु लक्षण लब्ध होता है कि 'विघ्म के विनाश का जो कारण हो वह मङ्गल है।' इस लक्षण के अनुसार विघ्न का नाशक होने से प्रायश्चित्त आदि भी मङ्गल में अन्तर्भूत हो जाता है। 'स्थाध्याय मादि को मङ्गल मानने में कोई विरोध नहीं है' यह कह कर *आकर ग्रन्थ यानी विशेषावश्यक भाष्य में भी इस बात की पुष्टि की गयी है। १. लक्षण में प्रतिबन्धक पर्यन्त भाग को रखने पर उक्त लक्षण से प्रायश्चित आदि का संग्रह न हो सफेगा, क्योंकि प्रारिप्सित कार्य के प्रतिबन्धक धिन का नाश करने के उद्देश्य से प्रायश्चित आदि का विधान न होने के कारण वह प्रारिप्सित कार्य के प्रतिबन्धक विश्न का नाशक नहीं होता, अतः लश्चग से उक्त भाग को निकाल कर ही उसके द्वारा प्रायश्चित आदि में मङ्गलल्व का उपपादन किया जा सकता है । २ 'आकर' यह श्री जिनभद्रगणि समाश्रमणकृत विशेषावश्यक भाष्य का एक सांकेतिक नाम है । अन्य शास्त्रों में भी 'आकर' शब्दसे इसी का उल्लेख मिलता है, एवं 'पदुक्तमाकरे' कर के निर्दिष्ट उद्धरण विशेषावश्यक भाष्य में प्राप्त होता है । यहाँ उल्लिखित 'स्वाध्यायादेररि मनलत्वाविरोधात्' पाठ भी उसी भाष्य की टीका का है। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० स० टीका प हिं० वि० __ तथाऽपि नानेन रूपेण हेतुत्वम्, आत्माश्रयान्, किन्तु नतित्वादिना प्रातिस्विकरूपेणैव, इति व्यभिचार एवेति चेत् ? न, नत्याघभिव्ययभावविशेषस्यैव निश्चयतो दुरितक्षयहेतुत्वात् निकाचितकर्मणश्वानपवर्तनीयत्वाद् न बलवतो विघ्नस्य नाशः ।। यदि यह कहा जाय कि 'प्रायश्चित्त आदि को मङ्गल मान लेने पर भी माल को दु. रितनाशकाष रूप से विनध्धंस का कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि नमस्कार आदि विजातीय मङ्गलों को विघ्ननाशकत्वरूप से विघ्नध्वंस का कारण मानने पर विघ्ननाश करव और विघ्नध्वंसकारणस्य मेदन में से आत्मानयोगास दोष के भय से यदि मतित्व आदि प्रातिस्विकरूप से मङ्गलों को विश्नध्वंस का कारण माना जायगा तो पकजातीय मङ्गल से उत्पन्न होने वाले विनध्वंस के प्रति अन्यजातीय महल का व्य. भिचार होगा'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैसे निश्चयनय मानता है इस प्रकार बाह्य मति आदि विजातीय मङ्गलों को चिनिध्वस का कारण न मान कर उनसे अभिव्यक्त शुभभाषात्मक भावविशेष को ही विनध्वंस का कारण मान लेने में कोई दोष नहीं है। बाह्य मस्यावि मङ्गल को विनवंस का कारण न मानने पर विघ्नध्यंस के लिये नत्यादि बाह्य मजल की उपादेयता न होगी, यह शङ्का नहीं की जा सकती क्योंकि विघ्न के नाशक भा. पषिशेषकी अभिव्यक्ति के लिये उसकी उपादेयता अक्षुण्ण बनी रहेगी । यह भी ध्यान में रहे कि बाय मङ्गल के कई प्रकारों का अनुगम नहीं हो सकता किन्तु उनसे अभिव्यक्त भावविशेष अनुगत होता है, उसका विधन के साथ नाश्यनाशकभाव मानने में व्यभिचार १. आत्माश्रय-यह दोप तब होता है जब किसी वस्तु की उत्पत्ति, स्थिति अथका ज्ञप्ति के लिये उसी वस्तु की उत्पत्ति स्थिति या जप्ति अपेक्षणीय हो जाती है, जैसे विघ्नध्वंस को ही यदि विघ्नवस का कारण या आश्रय माना जाय अथवा उसके ज्ञान को ही उसके ज्ञान का साधक माना जाय तो यह मान्यता आरमाश्रयदोष से ग्रस्त होगी, जिसके कारण विध्वंस की न उत्पत्ति ही हो सकेगी, न स्थिति ही हो सकेगी और न उसका ज्ञान ही हो सकेगा । विपनाशकत्व को विनध्वंसजनकता का अवच्छेदक मानने में ज्ञप्ति में आत्माश्रय है, क्योंकि अवच्छेद्यके ज्ञान में अवच्छेदकज्ञान के कारण होने से विघ्नध्वंसजनकता के ज्ञान में उससे अभिन्न विघ्ननाशकत्व का ही शान प्रकृत में अपेकणीय हो जाता है। २. प्रातिस्विक-इसका अर्थ है प्रत्येक 'स्व' में रहनेवाला, माल के कई स्व-स्वरूप है, जैसे नति. देवनन्दन, प्रार्थना, वस्तुनिर्देश आदि, इनमें नति, प्रार्थना आदि प्रत्येक 'स्व' में रहने वाले नतित्व आदि धर्म नति आदि के प्रातिस्विक रूप हैं । ३. भावविशेष-जैन शास्त्रों में आत्मा के शुभ-अशुभ एवं शुद्ध-मलिन अध्यवसाय-परिणति को भाव कहते हैं । वे संक्लेश व विशुद्धि के नाम से प्रसिद्ध है। राग द्वेष काम क्रोधादि काषायिक भाव सक्लेश रूप मलिन अध्यवसाय है। बैराग्य-समादि उपशम-संयमादि के भाव विशुद्धि रूप शुभ अव. साय है। ज्यों ज्यों संश्लेश घटता है स्यों खो विशुद्धि बढ़ती हैं। अब रागादि में दो विभाग है, ६, प्रशस्त, २. अप्रशस्त 1 अप्रशस्त कोटि के राग द्वेष वैषयिक इट-अनिष्ट खानपान-घन-निर्धनता-स्नेह-शत्र आदि पर होते हैं। वे अशुभ भाव हैं । प्रशस्त कोटि का राग परमात्मा-सद्गुरु-शील-संयम-तप-जप आदि पर व द्वेष हिंसा, असल्प आदि पर होता है । वे शुभ भाव है। अशुभ भाव से अशुभ कर्म बन्ध व शुभ भाव से शुभ कर्म बन्ध होता है। देखिए उपदेशमाल्य गाथा-"जज समय जीवो...' | इसीलिए कहा जाता है 'उपयोगे Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाबासमुन्य नहीं होता है। व्यवहारनप से मान्य विघ्न व बाह्य मङ्गलके नाश्प नाशक भाष में व्यभिचार देख कर निधय नय मजलाभिव्यगथ भावषिशेष को ही विष्म का माशक मानता है। • यदि यह कहा जाय कि मङ्गल से अभिव्यक्त भावविशेष को विघ्न का नाशक मानना उचित नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर मकल से भाव विशेष को अभिव्यक्ति होने पर भी बलधान घिन का नाश न होने से व्यभिषार की आपत्ति होगी, तो यह ठीक नहीं है स्पोंकि 'निकाचित कर्म में अपवर्तन नहीं होता । फलतः मङ्गल व अनिकाचित विघ्नों के माश का कार्य-कारण भाव प्राप्त होता है । बलवान चिन्न पक निकाचित कर्म है अतः पाह्य माल द्वारा अभिव्यक्त भावविशेष से उस में अपवर्तन नहीं हो सकता, फिर भी कोई व्यभिचार नयोंकि मनरल था इससे अभिम्पत भावविशेष उम्ही विनों में अपवर्तनका कारण होता है, जो निकाषित नहीं होते। निकाचित कर्म तो संक्रमण-उद्वर्तन-अपवर्तन आदि सर्व करणों के अयोग्य होता है। अगर कहा जाय कि "शब्दादिस्वरूप नमस्कार आदि जितने भी मङ्गल हैं उन्हें . पने अव्यर्वहित उत्तरक्षण में होने वाले विघ्ननाशका कारण मानना चाहिये । इस रूप में माल को विघ्नध्वंस का कारण मानने पर कोई दोष नहीं हो सकता, क्योंकि जो विन भवंस जिस भङ्गल के अव्यवहित उत्तरक्षण में होमा, वह मङ्गल उस विघ्नध्वंस के पूर्व अवश्य रहेगा, अन्यथा वह विषनध्वंस उस मङ्गल के अव्ययहित उसरक्षण में होने वाला विनध्वसन कहा जायेगा' तो यह उचित नहीं, क्योंकि ऐसे कार्य- कारण भाव से प्रति नियत मङ्गल में उपादेयता का ज्ञान नहीं हो सकेगा जब कि भावविशेष को कारण व बाय मङ्गल को उसका अभिव्यञ्जक मानने पर मङ्गल में उपादेयता का ज्ञान हो सकेगा। धर्म, व परिणामे बन्ध,'--धर्म आरमा (चित्त) के शुद्ध उपयोग में है, व कर्मबन्ध आत्मा के शुभाशुभ परिणाम (माघ) के अनुसार होता है । शुद्ध उपयोग आरमजागृति स्वरूप है. कपायोपशमन अपर नाम संयम विशुद्धि है। यही विशुद्ध अभ्यवसाय है । इससे कर्मक्षय कर्मनिर्जग होती है | शुभ भाव में जितना विशुद्धि अंश है उतना कर्मक्षय, व जितना प्रशस्त रागादि अंश है उनना शुभ कर्म बन्ध होता है। अब अगर बाह्य से मङ्गल रूप परमात्म-नमस्कारादि प्रवृत्ति हो कि अभ्यन्तर में कोई मानाकांक्षादि मलिन भाव है, संकलश है, तो वहां विशुद्धि न होने से दुरितक्षय नहीं होता। वह माल ट्रव्यममल है। नाममङ्गल-स्थापनामङ्गल-ट्रव्यमाल-भायमाल इन चार मङ्गलों में से भावमइस ही अवश्य फलोपधायक होने का नियम है । इसमें अभ्यन्तर' में विशुद्धि विशुद्ध अध्यवसाय समन्विन ही रहती है | यही 'भावविशेष' है। निश्चयनय इसी को विनरूप दुरित का नाशक मानता है । व्यवहाग्नय बाद्य मङ्गल नमस्कारादि को दुरितनाशक कहना है । किन्तु इसके पीछे मन्वन्तर में अगर विद्धि न हो नो विनवस नहीं होता, अतः इसको विघ्ननाश हेतु कहने में व्यभिचार होगा। इसलिए, निश्चयनय आम्बन्तर भावविशेष को ही मङ्गल मानता है और विनदुरितनाश का कारण कहला हैं । यहां भावविशेष कभी तो बाह्य नमस्कारादि का प्रयोजक होता है, एवं कभी बाह्य नमस्कारादि से प्रयोज्य-(प्रयुक्त होता है। अत: बाह्य नति नमस्कारादि पर से यह साप्य होता है या उत्पाद्य होता है। 'अभिव्यक्त-अमिव्यङ्गय' शब्द ज्ञाय-उत्पाद्य दोनों अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए टीका में कहा गया है Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का दीका व हिं घि 'नति आदि से अभिव्यङ्गय भावविशेष' | यह भावविशेष जो उपर्युक्त विशुद्धि स्वरूप है यह विशुद्धि स्वाध्याय में भी आती है, एवं प्रायश्चित में भी अतः विशुद्धिरूप भावविशेषात्मक मङ्गल में जो मालप यानी विद्युद्धित्व है वह भावनावश्चित -भावस्थाध्याय-भावनमस्कार सत्र में अनुगत है। इस रूप से विशुद्धिरूप मङ्गल का अनिकाचित विनों के नाश के साथ अन्यभिचरित कार्य कारणभाव होता है। १. निकाचित-इसका अर्थ है संक्रमण अपवर्तनादि करणों के अयोग्य, यानी विषाकोदय से अपश्य भोल्य । अवश्यभोक्तव्य कर्म का नाश भोग से ही सम्पादित होता है, अन्य साधनों से नहीं होता, दृष्टग्य 'पंचसंग्रह निधनि-निकामना गाथा १, गोम्मटसार कर्मकाण्ड गाथा ४४० २. अपवर्तन-कर्म पौद्गलिक है, इस पर कई करण यानी प्रक्रिया लगती है, जैसे कि, बन्धन-संक्रमण-उर्तन-अपवर्तन-उसरणा-उपशमन, नित्ति, निका बना । इनमें निकाचना प्राप्त कर्म को पूर्व के कोई संममय, अपवर्तन आदि करण नहीं लगते । वह कर्म तो अब सकल करण के लिए अयोग्य बन गया । करणों में जनतन अपवर्तन ये कम की कालभूति एवं रस में ऋ द्धि -हास स्वरूप हैं | (द्रष्टव्य-पंचसंग्रह 'उद्वर्तना' अपवर्तना प्रकरण गा०९-१०) चित्त के शुभाशुम भाव से यह होता है। निकाचित कर्म के स्थिति-रस में अपवर्तना न हो सकने से उसे अपवर्तनीय कहा गया । इसीलिए भावविशेष स्वरूप मंगल से अनाश्य अविकृत रहता हुआ यह मान भोग से ही नष्ट होता है । ३. शब्दादिस्वरूप नमस्कार—यह पहले कहा जा चुका है कि नमस्कर्ता में नमस्कार्य की अपेक्षा अपकार्पण या नमस्कार्य में नमस्कर्ता की अपेक्षा उत्कर्ष का बोध नमस्कर्ता के जिस व्यापार से होता है उसे नमस्कार कहा जाता है। नमः आदि शब्दों के प्रयोग से, शरीर के उत्तमांग के अवनमन से, दोनों हाथों के अलिबन्ध आदि से उक्त बोध होने के कारण नमस्कार शब्दादिरूप होता है । किन्तु इसमें स्वाभ्यायादिरूप माल अन्तभूत नहीं हो सकेगा | इसलिए नमस्कार को द्रव्य-भावसकोचरूप माना गया है। ४. अपने अन्यवलित० इसका आशय यह है कि नमस्कार, प्रार्थवा, स्वाध्याय आदि जितने भी मङ्गल हैं, उनमें मङ्गलव आदि कोई अनुगत धर्म नहीं है, क्योंकि मङ्गलल्व को विघ्ननाशकताके अपच्छेदक जाति के रूपमें बदि स्वीकार किया जायगा तो शब्दत्य आदि के साथ मांकर्य हो जायगा, जैसे शब्दख है 'कुमकुरो कुकृति-कुत्ता कता है' इस मङ्गलानात्मक शब्दमें, एवं मनसत्य है शब्दानात्मक 'करशिरसंयोग' आदि में, शब्दत्व और मनालस्त्र दानी हैं 'नमः' आदि शब्दमें, अतः सांकर्य होने से मङ्गलस्य की जाति नहीं माना जा सकता । जाति से आंतरिक्त किसी अन्य रूपमें उसे अनगत सिद्ध करने की कोई युक्ति नहीं है, अतः विभिन्न प्रकार के मंगलों को किमी अनुगत रूप से विनध्वंसका कारण मानना सम्भव न होने से विभिन्न मङ्गलों को विभिन्न रूपों से ही विध्वंस का कारण मानना होगा,किन्तु वह सम्भव नहीं है, क्योंकि एक प्रकार के मंगल से उत्पन्न होने वाले त्रिमध्वस के प्रति दूसरे प्रकार के मङ्गल में न्यभिवार हो जायगा, इस लिये कह सकते हैं कि महर में विध्वंस की कारणताका समर्थन करने का एक मात्र यही मार्ग है कि तत्तत् मंगल को सत्ता मंगल के अव्यवहिन उसर क्षग में होने वाले विनम्वंस काही कारण माना जाब. क्योंकि इस प्रकार के कार्य कारणभाव में व्यभिचार होने की कोई सम्भावना नहीं रहती। किन्तु ऐसे कार्यकारणभाव सनद मंगल तत्तद विध्वंस का हाने से सामान्यरूप से 'मंगल विनास का कारण,' यह न जानने पर विनवसार्थी मंगन में कैसे प्रवर्तमान होगा ? __ अगर कहा जाए कि 'अपने विध्नथ्वसविशेष मंगलन्निशेष का कार्यकारणभाव जान कर मंगल में प्रवृत्ति कर सके न ?' तो यह कहना भी ठोक नहीं, क्योकि बिनविशेष व उमका वंस अतीन्द्रिय है और यह पहले उपस्थित होने का अनुमानगम्य भी नहीं, तो इस त्रिनवंचिशेष व मंगलविशेष का कार्यकारणभाव कैसे धान द्या. बा.४ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० वा समुच्य (स्या०) परे तु विघ्नश्वंस तत्प्रागभावपरिपालन-समाप्तिप्रचयगमन-शिष्टाचारपरिपालनानां सर्वेषामेवाऽविनिगमाद् मङ्गलफलत्वम्, तत्तत्कामनया शिष्टाचारेण तत्तत्फलकत्वोन्नय नात्, "अनुमानरूपमरमानात् नमागनं प्रमाण म्यात" (नैमि०१.३.१५) इतिन्यायेन पंथाचारमेव श्रुतिकल्पनात् । ___ अन्य लोगों का कथन यह है कि विनवस, विघ्न के प्रागभाव का परिपालन, समाप्ति पर्यन्त प्रन्थ का निर्माण-प्रन्थ की समाप्ति और शिष्टाचार का परिपालन यह सभी माल के फल है, क्योंकि इनमें आमुक ही मङ्गल का फल है अमुक नहीं है, इस बात में कोई "विनिगमक युक्ति नहीं है। यदि यह प्रश्न हो कि उक्त सभी को मङ्गल का फल मा नने में क्या युक्ति है ? तो इसका उत्तर यह है कि उक्त सभी फलों की कामना से म. अल करने का शिष्टाचार ही उन सभी को मङ्गल का फल सिजू करने की युक्ति है। कबने का आशय यह है कि शिष्टजन विघ्नध्वंस आदि सभी फलों की कामना से मङ्गल का अनुष्ठान करते है, अतः यह अनुमान कर लेना सहज है कि मङ्गल यह विघ्नध्वंस आदि सभी फलों का जनक है, क्योंकि उन सभी फलों की कामना से शिष्टमनों द्वारा यह अनुठित होता है। यदि यह कहा जाय कि शिघ्रजनों द्वारा उन सभी फलों के लिये माल का अनुष्ठान मानने पर "तत्तरफलकामः मङ्गलमाचरेत्-तसत् फल की कामना से माल का मनुष्ठान करना चाहिये' इस प्रकार के अतिवचन की कल्पना करनी होगी, और यह का स्पना उचित न्याय का समर्थन न पाने के कारण सम्भव नहीं है, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'अनुमान का विषय व्यवस्थित होता है अतः व्यवस्थित विषय से युक्त ही श्रुतिरूप प्रमाण का अनुमान करना उचित है' इस 'जैमिनीय न्याय के अनुसार शिप्रसमाज में प्र. चलित आधार के अनुसार ही श्रुति की कल्पना मान्य होने से तत्तत् फल की कामना से मगल का अनुष्ठान करना चाहिये' इस आशय के श्रुति की कल्पना सर्वथा सम्भवित है। सकेगा? व प्रवृत्ति में इष्ट साधनता का ज्ञान कारण होने से मंगल में इष्ट विनध्वंस विशेष की साधनता के ज्ञान विना महल में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी ? इसलिए यही मानना उचित है कि घिनश्वस सामान्य के प्रति बाह्य नत्यादि मंगलसे अभिव्यक्त विशुद्धिरूप भावविशेष ही कारण है । यह ज्ञान रहने पर संभवित विनध्वंस का अर्थी का भावविशेष एवं उसके अभिव्यजक मंगल में प्रवृत्त होना युक्तियुक्त है । निकाचित कर्म तो अल्प होने से निकाचित विनकर्मके स्थल में व्यभिचार का ज्ञान मंगल प्रवृत्ति में बाधक नहीं होता है। दिखाई पड़ता है कि निकाचित कर्माधीन बलपान व्याधि स्थल में औषध का व्यभिचार ज्ञात रहने पर भी ऐसे कर्म अल्प होने के कारण वह व्यभि चार नगण्य मान कर न्याधिनाशार्थ औषध कारणता का ज्ञान प्रन्ति उपयोगी होता है व लोक औषधोपचार में प्रवृत्ति करते हैं। १ विनिगमक-दो पक्षों के उपस्थित होने पर उनमें से किसी एक पश्च का ही समर्थन करने वाली युक्ति को विनिगमक या विनिगमना कहा जाता है। २. 'अनुमानज्यवस्थानात् तत्मयुक्त प्रमाण स्यात्' यह पूर्वमीमांसा–जौमिनिसून के अध्याय १, पाद ३, होल्धकाधिकरण का १५ वां सूत्र है, इसका अर्थ इस प्रकार है-अनुमान-श्रुति के अनुमापक स्मृति और शिष्टाचार के विषय व्यवस्थित होते हैं, अतः उनसे व्यवस्थित पुरुषों से सम्बन्धित ही श्रुतिरुप प्रमणा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका व हिं० वि० (स्या०) न चैकमङ्गलप्रयोगाइनेकफलापत्तिः, अनेकफलबोधकश्रुतावुद्देश्यसाहित्याविवक्षणात; अन्यथा 'सर्वेभ्यो देर्शपूर्णमासौ' इत्यत्रापि तत्प्रसङ्गात् । कादम्बर्यादौ समाप्तिकामनया मङ्गलाचारे मानाभावाद् न दोष इत्याहुः । अनेकफलकारकर्मण उद्देश्यानुद्देश्य-प्रधानाप्रधानबहुविधफलदर्शनाद् नैतद् युक्तमित्यपरे । यवि यह कहा जाय कि 'विघ्नध्वंस आदि उस सभी को यदि मङ्गल का फल माना जायगा तो पक मशाल का अनुष्ठान करने पर सभी फलों को एक साथ उत्पत्ति होने की आपत्ति होगी अतः उक्त सभी को मङ्गल का फल मानना उचित नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जो श्रुतियां अनेक फल देने वाले कर्मों का उपदेश करती है र का केले पाकनुपान से हाथी फलों के साहित्य यानी साथ उत्पन्न होने में तात्पर्य नहीं होता। यदि क्षतियों का ऐसा तात्पर्य हो तो 'लभ्यो दर्शपूर्णमासौ-सभी फलों के लिये दर्श और पूर्णमास का अनुष्ठान करना चाहिये' इस अति के अनुसार दर्श पूर्ण मास के यक अनुष्ठान से सभी फलों की उत्पत्ति होनी चाहिये पर पेसा नहीं होता अतः अनेक फल देने वाले कर्मों के सम्बन्ध में यहि मानना उचित है कि पेसे कर्म जय जिस काम की कामना से किये जाते है तब उनसे उस फल की उत्पति होती है। शास्त्र के अभिप्रायानुसार ऐसे कर्म एक समय एक हो फल की कामना से किये जाते है जिससे पक कम से एक ही समय अनेक फलों की उत्पत्ति नहीं होती। 'जो कर्म जिस फल का जनक होता है उस कर्म से उस फल को उत्पत्ति तभी होती है, जब बह कर्म उस फल की काममा से किया जाता है'-इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक लाभ यह है कि कादम्बरी में मङ्गल के होते हुये भी समाप्ति न होने से जो का अनुमान करना उचित है । इस सूत्र द्वारा यह सिद्धान्त स्थिर किया गया है कि कुछ प्रदेशों में होली आदि पर्यों का प्रचलन देखकर उन पत्रों की कर्तव्यता के बोधक जिस श्रुतिवचन का अनुमान किया जाता हैं, वह उन फतिषय प्रदेशों के निवासियों के लिये ही सीमित न होकर मनुष्यमात्र से सम्बन्धित होता है, अतः जिन प्रदेशोंमें होली आदि पों का प्रचलन है, केवल उन प्रदेशों के निवासियों के लिये ही ये अनुष्ठेय नहीं हैं किन्तु सभी मनुष्यों के लिये अनुष्ठेय हैं | ऐसा मीमांसकमत है । ___ स्मृति और शिष्टाचार से श्रुतिका अनुमान करने के लिये इस अधिकरणमें जो न्याय निश्चित किया गया है उसे होलाकाधिकरणन्याय कहा जाता है, इस न्याय के अनुसार यह अनुमान करना पूर्णतया संगत है कि शिष्टजन मङ्गल के उत्तः फलोमें से जब जिस फट के लिये माल का अनुष्ठान करते हैं तब मङ्गल उस फल का उत्पादक होता है। १ दर्शपूर्णमासौ-वैदिक धर्म में दर्श और पूर्णमास नाम की दो दृष्टियां हैं, जिस प्रकरण में इन इष्टियों का निर्देश किया गया है, उस प्रकरण में जितने फलों की चर्चा पहले की जा चुकी है, उन सभी फलों के लिये इन इष्टियों का विधान है । उन फलों में से जिस काम की कामना से जब इन इटियों का अनुष्ठान किया जाता है तब उस फल की प्राप्ति होती है, एक साथ सभी फली की कामना से इनका अनुष्ठान श्रतिसम्मत नहीं है। (चाल) Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० वा० समुडखय (स्या० ) स्वतो मङ्गळभूत एव शास्त्रे शिष्यमतिमञ्जलपरिग्रहार्थ मङ्गलाचरणम्, अन्यथा मङ्गलवाक्यस्य शास्त्रवहिर्भावे वाक्यान्तराणामप्यविशेषाच्छास्त्रवष्टिर्भावप्रसङ्गेशास्त्रस्य चरमवर्णमात्रपर्यवसानप्रसङ्गात् इति तु भाष्यकाराभिप्रायः । तत्त्वमत्रत्यं मत्कृतमङ्गलवादादव सेयम् । तस्मात् सफलं मङ्गलम् इति युक्तं तदाचरणं ग्रन्थकारस्येति ॥ अन्वयव्यभिचार बताया गया था, वह नहीं होगा, क्योंकि उक्त व्यवस्था के अनुसार यह कल्पना की जा सकती है कि कादम्बरी में महल का अनुष्ठान समाप्ति की कामना से नहीं किया गया है, अतः मङ्गल होते हुये भी समाप्ति नहीं हुई है । इसके विरुद्ध अन्य विद्वानों का कहना यह है कि 'अनेक फल देने वाले कर्मों से उद्देश्य - मनुद्देश्य, प्रधान - अप्रधान आदि अनेक फलों की उत्पत्ति का होना प्रामाणिक है, अतः यह कल्पना उचित नहीं है कि समाप्ति की कामना से मङ्गल न किये जाने के कारण मङ्गल के रहते हुये भी कादम्बरी की समाप्ति नहीं हुई। उनका आशय यह है कि मङ्गल यदि समाप्ति का कारण है तो भले उसका अनुष्ठान समाप्ति की कामना से न भी किया गया हो किन्तु यदि उसका अनुष्ठान किया गया है, तो उससे सम्माप्ति की उत्पत्ति होनी ही चाहिये । मकल के प्रयोजन के सम्बन्ध में 'माध्यकारका अभिशय यह है कि शास्त्र तो स्वयं मङ्गल रूप ही है, फिर भी शास्त्र के आरम्भ में अन्य प्रकार के भी मङ्गल का अनुष्ठान किया जाता है, अतः उस मङ्गलानुष्टान का कोई पैसा प्रयोजन होना चाहिये जो शास्त्रनिर्माण के प्रयोजन से भिन्न हो. विचार करने से यह निश्चित होता है कि वह प्रयोजन है- 'शिष्य को म लाचरणकी कर्तव्यता के घोध का सम्पादन' स्पष्ट है कि शास्त्र के आरम्भ में मङ्गलाचरण २८ दर्शेष्टि – अमावास्या तिथिमें अग्नि की स्थापना करके शुक्ल पक्ष की प्रतिपद् तिथि में इस इष्टि का अनु Bान किया जाता है । इसमें तीन देवता और तीन द्रव्य होते हैं। देवता है इन्द्र, अग्नि और इन्द्राग्नि, द्रव्य हैं पुरोडाश, दधि और पय । शास्त्रांत विधि से तथार को जानेवाली यत्र की एक विशेष प्रकारको रोटी का नाम है पुरोडाश | अभिकी तुष्टि के लिये पुरोडाश से की जानेवाली इष्टि को 'आग्नेय', इन्द्रकी दृष्टि के लिये दधि से की जानेवाली इष्टिको 'हिन्द' इन्द्र और अग्नि दोनों की सह तुष्टि के लिये की खाने वाली इष्टि को 'ऐन्द्रपथ' कहा जाता इस प्रकार आग्नेय, एन्द्रदर्शन और ऐिन्द्रपर इन तीन इष्टियों की सम को ही 'दर्श' नामक इष्टि कहा जाता है । पूर्णमासेष्टि - पौर्णमासी तिथि में अग्नि की स्थापना कर कृष्णपक्ष की प्रतिपद् तिथि में इस का अनुष्ठान विहित हैं। इसमें तीन देवता और दो द्रव्य होते हैं। देवता हैं, अम, अभि और सोम तथा विष्णु | द्रव्य हैं पुरोडाश और आय आय का अर्थ है | अग्निकी तुष्टि के लिये पुरोडाश से की जाने वाली इष्टिको 'आग्नेय', अग्नि और सोमकी सहनुष्टि के लिये मन्त्रों का ऊँचे स्वर से उच्चारण करते हुये आज्य से की जाने वाली इष्टिको अयोमी और विष्णु की तुष्टि के लिये मन्त्रों का अत्यन्त धीमे स्वर से उच्चारण करते हुये आज्य से की जानेवालो इष्टि को 'उपांशुयाज' कहा जाता है, इन तीनों इटियों की समाप्ति को ही पूर्णमास दृष्टि कहा जाता है । १ भाष्यकार शब्द से आवश्यक निर्युष्ति पर विशेषावश्यक भाष्य की रचना करने वाले नभणी क्षमाश्रमण (वि. सं. ६५० ) का संकेत किया गया है, उन्होंने बीस गाथा में 'सीसमइमंगलपरिमद्दत्थमेत तदभिहाणं' कह कर मङ्गलाचरण के उक्त प्रयोजन का प्रतिपादन किया है । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या० क० टीका व हिं० वि० (tor ० ) अवाक्षरार्थ उच्यते-- परमः क्षीणघातिकर्मा य आत्मा सम्, प्रणम्य = भक्ति - श्रद्धातिशयेन नत्वा अल्पबुद्धीनाम् = असङ्कलिततत्तच्छास्त्रार्थग्रहणाप्रवणमतीनां सच्चानां हितकाम्यया=अनुग्रहेच्छया, शास्त्राणां बोद्धवैशेषिकादिदर्शनानां या वार्ता:= सिद्धान्तप्रवादाः, तासां समुच्चयमेकत्र सङ्कलनम्, 'दभिहित०' न्यायाश्रयणात् समु च्चिता: शास्त्रवार्ता इत्यर्थः, ता वक्ष्यामि - अभिधास्ये; नातों द्वितीयार्था नन्वयः, द्रव्यपरकदर्थान्वितस्यैव तदुत्तरपदार्थेऽन्वयात् प्रत्ययानां प्रकृत्यर्थान्वितस्वार्थबोधकनियमस्य 'तेषां मोह : पापोयान् नामूढस्येतरोत्पत्तेः' इत्यादावेव दुषितत्वात् । पाणिपाद वादय इत्यत्र पाणिपादसमाहारस्येवात्र समुच्चयस्य स्वाश्रयनिरूपितत्वसम्बंधेनावस्त्वनुभवानुपारूढत्वाद् न कल्प्यत इति दिक् । २९ होने पर उसे करके अध्येता शिव को बड़ी सरलता से यह बोध हो सकता है कि 'जैसे शास्त्रकार ने शास्त्र की रखना आरम्भ करते हुये मङ्गलाचरण किया है उसी प्रकार मुझे भी कार्य का आरम्भ करते समय मङ्गलाचरण करना चाहिये ।' मङ्गलाचरण के इस प्रयोजन की पुष्टि में भाष्यकार का यह तर्क है कि महावरण का यह प्रयोजन यदि न माना जाय तो प्रश्न होगा कि तब शास्त्र में प्रविष्ट मङ्गलवाक्य क्या शास्त्र का अंश नहीं है ? 'वह शास्त्र का अशे नहीं किन्तु शास्त्र वहिर्भूत है' यह तो sa सकते नहीं, क्योंकि तब तो वैसे मङ्गल वाक्य के समान शास्त्र के सभी अक्षरम वर्ण शास्त्रप्रविष्ट होते हुए भी शास्त्र बहिर्भूत होने की आपति होगी, फलतः शास्त्र माथ चरम वर्ण स्वरूप ही गिना जाएगा ! इसलिए मङ्गल वाक्य को शास्त्र का अंश मानना ही होगा | अलबत इस में यह आपत्ति महसुस होती है कि शास्त्र का मङ्गलवाक्यांश मङ्गल रूप होने से अर्थापत्ति से शास्त्र का अवशिष्ट अंश अमङ्गल रूप सिद्ध होगा ! और तस्वशास्त्र को मङ्गल रूप कैसे कहा जाए ?' किन्तु इस आपत्ति का निवारण तो इस प्रकार हो सकता है कि समुद्र के एक अंश को जैसे समुद्र कहने पर भी अवशिष्ट समुद्रांश में असमुद्रता की अर्थापति नहीं होती है वैसे महलवाक्य रूप शास्त्रांश मङ्गल भूत होने पर भी अवशिष्ट शास्त्रांश में अमलता की अर्थापत्ति नहीं हो सकती । अब पहन इतना रहा कि 'शास्त्र मङ्गल रूप होते हुए भी इस में मङ्गलवाक्य का क्यों प्रवेश किया गया ?' इस का उत्तर यह है कि वह प्रवेश 'शिष्यमति- मङ्गलपरिग्रहार्थ' अर्थात् शिष्य को मङ्गलाचरण की उपादेयता - कर्तव्यता का बोध कराने के लिये किया गया है । प्रस्तुत विचार का उपसंहार करते हुये व्याख्याकार ने कहा है कि इस सम्बन्ध की तत्थभूत यान उनके 'मङ्गलवाद नामक ग्रन्थ से ज्ञात करनी चाहिये । सन्दर्भ के अन्त में व्याख्याकार का कहना है कि इस सम्बन्ध में अब तक जो बातें कही गयी हैं, उनसे यह सिद्ध है कि मङ्गल सफल है, अतः ग्रन्थकारने जो मङ्गलाचरण किया है वह उचित है। मङ्गलवाद सम्पूर्ण २ श्री यशोविजयश्री का मङ्गलवाद नामक ग्रन्थ इस समय सुलभ नहीं है । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा०या० समुध्यय मूलगत मङ्गल पद्य का अक्षरार्थ इस प्रकार है --- परमारमा-जिस आत्मा ने अपने धातीकों का क्षय कर डाला है। प्रणम्यप्रणाम का अर्थ है प्रकर्ष से यानी अतिशय भक्ति और अतिशय श्रद्धा के साथ नमस्कार । अल्पबुद्धीनां सत्त्वानाम्-अल्पबुद्धिसत्त्व का अर्थ है-वे जोष, जिनकी बुद्धि विभिन्न शास्त्रों के सिद्धान्तों को, पकत्र संकलन किये विना समझने में असमर्थ रहती है। हितका म्यया-हितकाम्या का अर्थ है अनुमहकी छा। शास्त्रवार्तासमुच्चयम्-'शास्त्रवार्तासमुच्चय' शब्द में जो 'समुच्चय' शब्द सुन पक्ता है वाह 'सम्' और 'उत्' इन दो उपसगोंसे युक्त 'चि' धातु से भावरूप अर्थ में कृत्संक्षक 'म' प्रत्यय करने से निष्पन्न हुआ है। "भिहितो भायो द्रव्यवस् प्रकाशते कृत्संक्षक प्रत्यय से अभिहित भाव द्रध्यविशेषण के समान प्रतीत होता है' इस नियम के अनुसार समुउसय शब्द का संकलनरूप अर्थ शास्त्रवार्ता का विशेषण हो जाता है, तदनुसार शास्त्रवातालमुच्चय का अर्थ होता है 'बौद्ध वैशेषिक आदि समस्त दर्शन शास्त्रों के पका संग्रह किये गये सिद्धान्त, क्योंकि 'वार्ता शब्द से प्रकत में सिद्धान्तप्रवादरूप अर्थ विवक्षित है। प्रन्थकार का कहना है कि वे इस ग्रन्थ में सभी दर्शनशास्त्रों के संकलित सिद्धान्तों का प्रतिपादन करेंगे। 'शास्त्रवार्तासमुच्चयम् अभिधास्ये' इस वाक्य में समुच्चय शब्द के उत्तर में द्वितीया विभक्ति अम् का श्रवण होता है, उसका अर्थ है कर्मता । यह कर्मता अभिधास्ये शन्द के संनिधान के कारण अभिधान-कर्मतारूप है। नियमानुसार उस में द्वितीया विभक्ति के प्रतिभूत समुच्चय शब्द के सङ्कलनरूप अर्थ का अन्वय होना चाहिए किन्तु यह सम्भव ना है क्योंकि सकलम का अभिधान नहीं हो सकता, अतः उसमें सङ्कलित शास्त्रबार्ताका मन्धय होता है, जिससे शास्त्रयार्ता के प्रतिपादन की प्रतीति होती हैं। वितीयार्थ के अम्बय की इस प्रकार व्यवस्था कर देने से उसके अन्वय की अनुपपत्ति का परिहार हो जाता है, द्वितीयार्थ के अन्षय की उक्त व्यवस्था को स्वीकार करने में कोई बाधा भी नहीं है क्योंकि जहां कृत्प्रत्यय का अर्थ द्रव्य-विशेषणपरक होता है वहाँ कृत्प्रत्ययके उत्तरवर्ती पदार्थ के साथ उस प्रत्यय के अर्थ से अन्वित पूर्वपदार्थ काही अन्धय माना जाता है। अतः कृत्प्रत्ययाम्त समुच्चय शब्द के संकलनरूप अर्थ को पूर्ववर्ती पदार्थ शास्त्रधार्ता का विशेषण बनाकर संकलित शास्त्रवार्ता के उत्तरवर्ती पदार्थ शास्त्र वार्ता का अभिधानकर्मवा के साथ अन्धय मानने में कोई असङ्गति नहीं है। इस पर यदि यह शङ्का की जाय कि "समुच्चरूप सध्द के उत्तर विद्यमान द्वितीया विभक्ति के अर्थ के साथ समुच्चय शब्दार्थ का अन्वय न कर शास्त्रवार्ता का अम्घय क रने पर प्रत्यय के अर्थ में प्रकृतिभूत पद के अर्थ का अन्वय न होने से 'प्रत्यय अपने प्रकृत्ति भूत पद के अर्थ से अन्धित ही अपने अर्थ के खोधक होते हैं। इस नियम का विरोध होगा" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'सेषां मोहः पापीयान् नामूढस्येतरोत्पत्तेः अर्थात् राग शेष व मोह में मोह ही पापिष्ट है, क्योंकि मोह रहित को राग द्वेष उत्पन्न नहीं होते हैं। इस १. दृष्टव्य-पाणिभिके अष्टाध्यायी पर पतञ्जलि के महामाण्य में उपपदमति २०२११९. सार्वधातुके यक् ॥१॥६. और एकस्य सकरच ५। । । १९ सूत्रों का भाष्य । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हिं० वि० ३१ म्यायसूत्र में उत्पत्ति शब्द के उत्तर विद्यमान षष्ठी विभक्ति के अर्थ प्रतियोगिता में प्रकृतिभूत उत्पत्ति शब्द के अर्थ का अन्यय न मान कर उससे अन्धित भप्रकृतिभूत इतर शम्द के अर्थ का अन्वय स्वीकार करने से उक्त नियम दूषित होकर अमान्य हो गया है। कहने का आशय यह है कि उक्त सूत्र के 'न अमूढस्य इतरोत्पतेः' इस भाग से मोह हीम में 'इतर' शब्दार्थ राग द्वेष की उत्पत्तिका अभाव बताना अभीष्ट नहीं है। किन्तु राग द्वेष का अभाव थताना अमीष्ट है, क्योंकि 'अमूहस्य' शब्द के प्रयोग से 'न इत. रोत्पत्तः' इस अंशद्वारा उसी अभाव का प्रतिपादन सूत्रकार को अभिमत प्रतीत होता है ओ मोहाभाव से साध्य हो, और ऐसा अभाव राग द्वेष का ही अभाव हो सकता है, किन्तु राग द्वेष की उत्पत्ति का अभाव नहीं हो सकता क्योंकि उत्पत्ति के क्षणिक होने से मोह के रहते हुए भी राग द्वेष के उत्पति का अभाव हो जाने से वह अभाव मोहाभाष से साध्य नहीं है, किन्तु माह का अभाव होने पर ही सम्पन्न होने के कारण राग देष का ही अभाव मोहाभाव से साध्य है । अतः उक्त सूत्र के 'न इतरोत्पत्तेइस भाग से राण वेष के अभाष का प्रतिपादन ही मान्य है, किन्तु यह तभी सम्भव है जब 'प्रत्यय के मार्थ में प्रकृतिभूत पद के अर्थ का ही अन्वय होता है' इस नियम का परित्याग कर सूत्र के उक्त भाग में उत्पत्ति शब्दोत्तर षष्ठी विभक्ति के अर्थ में प्रकृतिभूत उत्पत्ति शम्द के अर्थ का अन्वय भ कर अप्रकृतिभूत 'इत्तर' शब्द के अर्थ राग द्वेष का अन्वय किया जाय । अतः स्पष्ट है कि प्रत्ययार्थ के अन्वय का उक्त नियम उक्त सूत्र में त्यक्त हो चुका है अतः 'शास्त्रवार्तासमुच्चयम्' में भी समुच्चय शब्दोसर द्वितीया विभक्ति के मर्थ म. मिधाम कर्मता में समुच्चय शब्दार्थ का अन्वय न मान कर उससे विशेषित शास्त्रबार्ता का अन्वय करने में कोई आपत्ति नहीं है । इसपर यह समीक्षा की जा सकती है कि " उक्त सूत्र में प्रत्ययार्थ सम्बन्धी उक्त नियम की उपेक्षा सूत्रकार की त्रुटि सूचित करती है, अतः 'शास्त्रवातासमुच्चयम्' में उस त्रुटि को स्वीकार करना उचित नहीं है, किन्तु उचित यह है कि समुश्मयशदोतर द्वितीया के अर्थ अभिधानकर्मता में 'स्वाश्रयनिरूपितत्व' सम्बन्ध से समुच्चय शम्दा. 2 का ही अन्धय माना आय, क्योंकि इस अन्धय के मानने में कोई बाधा नहीं है, और वह इसलिये नहीं है कि उक्त सम्बन्ध में 'स्व' का अर्थ है समुच्चय-सङ्कलन, उसका आश्रय है शास्त्रवार्ता और उससे निरूपित है अभियानकर्मता, अतः द्वितीयार्थ अभिधानकर्मता के साथ समुच्चय शब्दार्थका उक्त सम्बन्ध अक्षुण्ण है। प्रश्न हो सकता है कि 'शास्त्रघाता' तो अभिधेय होने से शास्त्रवार्ता अमिधान का कर्म है, अतः अभिधान-कर्मता उसके आश्रित हो सकती है, उससे निरूपित नहीं हो सकती, तो फिर समुच्चयशदार्थ का द्वितीयार्थ के साथ उक्त सम्बन्ध से अन्धय कैसे सम्भव होगा ?' इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अभिधाम का अर्थ है प्रतिपादन, और 'प्रतिपादन' का अर्थ है 'ज्ञानानुकूलव्यापार', अतः 'अमिधास्ये में जानानुकल व्यापार के बोधक 'अभि' उपसर्गयुक्त 'धा' धातु के सान्निधान में समुच्चय शदोसर द्वितीया का अर्थ है विषयितारूप कर्मता, और विषयिता होती है विषय से निरूपित, Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... . . ... . .. शा. बा. समुच्चय (स्या.) अत्राऽऽयपादेन मङ्गलं, निबद्धम्, मालेन स्वशास्त्रसिद्धावपि सन्निबधेन श्रोतृणामनुषङ्गतोऽपि मङ्गलोपपत्तेः; शास्त्रवार्तासंग्रहश्वामिधेयतयोक्तः ॥१॥ इसलिये प्रकृत में द्वितीया वियिता यह शास्त्रधाारूप विषय से निरूपित होने के कारण उसमें समुच्चयशब्दार्थ का स्वाश्रयनिरूपितत्व सम्बन्ध से अन्य मानने में कोई भनुप पत्ति नहीं है। किन्तु यह समीक्षा ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार 'पाणिपादं वादय -हायपांघ का यायन करो इसवाक्य में 'पाणिपाद' शब्द के उत्तर सुनी जाने वाली द्वितीया विभक्ति के अर्थ 'धावन के मता' में पाणिपाद शब्द के अर्थ पाणिपाद समाहार का स्थाअयनिरूपितत्व सम्बन्ध से अन्वय अनुभव सिद्ध है उसी प्रकार प्रकृत में अभिधान कर्मता से शास्त्रवार्ताओं के सच्चलन का स्वाश्रयनिरुपितत्व सम्बन्ध से अन्धय अनुभवसिद्ध नहीं है, अतः 'पाणिपाद पादय' के अनुसार 'शास्त्रवार्तासमुच्चयम्' के द्वितीया का अषय नहीं माना जा सकता । आशय यह है कि 'पाणिपान' शच. पाणि और पाद शब्दों का समाहार अर्थ में इन्द्रसमास करने से निष्पन्न होता है. अतः उसका अर्थ होता है, पाणि और पाद का समाहार । 'समाहार' का अर्थ है बुद्धिविशेषविषयता, फलतः पाणिपाद में विद्यमान जो पाणिपाद को ग्रहण करने वाली बुद्धि की विषयता, वही पाणिपाद का समाहार है, और समाहार वादन का कर्म नहीं होता, किन्तु बादन का कर्म होता है समाहार का आश्रय पाणिपाद, अतः 'पाणिपादं षादय' में बावनकर्म के साथ पाणिपाद समाहार का स्वाश्रयनिपितत्व सम्बन्ध से अन्वय अगत्या मानना पड़ता है, किन्तु शास्त्रर्वार्ता समुखश्चयम् अमिधाम्ये' में 'कदाभिहित न्याय से समुच्चयशब्दार्थ से विशेधित शास्त्रवार्ता का अभिधानकमंता के साथ साक्षात् निरूपितन्य सम्बन्ध से अन्वय हो सकता है, अतः समुच्चय शब्दार्थ का स्वाश्रयनिरूपितत्वरूप परम्परा सम्बन्ध से अन्वय मानना भी अना. वश्यक पवं अनुभव विरुद्ध है। मूल ग्रन्ध के प्रारम्भिक पद्य में पहले पाद 'प्रणम्य परमात्मान' से मङ्गल को प्रन्ध में निबद्ध किया गया है, ग्रन्थपूर्ति तो मङ्गल को ग्रन्थ से बाहर रखने पर भी हो सकती थी, अतः ग्रन्थ की पूति ङ्गल को ग्रन्थ में सम्मिलित करने का उद्देश्य नहीं है, उसका उदेश्य है अन्याध्ययन के अनुषङ्ग से अध्येता द्वारा मङ्गल का सम्पादन । स्पष्ट है कि प्रन्य में मङ्गल का उल्लेख रहने पर ग्रन्थ का अध्ययन आरम्भ करते समय अध्येता द्वारा माल का अनुष्ठान अनायास ही सम्पन्न हो जाता है। प्रस्थ के नामकरण से यह सूचित किया गया है कि विभिन्न शास्त्रों के सहलित - सिद्धान्त इस ग्रन्थके अभिधेय है, यह ज्ञातव्य है कि माङ्गलिक पय द्वारा केवल ग्रन्थ का अभिधेय ही नहीं बताया गया है अपितु 'अलाबुद्धीनां सत्त्वानाम्' कह कर अधिकारी, 'अभिधास्ये' कह कर अन्ध के साथ अभिधेय का प्रतिपादकत्व सम्बन्ध और 'हितकाम्यया' कह कर अल्पन अध्येताओं को विभिन्न शास्त्रों के सिद्धान्तों का शानरूप प्रयोजन भी बताया गया है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं० वि० अवान्तरप्रयोजनमप्यत्र यद्यपि सामान्यतोऽल्पबुद्धिहितमुक्तमेव, तथापि विशेषप्रयोजनानुवन्धिसया नामग्राइं तन्निर्देष्टुं प्रकृतग्रन्थमभिष्टौति-यमितिमूलम् -- यं श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु प्रायस्तत्त्वविनिश्चयः । जायते देषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ॥२॥ (स्था०) ये श्रुत्वा तात्पर्यतः परिज्ञाय, सर्वशास्त्रेषु- सकलदर्शनेषु, प्रायो-बाहुल्येन तत्वविनिश्चय:- प्रामाण्याप्रामाण्यविवेको जायते । नन्वेवमितरदर्शनेष्वप्रामाण्यज्ञानात् तत्रानिष्टसाधनत्वज्ञाने द्वेषोदयात् संसारानुवध्येव बहुशास्त्रज्ञानमापतितम्, इत्यत आइ-'द्वेपशमन' इति । प्रामाण्यनिश्चय उपादेयेऽर्थे निष्कम्पप्रवृत्तिजनकतयचोपयुज्यते, इतरत्राऽप्रामाण्यनिश्चयस्त तदर्थप्रवृत्तिप्रतिपक्षतयैव, द्वेषस्तु माध्यस्थ्यप्रतिबन्धादेव नोदेति; इति न कोऽपि दोषानुपङ्गा, प्रत्युतदानसंयमादौ विशुद्धप्रवृत्या स्वर्गसिद्धिसुखावह एव सः । पहली कारिका में ग्रन्थ का अवान्तर प्रयोजन सामान्यरूप से बता दिया गया है और वह है-अल्पज्ञ जीवों के अज्ञान की निवृत्ति और उनके मान का संवर्धन । किन्तु इस ग्रन्थ का विशेष प्रयोजन है तत्वविनिश्चय व द्वेष शमन, जो कि स्वर्गसुख और मोक्षसुख का सम्पादक है, जिस का निर्देश पहली कारिका में नहीं किया गया है अतः इस विशेष प्रयोजन का नामपूर्वक निर्देश करने के उद्देश्य से ग्रन्थकार ने इस कारिका में अपने प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रशंसा की है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-- शास्त्रवार्तासमुच्चय एक ऐसा ग्रन्थ है जिसके तात्पर्यान्त अध्ययन से सभी दर्शन शास्त्रों में अधिकांशतः तत्त्व का विनिश्चय हो जाता है। "तत्व-विनिश्चय होने का अर्थ है इस बातका विवेक होना कि कौन दर्शन प्रमाण है और कौन अप्रमाण है, यह विवेक इस ग्रन्थ के अध्ययन से निस्सन्देह सम्पन्न होता है । शङ्का हो सकती है कि "इस ग्रन्थ के अध्ययन से जब अन्य वर्शनशास्त्रों में अन्ना माण्य का ज्ञान होगा, तब उन में अनिप्रसाधनता का ज्ञान हो कर उन पशमशास्त्रों के १ अयान्तर प्रयोजन-इसका म है गौणप्रयोजन या आनुषङ्गिक प्रयोजन, यह मुख्यरूप से अभिमत में होने पर भी मुख्य प्रयोजन के लिए क्रियमाण कार्यसे अमायास सिद्ध हो जाया करता है। २. तत्त्वयिनिश्चय-'तत्त्वं ममणि याथायें इस कोशके अनुसार 'तस्व' शब्द का अर्थ है- याथाय और पाथाभ्यंका अर्थ है-प्रामाण्य । प्रामाण्य और अप्रामाण्यमें विरोधात्मक सम्बन्ध होने से तत्त्वशब्द से प्रामाश्य की उपस्थिति होने पर अप्रामाण्य की भी उपस्थिति हो जाती है, अतः तत्त्व शब्दसे प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों पक्षों का बोध सम्पन्न हो जाता है । ' उपसर्ग के सन्निधान के कारण विमिश्चय' शब्दका अर्थ होता है-भिन्न वस्तुओ में या अंशभेद से एक ही वस्तुमें परस्परविरोधी धोका निश्चय । ऐसे निश्चय का ही नाम होता है-विवेक । इस प्रकार तत्त्वधिमिश्चमका अर्थ है प्रामाण्य और अप्रामाण्य का विवेक । शा० वा. ५ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रधाता समुच्चय प्रति अध्येता के मन में द्वेष अवश्य उत्पन्न होगा, और द्वेष संसार का एक दुर्भेद्य बन्धन है अतः बहुत से शास्त्रों का ज्ञान सांसारिक बन्धन का ही सर्जन और पोषण करेगा, इसलिए वेष उत्पन्न करनेवाले शान का साधक होने से प्रस्तुत ग्रन्थ सुख-शान्ति के इच्छुक जनों के लिये उपादेय नहीं हो सकता।" इस शङ्का के निवारणार्थ ग्रन्थकार ने इस ग्रन्थ के अध्ययन से होने वाले तत्वविनिश्चय को 'द्वेषशमनः' कहा है, और यह कह कर उस की पुष्टि की है कि अन्यदर्शनशास्त्रों में दोप्रकार के प्राधोंका वर्णन उपलब्ध होता है, एक अर्थ वे हैं जो इष्ट का साधन होने से उपादेय है, और दूसरे अर्थ वे हैं जो अनिष्ट का साधन होने से अनुपादेय हैं। इस प्रन्य के अध्ययनसे यह निश्चय होता है कि अमुक शास्त्र प्रमाणसिद्ध पदार्थ का प्रतिपादक होने से प्रमाणभूत है, और अमुक दर्शन प्रमाणविरुद्ध पदार्थ का प्रतिपादक होने से अप्रमाणभूत है। इस निश्चय के फलस्वरूप प्रमाणसिद्ध उपादेय अर्थ में अध्येता की असन्दिग्ध भाष से प्रवृत्ति होती है, घ प्रमाविरुद्ध अर्थ में प्रवृत्ति का निरोध होता है । इस प्रकार शास्त्रषासमुरुखय ग्रन्थ द्वारा सम्पादित तस्वविनिश्चय यानी प्रामाण्य-अप्रामायनिश्चयका फल मात्र प्रवृत्तिसम्पादन-प्रवृत्तिनिरोध है किन्तु रागद्वेष महों, कि जिस से अप्रमाणभूत दर्शनशास्त्र के प्रति द्वप होनेकी आपत्ति आधे । वस्तुतत्य का निर्णय होने से मध्यस्थभाव अबाधित रहता है । इससे अध्येता के मनमें किसी भी दर्शनशास्त्र के प्रति द्वेष की भाषना नहीं उत्पन्न होने देता, केवल इतना ही नहीं कि इस प्रन्थ के अध्ययन से होने वाले तत्त्वविनिश्चय से देष का शमनमात्र ही होता है, अपितु इस के अध्ययन से दान, संयम आदि शुभकर्मों में विशुद्ध प्रवृत्ति का उदय हो कर 'स्वर्गसुख भौर "सिद्धिसुख की प्राप्ति भी होती है। - -. -. . १. स्वर्ग-स्वः-सुखविशेषः गम्यते-प्राप्यते यत्र' इस ध्युत्पत्तिके अनुसार 'स्वर्ग' एक गेने स्थानों का भाम है जहाँ जीवको ऐसे विशिष्ट सुख की प्राप्ति होती है, जिसके भोगमें दुःख का स्पर्श नहीं होता, भोगके बाद भी दुःख नहीं होता और जो इच्छामात्र से सुलभ होता रहता है यथा यन्न दुःखेन अम्मिन्न म च प्रस्तमनन्तरम् । अभिलाषोपमीतं च तत् सुख स्वःपदास्पदम् । स्वर्गकी प्राप्ति द्वेषशमन पूर्व धर्मक अनुष्ठान से होती है जहाँ पहुँचने के लिये जीव को पार्थिव सरीर को त्याग कर दिव्य शरीर ग्रहण करमा होता है। २ सिद्धि-सिद्धि का अर्थ है मोक्ष । भगवडीता में इस के लिए सम् उपसर्ग के साथ सिद्धिशब्द-संसि. द्विशब्द का प्रयोग हुआ है यथा-'कर्मणैम हि संसिद्धिमास्थिता जमकादयः' यहां कर्म अर्थात् कर्तव्यानुष्ठान से भी मोक्ष पताया 1 किन्तु गीता में अन्यत्र 'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात कुरुतेऽर्जुनः' कह कर नतिमेव विहिवाऽतिसायमेति नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयमाय' इस स्मृतिवाक्य से ब्रह्मज्ञानसे ही मोक्ष बताया। जैनशास्त्र "ज्ञामक्रियाभ्यां मोक्षः' 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः (तत्त्वार्थ १.१) से सम्यग्दर्शन मूलक ज्ञान व चारित्र प्रिया से ही मोक्ष बताता है जो ज्ञान-क्रिया शास्त्रवाता आदि ग्रन्थ से तत्त्वविनिश्चय द्वारा संपन्न देषशमम से सुलर होते है । अतः यहाँ कहा--द्वेषशमनः स्वर्गसिद्धिसुखावहः ।' Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या क० टीका व हिं० वि० (स्या०) अत्र कश्चिदाइ-- ननु र अन्यम्' इन बिगिरिशि, सिद्धौ तु सुखे न मानमस्ति, सुखत्यावच्छेदेन धर्मजन्यत्वावधारणात् । न च विजातीयादृष्टानां विजातीयसूखहेतुत्वाद, तत्तत्कर्मणामेवादृष्टरूपव्यापारसम्बन्धेन तदेतुत्वाद वा सामान्यतो हेतुस्वे मानाभाव इति वाच्यम्, तथापि विशेषसामग्रीविरहेण मोक्षसुखानुत्पत्तेः । (मोक्ष में सुख नहीं है-पूर्वपक्ष) सिद्धिसुख के विषयमें किसी का यह कहना है कि 'स्वर्ग में सुख होता है इस विषय में तो मतमेद नहीं है, पर 'मोक्ष में भी सुख होता है' इस बात में कोई प्रमाण न होने से मोक्षसुख का अस्तित्व अमान्य है। इस पक्ष का कहना है कि मोशसुख केवल इसीलिये अमान्य नहीं है कि उस में कोई प्रमाण नहीं हैं, अपितु उस के विरुद्ध प्रमाण भी उपलब्ध हैं, जैसे-'मोक्ष मुखमय या सुखरूप नहीं है क्योंकि घर धर्मजन्य नहीं है, यह अनुमान । यदि यह शङ्का को जाय कि 'मोक्ष के धर्मअन्य न होनेपर भी उसे सुखमय या सुखरूप मानने में कोई आपत्ति नहीं है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि सुख और धर्म में 'सुस्त्रमात्र के प्रति धर्म कारण होता है. ऐसा कार्यकारणभाष है, अतः जो धर्म के विना उत्पन्न होता है उसे सुखमय या सुखरुप नहीं माना जा सकता । यदि यह कहा जाय कि-'सभी सुख एक जाति के नहीं होते किन्तु विभिन्न जाति के होते हैं, अतः सुख के प्रति धर्म कारण होता है'-केवल इस कार्यकारणभाव से काम न चल सकने के कारण उन के साथ ही यह कार्यकारणभाव भी मानना होगा कि विजातीय सुखों में विजातीयधर्मात्मक 'अदृष्ट कारण है अथवा धर्मात्मक अरष्टको उत्पन्न करने वाले विभिन्न कर्म ही धर्माष्टरूप 'व्यापारात्मकसम्बन्ध से कारण हैं, तो फिर जब सुखविशेष के प्रति धर्मविशेष या कर्मविशेष को कारण मानना अर्थात विशेष रूप से कार्यकारण भाव मानना आवश्यक ही है तब 'सुखके प्रति धर्म कारण होता है' इस सामान्य रूप से १ अहट-शंक.कार नैयाधिकादि के मत से यह अदृष्ट आत्मा का एक विशेषगुण है। इस के दो भेद हैं, धर्म और अधर्म । शास्त्रविहित कों से धर्म और शास्त्रनिषिद्ध धर्मों से अधर्म की उत्पत्ति होती हैं । धर्म को पुण्य तथा अधर्म को पाप कहा जाता है । जैनमतानुसार अदृष्ट यह पौद्गलिक शुभाशुभ कर्मस्वरूप है, जो आत्माके साथ क्षीरनीरवत् संबद्ध होता है। २ व्यापारात्मकसम्बन्ध-व्यापार का लक्षण है 'वज्जन्यावे सति तज्जन्यजनकत्म' । इस के अनुसार जो जिससे उत्पन्न हो तथा उसे उत्पन्न होनेवाले कार्य का कारण हो. वह उसका व्यापार कहा जाता है-जैसे सत्कर्म को शाम में सुख का कारण कहा है, किन्तु सत्कर्म करते ही सुख की प्राप्ति नहीं होती, अपितु कालान्तरमें होती है । जब सुख्न की प्राप्ति होती है तब सत्कर्म स्वयं विद्यमान नहीं रहते; अतः यह मानना आवश्यक होता है कि सत्कर्म स्वयं रहकर सुख का उत्पादन नहीं करते । किन्तु दे धर्म-पुण्य को उत्पन्न कर देते हैं और वह पुण्य ही कालान्तर में सुग्न को उत्पन्न करता है, इस प्रकार पूर्वकृत साकर्म को चलान्तरभावी सुख के साथ ओड़ने का कार्य इस धर्म से ही सम्पन्न होता है। अतः इस धर्म को व्यापारात्मक सम्बन्ध मान कर इस सम्धके द्वारा ही सत्कर्म को सुन का कारण माना जाता है। . Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा० था. समुन्वय न च ' नित्य विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इति श्रुतिरेवात्र मानम्, न च नित्यसुखे सिद्धे ब्रह्माभेदबोधनं, तद्वोधने च नित्यमुखसिद्धरिति परस्पराश्रय इति वाच्यम्, स्वर्गत्वमुपलक्षणीकृत्य स्वर्गविशेधे यागकारणताबोधवत् मुखत्वमुपलक्षणीकृत्य सुखविशेषे ब्रह्माभेदोपपत्तेः। कार्यकारणभाव की कोई आवश्यकता नहीं है, अतः मोक्षमें धर्मजन्य सुखविशेष मत हो, किन्तु इन समस्त सुखों से विलक्षण सुख मानने में कोई बाधा नहीं है।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जितने प्रकार के सुख प्रमाणसिद्ध है वे सभी अपनी विशेष कारण सामग्री से उत्पन्न होते हैं, और मोक्ष में वह विशेष कारणसामग्री नहीं होती, अतः मोक्ष में सुख की कल्पना नहीं की जा सकती। यह कल्पना उस समय की जा सकती थी अब मोक्ष में अन्य सभी सुखों से विलक्षण सुस्त्र का होना फिसी प्रमाण से सिस् होता, किन्तु ऐसा कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इस पर यह कहा जा सकता है कि "नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' यह पक श्रुतिवचन है, इसका अर्थ है--ब्रह्म निन्थ भूत, वर्तमान और भविष्य इन तीनों कालो में किसी भी काल में बाधित न होने वाला, विज्ञान -अपरोक्षशान स्वरूप स्वप्रकाश और आनन्दसुखस्वरूप है। इस श्रुति से ब्रह्मस्वरूप निन्यसुख सिद्ध है, । यह सुख जोव को बन्धनाषस्था में न प्राप्त हो कर मोक्षावस्था में ही प्राप्त होता है, अतः उक्त श्रुतिरूप प्रमाण से मोशमें सुख का अस्तित्व निर्विवाद सिद्ध है। ____यदि उक्त प्रमाण के सम्बन्ध में यह कहा जाय कि "अनित्य सुख में निस्य ब्रह्म के अमेव का बोध सम्भव न होने से नित्य सुख में नित्यब्रह्म के अमेवयोध के लिये नित्यसुख की सिद्धि अपेक्षित है, और नित्य सुख का अन्य कोई साधक न होने से उसकी सिद्धि के लिये मुख में नियब्रह्म के अभेद का बोध अपेक्षित है, इस में परस्पराश्रय दोष हुआ। इसके कारण ब्रह्मस्वरूप नित्यम न की सिद्धि सम्भव न होने से उक्त श्रुति से मोक्ष में सुख के मस्तित्व को प्रमाणित करना असम्भव है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार गङ्गास्नान आदि अन्य साधनों से स. म्पन्न होने वाले स्वर्ग से भिन्न स्वर्ग की सिद्धि न रहने पर भी 'स्वर्गकामो यजेत'स्वर्ग का इच्छुक व्यक्ति या से स्वर्ग का अर्जन करे' इस श्रुति पाक्य से 'स्वर्गत्व से उपलक्षित स्वर्गविशेष के प्रति यक्षकी कारपाता का निश्चय होता है और उसके फलस्व. १ अष्टन्य तैत्तिरीय आरण्यक । १ 'स्वर्गव से उपलक्षित वर्गविशेष के प्रति यज्ञ की कारणता का निश्चय' इस का अर्थ है स्वर्गरमखामामाधिकरण्येन अन्यसाधन (गङ्गास्नानादि) जन्य स्वर्ग में ही यागजन्यत्वका निश्चय । अन्यसाधनजन्य स्वर्ग में याग जम्यत्व का अभाव होने पर भी अतिरिक्त स्वर्ग की सम्भावना से, स्वर्गस्वावच्छेदेन यागअन्यत्वाभावका निश्चय न हो सकने के कारण, उस अन्यसाधनजन्य स्वर्ग में उक्त निश्चय के होने में कोई बाधा नहीं होती 'स्वर्गकामो यजेता यह वाक्य उक्तनिश्चय को उत्पन्न कर ही स्वर्गकाम पुरुष को यज्ञ के अनुष्ठान में प्रवृत्त करता है और यह ब्र अनुष्ठाम होने पर उस से अतिरिका स्वर्ग की प्राप्ति होती है, ' के उससे अन्यसाधनजन्य स्वर्ग की प्राप्ति महाँ हो प्रस्तो। चाल Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका व हिं० वि० (स्या०) यद्वा नित्यं सुखं बोधयित्वा तत्र ब्रह्माभेदो विधिनैव बोध्यते; न च वाक्यभेदः, वाक्यैकवाक्यस्यात् । रूप यशजन्य स्वर्गविशेष की सिद्धि होती है, उसी प्रकार धर्मजन्य सुख से भिन्न नित्य सुम्न की सिद्धि न होने पर भी 'आनन्द ब्रह्म' इस श्रुति भाग से सुखत्व से उपलक्षित सुखविशेष में ब्रह्म के अभेद का बोध हो सकता है और उस के बाद नित्य ब्रह्म के अमे. वरूप हेतु से सुख में निन्यता की सिद्धि हो सकती है। अतः उक्त श्रुति द्वारा मोक्ष में बामस्वरूप नित्यसुख के अस्तित्व को प्रमाणित करने में कोई बाधा नहीं है। इसके विरुद्ध यदि यह तर्क किया जाय कि अब तक नित्यसुख की सिद्धि नहीं हो जाती तब तक सुग्नत्व से उपलक्षित सुचविशेष के रूपमें भी जन्य सुख ही समझा जायगा अस स्वर्ग में यशजन्यस्वाभाष निश्चय उपों में यज्ञ जन्यत्व के निश्चय होने का रहस्य यह है कि परस्सर विरोधी भाव और अभाव की बुद्धियों में जो प्रतिवध्यप्रतिबन्धकमाव माना जाता है उसमें धमिविशेष का अन्तर्भाव नहीं होता अर्थात् अमुघा यमि अमुक की बुद्धि के प्रति अमुस व्यक्ति में अमुक विरोधी का निश्चय प्रतिबन्धक है, इस प्रकार का प्रतिबध्यतिबन्धकभाव नहीं माना जाता, क्योंकि किसी एक रूप से भासमान जिस व्यक्ति में किसी धर्म का ज्ञान होता है, अन्य रूप से भासमान उसो व्यक्ति में उस धर्म के विरोधी का भी ज्ञान उसी समय होता है, जैसे 'द्रव्यं वनिमत्' इस प्रकार द्रव्यत्वरूप से भासमान हृदमें वछिका निश्रय रहते हुये ही 'हृदो न वहनिमान्' इस प्रकार ह्रदत्वेन भासमान हृदमें पहन्यभाव की बुद्धि उत्पन्न होती है। इसलिए परसर विरोधी भाव और अभाव को बुद्धियों में जो प्रतिबध्य प्रतिबन्धकमाघ स्वीकार्य हो सकता है उसके दो ही प्रकार है । जैसे तद्धर्मसामानाधिकरण्येन ताप्रकारक बुद्धि मैं तद्वविच्छेदेन तदभावप्रकार निश्चय प्रतिबन्ध है और तधर्मावच्छेदेन तरकारकाद्धि में तद्धर्मविशिष्ट में तदभावप्रकारक निश्चय प्रतिबन्धक है, चाहे यह निश्चय तद्धर्मसाम.माधि ण्येन हो या चाहे तशविच्छेदन हो । गास्नानादि जन्य स्वर्ग में यागमन्यवाभाव होने पर भी उरा में। का निश्चय स्वगत्वावच्छे देन नहीं हो सकता, क्योंकि स्वर्गवावच्छेदेन याग जन्यत्वाभाव के निश्चय का अर्थ होगा कि कोई भी स्वर्ग यज्ञजन्य हो ही नहीं सकता, और यह निश्चय कभी हो नहीं सकता, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अधिकार पूर्वक यह निर्णय कैसे दे सके कि कोई स्वर्ग कभी यज्ञ से होता ही नहीं, फलतः शात स्वर्ग में यागजन्यत्वाभाव रहने पर भी स्वर्गत्वावच्छेदेन उस का निश्चय न हो सकने से स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येनैव उसका निश्चय होगा अतः उस निश्चय के रहते भी ज्ञान स्वर्ग में स्वर्गत्वसामानाधिकरण्येन यागजन्यत्व का निश्चय होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । प्रतिवश्वप्रतिबन्धकमाव की यह दृधि एकदेशीय नहीं है, क्योंकि रघुनाथ ताकि शिरोमणी ने सामान्यलक्षणा प्रकरण को दीधिति में धूम में बहिन्यभिचार संशयकी उपपत्ति करते हुअ इसी दृष्टि को स्वीकार किया है। गास्नानादिजन्यस्वर्ग में अागजन्यत्वका निश्चय यद्यपि भार है तथापि परिणाम सुखद होनेसे यह उसी प्रकार प्रशस्य है जैसे मणि को पास करने वाला मणि प्रभा में मणि का भ्रमात्मक निश्चय । 'स्वर्गकामो मजेत.' से अभ्रान्त को बध न हो सकेगा. यह शंका उचित नहीं कही जा सकती, क्योंकि वज्ञ आदि के अनुष्ठान में संसारी पुरुषों की ही प्रवृत्त होती है अतः उनमें भ्रम होना कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। जिस में भ्रम की सम्भावना नहीं हो सकतो मे आलाज्ञानी को यदि उत्ताबाक्य से चोध न हो तो कोई हानि नहीं है क्योंकि उसे यश आदि के अनुष्ठान में प्रवृत्त होने की आवश्यकता नहीं हैं । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ शा० घा० समुच्चय न च 'आनन्दम्' इत्यत्र नपुंसकलिजुत्वानुपपत्तिः, छान्दसत्यात् । न च 'आनन्दं ब्राह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठितम्' इति भेदपरपष्ठश्चनुपपत्तिः, 'शहोः शिर' इति वद भेदेऽपि षष्ठीदर्शनाद्, 'इति वाच्यम्; आत्मनोऽनुभूयमानत्वेन नित्यसुखस्याप्यनुभवप्रसङ्गात्, मुखमात्रस्य स्वगोचरसाक्षात्कारजनकत्वनियमात् । और उसमें निस्य ब्रह्म का अमेद बाधित होने से नित्य सुख की सिद्धि हुये विना सुख में निस्य ब्रह्म के अभेद् का बोध सम्भव नहीं है, तो उनके उत्सर में यह कहा जा सकता है कि नित्यसुख की सिद्धि के पूर्व उक्त रीति से सुख में ब्रह्म के अमेन का बोध यदि सम्भव नहीं है, तो न हो, फिर भी उक्त श्रुतिषचन से सुख में ब्रह्म के अमेद योघ को अन्य प्रकार से उपपन्न किया जा सकता है, और बहु प्रकार यह है कि उक्त श्रुति पहले 'निश्यम् आनन्दम' इस भागसे नित्य सुख का बोध उत्पन्न करती है और बाद में वही श्रुति 'भानन्दं ब्रह्म' इस अंश से ब्रह्म के अमेद का बोध उत्पन्न कराती है, अतः उक्त श्रुति से ब्रह्मरूप नित्यसुनकी सिद्धि में कोई बाधा न होने से उसके आधार पर मोममें सुख का अस्तित्व स्वीकार करने में कोई अडचन नहीं है। यदि यह कहा जाय कि 'पक ही थतिवाषय से कम से 'नित्यम् आनन्दम्' तथा 'आनन्दं ब्रह्म' ये दो बोध मानने पर वाक्यभेद दोष होगा, तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त श्रुति वाक्य को दो अवान्तर वाक्यों से निष्पन्न पक महावाक्य मान कर वाक्यैकवाक्यता मान लेने से वाक्यसेदका परिहार किया जा सकता है। यदि यह कहा जाय कि उक्त श्रुति वाक्य में आये 'भागन्द' शब्द को सुख का बोधक न मानकर सुन के आश्रय का बोधक मानना होगा, अन्यथा "गुणे शुक्लाद्यः पुसि' शुक्ल आदि शम्द गुण के बोधक होने पर पुल्लिङ्ग होते है इस नियम के अनुसार आनन्द शब्द का नपुंसकलिङ्ग में प्रयोग असंगत होगा," तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि उक्तवाश्य में १ इसका अन्वय पूर्वमें आये 'नच 'नित्यं विशानमानन्दं ब्रहा' इति अतिरेवा-मानम्' के साथ है। २ वाक्यभेद-जिस त्राय बसे दो स्वतन्य बोध, ऐसे बोध जिनमें दो मुख्य विशेष्यता होती है.-उत्पन्न होते हैं, वह वाक्य स्वरूपतः एक होते हुए भी अर्थतः दो हो जाता है, यह स्थिति बाक्य का दोष है, क्योंकि एकवाक्य से दो वाक्यों का कार्य लेने में श्रोता को कठिनाई होती है । ३ वाक्यैकवाक्यता-एकवाक्यता का अर्थ है 'एक बोध को जिसमें एक ही मुख्य विदोप्यता ही उत्पन्न करना' 1 इसके दो भेद होते है-पदैकवाक्यता और वाक्यैकवाक्यता । कतिपय पदों से जो एक वाक्य बनता है उसमें पदैकवाक्यता होती है और कतिपय वाक्यों से जो एक महावाक्य बनता है उसमें वाक्यैकवाक्यता होती है। वायकवाक्यता हो जाने पर वाक्यभेद दोष नहीं होता, क्योंकि अबान्तर वाक्यों से विभिन्न बोध उत्पन्न होने पर भी महावाक्य से एक ही ऐसे बोध का उदय होता है जिसमें एक ही मुख्य विशेष्यता होती है । प्रकृतमें उक्तवाक्यके अवान्तर वाक्योंसे विभिन्न बोध उत्पन्न होने के अनन्तर महाबाश्य से 'निक विज्ञानात्मक आनन्द ब्रह्म से अभिन्न है' ऐसा बोध मान लेने पर वाक्यैकवाक्यता सम्पन्न हो जानेसे वाक्यभेद दोष नहीं कहा जा सकता । ४ ट्रष्टव्य अमरकोश । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हि न च 'आत्माऽभिन्नतया मुखमनुभूयत एव, मुखत्यं तु तत्र नानुभूयते, देहात्माभेदभ्रमवासनादोपाद्, आत्यन्तिकदुःखोच्छेदरूपव्यञ्जकाभाना वेति' वाच्यम्. आत्ममुस्खयोरमेये सुरुवस्यात्मवतुल्य यक्षिकत्वेनात्मत्यान्यजातित्वासिद्धेः । 'आनन्द' शब्द का प्रयोग छाम्दस वैदिक है और वैदिक प्रयोग पर लौकिक संस्कृत के ध्याकरणसम्बन्धी नियमों का नियन्त्रण नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि "उक्त श्रुतिवाक्य से आनन्द में ब्रह्म के अभेद का बोध नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि मानन्द और ब्रह्ममें अमेव माना जायगा तो 'आनन्द ब्रह्मणो रूपं तच्च मोक्षे प्रतिष्ठित्तम्-आमम्द बलका रूप है और वह मोक्षमें प्रतिष्ठित-पावरणमुक्त हो अनुभूत होता है' इति शास्त्रीय वचन में आनन्द शब्द के सन्निधान में ब्रह्मशब्द के उत्तर सुन पडनेवाली 'मेद-सम्बन्धबोधक षष्ठी विभक्ति की अनुपपत्ति होगी क्योंकि आनन्द और ब्रह्म में अमेद होने पर आनन्द के साथ ब्रह्म का मेद सम्बन्ध हो सकता, और "नीरस्य घटः' इस वाक्यसे घटमें नीलके अमेद सम्बन्ध का घोध सर्षानुभव विरुद्ध होने के कारण षष्ठी विभक्ति को अभेव सम्बन्ध का बोधक म मान कर मेद सम्बन्ध का हो बोधक माना जाता है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस प्रकार राहोः शिर:-राहुका सिर इस वाक्यमें राहु शब्द के उत्तर सुन पड़ने वाली षष्ठी विभक्ति से राहु और शिर में अभेद सम्बन्ध का ही बोध माना जाता है, उसी प्रकार 'आनन्दं ब्राह्मणो रूपम्' इस पाक्य में भी ब्रह्मशब्दोप्सर षष्ठी से आनन्द में ब्रह्म के अमेद सम्बन्ध का योध मालने में कोई आपत्ति न होने से 'नित्यं विज्ञानमानन्द ब्रह्म' इस श्रुति से ब्रह्मस्वरूप नित्य सुखकी सिद्धि में कोई बाधा नहीं है। किन्तु यह (मोक्षसुख में नित्यमित्यादि अति को प्रमाण) कहना ठीक नहीं, क्योंकि अयमात्मा ब्रह्म-यह श्रुति के अनुसार आत्मा ही ब्रह्म है, अतः ब्रह्म और आत्मा में अभेद मानने पर आत्मा और आनन्द में ऐक्य मानना होगा, पर यह सम्भव नहीं है, क्योंकि घन्धन की अवस्था में भी जीव को आत्मा का अनुभव तो होता है पर नित्य आनन्द का अनुभव नहीं होता जब कि बात्मा और नित्य मानन्द में ऐक्य होने पर सभी सुख अपने साक्षात्कार-अनुभव का जनक होता है इस नियम के कारण उसका होना अनिवार्य है। यदि यह कहा जाय कि"आत्मा और सुख में पेश्य मानने पर 'मात्माका अनुभव होने पर भी सुख का अनुभव नहीं होता' यह कहना असंगत है, क्योंकि आत्मा का अनु १-२ द्रष्टव्य व्युत्पत्तिवाद गादाधरी । ३ यह पौणिक कशा है कि देव और असुरों द्वारा समुद्र का मन्थन होने पर चौदह अनमोल पदाथरत्न निकलें | जिन में एक अमृत भी था, देवताओं ने कुटनीति से उसे असुरों को न दे कर स्वयं ले लिया जब वे आपस में उसका अँट्यार करने लगे तो गुप्तरूपले देवमण्डली में घुस कर एक असुर ने भी अमृत प्राप्त कर लिया, किन्तु उसी समय सूर्य और चन्द्र द्वारा देवश्रेष्ठ विष्णु को इस बात का पता लग गया और तत्काल उन्होंने अपने मुदर्शन चक्र से उसका शिरश्छेद कर दिया, किन्तु वह असुर इसके पूर्व अमृतपान कर चुका था, अतः शिरच्छेद होने पर भी वह नहीं मरा अपि तु शिर और शेष शरीर-कबन्धके रूपमें वह जीवित हो उठा, उसी समय से उमका शिर राहु और कबन्ध केतु के नाम से व्यवहृत हुआ, इस प्रकार शिर हि राहु है, गहु और शिरमें कोई भेद नहीं हैं । द्रष्टव्य श्रीमद्भागवत । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. शा. वा० समुपय (स्या०) किश्च, एवं सर्वाभेदश्रुत्या दुःखमपि सुख स्यात, सिद्धार्थत्वेनाऽप्रामाण्य चोभयत्र तुल्यम्, इति चेत् ? भव होने पर आत्मा से अभिन्न होने के नाते मुख का भी अनुभव होना अनिवार्य है, अन्तर फेवल इतना ही है कि बाधनावस्था में आत्मसुख का अनुभव आत्मत्वरूप से ही होता है, सुखत्वरूप से नहीं होता, सुखत्यरूप से अनुभव तो मोक्षकाल में ही होता है, जैसे कि उक्तवाक्य में 'तरुच मोक्षे प्रतिस्ठितम्' इस भाग से सूचित किया गया है। यदि यह प्रश्न हो कि 'जब बन्धनावस्था में भी आत्मा सुखरूप है तथ उस अवस्था में उसमें सुखस्व का अनुभव क्यों नहीं होता! तो इसके उत्तर में दो बातें कही जा सकती हैं। एक शो यह कि असुख देव में आत्मा के अमेद् की भ्रमात्मक बुद्धि से देहास्मैक्य की जो धासना अनादिकाल से मनुष्य के मन में घर बना के बैठी है. वही बन्धनावस्था में आत्मामें सुखत्व का अनुभव नहीं होने देती, और दूसरी बात यह है कि सम्पूर्ण दुःखों का आत्यन्तिक विनाश ही आत्मा में सुखत्य का व्यक्जक है. वचनावस्था में उस व्य क का अभाव रहता है अतः उस समय आत्मा में सुखत्य का अनुभव नहीं हो सकता ।" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आत्मा और स्त्र में भेद न मानने पर आरमन्च और सुखत्व नाम की दो भिन्म जातियों नहीं मानी जा सकती, क्योंकि यह नियम है कि जो जातियाँ तुल्य व्यक्तिक होती है,--सर्वधा समान आश्रय में ही रहती है-उन में मेह नहीं होता । अतः जैसे पटव और कलश ये दो भिन्न जातियां नहीं है, उसी प्रकार आत्मत्व और सुखत्व मी दो भिन्न जातियां नहीं हो सकती अतः यह कहना कि 'बन्धनावस्था में आत्मसुख का केवल आत्मत्व से ही अनुभव होता है, किन्तु सुखत्व रूप से नहीं । सुखन्वरूप से अनुभव तो मोक्षावस्था में ही होता है, यह उचित नहीं हो सकता । उपर्युक्त से अतिरिक्त पक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि, यदि नित्यं विज्ञानमानन्द अश्ल' इस श्रुति से आनन्द और ब्रह्म में अमेद का बोध होने से ब्रह्म को आनन्द रूप माना जायगा तो सर्वाभेद का प्रतिपादन करने वाली श्रुति से सर्व पदार्थों में मुखात्मक ब्रह्म के अमेव का बोध होने से दुःख को भी सुखरूप मानना होगा, फलतः दुःख के प्रति वेष की समाप्ति हो जाने से मोक्ष के लिये मनुष्य की प्रवृत्ति ही यन्द हो जायगी, इस दोष के परिद्वारार्थ यदि यह कहा जाय कि सर्वाभेद की प्रतिपादक श्रुति सिद्धार्थक होने से अप्रमाण है १ द्रष्टव्य सिद्धान्त मुकताबली' प्रत्यक्षपण्ड सामान्यनिरुपण में जातियाधकसंग्रह कारिका की दिनकरीय व्याख्या । २ सभेद का प्रतिपादन करने वाली श्रुतियों अनेक है जैसे-नदास्यमिदं सर्वम्, सधैं खल्विदं ब्रह्म इत्यादि । ३ 'सिद्धार्थक वाक्य को अप्रमाण' कह कर 'मीमांसफ प्रभाकर' के मतका संकेत किया गया है । उनका मत है कि वाक्य दो प्रकार के होते है। एक वे जिन से ऐसे ही अर्थों का बोध होता है जो सिद्ध-पहले से ही सम्पन्न होते है जैसे–'दुग्धं मधुरं भवति दूध मोटा होता है' इस वाक्य मे अर्थ बोध होने के बाद दूध या उसके माधुर्य दोनों तो पहले से ही सिद्ध रहते हैं, उन बाक्य से उनका कथन मात्र होता है । ऐसे वाक्यों को 'सिद्धार्थक' कहा जाता हैं । दूसरे वाक्य वे होते हैं जिनसे किसी ऐसे अर्थ का बोध होता है जो पहले Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका हि. वि० अत्रोच्यते-प्रेक्षावत्प्रवृस्यन्यथानुपपत्तिरेव सिद्धिमुखे मानम् ! न च क्षुदादिदुखनिवृत्त्यर्थमन्नपानादिप्रकृत्तिवदत्रोपपत्तिः, तत्रापि मुखार्थमेव प्रवृत्तेः । अन्यथाऽस्वादुपरित्यागस्वादपादानानुपपत्तेः, अभावे विशेषाभावेन कारणविशेषस्याऽप्रयोजकत्वात् । तो 'नित्यं विज्ञानमानन्दं ब्रह्म' इस श्रुति के भी सिद्धार्थकता होने से यह श्रुति भी प्रमाण होगी, अतः इसके द्वारा ब्रह्मरूप नित्य सुख के अस्तित्व को प्रमाणित करना असम्भव हो जायगा। (मुक्ति में सुख है-उत्तरपक्ष) मोक्षसुख के विरूद्र उठाये गये आक्षेपों के उत्तरमें कहा जा सकता है कि-मोक्ष के लिये प्रेक्षाधान-विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति का होना निर्विवाद है, परन्तु मोक्ष में सुख का अस्तित्व न मानने पर यह प्रोन नहीं हो सकती, क्योंकि विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति सुख प्राप्ति के लिये ही हुआ करती है। अतः मोक्ष में यदि सुख प्राप्त होने की आशा न होगी तो उसके लिये कोई भी धिवेकी पुरुष प्रयत्नशील न होगा, इसलिये मोक्ष में सुख का अभाव होने पर उसके लिये विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति की 'अनुपपत्ति ही 'मोक्ष में सुख होता है इस बात में प्रमाण है। यदि यह कहा जाय कि जिस प्रकार भूख और प्यास के दुःख की निवृत्ति के लिये ही भोजन, जलपान आदि कार्यो में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार सांसारिक बन्धन के दुःख की निवृत्ति के लिये मोक्ष-साधना में भी प्रवृत्ति होती है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि भोजन आदि कार्यों में भी सुख के लिये ही मनुष्य की प्रवृसि होतो है, अन्यथा य दे भूख-प्यास के दुःख की निवृत्ति के लिये हो भोजन आदि में मनुष्य की प्रवृत्ति होती तो वह स्वादहीन भोजन को त्याग कर स्वादयुक्त भोजन न ग्रहण करता, क्योंकि अभाव का कोई भावात्मक स्वरूप अथवा उसकी कोई जाति न होने से से सिद्ध नहीं होता किन्नु बाद में साधनीय होता है जैस 'तृप्तिकामो भुजीत-तृप्ति का इच्छुक व्यक्ति भोजन में तृप्ति का मम्पादन करे' इस वाक्य के अथों में भोजन में नियोजनीय पुरुप ही केवल सिद्ध है, अन्य अर्थ भोजन और तृप्ति पहले म सिद्ध नहीं है किन्तु वाक्य मे अर्थबोध होने के पश्चात् उसे सिद्ध करना होता है । ऐसे वाक्यों को साथ्यार्थक या कार्यार्थक कहा जाता है । प्रभाकर के मतानुसार साध्यार्थक वाक्य ही प्रमाण होते हैं, सिद्धार्थक वाक्य प्रमाण नहीं होते । ऐसा मानने में उसका आशय यह है कि प्रमाण का कार्य है प्रमा का जन्म और प्रमा का प्रयोजन है कार्य में मनुष्य का नियोजन । अतः जिसके द्वारा उत्पन्न बोध से कुछ करने की प्रेरणा न हो उसे प्रमाण कहना उचित नहीं है, इसलिए उनके मतानुसार सिदार्थक वाक्य को प्रमाण नहीं माना जा सकता । १ मीमांसा आद कतिपय दामों में अन्यथाऽपपत्ति' (एक अर्थ के अभाव में अन्व अर्थ की अनुपपत्ति) को अर्थापत्ति नानक स्वत-श्र प्रमाण माना गया है। इस प्रमाण से अन्यथा उपपन्न न होने वाले अर्थ के उपपादक अर्थ की प्राना का उदय होता है। न्यायदर्शन में अर्धापत्ति प्रमाग को स्वतन्त्र प्रमाण न मान कर केवलव्यतिरेकीअनुमान में उम का अन्तर्भाव किया है । जैनदर्शन में अन्यथानुपपत्ति यह अनुमान में उपयोगी पाप्ति का लक्षण | पृष्टम्प 'प्रमाणनयतत्त्वाऽ लोक ।' शा०या०६ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्ता समुच्चय न च चिकित्सास्थलीयप्रवृत्तिवदुपपत्तिः, तत्रापि दुःखध्वसनियतागामिमुखार्थितयैव प्रवृसेः । न च प्रायश्चितत्रदत्र 'दुःखद्वेषयोरनिष्टेरेव प्रवृत्तिरिति वाच्यम्, नत्राऽ. "प्यभिगमिबोशिशुपादित सारे जसमें कोई स्वरूपकृत या जातिकृत घिलक्षणता नहीं होती। अतः स्वादयुक्त भोजन मारा भूख-प्यास की निवृत्ति होने से जो दुःख का अभाव होता है, एवं स्वादष्ठीन भोजन द्वारा भूखप्यास की निवृत्ति होने पर जो दुःख का अभाव होता है, उनमें कोई अन्सर म होने से स्वादहीन भोजन को त्याग कर स्वादयुक्त भोजन के प्रहण में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, किन्तु इस प्रकार की प्रवृति होती है इस लिये यह मामना आवश्यक है कि भोजन से केवल दुःख को निवृति ही नहीं होती, अपितु सुख की प्राप्ति भी होती है। अतः स्वादहीन भोजन से होने वाले सुख से अच्छे सुख की प्राप्ति के लिये ही स्वादहीन भोजन को त्याग कर स्वारयुक्त भोजन का ग्रहण करना उचित हो सकता है। यान यह कहा जाय कि-'जैसे रोगमूलक दुःख की निवृति के लिये चिकित्सा में प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार सांसारिक दुःख की निवृत्ति के लिये भोक्ष में प्रवृत्ति हो सकती है, तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि चिकित्सा में जो प्रवृत्ति होती है वह भी रोगजन्य दुःख की निवृत्ति होने पर सुख प्राप्त होने की आशा से ही होती है। यदि यह कहा जाय कि-'दुःख स्वभावतः अनिष्ट होने से द्वेष्य है और द्वेष्य को उत्पन्न होने देना या जीवित रहने देना यह मनुष्य की प्रवृत्ति के विरुद्ध है, अतः दुःख की प्रवृत्ति के उद्देश्य से ही जैसे दुःखप्रद पापकर्मों के प्रायश्चित्त में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है, उसी प्रकार जन्म-मृत्यु के बीच संसरण करते रहने से होने वाले दुःख की निवृत्ति के लिये मोशसाधना में भी प्रवृत्ति हो सकती है, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रायश्चित्त में मनुष्य की जो प्रवृति होती है उसके मूलमें भी उसकी सुखकामना ही प्रधान होती है, जैसे प्रायश्चित्त में प्रवृत्त होते समय मनुष्य यह सोचता है कि प्रायश्चित्त करने से उसके पाग के विपाक की शक्ति क्षीण होगी, उसके फलस्वरूप उसकी आन्मा में बोधि -तत्त्वार्थश्रखाम का उदय होगा और उस योधि से उसके दुःसन्द कर्मों का क्षय हो कर अन्त में उसे अभिमत सुख की प्राप्ति होगी । इस प्रकार प्रायश्चित में भी मनुष्य को प्रवृत्ति सुवाशामूलक ही है। अतः मोक्ष साधरा में प्रवृत्ति होने के लिये मोक्ष को सुखमय मानना आवश्यक है। १ "दुःस्त्रद्वेषयोनिदेव." मा पाट गंवेगी अपाश्रय (अहमदाबाद) की हस्तलिखित प्रतमें है । पूर्वापर देखके एवं वस्तु के स्वरूप पर विचार कगो से 'दुन्नपयोरनिटे' के स्थानमें 'दुःस्वद्वेषयोन्यनिष्टे', पाट उचित प्रतीत होता है जिसका अर्थ है-दुश्व के पति द्रेप का कारण है दुःख का स्वभावतः अनिष्ट होना, दु:ख स्वभावतः अनिष्ट होने से ही द्वेध होता है और होने से ही निवसनीव होता है। २ 'अभिमत सुखम् आगामयति उत्पादयति' अथवा 'आगामयति उत्पादयति इति आगामि अभिमतस्व आगामि इति अभिमताऽगागि' इस व्युत्पत्ति के अनुसार ममतागामि का अर्थ है सुख का उत्पादक, यह कर्मक्षय का विशेषण है। ३ अर्हत्समय के अनुसार बोधि का अर्थ है दरवार्थ में श्रद्धान से ले कर वीतरागता तक के धर्म । प्रायश्चित्त से पार की शक्ति क्षीण होने पर इसका उदय होता है और इसका उदव होने पर दुःखद कर्मों का क्षय हो कर सुखोत्पत्ति का द्वार उद्घाटित होता है । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टोका व हि. वि० (स्या०) किं च, दुखाभावदशायां 'सुखं नास्ति' इति ज्ञाने कथं प्रवृत्तिः, मुखहानेरनिष्कृत्वात् ? न च वैराग्याद् न तदनिष्टत्वप्रतिसन्धानम्, विरक्तानामपि प्रशमप्रभव सुखस्येष्ठत्वात्, अनुभवसिद्ध खल्वेतत् । किं च, दुःखे द्वेषमात्रादेव यदि तन्नाशानुकूलः प्रयत्नः स्यात् तदा मुच्छ दावपि प्रवृत्तिः स्यात् । जायत एव बहुदुःखग्रस्तागं परमादामगि प्रवृत्तिरिनि चेन् ? न, विवेकिप्रवृत्तरेवाप्राधिकृतत्वात । अतः मुष्टच्यते---- दुःखाभावोऽपि नावेधः पुरुषार्थतयेष्यते । न हि मूर्छाद्यवस्था प्रवृत्तो दृश्यते 'सूष्ट्रयते' सुधीःइति। इसके अतिरिक्त यह भी एक प्रश्न है कि मनुष्य को सुस्त्र की हानि किसी भी स्थिति में इष्ट नहीं है, अतः जब उसे यह ज्ञान होगा कि 'दुःखाभावदशा-मोक्षदशा में सुख नहीं होता तब माक्षसाधना में उसकी प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी, क्योंकि सुखहामि उसे कथमपि सह्य नहीं है। यदि यह कहा जाय कि सुख-दुःखमय सारे संसार के प्रति बैराग्य हो जाने पर ही मनुष्य को मोक्ष की इच्छा होती है, अतः मोक्षे मनुष्य के मन में सुख के प्रति भी विराग होने के कारण उसे सुनहानि में अनिष्टत्व की बुद्धि नहीं होती, इसलिये मोक्ष में सुस्वाभाव होने का ज्ञान रहने पर भो मोक्ष के लिये उसके प्रयत्नशील होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि विरक्तजनों को भी प्रशमनन्यसुख की काम का होना 'अनुभवसि है। इस सन्दर्भ में यह भी विचारणीय है कि यदि यह माना जाय कि 'दुख के प्रति द्वेष होने मात्र से ही मनुष्य दुःस नाशके लिये प्रयत्नशील होता है, तब तो उसे मूर्छ आदि की अवस्था के लिये भी प्रयत्नशील होना चाहिये, क्योंकि उस अवस्था में भी उसे दुख से मुक्ति मिल सकती है, किन्तु मनुष्य सचमुच मूच्छविस्था के लिये कभी प्रयाम नहीं करता, अतः यह मानना उचित नहीं है कि दुःख के प्रति द्वेष होने से ही मनुष्य दुःखनाश के लिये प्रयत्न करता है, किन्तु यह मानना उचित होगा की दुःला के रहने पर मनुष्य को सुख का अनुभव नहीं हो सकता, इसलिये सुखानुभव की बाधा को धर करने के उद्देश्य से वह दुःख नाश के लिये प्रयत्न करता है, और यह मानने पर यह निर्विषादरूप से सिद्ध हो जाता है कि सुख कामना ही उस की प्रवृत्ति का मूल है, अतः मोक्षदशा में सुत्रप्राप्तिकी आशा न रहने पर उसके लिये मनुष्यको प्रवृतिका होना सम्भव न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-'संसार में पैसे भी मनुष्य देखने में आते हैं जो पाहत दास से प्रस्त होने पर मृत्युका आलिङ्गन करने के लिये आत्मघात तक कर लेते है, अतः यह कहने में कोई असंगति नहीं है कि सुख प्राप्ति की आशा न होने पर भी केवल चुन से १. यह अनुभव इस उक्ति से प्रमागित हैं कि अच्च कामसुख लोके, पाच दि महत्मुखम । तृष्णाक्षयमुनस्यैत नाहतः पांडशी फलाम् ।। अर्थ- सारमें जिसना भो कान मुख है और स्वर्ग में जितना भी दिव्य सुख है, वह सब मिल कर भी तृष्णा के क्षय से होनेवाले सुख के सोलह बे भाग की भी वगवरी नहीं कर सकते । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. शा० का० समुच्चय .... 'दुःखं मा भूत्' इत्युदिश्य प्रवृत्तेर्दुःखाभाव एव पुरुषार्थः, तज्ज्ञानं त्वन्यथासिद्धमिति चेत ? सत्यम्, अवेद्यस्य तम्य ज्ञानादिहानिरूपानिष्टानुविद्धतया प्रवृत्त्यनि हकत्वात् । एतेन 'वर्तमानोऽप्यचिरमनुभूयते' इति निरस्तम्, तथावेद्यताया मृच्छा. अवस्थायामपि सम्भवात् । ___यत्त 'अशरीरं वाव सन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इति श्रुतेर्मुक्तो मुखाभाषसिद्धिः, मुक्ति पने मात्र के लिये भी मनुष्य की प्रवृत्तिका होना सम्भव है,'-तो यह ठोक नहीं है, क्योकि प्रस्तुत विचार विवेकी मनुष्यों की प्रवृति के सम्बन्ध में है, न कि उन अविवेकी मनुष्यों की प्रवृत्ति के सम्बन्ध में है जो दुःख से कातर हो आत्मघान करने को प्रवृत्त होते है और यह नहीं सोच पाते कि 'आत्मघात उन्हे दुःखोंसे मुक्त नहीं कर सकेगा, अपितु स्वयं एक नया पाप होने के कारण नये जन्म में उनके लिये दुःख का कारण बनेगा' । इसलिये यह कहना सर्वथा उचित है कि दुःखाभाव का यति अनुभव न हो, तो वह भी पुरुषार्थ -पुरुष को काम्य नहीं हो सपाया । यही कारण है कि भूच्छावस्था में दुःख का अभाव होने पर भो उसका अनुभव न हो सकने के कारण उस अवस्था के लिये कोई विवेकी मनुष्य प्रयत्नशील होता नहीं दिखाई देता। यदि यह कहा जाय कि 'तुझ्न न हो' इस उद्देश्य से हो मनुष्य दुःख निराकरण के उपायों को आयस्त करने का प्रयत्न करता है, न कि 'दुःखाभाष का अनुभव हो' इस उद्देश्य से । अतः दुःख का अभाव हो पुरुषार्थ है, न कि दुःखाभाव का अनुभव । वह तो साधन मिलने पर अनुषङ्गतः हो जाता है, अतः वह पुरुषार्थ रूप नहीं है, किन्तु अन्यथा सिद्ध है, तो यह कथन आपाततः समीचीन प्रतीत होने पर भी उचित नहीं माना जा सकता, क्योंकि जो दुःखाभाव अवेद्य (अनुभव के अयोग्य) होगा, वह ज्ञान आदि इष्ट पदार्थों की सानिरूप अनिष्ट से मिश्रित होने के कारण मनुष्य को काम्य न होगा । फलतः उसके लिये मनुष्य की प्रवृत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-'मोक्षकाल में दुम्खाभाव की अनुभूति होती ही नहीं, यह बात नहीं है, होती है अवश्य, किन्तु उस समय अनुभव साधनों के क्षणिक होने से क्षण भर के लिये ही होती है अतःक्षण भर के लिये भी आत्यन्तिक दुखाभाव का अनुभव पा सकने के. लोभ से उसके लिये मनुष्य की प्रवृत्ति हो सकती है,'-शो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दुःखाभाव का क्षणिक अनुभव तो मू. के समय भी सम्भव है. अतः मोक्ष के महान प्रयास की सार्थकता यदि दुःखाभाष के क्षणिक अनुभव में ही मान्य हो सकती है, तो घह तो मूर्छा के समय भो सम्भव है, अतः इस स्थिति में मनुष्य के लिये यही उचित होगा कि वह महान श्रम से साध्य मोक्ष के लिये प्रयत्नशीट न होकर स्वल्पश्रम से साध्य मूच्छविस्था के लिये हो प्रयत्नशील हो। यदि यह कहा जाय कि "अशरीर वाव सम्न प्रियाप्रिये न स्पृशत:'-शरोरहीन जीर को प्रिय और अप्रिय-सुख और दुःख स्पर्श नहीं करते' इस श्रुति से मोक्षकाल में Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या० का टीका व हिं० वि० द्वित्वेनोपस्थितयोः प्रियाप्रिययोः प्रत्येकं निषेधान्बयादिति, तदसत, प्रियाप्रियोभयस्वावच्छिन्नामावस्यैवात्र विषयत्वात्, हित्वस्याख्यातार्यान्विताभावप्रतियोगिगामितयवोपपत्तः । उपपादित चैतदन्यत्र ।। सुखाभाव की सिद्धि होती है, क्योंकि इस श्रुति में 'प्रियाप्रिये' शब्द के उत्तर द्विवचन विभक्ति से उपस्थित विश्व का प्रिय और अप्रिय में अन्धय होने से उनकी उपस्थिति यद्यपि उभयत्वरूप से होती है फिर भी 'न' शब्द के अर्थ अभाव के साथ उनका अन्वय प्रियाप्रियोभयत्व रूप से न होकर नियत्व और अप्रियत्व अपने प्रत्येकरूप से ही होता है, अतः धुतिके 'प्रियाप्रिये न स्पृशतः इस भाग से दियाभाव-मुखाभाव और प्रियाभाव दुःखाभाव इन दो अभावों का ही बोध होता है, न कि प्रिय और अप्रिय के एक उभयाभावका बोध होता है, क्योंकि उभयाभाव के एक होने से स्पृशनः शब्द के द्विवचन आख्यात 'तस्' प्रत्यय के विस्वरूप भई का अन्वय उल में न हो सकेगा।ना यह कथन टीक नहीं है; क्योंकि उक्त श्रुति के "प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इस भाग से प्रियाभाष और अप्रियाभाव इन दो अमायों का बोध न मान कर त्रिय और अपिय के एक उभयाभाव का ही बोध मानना 'उधित है, क्योंकि द्विवचनान्त कियापद के सन्निधान में 'न' शब्द से जिस अभाव का बोध होता है उसमें आख्यात तिा प्रत्यय के संख्यातिरिक्त अर्थ का अन्वय तो हो सकता है पर उसके संख्या रूप अर्थ का अन्वय अभाव के प्रतियोगी में ही करना पड़ता है, अन्यथा इस औचित्य का एक बीज यह भ है कि प्रतियोगी में उपलक्षणरूप में किसी भी धर्म का भान अमान्य होने के कारण प्रिय और अप्रिय में उपयल्य का भान विशेषणरूप में हा मानना होगा अतः 'प्रतियोगी में विशेषण हो कर भासित होने वाला धर्म प्रतियोगिता का अवच्छेदक होता है' इस निगम के अनुसार प्रियामियोभन्यत्व के प्रतियोगितावच्छेदक होने से पियाप्रिये नस्पृशतः' इन शब्दों से विधायि उभय के एक अभाव का ही बोध हो सकता है न कि प्रियाभाव और अमियाभाव इन दो अभावों का । २ शक्का हो सकती है कि “प्रियाप्रिये न स्पृशतः' इस वाक्य के द्विवचन सुए और द्विवचन आख्यात इन दो पदो से उपस्थित द्विलका अन्वय यदि विभिन्न अर्थो में न होकर प्रियाप्रिय रूप एक ह। पदार्थ में होगा, तो द्वित्वरूप एक ही अर्थ को उपस्थित करने वाले दो पदों में एकका प्रयोग व्यर्थ होगा ।" इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सम्भेदे नान्यतरवैयर्थ्यम् इस न्याय के कारण उक्त शंका को अवकाश नहीं प्राप्त हो सकता । न्याय का अाशय यह है कि जहां सम्मेद होता है-एक अर्थ के बोधक दो पदों के प्रयोग की विवशता होती है, वहां दो पदों में किसी भी पद का प्रयोग व्यर्थ नहीं होता, क्योंकि दोनों पदों से उपस्थित होने वाले एक अर्थ का एकचैव बोध होने में दोनों पदों का तात्पर्य मान लिया जाता है। जैसे द्विवचनान्तक पद का प्रयोग यदि करना है तो व्याकरण की दृष्टि से वाक्य की साबुता के लिये द्विवचनान्त ही क्रियापद का प्रयोग करना होगा । ऐसी स्थिति में कतृ वाचकपदोत्तर द्विवचन सूपू और धातुपदोत्तर द्विवचन आख्यात से द्वित्वम्प एक अर्थ की उपस्थिति और उम अर्थ के एकमा बोध में दोनों पदों का तात्पर्य अपरिहार्य है, अतः एक अर्थ के बोधक दो पदों का प्रयोग करने पर एक का वैवयं वहीं होता है जहां विवशता न होने से ऐसे प्रयोग का परिहार किया जा सकता है; 'घटोऽस्ति,' Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ शा० वा० समुच्चय न चेदेवम्, सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयादुष्प्राप्यमकृतात्मभिः । इत्यादिवचनविशेषः । यदि आख्याता संख्या का भी अन्वय अगर अभाव में ही किया जायगा तो 'पृथिव्यां स्नेहगन्धौ स्तः' - 'पृथिवी में स्नेह और गन्ध इस उभय का अभाव होता है' इस वाक्य में 'स्तः' शब्द असू, धातु के उत्तर द्विवचन 'तस्' प्रत्यय के द्वित्वरूप अर्थ का अन्वय न हो सकेगा, क्योंकि पृथिवी में गन्धाभाव न होने के कारण उस वाक्यों में आये 'न' शब्द से स्नेहाभाव और गन्धाभाव इन दो अभावों का बोध न मानकर स्नेह-मन्ध उभय के एक अभाव का ही बोध मानना पडता है, और उस एक अभाव में द्वित्व का अन्वय स्वीकार करना आवश्यक हो जाता है । 'द्विवचनान्त क्रियापद के सन्निधान में आख्याता संख्या का अन्य 'न' शब्द के अर्थ अभाव में न हो कर अभाव के प्रतियोगी में ही होता है,' इस बात का उपपादन अन्यत्र किया गया है । यदि यह शङ्का की जाय कि उक्त श्रुतिसे सुखदुःखोभयाभाव का बोध मानने पर भी उससे मोक्षकाल में सुखाभाव की सिद्धि हो सकती है, क्योंकि सुख दुख उभर का अभाव सुखाभाव से भी हो सकता है और दुखाभाव से भी हो सकता है सुबाभाव दुखाभाव इस अभाव द्वय से भी हो सकता है। मोक्षकाल में उक्त उभयाभाव किम्मू तक है इस श्रातमें कोई विनिगमक नहीं है। अतः श्रुति का तात्पर्य इस बात में मान सकते है कि मोक्षकाल में सुख-दुखोभय का अभाव सुखाभाव और दुनाभाव उभय मूलक है, तो इस प्रकार उक्त युति से मोक्षकाल में सुबाभाव की सिद्धि होने में कोई बाधा नहीं है'- तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मोक्षकाल में सुखदुख उभय का अभाव सुखाभाव मूलक है या दुःखाभावमूलक है अथवा द्वयमूलक है, इस बात में विनिगमकनिर्णायक का अभाव नहीं है, किन्तु दुखाभावमूलक है यह मानने में विनिगमक है, और वह इस प्रकार कि मोक्षकाल में सुखाभाव का होना विवादग्रस्त है, सर्वसम्मत नहीं, परंतु सुखाभाव का होना सर्वसम्मत है । अतः मोक्षकाल में दुःखाभावमूलक सुख दुःखोभयाभाव को उक्त श्रुति से प्रतिपाद्य मानने में सर्वसम्मति हो सकने के कारण उसके अन्यथा तात्पर्य की कल्पना उचित नहीं है. फलतः उक्तश्रुति से मोक्षकाल में सुखाभाव को सिद्धि नहीं की जा सकती । अपच, मोक्षकाल में सुखाभाव मानने में एक बाधा यह है कि यदि मोक्षकाल में सुखका अस्तित्व न मान कर सुखाभाव का अस्तित्व माना जायगा तो "सुखमात्यन्तिकं यत्र ग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्राप्यमकृतात्मभिः || मोक्ष उसे समझना चाहिये जिस में मनुष्य को पेसे आत्यन्तिक विशुद्ध शाश्वत सुख की प्राप्ति होती है जो इन्द्रियय न होकर बुद्धिषेध होता है. तथा शास्त्रोक्त सत्कमों द्वारा अपने आत्मा का शोध न करने वाले मनुष्यों को दुष्प्राप्य होता है" ऐसे वचनों का विरोध होगा । अतः 'कलशोऽस्ति' इन दोनों वाक्यों के प्रयोग की कोई विवशता नहीं है, इष्ट बोध के लिए दोनों में से किसी का प्रयोग किया जा सकता है, इसलिये यदि दोनों का प्रयोग किया जायगा तो एक का प्रयोग व्यर्थ होगा । एक Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हिं० वि० (स्या०)न च शरीरादिकं विना मुखाद्यनुत्पत्तिाधिका, शरीरादेर्जन्यात्मविशेषगुणत्वावच्छिन्नं प्रत्येव हेतुत्वाव, तत्र च जन्यत्वस्य ध्वंसप्रतियोगित्वरुपस्येश्वरबानादेरिच मुक्तिकालीनज्ञानसुखादेरपि व्यावृत्तत्वादिति । अधिकं मत्कृत 'न्यायालोकाद' अवसेयम्, वक्ष्यते चावशिष्टमुपरिष्टात् ॥२॥ मोक्ष को सुखमय बताने वाले शास्त्रवचनों के अनुरोध से मोक्षकाल में सुखाभाव का अस्तित्व न मान कर सुख का ही अस्तित्व मानना तर्कसंगत पवं न्यायसंगत है। यदि यह कहा जाय कि-'मोक्ष में सुख या सुखानुभव इसीलिये नहीं माना जा सकता कि उस अवस्था में सुख पवं सुखानुभव के उत्पादक शरीर आदि का अभाव होता है, तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर आदि तो आत्मा के जन्य विशेषगुण के ही कारण होते हैं, और मोक्ष काल का सुख पवं सुखानुभव जन्य नहीं होता, अतः शरीर आदि के अभाव में भी मक्षिकाल में सुख एवं सुखानुभय के होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। यदि यह प्रश्न हो कि- 'मोक्षकाल का सुख पवं सुखानुभव यदि जन्य न होगा तो सदातन (यानी अनादिकालीन) होने से बांधनावस्थामें भी रहेगा, फलतः बन्धनावस्था और मोक्षावस्था में कोई अन्तर न हो सकेगा । अथवा अन्सर होने पर भी जो मोक्षावस्था में प्राप्तव्य है वह यदि बन्धनावस्था में भी सुलभ होगा तो मोक्षावस्था के लिये प्रयास करना ध्यर्थ होगा.'- तो इसका उत्सर यह है कि मोक्षकाल के सुख पवं सुखानुभव को जन्य न मानने का यह अर्थ नहीं है कि वह सदातन है, (अनादि प्रकट है.) उसकी उत्पत्ति नहीं होती', किन्तु उसका अर्थ यह है कि मोक्षावस्था में जो सुख पवं सुखानुभव उत्पन्न होता है, अन्य जन्य पदार्थों के समान उसका ध्वंस नहीं होता, अपितु ईश्वर के शान आदि गुणों में जैसे ध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव होता है, उसी प्रकार मोक्षकाल के सुख एवं सुखानुभय को जन्य न मानने का अर्थ है उसे ध्वंस का प्रतियोगी न मानना । इस पर यदि यह प्रश्न हो कि 'मोक्षकाल के सुख पचं सुखानुभव का ध्वंस भले न हो, पर यदि उसकी उत्पत्ति होती है तो मोक्षकाल में शरीर आदि कारणों के अभाव में घट कैसे हो सकेगी?' तो इसका उत्तर यह है कि यदि शरीर आदि को आत्मा के प्रागभावप्रतियोगी रूप अन्य विशेष गुणों का कारण माना जाय, तो मोक्षकाल में शरीर आदि न होने से मुख पर्व सुखानुभव की उत्पत्ति अवश्य असम्भव होगी, परन्तु यसप्रतियोगीरूपजन्यविशेषगुणों का कारण मानने पर यह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि मोक्षकाल के सुख पवं सुस्वानुभव ध्वंस का अप्रतियोगी होने से उनकी उत्पत्ति के लिये शरीर आनि का होगा अनावश्यक है, मोक्षकाल में सुख पवं सुखानुभव की उत्पत्ति शरीर आदि के अभाव में भी हो सके, एतदर्थ शरीर आदि को आत्मा के 'ध्वंसप्रतियोगी विशेषगुणों का ही कारण मानना उचित है। १ आत्माके ध्वसप्रतियोगीविशेषगुणों के प्रति शरीर आदि को कारण मानने के विरुद्ध वह शक्का हो सकती है कि 'ध्वंसका लक्षण है जन्य अभाव, और ध्वंस का ध्वंस न होने से उसकी जन्यता ध्वंसपतियोगीस्वरूप न हो कर प्रागभावप्रतियोगित्वरूप है, अतः ध्वंसपागभावपतियोगी अभाव, तो ध्वंसप्रतियोगी विशेष Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रमास समय वक्तव्ये शास्त्रवार्तासमुच्चये पूर्व सर्वविप्रतिपत्त्यविषयां शास्त्रवार्तामाइ 'दुःखमिति - मूलम्-दुःख पापात् सुख धर्मात् सर्वशास्त्रेषु संस्थितिः । न कर्त्तव्यमतः पापं, कर्तव्यो धर्मसञ्चयः ॥३॥ पापाद् अधर्मात् दुख हति, व सुख जाति-इन अर्जास्त्रेषु समीचीना अविप्रतिपत्तिविषया, स्थितिः मर्यादा । अतो दुःखहेतुतया पापम्-अशुभकर्महेतु न कव्यम्, सुखहेतुतया सचितोऽङ्गवैकल्यादिरहितो धर्मः कर्तव्यः ॥३॥ शुभाशुभहेतूनां कत्तच्याकतव्यत्वमुक्तम् । अथ तदेतूनाह 'हिंसेति । पाप-धर्महेतुपरिहारासेवनाभ्यां तदकरणादि, इति तद्धेतूनाइ 'हिंसे'ति इत्यपरे । मूलम्-हिंसाऽनृतादयः पञ्च तत्त्वा श्रद्धानमेव च।। क्रोधादयश्च चत्वार इति पापस्य हेतवः ॥४॥ प्रस्तुत विचार के उपसंहार में व्याख्याकार का कहना है कि इस विषय में अब तक जो कुछ कहा गया है, यदि उससे अधिक जिज्ञासा हो तो व्याख्याकार के अन्य ग्रन्थ 'न्यायालोक' से बात करना चाहिये । व्याख्याकार ने यह भी सूचना दी है कि प्रस्तुत विषयमें जो धात इस व्याख्याग्रन्थ में अभी तक नहीं कही जा सकी है तथा जो बान 'यायालोक' में स्पष्ट उपलभ्य नहीं है, उसका प्रतिपादन इस व्याख्याग्रन्थ में ही आगे किया जायगा ॥२॥ इस ग्रन्थ में विभिन्न शास्त्रों की जो बातें कहती हैं उनमें उस चातको, जिसमें किसी शास्त्र की विमति नहीं है, ग्रन्थकारने पहले कहा है। वह बात यह है कि अधर्म से वुःख होता है और धर्म से सुख होता है-यह मभी शास्त्रों का ऐसा सिद्धान्त है जिसमें किसी का कोई वैमत्य नहीं है। इसलिये मनुष्य को दुःख के हेतुभूत अशुभकर्म के उत्पादक पाप कर्म का अनुष्ठान नहीं करना चाहिये और सुख के हेतुभूत धर्मकार्य का अनुष्ठान करना गुण का अर्थ होगा प्रागभायप्रतियोगी अमाव का प्रतियोगीविशेषगुण, तो आरमा के भागभावप्रतियोगी अभाव के प्रतियोगी विशेषगुण के प्रति शरीर आदिको कारण मानने की अपेक्षा तो आत्माके पागभावप्रतियोगी विशेषगुण के छी प्रति शरीर को कारण मानना उचित है क्योंकि कार्यतावशेदक के शरीर में प्रागभावप्रतियोगी अभाव के प्रतियोगित्त्र के निवेश की अपेक्षा प्रागभावप्रतियोगित्व के निवेश में लाघव है और उस स्थिति में मोक्षकाल में शरीर आदि का अभाव होने से सुख एवं सुखानुभव की उत्पत्ति सम्भव नहीं हो सकती । __इस शशा के उत्तरमें यह कहा जा सकता है कि विशेषगुण के विशेषणरूप में प्रागभावतियोगित्व का कार्यतावच्छेदक के शरीर में निवेश करने में कोई लापन नहीं है, क्योंकि प्रागभाव का लक्षण हे ध्वंसप्रतियोगी अभाव, अतः प्रागभावप्रतियोगी का अर्थ होगा ध्वमप्रतियोगीअभाव का प्रतियोगी, तो फिर विशेषगुण में वंसप्रतियोगीअभाव के प्रतियोगित्वका निवेश न कर स्वसप्रतियोगिव का ही निवेश करने में लाघव होने से आत्मा के ध्वंसप्रतियोगी विशेषगुण के प्रति शरीर आदि को कारण मानने में कोइ भाषा नहीं है, क्योंकि वंस का प्रभावप्रतियोगी-अभावत्वरूप से निशन कर अखण्ड उपाधिस्वरूप ध्वंसत्वरूपसे निवेश करने पर उक्त शक्का को अवकाश नहीं प्राप्त हो सकता । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका वहि. वि० प्रमादयोगेन प्राणव्यपरोपणं हिंसा, धर्मविरुद्धं वचनमनृतम् आदिपदाद् धर्मविरोar स्वामिजीवाद्यननुज्ञात पर की यद्रव्यग्रहणमदत्तादानम्, स्त्री-पुंसव्यतिकरलक्षणमब्रह्म, सर्वभावेषु लक्षणः परिग्रहश्व परिगृयते । अत्र च 'आदि' शब्दादवरोधेऽप्यनृतग्रहणं प्राधान्यख्यापनार्थम् इति वदन्ति । तत्ख्यापनं च प्रभृतिप्रधानार्थकयोरादिशब्दयोः कृतैर्वादेवेति प्रतिभाति । 'आधे परोक्षम् ' (०० १-११) इत्यत्रेवोत्तरत्रयाऽपेक्षमाद्यत्वमित्याक्षेपादेवानृतस्य प्राधान्यं लभ्यत इत्यपरे । एते पञ्चाविरतिरूपाः । तस्य यथास्थितवस्तुनोऽश्रद्धानं यस्मादिति बहुव्रीह्याश्रयणात् तच्चाश्रद्धानं मिध्यात्वम् । पत्रकारः प्रसिद्ध्यर्थः । च पुनरर्थः । क्रोधादयः - कोध- मान-माया - चोभाव चत्वारः इति एतावन्तः | योगानां साधारण्येनाग्रहणात् विषयप्रमादात्तरौद्रादीनां चात्रैवान्तर्भावशद, इति एवं प्रकाश वा पापस्य अशुभकर्मण: हेतवः कारणानि ॥ ४ ॥ ४९ चाहिये। धर्म का अनुष्ठान मेसी सावधानी से किया जाना चाहिये जिससे उसमें संचितता रहे अर्थात किसी को कोई त्रुटि होने पाये ॥३॥ व्याख्याकार ने चौथी काशिका का अवतरण दो प्रकार से बताया है, एक अपनी ओर से और दूसरा अन्य विद्वानों की ओर से । उनका अपक्ष कहना यह है कि तीसरी कारिका में शुभ के हेतुभूत कर्मों को कर्तव्य और अशुभ के हेतुभूत कर्मों को अकर्तव्य कहा गया है, किन्तु यह नहीं बताया गया कि वे कर्म क्या हैं, अतः 'हिंसानृतादयः' इत्यादि चौथी कारिका से उनका प्रतिपादन किया जा रहा है । अन्य विद्वानों का कहना यह है कि तीसरी कारिका में पार को न करने और धर्म को करने का उपदेश दिया गया है, किन्तु पाप का न करना पापके हेतुओं के परिहारसे और धर्म का करना धर्म के हेतुओं के सेवन से ही सम्भव है, जिन्हें उक्त कारिका में नहीं बताया गया है । अतः अग्रिम चौथी कारिका से उन हेतुओं का प्रतिपादन किया जा रहा है। चौथी कारिका में यह बताया जा रहा है कि हिंसा असत्य आदि ( दुष्कृत्य) एवं तस्वभूत पदार्थ का अश्रद्धान ( मिथ्यात्व) व क्रोधादि चार (कपाय) ये पाप के हेतु हैं । 'हिसानुनादयः' का अर्थ है हिंसा, अनृत, असादान, अब्रह्म और परिश्र । उनमें हिंसा तथा अमृत का प्रत्यक्ष उल्लेख है । और अन्य तीन का आदि शब्द से उल्लेख है । हिंसा - हिंसा का अर्थ है किसी जीव का प्रमादवश प्राणान्त करना। 'प्रमाद'का अर्थ है आत्मभाव से व्युत होना, अनात्मस होना, जीवरक्षादि के विषय में असावधान रहना । मज्जे विमय कसाया निद्दा विगहा य पंच पमाया' मयादि व्यसन, शब्दादि विषय, क्रोधादि हास्यादि काय निद्रा आलस्य अनुप्रयोग व राजकथादि चिकथा, ये प्रमाद हैं । अ- अनृतका अर्थ है धर्मविरुद्ध बोलना । 'धारणाद् धर्मः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार धर्म शब्द का अर्थ है धारक रक्षक, मिस वचन से धर्म का विरोध हो, किसी जीव के १. दृष्टव्य] सिरियाल - कहा । शां. वा. ७ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० शास्त्रवासिमुच्चय प्राण का संकट हो, वह पचन अमृत वचन है, मिथ्याभाषण है । इसके अनुसार यह सत्यभाषण भी भनूतकोटि में आ जाता है जिससे किसी जीवकी रक्षा में बाधा पडे । अदत्तादान- अदत्तादान का शब्दार्थ है अदत्त का आदान-न दी हुयी वस्तु को ग्रहण करना। अर्थात् पेसे द्रव्य को ग्रहण करना, जिसके लिये उसके 'स्यामी-जीव-तीर्थकर और अपने गुरु की अनुमति न हो। जीव हिंसा में उस जीव से अदत्तप्राण का आदान होता है, इस में उस जीव की अनुमति नहीं होती है। ___ अब्रह्म- अब्रह्म का अर्थ है ब्रह्मविरोधी आचरण, 'कन्याद् ब्राह्म' इस व्युत्पत्ति के अनुसार मनुष्य शरीर के Jहण-पोषण और संवर्धन का साधन होनेसे ब्रह्मा शब्द का अर्थ है घीर्य, इसलिये अब्रह्म का अर्थ है वोर्यनाशक कार्य, और वह है स्त्री-पुरुष का ध्यतिकर- यौनसम्पर्कपर्यवसायी स्त्री पुरुष का पारस्परिक व्यवहार । परिग्रह- परिग्रह का अर्थ है "सभी भावों में मूर्छा का होना-संसार की किसी भी पस्तु पर ममत्य होना, अधिकार स्थापित करने की अकांक्षा का होना । हिंसानृताश्यः' के सम्बन्ध में यह प्रश्न होता है कि-आदि शब्द से अमृत का भी प्रहण सम्भव होने से अनुस का पृथक् उल्लेख अनावश्यक है । इसके उत्तर में कुछ लोगों का कहना है कि हिंसा आदि पांवों में अनूत की प्रधानता बताने के लिये उसका पृषक उल्लेख किया गया है। उनका आशय यह है कि हिंसाऽनृतादयः' शब्द में आये 'भावि' शब्द में "आविश्व आदिश्च आदो" इस प्रकार एकशेष हुआ है, अतः उसके दो अर्थ है-प्रभृति और प्रधान। प्रभृति अर्थ में हिंसा का और प्रधान अर्थ में अनृत का अन्वय होने से 'हिंसाऽनुसादयः' का अर्थ है-अनृतप्रधानक-हिंसाप्रभृतिकार्य। ___अन्य लोगों का कहना है कि जैसे 'मति, श्रुत, अधि, मनःपर्याय तथा केपल, शाम के इन पांच मेदों में मति और श्रुत में अवधि आदि उत्तनिर्दिष्ट तीन बानों की अपेक्षा प्रथम निर्देशगम्य आयत्व को ले कर 'आधे परोक्षम्' इस सूत्र में उन्हें परोक्ष कहने के लिये आद्यशब्द से उन दोनों का उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार 'हिंसानृतादयः' में यह कहा जा सकता है कि अदत्तादान, अब्रा और परिग्रह इन उत्सर निविष्ट तीनों की अपेक्षा हिंसा व अनृत ये दो आद्य होनेसे आदि शब्द से पूर्व में अनृत का उल्लेख किया गया है और आयत्यहेतुक अनुमान से उसमें प्राधान्य का शोध होता है। ____ हिंसा, अनृत आदि कर्मों के प्रतिज्ञाबद्ध अत्याग को पाँच अधिति कहा जाता है। अधिरति का अर्थ है-हिंसादि की सतत अपेक्षा की विश्वान्ति न हो । इससे पापारमक अशुभकर्मयम्ध की भी घिरति-विश्रान्ति महीं होती है । निरन्तर नये नये पापकर्मों का बन्ध होता रहता है । हिंसा, अन्त आदि का जहाँ तक प्रतिक्षाबद्ध त्याग नहीं है यहाँ तक, भले हिंसादि का आचरण न भी हो, तो भो पापात्मक कर्मा की परम्परा बनती रहती है, उसकी विरति नहीं होतो है । इसीलिये प्रतिशाबद्ध त्याग नहीं किये ये पांचों कर्म अधिरतिरूप माने जाते हैं। १. सामिजीवादत्त तित्थयर-अदत्तं तहेव गुरुहिं । एवं अदत्तं चउहा पन्नत्त वीयरावहिं ।। अति२. मुच्छा परिगहो वुत्तो--उत्तराध्ययन सूत्र | ३. दृष्टव्य "रावार्थ० १।९" | [चार सूत्र Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कालीका वह, ra 'तयाऽश्रद्धाम' शब्द में 'तत्वस्य अश्रवानं यस्मात-जिसके प्रभाष से तत्त्व के विषय में अश्रद्धान का उदय हो'-इस अर्थ में बहुव्रीहि समास है। तस्वशब्दका अर्थ है वस्तु का पह सर्वशष्ट लवंशकथित पदार्थ स्वरूप हिलसे उसकी स्थिति है । 'अश्रद्धान' का अर्थ है अन्ययास्त्रीकार, मिथ्यामान्यता, जिस रूप से निस वस्तु की स्थिति नहीं है उस रूप से उस वस्तु को मानना-स्वीकारना । इसप्रकार का अश्रद्धान जिससे उत्पन्न हो वही बहुप्रीहि समास द्वारा 'तत्याऽअदान' शब्द का अर्थ है, और वह है 'मिथ्यात्व'-मात्मगत चिरन्तन मिथ्या भाष मिथ्यावासना, जिससे भ्रान्तियों का जन्म होता है। कारिका में आये 'पव' शब्द का अर्थ है, प्रसिद्धि और 'च' शब्द का अर्थ है 'पुनः' । इम दोनों का अन्वय है तखाबद्धान मिथ्यात्य के साथ । 'क्रोधादयः' में आदि शव से मान, माया और लोभ का ग्रहण अभिमत है। ये प्यार 'कषाय' कहे जाते हैं । 'इति' शब्द का अर्थ है "ईतना अमुकसंख्यक" । _ 'योग धर्म और अधर्म दोनों के साधारण कारण हैं अतः अधर्म के विशेष कारणों में उसकी गणना नहीं की गयी है । 'विषय, प्रमाद, मार्तध्यान, 'रौद्रध्यान, आदि भी यद्यपि अधर्म के कारण हैं तथापि उनका पृथक उल्लेख इसलिये नहीं किया गया कि उनका अन्तर्भाव अधर्म के उक्त कारणों में ही हो जाती है अतः अधर्म के कारिकोक्त कारणों को एक नियत संण्या में निर्दिष्ट करने में कोई असंगति नहीं है। अथवा 'इति' शब्द का इसना--अमुकसंख्यक अर्थ न करके इस प्रकार' अर्थ करना चाहिये, इस अर्थ के अनुसार कारिका में बताये गये अधर्म के कारण उसके अन्य कारणों के उपलक्षण हो जाते है। और अन्य कारणों का होना इन कारणों के उल्लेख में बाधक नहीं हो सकता , और अन्य कारणों का उल्लेख न होने से अन्ध में न कोई न्यूनता ही हो सकती है। ___ पाप शब्द का अर्थ है अशुभकर्म और हेतु शब्द का अर्थ है -कारण | प्री कारिका का अभिप्राय यह है - १. काया, वाक् और मन की चेष्टायें । ये शुभ-अशुभ दो प्रकार की होती है । शुभ योग धर्म का प अशुभयोग अधर्म का कारण बनता है। २, शब्दादि विषयों की अशक्ति, जो पञ्चविध प्रसाद में मुख्य है। ३. भ्रम-अशान विस्मृति-संशवादि-प्रमाद है-(दृष्टव्य 'तत्त्वार्थ' सिद्धसेनीय टीका) ४. अनिष्ट सम्पक के परिहार या अनागमन को चिन्ता, उपस्थित रोग के प्रतिकार की चिन्ता; इष्ट वस्तु की सुरक्षा या प्राप्ति की चिन्ता, अप्राज इष्ट वस्तु की प्राप्ति की चिन्ता, यह चतुर्विध चिन्ता ही 'आर्टभ्यान' है, दृष्टब्य "तत्वाथै ३१३१ से ३४" | ५ हिंसा, असत्य, चोरी या विपयरक्षण के सम्बन्ध में होने वाली परकाय रौद्रचिन्ता का नाम है 'रौद्रध्यान' दृष्टव्य "तल्यार्थ० ३१३६" ६. 'विषय' इन्द्रियधित्रयों की आसक्तिरूप है इसका अविरति में समावेश होता है । 'प्रमाद' मयादिका अविरति व कपास में अन्तर्भाव होता है । 'पार्न रौद्रध्यान' अशुभ एकाग्र मनोयोग रूप है, वे रागद्वेषमूलक व रागद्वेषमिश्रित होते है, अतः उनका समावेश कषाय में होता है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ शास्त्रवासिमुख चय र विपरिलानु पस्या मरा गोदिन नः ! एतेषु सततं यत्नः सम्यक् का यः सुखैषिणा ||५|| (स्था०) विपरीतास्तु-अहिंसातत्याऽस्नेयमाऽपरिग्रह-सम्पग्दर्शन-शान्ति-मार्दवाऽऽर्जबानीहारूपाः, तुर्विशेषणे, एत एष बुधरन नानुसारिगीताथै, धर्मस्य गुणाः शुभाशयलक्षणस्य हेतव उदिताः । अत एतेषु. सततं-निरन्तरं सुखैषिणा कल्याणकामेन सम्यग विधिना, यत्नः कार्यः, मुखोपाये प्रवृत्तरेव मुखोत्पत्तेः। . हिंसा अनृत आदि पांच अबिरतियां, तत्वधान्तिका कारण मिथ्यात, तथा क्रोध आदि चार करायरूप मनोविकार. ये तथा इस प्रकार के अन्यभाष अशुभ कर्म के कारण होते हैं । अशुभकर्म से बचने के लिये इन कारणों का परिधार आवश्यक है। पूर्व पारिका में जिन कमों को अधर्म का हेनु कहा गया है. उन कर्मों के विरोधी कर्मों को जैसे हिसा, सत्य, अचोय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह अनासक्नि, सम्यग दर्शन, क्षमा, मृदुता, ऋजुता, निर्लोभता आदिको भगवान् बहन के उपदेशानुसार अर्थतत्व की ध्याख्या करने वाले विद्वानों ने शुभअध्यवसायरूप-परिणतिरूप धर्म का कारण बताया है। इसलिये अपने कल्याण की कामना करने वाले मनुष्य को शास्त्र में बतायी गयी विधि से धर्म के इन कारणों के सम्पादनार्थ सदैव प्रयत्नशील होना चाहिये, क्योंकि सुख के उपायों के प्रयत्न करने से ही सुस्त्र की प्राप्ति होती है। ग्रन्थकार का आशय यह है कि-भगवान् तीर्थकर ने जीवमात्र के हितार्थ फहे हुए वचनों के अनुसार गणधा शिष्यों ने आगमों की रचना की है। उन आरामों में हेय. उपादेय दो प्रकार के कर्मों का वर्णन है । हेय वे कर्म है, जिनके करने से अशुभअध्यवसाय रूप अधर्म, व पाप की उत्पत्ति होती है, और उसले मनुष्य को विविध दुग्यों की प्राप्ति होती है। उनमें मुख्य कर्म हैं, हिसा, असत्यभाषण, अदत्त घस्तु का ग्रहण, ब्रह्मचर्य का अभाव, आसक्ति, मिथ्यात्व, क्रोध, मान, कपटपूर्ण व्यवहार (माया) और लोभ । आगमों में इन कमों को न करने का निर्देश दिया गया है। दूसरे उपादेय कमे वे हैं जो अधर्म के उत्पादक उक्त कर्मों के विरोधी हैं, जैसे अहिंसा, सत्य आदि। इन में अहिंसा का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि हिंसा न की जाय, किन्तु इसका अर्थ है ऐसे समिति गुप्तिगालन आदि कर्मों को करना जिससे दिसा का माग बन्द हो, क्योंकि हिसा का त्याग करने से हिसा मूलक पाप से मुक्ति और उस पाप से होने वाले दुःख की अनुत्पत्ति मात्र का तो लाभ होगा, पर हिंसा का त्याग कर देने मात्र से दुम्वाभाव के अलावा कोई उपार्जन न होगा, फलतः मनुष्य को कल्याणकर्म की उपट किंध न हो मकेगी । मनुष्य को केवल इतना ही आवश्यक नहीं कि उसे अशुभ अध्यवसाय न हो किन्तु उसके साथ यह भी आवश्यक है कि उसे शुभ अध्यबसायकी प्राप्ति हो । अतः दु ख कर अशुभ अध्यवसाय से मुक्ति पाने के लिये उसे जिस प्रकार दुःखद अशुभ अध्यवसाय के प्रेरक पापकर्मों का परित्याग आवश्यक है उसी प्रकार शुभ यवमाय की सानिन के लिये उसे समिति-गुप्ति आदि कर्मों का अनुष्ठान भी आवश्यक है। इसो तथ्यको दृष्टि में Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हि० षि० स्वभावतः सुखदुःखेच्छाद्वेषवतामपि प्राणिनां सुखोपाये धर्मेऽनिच्छा, दुखोपाये चाsधर्म एवेच्छा खलु मोहमहाराज निदेश विलसितम् तदुक्तम्"धर्मस्य फलमिच्छन्ति धर्मं नेच्छन्ति मानवाः । } फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति सादग" ॥ इति . उत्तहेतुषु प्रवृत्या च अहिंसादिनाऽविरतेः सम्यग्दर्शनेन च मिथ्यात्वस्य, क्षमादिना च क्रोधादीनां निवृत्तेस्तन्मूलकदुःख विरहाद निवारितः सुखाऽवकाशः | रख कर प्रस्तुत कारिका में अधर्म के कारण हिंसा आदिके अभाव को धर्म का कारण न कह कर 'विपरीतास्तु' शब्द से हिंसा आदि के विरोधी कर्मों को धर्म का कारण बताते हुये उनके लिये सतत प्रयत्नशील होनेकी प्रेरणा दी गयी है । प्राणी को सुख की इच्छा और दुःख के प्रति द्वेष का होना स्वाभाविक है । यदि frer व्यक्ति से यह पूछा जाय कि वह सुख की कामना क्यों करता है, तो उसके पास इस बात को छोड़ कर दूसरा कोई उत्तर नहीं है कि सुख का स्वरूप ही ऐसा है कि वह ज्ञात होने मात्र से ही काम्य हो जाता है । इसीलिये सुखनिष्यविषयता सम्बन्ध से इच्छा के प्रति सुखनिष्टविषयता सम्बन्ध से ज्ञान को कारण माना जाता है । इसी प्रकार किसी व्यक्ति से यदि यह प्रश्न किया जाय कि वह दुःख से क्यों करता है तो यह इस बात को छोड़कर दूसरा कोई उत्तर नहीं दे सकता कि दुःख का स्वरूप ही ऐसा है कि यह ज्ञात होते ही त्याज्य प्रतीत होने लगता है । इसीलिये दुःखनिष्ठ विषयता सम्बन्ध से द्वेष के प्रति दुःख निष्टविषयता सम्बन्ध से ज्ञान को कारण माना जाता है । सुख और दुःख के स्वभावतः काम्य और द्वेष्य होने से उचित यह है कि सुख के उपायभूत धर्मकार्यों में मनुष्य की रुचि हो और दुःख के उपायभूत अधर्मकार्यों में उसकी अरुचि हो, पर ऐसा न होकर होता है इसके विपरीत, धर्मकार्यों में होती है मनुष्य की अहमि और अधर्मकार्यों में होती है उसकी रुचि । ऐसा क्यों होता है ? यह होता है इसलिये कि मनुष्य मोहवश अधर्मकार्यों को सुख का साधन और धर्मकार्यो को दुःख का साधन समझने लगता है। सुख और दुःख के साधनों के सम्बन्ध में यह विपरीत बुद्धि जिम मोह के कारण होती है, उसी का नाम है मिथ्यात्व | और वह है आरमा के वास्तव स्वरूप का विस्मरण हो कर अनारमा में आत्मबुद्धि का होना । इस प्रकार धर्मकार्यों में अरुचि तथा अधर्मकार्यों में रुचि का होना व्याख्याकार के कथन के अनुसार मोहमहाराज के आदेश का प्रतिफल है, जिसकी पुष्टि में उन्होंने इस आशय की एक प्राचीन कारिका उद्घृत की है कि 'मनुष्य धर्म का फल तो चाहते हैं पर धर्म परना नहीं चाहते, और पाप का फल नहीं चाहते, पर पापकर्म बड़े आदर से करते हैं' । व्याख्याकार का कहना है 'कि-धर्म के अहिंसा आदि उक्त कारणों के लिये प्रयत्नशील होने से अहिंसा आदि अविरतियों की सम्यगदर्शन से मिथ्यात्व की व क्षमा आदि से क्रोध आदि की निवृत्ति होती है। फलतः हिंसा आदि से होने वाले दुःखों Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवातासमुच्चय "अहिंसया क्षमया क्रोधस्य, ब्रह्मचर्येण वस्तुविचारेण कामस्य, अस्तेया-ऽपरि ग्रहरूपेण सन्तोषेण लोभस्य. सत्येन यथार्थज्ञानरूपेण विवेकेन मोहस्य, तन्मूलानां च सर्वेषां निवृत्तिः" इति तु पातकनसतानुपारिगः । तत्रे विमानोयम्-अहि सादिना मूल गुणघातिकोवादिनिवृत्तावपि संचलनादिरूपको वादिनिवृत्तिः क्षमायुत्तरगुणसाम्रज्यादेव ॥५॥ की उत्पत्ति न होने से सुख की उत्पत्ति का द्वार खुल जाता है । कहने का आशय यह है कि अधर्मकार्यों का अनुष्ठान होते रहने पर पहले तो धर्मकार्यों का अनुष्ठान ही नहीं हो पाता, और यदि होता भा है तो उनसे विशुद्ध सुग्न का उदय नहीं हो पाता । अतः विशुद्ध सुख के उदय को निष्प्रतिवन्ध बनाने के लिये यह आवश्यक है कि अधर्मकारणों का त्याग और धर्मकारणों का सेवन सावधानी और श्रम के साथ किया जाय । 'पातम्जलमत का अनुसरण करने वाले बुध जनों का कहना है कि-क्रोध काम लोभ और मोह ये चारों दुःख और दुष्कर्म के द्वार हैं । उनका मूल है मोह-मिथ्याशान-आत्म. धान्ति । अतः दुःख और दुरुकर्मों से मुक्ति पाने के लिये इन चारों का निराकरण आव. श्यक है, इन में क्रोध की निवृत्ति अहिंसा और क्षमा से, काम को निवृत्ति ब्रह्मचर्य और वस्तु-विखार से, लोभ की निवृति अस्तेय और अपरिग्रहरूप सन्तोष से, तथा मोह की निवृत्ति सत्य और यथार्थ शानरूप विवेक से करनी चाहिये । कोध आदि की निवृत्ति हो जाने पर तम्मूलक दुःख और दुष्कर्मों की निवृत्ति अनायास हो जाती है। व्याख्याकारने इस कथन पर अपनी विमति प्रकट की है। उनका आशय यह है कि क्रोध, काम, लोभ और मोह के दो रूप हैं-एक स्थूल और दूसरा सूक्ष्म । जैनपरिभाषा नुसार स्थूल क्रोधादि (१) अनन्तानुबन्धी, २) अप्रत्याख्यानीय च (३) प्रत्याख्यानावरणीय कोटि के होते हैं । विवेक सम्यक्त्व व संयम से हीन संसारासक्त मनुष्यों पर स्थूलक्रोधादि का आक्रमण होता है, और उनसे उनके अहिंसादि मूलगुणों का सर्वथा विधात होता है। सर्वथा महिंसादि भूलगुण वाले संयमी और विवेकी मनुष्यों पर स्थूलक्रोधादि का भाक्रमण नहीं हो पाता पर सूक्ष्मक्रोधादि से वे भी आक्रान्त होते रहते है, स्थलकोधादि से अप्रभावित होने के कारण ये अपने मूलगुणौ को हानि से तो बचे रहते है पर सुक्ष्मक्रोधादि के कारण उनको आध्यात्मिक उन्नतिविशेष में अन्तराय होता रहता है जिसके फलस्वरूप परमकल्याणमय सम्पूर्ण वीतराग अवस्था की उपलब्धि में बाधा पहुँचती रहती है। इसलिये स्थूल-सूक्ष्म दोनों प्रकार से क्रोधादि की निवृत्ति अपेक्षणीय है। अडिसा आदि से स्थूल क्रोधादि की निवृत्ति तो हो सकती है, पर सूक्ष्म क्रोधादि, जिन्हें जैमशास्त्रों में 'संज्वलन कषाय' शब्द से अभिहित किया गया है, की निवृत्ति क्षमा आदि उनास गुणों के संबंधन से ही सम्पन्न की जा सकती है। अतः जैनशास्त्रों का यह मत ही मान्य है कि अहिंसा आदि से हिंसादि अविरतियों की, सम्यग्दर्शन से मिथ्यात्व की एवं क्षमा आदि सद्गुणों से क्रोधादि दुर्गुणों की निवृनि कर नमूलक दुःखों की उत्पत्ति का निरोध करने से ही कल्याणोदय का द्वार उद्घाटित होता है। १. पतञ्जलि ऋषि प्रणीत योगदर्शन के सिद्धांतों को पातञ्जलभत के रूप में निर्दिष्ट किया गया है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क.. टीका व हिं. वि० (स्या०) अहिंसादिसम्पत्ति निमित्तमेवाइ-साध्विति मूलम् - साधुसेवा सदा भक्त या मैत्री सरयेषु भावतः । ____ आत्मीयग्रहमोक्षश्च धर्महेतुप्रसाधनम् ॥६॥ सदा-सर्वकालम्, भक्तया-बहुमानेन, साधुसेवा-मानदिगुणवृद्धोपासना, भावतोनिश्चयतः, सन्वेषु प्राणिषु, मैत्री-प्रत्युपकारनिरपेक्षा प्रीतिः । आत्मीयग्रहस्यममत्वपरिणामस्य मोक्ष:- परित्यागो यस्माद, बाह्यसङ्गल्याग इत्यर्थः । स च धर्महेतनामहिंसादीनां प्रकृष्ट-फलायोगव्यवच्छिन्नं साधनम् । अत्र 'प्रसाधनम्' इत्येकवचनेन स्वेतरसकलकारणनियतत्वं व्यज्यते ॥६॥ ___इस कारिका में धर्म के अहिसा भादि हेतुओं के सम्पादन का निमित्त बताया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है धर्मकामी मनुष्यों को ये तीन कार्य सदा करने चाहिये, (१) साधुजनों को भक्ति पूर्वक सेवा, (२) सभी प्राणियों के साथ भावपूर्वक प्रत्युपकार निरपेक्ष प्रीति, और (३) बाह्यला का परित्याग . दुलन कार्य है विनुभवृाजार से अधिक पान आदि सद्गुणों से सम्पन्न पुरुष, और उनकी सेवा का अर्थ है उनके सम्पर्क में आना, उनके उपदेश सुनना और उनके उपदेशों को जीवन में उतारने का प्रयत्न करना । यह तभी सम्भव है जब सेवाकारी में पैसे पुरुषों के प्रति भक्ति हो, सम्मान की भावना हो और उनके साथ सदेव सम्पर्क बनाये रहने की कामना हो । भावपूर्वक प्रत्युपकारनिर. पेक्ष प्रोति का अर्थ है प्राणियों के साथ पेसा प्रेम, जिसमें प्रत्युपकार की कुछ भी अपेक्षा न हो और उसे स्थिर रखने का दृढ़ निश्चय हो । इसके लिये आवश्यक है कि अपने स्वार्थमा को न देखकर प्राणियों से प्रेम करना, उनके कल्याण की कामना रस्त्रना, उनके प्रति वैर विरोध व ट्विंसा की भावना न रखना मनुष्य का स्वभाव बन जाय । कारिका के 'आत्मीय प्रहमोक्ष' शब्द का अर्थ है वह कार्य, जिससे आत्मीयग्रह से-अर्थात् ममत्व धुद्धि के बन्धन से मुषित हो सके । वह है, बाहासा का परित्याग | बाह्यसको परित्याग का अर्थ है सांसारिक विषयों में सुम्बसाधनता को बुद्धि और तन्मूलक विषयासक्ति का परित्याग । ___ उक्त तीनों कार्यो में बाह्यसङ्गत्याग का सर्वाधिक महत्व है, क्योंकि वह धर्म के अहिंसा आदि हेतुओं का एकमात्र प्रकृष्ट साधन है। 'प्रकृष्ट साधन' का अर्थ है वह साधन जिसमें फल का अयोग कभी न हो, जिसके उपस्थित होने पर फलोदय अनिवार्य हो, पेसा साधन वही हो सकता है जो फल के अन्य सभी साधनों से युक्त हो, जिसके उपस्थित हो आने पर फिर किसी अन्य साधन की उपस्थिति अपेक्षणीयन रह माय । यही बात 'प्रसाधन शम्न के उत्तर पक वचन विभक्ति के प्रयोग से व्यक्त की गयी है। बाखसा का त्याग धमहेतुओं का पेमा दो साधक है जिसके सिद्ध हो जाने पर अहिंसा आदि हेतु अनायास सम्पन्न हो जाते हैं। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : शास्त्रवाचासमुच्चय 0 . साधुसेवाध्यापारमाह 'उपे'तिमूलम्--उपदेशः शुभो नित्यं, दर्शनं धर्म वारिणाम् । स्थाने विनय, इत्येतत् साधुसेवाफले महत 101 नित्यं-निरन्तरं भभो-निःश्रेगसाऽम्युगहेत: उपोशो-गौनीन्द्रप्रवचनपतिपादनरूपः । भवजलधियानपात्रप्रायः खल्ययम् । अस्य श्रवणमात्रादेव समीहितसिद्धेः, सुतरां च तदर्थज्ञानात् । तथा धर्मचारिणामुद्यतविहारपरायणानां साधूनां. दर्शनमुखारविन्दावलोकनम् , एतदपि परमबोधिलाभहेतुः, ततः फिलष्टकर्मविगमात् । तथा. स्थाने-शास्त्रोक्तस्थले, विनयः करशिरःसंयोगविशेषाभिव्यङ्गयो मानसः परिणामविशेषः । इत्येतत् साधुसेवाफलं महद् धर्माङ्गसाधनम्, उपदेशादिना चारित्रप्रतिवन्धककर्मक्षयोपशमादिना चारित्रधर्माऽवाप्तेः ॥७|| इस कारिका में साधुसेवा का बह व्यापार बताया गया है जिसके द्वारा साधुसेवा से धर्म हेतुओं का सम्पादन होता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है साधुसेवा के ये तीन महान फल हैं-(१) निरन्तर शुभ उपदेश की प्राप्ति, (२) धर्म के लिये विहरणशील साधु पुरुषों का दर्शन और (३) उचित स्थान के प्रति मन में ननभाषना का उदय । (१) शुभ उपदेश का अर्थ है घर उपदेश जिससे मुख्यरूप से निःश्रेयस-परमकल्याण-मोक्ष की और गौण रूप से अभ्युदय-स्वर्ग -सुख की प्राप्ति हो । उपदेश का अर्थ है, मुनीन्द्र तीर्थकर भगवान के प्रवचनों की व्याख्या, न कि आगम. निरपेक्ष मनमाने ढंग का शिक्षण, क्योंकि ऐसे शिक्षण से तात्कालिक कुछ लोकिक लाभ भले हो जाय, पर उससे निन् यस अथवा अभ्युदय की प्राप्ति नहीं होनी। आगमानुसारी पदेश ही यथार्थ उपदेश है, वही मंसारसागर को पार कराने वाला जलयान-जहाज है, उस उपदेश के सुनने मात्र से ही अभीष्ट की सिथि होतो है, उसके अर्थशान से अभी की सिद्धि होने में तो सन्देश और विलम्ब होने की तो कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती (२) धर्मचारी साधुपुरुषों के दर्शन का अर्थ है-से पुरुषों के मुखारविन्द का अवलो कन, जो अपने संयम की रक्षा के लिये एक स्थान से दूसरे स्थान पर विहार करते रहते हैं, इससे जनता को धर्मलाभ देने के निमित्त उद्यत रहते हैं। ऐसे पुरुषों के दर्शन से लिए कर्मों की निवृत्ति हो कर परमयोधि सम्पदर्शन के उदय में सहायता मिलती है।(a) उचित स्थान में विनय का अर्थ है उन स्थानों के प्रति मन में ऐसे भाव का उदय जिसे धिनय, नम्रता अर्थद शब्दों से व्यवहत किया जाता है और करशिर:संयोग आदि याद्य प्रणामों से जिसकी अभिव्यक्ति होती है। मन में एसे उदय उन्हीं व्यक्तियों और स्थानों के प्रति होना चाहिये जिन्हें आगमों में ऐसे भावोत्पादन के लिए योग्य बताया गया है। साधुसेवा के इन फलों को महान् कहा गया है क्योंकि इनसे धर्महेतुओं का सम्पादन होता है, उपदेश आदि से बारित्र के विरोधी १ उदितकों का क्षय व उदमाभिमुग्न कमरों का उपसम-फलतः जिसमें उन कमों का त्रिपाकोदय स्थगित हो जाता है। 1 का Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हि वि० मैत्रीच्यापारामाह मैत्रामिति-- मूलम् . मैत्री भावयतो नित्यं शुभो भायः प्रजायते । ततो भावोदकाजन्तोषाग्निरुपशाम्यति ॥८॥ मैत्रीमुक्तलक्षणां,नित्यं सर्वकालं,भावयतोऽभ्यस्यतः,शुभः प्रशस्त:, भावः साम्यलक्षणो जायते,यमन्ये ''प्रशान्तवाहिता' इत्याचक्षते । ततस्तस्मात् भावरूपादुदकात्, द्वेष लक्षणोऽग्निः उपशाम्यति समूलमुपयाति क्षयम् । एवं च शुद्धोपयोगलक्षणधर्म साम्यद्वेयोपशमद्वारा मैञ्युपयुज्यत इति फलितम् ॥८॥ आत्मीयग्रहमोक्षव्यापारमाह 'अशेषेति मूलम्-अशेषदोषजननी निःशेषगुणघातिनी । __ यात्मीयग्रहमोक्षण तृष्णाऽपि विनिवर्तते ॥९॥ अशेषाणां दोपाणां हिंसाऽनृतादीगो हननीय न.लेव । गुणा त्यांना कर्मों का क्षयोपशम-विषाकोदयनिरोध होने से चारित्रधर्म की प्राप्ति होती है ॥७॥ इस कारिका में मैत्री का घर ध्यापार बताया गया है जिसके द्वारा मैत्री से धर्महेतुओं का सम्पादन होता है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है___ मैत्री, जिसे प्रत्युपकार निरपेक्ष प्रीति के रूप में लक्षित किया गया है, उसके निरन्तर अभ्यास से प्रशस्त भाव का-सर्व समत्व भाधना का उदय होता है, अथ मनुष्य प्राणीमात्र से, बदले में कुछ चाहे विना, विशुद्ध प्रेम करने लगता है तब समस्त प्राणियों में मात्मसास्य की पवित्र भावना का उसके मन में उदय होता है, जिसके फलस्वरूप कार अपने प्रति उसका प्रेम निस्सीम और निःस्वार्थ होता है उसी प्रकार अन्य सभी प्राणियों के प्रति भी उसका प्रेम निस्सीम और मिस्वार्थ हो जाता है। इस साम्यभाव को अन्य विद्वानों ने प्रशान्तवाहिता' की संज्ञा प्रदान की है। समस्त प्राणियों में आत्मसाम्य का यह प्रशस्तभाव द्रष रूपी अग्नि के लिये जल के समान है। क्योंकि मनुष्य जप सभी प्राणियों को अपने जैसा मानने लगता है तब जैसे अपने प्रति उसके मन में कोई द्वेष नहीं होता उसी प्रकार अन्यों के प्रति भी उसके मन में किसी प्रकार का द्वेष नहीं उत्पन्न होता है । आत्मसाम्य की भावना द्वेष के मू भूत वैषम्यभावमा को मिटा देती है। इस प्रकार मैत्रो साम्य और द्वेषोपशम के द्वारा शुद्धोपयोगरूप अर्थात रागादि से अकवित-ज्ञानोपयोग यानी विशुद्ध चितपरिणाम-आत्मपरिणति स्वरूप धर्म को सम्पन्न करने में सहायक होती है. ॥८॥ इस कारिका में आत्मीयग्रहमोक्ष-बायसङ्गत्याग का यह व्यापार बताया गया है जिसके द्वारा बाह्य सङ्गत्याग से धर्महेतुओं का सम्पादन होता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है१. तस्य प्रशान्तवाहिता मम्कारात् । यो, मू. ३-१० १२. दृष्टव्य-घोडशक (३-२) टीका 'चित्तं धर्मः' । शा, बा.८ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maawwweonanadaan शास्त्रमा समुहलय दोषाणामवश्यम्भावात् । तदुक्तम्-"लोभमूलानि पापानि" इति, तथा निशेषाणां गुणानामुपशमादीनां घातिनी, सतां विनाशात् . असतां चोत्पत्तिप्रतिबन्धात् । आत्मीयअहमोक्षेण बायसङ्गत्यागेन, तृष्णाऽपि लोभवासनाऽपि. विनिवर्तते विपासहरूपोडोधकाभावादनुत्थानोपहता सती प्रतिपक्षपरिणामाभ्यासेन क्षीयत इति यावत् ॥ .|| अतिदेशमाह 'एवमिति एवं गुणगणोपेतो विशुद्धात्मा स्थिराशयः । तत्त्वविद्भिः समाख्यातः, सम्यगू धर्मस्य साधकः ॥१०॥ एवंप्रकारैर्गुणगणैरुपेतः = सहितः, विशुद्धात्माऽत्यन्तापायहेतुकुग्रहमलरहितः, स्थिरचित्तो नास्तिक्यानुपदत्तात्ताभ्यवसाया, तत्त्वादिः, सम्बर - आगमोक्तविधिना, धर्मस्य साधको-धर्महेतु निर्वाहाधिकारी, समास्यातः, एवं विधस्याऽऽदित एव मार्गानुसारिप्रवृत्युपलम्भात् , तदर्थमेवादिकर्मविध्युपदेशाच्च । सुष्पा यह अहिसा, अनुत आदि सम्पूर्ण दोषों की माता के समान है, क्योंकि उस के रहने पर समस्त दोषों की उत्पत्ति अनिवार्य है, जैसे कहा गया है कि-"लोभ सभी पापों का मूल है।" लोभ-सुथा यह उपशम आदि सभी गुणों का विघास करती है, क्योंकि उससे विद्यमान गुणों का नाश और भावी गुणों की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध होता है। पावसा का परित्याग करने से इस सृष्णा की- लोभ घासना की निवृत्ति होती है। विषयसादी सुष्णा का उगोधक है, उसका अभाव होने पर तृष्णा का उत्थान नहीं हो पाता और वह 'प्रतिपक्ष परिणाम, यानी तृष्णा का प्रतिपक्ष अर्थात् विरोधो चित्तपरिणति-निरीहता परिणति के अभ्यास से शीण होती है। इस प्रकार बाह्यसन का परित्याग, तृष्णा की निवृत्ति के द्वारा, धमहेतुओं के सम्मान में सहायक होता है ॥९॥ इस प्रकार साधु सेवा, सर्वभूतमैत्री, बाह्यसङ्गत्याग आदि जिन गुणों की चर्चा पूर्वकारिकाओं में की गयी है. । दसवीं कारिका में उन गुणों का धर्महेतुओं की साधना में अतिवेश किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जो मनुष्य इस प्रकार साघुसेवा आदि जैसे गुणगणों से युक्त होता है, उसकी मात्मा निर्मल हो जाती है, अर्थात् अतिशय अनर्थ के हेतुभूत कुत्सिनमान्यतात्मक मल से नितान्त मुक्त हो जाती है, उसके वित्त में स्थिरता आ जाती है। उसके धर्मानुकूल निश्चयों का नास्तिक्य की भावना से अभिभव नहीं हो पाता । तत्ववेत्तापुरुषों के कथनानुसार ऐमा मनुष्य ही आगमोक्तविधि से धर्म की साधना कर सकता है। वही धर्म के हिसा आदि हेतुओं का निर्वाह करने के लिये अधिकृत होता है, क्योंकि ऐसे मनुष्य में भारम्भ से ही मोक्षमार्ग का अनुसरण करने वाली प्रवृत्ति देखी आती है और उस प्रवृत्ति के लिये ही आगमों में आदिधार्मिक के कर्तव्यों के अनुष्ठान का उपदेश भी है। १. दृष्टव्य-पातञ्जलसूत्र-वितर्क वाचने प्रतिपक्षभावनम् ॥२-३३॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका व हि. वि० ५९ तदुक्तं- 'ललित विस्तरायां' ग्रन्थकृतैव "तत्सिद्धयर्थं तु यतितव्यमादिकर्मणि, परिहर्त्तव्योऽकल्याणमित्रयोगः, सेवितव्यानि कल्याणमित्राणि न लङ्घनीयोचितस्थितिः उपेक्षितव्यो मार्गः गुरू संहतिः, भवितव्यमेतत्तन्त्रेण, प्रवर्तितव्यं दानादौ कर्तव्योदारपूजा भगवताम्, निरुपणीयः साधुविशेषः, श्रोतव्यं विधिना धर्मशास्त्रम्, भारतीयं महायमेन, प्रवर्त्तितव्यं विधानतः, अवलम्वनीयं धैर्यम्, पर्यालोचनीयाऽऽयतिः, अवलोकनीयो मृत्युः भवितव्यं परलोकप्रधानेन सेवितव्यो गुरुजनः कर्तव्यं योगदर्शनम्, स्थापनीयं तद्रूपादि च चेतसि, निरूपयितव्या धारणा, परिहर्त्तव्यो विक्षेपमार्गः यतितव्यं योगसिद्धौ, कारयितच्या भगवत्प्रतिमा, लेखनीयं भुवनेश्वरवचनम् कर्तव्यों मङ्गलजापः प्रतिषतव्यं चतुःशरणम् गर्हितव्यानि दुष्कृतानि, अनुमोदनीयं कुशलम् पूजनीया मन्त्रदेवता, श्रोतव्यानि सच्चेष्टितानि भावनीयमदार्यम्, वर्तितव्यमुत्तमज्ञातेन" इति । 1 कहने का आशय है कि जिस मनुष्य को साधुजनों की सेवा का सौभाग्य नहीं प्राप्त होता उसे संसारसागर को पार करने के उपायों का उपदेश नहीं मिल पाता । धर्मलाभ देने वाले मुनिजनों का दर्शन न हो सकने से उसके क्लिष्ट कर्म उस पर घेरा डाले रहते हैं । परमात्मा, गुरु, तीर्थ, मन्दिर, धर्मग्रन्थ आदि के प्रति उसके मन में श्रद्धा का उदय नहीं हो पाता। इसी प्रकार जिस मनुष्य के हृदय में अन्य प्राणियों के प्रति निःस्वार्थ प्रेम का उदय नहीं होता, वह द्वेष की आग से निरन्तर दग्ध होता रहता है, उसके मन में अन्य प्राणियों के प्रति आत्मसास्य की भावना नहीं उत्पन्न हो पाती । वद युद्धोपयोगरूप धर्म का अधिकारी नहीं हो पाता। इसी प्रकार जो मनुष्य बाह्यस का त्याग नहीं करता उसकी सुष्मा (लोभवासना) सदा तरुण बनी रहती है और अपनी पूर्ति के लिये मनुष्य को हिंसा आदि दुष्कर्मों में प्रवृत्त करती रहती है। फलतः साधुसेवा आदि गुणों से हीन मनुष्य अहिंसा आदि के पालन को क्षमता नहीं प्राप्त कर पाता, अतः अहिंसा आदि धर्म हेतुओं को आयन करने के लिये यह परमावश्यक है कि मनुष्य साधुसेवा सर्वजीवमैत्री और बाह्यहत्याग जैसे सद्गुणों से अपने आपको सम्पन्न करे । ( आदि धार्मिक के अनुष्ठान ) 'ललित विस्तरा' ग्रन्थ में इसी ग्रन्थकार श्रीहरिभद्रसूरि महाराज ने स्वयं यह बात कही है कि- "मोक्षमार्ग की ओर मनुष्य की प्रवृत्ति हो, इस लक्ष्य की सिद्धि के लिये उसे आविधार्मिक के कर्मों के अनुष्ठान के लिये प्रयत्नशील होना चाहिये। जिन मित्रों का साथ आत्मकल्याण में बाधक हो उन मित्रों का साथ छोड देना चाहिये। जो मित्र आत्मकल्याण में सहायक हो उनका सम्पर्क करना चाहिये | उचित स्थिति आशीवि कादि व्यवहार में ओयिका अतिक्रमण नहीं करना चाहिये । लोक का आदर करना चाहिये । गुरुजनों का सम्मान करना चाहिये। गुरुजनों की अधीनता स्वीकार करनी Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रातसमुच्चय 'नानाsधिकारायां प्रकृतावेवम्भूताः' इति कापिलाः । 'नाऽनवाप्तभवविपाके' इति च सौगता: । 'अपुनर्वन्ध कस्तत्वेवंभूतः" इत्याहताः । न चापुनर्वन्धकस्याधिकारिविशेषणस्याऽनिश्वये प्रवृत्त्यनुपपत्तिरिति शङ्कनीयम् अशाठ्यपूर्वकैतत्प्रयत्नेनैव तनिश्च यात् । तदुक्तम्- 'भग्नोऽप्येतद्यत्नलिङ्गोऽपुनर्वन्त्रकः' इति तं प्रत्युपदेशसाफल्यमिति । आदित एतत्प्रयत्न एवास्य कथं इति व अविरुद्धकुलाचारादि - परिपालनाद्यर्थितया इति गृहाण । अत एव 'सम्यग्दर्शनादिजन्यविवेकाभावादना भोगतोऽपि "सदन्ध० " न्यादेन मार्गऽऽगमनमेवास्य' इति वदन्ति । विभावनीयं चेदं "सुप्तमण्डितप्रबोधदर्शन" न्यायेनेति दिक् ॥ १०॥ चाहिये | दान आदि सत्कर्मों में प्रवृत होना चाहिये । भगवान् परमात्मा की उदार पूजा करनी चाहिये | सच्चे चारित्र पात्र साधु की जाँच कर उनका परिचय प्राप्त करना arfs | विधिपूर्वक धर्मशास्त्र का श्रवण करना चाहिये । यडे यत्न से उससे आत्मा को भाषित करना चाहिये। यहाँ भावना मात्र चिन्तनरूप नहीं है किन्तु मृगमद से वस्त्र की तरह आत्मा को शास्त्रबोध से भावित त्रासित करने रूप है। शास्त्र - विधान के अनुसार प्रवृत्तिशील होना चाहिये । आपत्ति में व्याकुल न हो धैर्य धारण करना af | भविष्य का विचार करना चाहिये । मृत्यु का ध्यान रखना चाहिये। मुख्यरूप से परलोक पर दृष्टि रखनी चाहिये। गुरुजनों की सेवा करनी चाहिये । जप ध्यान करने योग्य योगपट्ट का वारंवार दर्शन करना चाहिये । दर्शन द्वारा उसके रूप आकृति मंत्राक्षर आदि को चित्त में स्थापित स्थिर कर देना चाहिए । चित्त में इनकी ठीक धारणा हुई या नहीं इसका निरिक्षण करना चाहिए। धारणा में विशेष करे ऐसे वामात्र का (या जिस मार्ग पर चलने से धर्म में विशेष हो उसका त्याग कर देना चाहिये । ( धारणा अखंड सिद्ध होने पर ध्यात-धर्म) योग की सिद्धि के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए | ( योगसाधना में परमसाधनभूत वीतराग) भगवान की प्रतिमा बनवानी चाहिए । त्रिभुवनपति के बचन लिखाने चाहिए । मङ्गलमय (परमेष्ठि- मन्त्रादि) मन्त्रों का जप करना चाहिये । (अरहंत-सिद्ध-साधु-सर्वशोक्त धर्म इन वारके शरण) चारणको प्रतिपत्ति करनी चाहिए। स्वकीय पूर्वजन्मीय व ऐहिक राम क्षेत्र मोदमूलक विचार वाणी-वर्तन रूपयों की निन्दा भर्त्सना करना चाहिए । महापुरुषों के कुशलकर्म यानी सुकूनों का अनुमोदन करना चाहिए। मन्त्रदेवता की पूजा करनी चाहिए | उत्तमचरित्रों का भवण करना चाहिए । उत्तम पुरुषों के दृष्टान्त के अनुसार वर्त्तन करना चाहिये ।' ( मुक्तिमार्ग प्राप्ति की योग्यता ) कपिलमुनि के सांख्य सिद्धान्त को मानने वाले मनोधियों का मत है कि अब तक प्रकृति का संसाराणदक प्रयत्न समाप्त नहीं होता तब तक प्रकृति के साथ अविविक्तआचार्य श्री भुवनभानुमूरि) १ विशेष विवरण के लिये देखिये पू० पं. भानुविजय (अधुना महाराज कृत 'ललितविस्तरा' का विवेचन । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका घहिं० वि० भावापन्न पुरुष मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख नहीं हो पाते । सुगन्धुद्ध के उपदेशों का अनुसरण करने वाले विद्वानों का कहना है कि जब तक संसारावर्जक कों का परि पाक नहीं हो जाता तय तक मनुष्य मोक्षमार्ग को दिशा में पदन्यास नहीं कर पाता। भगवान जिनेश्वर के श्रेष्ठ शासन को शिरोधार्य करने वाले महनीय मुनिजनों की मान्यता है कि कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति अब फिर से न बांधने वाले अर्थात् अघुनबन्धक मनुष्य हो मोक्षमार्ग का पथिक होने के लिए प्रयत्नशील होता है। (अपुनर्बन्धक दशा-निश्चय के उपाय) जैनों की इस मान्यता पर यह शङ्का हो सकती है कि यदि ऐसी उत्कृष्टकर्मस्थिति की अधिक दशा वाला मनुष्य ही मोक्षमार्ग पर चलने के लिए अधिकृत माना जाएगा तो वैसी उस्कृष्ट कर्मस्थिति को बन्धक-प्रबन्धक दशा तो अतीन्द्रिय होने के कारण इस का निश्चय न हो सकने से मोक्षमार्ग का पथिक होने में मनुष्य को प्रवृति न हो सकेगो;-पर यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि शठता का परित्याग कर शास्त्रयर्णित पेसी दशा के योग्य उक्त कर्मों में प्रयत्न देखने से ही अपुनवैन्धक दशा का निश्चय हो मायगा, जैसे कद्दा मया है कि 'जिसका सम्यग्दर्शन गुण भग्न हो गया है पेसी व्यक्ति भी अपुनर्यन्धक है अगर यह उन मोक्षमार्गनुसारो कर्मों में प्रयन्नवान है।' अपुन ग्धकता ऐसे प्रयत्नरूप लिङ्ग से अवगत की जा सकती है। अपुनबन्धक मनुष्य के लिए ही ललितविस्तर के उपदेशों की सार्थकता है। __ अपनी योग्यता समझे बिना मनुष्य उक्त कर्मों के लिप प्रयत्नशील ही कैसे होगा? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि मनुष्य प्रारम्भ में आने को मोक्षमार्ग का अधिकारी समझकर उक्तफर्मों में प्रवृत्त नहीं होता किन्तु अपने कुलाचार आदि का परिपालन करने की भावना से प्रवृत्त होता है। वे कुलाबार अगर मोक्षमार्ग की ओर उन्मुख करने वाले उक्त कर्मों के विरोधो नहीं होते तो उनके परिपालन में लगा हुश्रा मनुष्य उक्त कर्मों में भी निष्ठावान और प्रयत्नशील हो जाता है और फिर उन प्रयत्न से वह अपनो अपुनर्बन्धकता का निश्चय कर अपने को मोक्षमार्ग का अधिकारी समझने लगता है और अन्ततः मोक्षमार्ग का पथिक बन जाता है। इसी लिये विद्वज्जनों का कहना है कि जिस मनुष्य को सम्यग पर्शन आदि के द्वारा आवश्यक विवेक प्राप्त नहीं है, मोक्षमार्ग की जानकारी और मोक्षमार्ग में अभि. रुचि होने पर भी वह कुशल अन्धे के समान अभीष्ट मार्ग को ग्रहण कर लेता है।' यह बात 'सुप्तमण्डित - प्रबोधन 'न्याय से शात की जाती है। जैसे सोते हुये मनुष्य को मण्डनों से अलंकृत करने पर उस समय उसे उस यात की जानकारी नहीं हो पातो, पर सो कर उठने के बाद वह अपने को मण्डनों से अलंकृत देखता है। उसी प्रकार कुलासार के परिपालन में लगा मनुष्य अपने को मोक्षानुक्ल कर्मों में लगा नहीं समझता, पर उन कर्मों से अविरुद्ध कुलाबार के परिपालन में लगे रहने पर जब अनजान में ही मोक्षानुकूल कमों के प्रति श्रद्धावान हो तदर्थ प्रयत्नशील होने लगता है तब उसे अपनी अपुनर्बन्धकता और मोक्षाभिरुचि का परिज्ञान हो जाता है, और वास्तव में मोक्षमार्ग का यात्री बन जाता है ॥१०॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्चा समुच्चय ननु सुखार्थतानियता प्रेक्षावत्प्रवृत्ति में एवेति कुतो नियम्यते, सक्-चन्दनानाभाषणादीनामपि मुखोपायत्वात् तत्रापि प्रवृत्तेन्यायप्राप्तत्वाद् ? अत आह 'उपादे - यश्चेति ६२ मूलम् - उपादेयश्च संसारे दुः विशुद्ध मुक्तये, सर्वं यतोऽन्यद दुःखकरणम् ॥ ११ ॥ = > उपादेयश्च ग्राद्यश्च बुधैर्ज्ञाततच्चैः सदा दुःखद भोगादिकालव्यवच्छेदेन, मुक्तये= मोक्षार्थ, विशुद्ध = निरतिचारः, धर्म एव यतोऽन्यद्-- धर्मभिन्नं सर्वं सक्चन्दनाङ्गनालिङ्गनादिकं दुःखसाधनं नरकाद्यनुवन्धि । इत्थं च न तत्र प्रवृत्तिर्व्यायप्राप्तेत्यवधारणौचित्यम् । न खल्विष्टसाधनताज्ञानमात्रं प्रवृत्तिहेतुः मधुविषसम्पृक्तान्न भोजनेऽपि प्रवृत्तिप्रसङ्गात् किन्तु वलवदनिष्टाननुबन्धीष्टसाधनताज्ञानम् । न च तथात्वं शृङ्गारादिविषयाणामिति । प्रश्न हो सकता है कि 'यह ठीक है कि प्रेक्षावान् पुरुषोंकी प्रवृति सुख के लिये होती है, पर यह प्रवृत्ति धर्म में ही होनी चाहिये इस प्रकार का नियन्त्रण उचित नहीं है, क्यों कि माला, चन्दन, व नवसुन्दरी के साथ सम्भाषण आदि अन्य भी सुख के साधन विद्यमान हैं, अतः उनमें भी सुखार्थी की वृप्ति न्यायप्राप्त है । इसी प्रश्न का इस मूल कारिका में उसर दिया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- तत्र पुरुषों को दुःख भोग पवं प्रमाद में काल भवाना छोड़कर सभी काल में मुक्तिलाभ के लिये विशुद्ध धर्म का ही सेवन करना चाहिये, क्योंकि धर्म से भिन्न माला, चन्दन, सुन्दरी का आलिङ्गन आदि जो कुछ सांसारिक विषय है वह सब नरक आदि दुःखों का कारण है, अतः दुःखकारणों में सुखार्थी की प्रवृत्ति व्यायप्राप्त न होने से धर्म में सुखार्थी की प्रवृत्ति का नियमन उचित है । यदि यह शङ्का को जाय कि- "संसार के विषय दुःख के कारण भले हों, किन्तु जब वे सुख के भी कारण हैं तब उनमें सुखार्थी की प्रवृत्ति तो न्यायप्राप्त है ही" पर यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि प्रवृत्ति के प्रति केवल इष्टसाधनता का ही अर्थात् "यह मेरे इष्टका साधन है" इतना ही ज्ञान कारण नहीं है अपि तु बलवान् अतिए की असाधनता का भी अर्थात् 'यह मेरे लिये बलवान अनिष्ट का साधन नहीं है' ऐसा भी ज्ञान कारण है, इसी लिये मधु और विष से मिले अन्न के भोजन में क्षुधा की निवृत्तिरूप दृष्ट की साधनता का शान होने पर भी मृत्युरूप बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान न होने से उस अन्न के भोजन में क्षुधा से पीडित मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती, तो जिस प्रकार मधु पर्व for से मिले अन्न के भोजन से क्षुधा की निवृत्ति सम्भव होने पर भी बलवान अनिष्टरूप मृत्यु के भय से उस भोजन में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होतो है उसी प्रकार संसार के शृङ्गार आदि विषयों से सुख की प्राप्ति सम्भव होने पर भो उनके सेवन से होने वाले नरकादि महान दुःखों के भय से उन में सुखार्थी की प्रवृत्ति नहीं हो सकती ! Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० ० टीका हि. वि० 'नन्वेवमविरतसम्परशा कथं निषिद्धकर्मणि प्रवृत्ति ? रागान्धतया तजन्यदुःखे बलवत्त्वाऽप्रतिसन्धानादिति चेत् ! न, तत्र बलवत्त्वस्य निषेधविधिनैव बोधात् । न्यूनदुःखजनकत्वशानस्याप्यलसप्रवृत्तिप्रतिपन्थित्ववद् बलबदुःखानुबन्धित्वज्ञानस्यापि रागान्धप्रवृत्तावप्रतिपन्धित्वाद् न दोषः, इत्यपि न सम्यग् , दुःखमात्रभीरोरलसस्य प्रवृत्तिफलेच्छाया एवानुदयादप्रवृत्युपपत्तेः । अत्र च रागान्धस्य द्वेषानुदयेऽपि विसामनीवशादेव पवृत्त्यनुपपः । (अविरतसम्यग्दृष्टि-निषिद्धकर्म-प्रवृत्तिकारणताविचार-पूर्वपक्ष) अष्टसाधनता के शाममात्र को प्रवृत्ति का कारण न मानकर बलवान अनिष्ट की मसाधनता के शान को भी प्रवृति का कारण मानने पर यह प्रभ होता है कि-निषिअकर्म पलवान अनिष्ट के साधक होते हैं; अतः उनमें बलवान अनिष्ट की मसाधनता का का ज्ञान महो सकने से सभ्यम्बग्निपुरुषों की उनमें प्रवृत्ति न हो सकेगी, जब कि हिंसा आदि की अधिरति से ले कर अप्रमत्त अवस्था न हो तब तक सम्यगृहष्टिपुरुषों की भी निषिद्ध-कर्मों में प्रवृत्ति का होना निर्विवाद दृष्ट है। यदि यह कहा जाय कि-'सम्यगृहष्टि पुरुष भी अविरति से मुक्ति न पाने तक राग से प्रस्त होते है, अतः रागान्धतावश उन्हें निषिद्धकर्मों से होने वाले दुःस्त्र में बलवस्य का शान नहीं हो पाता, इसलिये निषिद्धकर्मों में बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान लम्भधित होने से उन कर्मों में सम्यग्दृष्टि पुरुषों की प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती'- तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के कारण शास्त्रश्रद्धावश निषिद्धकों से होने वाले दुःख में निषेध बोधक शास्त्र से बलवत्व का ज्ञान हो ही जाता है, वह होने में रागान्घता बाधक नहों हो सकती। यदि यह कहा जाय कि -मालसी मनुष्य की प्रवृत्ति में तो न्यूनदुःख जनकत्व का भी ज्ञान प्रतिबन्धक होता है, किन्तु रागान्ध मनुष्य की प्रवृत्ति में बवान दुःख के जनकत्वका भी ज्ञान उसकी रागान्यता के कारण प्रतिबन्धक नहीं होता, अतः सम्यग्ष्टि पुरुष को निषिद्धकर्म में बलवान दुम्स के जनकत्ष का ज्ञान होने पर भा उसमें उनकी रागाधीन प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती तो यह कथन भो ठोक नहीं है, क्योंकि आलसी मनु और रागान्ध सम्यग्दष्टि मनु ग्य दोनों की प्रवृत्तियों में एक ही बाधक है, और वह है प्रवृत्ति की कारण सामग्री का अभावः अन्तर केवल इतना ही है कि आलसी मनुष्य तुःख मात्र से उरता है और प्रत्येक प्रवृत्ति में कुछ न कुछ दुःस्त्र अवश्य होता है, अतः प्रवृत्ति से प्राप्त होने वाले में दुखपूर्च करव का शान होने से उस फल के प्रति उसके मन में द्वष उत्पन्न हो जाने से उसे उस फल की इच्छा ही नहीं होती। इस लिये प्रवृति के फलेच्छारूप कारणका ही अभाव होने की वजह प्रवृति की कारणसामग्रो का अभाव हो जाने से न्यूनदुःखजनक कर्म में भी उसकी प्रवृति नहीं होती । किन्तु जो सम्यग्दृष्टि रागाग्ध पुरुष होता है उसे निषिद्धकर्म में प्रवृत्ति होने पर उपलब्ध होने वाले तात्कालिक पर १-यहां से ले कर 'इति चेत् । सत्यम्' (पृष्ठ ६५) यहाँ तक पूर्वपक्ष है। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय अथ प्रवृत्ताविष्टसाधनताज्ञानमेव हेतुः. न तु बलवनिष्टाननुबन्धित्त्वज्ञानमपि, फले उत्कटेच्छाविरहविशिष्टदुःखजनकत्वज्ञानं च प्रवृतिप्रतिबन्धकम् इति ने मधुविषसम्पृक्तानभोजने पतिः, अलसस्य च यदि फलेच्छाऽस्ति तदा दुःखद्वैपादपकष्टा समा वा न तूत्कटा, इति प्रतिबन्धकसाम्राज्याद् न तस्य प्रवृत्तिा, रागान्धानां च पारदार्यादिफले उत्कटेच्छासस्चात् तत्र प्रत्तिरिति चेत् ! न, तथापि निषेधविधिसामाद दुःखेऽत्युत्कटताविज्ञानस्य प्रवृत्तिफले उत्कटेच्छाविघातकतया प्रकृतानुपपत्तेः । फल के प्रति रागातिशय होने के कारण उस फल के प्रति द्वेष न होने से उसे उस फल की इच्छा तो होती है, पर उस फल के जनक निषिद्धकर्म में शास्त्र से बलवान दुःन के अनकत्व का ज्ञान होने के कारण उसमें उसे घलवान अनिए की असाधना का ज्ञान नहीं हो पाता, अतः जैसे फलेच्छारूप कारण के अभाव से प्रवृत्ति सामग्री का अभाव होने के कारण आलसी मनुष्य की प्रवृति नहीं होती उसी प्रकार घरवनियाजनकत्वशानरूप कारण का अभाव होने से प्रवृत्ति सामग्री का अभाव होने के कारण निषिद्धकर्म में रागान्ध पुरुष की भी प्रवृत्ति नहीं हो सकी। अतः आलसी मनुष्य और गगान्ध-मनुष्य में यह मेद करना कि- 'आलसी मनुष्य की प्रवृत्ति में न्यू दु खजन करव का शान भी प्रतिबन्धक है, अतः न्यूनदुःखजनककर्म में भी उसकी प्रवृत्ति नहीं होती और रामान्ध पुरुष की प्रकृति में बलगान दुःख के जनकत्व का भी ज्ञान प्रतिबन्धक नहीं होना अतः निषिद्धकर्म में उसकी रागाधीन प्रवृत्ति हो सकती है'-वह ठीक नहीं है। ___ यदि यह कहा जाय कि-"प्रवृत्ति के प्रति केवल इए साधनता का शान ही कारण है, बलवान अनिष्ट के अजनकत्व का ज्ञान कााण नहीं है। किन्तु प्रवृनि में दुःबजनकत्व का शान प्रतिबन्धक पवं प्रवृत्तिफर क उत्कटेच्छा उत्तेजक है, अर्थात प्रवृत्ति के प्रति प्रवृत्तिफल को उत्कट इच्छा के अभाव से विशिष्ट दुःख जनकत्व का मान प्रतिबन्धक है। मधु और विष से मिले अन्न के भोजन में भोजनार्थी को मृत्युदुःख के जनकत्व का शान होता है, जिससे उसे उस भोजन से होने वाले क्षुधानिवृत्तिरूप फल की उत्कट इच्छा का अभाव रहता है, इसलिये उक्त प्रतिबन्धक वश उस भोजन में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। आलसी मनुष्य को प्रत्येक प्रवृशिफल में दुःखपूर्वकन्व का ज्ञान होने से प्रवृत्तिफल के प्रति वेष हो जाने से प्रवृत्तिफल की इच्छा हो नहीं होना और यदि होती भी है तो प्रवृत्तिलग्न दुःख के प्रति उसके मन में जो ऐप है, प्रवृत्ति फल की इच्छा उस द्वेष से गा तो कम होती है या समान होती है, उससे उत्कट नहीं होती, अतः प्रवृत्तिफल की उत्कट इच्छा का अभाव तथा प्रवृत्ति के विषयभून कर्म में दुःखजन तत्व का ज्ञान हाने से प्रतिबन्धकवश आलसी मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होतो । पर रागान्ध मनुष्य को परस्त्रीगमन आदि निषिद्धकर्मों से होने वाले तात्कालिक सुख की उत्कट इच्छा होती है, अतः निषिद्धकर्म में शास्त्र से बलवान दुःख के जनकत्व का शान होने पर भी फल की उत्कटेच्छा का अभाय न होने से प्रतिबन्धक का सन्निधान न होने ने कारण निषिद्धकर्म में सम्यगृहष्टि रामान्ध पुरुष की प्रवृत्ति हो सकती है"-- Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क० टीका च हिं• वि. एतेन 'प्रवृत्तौ समानविशेष्यतया बलवद्वेषस्यैव कार्यसहभावेन प्रतिबन्धकत्वादलसस्य स्वल्पदुःखजनकेऽपि चलवद्वेषाद् न प्रवृत्तिः, रागान्धस्य च बहुदुःखजनकेऽपि तद्विरहात् प्रवृतिः' इत्यपास्तम् , निषिद्ध बलवद्वेषस्याप्यावश्यकत्वाद, अन्यथा विषमक्षणादावपि तदुपपत्त:--- इति चेत् ! सत्यम् , मोहप्राबल्यदोषमहिम्नैव पारदार्यादिफछेच्छाविधातस्य तत्र बालवद्वेषस्य चानुदवाद रागान्धप्रवृत्युपपत्तेः । तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि निषेधबोधक शास्त्र से निषिद्धकर्म से होने वाले दुःख में अत्यन्त उत्कटता कामान होने से उस कर्म में प्रवृस होने से प्राप्त होने पाले तात्कालिकफल को उत्कट इच्छा का विघात हो जाता है । अतः निषिद्धकर्म में प्रवृत्त होने से प्राप्त होने वाले फल में उत्कट इच्छा का अभाव और उक्त कर्म में दुःखजमकत्व का ज्ञान दोनों के होने से प्रतिबन्धक का सन्निधान होने के कारण निषिद्ध कर्म में सम्यग्दृष्टि रागान्ध पुरुष की प्रवृत्ति का होना असम्भव है । किन्तु प्रवृत्ति होती तो है, तो कैसे होतो है इसका उपपादन पेसे तो नहीं हो सकता। कोई लोक पेसी कल्पना करने है.-."प्रवृत्ति और बलवान् द्वेषका समानविशेष्यक होना अर्थात् जिसमें प्रवृत्ति है उसमें बलवान् द्वेष का होना अनुभवविरुद्ध है, अतः इस प्रकार के प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव की कल्पना होती है कि-'विशेषयता सम्बन्ध से प्रवृत्ति के प्रति विशेष्यतासम्बन्ध से बलयान वेष प्रतिवन्धक है। बलवान् द्वेष का अर्थ है चिजातीय द्वेष, अतः गुणात्मक द्वेष बल का आश्रय न होने पर भी उसे बलवान कहने में कोई अनौचित्य नहीं है। यह द्वेष प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक होता है कार्यकाल में प्रकृति की सम्भावित उत्पत्ति के काल में ही विद्यमान हो कर । यदि वह कार्य के पूर्वकाल में विद्यमान हो कर ही प्रतिबन्धक माना जायगा तब जब कोई मनुष्य विष. मिश्र आन्न को अनजान में खाने को प्रवृत्त होता देख कर उस समय किसी व्याप्त व्यक्ति के वचन से उसे अन्न में विषमिश्रण के कारण मृत्युःख की जनता का शान होगा तो भी उस अन्न के भोजन में उस मनुष्य की प्रवृत्ति की आपत्ति होगी, क्यों कि उत्तमानकाल में प्रवृत्ति का विरोधी द्वेष उत्पन्न नहीं है, वह तो उत्पन्न होगा उस शान के अगले क्षण में, अतः पूर्वक्षण में प्रतिवन्धक के न होने से दुष के उत्पत्ति क्षण में प्रवृत्ति के होने में कोई बाधा न होगी। और जब वह कार्यकाल में विद्यमान हो कर प्रतिबन्धक माना जायगा तो उसे कार्य के पूर्वकाल में रहने की आवश्यकता न होगी, किन्तु जिस काल में प्रवृत्ति की उत्पत्ति सम्भावित है उस काल में भी उपस्थित होने पर वह प्रवृत्ति का प्रतिबन्ध कर सकेगा, अतः द्वेष के उत्पत्ति क्षण में प्रवृत्ति की आपत्ति न होगी। प्रवृत्ति के प्रति बलधान् द्वेष को उक्तरोति से प्रतिवन्धक मानने पर दोनों बातें उपपन्न हो सकेंगी, जैसे स्वल्पःखजनक कर्म में भी आलली पुरुष को बलवान् द्वेष होने शा, वा. ९ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .-.-. शास्त्रपातासमुच्चय --. .................. तदुक्तम् - "जाणिज्जई चिन्तिज्जइ जम्म-जरा-मरणसंभवं दुक्खम् । न य विसयेसु विरज्जइ, अहो, ! सुबद्धो कवडगंठी ॥१॥ इति । शास्त्रबोधितं दुःखबलवत्त्वमेव वा कर्मोदयदोषणाऽपोद्यत इति । अधिकमस्मत्कृत'अध्यात्ममतपरीक्षायाम्' । नावेरमेतादृशकर्मणः शास्त्रेणाऽनपनयात् तद्वैफल्यमिति चेत् ? न, अनिकाचितस्य तस्य शास्त्राभ्यासनिवर्तनीयत्वादिति दिक् ॥११॥ के कारण उस कर्म में भी उसकी प्रवृत्ति न होगी, जब कि प्रचुर दुख के जनक कर्म में भी रागान्ध पुरुष को बलवान् द्वेष न होने से उस कर्म में उसकी प्रवृत्ति होगी।" यह कल्पना भी प्रकार करने गोग्ग माहीं है, क्योंकि निरिक्कम में बलवान् द्वेष की उत्पत्ति अनिवार्य है, अन्यथा श्वधा से पिडित मनुष्य को विपिन अन्न के भोजन में भी बलवान द्वेष की उत्पत्ति न होने से क्षुधा की निवृत्ति के लिए उस अन्न के भोजन में भी प्रवृत्ति अनिवार्य हो जायगी। इन सभी धियारों से यह फलित होता है कि प्रवृत्ति के प्रति केचल इष्टसाधनता का शान मात्र हो कारण नही है किन्तु बलवान् अनिष्ट की असाधनता का मान भी कारण है, शास्त्र से निषिद्धकर्म में बलवान अनिष्ट की साधनता का शान होने से उस में बलवान अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान नहीं हो सकता अतः अपेक्षित सभी कारणों का सन्निधान न होने से निषिद्ध कर्म में सम्यग्दृष्टि अविरतपुरुष की प्रवृत्ति का उत्पादन अशक्य है। (अविरतसम्यादृष्टि-निषिद्धकर्म-प्रवृत्तिकारणताविचार-उत्तरपक्ष) इस के उसर में ध्यास्याकार का कहना है कि-प्रवृत्ति के प्रति इष्टसाधनता का शान मात्र ही कारण है, बलवान् अनिष्ट की असाधनता का ज्ञान कारण नहीं है, किन्तु प्रवृत्ति फल की उत्कट इच्छा का अभाव होने पर दुःस्वजनकन्ध का शान अथवा प्रवृत्ति के विषयभूत कर्म के प्रति प्रवर्तनेच्छु पुरुष का बलवान् द्वेष प्रवृत्ति का प्रतिबन्धक है। विषमिश्र अन्न के भोजन में बलवान् दुःख के जनकत्व का ज्ञान होने से उससे होने वाले क्षुधानिवृत्तिरुप फल की इच्छा का विघात हो जाता है अथवा उस भोजन में बलवान वेष का उदय हो जाता है, अनः प्रनिधन्धक-वश उस भोजन में क्षुधार्त मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। सम्यग्दष्टि अधिरन पुरुष को मोह की प्रबलतारूप दोष के कारण निषिद्ध धर्म से प्राप्तव्य फल के प्रति अनिच्छा अथवा उस कम में बलवान् वेष की उत्पत्ति नहीं होतो अनः प्रतिवन्धक की उपस्थिति न होने से उन्म कर्म में उसकी प्रवृत्ति होने में कोई बाधा नहीं होती। सम्यग्दृष्टि पुरुष का निषिद्ध कर्म से मुख्य तभी होता है जब सम्यग्दर्शन के साथ हिंसादि अधिरति का त्याग होने पर उसके अधिरति स्वरूप प्रबल मोह की निवृत्ति हो जाती है। कहा गया है कि-"मनुष्य में कपट की गोठ इतनी बढ़ता से बंधी है, उसका मोह १. ज्ञायते नित्यो जन्मजामाणमभर्व दुःखम् । 7 च विषयेषु विरज्यते ऽहो! सुषद्धः कफ्टग्रन्थिः ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० का टीका घ हि० वि० यदुक्तम् 'अन्यत्सर्व दुःस्वकारणमिति', तदेव विवेचयति भनित्य' इति-- मूलम् . अनित्यः प्रियसंयोग इहेाशोकवत्सलः । मनिल्यं यौवनं चापि कुस्मिताऽऽचरणास्पदम् ॥१२॥ अनित्याः सम्पदस्तानक्लेशवर्गसमुद्भवाः । अनित्यं जीवितं चेह सर्वभावनिबन्धनम् ॥१३॥ 'इह' संसारे, इर्ष्या-पतिपक्षाभ्युच्चयजनितो मत्सरविशेषः । तदत्ययादिचिन्ताप्रभयो दुःखभेद:-शोकः, तौ वत्सलावयश्योपनतकारणौ यत्र ताश; प्रियसंयोगोचल्लभसमागमः, अनित्यः- स्वप्नसमागतकामिनीविलासवत् पर्यन्तविनश्वरप्रकृतिः । एनेन पूर्व इतना प्रयल है, कि वह जन्म, जरा और मृत्यु के दुःत्र का जानता है, उसकी चिन्ता भी करता है, किन्तु आश्चर्य है कि वह संसार के विषयों से विरक्त नहीं हो पाता।" यह भी कल्पना की जा सकती है कि निषिद्धकर्म से होने पाले शास्त्रकथित दुःख में जो घलवत्ता होती है, कर्मोदयदोष के कारण उसका बाध हो जाता है, निषिकर्मजन्य दुःख में रहा बलवत्त्व कर्मोदय दोष से उसे लगता नहीं । वह दुःख सामान्यदुःखरूप लगता है, बलघद् दुःखरूप नहीं । और बलवदुःखजनकता का प्रान ही प्रष्टसाधनताशानाधीन प्रवृत्ति में प्रतिबंधक होता है. अतः यहाँ प्रतिबन्धक का अभाव हो जाने से निषिद्धकर्म में प्रवृत्त होता है। इस प्रकार प्रवृत्ति के प्रति बलवान दुःख की असाधता के शान को कारण मानने पर भी निषिद्ध कर्म में सम्यग्री अविरत पुरुष की प्रवृति का होमा सहज है। व्याण्याकार का संकेत है कि इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी के लिये उनके 'अध्यात्ममतपरीक्षा' ग्रन्थ का अवलोकन करना चाहिये । शंका होती है कि ऐसे कुत्सित कर्मों में मनुष्य की प्रवृत्ति पर रोक लगाने में शास्त्र यदि असमर्थ है तो शास्त्र की रचना, उसका अध्ययन और उसका अभ्यास निष्फल है,"-इसका उत्तर यह है कि निकाचित कर्मों के उदय से होने वाली निषिद्धकमों में प्रवृत्ति रोकने में शास्त्र असमर्थ होने पर भी, अनिकाचित कर्मों के उदय से होने वाले निषिद्ध कर्मों के परिहार के लिये उसकी जपादेयता होने के कारण उसकी रचना, उसका अध्ययन और उसके अभ्यास की सार्थकता निर्याध है। क्योंकि शास्त्रबोध के द्वारा जनित शुभभाय से अनिकाचित कर्मों का विशकोदय स्थगित होने पर मात्र प्रदेशोश्य से फर्म का नाश हो जाता है। इसलिए तत्कर्म विपाकरूप मोह नहीं ऊठता, फलतः निषिद्ध कर्म में प्रचुत्ति रुक जाती है ॥११॥ ११वीं कारिका में धर्म से भिन्न घस्तुमात्र को दुःख का कारण कहा गया है, इन कारिकाओं में उसका घिवेवन किया गया है। कारिकाओं का अर्थ इस प्रकार है २. कर्मोदय का तात्पर्य उस प्रबल अविति प्रेरक निकाचित कर्म के विपाक में है जिससे नाध्य होकर मनुष्य को निषिद कम करना पड़ता है । उसे दोष इसलिथे कहा जाता है कि उससे निषिद्ध कर्म में प्रवृत्ति के प्रतिबन्धक का विघटन होता है। निकाचित' की व्याख्या के लिय देखिए पृ० २५ की टिप्पण (81, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुदाय पश्चाच्च दुखानुवन्धित्वं प्रियसंयोगस्योक्तम् । यौवनमपि-कुसुमारमित्रं वयोऽपि,-कुत्सिताचरणस्य कामकोडादिगर्हिताचारस्याम्पद-मूलभूतम् , अनित्यं च ॥१२।। तथा...- तीनो दुःसहो यः क्लेशवों=निधितशरप्रयाइपरायणकिराताऽऽक्रान्तविकटकान्तारगमन-प्रतिकूलपवनसमुच्छल बहलजलपरिक्षुब्ध-जलधियानपात्रारोहण-प्रकृतिभी. षणराजसेवादिजन्यः, ततः समुद्भव उत्पत्तिर्यासामेतादृश्यः पदोऽनित्या विद्युद्विलसितवदकस्मात् नश्वराः । तथा, इह-जगति, सर्वभावनि बन्धन=सकलव्यवहारकारणम् , जीवितं चानित्यम् ॥१३॥ इदमैहिकं दुःखमुक्तम् , अथाऽऽमुष्मिकं तदाह 'पुनरितिमूलम्--पुनर्जन्म पुनर्मु युहीनादिस्थानसंश्रयः । पुनः पुनश्च यदतः सुस्वमत्र न विद्यते ॥१४|| पुनरेतज्जन्मापेक्षयाऽग्रिम जन्म, बीजरूपस्थ जन्मान्तरनिमित्तादृष्टस्य सत्वेऽकुररूपस्य जन्मान्तरस्य प्रादुर्भावात् । तथा पुनर्जन्मनि सनि पुनर्मुत्युः, जन्मनो मृत्युनान्तरीयकत्वात् । तथा प्रागुपाचनीचरौत्रादिकमविपाकात् पुनः पुनश्चचारं वारं च, होनादिस्थानाना संसार में सुस्त्री रहने के लिये मनुष्य मुण्यरुप से चार वस्तु को बाहता हैप्रियसयोग, यौयन, सम्पत्ति और जीवन । किन्तु ये चारों वस्तु मनुष्य के लिये दुःस्त्र का ही सर्जन करती हैं । प्रियसंयोग में ईष्या और शोक सदा सन्निहित रहते हैं । विरोधी के उत्कर्ष को देख कर उसके पति ईा होती है। प्रियजनों तथा इष्टवस्तु के विनाश की चिन्ता से शोक होता है। प्रियसंयोग स्वयं स्वप्न में प्राप्त कामिनी के प्रणयव्यापार के समान घिनश्वर होता है । इस प्रकार ईर्ष्या, शोक और अनित्यता से प्रस्त होने के कारण प्रियसंयोग प्राप्ति के पूर्व और प्राप्ति के बाद दोनों काल में दुःखमय होता है । योवन पुष्पधन्वा-कामदेव का मित्र है। कामधेटा आदि निन्दनीय कर्मो का मूल तथा अस्थिर होने से बह भी दुखःमय है ॥१२॥ सम्पति दुस्सह क्लेशों से अर्जित की जाती है। उसके लिये कभी ऐसे भयंकर जंगलों की यात्रा करनी पड़ती है जई तीखे बाणों की वर्षा करने वाले जंगली जाति के लोग चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। कभी विपरीत वायु को झंकारों से जलसमूह में हममगाती जवानों से समुद्र की यात्रा करनी पडतो है, और कभी अनेक प्रकार के संकटों से भरी भीषण राजसेवा आदि का शरण लेना पड़ा है। इतने विशाल क्लेशों से सम्पत्ति उपलब्ध होने पर भी बिजली की चमक के समान क्षणभस्थर होती है, किसी भी समय हाथ से याहर हो सकती है। जीवन को सभी व्यवहारों का आधार है, यह इतना दुर्बल है कि कीसी भी क्षण समाप्त हो सकता है । इस प्रकार मनुष्य का ऐहिक जीवन संकटों से भरा है, संसार का प्रत्येक विषय जीवों के लिये दुखों का स्रोत है ॥१३॥ पूर्व दो कारिकाओं में मनुष्य के पेहिक दुःन का विवेचन किया है, इस कारिका Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं. वि० ६९ मधमाऽधमतराऽधमतमादिजातीनां संश्रय- आश्रयणं यद- यस्मात्कारणात्। अतो हेतोः अत्र जगति सुखं प्रवृत्युपयोगि न विद्यते, व्यवहारनः प्रतिभासमानस्याऽपि सांसारिकस्य सुखस्य बहुतरदुःखानुविद्धत्वेन हेयत्वात् निश्चयतस्तु कर्मोदयन नितत्वात् सुखशब्दवाच्यतामेव नेदमास्कन्दति । 1 तदुक्तं 'विशेषावश्यके' – (एकादशगणधरवादे गाथा ३३-३४-३५) "पुण्णफलं दुक्ख चिय कम्मोदयओ फलं व पावस्स | न पावकले समं पच्चक्खविराडिया चैवं ॥ जत्तो वि पच्चख सोम्म ! गृहं गत्थि दुक्खमेवेदं । तपडियारविभिष्णं तो पुष्णफलं ति दुक्ख वि ॥ विसयहं दुक्ख' चिय दुक्खपडियारओ तिमिच्छि व्य । तं सुहवयासओ ण य उवयारो विणा तच्च ॥ इति ।। में उसके आमुष्मिक - वर्तमान कारिका का अर्थ इस प्रकार है जीवन के बाद के दुःख का प्रतिपादन किया जाता है। मनुष्य का बार बार जन्म और बार बार मरण होता है, बार बार उसे हीन, हीनतर और हीनतम जातियों में जाना पड़ता है । इस लिये संसार में ऐसी कोई वस्तु नहीं हैं जो उसके लिये सुखप्रद हो, तथा जिसके लिये उसको प्रयत्नशील होना उचित हो । पुनर्जन्म का अर्थ है-वस मान जन्म के बाद होने वाला जन्म । मनुष्य के इस पुनर्भम्म का होना तब तक अनिवार्य है जब तक मनुष्य का अदृष्ट यानो पूर्वजन्म में किये गये दुष्कृतों से उत्पन्न कर्मों का संचयरूप जन्मान्तर का बीज विद्यमान है । अतः बीज के रहने पर जन्मान्तररूप अक्कुर का दोना आवश्यक है । पुनः मृत्यु का अर्थ है, वर्त्तमान जन्म में होने वाली मृत्यु के बाद होने वाले जन्म में होने वाली मृत्यु । पुनर्जन्म होने पर पुनर्मृत्यु का होना अवश्यंभावी है, क्योंकि प्रत्येक जन्म मृत्यु से व्याप्त होता है। 'जातस्य हि यो मृत्युः' उत्पन्न होने पर मरना ध्रुव (निश्चित) है। पूर्वजन्म में संचित किये गये नीच गोत्र आदि कर्मों के फलोन्मुख होने पर मनुष्य को अपने पूर्वकर्मानुसार कभी दीन, कभी starर और कभी हीनतम जाति में उत्पन्न होना पड़ता है; और यह कम मोक्ष लाभ न होने तक चलता रहता है। इन्हीं सब कारणों से संसार में ऐसा कोई सुख नहीं जिसे मनुष्य की प्रवृति का उद्देश्य बनाया जा सके। संसार में व्यवहारतः जिसे सुख समझा जाता है वह भी बहुतर दुःखों से ग्रस्त होने के कारण त्याज्य होता है । निश्चय उष्टि से देखा जाय तो संसार में जिसे सुख कहा जाता है उसमें सुत्र शब्द से व्यवहृत होने की पात्रता हो नहीं होती, क्योंकि कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण वास्तव में वह भी दुःख दी है। यह अनुमान से सिद्ध करते हैं, (संसार के सुख दुःखरूप हैं ) 'विशेषावश्यक - माध्य' में कहा गया है कि "पाप के फल के समान पुण्य का फल भी कर्मोदय से उत्पन्न होने के कारण Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्तासमुच्चय अत एव व्यास–पतञ्जलिप्रभृतिभिरपि संसारे सुखाभाव एवोक्तः। गौतमेनापि चैकविंशतिदुःखमध्य एव सुख परिगणितमिति | न च वस्तुभूतमुखप्रतिक्षेपाद् विपर्यासः, स्वाभाविकमुखविकाररूपयोईयों कपक्षनिक्षेपे विपर्यासाऽयोगादिति दिक् ॥१४॥ फलितमाह 'प्रकृत्ये'ति__मूलम-प्रकृत्याऽसुन्दरं ह्येवं संसारे सर्वमेव यत् । मतोऽत्र वद, किं युक्ता क्वचिदास्था दिकिनाम् ? |१५|| एवमुपदर्शितप्रकारेण, हि-निश्चितं, यद-यस्मात्कारणात्, सर्वमेव प्रियसंयोगादिक, संसारे =जगति, प्रकृत्या स्वभावेन. अ पुन्दरं-बलबदनिष्टाननुबन्धोष्टसाधनत्वाभाववत् अतो दुःखरूप ही है। यदि कर्मोदय से उत्पन होने पर भी पुण्य फल को दुःस्त्र रूप न माना जायगा, तो प्रत्यक्षविरोध दागा । पाप का फल सुत्र नहीं है यह प्रत्यक्ष है, अतः वह निस्सन्देह दुःख है। अतः कमोदय से जन्य होने के कारण, जैसे पाप का फल दुःख है उसी प्रकार पुण्य का फल भी 'दुःख ही है। पाप के फलभूत दुःख से पुण्य के फलभूत दुःख में अन्तर इतना ही है कि पुण्यफल में फ्फल (दुःख)के प्रतिकार का मिश्रण है। जैसे कि भोजन से आनन्द मिला-वह क्या है। भूख के दुःख का प्रतिकार । अगर भूख छी न हो, तो भोजन आनन्द नहीं देता । सत्य यह है कि विषयसुख, जो पुण्य से प्राप्त होता है, पास्तव में दुःख ही है, किन्तु चिकित्सा के समान उससे पापजन्य दुःस्त्र का प्रतिकार होने से उसे उपचार से गौणी वृत्तिसे सुख कहा आता है 1 अयथार्थ यथार्थ पर, पथं गौण मुख्य पर आश्रित होता है, अतः पुण्यफल में सुख के उपचार की उपास के लिये तथ्यभूत सुख का अस्तित्व (जो कि मोक्ष में है वह) माना जाता है। पर वह सुख वैषयिक न हो कर आत्मिक है और वह विशुद्ध धर्म के सेवन से प्राप्य है। अगर तथ्यभूत सुख न हो, तो औपचारिक सुख कैसे ?" पुण्यफल भी वास्तव में दुःखरूप ही है, इसीलिये व्यास, पतञ्जलि आदि वेदवादी ऋषियों ने भी संसार में सुस्वाभाव का ही प्रतिपादन किया है। न्यायसूत्रकार गौतम ने भी 'इक्कीस दुःखों के मध्य में ही सुख की गणना है । 'पुण्यफल को दुःखरूप मानने पर वास्तवसुख का निषेध हो जाने से असंगति होगी' यह शक नहीं की मा सकती, क्योंकि पुण्य और पाप दोनों के फल स्वाभाविक सुख के विकार हैं, अतः दोनों को दुःखरूप एक पक्षमें डाल देने में कोइ असंगति नहीं है ॥१४॥ 'प्रकरयाऽसुन्दरं' इस कारिका में संसार के सम्पूर्ण वस्तु को दुःखमय बताने का फालितार्थ कहा गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है १-चक्षु आदि छह इन्द्रियाँ, रुप अगदि छह विषव, इन्द्रियों मे होने वाले विषयों के छह अनुभव, शरीर, दुःख और सुख ये इसकोस गौतम के मतानुसार दुःरयरूप है । ईनमें दुःख मुख्य दुःख है, और अन्य चीस दुःख का साधन एवं दुःख से अनुचित होने के कारण औपचारिक-गौण दुःख है । दृष्टव्य'न्यायसूत्र' पर उद्योतकर का बार्तिक-आरम्भ भाय । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० ढीका व हिं.वि. हेतोः अत्र संसारे, वद इति शिष्य संबोधनं व्यामोहादिदोषनिरासेनावधानार्थम् कि क्वचित् प्रियसंयोगादौ विवेकिनामिष्टसाधनत्वाद्यंशेऽभ्रान्तानाम् श्रास्था प्रष्टस्यादिरूपा, तत्प्रवर्तकवचनप्रामाण्यप्रतिपत्तिरूपा वा 'युक्ता' ? न युक्तेति काक्वथैः ॥ १५ ॥ अपवादमाह - 'मुक्त्वे' ति मूलम् - मुक्त्वा धर्मं जगद्वन्थमकलङ्कं सनातनम् । परार्थसाधकं धीरैः सेवितं शीलशालिभिः || १६ | जगतां वन्यमिष्टसाधनत्वेन स्पृहणीयम् नैष्ठिकाऽऽमुष्मिक दोषाननुबन्धिनं, सनातनं प्रवाहापेक्षयाऽनादिनिधनम् । अनेनाssधुनिकत्वशङ्कानिरासः । परः प्रकृष्टो= मोक्षः, अर्थोधनम् उपलक्षणात् कामोऽपि गृह्यते, तत्सामकं तन्निबन्धनम् अनेन चतुर्वर्गाभ्यर्हितत्वमुक्तम् । तथा शीलशालिभिः काष्ठाप्राप्तब्रह्मचर्ये स्तीर्थकरादिभिः, सेवितमाचीर्णम् । अनेन सुसम्प्रदायायातत्वमुक्तम् । एतादृशधर्म मुक्तत्वाऽन्यत्रास्था नोचिता, धर्मे तुचितैव दोषाभावादिति ॥१६॥ P उत्तरीति से यह सिद्ध है कि प्रियसंयोग आदि संसार की सारो वस्तु स्वभा यतः असुन्दर है, कोई भी वस्तु बलवान् अनिष्टका अनुत्पादक होते हुये इष्ट का साधक नहीं है । संसार की वस्तु दृष्टसाधक होती हुई भी बलवान अनिष्ट की उत्पादक डोसी है । अतः गुरु शिष्य के व्यामोह आदि दोष का निरास कर उसे सावधान करते हुये काकु ( वक्र कथन) द्वारा उसको यह उपदेश देता है कि जिन्हें इष्टसाधनता आदि के विषय में भ्रम नहीं होता, ऐसे विवेकी पुरुषों की संसार के प्रियसंयोग आदि किसी भी वस्तु में प्रवृत्ति रूप आस्था अथवा प्रवृत्तिसम्पादक वचन में प्रामाण्य की प्रतिपत्तिरूप आस्था का होना उचित नहीं है ॥१५॥ 'मुक्त्वा धर्म'....इस कारिका में, संसार की किसी भी वस्तु में विवेकी पुरुष की आस्था का होना अनुचित है' इस बात का अपवाद बनाया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है- इष्ट का साधक होने के कारण धर्म जगत् के सभी मनुष्यों के लिये स्पृहणं य है। उसमें पेडिक अथवा आमुष्मिक किसी प्रकार का कोई कलङ्क अर्थात् दोषजनकता नहीं है। उसके प्रवादको उत्पत्ति तथा विनाश न होने से प्रवाह को दृष्टि से वह शाश्वत है, अतः 'धर्म तो आधुनिक है' ऐसी उसमें आधुनिक होने को शङ्का का कोई अवसर नहीं है । वह परार्थसाधक है, 'परार्थ' में 'पर' शब्द का अर्थ है प्रकृष्ट अर्थात् मोक्ष, 'मर्थ' शब्द का अर्थ है धन, वह काम का उपलक्षण है । अतः परार्थ' शब्द का अर्थ है मोक्ष-धन और काम | धर्म इन तीनों का साधक होने से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चारों वर्गों में सर्व श्रेष्ठ है। पूर्ण ब्रह्मचर्यरूप शील से सम्पन्न तीर्थ कर आदि धीर पुरुष द्वारा सेवित होने से वह धर्म प्रशस्त सम्प्रदाय द्वारा शिष्ट पुरुषों की सम्मान्य परम्परा द्वारा प्राप्त है । अतः वह संसार की समस्त वस्तुओं में अपवाद है, इसलिये उस धर्म Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ शास्त्रषार्त्ता समुच्चय पूर्वपक्षी प्रत्यवतिष्ठते आहेति मूलम् आइ तत्रापि नो युक्ता, यदि सम्यङ् निरूप्यते । धर्मस्यापि शुभो यस्मात् बन्ध एव फलं मतः ॥ १७॥३ तत्रापि धर्मेऽपि, नो युक्ताऽऽस्था, यदि 'सम्यङ् निरूप्यते सुक्ष्ममीक्ष्यते, यस्माद हेतोः, धर्मस्यापि शुभः सातादिहेतुः बन्ध एवाऽभिनवकर्मपुद्गलपरिग्रह एव फलं मतः= दृष्टः ॥१७॥ 9 ननु किमेतावता, इष्टसाधनत्वस्यानपायात् ! अत आह नचेति - मूलम् -- न चायसस्य बन्धस्य तथा हेममयस्य च । फले कश्चिद् विशेषोऽस्ति पारतन्त्र्याऽविशेषतः || १८ || न चाऽऽयसस्य - छोइनिगडादे, हेमयस्य च कनकशृंखलादेः बन्धस्य रुके कश्चिदनुष्ठत्वप्रतिकूळल्वकृतः बलवत्त्वाऽगलवश्वकृतो वा विशेषोऽस्ति, पारतन्त्र्यस्य स्वेच्छा निरोधदुःखस्याङविशेषतः उभयत्र विशेषाभावात् ॥ १८ ॥ उपसंहरन्नाह 'तस्मादि'ति को छोड़ कर संसार के किसी अन्य वस्तु में विवेकी पुरुषों की प्रवृत्ति उचित नहीं हैः किन्तु धर्म में कोई दोष न होने से उसमें विवेकी पुरुष की प्रवृत्ति का होना उचित ही है । - १६॥ ( धर्म भी त्याज्य है - पूर्वपक्ष ) 'ers तत्रापि - इस कारिका में पूर्व पक्षी द्वारा पूर्वकारिका में कही गयी बात का बण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है - 'संसार की अन्य वस्तु में विवेकी पुरुषों की आस्था उचित नहीं है, किन्तु धर्म में आस्था उचित है' - इस कथन पर 'आई' इस अव्यय शब्द द्वारा आश्चर्य प्रकट करते हुये पूर्वपक्षी का कहना है कि यदि सूक्ष्मता से विचार किया जाय तो धर्म में भी विवेकी पुरुष की आस्था उचित नहीं है क्योंकि धर्म का फल शुभ बन्ध ही माना गया है । 'शुभ' का अर्थ है सुखशातादि का जनक, और 'बन्ध' का अर्थ है नये कर्मपुलों का ग्रहण ॥११७॥ 'न चास्य' इस कारिका में 'शुभबन्ध का जनक होने पर भी इष्ट का साधक होने से धर्म की उपादेयता अक्षुण्ण है, इस कथन की समीक्षा की गयी है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है अंजीर आहे लोहे की हो, चाहे सुवर्ण की हो, दोनों के फल में कोई असर नहीं होता । यह नहीं कहा जा सकता कि सोने की जंजीर का बन्धन प्रिय या दुर्बल होता है, और लोहे की जंजीर का बन्धन अप्रिय या प्रबल होता है, क्योंकि दोनों के द्वारा जो परतन्त्रता होती है, इच्छा का निरोध होने से जो दुःख होता है, उस में कोई मेद नहीं होता ||१८| Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..स्था का टीका पहि. वि० मूलम् तस्मादधर्मवत त्याग्यो धर्मोऽप्येवं मुमुक्षुभिः । धर्माधर्मक्षयाद मुक्तिर्मुनिभिर्वर्णिता यतः ।।१९।। तम्मात् संसारपरिभ्रमणजन्यबलवदुःखानुबन्धित्वात्, अधर्मवत् धर्मोऽपि त्याज्य: मुमुक्षुभिः मोक्षच्छादिः, तदितरेप संसारमुखाविरक्तत्वेन विवेकाभावात् । बलवद्दु:खानुबन्धित्वेन त्याज्यत्वमुक्ला इष्टसाधनीभूताऽभावप्रतियोगित्वेनाऽपि त्याज्यत्क्माहमुनिभिः परिणतप्रवचनैः धर्माऽधर्मयोरुभयोः क्षयाद मुक्तिर्यतो वर्णिता। अतोऽप्यधर्मवत् त्याज्यो धर्म इति भावः ॥१९॥ मूलम्-उच्यत एवमेवैतत् किन्तु धर्मो द्विघा मतः । संज्ञानयोग एवैकस्तथान्यः पुण्यलक्षणः ॥२०॥ 'उच्यते'- अत्र समाधान नियते- पूगौर र संसार तर मोक्षविरोधित्वं च, एवमेव-अविप्रतिपत्तिविषय एव । ननु कथमेकस्य मोक्षजनकत्वं तत्प्रतिपन्धकत्वं च, विरोधान १, अत आह--किन्तु धर्मो धर्मपदवाच्यः, द्विधा=द्विप्रकार उक्तः। एवं च धर्मपदमक्षादिपदवद् नानार्थकम् , तथा च मोक्षजनकप्रतिबन्धकयोर्विमेदाद् न विरोधः इत्यनुपदं ग्रन्धकृता स्पष्टाक्षरैरेव वक्ष्यते । द्वैविध्यमेव स्पष्टयति,-एको धर्मः, संज्ञानयोगः समीचीनमहत्मवचनानुसारि ज्ञान गुरुपारतन्त्र्यनिमित्त संवेदन, तेन सहितो 'योगः' शुभवीर्योल्लासः । एवकारः प्रसिद्धयर्थः । तथा अन्यो धर्मः, पुण्येन सातादिना कार्येण लक्ष्यत इति पुण्यलक्षणः ॥२०॥ १२ वीं कारिका में उक्त पूर्वपक्ष का उपसंहार करते हुये यह कहा गया है कि-अधर्म के समान धर्म भी संसार में प्राणी के परिभ्रमण का सम्पादक होने से बलवान् दुःख का उत्पादक होता है । अतः संसार सुख से विरक्त अविवेकी पुरुषों के लिये धर्म भले ग्राह्य हो, पर मुमुक्षु पुरुषों के लिये वह भी अधर्म के ही समान त्याज्य है। यह ध्यान देने की बात है कि धर्म बलवान् दुस्ख का अनक होने मात्र से ही त्याज्य नहीं होता किन्तु मोक्षरूप इष्ट के कारण भूत अभाव (धर्माधर्मक्षय) का प्रतियोगी होने से भी त्याज्य होता है; क्योंकि जिन मुभिजनों के जीवन में तीर्थंकरों के प्रवचन परिणत हो चुके हैं उन्होंने धर्म-अधर्म दोनों के भय से मुक्ति होने की बात कहो है, अतः अधर्म के समान ही धर्म भी त्याज्य होने से धर्म में विवेकी पुरुष की आस्था होने को उचित कहना ठीक नहीं है। (धर्म-द्वविध्य बताने द्वारा पूर्व आक्षेपों का समाधान) २० वी कारिका में धर्म के सम्बन्ध में किये गये पूर्वपक्ष का समाधान किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है धर्म को जो संसार का कारण और मोक्ष का विरोधी कहा गया है, यह ठीक ही है, उसमें किसी की कोई विमति नहीं है। प्रश्न होता है कि-धर्म को पहले मोक्ष का शा. वा. १. Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अत्र पुण्यलक्षणधर्मस्य शास्त्रवातसमुच्चय प्रसिद्धत्वाज्ज्ञानयोगधर्मस्य स्वरूपं फलं चाह - 'ज्ञानयोग' इति । मूलम् - ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमाशंसा दोषवर्जितम् । अभ्यासातिशयदुक्तं तद्धि मुक्तेः प्रसाधकम् ॥ २१॥ 'आशंसादोपेण' इह-परलोकादिदुष्टाशंसया वजित राजन्येच्छाऽविषयीभूतं शुद्धं ज्ञानसंयमोपच हितं तपो ज्ञानयोग उच्यते । 'तद्' उक्तगुणोपपन्नं तपः 'अभ्यासातिशयात्' क्षायोपशमिकभावपूर्वक दृढ यत्नात्, 'विमुक्तेः प्रसाधक' - मोक्षस्य जनकम्, उक्तम्, दुष्टाशंसापूर्वकस्य तपसो निषिद्धत्वात्, "नो इहलोगद्वार तवमहिद्विज्जा, नो परलोगहाए तवमहिहिज्जा" इति वचनात् । केवलस्य च तस्य विशिष्ट निर्जरां प्रत्यजनकत्वात्, समुदितानामेव त्रयाणां प्रकाशव्यवदानाऽनाश्रवरूपव्यापारैर्निःशेषकर्माभावोपपते, अभ्यासस्य च स्वजनकभाव- वृद्धिहेतुत्वेन ततोऽशुभवासनाक्षयाद विलम्बेन फलोदयाच्च ॥ अनक भी कहा गया है, फिर एक ही धर्मे मोक्ष का जनक और मोक्ष का प्रतिबन्धक दोनों कैसे हो सकता है? क्योंकि मोक्षजनकत्व और मोक्षप्रतिबन्धकत्व में विरोध है । इसका उत्तर यह है कि- 'अक्ष आदि पदों के समान धर्मपद नानार्थक है, अतः उसके दो अर्थ हैं । मोक्ष का जनक धर्मार्थ दूसरा है, और मोक्ष का प्रतिबन्धक धर्मपदार्थ दूसरा है । इसलिये एक धर्म में दोनों के न रहने से कोई विरोध नहीं हैं। इस बात को ग्रन्थकार शीघ्र अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहेंगे । धर्मपद के जो दो अर्थ बताये गये, वे स्पष्ट और प्रसिद्ध है, उसमें एक का नाम है 'संज्ञानयोग', दुसरे का नाम है 'शुभकर्म' ' 'संज्ञान योग' का अर्थ है समीचीन ज्ञान से युक्त योग । समीचीन हाथ वह है जो भगवान् भईन् के प्रवचनरूप आगमों के अनुसार हो तथा गुरु की आज्ञा में रहकर गुरुकृपा से प्राप्त किया जाय, पथं आजीवन गुरुप्राग्तव्य बनाया रखे । 'योग' का अर्थ है शुभ प्रवृति में उक्लास | 'शुभकर्म का अर्थ है वह कर्म जिसे शास्त्र ने कर्तव्य बनाया हो, तथा जिसका निषेध न किया हो, पवं पुण्यजनक हो । वह साता आदि पुण्यफलों द्वारा उनके कारण के रूप में अनुमित होता है ॥२॥ (ज्ञान योग का स्वरूप और फल ) उक्त धर्मार्थों में पुण्यलक्षण धर्म सुप्रसिद्ध है, उसे संसार में आसक्त मनुष्य भी जानते हैं. किन्तु ज्ञानयोगरूप धर्म इस प्रकार प्रसिद्ध नहीं हैं, अतः २१ वीं कारिका में उसके स्वरूप और फल का प्रतिपादन किया गया हैं, कारिका का अर्थ इस प्रकार है ज्ञानयोग उस नप को कहा जाता है जो इहलोक और परलोक के पौलिक लाभ की अतिशय लालसा से पराभूत होकर ऐहलौकिक फलों की कामना से न किया गया हो तथा ज्ञान और संयम से समृद्ध हो । इस प्रकार के तप को ही अभ्यासातिशय रख क्षायोपशमिकभावपूर्वक उढप्रयत्न से करने पर मोक्ष का साधक कहा गया १. 'अम' के अर्थ होते हैं - रथ का चक्र, द्राक्ष, आत्मा, सर्व इत्यादि । २. शुभ भाव से कर्म का विकोदव स्थगित कर के प्रदेशोदय बनाना यह भायोपशमिकभाव है । मोहनीय कर्मों के ऐसे क्षयोपशम से मोहविक बन्द हो जाने पर बौद्गलिक लालसा रुक जाती है । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० १० टीका व हिं० वि० अङ्गीकृतं च पातञ्जलैरप्येतत्-"अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः (पा. १ -१२)। ताः प्रमाण विपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतिलक्षणाः पञ्च वृत्तयः (पा. १-३)। 'तत्र प्रत्यक्षादीनि ममाणानि (पा. १-७) । 'विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् (पा.१-८)। तद् "अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशभेदेन पञ्चविधम् (पा. २-३) । 'अनित्याऽशुचिदुःखाऽनात्मसु नित्यशुचिसुखाऽत्मख्यातिरविधा (पा. २-५) । दृग्दर्शनशनयोरेकात्मतेवाऽस्मिता (पा. २-६)। 'सुखानुशयी रागः (पा. २-७) । दुःखानुशयी द्वेषः (पा. २--८)। "स्वरसवाहो विदुषोऽपि तथारुढोऽभनिवेश(पा. २-९) । "शब्दमानानुपाती वस्तुशुन्यः प्रमाभ्रमविलक्षणोऽसदर्थव्यवहारो विकल्पः (पा. १-९), शशविषाणम् , असत्पुरूपस्य चैतन्यमित्यादि । “अभावप्रत्ययालम्बनाधृत्तिनिद्रा (पा. १-१०), चतसाणां वृत्तीनामभावस्य प्रत्यया-कारणं तमोगुणस्तदालम्बना वृत्तिनिद्रा, न त, ज्ञानाद्यभावमात्र. मिति भावः । अनुभूतविषयासम्प्रमोषप्रत्ययः स्मृतिः (पा. १--११), पूर्वानुभवसंस्कार झानमित्यर्थः । साप्त नियसपासनानां यः। संचाभ्यासेन वैराग्येण च भवति ।। है। क्योकि दुष्ट आशंसा से ऐहिक वा पारलौकिक फल की कामना से तप करने का निषेध है, जैसे कि 'नो इहलोगवाए.' इत्यादि वसनों से स्पष्ट है कि न पहलौकिक फलके लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये, और न पारलौकिक फल के लिये तप का अनुष्ठान करना चाहिये । तप भी बान संयम के अभाव में अकेला मोक्ष के लिये पर्याप्त नहीं है, क्योंकि केवल तप से विशिष्ट निजेरा यानी प्रचुर 'सकाम निजस एवं नूतनकात्रवण -निरोधपूर्वक निर्मरा को सिद्धि नहीं होती । ज्ञान, संयम और तप तोनों मिल कर ही क्रमशः प्रकाश, अनाश्रय एवं व्यवदान-तस्ववोध, कर्मनिरोध एवं कर्मक्षय रूप च्यापारों द्वारा अशेष कर्मबन्धनों के निर्तक होते हैं । अभ्यास से क्षायोपशमिक भाव की वृद्धि होने से अशुभ वासनाओं का क्षय हो कर अभिमत फल की प्राप्ति शीघ्रता से होती है । अतःशान-संयम युक्त तप के अभ्यास की उपयोगिता निर्विवाद है। (पातञ्जल मत से समर्थन) पतञ्जलिके मतानुयायियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि 'अभ्यास और वैराग्य से वृत्तियों का निरोध होता है। वृत्तियां पाँच हैं, प्रमाण, विपर्यय, विक ल्प, निद्रा और स्मृति । 'प्रमाण तीन है-प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्न् । "विपर्यय का अर्थ है मिथ्याशान । 'उसके पाँच मेद हैं अविद्या, अस्मिना, राग, द्वेष और अभिनिवेश। 'अविद्या का अर्थ है अनित्य, अशुचि, दुःख और अनात्मा को क्रम से नित्य, शुद्धि, मुख और आत्मा समझना । "अस्मिता का अर्थ है रक्शक्ति और दर्शनशक्ति को एक भागना । 'राग का अर्थ है सुखानुभय के फल स्वरूप सुख में आसक्ति का होना । 1. सकाम निर्जग अर्थात् निर्जरा की ही कामना से किये गए सुकृताचरण या परीवह सहन से होने वाली कर्मनिर्जरा यानी कर्मक्षय । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ शास्त्रवासिमुच्चय वैराग्येण चित्तनद्या विषयप्रवाहो निवर्य ते, समाध्यभ्यासेन च प्रशान्तवाहिता सम्पाद्यते, इति द्वारभेदादुभयोः समुच्चयात् । एकद्वारत्वे हि वीडियववद् विकल्प एवं स्यात्, न तु समुच्चय इति । 'तत्र स्थितौ यत्नेोऽभ्यासः' (पा. १-१३), तत्र दृष्टरि शुद्ध चित्तस्याऽवृत्तिकस्य प्रशान्तवाहितारूपा निश्चला स्थितिस्तदर्थ यत्नो मानस उत्साहो 'बहिर्मनो निरोत्स्यामि' इत्याकारः, स चाऽऽवय॑मानोऽभ्याम उच्यत इति । स तू दीर्घकालनरन्तयसत्काराऽऽसेवितो दृढभूमिः' (पा.१-१४), अनिदेन दीर्घकालाऽऽसेवितः, अविच्छेदेन निरन्तराऽऽसेवितः, श्रद्धातिशयेन सत्काराऽऽसेवितो दृढभूमिर्विषयसुखवासनया चालयितुमशक्यो भवति । अन्श्या तु लयविक्षेपकषायमुखास्वादापरिहारे व्युत्थानसंस्कारप्राबल्यात् समाधिसंस्काराणां भरतयाऽदृढभूमिरेव स्यात्, इति कथं ततो विशिष्टफलसिद्धिः स्यात् ? ! द्वष का अर्थ है दुःखानुभव के फलस्वरूप दुःस्त्र के प्रति घृणा का होना । अभिनिवेश का अर्थ है विज्ञान को भी स्वाभाविक रूप से सुख की प्राप्ति का और इसके परिहार का आग्रह होना । "विकल्प का अर्थ है यह शान, जिसका कोई विषयभूत वस्तु न हो, जो प्रमा और भ्रम से विलक्षण हो, शमशान से उत्पन्न होता हो और किराने मला माझे का भी कि साहाय लिया जा सके, जैसे खरगोश की सींग', 'पुरुष की सत्ता के बिना चैतन्य का होना इत्यादि व्यवहारों के प्रवर्तक हान | "निद्रा का अर्थ है प्रमाण, विपर्यय, विकल्प और स्मृत्ति, इन चारों वृत्तियों के अभाव के कारणभूत तमोगुण को आलम्थन करनेवाली चित्त की वृत्ति । शान आदिका अभावमात्र उसका अर्थ नहीं है। स्मृति का अर्थ है यह मान जो अनुभत विषय का अपहरण नहीं होने देता, जो पूर्वानुभवजनित संसार से उत्पन्न होता है। इन वृत्तियों का विरोध अर्थात् वासनात्मक कारणों के साथ इन समी पृत्तियों का क्षय अभ्यास और वैराग्य से सम्पन्न होता है।। चित्त नदी के समान है। उसकी धारा निरन्तर विषयों की भोर प्रवाहित होती है। वैराग्य चित्तधारा के इस बहाव को रोकता है। समाधि का अभ्यास करने पर चिसधारा विषयों में अपने अमर्यादित बहाथ को छोड़कर प्रशान्तरूप से आस्मा की ओर प्रवाहित होने लगती है। इस प्रकार बैराश्य का कार्य है बित्त के विषयाभिमुख प्रवाह को रोकना; और अभ्यास का कार्य है चित्तप्रवाह को आत्मा की ओर मोड़ना । इस व्या. पारमेद के कारण ही वैराग्य और अभ्यास दोनों का समुच्चय अपेक्षित होता है। यदि दोनों का एक ही व्यापार होता तो उनका समुच्चयन होकर 'बीहि और यव के समान विकल्प होता। १-आशय किवद के बाहाणभागमें बाहिभिर्यजेत' 'यवैर्यजेत' इसप्रकार दा विधिसे दो माधन की प्राप्ति होती है तदनुसार बौह और यब दोनों का यज्ञमें विकलामे विनियोग प्राप्त होता है। अतः कभी यवका और कभी व्रीहि. का प्रयोग होती है, क्योंकि दोनों का एक ही द्वारा है 'घुरोडारा हवन के लिये बनने वाली रोट) प्रकृत में वैराग्य । का दार है चित का विषयों से निवर्तन, और अभ्यास का द्वार ई-आगाममुख चित्तप्रवनन । अतः दोनों के द्वार भिन्न होने से वैराग्य ओर अभ्यास में हि और व कं. समान विकल्प की प्राप्ति नहीं है। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका प हि घि. वैराग्यं च द्विविधं परमपरं च । तत्र यतमानसं ज्ञा-व्यतिरेकसंबा-एकेन्द्रियवशीकारसंक्षाभेदैरपरं चतुर्विधम् । तत्र किमिह सारं ? कि चाऽसारम् ? इति गुरुशास्त्रपारतव्येण ज्ञानोद्योगो नमानम् । विद्यामानचित्तदोषाणां मध्येऽभ्पस्थमानविवेकेनैतावन्तः पक्याः एतावन्तश्चावशिष्टा इति चिकित्सावद् विवेचन व्यतिरे कः । रष्टानुविकविषयप्रवृत्तेदुखमयत्वबोधेन बरिष्प्रवृत्तिमजनयन्त्या अपि तृष्णाया औत्सुक्यमात्रेण मनस्यवस्थानमे केन्द्रियम् । तृष्णाविरोधिनी चित्तवृत्तिनिप्रसादरूपा वशीकारः । तदिदं सूत्रितम्- "दृष्टानुविकविपवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यम्" (पा०१-१५) इति । तदन्तरसाधनं सम्प्रज्ञातस्थ समाधेः, असम्प्रज्ञातस्य तु बहिरङ्गम् । ____ अभ्यास का अर्थ है आत्मा में चित्त को स्थिर करने का यत्न । आत्मा का अर्थ है, 'शुद्ध दृष्टा' । चित्त को स्थिर करने का अर्थ है-'चिस को विषयोमुम्ल वृत्तियों से मुक्त कर उसे श्रात्मा में प्रशान्त रूप से प्रवाहित करना-आमा में उसकी स्थिति को अवि लत करना'। यान का अर्थ है 'मन का उत्साह-पारमा को छोड़ किसी अन्य विषय में वित्त को न जाने देने का सुडद संवाल्प' । यह यत्न ही बार बार दोहराने पर अभ्यास कहा जाता है। अभ्यास के उद्देश्य को सिद्ध करने के लिये उसे इढभूमि बनामा-विश्य सुख की वासना से विचलित न होने योग्य बनाना आवश्यक होता है, और यह होता है तब, जब किसी प्रकार का कष्ट अनुभव किये बिना, बीच में व्यवधान न करते हुये पूर्ण भद्धा के साथ दिर्घकाल तक उसके क्रम को भालु रखा जाय । यदि ऐसा नहीं किया जायगा तो लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद इन चार विनों का परिहार न हो सकने से व्युत्थान के प्रयल संस्कार समाधि के संस्कारों को भङ्ग कर देगें, जिससे अभ्यास पढभूमि न हो सकेगा, फिर दुर्बल अभ्यास से विशिष्ट फल की सिद्धि कैसे हो सकेगी। (वैराग्य के पर और अपर भेद) वैराग्य के दो मेन है पर और अपर । उनमें अपर वैराग्य के चार प्रकार हैयतमानसंशा, व्यतिरे संज्ञा, पकेन्द्रियसंज्ञा, और वशीकार संशा। संसार में क्या सार है और क्या असार है?' गुरु प शास्त्र के अनुसार इस बात का मान प्राप्त करने का उद्योग का नाम है 'यतमान' । वित्त में विद्यमान दोषों के मध्य पच्यमान दोषों को छोड़ शेष दोषों के सम्बन्ध में कुशल चिकित्सक के समान यह निश्चय करना चाहिये कि 'कितने दोष एक चुके है और कितने पकने को अपशिष्ट हैं।' दोषों का इस प्रकार विवेमन करने का नाम है 'व्यतिरेक' | सिद्धि के लौकिक और वैदिक उपायों को आयत्त करने का प्रयत्न दुःस्वपय है । इस शान के होने पर मनुष्य की सृष्णा यद्यपि वाह्य वि. षयों में उसे प्रवृस नहीं कर पाती. फिर भी मन में विषयों के प्रति उत्सुकता के रूप में बनी रहती है, इस प्रकार योगाभ्यासी के मन में उत्सुकता के रूप में तृष्णा के जी वित रहने का नाम है 'एकेन्द्रिय'। वित्त में निर्मलमान रूप वृत्ति का उदय होने पर तृष्णा Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय परं तु वैराग्यं सम्प्रज्ञातसमाधिपाटवेन गुणत्रयात्मकात् प्रधानाद विविक्तस्य पुरुषस्य साक्षात्कारादशेषगुणत्रयन्यवहारेषु वैतृष्ण्यं यत् । “तत्पर पुरुपख्यातेर्गुणचैतृष्ण्यम्" (पा.१-१६ इति) सूत्रम् । तदन्तरङ्ग साधनमसम्प्रज्ञातसमाधेः, तत्परिपाकनिमिसाच्च चित्तोपशमातिशयात् कैवल्यम् . इति यथास्थानं व्यवस्थापनात । अत्रेदमवधेयम्-अभ्यस्तं तपः समुस्टिम्नक्रियानिवृत्तिरूपं ध्यानमेव, तस्यैव साक्षाद् मोक्षहेतुत्वात् । न च मोक्षहेतुशुद्धात्मनानेन तस्य व्यवधानम्, समकालमाविनोरपि ज्ञान-ध्यानयोः प्रदीप -प्रकाशयोरिव निश्चयतो हेतुत्वाश्रयणात् । तदिदमभिप्रेत्योक्तम्-'मोक्षः कर्मक्षया देव स चात्मज्ञानतो भवेत् । ध्यानसाध्यं मत तच्च, तद् ध्यान हितमात्मनः' || इति । योगशास्त्र-४.११३) का विनाश हो जाता है। हमणा को निर्मूल करने वाली इस चित्तवृमि का ही नाम है 'पशीकार' । इसके सम्बन्ध में पतम्जलि ने एक सूत्र में कहा है कि "लौकिक और वैविक विषयों में तृष्णा को निवृत्ति होने पर 'वशोकार' संक्षक घेराग्य का उदय होता है।" यह चतुर्विध अपर घेराम्य 'सम्प्रज्ञात समाधि' का अन्तरङ्ग साधन है, और 'असप्रशात समाधि' का बहिरङ्ग साधन है। सम्प्रहात समाधि में पटुता प्राप्त हो जाने पर योगी को यह साक्षात्कार होता है कि 'पुरुष त्रिगुणात्मिका प्रकृति से भिन्न है -स साक्षात्कार के फलस्वरूप गुणत्रयमूलक समस्त व्यवहारों में घह विगततरुण हो जाता है । गुणमूलक समस्त व्यवहारों में होने वाली सहरणा-निर्वास का वो नाम है पर वैराग्य । यही बान सत्र में इस प्रकार कही गयो है कि प्रकृति से भिन्न पुरुष की ख्याति-प्रत्यक्षअनुभूति होने पर यांगा का जा कृष्णा का आत्यन्तिक अभाव होता है; वही 'पर वैरारप' है। पर वैराग्य घसम्प्रहातसमाधि का अन्तरङ्ग साधन है। असम्माहातसमाधि के परिपाक से चित्त का आत्यन्तिक उपशम होने पर 'कैवल्य' की प्राप्ति होती है, यह बात यथास्थान बतायी गयी है। (पातञ्जल मत की समीक्षा) इस सम्बन्ध में व्यागयाकार ने यह समीक्षा की है कि-अभ्यस्त तप, जिसे मोक्ष का साधक कहा गया है वह ओर कुछ न हो कर ऐसा ध्यान है जिसमें समुच्छिन्न क्रिया की अनिवृत्ति हो अर्थात् जिस ध्यान में सभी प्रकार की क्रियाओं का उच्छेद हो जाय और वह उच्छेद पुनः कभी निवृस न हो, क्रियाओं का उच्छेद सतत बना रहे । यहा क्रिया' से विवक्षित है सूक्ष्म भी मनो वाक काय योग । उनका मास्यन्तिक उच्छेद इस ध्यान में सम्पन्न रहता है । इस प्रकार का ध्यान ही अभ्यस्त तप है, क्यों कि ध्यान ही मोक्ष का साक्षात् कारण है अतः अभ्यस्त तप को जब मोक्ष का साधक कहा गया तो उसका अर्थ ही यह हुआ कि यह लविध क्रियाओं के उच्छेद से समृद्ध आत्मध्यान-आस्मस्थिरता रूप है। पातञ्जल मत में शुद्ध आत्मज्ञान (प्रकृति-पुरुष के भेद का साक्षात्कार) को मोक्ष का कारण बता कर उससे आत्मध्यान व मोक्ष के बीच जो व्यवधान Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हि. वि० समाधिरिति च शुक्लध्यानस्यैव नामान्तरं परैः परिभाषितम् । तथाहि चतुर्विधस्तैः सम्प्रज्ञातसमाधिरुक्तः - 'सवितर्क : निर्वितर्क, सविचारः, निर्विचारथेति । (१) यदा स्थूलं महाभूतेन्द्रियात्मकषोडशविकाररूपं विषयमादाय पूर्वापरानुसन्धानेन शब्दार्थोल्ले खेन च भावना क्रियते सविकल्पवृत्तिरुपा तदा सवितर्कः समाधिः । (२) यदा त्वस्मिन्नेवाल म्बने शब्दार्थस्मृतिविये तच्छून्यत्वेन भावना प्रवर्त्तते निर्विकल्पकवृत्तिरूपा, तदा निर्वितर्कः समाधिः । (३) यदाऽन्तःकरणं सूक्ष्मविषयमालय देशकालधर्मावच्छेदेन सविकल्पकवृतिरूपा भावना प्रवर्त्तते तदा सविचारः समाधिः । (४) यदा चास्मिन्नेव विषये तदवच्छेदं दिना निर्विकल्पवृत्तिरूपा धर्मिमात्र भावना प्रवर्त्तते तदा निर्विचारः समाधिरिति । I रजस्तमो लेशानुविद्धान्तःकरणसत्त्वस्य भावनात्मको माध्यमानसच्चोद्रेकेण सान्नदः समाधिः, यत्र बद्धघृतयः प्रधानपुरुषतवान्तरादर्शिनो विदेहशब्देनोच्यन्ते । रजस्तमोलेशानभिभूतशुद्धसमालम्ब्य भावनात्मकश्चिच्छक्तरुकाव सभामात्रावशेषत्वेन सास्मित: समाधिः यत्र स्थिताः परं पुरुषं पश्यन्ति । बताया गया हैं, वह ठीक नहीं हैं, क्यों कि आत्मध्यान बीच में शुद्ध भात्म ज्ञान को अपेक्षा न रख कर स्वयं ही मोक्ष को सम्पन्न करता है । आत्मध्यान और आत्मज्ञान की उत्पति में कम नहीं होता, दोनों साथ ही उत्पन्न होते हैं। फिर भी निश्चयदृष्टि से आरमध्यान को आत्मज्ञान का कारण कहा जाता है। यह कथन ठीक उसी प्रकार है जिल प्रकार प्रदीप और प्रकाश के एक साथ उत्पन्न होने पर भी प्रदीप को प्रकाश का कारण कहा जाता है । इस आशय से योगशास्त्र में कलिकाल सर्वक्ष श्री हेमचन्द्रसूरि ने यह बात कही हैं कि- मोक्ष कर्मों के क्षय से होता है, कर्मों का क्षय आत्मज्ञान से होना है, आत्मज्ञान आत्मध्यान से होता है। अतः आत्मध्यान ही आत्मा के हित का साधक है"। व्याख्याकार का कहना है कि जैन दर्शन के शुक्लध्यान को ही पातञ्जल ने समाधिनाम से अभिष्ठित किया है तथा सम्मात समाधि के बार मेव बताये हैं - सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार | = समस्त जड़ पदार्थों को दो श्रेणियाँ है- स्थूल और सूक्ष्म । पचमहाभूत पृथ्वी, जल, तेज वायु और आकाश, पाँच कर्मेन्द्रियां वाकू, पाणि, पाद, पायु, (मलेन्द्रियं ) और उपस्थ (मूत्रेन्द्रिय), पां ज्ञानेन्द्रियां प्राण, रसना, वक्षु स्व और धोत्र, तथा एक उभयेन्द्रिय-मन; ये सोलह स्थूल विषय हैं। प्रकृति, महत्, अहङ्कार तथा पक्ष तन्मात्रायें गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये आठ सूक्ष्म विषय हैं । सवितर्क और निर्वितर्फ समाधि के विषय हैं स्थूल पदार्थ तथा सविचार और निर्विचार समाधि के विषय हैं सूक्ष्म पदार्थ ) सवितर्क - उत्त सोलह स्थूल पदार्थों में जब वृत्तिरूप ऐसी भावना की जाती है, जिसमें उस १ दृष्टव्य-पात० १ पाद के ४२ से ४६ तक के सूत्रों पर व्यासभाष्य । किसी एक के विषय में सfooteविषय के पूर्व अपर-कारण- कार्यभूत Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय विषयों का अनुसन्धान तथा शन और अर्थ के रूप में उस विषय उल्लेख होता है, तो वह भावना 'सषितर्क' समाधि कही जाती है, क्यों कि वह चित्त के सविकल्पक स्थूल आभोगरूप वितर्क से युक्त होती है। निर्वितर्क --जिस विषय में सवितर्क समाधि सम्पन्न हो चुकी है उसी विषय की जय निर्विकल्पकवृत्तिरुप भावना की जाती है, जिसमें शम और अर्थकी स्मृति का विलय हो जाता है तथा जो पूर्वापर के अनुसन्धान एवं शब्दार्थ के उल्लेख से शून्य होती है सब यह भावना निर्वितर्क' समाधि शब्द से व्यवहत की जाती है, क्योंकि वह उक्त वितर्क से शून्य होती है। ___ सविचार-उक्त सूक्ष्म विषयों में किसी पक के सम्बन्ध में जब ऐसी सधिकरूपक वृत्तिरूप भावना की जाय जिसमें उस विषय के साथ देश, काल और विभिन्न अवस्थारूप धर्मों का सम्बन्ध भासित हो तब वह भाषना 'सविचार' समाधि शब्द से ध्यपदिष्ट होती है, क्यों कि वह घिसके सविकल्पकसूक्ष्मभाभोगरूप विचार से युक्त होती है। निर्विचार-जिस विषय में सविचार समाधि सम्पन्न हो जाय, उसी विषय की जब पेसी भावना हो जिसमें देश, काल. अवस्थाओं का भान न हो, केवल धर्मी मात्र का भान हो, तब उसे 'निविचार' समाघि कहा जाता है, क्योंकि वह निर्विकल्पक होने के कारण उक्त विचार से शभ्य होती है। सम्पहात समाधि के दो मेद और बताये गये हैं उनके नाम है 'सानन्द और सास्मित । उक्त चारों से इनका भेद यह है कि उक्त चार समाधियां 'ग्राहा' पदार्थों को विषय करती हैं. और ये दोनों क्रम से 'ग्रहण'-झानलाधन अन्तःकरण को तथा 'ग्रहीता' पुरुष को विषय करती हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं सानन्द सम्प्रज्ञात- अन्तःकरणा सत्त्व, रजः और तम इन तीन गुणों को समष्टि रूप प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण त्रिगुणात्मक है। इस अन्तःकरण को विषय बना कर जब ऐसी भावना की जाय जिसमें उसके रज और तम अंश का अत्यन्त गौणरूप से तथा सत्व अश का प्रधान रूप से भान हो तो यह भावना 'सानन्द' सम्भशात समाधि कही जाती है, क्योंकि सुखात्मक 'सत्व' के स्फुरणरूप आनन्द से वह युक्त होती है। इस समाधि की अवस्थामें स्थित योगी 'विदेह कहे जाते हैं, इस समाधि की अवस्था में प्रकृति और पुरुष से भिन्न तत्त्वका दर्शन नहीं होता। सास्मित सम्प्रज्ञात-जब अन्तःकरण के रज और तम से असम्पृक्त शुद्ध सत्त्व को विषय कर ऐसी भाषमा की जाय जिसमें शुद्ध सस्व भी गौणरूप से भासित हो, प्रधानरुप से पुरुषसपा चिति शक्ति का ही भान हो तो वह भावना 'सास्मित' सम्प्रशात समाधि कही जाती है, क्योंकि वह शुद्धसत्त्व से अभिन्नरूप में पुरुष के स्फुरणाप 'अस्मिता' से युक्त होती है इस समाधि में स्थित योगी को 'पर पुरुष' का दर्शन होता है । इस समाधि में रश्यमान पुरुष को 'पर' इस लिये कहा जाता है कि इसमें यह शुद्ध सख के साथ एकीभूत हो कर गृहीत होता है। १. अन्य पात• १ पाद का १७ वां सूत्र और उसका व्यासभाष्य । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका बहि. वि. ___ तदिदं समाधिद्वयं ग्रहीत ग्रहणयोरपि वित्तवृत्तिविषयतया ग्राहकोटावेव निक्षेपाद् नातिरिच्यते । तदिदमुक्तं "सूक्ष्मविषयत्वं चालिङ्गपर्यन्तम्" (पात. १-४५) इति । सूत्रितं च "चतुर्विधा ग्राह्यसमापत्ति" इत्यादि । क्षीणवृत्तेरभिजातस्येव मणेही तनहणगापु तत्स्थतदानता समापत्तिः (पात. १-४१) इति समापत्तिलक्षणम् । तत्स्थता तदेकाग्रता तन्मयता न्यगभूते चित्ते भाव्यमानोत्कर्षः स्फटिकोपरागस्थानीयः।। __ निर्विचारसमाधेः प्रकृष्टाभ्यासाच्छुद्धसत्वोनेके क्लेशवासनारहितस्य चित्तस्य भूतार्थविषयः क्रमाऽननुरोधो स्फुटः प्रज्ञाऽऽलोकः प्रादुर्भवति । तदुक्त'-"निर्विचारचैशारोऽध्यात्मप्रसाद:" (पात०१-४७) इति । "ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा" (पात ०१-४८), अतं सत्यमेव बिभर्ति भ्रान्तिकारणाऽभावाद् इति ऋतम्भरा. यौगिकीयं संज्ञा, सा पोत्तमो योगः, तथा व नाप्यम् । आगमेनाऽनुमानेन बानाभ्यामरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ।।इति । प्रहीता पुरुष और ग्रहण-अन्तःकरण ये दोनों भी चिप्सवृत्ति का विषय होने से प्राह्यकोटि में समाविष्ट हो जाते हैं। अतः प्राख को आलम्बन करने वाली समाधियों से सानन्द और सास्मित समाधि को पृथक मानने में कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि सूक्ष्म विषय को आलम्बन करने वाली सविखार और निर्विचार समाधियों में इनका अन्तर्भाव किया जा सकता है। सूत्रों द्वारा अलिस-प्रकृति में सूक्ष्मता को चरमसीमा बताते हुये तथा प्राह्यसमात्ति-प्राह्मालम्बम समाधि के चार मेद बताते हुये पतञ्जलि ने इस बात का संकेत किया है। समापत्ति का लक्षण बताते हुये पतझजलि ने कहा है कि _ 'जिस प्रकार स्वच्छ स्फटिकर्माण जपापुष्प आदि उपाधियों के सन्निधान में उनके रूपात्मक आकार को ग्रहण करती है उसी प्रकार अभ्यास और वैराग्य से राजस-तामस वृसियों का क्षय होने से निर्मलीभूत पित्तसत्त्व प्रहीता, ग्रहण और ग्राह्य के सम्पर्क में उनके आकार को ग्रहण करता है, शुद्धचित्तसत्व द्वारा ग्रहीता आदि के आकार को ग्रहण करने का ही नाम है समापत्ति, इसमें चिसय ग्रहीता आदि में पकान हो जाता है, तन्मय हो जाता है, तन्मयो भूतचित्त सत्व में भावना की विषयभूत वस्तु निखर जाती है, भाव्यमान वस्तु का यह निसार स्फटिक में उपायुष्ण के प्रतिभास से उपमेय होता है। निर्विधार समाधि के प्रकृष्ट अभ्यास से चिप्ससत्व कलेशवासनाओं से-राजस और तामस वृत्तियों की धासनाओं से मुक्त हो कर शुद्ध हो जाता है। फिर उसमें पेसे स्फुट प्रशारूप आलोक का उदय होता है जो विना क्रम के पक साथ ही सम्पूर्ण वस्तुभूत पदार्थों को प्रकाशित करता है । पतञ्जलि ने सूत्रों द्वारा इस बात को इस रूप में कहा है कि१. दृष्टव्य- पातर १ पाद का ४५ वां सूत्र तथा ४३ वे सूत्र का व्यासभाष्य । २. दृष्टस्य पात० १ पादका ४१ वां सूत्र । ३. दृष्टश्य- पात १ पादका ४७ वा सूत्र । शा, वा. " Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .८२ शास्त्रमाप्तिमुच्चय तज्जन्यसंस्काराणां व्युत्थानादिसंस्कारविरोधित्वात् तत्प्रभवप्रत्ययाभावेऽप्रतिहतप्रसरः समाधिः । ततस्तज्जा प्रसा, ततस्तत्कृताः संस्काराः, इति नवो नवः संस्काराशयो वर्धते । ततश्च प्रज्ञा । ततश्च संस्कार इति । ततो योगिप्रयत्नविशेषेण सम्प्रज्ञातसमाघेर्युत्थानजानां च संस्काराणां निरोधादसम्प्रज्ञातसमाधिर्भवति । तदुक्तम्-"तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधाद निर्विजः समाधि:' (पा०१-५१) इति । तदा च निरोधचित्तपरिणामप्रवाहस्तजन्यसंस्कारप्रवाहवावतिष्ठते । तदुक्तम्-"संस्कारशेषोऽन्यः" (पा० १-१८) इति । ततः प्रशान्तवाहिता संस्कारात् । सायकिय चित्तस्य निरिन्धनाग्निवत् प्रतिलोमपरिणामेनोपशमः, तत्र पूर्वप्रशमनितः सहकार उत्तरोत्तरपशमहेतुरिति । ततो निरिन्धनाग्निवत् चित्तं क्रमेणोपशाम्यद व्युत्थानसमाधिनिरोधसंस्कारः सह स्वस्यां प्रकृतौ लीयत इति । "निविचार समाधि का वैशारद्य होने पर आत्मा में प्रसाद का उदय होता है। 'वैशारब' का अर्थ है चित्त को शुद्ध सात्त्विक वृत्तियों का पकाकार स्वच्छ प्रवाह । निर्विबार समाधि का सुचिर अभ्यास करने पर चित्तसत्व किसी एक सूक्ष्म विषय में स्थिर हो जाता है। उसी एक विषय में उसकी स्वच्छ सायिक वृत्तियां प्रवाहित होने लगती हैं। निर्विचार समाधि की इस अवस्था को ही उसका धेशारच कहा जाता है । 'आत्मा में प्रसाद के उदय' का अर्थ है-पुरुष में वस्तुभूत अर्थ के क्रमहीन ज्ञानात्मक प्रकाश का प्रादुर्भाव । जब निर्विचार समाधि विशद होती है तब योगी का निर्मल चित्त सम्पूर्ण सत्य पदार्थो को सहसा भालोकित कर देता है। योगी पक ही समय सारे सत्य पदार्थों का साक्षात्कार करने लगता है। समाधि की उक्त अवस्था में जो प्रशा उत्पन्न होती है उसे स्तम्भरा' कहा जाता है। इसमें सत्य पदार्थ का ही भान होता है, भ्रम का कारण न होने से इसमें किसो असत्य पदार्थ का भान नहीं होता । इस प्रशा का यह नाम यौगिक है, सान्वर्थ है, भाष्यकार ध्यास ने इसे 'उत्तम योग' की संज्ञा प्रदान की है और आगमश्रवण, अनुमान-मनन तथा भादर पूर्वक पुनः पुनःचिन्तन-निदिध्यासन से इसकी उत्पत्ति बतायी है। ऋतंभराप्रक्षा से उत्पन्न संस्कारव्युत्थानअवस्था असमाधि अवस्था में होनेवाली प्रथा के संस्कारों का क्षय कर देती है। उन संस्कारों का क्षय होने पर तन्मूलक प्रतीतियों की उत्पत्ति के निरुद्ध हो जाने से समाधिसिद्धि की बाधा दूर हो जाती है। फिर समाधिसिद्धि होने पर समाधि से प्रज्ञा और प्रज्ञा से संस्कारों के जन्म का सातत्य चल पबसा है, जिस के फलस्वरूप नित्य नूतन संस्कारों की सृष्टि होने लगती है। इस प्रकार प्रक्षा और संस्कारों का चक्र अधिरत गति से चालु हो जाता है । योगो जय विशेष प्रयत्न द्वारा सम्प्रज्ञात समाधि और व्युत्थान अवस्था के संस्कारों का निरोध कर इस सक को रोक देता है नब असम्प्रशात समाधि का प्रादुर्भाव होता है। जैसा कि निर्बीज समाधि के नाम से उसका लक्षण बताते हुये कहा गया है कि प्रथा के साथ प्रश्ना अन्य संस्कार का भी निरोध हो जाने पर सर्वनिरोध हो जाने से निर्बीज समाधि का उदय Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क. टीका घहिं० वि० ___ अत्र चतुर्विधोऽपि संप्रज्ञातसमाधिः शुक्लध्यानस्याऽऽद्यपादद्वयं प्रायो नातिशेते । पोडशकादिविषयोपवर्णन च तत्राऽप्रामाणिकस्वप्रक्रियामात्रम् , तत्र मानामावात, आत्मविषयकसाक्षात्कारे आत्मविषयकस्यैव ध्यानस्य हेतुत्वाच्च । वितर्कश्चात्र विशिष्टश्रुतसंस्काररूपः, विचारश्च योगान्तरसंक्रमरूपो प्रायः, विधिशाने विकलानिकलवायोगात, परिभाषामात्रस्य निरालम्बनत्वात्, पृथक्वाभिधानेन चार न्यूनत्वम् ।। प्रज्ञालोकश्च केवलज्ञानादधः सचित्रालोककल्पश्चतुनिग्रकोत्तरकालभावी प्रातिभाऽपरनामा ज्ञानविशेषः । ऋतम्भरा च केवलज्ञानम् । ततः संस्काराऽऽशयवृद्धिश्चाऽसंभवदुक्तिका, मतिज्ञानदस्य संस्कारस्य तन्मूलभूतमानावरणक्षयेणेव क्षीणत्वात् अतश्चरमशुक्लध्यानांशस्थानोयो संप्रज्ञातसमार्धिन वृत्तिनिरोधाथमपेक्षणीयः; किन्तु भवोपनाहिकर्मक्षयामिति पूक्ष्ममोक्षणीयम् , ज्वरपरवशपुरुषवचनप्रायाणां परतन्त्राणां काकतालीयन्यायेनैव क्वचिदर्थाऽवाधादिति दिक् । होता है । 'नि:जशब्द का योगलभ्य अर्थ है बीज से-आलम्बन से रहित, अथवा वीज से-क्लेशकर्माशय से मुक्त । इस शब्द से यह सूचित होता है कि असम्प्रहात समाधि सम्प्रमात समाधि के समान सालम्बन या कलेशकर्माशय से युकत नहीं होतो । इसका प्रादुर्भाव परखैराग्य से होता है, जैसे कि 'विरामवस्ययाभ्यासपूर्वः संस्कारशेषोऽभ्य' इस सूत्र में कहा गया है। सूत्र का अर्थ इस प्रकार है-विराम-वृतियों के प्रभाव के प्रत्ययकारणभूत परवैराग्य के अभ्यास से अन्य-सम्प्रभात से भिन्न असम्प्रशात का उदय होता है। उक्त सूत्र के संस्कारशेषः' पद से सूचित होता है कि असम्प्रशात समाधि में वित्त के निरोधात्मक परिणाम का तथा तन्मूलक संस्कार का प्रवाह चलता रहता है । 'तस्य प्रशान्तवाहिता संस्कारात्' इस सूत्र से प्रशान्तवृत्तिक चित्त की संस्कार हेतुक प्रवहमानता के कथन से भी असम्प्रक्षात समाधि में निरोध संस्कारों का अस्तित्व सूचित होता है। प्रशान्तवाहिता' का अर्थ है 'वृसिडीन वित्त का इन्धनहीन अग्नि के समान उपशम, जो प्रतिकूल परिणाम से सम्पन्न होता है । इस अवस्थामें वित्त के पूर्व पूर्व प्रशम से उत्पन्न संस्कार उसके उत्तरोत्तर उपशम के उत्पादक हो कर उपशम की दृढ़ता का सम्पादन करते हैं. अन्यथा चित्त का उपशम दुर्बल होने पर व्युत्थान के संस्कार उसे पुनः अशान्त बना सकते है, चिस के धारावाहिक उपशम का परिणाम यह होता है कि जैसे ईन्धन समाप्त हो जाने पर अग्नि धीरे धीरे बुझ जाती है, उसी प्रकार चित्त क्रमसे उपशान्त होते होते ब्युस्थान, सम्प्रभातसमाधि तथा निरोध-असम्प्रशातसमाधि के संस्कारों सहित अपनी प्रकृति में लीन हो जाता है। यहां चित्त के लीन होने का अर्थ चित्त का नष्ट होना नहीं है। किन्तु चित्त के अधिकार कर्तव्य का समाप्त होना है। चित्त के दो ही मुख्य कतव्य हैं विषयों के उपयोग का सम्पायन और प्रकृति-पुरूष १. दृष्टव्य-पात ० पाद १, सू०.५१ का ध्यासमाप्य और तत्ववैशारदी टोका । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवातासमुच्चय के विधेक पथाति-मेव साक्षात्कार का जनन । मसम्मात समाधि का परिपाक होने तक ये दोनों कार्य सम्पन्न हो चूकते हैं, अतः उक्त समाधि के पूर्णरुप से परिनिष्ठित होने पर चित्त कृतकृत्य होने से अपनी प्रकृति में लीन हो निश्चेष्ट हो जाता है। पातालों द्वारा वर्णित समाधि के स्वरूप मेद और फलों की आलोचना करते हुये व्याण्याकार का कहना है कि सम्पज्ञात-समाधि के सवितर्क, निर्वितर्क, सविचार और निर्विचार ये चारों मेद मैन दर्शन में धर्णित शुक्लध्यान के आदिम को 'पार्यों से अतिरिक्त नहीं है। सम्प्रभात समाधि के प्रथम दो मेदों के विषय के रूप में पात्र महा भूत, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच कमेंन्द्रिय और मन इन सोलह स्थूल पदार्थों का तथा अन्तिम दो भेदों के विषय के रूप में प्रकृति, महत्व, अहंकार और पांच तन्मात्र, इन आठ सूक्ष्म पदार्थों का वर्णन किया गया है वह पातजल दर्शन में मनमाने ढंग से स्त्रोक्त प्रक्रिया का प्रदर्शन मात्र है, उसमें कोई प्रमाण नहीं है। सम्प्रशातसमाधि आत्मसाक्षात्कार के लिये उपयुक्त भी महीं है, क्यों कि वह अनारम पदार्थो को विषय करती है, मास्मसाक्षात्कार में तो आरमध्यान ही हेतु हो सकता है, अनात्मध्यान से आत्मदर्शन की सम्भावना तो पश्चिमदिशा की यात्रा से पूर्व दिशा की उपलब्धि के समान सर्वथा दुर्धट है। पातञ्जलों ने जो चित्त के स्थूल आभोग-स्थूलाकार परिणाम को 'विनक' और सूक्ष्म आभोग-सूक्ष्माकार परिणाम को 'विचार' कहा यह भी ठीक नहीं है, क्यों कि विशिष्ट श्रुतशान (आगम शास्त्रबोध) से उत्पन्न संस्कार हो “वितर्क' है इससे पृथक "यितर्क' का स्वरूप प्रमाण सिद्ध नहीं है, तथा अर्थ (द्रव्य पर्याय), व्यञ्जन (अर्थ बोधक शान) और योग (मनोवाकाययोग) से अन्य अर्थ, ध्यजन और योग में ध्यान का संचार ही विचार है, इस से अतिरिक्त 'विसार' का अस्तित्व अप्रामाणिक है। सवितर्क-निवितर्क तथा सधिचार-निर्विचार को क्रम से स्थूल अर्थ विषयक तथा सूक्ष्म अर्थ विषयक सविकल्पक और निर्विकल्पक वृत्ति के रूप में जो विभाजन किया गया है वह भी उचित नहीं है क्योंकि विशिष्ट शान में ही सविकल्प निर्विकल्प को व्यवस्था हो सकती है, तो फिर बाद में सविकल्प-निर्विकल्प के अलग मेद बताने में इनके कोई विषय नहीं रहने से पसी मनःकल्पित सविकल्प-निर्विकल्प की परिभाषा निविषयक अर्थात शब्द मात्र रूप रह जाती है । योग दर्शन की प्रक्रिया में न्यूनता भी है, क्यों कि वितर्क व विचार तो लिये किन्तु पृथक्व का अभियान नहीं किया । पृथक्त्व का अर्थ है मेद-नानाविधत्वः द्रव्य के एक पर्याय पर से अन्य पर्याय पर वितर्क-श्रुतोपयोग जाय यह पृथक्त्व है। इससे 'पृथक्त्व वितर्क सविचार' नामक पहला प्रकार बनता है। और जब मित्त की स्थिरता बढ़ कर एक ही पर्याय पर जम जाता है, तब 'पकत्व -षितर्क भषिचार' नामक दूसरा प्रकार बनता है। पसे पृथक्त्व का उल्लेख न होसे से न्यूनता है। निर्विचार सम्प्रज्ञात-सूक्ष्म अर्थविषयक निर्विकल्पक चित्तवृति के प्रकृष्ट अभ्यास से जिस प्रशालोक के प्रादुर्भाव की बात पातजल दर्शन में कही गयो हैयह भी सर्वार्थग्राही शान-प्रकाश न होकर केवलशान से निम्नश्रेणी का पक हान है जो सचित्र आलोक १. पृथक्त्ववितर्कसविचार और एकत्ववितोऽविचार-दृष्टव्य तत्त्वार्थ० ९ ४१ । '२ "वितर्कः श्रुतम् तत्वार्थ ः ९-४५. ॥ ३-'विचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः'- तत्त्वार्थ० ९--४६ ।। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हिं. वि० तदेवं ध्यानरूपमेव तपो ज्ञान-क्रियाभ्यामपृथग्भूनमपृथग्भूततत्तद्वयापारयोगि परमयोगाभिधमपवर्गहेसुरिति निव्यं ढम् । तत्र च धर्मपदशक्तिराप्तवाक्यादेव, स्वारसिकप्रयोगे लक्षणाऽनबकाशाद, अन्यथा विनिगमनाविरहात । 'देवाचदिौ धर्मजनकत्वेनैव धर्मपदप्रयोगो न तु स्वरसत' इति चेत् । तथाप्यत्र योगजादृष्टप्रयोजकतया धर्मपदप्रयोग इति न वैषम्यम् ॥२१॥ के समान है तथा श्रुत, मति, अवधि, और मनःपर्याय इन बार मानों के प्रकर्ष पर पहुंचने के याद प्रादुर्भूत होता है और जिसे 'प्रातिभधान' के नाम से व्यवस्त किया जाना है। पातञ्जलदर्शन में जिसे 'ऋतम्भरा प्रक्षा' कहा गया है बद जैनदर्शन का 'केवलशान" है, उससे संस्काराशय को वृद्धि होने को जो बात कही गई है वह ठोक नहीं है, क्यों कि संस्कार तहान का ही एक मेद है जो केवलज्ञान के मूलभूत मानावरण के क्षय से ही क्षीण हो जाता है। असम्प्रशात समाधि भी शुफालध्यान का 'अन्तिमपाद है और उसका काय वृत्तियों का निरोध नहीं है किन्तु भवोपग्राही संसार सम्पादक कर्मों का क्षय है। व्याम्याकार की दृष्टि में जैन शास्त्र से भिन्न सभी असर्वोक्त शास्त्र ज्वरपरघमनुष्यों के प्रलाप के समान है जो काकतालीय न्याय से किसी किसी बातों में सत्य उतर जाते हैं, पर सभी बातो में सत्य नहीं माने जा सकते। उक्त विचार के अनुसार यह सिद्ध है कि ध्यानस्वरूप तप ही मोक्ष का साधन है, और वह तप सान तथा क्रिया से पृथक् नहीं है, उनके व्यागरों में भी पार्थपय नहीं है, ध्यान के घटक शान और क्रिया दोनों का व्यापार एक ही है और वह है भधापप्राही कमों का क्षय । इस ध्यानात्मक तप का ही नाम है परमयोग-सर्वोत्कृष्ट योग। मोक्ष के साधमभूत इस तप में धर्म पद की शक्ति प्राप्तवाक्य से ही सिद्ध होती है, क्योंकि इसमें धर्म पद का स्वारसिक-अनादि काल से स्वाभाविक प्रयोग होता है, और जिस अर्थ में जिस पद का स्वारसिक प्रयोग होता है उसमें उस पद की शक्ति १. 'सर्बद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य' तत्वार्थ १-३० और 'मोहक्षयाज्ञानदर्शनावरणान्तरायक्षयाच केवलम्' तत्वार्थ १०-१ । केवलज्ञान यह आत्मा का निरावरण ज्ञानस्वभाव है, और वह बोनो काल के समस्त अनन्त द्रव्य-पर्याय ओ विषय करता है। २. 'पृथक्कत्यवितर्कसूक्ष्म क्रियाप्रतिषतिज्युपरतक्रियानिवृत्तीनि' तत्त्वार्थ ० ९-४१ । ३. काके उपस्थिते तारस्य पतनम्'-काकतालीयो न्यायः । इस न्याव का आशय यह है कि जैसे स्वाभाविक कारणों से तालफल के किसी अघश्यंभावी पतन के समय दैववश वहाँ काक के उपस्थित हो जाने पर सामान्य जनों द्वारा बह तालपतन पाक की उपस्थिति से जन्म मान लिया जाता है, पर वास्तव में तन्मूलक नहीं होता, क्योंकि अन्य तालपतन उसके अभाव में भी होते हैं, उमी प्रकार कोई भी कार्य अपनी सहज उत्पत्ति के समय दैववश उपस्थित होने वाले पदार्थ से असम्यग्दर्शी जनों द्वारा जन्य मान लिये जाने पर भी वस्तुतः तज्जन्य नहीं हो सकता, क्योंकि उसी प्रकार से दूसरे कार्य अन्यथा भी उत्पन्न होता है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रमा समुरुपय गूढाशयः पृच्छति 'धर्म' इति - मूलम्- धर्मस्तदपि, चेत्सत्यं, कि न बन्धफलः स ? यत् । आशंसावर्जितोऽन्येऽपि किं नैव ? चेन्न यत्तथा ॥२२॥ सदपि-शुद्धतपोऽपि धर्मो- धर्मव्यवहारविषयः ? गृद्वाशय एत्रोत्तरयति-इति चेत् , सत्य-धर्मपदव्यवहारविषय एवेत्यर्थः । उद्घाटिताशयः पृच्छति-बन्धफलः कर्मबन्धहेतुः, सधर्मः, किं न भवति ?, धर्मव्यवहारविषयत्वं हि शुभवन्धहेतुत्वेन सहचरितमुपलब्धम् । अतो ज्ञानयोगेनापि धर्मेण सता बन्धफलेन भवितव्यमिनि परस्याशयः । व्यक्ताशय एव समाधत्ते-यत्-यस्माद्धे तो, स धर्मः, भाशंमार्जिनः, प्रसिद्धधर्मव्यापकधर्माभिधानमेतत; अन्यो हि धर्मो बन्धहेतुः, अन्यश्चानीदृशः, अतो न धर्मव्यवहारविषयत्वेन बन्धहेतुत्वमस्य, सहचारमात्रेण व्याप्त्यग्रहाद्, अन्यथा पार्थिवत्व-लोरलेख्यत्वयोरपि तद्ग्रहप्रसङ्गादित्याशयः । इदमेव व्यतिरेकाऽऽशङ्कानिरासेन दृढयति अन्येऽपि पुण्यलक्षणा धर्माः, एवम् प्रबन्धफलाः, किं न ? इति चेन् ? यन् यस्मादेतोः, तथा मासावर्जिता न, अवन्धहेतुत्वनियतधर्माभावाभिधानमेतत् । ही मानी जाती है, उसमें उस पद की लक्षणा नहीं होती। यदि स्वारसिक प्रयोग के विषय भूतअर्थ में भी पद की लक्षणा मानी जायगी तो शक्ति और लक्षणा की मान्यता में कोई चिनिगमना-पकता की साधिका युक्ति न रह जायगी, फलतः किस अर्थ में किस पद की शक्ति मानी जाय और किस अर्थ में किस पद की लक्षणा मानी जाय इस बात का निर्णय न हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि-धर्म पद को शक्ति अनुष्ठानजन्य अतिशय में ही होती है जिसे पुण्य कहा जाता है, देवानआदि अनुष्ठान में धर्म पद का प्रयोग उस पुण्यास्मक धर्म का जनक होने के मासे ही होता है, स्वरसतः -स्वभावतः नहीं होता तो ध्यानात्मकतपरूपयोग के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि योग से उत्पन्न होने घाला अरष्ट हो वास्तव में धर्म है, उस धर्म का प्रयोजक होने से ही योग में धर्मपद का प्रयोग होता है । इसलिये स्वर्ग के साधन भूत शुभानुष्ठान और मोक्ष के साधनभूत तप की धर्मरूपता में-धर्मपदव्यवहारविषयता में कोई वैषम्य नहीं है. दोनों ही स्वभाव से अथवा धर्म का प्रयोजक होने से धर्मपद से व्यवाहत होते हैं । (शुद्ध तप भी धर्म है) भाशय को गूढ रस्त्रते हुये पूर्व पक्षकर्ता प्रभ करता है कि-क्या शुद्ध तप भी धर्म है? भाशय को गूढ रखते हुये ही उत्तरकर्ता उत्सर देता है-'हाँ शुद्ध तप भी सखमुख धर्म ही है।' अपना आशय प्रकट करते हुये पूर्व पक्षका पुनः प्रश्न करता है कि यदि शुद्ध तप भी धर्म है तो वह कर्मबन्धन का कारण क्यों नहीं होता! प्रश्न कर्ता का स्पष्ट आशय यह है कि मिसे धर्म कहा जाता है उसे तो शुभवन्ध का कारण होते देखा गया है; अतः यदि ध्यानयोग-शुद्धतप भी धर्म है तो उससे धन्धनरूप फल Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं. वि० "ननु इदमयुक्तमुक्तम्, एकस्यैव चारित्रस्य सरागत्ववीतरागत्वाभ्यां शुभबन्धमोक्षोभयहेतुत्वसम्भवात् । अत एव पूर्वतपः - पूर्वसंयमयोः स्वर्गहेतुत्वं 'भगवत्याम्' उक्तम् । न च बन्धमोक्षजनकतावच्छेदक रूपविभेदाद् नोक्त दोष इति वाच्यम्, सरागत्ववीतरागत्यातिरिक्ततज्जनकतावच्छेदकरूपकल्पने मानाभावात् । कर्मक्षयोपशम-क्षयजन्यतावच्छे दकयोरेव तज्जनकतावच्छेदकत्वमिति चेद ? एवं सति शैलेसीसमयभाविन एव चारिrer मोक्षत्वपर्यवसाने ऋजुसूत्रनयाऽऽश्रवणप्रसङ्गादिति चेत् ? का होना अनिवार्य हैं । उसरकर्त्ता अपना आशय व्यक्त करते हुये इस प्रश्न का यह उत्तर देता है कि शुद्ध तप धर्म होते हुये भी आश सावजित मोशाम्यफल की कामना से अकृत होने के कारण कर्मबन्ध का कारक नहीं होता । उत्तरकर्त्ता का अभिप्राय यह है कि शुद्धतप में हमें जिस रूप से बन्ध हेतुता प्रसिद्ध हैं उस रूपकी अपेक्षा व्यापक अतिप्रसक्त रूप का अभिधान है। आशंसायुक्त धर्म बन्धका हेतु होता है, यह हेतुता सामान्य धर्मस्वरूप से न होकर आशंसायुक्त धर्मस्वरूप से होती है । अतः केवल धर्मत्व उस रूप का व्यापक अतिप्रसक्त रूप है क्यों fa er भासा जितधर्म में भी है, अतः शुद्ध तप में धर्मत्व होने पर भी बन्धहेतुता की प्रसक्ति नहीं हो सकती, क्योंकि धर्म में धर्मत्व इस सामान्य रूप से बन्धहेतुता नहीं है । धर्मre और बन्धहेतुता का सहचार आशंसायुक्त धर्म में अवश्य है, पर इस सहबार मात्र से यहां व्याप्ति नहीं सिद्ध हो सकती कि 'जो जो धर्म होता है वह सभी बन्ध का हेतु होता है। सहचार मात्र से यदि व्याप्ति मानी आयगी ता पार्थिवत्व में भी लोहलेस्यस्व की व्याप्ति माननी होगी । अर्थात् यह नियम स्वीकृत करना होगा कि 'जो भी पार्थिव पदार्थ होता है वह सब लोड से उत्किरण के लिये योग्य होता है' किन्तु यह नियम मान्य नहीं हो सकता क्यों कि वज्र पार्थिवपदार्थ होते हुये भी लोह से उत्किरण के लिये योग्य नहीं होता । ग्रन्थकार ने कारिका के अन्तिम भाग में व्यतिरेक की आशंका का निरास करते हुये इसी बातको दृढ किया है । व्यतिरेक की आशंका इस प्रकार होती है कि जैसे शुद्धतप धर्म होते हुये भी बन्धका अहेतु है उसी प्रकार अस्य पुण्यधर्म भी बन्ध के हेतु क्यों नहीं होते ? इसका उत्तर यह है कि अन्य पुण्यधर्म यतः आशंसावजित नहीं होते अतः वे बन्ध के अहेतु नहीं होते । अन्य पुण्यधर्मा में यह अबन्धहेतुता के व्यापकधर्म आश साहित्य के अभाव का कथन है । व्यापकाभाव के कथन से व्याभाव का बोध स्वाभाविक है। इस लिये आशंसाराहित्यरूप व्यापकधर्म का अभाव बना देने से अगन्धहेतुता रूप स्यात्यधर्म के अभाव - बन्धहेतुता का लाभ अनायास हो जाना है । (शुद्ध में केवल मोक्षजनकता का विधान असंगत - पूर्वपक्ष) यहां पूर्वपक्ष इस प्रकार हो सकता है- 'शुद्धतप मोक्ष का ही हेतु है बन्ध का नहीं, पवं अन्य पुण्यधमं बन्ध के ही हेतु है, मोक्ष के नहीं' यह कहना असंगत है क्यों कि एक ही चारित्र रागयुक्त होने से स्वर्ग का तथा रामहीन होने से मोक्ष का Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय सत्यम्, तदुपगृहीतव्यवहाराश्रयणेनैवेत्थमभिधानात् । शुद्धर्जुसूत्रनयेन तु ज्ञानतपसोरन्यथासिद्धत्वं, तज्जन्यक्रियाया एवं मोक्षोपपत्तेः । पदाह भगवान् भदयाहुः"सद्दुजुसुआणं पुण निवाणं संजमो चेव' इति (आव. नि. गाथा ७८९) । हेतु हो सकता है। इसी लिये 'भावलोसूत्र' में सराग तप और सराग संयम को स्वर्ग का हेतु कहा गया यदि यह कहा जाय कि "धारित्रनिष्ठबन्धजनकता' तथा 'मोक्ष जनकता' के अवच्छेदक रूपों के मेद होने से पक चारित्र में बन्ध और मोक्ष की अनकता मानने पर भी उक्त कथन में कोई असमति नहीं है, क्योंकि शुद्धतप-संयम 'बन्ध जनकता के अवच्छेदक रूप से शुन्य होने के कारण केवल मोक्ष का हो हेतु होता है, तथा अन्य पुण्यधर्म 'मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूप से शून्य, होने के कारण केवल बन्ध के ही हेतु होते हैं तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सरागत्व यवं सोतगगत्व से भिन्न बन्धजनकता तथा मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूपों की कल्पना में कोई प्रमाण नहीं है, और • सरागत्व पच वीतरागत्व शुद्ध तप में भी सम्भव है फलतः पक ही शुद्ध तप में सराग होने से बन्धहेतुना एवं बीतराग होने से मोक्षहेतुता-इन दोनों के सम्भय होने से शुद्ध तप को केवल मोक्ष का ही हेतु कहना संगत नहों है। यदि यह कहा आय कि-"चारित्र का उदय कर्मक्षयोपशम से भी होता है और कर्मक्षय से भी होता है, तो जिस रूप से चारिष कर्म-क्षयोपशम से उत्पन्न होता है उस रूप से घन शुभ बन्ध का तथा जिस रूप से वह कर्म क्षय से उत्पन्न होता है उस रूप से बह मोक्ष का हेतु होता है, इस प्रकार सरागन्य और वीनरागत्व से भिन्न बन्धजनकता और मोक्षजनकता के अवच्छेदक रूपों के होने में कोई विवाद न होने से रूपमेद से पक ही चारित्र के बन्ध और मोक्ष का हेतु होने पर भी कर्मक्षयजन्य शुद्धतप को केवल मोक्ष का ही हेतु कहने में कोई अनौचित्य नहीं है". तो इस कथन को स्वीकार करने पर मुमुक्षु के शैलेशो अवस्था यानी १४ वे गुण स्थानक के काल में जो अयोगीमवस्थापन्न चारित्रसम्पन्न होता है करल उसी चारित्र में मोक्ष की हेतुता का पर्यवसान होगा, अर्थात् वही चारित्र मोक्षका हेतु होगा और इस बातको स्वीकार करने के लिये ऋजुसूत्र नय को आश्रय करने की आपनि आएगी। प्राजुमुत्रनय मात्र धर्तमानमाही है इसलिये तत्काल कार्यकारी को हो कारण मानेगा । फलतः कालविलम्ब से कार्यकारी चारित्रादि कारण में मोक्ष के प्रति अहेतुना ग्राम होगी। (अर्ध स्वीकार से पूर्व आपत्ति का समाधान-उत्तर पक्ष) इस पर टीकाकार का यह कहना है कि-शैलेशी अवस्था में होने वाले चारित्र में ही मोक्षदेतुता का पर्यवसान उचित ही है, क्यों कि शुद्धतष को जो मोक्ष का हेतु कहा गया है वह ऋजुसूचगर्भित व्यवहारनय की इग्नि से कहा कहा गया है। शुद्ध ऋजु. सच की रष्टि से शान और तप दोनों ही मोक्ष के प्रति अन्यथा सिद्ध हैं, मोक्ष का उदय तो जान और तप के परिपाक से होनेवाली 'क्रिया से ही सम्पन्न होता है। १- यह क्रिया मुमुक्षु के द्वारा ज्ञान कैवल्य के बल पर शैलेशी अवस्थार्य की जाती योगनिरोध की क्रिया, उसमें ही चतुर्थ शुक्लध्यान की क्रिया संभावित है। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका बहि. वि. ____ यद्वा आशमायाहित्यराति साध्या ना-मोक्षननपतावच्छेदकरूपभेद एवात्रोपवर्णितः । तथा 'अन्यः पुण्यलक्षणः' इत्पत्राऽन्यपदं च वैधार्थकम्, अतो न किठिचदनुपपन्नम् । परे तु 'तपस्त्व-चारित्रत्वाभ्यामेव मोक्षहेतुता, सङ्कोचे मानाभावात्, सरागताकालीनप्रशस्तसनादेव स्त्रोत्पत्तेः । वस्तुतः सगगतपसः स्वर्गहेतुत्वं “सविविशेषणे हि०" इति न्यायेन रागमात्र एव पर्यवस्यति' इत्याहुः । ___ अपरे तु–'मोक्षोदेशेन क्रियमाणयोस्तपःसंयमयोर्मोक्षहेतुत्वमेव, स्वर्गस्य चानुदेश्यस्वाद न फलत्वम्, कर्मा शप्रतिबन्धाच न तदा मोक्षोत्पादः, ततो गत्यन्तरजनकाऽदृष्टाऽभावादर्थत एवं स्वोत्पत्तिः' इत्याहुः । ____ सर्व एवैते सदादेशाः, भगवदनुमतविचित्रनयाऽऽश्रितमहर्षिवचनानुयायित्वादित्यवसेयम् ॥२२॥ भगवान भद्रयाहु ने भी आवश्यक सूत्रकी नियुक्ति में यह कहते हुये कि "शब्दनय और ऋजुसूत्रनय के अनुसार निर्वाण ही संयम है"- इसी बात की पुष्टि की है। ___ अथवा आशंसासाहित्य एवं आशंसाराहित्य विशेषणों द्वारा बन्ध तथा मोक्ष की कारणता के अवच्छेदक रूप मेदों का ही वर्णन इस २२ वो कारिका में किया गया है। बीसवी कारिका में पुण्यलक्षण धर्म का जो 'अन्य' पद से निवेश किया गया है उसका तात्पर्य उस धर्म को मोक्षजनक धर्म से भिन्न बताने में नहीं है किन्तु विधर्मा-विलक्षण बताने में है, क्योंकि 'अन्यः पुण्यलक्षणः' इस घाक्य में प्रयुक्त 'अन्य' शब्द मेदा र्थक न हो कर वैधार्थक है, और यह वैधयं आशंलारादित्य रुप ही है इसलिये तप को ही आश सायुक्ततप के रूप में स्वर्ग का तथा आश साहीनतप के रुप में मोक्ष का कारण मानने में कोइ अनुपपत्ति नहीं है। दसरे विद्वानों का मत है कि-तप और चारित्र तपस्त्व और चारित्रत्वरूप से हो मोक्ष के कारण है, संकोम में अर्थात् तपस्त्व और चारित्रत्व से व्याप्य रूप से उन्हें मोक्ष का कारण मानने में कोइ प्रमाण नहीं है । स्वर्ग की उत्पत्ति तप और चारित्र से म हो कर सरागता काल में होने वाले प्रशस्तसा प्रशस्तराग यानी प्रशस्तकर्मानुष्ठान के ममत्वे से ही सम्पन्न होती है। वस्तुगत्या 'सरागतप स्वर्ग का हेतु है' इस विधान में 'सविशेषणे हि.' न्याय से स्वर्गहेतुता का पर्यवसान राग में होता है। न्याय यह है-'सविशेषणे हि विधिनिषेधौ विशेषणमुपसंकामतः अर्थात् कोइ विधि या निषेध विशेषण युक्त किसी विशेष्य में प्रतिपादित किया जाता है तब वह विधि या निषेध विशेषण मात्र में लागू होता है। जैसे कि कहा गया-'अनी तिमयव्यापार दुःन का कारण है, यहां दुःख को कारणता ऐसे तो अनीतिमयतायुक्त व्यापार में बताई गई, किन्तु फलित यह है कि दुःखकारणता विशेषण 'अनीतिमयता' में हैं। इसी प्रकार यहां सराग शा, वा. १२ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय उक्तधर्मद्वैविध्यं शब्दान्तरेण तन्त्रान्तरेऽपि सम्मतमित्याइ-'भोग' इतिमूलम् –भोगमुक्ति फलो धर्मः स प्रवृत्तीतरात्मकः । सम्यमिथ्यादिरूपश्च गीतस्तन्त्रान्तरेष्वपि ।।२३।। भोगफल एको धर्म:, अन्यश्च मुक्तिफल इति शैवाः । प्रवृत्यात्मक पकः, निवृत्त्यात्मकश्चान्य इति त्रैविधवृद्धाः । सम्यग्रुप एकः मिथ्यारूपश्चान्य इति शाक्यविशेषाः । आदिपदाद हेयोपादेयाऽभ्युदयनिःश्रेयसपरिग्रहः । एवं तन्त्रान्तरेषु'-जैनातिरिक्तदर्शनेध्वपि, अयं द्विभेद उक्तः । तप में स्वर्गहेतुता कहने का तात्पर्य यह फलित होता है कि स्वर्गहेतुता प्रशस्तराग में है। सपस्त्वेन तप तो कर्मक्षय का हेतु है। अन्य मनीषियों का मत है कि ओ तप और संथम मोक्ष के उद्देश्य से किये जाते है मोक्ष के ही हेतु होते हैं उद्देश्य न होने से स्वर्ग उनका फल नहीं होता, किन्तु वे ही तप और संयम जब मोक्ष के उद्देश्य से सम्पादित नहीं होस तप उनस मोक्ष की उत्पत्ति नहीं होती, चूकि भोगार्थ बचे हुए कर्म के अंश से मोक्ष का प्रतिबन्ध हो जो जाता है। प्रश्न हो सकता है कि-क्या मोक्ष को उद्दिष्ट न करके किये गये तप और संयम निरर्थक ही होते हैं ? उत्तर यह है कि नहीं-निरर्थक नहीं होते, किन्तु स्वर्ग से भिन्न किसी दूसरी मति का जनक अदृष्ट न होने से किसी अन्य गति की उत्पत्ति न हो कर उनसे स्वर्ग की ही उत्पत्ति होती है, क्योंकि मुमुक्षु के पवित्र जीवन में स्वर्ग के जनक अहष्ट की ही सामग्री सदैव सन्निहित रहती है। इस सन्दर्भ में यह शासथ्य है कि तप और संयम से स्वर्ग एवं मोक्ष की उत्पत्ति के सम्बन्ध में जो मत प्रस्तुत किये गये है वे सब भगवान महावीर को अनुमत विचित्रनयों पर माश्रित्त' महर्षि-वचनों के अनुगामी होने से सदावेश-सम्यग् उपदेश रूप हैं ॥२२॥ २३ वी कारिका से यह बात बतायी गयी है कि-धर्म के जो यो मेद कहे गये हैं, वे शब्दान्तर से अन्य शास्त्रों में भी स्वीकृत है। जैसे शैवों का यह मस है कि धर्म दो है-पक भोगफलक और दुसरा मोक्षफलक । वेदों के विशिष्ट विद्वानों का मत है कि धर्म के दो रूप है-एक प्रवृत्तिरूप और दूसरा निवृत्तिरूप । बौद्धों का भी यह मस है कि धर्म के दो रूप है एक सम्यगुरूप और दूसरा मिथ्यारूप । कारिका के तीसरे पाद में मिथ्या शब्प के उत्तर जो 'आदि' पद सुन पडता है उससे हेय उपादेय तथा अभ्युदय और निःश्रेयस का ग्रहण-अभिमत हैं। उसके अनुसार धर्म के बारे में यह ज्ञात होता है कि धर्म दो है एक हेय के त्यागरूप और दूसरा उपादेय के पादररूप । अथवा पक सभ्युदय का साधन और दुसरा निःश्रेयस का साधन | इस प्रकार जैन शास्त्र से भिन्न दूसरे दर्शनशास्त्रों में भी धर्म के दो रूप बताये गये हैं ॥२३॥ ___ आगम के प्रामाण्य में जिन्हें विप्रतिपत्ति है, उन्हें पागम से संज्ञानयोग-सम्यग ज्ञानरूप योग को प्रामाणिकता नहीं बतायी जा सकती, अतः उन्हे २४ वी कारिका Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका व हिं. वि० आगमविप्रतिपन्नं प्रति संज्ञानयोगे कार्यान्यथानुपपत्ति प्रमाणयति तमन्तरेण इति - मूलम् -तमन्तरेण तु तयोः क्षयः केन प्रसाध्यते ! सदा स्यान्न कदाचिद्वा यवहेतुक एव सः ॥२४॥ ? तमन्तरेण तु संज्ञानयोगं विना तु तयोः धर्माधर्मयोः क्षयः केन हेतुना प्रसा ध्यते १ न केनापि तथाविधत्वनुपलम्भादहेतुक एवाथमस्तु, सहेतुकविनाशस्य दु:खद्धानत्वादिति बौद्धाशङ्कायामाह - यवहेतुक एव हेतुरहित एव सः-धर्माधर्मोभयक्षयः, तदोपतिस्वभावत्वे सदैव स्याद्, अनुत्पत्तिस्वभावत्वे कदापि वा न स्यात् । 'कदाचिदुत्पत्तिस्वभावत्वाद् न सदैव स्यादिति चेत् ? तर्हि कालान्तरेऽप्युत्पत्तिप्रसङ्गः । ' तदहरेवोत्पत्तिस्वभावाद् नान्यदोत्पत्तिः' इति चेत् ? तर्हि तत्तद्धेतुसकाशादेवोत्पत्तिस्वभावत्वादाय सहेतुकत्वम् | 'आकाश (त्व)स्य काचित्कत्ववद कादाचित्कत्वमप्यत्र न नहेतुनियम्यमिति चेत् न, कादाचित्कत्वस्याऽवधिनियतत्वात् । ' सन्त्ववचयः, न तु तेनाऽपेक्ष्यन्त' इति चेत् ? न, नियतपूर्ववृत्तित्वस्यैवापेक्षार्यत्वाद्, अन्यथा 'गर्दभाद् धूमः' इत्यपि प्रमीयेति । अधिकमुपरिष्टाद् वक्ष्यते ॥ २४ ॥ द्वारा कार्य की अन्यथानुपपत्तिरूप प्रमाण से उसकी प्रामाणिकता बतायी जा रही है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है प्रश्न : संज्ञानयोग को स्वीकार न करने पर धर्म और अधर्म का क्षय किस हेतु से सम्पन्न होगा ? उत्तर : विचार करने पर उसका अन्य कोई हेतु नहीं सिद्ध होता, अतः धर्माधर्मtray कार्य की अन्यथा उपपत्ति न होने से उसके उपपras रूपमें संज्ञानयोग को स्वीकार करना अनिवार्य है । ( निरन्वयनाशवादी बौद्धमत का खण्डन ) इस विषय में बौद्धों का कथन यह है कि - "विनाश को सहेतुक मानना शक्य नहीं है, क्योंकि यदि विनाश सहेतुक होगा तो जिस जन्य पदार्थ के विनाश का हेतु कभी सन्निहित न होगा. उस जन्य पदार्थ को अविनाशी मानना होगा, जो उचित नहीं है, क्योंकि जन्य पदार्थ के विनाश की अनिवार्यता सर्वसम्मत तथ्य है, इसलिये यह संकट न उपस्थित हो एतदर्थे विनाश को अहेतुक ही मानना उचित है। अतः धर्म और अधर्म का विनाश भी बिना हेतुके ही उपपन्न हो जायगा, इसलिये उसके उपपादमार्थ संशानयोग की कल्पना नहीं की जा सकती" । इस कथन का निराकरण कारिका के उत्तरार्ध में इस प्रकार किया गया है किधर्म और अधर्म के क्षय को अहेतुक नहीं माना जा सकता, क्योंकि अहेतुक मानने पर यदि उसे उत्पत्ति स्वभाव माना जायगा तो सभी काल में उसका अस्तित्व मानना पडेगा, क्योंकि उत्पत्ति स्वभाव होने के कारण वह कभी अनुत्पन्न न रह सकेगा और यदि उसे अनुत्पत्ति स्वभाव माना जायगा तो किसी भी काल में उसका अस्तित्व न होगा चूँकि Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ mir --- - ---- -- - - शास्त्रवासिमुच्चय-लो. २४. अनुत्पत्ति स्वभाव होने के कारण यह कभी उत्पन्न न हो सकेगा; और उत्पन्न हुये विना अस्तित्व में न आ सकेगा ___ यदि यह कहा जाय कि- सदारित् हो न हो या स्वार है, अतः सभी काल में उसको उत्पति और सभी काल में तत्मयुक्त उसकी स्थिति की आपत्ति नहीं हो सकती' तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदि कदाचित् ही उत्पन्न होना उसका स्वमाव होगा तब भी उसके विषय में यह प्रश्न उठेगा कि वह किसी नियतकाल में ही क्यों उत्पन्न होता है ? कालान्तर में क्यों नहीं उत्पन्न होता ? इसके उत्तर में यदि यह कहा जाय कि-'अमुक काल विशेष में ही उत्पन्न होना उसका स्वभाष है, अतः अन्यकाल में उस की उत्पत्ति की आपत्ति नहीं हो सकती'-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि पेसा मानने पर वह अहेतुक न हो सकेगा। इसका कारण यह है कि यदि उसे सहेतुक न मान कर अहेतुक माना जायगा तो उसके लिये सभी काल समान होने से'अमुक काल विशेष में ही उत्पन्न होना उसका स्वभाष है'-उसका यह स्वभाव ही न धन सकेगा। यह स्वभाव तो तभी बन सकेगा जब उसे सहेतुक माना जाय, क्योंकि सहेतुक मानने पर यह कल्पना की जा सकेगो कि जिस काल में उसके हेतुमों का सन्निधान होता है उसी काल में उत्पन्न होना उसका स्वभाव है। यदि यह कहा जाय कि-"जैसे अहेतुक आकाश के धर्म आकाशत्व का क्वाचिकत्य% किसी आश्रय विशेष में ही रहने का स्वभाव-हेतु नियम्य नहीं हैं, उसी प्रकार धर्माधर्म के क्षय का कादाचिरकत्व-किसी कालविशेष में ही उत्पन्न होने का स्वभाव भी हेतुनिधम्य नहीं है, यह मानने में कोई बाधा नहीं है,"-तो यह कथन ठोक नहीं है, क्योंकि कादाधिकत्व का अवधिनियम्य होना सर्वसम्मत है। यदि यह कहा जाय कि-"मवधिनियम्य होने पर भी वह हेतु-नियम्य नहीं हो सकता, क्योंकि अवधि उसके उत्पत्ति के लिये अपेक्षणीय न होने से उसका हेतु नहीं हो सकती" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि किसी भी उत्पत्तिमान पदार्थ का अवधि वही पदार्थ होता है जो उसकी उत्पत्ति के पूर्व उसके उत्पत्तिस्थल में नियम से विद्यमान हो । तो जो पदार्थ जिस उत्पत्तिमान का पेसा अवधि होगा, वह उस उत्पत्तिमान की उत्पत्ति में अपेक्षणीय होने से उसका हेतु अवश्य होगा, क्योंकि किसो उत्पत्तिमान् की उत्पत्ति के पूर्व उसके उत्पत्तिस्थल में नियम से किसी का विद्यमान होना जो आवश्यक है वही उत्पत्ति के लिये उत्पत्तिमान द्वारा उसका 'अपेक्षणीय' होता है। और इस प्रकार उसके अपेक्षणीय होने का ही अर्थ है उत्पत्तिमान के प्रति उसका हेतु होना। ___यदि यह कहा जाय कि-'अवधि' और 'हेतु' के लक्षण में ऐक्य नहीं है किन्तु पार्थक्य है, और वह इस प्रकार कि जो पदार्थ जिस उत्पत्तिमान् की उत्पत्ति के पूर्व उत्पत्तिस्थल में विद्यमान हो वह उसको अवधि' है, और जो उत्पत्तिमान की उत्पत्ति के पूर्व उसके उत्पत्ति स्थल में नियम से विद्यमान हो वह उसका 'हेतु'है। अतःलक्षणमेद कारण अवधि और हेतु में भेद होने से धर्माधर्मक्षय में सावधित्व सिद्ध होने से सहेतुकत्व की सिद्धि नहीं हो सकती"-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि अघधि के लक्षण में नियमांश का प्रवेश न करने पर जो जिसका अनियत पूर्ववर्ती है वह भी उसका अवधि हो जायगा, फलतः 'गर्दभ' धूम का अनियतपूर्ववर्ती होने पर भी उसका अवधि होगा और उसका Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हिं० वि० फलितमाह-'तस्मादितिमूलम्-तस्मादवश्यमेष्टव्यः कश्चिद्धेतुस्तयोः क्षये । स एवं धर्मो विज्ञेयः शुद्धो मुक्तिफलप्रदः ॥२५॥ तस्मात् कादाचिकत्वस्य सहेतुकत्वव्याप्यत्वाद, अवश्यं काश्चत्, तयोः धर्माऽधर्मयोः रंगे हेतुरेष्टनमः- अकोपर्नयः । य एन चान हेतुः स एव शुद्धः सर्वांशंसारहितः, मुक्तिलक्षणफलप्रदः, धनॊ धर्मपदवाच्यः, मन्तव्यः श्रद्धेयः ॥२५॥ चोद्यशेष परिहरति 'धर्माऽधर्मेति ... मूलम्-धर्माऽधर्मक्षयाद मुक्तिर्यच्चोतं पुण्यलक्षणम् । हेयं धर्म तदाश्रित्य, न तु संज्ञानयोगकम् ॥२६॥ यच्च 'धर्माऽधर्मक्षयाद मुक्तिः' इत्युक्त, तत् पुण्यलक्षणं हेय त्याज्यं धर्मभाश्रित्य - प्रकृतधर्मपदशक्तिग्रहविषयीकृत्य, न तु संज्ञानयोगसंज्ञ धर्ममाश्रित्य, तेन न बाध इति सर्वमवदातम् ॥२६॥ दुष्परिणाम यह होगा कि-'गदमा धुमः धूम गर्दभावधिक है-इस प्रतीति में प्रमात्व को आपत्ति होगी। अतः अवधि और हेतु के लक्षण में उक्त रूप से पार्थक्य को कल्पना उचित न होने से अवधि और हेतु में फेक्य होने के कारण धमाधमक्षय के साधि होने का अर्थ होगा सहेतुक होना, और यह सहेतुकता संज्ञानयोग को छोड़ किसी अन्य हेतु.बारा सम्भव नहीं है-अतः धर्माधर्मक्षय के हेतुरूप में संज्ञानयोग की कम्पमा अपरिहार्य है ॥२४॥ २५ वीं कारिका में पूर्वोक्त विचारों का निष्कर्ष बताते है-- कादाधिरकत्व अर्थात् समूचे काल में न हो कर कुछ दी काल में होना, यह सहेतुकत्व का व्याप्य है जहाँ जहाँ काचिकत्व है वहां वहां सहेतुकत्व होता ही है, इस व्याप्ति के कारण धर्माऽधर्म के क्षय का कोई हेतु मानना आवश्यक है, क्योंकि वह भी सावैदिक न हो कर कावाचिक ही होता है। तो जो ही धर्माधर्म के क्षय का हेतु माना जायगा उसे ही मुक्ति रूप फल को देने वाला 'शुद्ध'-समस्तफलकामनाओं से शल्य धर्म भानना चाहिये ॥२५॥ २६ घाँ कारिका में अवशिष्ट प्रश्नों का समाधान किया जा रहा है शुद्ध धर्म को मोक्ष का हेतु मानने पर यह प्रश्न ऊठता है कि जब मोक्ष भी धर्म से ही उपाय है तब धर्म और अधर्म दोनों के क्षय को ओ माक्ष का कारण कहा गया है वह कैसे संगत होगा ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि धर्माधर्म के क्षय को जो मोक्ष का हेतु कहा गया है, वह पुण्यलक्षण त्याज्य धर्म को 'धर्म' पद का अर्थ मान कर कहा गया हैन कि संज्ञानयोग नामक धर्म को धर्म पद का अर्थ मान कर कहा गया है। अतः शुद्ध धर्म को मोक्ष का हेतु कहने से 'धर्माधर्म के क्षय से मोक्ष का उदय होता है इस कथन का बाध नहीं हो सकता । फलतः मोक्षकारणता के सम्बन्ध में जो कुछ कहा गया है वह सब निदोष है। 'संज्ञानयोगक' शब्द में 'योग' शब्द के उत्तर जो 'क' शब्द Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ शास्त्रवातासमुच्चय पर्यवसितमाह 'मत' इति-- मूलम्-अतस्तत्रैव युक्ताऽऽस्था यदि सम्यङ् निरूप्यते । संसारे सर्वमेवान्यद् दर्शितं दुःख कारणम् ॥२७॥ मतः पूर्व पक्षोक्तयुक्तिनिरासात , तत्रैव-धर्म एवं आस्था युक्ता, यदि सम्यग= आगमोपपत्यानुसारेण, निरूप्यते-विचार्य ते, प्रतिपक्षप्रवृत्तिनिरासायोक्तमेव स्मारयतिसंसारे सर्वमेवान्यद् -धर्मातिरिक्तं, दुःख कारणे केवलदुःखमयं दर्शितम्-"अनित्यः प्रियसंयोगः"....(का०१२) इत्यादिना । __ अत्रेदं पतन्जलिसूत्रम्-"परिणामतापसंस्कारदुःखैगुणवृत्तिविरोधाच्च दुःखमेव सर्व विवेकिनः" (पात २-१५) इति । राग एव हि पुमुर्वद्भूतः सन् विषयप्राप्त्या मुखं परिणमते । तस्य च प्रतिक्षणं प्रवर्धमानत्वेन स्त्रविषयाऽप्राप्तिनिबन्धनदुःखस्य दुष्परिहारत्वात् परिणामदुःखता । तथा, सुखमनुभवन् दुःखसाधनानि द्वेष्टि, तदपरिहारक्षमश्च मुह्यतीति तापदुःखता । तथा वर्तमानसुखानुभवः स्वविनाशकाले संस्कारमाधत्ते, स च मुखस्मरणं, तच्च राग, स च मन:कायवचनप्रवृत्ति, सा च पुण्यापुण्यकर्माशयौ, तौ च जन्मादो नि, इति संस्कारदुःखता एवं कालत्रयेऽपि सुखस्प दुःखानपङ्गाद दुखरूपता सिद्धा। उद्भूतसत्त्वकार्यत्वेऽपि सुखस्थाऽनुदभूतरजस्तमाकार्यत्वात स्वभावतोऽपि दुःखविषादरूपता, समवृत्तिकानामेव हि गुणानां युगपद्विरोधः, न तु विषमवृत्तिकानाम्, इत्येकदोद्भूताऽनुद्भूततया न सुखदुःखमोहविरोधः ॥२७॥ सन पाता है वह संज्ञा अर्थ में 'क' प्रत्यय करने से अस्तित्व में आया है । अतः 'संज्ञानयोगक' का अर्थ है संज्ञामयोगनामक' । संक्षानयोग का अर्थ है सम्यग्ज्ञानरूप योग रक्षा (विवेकीजनों के लिये धर्म से भिन्न सब दुखाय है।) २७ घी कारिका में पूर्व के पूरे कथन का मिश्कर्ष बताया जा रहा है-- यदि आगम और युक्ति के अनुसार मोक्ष के कारण का घियार किया जाय तो मोक्ष के हेतु के रूप में धर्म में हो आस्था करना उचित प्रतीत होता है, क्योंकि पूर्व पक्ष में धर्म के विपरीत कही गयी समस्त युक्तियों का निषेध किया जा चुका है। कारिका के उत्तरार्ध में प्रतिकूलपक्ष की प्रवृत्ति के निराकरणार्थ पूर्वोक्त का स्मरण कराते हुये कहा गया है कि संसार में धर्म से भिन्न जो कुछ है वह सब दुःख का कारण है. पूर्ण रूप से दुःखमय है। यह तथ्य 'अनित्यः प्रियसयोगः' इत्यादि प्रलोक द्वारा प्रतिपादित किया गया है ॥२६॥ इस संदर्भ में पतञ्जलि का यह सूत्र ध्यान देने योग्य है कि “परिणाम-ताप संस्कार - दुखैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दुःस्रमेव सर्व विवेकिनः” (यो. सू. २-१५), अर्थात् विकीजनों की रष्टि से संसार का सब कुछ यहाँ तक कि सांसारिक विषयों से उपलब्ध होने वाला Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९५ स्था० का टीका व हिं. वि. सुख भी दुःखरूप ही है, इस सूत्र में सांसारिक विषयों को चार प्रकार से दुखरूप बताया है . परिणाम से, तापसे, संस्कार से तथा स्वरूप से ।। (परिणाम से विषयों की दुःस्वरूपता) (१) परिणाम से दुःसरूपता का आशय है कि संसार के जिन विषयों से मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है उनमें मनुष्य का राग हो जाता है जो विषयसुखानुभव से निरन्तर उपचित होता रहता है और जिसके वशीभूत हो कर मनुष्य इस बात की चेष्टा करने लगता है कि जिन विषयों से उसे सुख का अनुभव हुआ है वे उसे सदा मुलभ रहे, तथा उन जैसे नये नये विषयों पर उत्तरोत्तर उसका अधिकार होता चले किन्तु जब वे विषय नष्ट होने लगते हैं, या उसके अधिकार से निकलने लगते है, अथवा उस प्रकार के नये विषयों की प्राप्ति में बाधायें सड़ी होने लगती हैं तब उसे दुस्सह दुःख की अनुभूति होती है , इस प्रकार संसार के सुखद विषय भी परिणाम में तुम्न में पर्यवसित हो जाते हैं, परिणाम में दुःख में पर्यवसित होना हो विषयों की परिणामदुःखता है। (ताप से विषयों की दुखरूपता) (२) ताप से विषयों की दुःखरुपता का आशय यह है कि संसार के जिन विषयों के सम्पर्क से मनुष्य को दुःख का अनुभव होता हैं उनके प्रति तथा संसार के प्रिय विषयों की प्राप्ति में जो बाधक होते हैं उनके प्रति पत्र संसार के दुःखद विषयों तथा प्रिय विषयों की प्राप्ति में उत्पन्न होने वाली बाधाओं के जो कारण होते हैं उनके प्रति मनुष्य के मन में रोष का उदय होता है जिससे उसका वर्तमान सुखानुभव भी दुष्प्रभावित हो जाता है। फलतः पसे विषयों से वह अपना गला छुड़ाने का प्रयत्न करता है और जब वह अपने इस प्रयत्न में असफल होता है तब उसे तीव ताप की अनुभूति होती है. इस प्रकार संसार के विषय तापका जनक होने से दुःखात्मक बन जाते हैं, सांसारिक विषयों की यह तापजनकता ही उनकी प्तापात्रता है। (संस्कार से विषयों को दुःखरूपता) (a) विषयों की संस्कारदुःखता का अभिप्राय यह है कि मनुष्य को जय सांसारिक विषयों से सुख या दुम का अनुभव होता है तब उस अनुभव से मनुष्य के मन में हर प्रकार का संस्कार उत्पन्न हो जाता है कि संसार के अमुक विषय सुख के तथा अमुक विषय दुःख के उत्पादक है। इस संस्कार से कुछ विषयों के प्रति उले राग और कुछ के प्रति उसे द्वेष उत्पन्न होता है। फिर वह राग के विषयों को प्राप्त करने और द्वेष के विषयों को दूर करने के लिये मन वचन और शरीर से अनेक प्रकार की चेष्टायें करता है, इन चेष्टाओं से पुण्य पापको उत्पत्ति होती है जो मनुष्य को पुनर्जन्म लेने और उसके फलस्वरूप अनेक प्रकार के सांसारिक दुःख में पउने को उसे विवश करते हैं। इस प्रकार संस्कार द्वारा विषयों का दुःखदायी दोमा ही उनकी संस्कारदुःखता है। (४) इस वर्णन से यह स्पष्ट है कि संसारका सुख तीनोंकाल में दुख ले अनुसक्स होता है और इसी कारण वह पुरा का पुग दुःखान्मक होता है। विषयसुख दुप ने Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ winnin शास्त्रवासिमुच्चय तदेवं 'धर्म एव युक्ताऽऽस्था' इति समर्थितम् । तस्माद मुक्त्युत्पत्तिप्रकारवारश्यवक्तव्योऽपि प्रतिबन्धकशिष्यजिज्ञासासस्वाद नेदानी वक्ष्यते, पुरस्तादेव चावसरसंगत्या वक्ष्यत इत्याह-'तस्माच्च'ति-. मूलम्-तस्माच्च जायते मुकियेथा मृत्यादिवर्जिता । तथोपरिष्टाद वक्ष्यामः सम्यग् शास्त्रानुसारतः ॥२८॥ अनुसक्त होने के कारण ही दुःस्वरूप नहीं होना अपितु स्वरूप से भी दुःखात्मक होता है, और यह इसलिये कि सुख की उत्पत्ति जिस उदभूतसत्त्वगुण से होती है उसमें अनुभूतरजोगुण और तमोगुण का भी मिश्रण होता है । अतः उद्भूतसवगुण से सुख की उत्पत्ति के साथ अनुभूत रज से दुःख और अनुभूत तम से विषाद की भी उत्पत्ति होती है, और जैसे परख रज तथा तम आपस में मिले जुले होते हैं किसी का पृथक् अस्तित्व नहीं होता उसी प्रकार उनसे उत्पन्न होने वाले सुख, दुःख और विषाद भी परस्पर में मिले जुले होते हैं, उनमें भी किसी का पृथक् अस्तित्व नहीं होता। दुसरे शब्दो में इसे इस प्रकार का पा सकता है कि सत्व, रज और तम इन तीनों गुणों में जब कोई पक गुण उद्रिक्त हो कर अन्य दो गुणों को इवा कर अपने कार्य को उत्पन्न करता है, तब उस कार्य के प्रति केवल वह उद्विक्त गुण ही कारण नहीं होता किन्तु उद्रिक्तगुण द्वारा दबाये गये अन्य दो गुण भी उसके कारण होते हैं, फलतः उद्रिक्तसत्त्व से उत्पन्न होनेवाला सुख अनुद्रिक्त रज और तम से भी उत्पन्न होने के कारण दुःख और विषाद उभयात्मक होता है। इस प्रकार प्रत्येक सांसारिक सुख दुःखा. नुसक्त होने से दुःस्त्रात्मक होने के साथ ही दुःन के कारण से उत्पन्न होने के कारण स्वरूप से भी दुःखात्मक होता है। यदि यह कहा जाय कि 'सुख, दुःख और मोह का सह अनुभव न होने से उनमें यो मानना आवश्यक है, अतः इन चिरोधीभावों का पक काल में उदय या उनमें परस्पर ता मानना असंगत है'-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि उन भावों का समानरूप में हो विरोध होता है विषमरूप में नहीं । अतः उक्त तीनों भाव उद्भूत अमदभत रुप में न तो सह उत्पन्न ही हो सकते हैं, और न उनमें परस्पर तादात्म्य ही हो सकता है। पर अनुत दुख और मोहके साथ उद्भूत सुख के उत्पन्न होने में अथवा सुख में अनूभूत दुःख और मोह का तादात्म्य होने में कोई विरोध या असंगति नहीं है। सूत्र के "गुणवृत्तिविरोधाच्च' इस अंश से यही बात कही गई है जिसका स्पष्ट अर्थ यह है कि समवृत्तिक गुणों में हो विरोध होता है, विषमवृतिक गुणों में विरोध नहीं होता। अतः एक काल में एक ही धर्म के उद्भत रूप में सुख, दुःख और मोहरूप होने में कोई विरोध नहीं है। उक्त रीति से इस बात का समर्थन किया गया कि शुरु धर्म मुक्ति का साधन है अतः धर्म में ही प्रास्था रखना उचित है । इस समर्थन के अनन्तर मुक्ति की उत्पत्ति किस प्रकार होती है इस बात का ही प्रतिपावन करना उचित है, किन्तु प्रथकार ने पेसा नहीं किया है, व्याख्याकार के अनुसार इसका कारण यह है कि मुक्ति के साधन Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था. क. टीका बहि० वि० ९६धक 'तस्माद्'-धर्मात् च यथा येन प्रकारेण, मृति:-आयुःक्षयः, आदिना रोगशोकादिपरिग्रहः, तद्वर्जिता-तद्रहिता,मुक्ति:-निवृतिः, यया भवति तथोपरिष्टाद् अग्रे. सम्यम् अविरोधेन, शास्त्रानुसारतः शास्त्रतात्पर्य परिगृह्य वक्ष्यामः ॥२८॥ इद्मनी तु प्रसङ्गसङ्गत्या शास्त्रपरीक्षेत्र क्रियते इत्याह मूलम- इदानी त समान शास्त्रसम्यक्त्वमुच्यते । ___कुवादियुक्त्यपव्याख्यानिरासेनाऽविशेषतः ॥२९॥ इदानीं तु समासेनले पेण, विस्तारतस्तत्करणे त्वायुःपर्यवसानाद, शास्त्रस्य सम्यक् प्रामाण्याऽप्रामाण्यविभाग उच्यते । कथम् ? इत्याह वादिना चार्वाकमीमांसकादीनां युक्तयश्चापव्याख्याश्च कुवादियुत्रस्यपव्याख्याः, तासां निरासेन बलवत्प्रमाणवाध्यस्वभ्रान्तिमूलकत्योपदर्शनेन, अविरोषतः तदापादितविरोधाऽऽङ्कानिरासादिति भावः १२९॥ भूतधर्म की चर्चा हो जाने के पश्चात् शिष्य को यह जिनामा होता है कि इस विषय में किस शास्त्र को प्रमाण माना जाय और किस शास्त्र को प्रमाण न माना जाय' ' अतः जप तक इस जिज्ञासा को शान्त न कर दिया जाय तथ तक किसी अन्य विषय का प्रतिपादन समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि जिज्ञासा के अनुसार किये जाने वाला वस्तु प्रतिपादन ही संगतप्रतिपादन माना जाता है। यह कहना कि-"मुक्ति के साधनभूत धर्म का प्रतिपादन करने के बाद मुक्ति को उत्पत्ति के प्रकार का प्रतिपादन ही अवसरप्राप्त है"-ठीक नहीं है, क्योंकि एक वस्तु के प्रतिपादन पश्चात् दुसी घस्तु के अवश्यवक्ता होने मात्र से ही दूसरी वस्तु का प्रतिपादन अयसरप्राप्त नहीं माना झा सकता, अपश्यवक्तव्य होने पर भी उपके प्रति पादन का अयसर तभी मान्य हो सकता है जब किसा अन्य वस्तु की निशामा न हो क्योंकि विरोधिनी जिज्ञासा के अभाव में हो अवक्तव्य को अबसरसंगति माना गया है। प्रस्तुन में शिष्य को उक्त विरोधिनी जिज्ञासा होने के कारण मुली सात्ति के प्रकार का प्रतिपादन करने में उपयुक अवमासंगति का अभाव है, अतः उपका प्रतिपादन बाद में किया जायगा। कारिका २८ में यही बात कही गई है-रोग, शोक, जम्म जरा. मुत्यु आदि समस्त दुखकारणों से रहित मुक्ति जिस प्रकार धर्म द्वारा प्राप्त की आती है उसे शास्त्रतात्पर्य के आधार पर अविरुद्ध रीति से आगे बताया जायगा ॥२८॥ प समय तो प्रसङ्गति के अनुरोध में शास्त्र के प्रामाण्य अशमाण्य की ही परीक्षा करनी है यह आशय २२ थी कारिका से बना रहे हैं 'शास्त्र के सम्यक्त्व का अर्थात् इसके प्रामाण्य-अप्रामाण्य का प्रतिपादन यदि विस्तार से किया जाय नो उसमें मनुष्य को पूरो आयु ही समाप्त हो जायगी. वह और कोई बात न जान ही सकेगा, और न कुछ कर हो सकेगा। अनः संक्षेत्र से ही शास्त्र के प्रामाण्य अप्रमापय का प्रतिपादन किया जापमा। प्रतिपादन की विधि यह होगो कि चार्वाक मोमांसक मादि समस्त कुवादियों ने भौतिक भौर माध्यामिक विचारों के क्षेत्र में जिन युक्तियों का प्रयोग किया है तथा पदार्थों की जो अनर्गल व्यास्यायें का है उन सभी को, प्रबल प्रमा से बाधित और भ्रमभूलक बताया जायगा । साथ ही उन बुवादियों ने जैन मान्यताओं के सम्बन्ध में जो विरोध और धर्ममात की शङ्का उपस्थित को है उनका प्रतिकार भी किया जायगा | Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ स्था०० टीका.बि. तत्रादौ चावाकयुक्तीनिराचिकीर्षुस्तन्मतोपन्यासमाह-'पृथिव्यादा ति । मूलम्-पृश्चिन्यादिमहाभूतमात्रकार्यमिदं जगत् । न चारमा, दृष्टसद्भावं मन्यन्ते भूतवादिनः ॥३०॥ इदं-प्रत्यक्षोपलभ्यमान, जगत चराचरम् , पृथिव्यादीनि पृथिव्यप्तेजोवायुलक्षणानि गामि चत्वारि महाभूतानि, तन्मात्रकार्यम् । मात्रपदेनाकाशादिव्यवच्छेदः । नन्वात्मन एव न तयात्वम् , इत्यत आइ-न चात्मा शरीरातिरिक्तोऽहम्प्रत्ययालम्बनमस्ति"बैतन्पविशिष्टः कायः पुरुषः' इति वचनात् । पर्व भूतवादिन-लोकायतिकाः, दृष्टसद्भावप्रत्यक्षवस्तुन एव पारमार्थिकत्वं मन्यन्ते, नादृष्टस्य, तत्र मानाभावात् । (निराकरण करने के लिये चार्वाकमत का उपन्यास) कुवादियों के मतों के खण्डन का उपक्रम करते हुये सर्वप्रथम चार्वाक की युक्तियों का निराकरण करने के अभिप्राय से ३०धी कारिका में चाक का मत प्रस्तुत किया गया है, कारिका का अर्थ हस प्रकार है यह संसार, जिसका हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं, जिसमें सभी चर-चलने फिरने वाले पशु, पक्षी, मनुष्य सादि सभी प्रकार के प्राणी, तथा सभी अचर-घलने फिरने में अशक्त-जन्म से विनाश तक एक ही स्थान में स्थित रहने वाले पहार आदि सभी जड पदार्थ अन्तर्भूत है, वे सब पृषिधी, जल, तेज और वायु इन चार महाभूतो से ही उत्पन्न होते है, इन चारों से भिन्न आकाश आदि किसी भी पदार्थ का इस संसार की उत्पत्ति में कोई योगदान नहीं है, क्योंकि उक्त चारों से भिन्न किसी अन्य कारणतत्त्व का कोई अस्तित्व ही नहीं है। यपि यह कहा जाय कि-"संसार में तो आत्मा का भी अस्तित्थ है, और वह पृथिवी वादि भूतों से उत्पन्न नहीं होता, अपितु अपने शुभ-अशुभ कर्मों से संसार की उत्पत्ति में योगदान करता है क्योंकि आत्मा को उसके शुभ-अशुभ कर्मों का फल देने के लिये ही संसार की उत्पत्ति होती है । अतः यह कहना कि 'सारा संसार पृथियो आदि बार मतों से ही उत्पन्न होता है। उन चारों से अन्य किसी दूसरे कारण का संसार की उत्पत्ति में कोई योगदान नहीं होता-थसंगत है,"-तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'अहम् में इस प्रकार को प्रतीति के विषयभूत वस्तु को ही आत्मा माना जाता है और शरीर को छोड अन्य कोई पदार्य उस प्रवीति का विषय नहीं होता, क्योंकि संसार का प्रत्येक मनुष्य अपने शरीर को ही 'अहं' के रूप में समशता है । अतः मनुष्य का शरीर ही उसकी मात्मा है और वह स्पष्टरूप से पृथिवी आदि भूतों से। उत्पन्न होता है। इसीलिये चार्वाक का यह कथन है कि-'चैतन्य से युक्त शरीर हो पुरुष है'। चार्वाक और उनके अनुयायी भूतवादी है, पृथिवी आदि चार भूतों और उनसे उत्पन्न होने वाले पदार्थों का ही अस्तित्व मानते हैं। वे लोकायतिक कहे जाते हैं जो लोक में शायत, संसार के आपामर अमों तक को अनुभूत होता है, उसे ही शा. वा. १३ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......... शास्त्रवासिमुच्चय-स्तषक १-*लो• ३० महानुमानं तत्र मानम्, व्यभिचारिसाधारण्येन तस्याऽप्रमाणत्वात् । वयादिसम्भावनयैव तत्र प्रवृत्त्युपपत्तेः। अगृहीताऽसंसर्गकवाचाविस्मृतिरूपायां सम्भावनायामसद्विषयिण्यां परमार्थसत्स्वलक्षणविषयविषयकत्यरूपसंवादोऽपि न सम्भवतीति चेत् ! न, अध्यक्षमूलकविकल्पविषयविषयकत्वरूपसंवादस्य तेत्राऽक्षत्वात् । तादृशसंवादस्य सद्विषयकत्यरूपप्रामाण्याऽसहचारात् कथं ततस्तदभिमानः । इति चेत् ? सत्यम्, तथाप्यध्यक्षमूलकाध्यक्षान्तरसाधारणस्याध्यक्षमूलकविषयविषयकत्वलक्षणसंवादस्योक्तप्रामाण्यसहचारान् । धे स्थीकार करते है। जो सर्वसामान्यजनों के अनुभव से पर है, संसार में जिसे कोई प्रत्यक्ष नहीं देख सकता पैसे किसी पदार्थ का अस्तित्व उन्हें मान्य नहीं है। वे प्रत्यक्ष र पस्तु को ही सत्य मानते हैं। जो अष्ट है, कभी किसी को दिखाई नहीं देता, उसे थे इसलिये मानने को तैयार नहीं होते कि वैसे पदार्थ के अस्तित्व में कोई प्रमाण नहीं होता। (अनुमानप्रामाण्य में विवाद का आरम्भ) आत्मा के अस्तित्व में 'अनुमान प्रमाण है, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि अनुमान साध्य का व्यभिचारी होने से प्रमाण ही नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जो लोग मकान को प्रमाला मानते हैं, बनके समानुसार वह हेतु अनुमान प्रमाण होता है, जिसमें साध्य की व्याप्ति का ज्ञान हो । साध्य की ज्याप्ति का अर्थ है 'साध्यान्यथानुपपन्नत्व-साध्य के विना न घटना, साध्यशून्य स्थान में न रहना,' जैसे धूम से जब यति का अनुमान किया जाता है तब अनुमान से पूर्व यह शान अपेक्षित होता है कि धूम पति से व्याप्त है अर्थात् धूम घहिशून्यजलाशय आदि स्थानों में नहीं रहता । इस मान के फलस्वरूप यह निश्चय होता है कि जब धूम पनि यस्थान में नहीं रहता तो यह निर्विवादरूप से मानना होगा कि जहां धूम है वहां दद्वि अवश्य है, इस प्रकार धूम में पति को व्याप्ति का शान होने के कारण धूम से पति का अनु मान किया जाता है। फलतः ति के व्याप्यरूप में शात धम घति के अस्तित्व में अनुमान रूप प्रमाण होता है। अनुभव को प्रमाण न मानने वाले बार्शक आदि का इसके विरुद्ध यह तर्क है किकिसी हेतु से किसी साध्य का अनुमान करने के लिये मुख्यरूप से दो शान की अपेक्षा होती है, पक यह है कि 'अमुक हेतु अमुक स्थान में है, दूसरा यह कि 'वह अमुक हेतु अमुकसाध्य का व्याप्य है। यदि यह दोनों शान यथार्थ होंगे तो इनके आधार पर हेतु से साध्य का ज्ञान भी यथार्थ होगा। किन्तु यदि इन शानों में कोई भयथार्थ होगा तो उनके आधार पर होने वाला अनुमान भी अयथार्थ होगा। यह देखा जाता है कि 31 दोनों हान सर्वदा नहीं होते। क्योंकि कभी कभी साध्य के व्यभि. पारी को भी साध्य का व्याप्य समझ लिया जाता है और कभी कमो हेतुशून्य स्थान में भी हेतु का ज्ञान होता है, और जब इस प्रकार के शान हो जाते है नब हेतु साध्य का १. 'विकल्पविषयकत्व.' इति पूर्वमुदितानौ । २-'तत्रा...संवादस्प' इयान् पाठः पूर्वमुद्रिते नास्ति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं० वि० ९९ व्यभिचारी होने से साध्य के अस्तित्व में प्रमाण नहीं हो पाता, जैसे महानस आदि कतिपय स्थानों में वह्नि को धूम के साथ देख कर यदि ऐसा ज्ञान हो जाय कि 'चह्नि धूम का व्याप्य है तो यह शान यथार्थ नहीं है, क्योंकि तपते हुये लोहगोलक में अग्नि धूम के विना भी रहता है । फलतः वह्नि धूम के अस्तित्व में प्रमाण नहीं बन सकता | धूम किया है सामान के होते हुये भी यदि धूमले समान रंग वाली धूल को धूम समझ कर चह्नि का अनुमान किया जायगा तो धूम वह्नि के अस्तित्व में प्रमाण न हो सकेगा । इस प्रकार अनुमान अनुमेय अर्थ का व्यभिचारी होने से उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता। तो जब अनुमान प्रमाण ही नहीं हो सकता तब उससे आत्मा के अस्तित्व को कैसे प्रमाणित किया जा सकता है ? फलतः प्रमाण के अभाव में प्रमाणाभास से आत्मा को मान्यता देना उचित नहीं है । अनुमान प्रमाण न मानने पर यह प्रश्न ऊउ सकता है “कि यदि अनुमान को प्रमाण न माना जायगा तब धूम से वह्नि का अस्तित्व प्रमाणित न होगा और फिर उस दशा में वह्नि को प्राप्त करने की आशा से मनुष्य उस स्थान में, जहां उसे धूम दिखाई पड़ा है, जाने का प्रयत्न न करेगा। पर वस्तुस्थिति यह है कि मनुष्य जिस स्थान में धूम को देखता है उस स्थान में अग्नि के अस्तित्व को प्रामाणिक मान कर अनि पाने की आशा से उस स्थान तक पहुंचने का प्रयत्न करता है, वह प्रयत्न क्यों करता है" १- इस प्रश्न के उत्तर में चार्वाक आदि की ओर से यह कहा जा सकता है कि जिस स्थान में धूम दिख पडता है उस स्थान में वह्नि के अस्तित्व को प्रामाणिक मान कर मनुष्य उस स्थान तक पहुंचने का प्रयत्न नहीं करता किन्तु उस स्थान में चह्नि के अस्ति को सम्भाषित मान कर वहां जाने का प्रयत्न करता है । कहने का आशय यह है कि कई स्थानों में धूम को वह्नि के साथ देख कर मनुष्य जब किसी नवे स्थान में दूर से केवल धूम को देखता है किन्तु वह्नि को नहीं देखा तब उसे उस स्थान में भूम के होने से वह्नि के होने की केवल सम्भावना ही होती है, न कि उसे यह निश्चय होता है कि उस स्थान में वह्नि अवश्य है। क्योंकि इस प्रकार के निश्चय के लिये उसके पास कोई उपयुक्त प्रमाण नहीं है। फलतः धूमको देखने से मनुष्य को यहि की जो सम्भावना होती है उसीसे वह अग्नि पाने की आशा से उस स्थान में महाँ उसे धूम दिख पडा है-जाने का प्रयत्न करता है। इस पर यह शङ्का की जा सकती है कि अग्नि की सम्भावना से धूमयुक्त स्थान में अग्नि- कामी पुरुष के जाने का समर्थन तभी किया जा सकता है जब अग्नि को सम्भावना को प्रमाणरूप में प्रण करना अग्निकामी पुरुष के लिए सम्भव हो। क्योंकि मनुष्य कर यह स्वभाव है कि जब वह प्रमाण से किसी वस्तु को जान लेता है तभी उसके सम्बन्ध में कोई कार्य करता है, अन्यथा नहीं करता । विचार करने पर अनिकी सम्भा वना को प्रमाण रूप में ग्रहण करने का कोई साधन नहीं प्रतीत होता, चूँकि घूमयुक्त नये स्थान में अग्नि की सम्भावना का अर्थ है 'उस स्थान में अति नहीं है इस निश्चय के अभाव के साथ 'धमयुक्त स्थान में अग्नि रहता है.' इसरूप में अग्नि का स्मरण | स्पष्ट है कि यह स्मरण धूमयुक्त नये स्थान के अग्नि को विषय नहीं कर Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १-प्लो० ३० सकता, चूंकि वह अभी तक निर्णाप्त नहीं है। निर्णीत धमयुक्त अन्यस्थामों का मग्नि, जो भयुक्त नये स्थान में स्थित नहीं है । असः विवश होकर यह मानना होगा कि इस स्मरण का विषय कोई विशेष अग्नि नहीं है, किन्तु सामान्य अग्नि है। और सामान्य अग्नि काल्पनिक होने से असत् है, अतः यह अग्निस्मरण असविषयक होने से अग्निस्मरणरूप अग्नि की सम्भावना में प्रमाणभूत अध्यक्ष-निर्विकल्पकप्रत्यक्ष का समानविषयकवरूप संवाद नहीं है, क्योंकि अध्यक्ष का विषय स्वलक्षण-विशेषअरिज है जो परमार्थरूपमें सत् है, और स्मरण का विषय सामान्य अग्नि है जो कल्पित होने से असत् है, पतः प्रमाण का संवाद न होने से उस में प्रामाण्य का शान सम्भवित नहीं है। (बौद्धदर्शन के अनुसार पदार्थ का स्वरूप) इस विषय को हृदयंगम करने के लिये बौरदर्शन की इस मान्यता को ध्यान में रखना आवश्यक है, कि मौजूमतानुसार पदार्थ के दो भेद होने हैं-एक विशेष और दूसरा सामान्य । (विशेष क्षणिक होता है, उसका किसी के साथ कोई ताल्लुक नहीं होता। न तो उसका कोई नाम होता है और न कोई जाति होती है। निजी स्वरूप के अतिरिक्त उसका कोइ लक्षण भी नहीं होता, इसीलिये उसे स्वलक्षण कहा जाता है। इस प्रकार का पदार्थ ही परमार्थ रूप में सत् होता है । यह शब्द या अनुमान से नहीं गृहीत होता, किन्तु एक मात्र अध्यक्ष-निर्विकल्पकप्रत्यक्ष से ही गृहीत होता है। (२) सामान्य वह पदार्थ होता है जिसमें अनेफव्यक्ति और अनेकक्षणों के सम्बन्ध को कल्पना होती है जिसे व्यवहारयोग्य करने के हेतु नाम और जाति की कल्पना की जाती है। यह पदार्थ सषिकल्पकप्रत्यक्ष से तथा शब्दज और अनुमानजन्य शान से गृहीत होता है। यही पदार्थ पूर्व में अनुभूत रहने पर कालान्तर में स्मरण द्वारा गृहीत होता है । संसार का संपूर्ण व्यवहार इस सामान्यात्मक पदार्थ पर ही निर्भर होता है । इस पदार्थ को कल्पना को सम्भव बना सकने के लिये ही विशेषपदार्थ की प्रामाणिकसत्ता स्वीकार की जाती है, क्योंकि जब तक कोई प्रामाणिक वस्तु न मानी जायगी तब तक जगत् के काल्पनिक रूप को किस आधार पर चित्रित किया जा सकेगा ? कहावत है कि-'सति कुड्ये वित्रम्-दीवार होने पर उस पर वित्र की रचना हो सकती हैं। यदि दीवार ही न होगी तो चित्र कहां बनेगा ? ! यदि यह कहा जाय कि-"सम्भावना में प्रमाणभूत अध्यक्ष का समानविषयकत्वरूप संवाद न होने पर भी उस प्रमा से उत्पन्न होने वाले सविकल्पकप्रत्यक्ष का समान विषयकरवरूप संवाद तो है ही, तो फिर उसी संवाद से सम्भावना में प्रामाण्य की भाभिमानिकबुद्धि हो जायगी" -तो यद्द ठीक नहीं है, कि उक्तसंचार प्रमाणभूत अध्यक्ष का संवाद न हो कर अप्रमाणभूतसविकल्पकप्रत्यक्ष का संवाद है । अतः उसमें प्रामाण्य का सहचार न होने से उसके द्वारा सम्भाषना में प्रामाण्य की अभिमानिक प्रतीति की उपपत्ति नहीं की जा सकती। उक्तशंका के समाधान में चाक धादि की ओर से यह कहा जा सकता है-की "यह ठीक है कि अध्यक्षमूलक सविकल्पक में प्रामाण्य नहीं होता, अतः उसके समानविषयकरवरूपसंपाद में प्रामाण्य का सहवार न होने से उस संवाद से सम्भावना Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका वि० तथापि दृष्टसाधर्म्येणानुमानाऽप्रामाण्यसाधनमनुमानप्रामाण्यानभ्युपगमे दुःसमाधान मिति चेत् ? सत्यम्, साधर्म्यदर्शनस्योद्रोधकविघया. साधारणधर्मदर्शनविधया वाऽगृहीताऽसंसर्गकार्थस्मृतिरूपा यामुत्कटकोटिक संशयरूपायां वा सम्भावनायामेवोपयोगात् । सम्भावनाया एव च बहुशो व्यवहारहेतुत्वात् । अत एव न परकीयसन्देहादिप्रतिसन्धाननिमित्तशब्दप्रयोगाद्यनुपपत्तिः । १०१ में प्रामाण्य की अभिमानिक बुद्धि नहीं हो सकती. पर अध्यक्षमूलक अध्यक्ष तो अध्यक्षमूलक विषय को ही विषय करता है और इसीलिये सद्विषयक होने से प्रमाण भी होता हैं, अतः अध्यक्षमूलक अध्यक्षों में अध्यक्षभूलकविषय-विषयकत्वरूप अध्यक्ष का संवाद प्रामाण्य का सहचारी हो जाता है और वह संवाद सम्भावना में भी विद्यमान होता है, क्योंकि सम्भावना का विषयभूत सामान्यपदार्थ - अध्यक्षमूलक विशेषपदार्थ पर आश्रित होने से अध्यक्षमूलक होता है, इसलिए प्रमाणभूत अध्यक्ष के अध्यक्षभूलक विषयविषयकस्वरूप संवाद से सम्भावना में प्रामाण्य का अभिमान हो सकता है । फलतः यह कहने में कोई बाधा नहीं हो सकती की जब किसी स्थान में धूम को देखने पर वहाँ अग्नि होने की सम्भावना मनुष्य को होती है तब वह उस सम्भावना को ही प्रमाण मान कर अग्नि पाने की आशा से उस स्थान में जाने का प्रयत्न करता है।" ( दृष्ट से अनुमानाप्रामाण्य का साधन दुष्कर नहीं है ) प्रश्न हो सकता है - "यदि अनुभव को प्रमाण न माना जायगा तो 'अनुमान प्रमाण नहीं है' इस बात का भी साधन कैसे होगा ?" यदि यह कहा जाय कि 'जो हेतु साध्य का व्यभिचारी है उस हेतुरूप अनुमान में अप्रामाण्य - अर्थात् सर्वसम्मत है, मतः उसके साधर्म्य से अनुमानमात्र में अप्रामाण्य का साधन किया जा सकता है ' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'अनुमान मात्र अप्रमाण है चूँकि वह उस अनुमानविशेष का-जिसे सभी लोगोंने अप्रमाण माना है-सधर्मा है, जो अप्रमाण का धर्मा है वह प्रमाण नहीं हो सकता' यह भी तो एकप्रकार का अनुमान ही है, तो फिर जिस मत अनुमानमात्र ही प्रमाण है उस महमें यह विशेष अनुमान भी अनुमान के अप्रामाण्य में प्रमाण कैसे हो सकेगा" ? - इस प्रश्न का उत्तर यह है कि दृष्टसाधर्म्य से अनुमान मात्र को अप्रमाण कहने का अर्थ यह नहीं है कि दृष्टसाधर्म्य से अनुमान मात्र में अप्रामाण्य का अनुमान किया जा सकता है; किन्तु उसका अर्थ यह है कि अप्रमाणत्वेन र अनुमान विशेष के साधर्म्य - ज्ञान से अनुमानमात्र में अप्रामाण्य की सम्भावना को जा सकती है । कहने का आशय यह है कि सम्भावना यदि धर्मी के साथ जिसका असम्बन्ध ज्ञात नहीं है वैसे अगृहीतासंसर्ग अर्थ की स्मृतिरूप होगी तो साधर्म्य दर्शन उद्बोधक रूप में उसका कारण होगा । और यदि सम्भावना उत्कटकोटिकसन्देहरूप होगी तो साधदर्शन साधारणदर्शन रूप मैं उसका कारण होगा। इस प्रकार उभयथैव साधर्म्यदर्शन से अनुमानप्रमाण का उदय नहीं होता किन्तु स्मृतिरूप या संशयरूपसम्भोधना का ही उदय होता है । अनुमानमात्र में अप्रामाण्य की सम्भावना होने से भी अनुमान के प्रामाण्य का विघटन हो जाता है । चावकि आदि को यहो इष्ट भी हैं, अतः अनुमान में अप्रामाण्य को सिद्ध करने Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ......... ...... . . . . .... ..................... शास्त्रया समुच्चय-स्तबक १-श्लो० ३० 'धूमदर्शनात्प्रागप्यर्थसंशयरूपा सम्भावनाऽस्त्येव, न तु प्रवृत्तिः, इति व्यभिचार' इति चेत् ? न, धूमदर्शनप्राक्कालीनस्य तस्य विध्यंशेऽनुत्कटकोटिकत्वेन सम्भावनाऽनात्मकत्वात् । 'धूमदर्शनोसरकालीनस्यापि तस्याऽविशेषाव कथमुत्कटकोटिकत्वम् ?" इति चेत् ? तर्हि विशिष्यैव धूमदर्शनादेहत्कटकोटिकार्थसंशयहेतृत्वमाऽऽद्रियताम् । ___ अथ 'अनुमान न प्रमाणम्' इति वाक्यस्य प्रामाण्ये शब्दप्रामाण्याऽऽपातः, के लिये कोई प्रमाण न होने पर भी कोई हानि नहीं है, क्योंकि सम्भावना से ही अधिकांश श्यवहार सम्पन्न होते है । अत: अनुमान में अप्रामाण्य की प्रम न होने पर भी अप्रामाण्य की सम्भावना से अनुमान में अप्रमाणत्व का व्यवहार हो सकता है। ___ "अनुमान को प्रमाण न मानने पर अन्यपुरुष के संशय, विपर्यय, जिशासा, वेदना आदिका शान न हो सकने के कारण उनके सापनार्थ शब्दप्रयोग तथा उनके निराकरणार्थ भावश्यकउपायों के सम्पादन में मनुष्य की प्रवृत्ति न हो सकेगी"- यह भी शका नहीं की जा सकती, क्यों कि अन्यपुरुषों के संशय, विपर्यय आदि की प्रभा न होने पर भी उनकी सम्भावनामात्र से ही शम्मप्रयोग की उपपत्ति हो सकती है और सम्भावना के लिये किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती, क्योकि वह तो अप्रमाणभूत अनुमान आदि से भी उत्पन्न हो सकती है। यदि यह शङ्का की जाय कि-"दूरस्थ पर्वत आदि में अग्नि की संशयात्मक सम्भावना तो धूमदर्शन के पूर्व भी होती है, किन्तु उस समय उस सम्भावना से अग्नि की प्राप्ति के लिये पर्वत आदि पर जाने की प्रवृत्ति नहीं होती, अतः प्रवृत्ति के प्रति सम्मावना व्यभिचारी होने से उसे प्रवृत्ति का कारण नहीं माना जा सकता"-तो यह शङ्का ठीक नहीं है, क्योंकि धूमदर्शन से पूर्व पर्वतमादि में जो अग्नि और उसके अभाव का संशय होता है वह विधिभूत अग्निश में उत्कटकोटिक न होने से सम्भावनारूप नहीं होता, अतः उस संशय से प्रवृत्ति न होने पर भी सम्भावना को प्रवृत्ति की व्यभि चारिणी नहीं कही ना सकती । यदि यह कहा जाय कि-"धमदर्शन के अनन्तर उत्पन्न होने पाला अग्निसंशय भी उससे पूर्व होने वाले अग्निसंशय के समान ही होता है अतः उसे भी अग्नि अंश में उत्कटकोटिक न होने से सम्भावना नहीं कहा जा सकता"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि थमदर्शन को विशेष रूप से अग्निसम्भावना का कारण माना जा सकता है अतः धमदर्शन से पूर्व होने वाला अग्मिसंशय सम्भाबना रूप न होने पर भी धमदर्शन के अमन्तर होने वाला अरिमसंशय सम्भावनारूप मानने में कोई बाधा नहीं है। (शब्दाऽनुमानाऽन्यतरप्रामाण्याऽऽपत्ति का उद्धार) यदि यह कहा जाय कि-"चाकमादि के अनुमानं न प्रमाणम् अनुमान प्रमाण नहीं है.' इस घान्य को प्रमाण मानने पर शम्द में प्रामाण्य की स्वीकृति हो जायगी, और यदि शब्द को प्रमाणरूप में स्वीकृत कर लिया जायगा 'तो प्रत्यक्ष ही प्रमाण होता है, प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण नहीं होता'-चार्वाक आदि के इस सिद्धान्त की हानि होगी । भौर यदि इस संकट से प्राण पाने के अभिप्राय से यह कहा जाय कि 'उक्त वाक्य Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका व.कि. १०३ अप्रामाण्ये चानुमानप्रामाण्याऽऽपातः इति चेत् ! न, एतद्वाक्यस्य प्रमाकरणत्वाभावरूपाऽप्रामाण्यविषयत्वात् , असख्यातिसत्त्वे विशिष्टज्ञानमात्रस्यैव भ्रमत्वेन भ्रमजनकत्वेऽप्यविरोधाच्च । न च प्रत्यक्षप्रामाण्यमप्यनुमानाधीनग्रहम्, इत्यनुमानोपगम आवश्ययका, स्वतः प्रामाण्यग्रहे तत्संशयाऽयोगादिति वाच्यम् , स्वलक्षणविषयकत्वरूपव्यावर्त्तकधर्मदर्शनात , स्वसंवेदमेन तसव्यक्त्यात्मकसद्विषयकत्वनिश्चयाच्च । निर्विकल्पके तत्संशयाऽयोगात, सविकल्पकस्य चानुमानवदप्रमाणत्वात् । निर्विकल्पके सन्मात्रावलम्बनत्वस्वप्रकाश विषयत्व-प्रामाण्यावगाहित्वानां सिद्भिरप्यनुमानादेवेति चेत् ? न, स्वरूपतस्तेषामपि स्वाग्राह्यत्वात् तत्तद्रूपेण तु सम्भावनाविषयत्वादेव, 'निर्विकल्प सन्मात्र विषयम्' इति धियः 'अयं घटः' इति धीतुल्यत्वादिति दिक् । अप्रमाण है तो अनुमान में प्रामाण्य की आपत्ति होगी, क्योंकि उक्त वाक्य अप्रमाण तभी होगा जब उससे होने वाले मनुमान में अप्रमाणाव का शान अप्रमा हो और वह शान और अप्रमा तभी होगा जब अनुमान को प्रमाण माना जाय । इस प्रकार उक्त वाक्य को अप्रमाण मानने के फलस्वरुप भनुमान को प्रमाण मानना पड़ेगा अतः उक्त वाक्य को अप्रमाण कहने पर भी 'प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण नहीं होता' इस चार्वाकसिद्धांन की हानि होगी। इसलिये वाकआदि के लिये यह कहना भी सम्भव नहीं है कि 'अनुमानं न प्रमाणम् अनुमान प्रमाण नहीं है" तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि 'अनुमान न प्रमाणम्' इस वाक्य से अनुमान में प्रमाकरणत्वाभावरूप अप्रमाण्य का शान होता है, अतः उक्त वाक्य को अप्रमाण मानने पर भी अनुमान में प्रामाण्य की आपसि नहीं हो सकती । इस सम्बन्ध में यह कहना कि-'अनुमान न प्रमाणम्' इस पाषय के अप्रमाणत्व की उपपत्ति के लिये उक्त वाक्य से होने वाले बान को अप्रमा मानना होगा, और इस खान को अप्रेमा मानने के लिये अनुमान को प्रमाण मानना होगा'-ठीक नहीं है, क्यों कि अनुमान को प्रमाण न मानने पर भो अनुमान में अप्रमाणत्व का शान इसलिये अममा-भ्रम हो सकता है, कि यह विशिष्ट हान है, और चार्वाक आदि के मत में विशिविषयकशानत्व ही भ्रम का लक्षण है। यदि यह कहा आय कि-'विशिष्टविषयकशानत्व को भ्रम का लक्षण मानने पर शुक्ति में रजतव का शान भ्रम न हो सकेगा, क्योंकि रजतत्वविशिष्टशुक्ति अप्रसिद्ध होने से उक्तज्ञान विशिष्टविषयक नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्यों कि चार्वाक आदि को असत्ख्याति मान्य है, अतः उनके मत में रजतत्वविशिष्टशुक्तिरूप असत् की भी ख्याति हो सकती है । इस प्रकार जब विशिष्टविषयकज्ञान मात्र ही भ्रम है, तब 'अनुमान न प्रमाणम्' इस वाक्य से होने वाला शान भो भ्रम होगा, अतः भ्रम का जनक होने से, न तो उक्तशाक्य में ही प्रामाण्य की आपत्ति होगी. और उपतमान के विशिष्टविषयक होने से भ्रमरूप होने के कारण अनुमान में भी प्रामाण्य की आपत्ति न होगी। अतः उक्तवाशय को अप्रमाण मानने पर भो 'प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण नहीं होना इस सिद्धांत को स्वीकार करने में कोई विरोध नहीं है। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रातसमुच्चय- सबक १- हो० ३० यदि यह कहा जाय कि - "अनुमान को प्रमाण न मानने पर प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य की सिद्धि न होगी, क्योंकि 'प्रत्यक्षं प्रमाणं, प्रमितिकरणातावच्छेदकधर्म यत्वात् यन्न प्रमाण तश्न प्रमितिकरणतावच्छेदकधर्मवद् यथा घटादिः, प्रत्यक्ष प्रमाण है क्योंकि वह प्रमितिकरणता के अवच्छेदक प्रत्यक्षत्वधर्म का आश्रय है, जो प्रमाण नहीं होता वह प्रमितिकरणता के अवच्छेदक धर्म का भय नहीं होता, जैसे घट आदि पदार्थ' इस अनुमान को छोड कर प्रत्यक्ष में प्रामाण्य को सिद्ध करने का कोई अन्य साधन नहीं है । अतः इस संदर्भ में यह कहना कि 'प्रामाण्य स्वतो ग्राह्य है, मतः प्रत्यक्ष में प्रामाण्य की सिद्धि स्वतः हो जायगी, तदर्थं अनुमान को प्रमाण मानना अनावश्यक है' यह ठीक नहीं है, क्योंकि प्रामाण्य को स्थतोषाह्यं मानने पर प्रामाण्य का संशय न हो सकेगा, जब कि उसका होना सर्वसम्मत है । फलतः प्रत्यक्ष में प्रामाण्य की सिद्धि के लिए अनुमान प्रमाण की स्वीकृति अनिवार्य होने के कारण 'प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण नहीं होता' इस जिद्द का परित्याग आवश्यक है । तो यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि प्रामाण्य को स्वतो. आय मानने में कोई बाधा नहीं है । १०४ प्रमाण्य को स्वतोप्राह्य मानने में प्रामाण्यसंशय की अनुपपत्ति होने की जो बाधा बतायी गयी है वह ठीक नहीं है, क्यों कि यह बाधा तब होती जब निर्विकल्पक प्रत्यक्ष अथवा सfoners प्रत्यक्ष में प्रामाण्यसंशय का होना सिद्ध होता । किन्तु वह सिद्ध नहीं है, प्रत्युत उनका न होना ही सिद्ध है। जैसे -निर्विकल्पक में प्रामाण्य का संशय नहीं हो सकता क्योंकि उसमें अप्रामाण्य के व्यावर्तक धर्म स्वलक्षणविषयकस्व का दर्शन होने से उसमें अप्रामाण्य का भान नहीं हो सकता. और उसके भान के बिना प्रामाण्य का संशय नहीं हो सकता । इसी प्रकार ज्ञान संवेदनशील होने से अपने पूरे स्वरूप का ग्राहक होता है, अतः निर्विकल्प अपने स्वप्रकाशत्व स्वभाव के कारण अपने प्रामाण्य तद्यक्ति रूप सत्य को भी ग्रहण कर लेगा, फलतः निर्विकल्पक में प्रामाण्य का ग्रहण हो जाने से अप्रामाण्यभान की सम्भावना समाप्त हो जाने के कारण उसमें अप्रामाण्य का संदेह नहीं हो सकता । सविकल्पक प्रत्यक्ष में भी प्रमाण्य का संशय नहीं हो सकता क्यों कि विशिष्टविषयक दोने से अनुमान के समान सविकल्पक प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ही है । अतः सविकल्पक में अप्रामाण्य का निश्चय हो जाने से उसमें भी प्रामाण्य का संशय अस भवित है। तो इस प्रकार जब प्रामाण्य संशय का होना सिद्ध ही नहीं है तो उसकी अनुपपत्ति के भय से उसके स्वतोप्रायत्व का त्याग नहीं किया जा सकता | यदि यह कहा जाय कि 'निर्विकल्पक में सम्मात्रविषयकत्व, स्वप्रकाशविषयत्व और प्रामाण्यावगाहित्य की सिद्धि के लिये भी तो अनुमान प्रमाण की आवश्यकता है ही, फिर अनुमान के प्रामाण्य को अस्वीकार कैसे किया जा सकता है ?" तो यह ठीक नही है क्योंकि उक्त तीनों धर्म भी निर्विकल्पक स्वरूप होने से स्वतोप्राय दी हैं, अतः उनके ग्रहण के लिये अनुमान प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। यदि यह कहे कि 'त्रे धर्म अपने अपने पृथक स्वरूप- सम्मात्रविषयकत्वत्वभादिरूप से स्वताग्राह्य नहीं हैं, उन रूपों से उनके ग्रहण के लिये अनुमानप्रमाण मानना आवश्यक है-' तो यह ठीक नहीं है, क्यों क उन रूपों से उन धर्मो की प्रमाण होती ही नहीं, उन रूपों से तो उनकी केवल सम्भावन Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ... .....MAA .AA P . स्था का टीका व हि. वि० १०५ अत एव शब्दोऽपि न मानम्, परस्परविरुद्धार्याभिधायफानामाऽऽगमानां विनिगन्तुमशक्यत्वात्, शब्दस्य वासनामात्रप्रभवत्वात्, तन्मात्रजनकत्वाच्च । अन्यथाऽसदर्थप्रतिपादकशब्दप्रयोगो दुर्धट: स्यात् । 'त ितवागमो निष्प्रयोजनः स्यादिति चेत् ? न, परं प्रति दूषणपर्यनुयोगात्, परस्य तदनुत्तरमात्रेण निग्रहे च तत्सार्थक्यात् । अत एव "सर्वत्र पर्यनुयोगपराणि पूत्राणि बृहस्पतेः" इत्यभिहितम् । ततोऽदृष्टे मानाभावाद् नास्त्यात्मा, इति लोकायतिकवादः ॥३०॥ ही होती है, क्योंकि निर्विकल्प सम्माविषयम्-निर्विकल्पक सम्मानविषयक होता है। यह शान 'अयं घटा यह घटस्य से विशिष्ट है' इस शाम के समान है। कहने का माशय यह है कि जैसे 'अयं घटः' यह विशिष्यज्ञान प्रमारूप न हो कर केवल सम्भावनारूप है, उसी प्रकार निर्विकल्पक सन्मानविषयम्' इत्यादि शान भी प्रमारूप न होकर केवल सम्भावनारूप ही है। अतः सन्माविषयकत्वत्व आदि रूपो से सन्मात्रविषयत्व आदि के ग्रहण के लिये अनुमान को प्रमाण मानने की आवश्यकता नहीं है । (शब्द को प्रमाण नहीं मानने में कारण) कई कारणों से शभा को भी प्रमाण नहीं माना जा सकता, जैसे, एक कारण यह है कि ऐसे अनेक शास्त्र उपलब्ध होते है जो परस्पर विरूद्ध अर्थों का प्रतिपादन करते हैं, उनमें कौन शास्त्र प्रमाण है ? और कौन अप्रमाण है ? इस बात का निश्चय करने के लिये कोई उचित युक्ति नहीं है । दूसरा कारण यह है कि शब्दों का प्रयोग केवल वासना से अर्थात् वस्तुशून्य ज्ञान से होता है, तथा शहों से केवल वासना अर्थात् वस्तु शून्य ज्ञान की ही उत्पत्ति होती है, क्योंकि यदि ऐसा न मान कर शब्दप्रयोग को प्रमान्मक ज्ञान से जन्य माना जायगा पच शब्दों से प्रमात्मक शान की उत्पत्ति मानो जायगो, तो असत् अर्थों के बोधक शब्दों का प्रयोग न हो सकेगा, क्योंकि उन शम्बों के मूलभूत ज्ञान तथा उनसे उत्पन्न होने वाले शान दोनों ही वस्तुशुन्य होते हैं । 'असत् अर्थो के योधक शब्दों का प्रयोग होता ही नहीं यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि ऐसे शब्दों का प्रयोग सभी को मान्य है। इस पर यह शंका हो सकती है कि-"शादमात्र को अप्रमाण मानने पर चार्वाक के शब्द भी प्रमाण न हो सकेगे । फलता प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण मानने वाले वादियों के विरोध में चार्वाक का सम्पूर्ण कथन ही निष्फल हो जायगा' -पर यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि चार्वाक की मोर से जो कुछ कहा जाता है उसका उद्देश्य किसी सिद्धान्त की स्थापना नहीं है, किन्तु अग्यवादियों की मान्यताओं में दोषो का उझावन मात्र होता है। यदि उसावित दोषों का परिहार अन्यवादी नहीं कर पाते तो उतने से दी उनकी मान्यताओं का निराकरण हो आने से बाकि के उद्देश्य की पूर्ति हो जाने से उसके कथम की सार्थकता सम्पन्न हो जाती है। इसो अभिप्राय से यह कहा गया है कि"बृहस्पति-चार्वाक के सूत्र केवल प्रश्नामक होते हैं"। शा, बा. १४ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ . . . . . . . .. . . . . . . ... . . . शास्त्रवासिमुडबय-स्तबक र अत्र परमार्थवादिनामाईतानां मतमाह-अचेतनानि इतिमूलम्-मचेतनानि भूतानि न तद्धर्मो न तत्फलम् । चेतमाऽस्ति च, यस्येयं स एवात्मेति बापरे ॥३१॥ भूतानि-पृषिम्यादीनि, भचेतनानि चैतन्याऽभाववत्वेन प्रमितानि । अतश्चेतना बद्धर्मों म-भूतस्भावभूता न । अत एव च तत्फल न भूतोपादानकारणजन्या न, मृदो घटस्वेव तत्स्वभावस्यैव तदुपादेयत्वान् । अस्ति च चेतना, प्रतिप्राण्यनुभवसिद्धत्वात् । अतो यस्येयं स्वभावभूता फलभूता च, स एवात्मा, परिशेषाद्, इति चापरे जैनाः । ३१॥ विपक्षे बाधकमाह 'यदीयमिति-- . फलतः ऐसी कोई भी वस्तु-जो प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं होती-प्रमाणहीन होने से उसका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। अतः प्रत्यक्षमाय न होने से भात्मा का भी अस्तित्व स्वीकार्य नहीं हो सकता । प्रमाण के सम्बन्ध में लोकातिको चार्वाक के अनुयायियों का यही वक्तव्य है। [चार्याक पूर्वपक्ष समाप्त ॥३०॥ ___'अचेतनानि' इस प्रलोक द्वारा आत्मा के विषय में परमार्थवादी जैनों का मत बताया गया है, जिसका आशय निम्नोक है। [परमार्थवादी जैनों का उत्तरपक्ष] पृथियो भादि भूतों में चैतन्य का अभाव प्रमाणसिद्ध है, इस लिये सन्य को भूतों का स्वभाव नहीं माना जा सकता । चैतन्य भूतों का स्वभाव नहीं है, इसीलिये भूताः स्मक उपाबानकारण से उसकी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती । क्योंकि यह नियम है कि 'जो जिसका स्वभाव होता है वही उसका उपादेय कार्य होता है' जैसे घड़ा मिट्टी का स्वभाव होने से मिट्टी का उपादेय होता है । चैतन्य भूतों का स्वभाव न होने से भूतात्मक उपादानकारण से नहीं उत्पन्न हो सकता। - यदि यह कहा जाय कि-"चेतना' नाम की कोई वस्तु हो नहीं है, अतः 'वह किसका स्थभाष है और किस उपादानकारण का कार्य है' यह विचार ही निरर्थक है"-तो यह कहना ठीक न होगा, क्योंकि प्रत्येक प्राणी को चेतना का अनुभव होता है, अतः चेतना के भस्तित्व में किसी का मत्य नहीं हो सकता। तो फिर चेतना का अस्तित्व जब निर्विधाव है तो उसे किसी का स्वभाव और किसी उपादानकारण का कार्य मानना ही होगा, तो उसे जिसका स्वभाष तथा जिस उपादानकारण का कार्य माना जायगा, वह उपर्युक्त याचा के कारण पृथिवी आदि भूतपदार्थ न हो कर उनसे कोई अम्य ही होगा । तो पृथिवी आदि से भिन्न पेसा जो पदार्थ होगा, जिसे चैतन्य स्वभाव का आश्रय एवं चैतन्य का उपादानकारण माना जा सके, वही 'आत्मा' है। इस प्रकार परिशेष अनुमान से चेतना के आश्रय और उपादानकारण के रूप में आत्मा का अस्तित्व सिद्ध है। आत्मा के विषय में जैनो की यही मान्यता है ॥३॥ 'तना पृथिवी आदि भूतों से भिन्न आत्मा का धर्म है' यह सभी आत्मघाती दार्शनिकों का स्वपक्ष है। चेतना पृथिवी आदि भूतों का ही धर्म है, चेतमा का Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका सहि मि० १०७ मूलम्-यदीयं भूतधर्मः स्यात् प्रत्येक तेषु सर्वदा । उपलभ्येत सत्त्वादि-कठिनत्वादयो यथा ॥३२॥ यदि इयं चेतना, भूतधर्मः स्यात, तदा 'तेषु भूतेषु, प्रत्येकम असङ्घाताबस्थायां, सर्वदा=इन्द्रियविषयसम्प्रयोगकाले, 'उपलभ्येत', भूतसामान्यधर्मत्वे समादिवत् , भूतविशेषधर्मत्ये च कठिनत्वादिवत् , योग्यत्वादिति भावः, मध्यगताऽऽदिपदाद विभागः प्रतीयते ॥३२॥ पराभिप्रायमाइ 'शक्ती'तिमूलम्-शक्तिरूपेण सा तेषु, सदाऽतो नोपलभ्यते । न च तेनापि रूपेण सत्यसत्येव चेत् ? न तत् ॥३३॥ सा-चेतना, तेषु भूतेषु,सदा-असङ्घातावस्थायामपि, शक्तिरूपेण वर्तते । अतस्तदा नोपलभ्यते, व्यक्तिरूपाक्रान्तस्यैव योग्यत्वात् । न च सेनापि प्रसिद्धन शक्क्याख्येनापि रूपेण सती चेतना असती । न ह्यानुपलब्धिमात्राभावः सिद्धयति, किन्तु योग्यानुपलब्ध्या । न चात्र साऽस्ति, तत्र तत्र्यावच्छिन्नायास्तस्या अयोग्यत्वादिति । समाधत्ते इति चेत् ? न तत्-पूर्वोक्तम् ॥३३॥ पाश्रय "आत्मा" नाम का कोई अन्य पदार्थ नहीं है, यह अनारमवादी विद्वानों का पक्ष होने से आत्मवादियों का विपक्ष है। प्रस्तुत प्रलोक ३२ में इस विपक्ष के वाधकतर्फ का लिक किया गया है, जो निम्नोक्त रूप से शातव्य है।। चेतना यदि भूतपदार्थ का धर्म होगी तो वह प्रत्येक असंहत भूत में भी रहेगी। फलतः शरीरात्मक संघात से भिन्न जिस किसी भी भूत के साथ जब भी इन्द्रिय का सन्निकर्ष होगा तब उसमें चेतना के प्रत्यक्षानुभव की आपत्ति होगो । यदि उसे भूतसामान्य-सभी भूतों का धर्म माना जायगा तो सत्ता आदि के समान समी भूतों में उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी, और यदि उसे भूत विशेष -गिने चुने भूतों का ही धर्म मामा आयगा तो काठिन्य आदि के समान गिने चुने भूतों में हो उसके प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि 'उसे भूतों का अतोन्द्रिय स्वभाव मान लेने पर यह दोष नहीं हो सकता'-तो यह कहना ठीक न होगा, क्योंकि शरीरात्मक संघात की अवस्था में उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति होने से वह प्रत्यक्ष योग्य धर्म है। लोक में सत्व और कठिनत्व के मध्य में आनि शम्न को रखकर भतसामान्य और भविशेष के धर्म रूप में दो प्रकार से चेतना की अनुभूति की आपत्ति का संकेत किया गया है ।।श्या (शक्तिरूप से प्रत्येक भूत में चेतना के अस्तित्व की शंका) प्रलोक ३३ में भूतचैतम्यवादी के अभिप्राय का उल्लेख कर उसका समाधान किया गया है, जो निम्नोक्त प्रकार से हातव्य है। भूत चैतन्यवादियों का कहना है कि "चेतना प्रत्येक असंइत भूत में भी राती है, किन्तु असंहत भूत में शक्तिरूप से--अव्यक्तरूप से रहती है । इसलिये मसंहत Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ शास्ववार्तासमुख्यय-स्तषक १ कुतः ? इत्याह 'शक्ती'तिमूलम-शक्तिचैतन्ययोरैक्यं नानात्वं वाऽथ सर्वथा । ऐक्ये - नये नानालस्य सा यतः ॥३४॥ शक्तचैतन्ययोः सर्वथा भेदाऽसहिष्णुतयेक्यम् अभेदः, अथेति पक्षान्तरे, सर्वथा अभेदाऽसहिष्णुतया नानात्वं भेदः ? आधपक्षे दोषमाह-ऐक्येअभेदे, साशक्तिः चेतनेव । ततश्च यदि योग्या सा, तदा प्रागप्युपलब्धिप्रसङ्गा, यदि च न योग्या तदा पश्चादप्यनुपलब्धिप्रसङ्ग । द्वितीयपक्षे दोषमाह नानात्वे-भेदे, सा-चेतना, अन्यस्य स्याद्, न भूतानां, तदन्यशक्तिरूपत्वात् तेषाम् । यत एवं ततो न तदिति योजना । भूत के साथ इन्द्रिय का सत्रिकर्ष होने पर उसमें चेतना के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती, कि असंहत भूत में चेतना जिस रूपसे रहती है, उस रूप से यह प्रत्यक्ष योग्य नहीं है। प्रत्यक्ष योग्य तो यह तब होती है जब जसे व्यक्तरूप प्राप्त होता है, और भूतों के शरीरात्मक संघात की अवस्था में ही उसे व्यक्त रूप प्राप्त होता है । यदि यह कहा जाय कि "असंहत भूत में चेतना को उपलब्धि नहीं होती अतः उसमें चेतना होती ही नहीं"-तो यह कहना ठीक न होगा, क्योंकि संहतभूत में चेतना की उपलब्धि को संगत बनाने के लिये असंहतभूत में शक्तिरूप में उसका अस्तित्व मानना आवश्यक है और जब शक्तिरूप से असंहतभूत में उसका अस्तित्व युक्तिसम्मत है तब अनुपलब्धि मात्र से उसमें उसका अभाव मानना उचित नहीं हो सकता, क्योंकि अनुपलब्धि मात्र से अभाव को सिद्धि नहीं होती, किन्तु योग्यानुपलब्धि से अभाव की सिद्धि होती है। असंहतभूत में चेतना की अनुपलब्धि है, योग्यानुएलब्धि नहीं है. क्योंकि असेहतभूत में अवस्थित चैतन्य उपलब्धि के लिये अयोग्य होता है। भूतचैतन्यवादियों के इस कथन के उत्तर में अन्धकार का कहना यह है कि चेतना के व्यक्त और अव्यक्त रूपों कि कल्पना निर्मूल होने से भूतों में उसके अस्तित्व का समर्थन करना शक्य नहीं है ॥३३|| थेतना के दो रूप हैं एक व्यक्त और दूसरा अव्यक्त । अव्यक्तचेतना को घेतमाशक्ति मौर व्यक्तचेतना को चेतना कहा जाता है। चेतनाशक्ति प्रत्येक असंहतभूत में राती है, और चेतना स्वयं संहतभूतसमुदाय अर्थात् शरीर में रहती है। पूर्ष कारिका में इस मान्यता के स्वण्डन का संकेत किया गया है, ३४ वी कारिका में उसी की यक्तियों धारा उपपत्ति और पुष्टि की गयी है, जो इस प्रकार है शक्ति और चेतना न दो रूपों में चेतना को कल्पना नहीं की जा सकती, क्योंकि उक्त कल्पना करने पर यह प्रश्न ऊठेगा कि शक्ति और चेतना में पेक्य या नानात्व। यदि ऐक्य माना जायगा तो ऐक्य तो मेद के साथ रहता नही, मतः दोनों में पूर्णरूप से ऐक्य मानना होगा । फलतया चेतनाशक्ति और चेतना में कोई अन्तर न होगा। अषं यदि चेतनाशक्ति योग्य होगी तो भूतों का शरीरात्मकसंघात होने के पूर्व भी पोभन में उसकी उपलव्धि होने की आपत्ति होगी. और यदि वह अयोग्य मोमीनो उससे भिन्न होने के कारण चेतना भी अयोग्य होगी, जिसके फलस्वरुप शरीरात्मक संघात के बाद भी उसमें चेतना की उपलब्धि न ही सकेगो। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं० वि० अथ चेतनाया: स्वाऽभिन्न व्यक्तिरूपा तज्जनकताख्या शक्तिः स्वरूपतो निर्विकल्पकविषयाऽपि तद्रूपेण सविकल्पकागोचर इति न दोष इति चेत् १ न, व्यक्तचेतनाया अप्युत्तरचेतनाजनकतया शक्तिरूपेणायोग्यत्त्वप्रसङ्गान् । चेतनात्वेनैव सा योग्या न तु शक्तिरूपेणेति चेत् ? प्रत्येकदशायामपि चेतनात्वेन योग्यत्वं, चेतनावशून्या चेतना वा प्रसजेदिति महत्संकटम् ॥३४॥ शक्ति और चेतना के पेक्यपक्ष में उक्त भापत्ति के भय से यदि दोनों में नानात्व माना जायगा तो यह भी ठीक न होगा, क्योंकि नानात्व मेवरूप है और मेद कमी अमेव पेश्य के साथ नहीं रहता अतः दोनों में पूर्णरूप से मेद मानना होगा, फिर उसका फल यह होगा कि चेतनाशक्ति भूतों का धर्म भले हो पर स्वयं चेतना भूतों का धर्म न होफर किसी अन्य का धर्म हो जायगी। कहने का आशय यह है कि भूतचैतनिक को अवयवाक्यविभाध-अवयवों से भिन्न अवयवी का अस्तित्व मान्य नहीं है, अतः प्रत्येक असंहतभूत से शरीरात्मक संहतभूत समुदाय का भेद नहीं है, तो असंहत भूत में जब चेतना को शक्ति ही रहती है किन्तु स्वयं चेतना नहीं रहती, तब शरीरा. त्मक संहतभूत समुदाय में भी चेतना को शक्ति ही रहेगी, स्वयं चेतना न रह सकेगी अतः चेतना को भूतों से भिन्न ही किसी पदार्थ में माश्रित मानना होगा। यदि यह कहा जाय कि-"चेतना की जनता ही घेतना शक्ति है, और वह जनकता भी स्वरूपयोग्यसारूप है जो अपने पाश्रयभूत व्यक्ति से मभिन्न है, इस प्रकार चेतनाशक्ति अपने आश्रयस्वरूप प्रत्येक असंहतभूत से भिन्न होने के कारण अपने आश्रय के प्रत्यक्ष के समय अपने आश्रय के रूप में प्रत्यक्ष हो जाती है, किन्तु इसका यह प्रत्यक्ष उसके निजीरूप चेतनाजनकताव अधवा चेतनास्वरूप से उसका प्राइक म होने से निर्विकल्पकता होता है. सविकपकरूप नहीं होता। अर चेतनाशक्ति के आधयरूप विभिन्न भूत जप पकत्र हो कर शरीर के रूप में संहत हो जाते हैं तब उनको चेतनाशक्ति चेतना के रूप में परिणत हो जाती है, और उस दशा में चेतनात्यरूप से उसका सधिकल्पक प्रत्यक्ष भी सुघट हो जाता है"-तो यह कथन ठीक नहीं हैं, क्योंकि जिस प्रकार असंह तभूत से अध्यक्तचेतना व्यक्तचेतना का जनक होने से चेतना जनकता के रूप में चेतनाशक्ति है, और भूनों की असंहतअरस्था में अपने निजरूप में सवकल्पक प्रत्यक्ष के अयोरप है उसी प्रकार संहतभूत में व्यक्तयेतना भी अपने अनम्तर होने वाली व्यक्तवेतना का अनक होने से चेतनाजनकता के रूप में चेतनाशक्ति कहो मायगी, और चेतनाशक्तिरूप होने से विकल्पक प्रत्यक्ष के अयोग्य होगी और उसका परिणाम यह होगा कि भूनों के शरीरात्मक संघात में भी चेतना को सषिकल्पकउपलब्धि न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-"व्यक्त और अध्यक्तरूप में चेतना की कल्पना का आशय यह है कि चेतना में दो धर्म होते हैं एक चेतनात्य और दूसरा शक्तिरूप-शक्तित्व । इन दोनों धर्मों में चेतनात्व धर्म ऐसा है जिसके द्वारा चेतना प्रत्यक्षयोग्य होती है, और शक्तिरूप धर्म ऐसा धर्म है जिसके द्वारा चेतना प्रत्यक्ष के अयोग्य होती है। अत: शरी Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १. अनभिव्यक्तत्वान्नोपलभ्यत इत्याशय दूषयति 'अनमिव्यक्तिरिति---- मूलम्--अनभिव्यक्तिरप्यस्या न्यायतो नोपपद्यते । - आवृतिर्न यदन्येन तस्वसंख्याविरोधतः ।।३।। अनभिव्यक्तिरप्यस्याः-चेतनायाः, नान्यत: परमार्यविचारात , 'नोपपद्यते' नाऽबाधिता भवति । 'यद यस्मादेतोः, प्रतिबन्धकसमवधानरूपाऽऽयतिरत्रानभव्यक्तिरमिमता, नान्या, अनिर्वचनात् । प्रतिबन्धश्चात्र नान्येन भूतातिरिक्तेन, अतिरिक्तप्रतिबन्धकाभ्युपगमे 'पृथिव्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वम्' इति स्वसिद्धान्तभ्याकोपात् ॥३५॥ भूतानामेव केनचिद् रूपेणावारकत्वं भविष्यतीति, अत्राह 'न चासावि'तिमूलम्--न चासौ तत्स्वरूपेण तेषामन्यतरेण वा । व्यजकल्वप्रतिज्ञानाद नावृतिय॑जकं यतः । ३६॥ रात्मकभूतसंघात में विद्यमान व्यक्तचेतना मानेननर होने वाली व्यक्त चेतना का जनक होने से यद्यपि शक्तिरूप है तथापि चेतनात्वरूप से उसका प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रत्येक असंतभूत में रहने थाली अध्यक्तचेतना मी चेतनात्वरूप से प्रत्यक्षयोग्य हो जायगी । अथवा उस चेतना को चेतनात्व से शून्य मानना पडेगा । इस प्रकार यह पक्ष इस महान संकट से प्रस्त होने से त्याज्य प्रतीत होता है ॥३४॥ ___(अनभिव्यक्तरूप से चैतन्य भूतों में नहीं हो सकना) ३५वीं कारिका में इस बात का खण्डन किया गया है कि 'प्रत्येकअसंहतभूत में भी चेतना रहती है किन्तु अनभिव्यक्त होने से उस दशा में उसकी उपलब्धि नहीं होती'___ असंहतभूत में चेतना की अभिव्यक्ति का उपपादन नहीं किया जा सकता, क्यों कि 'न्याय -परमार्थविचार से उसका समर्थन नहीं हो पाता । उसका कारण यह है कि चेतना को जो अभिव्यक्ति मानी आयगी उसे चेतना का आवरणरूप ही मानना होगा, अर्थात् असंहतभूत में चेतना अभिव्यक्त होती है, इस कथन को व्याख्या यही करनी होगी कि असंहतभूत में चेतना आवृत होती है । चेतना की अनभिव्यक्ति का इससे भिन्न कोई दूसरा अर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि इससे भिन्न अर्थ का निर्वसन अशक्य है। इस प्रकार चेतना की अनभिव्यक्ति का अर्थ है चेतना का भाचरण और चेतना के आवरण का अर्थ है चेतना में उसकी अभिव्यक्ति के प्रतिबन्धक का समवधान । अब प्रश्न यह उठता है कि यह प्रतिबन्धक क्या है जिसका समवधान होने से असंहतभूत में घेतना की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती १ विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि घह प्रतियन्धक भूतों से अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता क्योंकि भूतों से अतिरिक्त यदि किसी प्रतिबन्धक को मान्यता दी जायगी तो तत्त्वसंख्या का विरोध होगा अर्थात् चार्वाकमतानुसार पृथिवी जल तेज और वायु ये बार हो सत्त्व है इस सिद्धांत का व्याघात होमा ॥३५॥ ___३६वीं कारिका में यह बात बतायी गयी है कि भूतों को भूतगतचेतना का आधरणकारी नहीं माना जा सकता । कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..स्था० १० टीका व हिं. वि. न चासौ आवृतिः, 'तत्स्वरूपेण' भूतत्वादिना भूतस्वरूपेण, न वा 'तेषामन्यतरण' पृथिवीत्वादिना पृथिवीजलान्यतरत्वादिना वा । कुतः' इत्याह 'व्यजकत्वप्रतिज्ञानात्' चैतन्यसाक्षात्कारजनकत्वस्वोकारात् । तत्त्वेऽप्यावृतिजनकत्वमस्तु, अत आइ-यतो व्यजकमावृतिः आवारकं न भवति, एकस्य चैतन्यसाक्षात्कारजनकत्वतजनकीभूताभावप्रतियोगित्वयोविरोधादिति भावः ॥३६।। कायाकारपरिणामाऽभाव एवाऽत्राऽऽवृतिः स्याद, अप्राह 'विशिष्टे 'तिमृलम्-विशिष्टपरिणामाऽभावोऽपि यत्राऽऽवृतिन वै । भावताऽऽप्तेस्तथा नाम व्यञ्जकत्वप्रसङ्गतः ॥३७|| विशिष्टपरिणामाऽभावोऽपि, हिः पादपूरणे, वै-निश्चितम्, अत्र भूतचेतनायाम् , (भूतों में रहा हुआ चैतन्य का आवरण भूतपदार्थ नहीं हो सकते ।) भूतों को चेतना का वारक अर्थात् चतमा की अभिव्यक्ति का प्रतिबन्धक नहीं माना जा सकता, क्योंकि पेसा मामने पर यह प्रश्न ऊठेगा कि भूत यदि चेतना के आधारक होंगे तो उन्हें भूत के सामान्यधर्म भूतस्वरूप से चेतना का आवारक माना जायगा, या भूत के विशेषधर्म पृथिवीत्व आदि अथवा पृथिवोजलान्यतरत्व आदि रूप से चेतना का आधारक माना जायगा ! विचार करने पर ये दोनों ही पक्ष उचित नहीं प्रतीत होते, कपों कि शरीरात्मकभूतसंघात में चेतना को जो अभिव्यक्ति होती है उसके प्रति शरोरात्मक संघात अपने घटक पृथिवी आदि भूतों के सामान्यधर्म भूतत्व तथा भूत के विशेषधर्म पृथिवीत्व आदि पधं पृथिवीजलान्यतरत्व आदि रूपों से ही कारण होता है। तो फिर जिम रूपों से पृथिव्यादिभूत स्वगत चेतना के व्यजक होने हैं, उम्हीं रूपों से उन्हें चेतना का आवारक यानी धेतना की अभिव्यक्ति का प्रतिबन्धक कैसे माना जा सकता है? ___ यदि यह कहा जाय कि-"भूतत्यआदि रूपों से भूतों को शरीरात्मकसंघात में चेतना का व्यन्जक और शरोरानात्मकभूतों में उक्तरूपों से भूतों को चेतना का आधारक मानने में कोई हानि नहीं है तो यह कथन ठीक न होगा, क्योंकि जो जिस रूप से जिसका व्यन्जक होता है , उस रूप से वई आवारक नहीं हो सकता; कारण चेतना की व्यजकता का अर्थ है चेतना के साक्षात्कार की जनकता; और चेतना की आवारकता का अर्थ है चेतना-साक्षात्कार के जनक अभाव को प्रतियोगिता । और ये दोनों एक दूसरे का विरोधी होने से एक व्यक्ति में नहीं रह सकते । कहने का आशय यह है कि भूतों को चेतना का आवारक सभी माना जा सकता है जब भूतत्व आदि हयों से भूतो का अभाव चेतना के साक्षात्कार का जनक हो, और यह तभी सम्भव है जव भूत चेतना-साक्षात्कार के जनक न हो; क्योंकि भूत और भूत का अभाव ये दोनों एक साथ न रह सकने के कारण चेतना-साक्षात्कार के जनक नहीं हो सकते ॥३६॥ ३७चीं कारिका में शरीर के आकार में भूतों के परिणाम का अभाव ही चेतना का आधारक है' इस मत का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ शास्त्रषार्तासमुच्चय-स्तबक र आवृत्तिन, आवारकत्वस्य भावत्वव्याप्यत्वेन तथात्वे तस्य 'भावताऽऽप्तेः भावत्वप्रस नात् । न चावारकत्वं न भावत्वव्याप्यम् , अन्धकारे व्यभिचारादिति वाच्यम्. अन्धकारस्य द्रव्यत्वेन व्यवस्थापयिष्यमाणत्वात् । तुच्छत्वादभावस्थ नावारकत्वमिति, तथात्वे भावत्वात्तिरित्य-ये । दुषगान्तरमाह- 'ती'-विशिष्टपरिणामाभावस्य चेतनासाक्षात्कारप्रतिबन्ध करवे तदभावत्वेन तदेतुत्वे गौरवाद् नामाऽस्य विशिष्टपरिणामस्यैव लापवेन व्यजकत्वप्रसङ्गात् ॥३७॥ न चेष्टापत्तिः, इत्याह 'न चासाविति - मूलम्-न चासो भूतभिन्नो यत् ततो व्यक्तिः सदा भवेत् । भेदे त्वधिकभाषेत तत्त्वसंख्या न युध्यते ।।३८॥ (कायाकार परिणाम का अभाव आवरण नही है ।) 'शरीर पृथिधी आदि चार भूतों का विशिमपरिणाम है। इस परिणाम का जमाव हो खेतमा का आवारक है । असंहतभूतों में इस परिणाम के न होने से ही चेतना की अनुभूति नहीं होतो' । इस कथन के विरोध में प्रन्थकार का यह तर्क है कि आधारकत्व भाषत्व का व्याप्य होता है अर्थात् भावात्मक पदार्थ ही आधारक होता है। अतः यदि कायाकार परिणाम के अभाव को आवारक माना जायगा, तो उसे अभाव न मान कर भाषात्मक स्वीकार करना पड़ेगा । यदि कहा जाय कि-माधारकत्व को भावस्थ का व्याप्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि अन्धकार स्थ और पर के प्रकाशक तेज का अभाधरूप होने से भावात्मक न होने पर भी आधारक होता है, अतः उसमें उक्त व्याप्ति का व्यभिचार है"-तो यह कथन ठीक न होगा, क्योंकि जैनमत में अन्धकार द्रव्यरूप है यह आगे का ७७ के विवरण में प्रतिष्ठापित किया जायगा 1 द्रव्यरूपता होने के कारण अभावात्मक न होकर पक भावात्मकपदार्थ है, अतः उसे आवारक मानने पर आवारकत्य में भावत्व की व्याप्ति का भङ्ग नहीं हो सकता। अन्य विद्वान यह कर कर अभाव की आवारकता का निषेध करते हैं कि 'अभाव तुच्छ होने से मावारक नहीं हो सकता । यदि उसे आधारक माना जायमा तो उसे भागत्मक भी मानना पडेगा, कायाकार परिणाम का अभाव यतःभावात्मक नहीं है अनः उसे चेतना का आवारक नहीं माना जा सकता। कायाकार परिणाम के अभाव को चेतना का भावारक मानने में दुसरा भी दोष है, और वह यह कि यदि विशिघ्रपरिणामाभाव को चेतना का आधारक माना जायगा तो उसके अभाव को अर्धान् कायाकार परिणाम के अभाव को चेतमासाक्षात्कार का जनक मानमा होगा, और यह मानना गौरवग्रस्त होने से उचित नहीं है। उसकी अपेक्षा तो यही उचित प्रतीत होता है कि कायाकार परिणाम हो चेतनासाक्षात्कार का जनक है क्योंकि कायाकार परिणामाभाष के अभाव की अपेक्षा कायाकारपरिणाम लघु है ॥३॥ ३. धी कारिका में भूतों के कायाकारपरिणाम की चेतनाव्याजकता का निरसन किया गया है । करिफा का अर्थ इस प्रकार है Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११३ Ly-- स्था का टीका व हि. वि. न चासौ-विशिष्टपरिणामः भूतभिन्नो-भूतातिरिक्तः, यद्-यस्माद्धतोः, ततः सदासर्वकालं, व्यक्तिः चेवनासाक्षात्कारो भवेत, भूताऽभिन्नविशिष्टपरिणामस्य यावद्भूतकालभावित्वात् । भेदे तु भूतेभ्यो विशिष्टपरिणामस्याऽभ्युपगम्यमाने, अधिकभावेनचतुष्टयबहिर्भावेन, तत्वसंख्या न युज्यते, 'चत्वार्येव तत्वानि' इति विभागण्याघातः स्यात् ॥३८॥ अन पराभिप्रायमाऽऽशय परिहारमाह 'स्वकाले' इतिमूलम्-स्वकालेऽभिन्न इत्येतत्कालाभावे न सङ्गतम् । लोकसिद्धाश्रये स्वारमा हन्त । नाश्रीयते कथम् ! ॥३९।। स्वकाले परिणामकाले, म भन्नः -पदार्थः, ततो न तत्त्वसंख्याव्याघातः । न (कामाकारपरिणाम चेतना का व्यञ्जक नहीं है।) भूतों के कायाकारविशिष्टपरिणाम अर्थात् शरीरात्मकर्सघात को भी चेतना का ज्यम्जक नहीं माना जा सकता, क्योंकि भूनचैतनिक के मत में शरीरात्मकसंघात अपने घटक धिमी भावि भूतों से मिम नहीं माना जाता, अतः उसे यदि चेतना का मजक माना जायगा तो उसके घटक पृथिवोभादि भूत ही चेतना के व्यजक होंगे, और उस दशा में शरीरात्मकसंघात के पूर्व प्रत्येक भूतदशा में भो चेतना के साक्षात्कार की आपत्ति होगी। इस प्रकार जिस काल से लेकर जिस काल तक भूतों का अस्तित्व रहेगा उस पूरे काल में बेतना के साक्षात्कार की धापत्ति होगी, क्योंकि भूतों का कायास्मकपरिणाम भूतों से अभिग्न होने के कारण भूतों के सम्पूर्ण अस्तित्वकाल में भूतात्मना विद्यमान रहेगा। इस दोष के परिहारार्थ-यदि कायाकारपरिणाम को पृथिवी आदि भूतों से भिन्न माना जायगा, तो भूतों के कायात्मकपरिणाम को भूतों से अतिरिक्ततत्व के रूप में स्वीकार करने पर पृथिवी आदि तत्वचतुष्टयवाद के सिद्धान्त को धूलिसात् कर देमा होगा, जो भूतधैतनिक को कथमपि मान्य नहीं हो सकता। अतः भूतों के कायात्मक परिणाम को चेतना का व्यम्जक मानना सम्भव नहीं है ||३|| ३९वीं कारिका में कायाकार भूतसंघात को खेतना का व्यजक मानने पर पूर्वकारिका में बताये गये घोष के अन्यसम्मतपरिहार को असात बताया जा रहा है (कालभेद से भिन्नभिन्नपरिणाम काल के अभाव में असंगत है) कतिपय विद्वानों का इस विषय में यह कहना है कि-"भूतों के कायाकारपरिणाम को बेतना का ज्याक मानने पर पूर्वकारिका में बताये गये वोष का तभी सम्भव है, जब उक्तपरिणाम को भूतों से सर्ववाभिन्न अथवा सर्वदाभिन्न माना जाय । किन्तु यदि उक्तपरिणाम और भूतों को उक्तपरिणाम के अस्तित्वकाल में परस्पर मभिन्न, और उक्तपरिणाम के अभावकाल में उन्हें परस्पर भिन्न मामा जाय, तो उक्त दोष नहीं हो सकते, क्योंकि काथाकारपरिणाम को जब भूतों से भिन्न नहीं शा. बा. १५ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. शास्त्रवार्तासमुच्चय-स्तषक १ प्रलो० ३९ चान्यदा चैतन्यव्यक्तिप्रसङ्गः, तत्काले भूतस्य विशिष्टपरिणामभिन्नत्वेन व्यन्जकाभावात् । न चैकत्र भेदाभेदोभयविरोधः, कालभेदेनकत्रोभयसमावेशात । कथमन्यथा पकतादशायां घटादौ 'अयं न श्यामः' इत्यादिधीः । न च तत्र विशेषणसंसर्गाभाव एव विषयः, अनुयोगिनि सप्तमी विना तदनुपपवेरािंत दिक । इति एतत्भकारम् , एतत् प्रकृतवचनं, कालाभावे न संगतम्-अलीकम्, न हि कालो नाम तत्त्वान्तरमिष्यते परैः। मामा जायगा तब उसे अतिरिक्ततत्त्व के रूप में मानने का प्रश्न ही नहीं ऊठेगा । फलतया उक्त परिणाम को मान्यता प्रदान करने से तत्वञ्चतुष्टयवाद की कोई हानि नहीं हो सकेगी। इसी प्रकार उक्तपरिणाम के अभावकाल में भूत जब उक्तपरिणाम से भिन्न होंगे तब उक्तपरिणाम को चेतना का व्यन्जक मानने पर भी उक्तपरिणाम के अभाष काल में ये चेतना के व्यजक नहीं होंगे, अतः उस काल में उन में चेतना के साक्षात्कार की आपत्ति न हो सकेगी। यदि यह शंका की आय कि-"मेद और अमेव में परस्पर विरोध है, अतः उन दोनों का सहअवस्थान न हो सकने से यद कल्पना कि-'भूतों के कायाकारपरिणाम और भूतों में-उस परिणाम के अस्तित्वकाल में अभेद होता है, और परिणाम के अभावकाल में भेद होता है'-उचित नहीं है"-तो यह शका ठीक नहीं हो सकती, क्योंकि परस्पर विरोधी वस्तुओं का भी कालमेद से पकस्थान में समावेश सर्वसम्मत है। यह स्पष्ट है कि जो घट पाक से पूर्व श्याम होता है वही जब पक कर रक्त हो जाता है तब उसमें यह प्रतीति होती है कि-'अब घट श्याम नहीं है' । किन्तु यदि कालमेद से भेद और अभेद का पका समावेश न माना जायगा तो एक घर में पाक से पूर्व श्याम का अभेद और पाक के बाद श्याम का मेव न हो सकने से उक्त प्रतीति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-"अब घट श्याम नहीं है' यह प्रतीति पके घट में श्याममेद को विषय नहीं करती किन्तु श्यामरूपात्मऋविशेषण के संसर्गाभाव को विषय करती है, अतः इस प्रतीति के बल पर एक वस्तु में परस्परविरोधी भेद और अमेद के समावेश का समर्थन नहीं किया जा सकता"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त प्रतीति के बोधकवाक्य में अनुयोगियोधक 'घट' शब्द के उत्तर सप्तमीविभक्ति न होने से उक्तवाक्य में आये 'न' शब्द से संसर्गाभाव का बोध नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि अयं न श्यामः' अथवा 'इदानी घटो , श्यामः' ये थाक्य ही उक्तप्रतीति के बोधवाक्य हैं, इनमें 'श्याम'शब्द प्रतियोगी का और 'घट' शब्द अनुयोगी का बोधक है। प्रतियोगबोधकशब्द के समान अनुयोगियोधकशप के उत्तर भी प्रथमा ही विर्भाक्त है. सप्तमीविभक्ति नहीं है। अतः उक्तवाक्य में आये 'न' शब्द से संसर्गाभाव का बोध नहीं माना जा सकता, क्योंकि 'न' शब्द से संसाभाय का बोध न होने में अनुयोगीषोधकशब्द के उत्तर सप्तमीविभक्ति की अपेक्षा होती है, जैसे कि 'भूतले न घटः (=भूतल में घट नहीं है।' इस वाक्य में अनुयोगियोधक भूतल' शब्द के उत्तर सप्तमीविभक्ति होने से उक्तवाक्य में आये 'न' शब्द से भूतल में Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ स्या० का टीका व हिं० वि० 'अथ शब्दतदुपजीविप्रमाणयोरेवाऽनादरश्चार्वाकाणां, तन्मूलभूताऽऽप्ताऽनावासात् , अनुभवसिद्धस्त्वर्थों नाऽपोतुं शक्यः । अत एव तान्त्रिकलक्षणलक्षितमेवानुमानं प्रतिक्षिप्यते, तादृशप्रत्यक्षवत् , न तु बालगोपालसाधारणामलादिप्रतिपत्तिरूपम् , अन्यथा व्यवहाराऽनिर्वाहात् । न हि धूमपरामर्शात् 'पर्वतो वह्निमान्' इति ज्ञानं जायमानं संशयरूपं स्मृतिरूपं वा सम्भवति 'सन्देहिम, स्मरामि इत्यननुसन्धानात् । किंच परामर्शस्य निश्चयसामग्रीत्वाद् न संशयहेतुत्वं, 'पर्वतो वह्निमान्' इति पूर्वमननुभवाच्च न तादृशी स्मृतिः। घट के संसर्गाभाव का बोध होता है। इसीलिये 'अयं न श्यामः' इदानी घटो न श्यामः' इन वाक्यों में आये 'म' शब्द को संसगाभाध का बोधक न मान कर अन्योन्याभाव काही बोधक मानना होगा, और यह तभी सम्भव है जब काल भेद से भेद और अमेद के पकत्र समावेश का स्वीकार किया जाय ।" विद्वानों के इस कथन के विरोध में प्राथकार का कहना यह है कि-भूतचैतनिक के मत में पृथिरी आदि मार तत्वों से भिन्न किसी पदार्थ का स्वोकार न होने से उक्त मत में कालपदार्थ अलीक है, अतः उसके द्वारा उक्त प्रकार के समाधान की सम्भावना नहीं की जा सकती। (लोकसिद्धमनुमानप्रामाण्यवादी नव्यचावीक का पूर्वपक्ष) चार्वाक के नये अनुयायियों का कहना है कि शब्दप्रामाण्य के मूलभून आप्तपुरुष के अस्तित्व में विश्वास करने का कोई आधार न होने से चार्वाक को शब्द ओर शब्दोपजीवी प्रमाण ही अमान्य है। लेकिन अनुभवसिद्ध अर्थ का अपलाप नहीं हो सकता है, इसलिये धूम को देखकर धूम के उत्पत्तिदेशपर्वत आदि में अग्नि के अस्तित्व का जो शान बालगोपाल सभी को होता है उसका प्रामाण्य चार्वाक को अमान्य नहीं है, क्यों कि उस ज्ञान को अप्रमाण मान लेने पर उसके द्वारा होने वाले लोकव्यवहार की उपपत्ति अन्य प्रकार से न हो सकेगी। इसीलिये चार्याक न्यायादितन्त्रोक्तधिधि से सम्पन्न होने वाले अनुमान का ही खण्डन करते हैं, लोकसिद्ध अनुमान का खण्डन नहीं करते। चार्वाक की यह दृष्टि अनुमान के सम्बन्ध में ही सीमित नहीं है, किन्तु प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में भी उनकी यही दष्टि है। वे शास्त्रोक्तविधि से सम्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष को भी प्रमाण नहीं मानते, किन्तुं सर्वसाधारणमनुष्य को लोकसम्मत रीति से जो प्रत्यक्ष होता है उसे ही घे प्रमाण मानते हैं। इसीलिये न्याय--वैशेपिक शास्त्रों में वर्णित किसी भी प्रकार का अलौकिक प्रत्यक्ष उन्हें मान्य नहीं है। चार्वाक का कहना है कि पर्वत में धम के परामर्श से इस पर्वत में अग्नि है.' इसप्रकार पर्वत में अग्नि के अस्तित्व का जो शान होता है, उसे संशय या स्मृति नहीं माना जा सकता, क्योंकि संशय या स्मृति रूप में उसका अनुभव नहीं होता । उनका यह भी कहना है कि परामर्श निश्चय का कारण है, अतः उससे संशय का जन्म नहीं हो सकता । इसलिये उससे १-'अथ' इत्यस्य ११९ पृ.ठे 'चेत् !' इत्यनेन सह सम्बन्धः । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रातसमुच्चय- स्तबक १ लो० १९ अथ 'यो धूमवान् सोऽग्निमान्' इति व्याप्तिज्ञानं धूमवच्चावच्छेदेन ि प्रकारकं तथैव स्मृतिमनुमितिस्थानीयां जनयतिः पर्वतत्वांश उद्बुद्धसंस्कारसहकृताद वा ततः 'पर्वतो वह्निमान' इति स्मृतिः, यथा बुद्धिविषयतावच्छेदकाविच्छन्नशक्तादपि तत्पदाद् निरूक्तशक्तिग्रहाडितसंस्कारेण तत्तद्धर्मावच्छिन्नशक्त्यंश उद्बुद्धेन सहकृतात् पर्वतत्वादिविशिष्टोपस्थितिरिति चेत् ? न, विशिष्योद्बोधक हेतुत्वे गौरवाद् हेत्वाभासादिवैकल्यप्रसङ्गाच | ११६ उत्पन्न होने वाले शान को संशय नहीं माना जा सकता । पर्व स्मृति भी समानाकारक अनुभव से उत्पन्न होती है । उक्तशान से पूर्व सर्वत्र उस ढंग के अनुभव का होना प्रामाणिक नहीं है, अतः समानाकारक अनुभव से उत्पन्न न होने के कारण उक्तवान को स्मृति भी नहीं कहा जा सकता । ( परामर्श से अनुमितिरथानीय स्मृति के जन्म की मान्यता ) इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि महानस चत्थर आदि कई स्थानों में धूम के साथ वह्नि को देख कर इस प्रकार के व्याप्तिज्ञान का होगा प्रायः सभी को मान्य है कि 'भो जो धूमधान होता है वह सब अग्निमान् भी होता है । यह पाप्तिज्ञान धूमवrane से भासित होने वाले पर्वत आदि सभो धूमाश्रय देशों में विशेषणविधया अग्नि को विषय करता है। इस शान से इसी प्रकार का संस्कार उत्पन्न होता है, जो मनुष्य के भीतर सुरक्षित रहता है। इस संस्कार से युक्त मनुष्य जब कभी दूर से पर्वत आदि में धूम को देखता है तब उसका यह संस्कार उबुद्ध हो जाता है, और इसके फल स्वरूप उसे इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न होती है। यह स्मृति हो अनुमिति का स्थान ग्रहण करती है, इसी से धूम के माश्रय पर्वतभादि पर धूमार्थी मनुष्य के गमन आदि व्यवहारों की उपपत्ति होती है। अतः धूम के परामर्श से अग्नि के अनुमित्यात्मक अनुभय की उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। ऐसा मानने पर यदि यह प्रश्न हो कि "धूमार्थो को पर्वत पर जाने के लिये उसे 'पर्वतोऽनिमान्' इस प्रकार का ज्ञान अपेक्षित है, और यह शाम 'जो जो धूमवान् है षह सब अग्निमान् है' इस प्रकार के अनुभव और संस्कार से नहीं उत्पन्न हो सकता क्यों कि अनुभव और संस्कार अपने ही जैसी स्मृति उत्पन्न करने में समर्थ होते है”- सो इसके समाधान में यह कहा जा सकता है कि 'जो जो धूमवान् है यह सब अग्निमान् है' इस संस्कार से भी 'पर्वतो धूमवान्' इस प्रकार के ज्ञानरूप उद्बोधक के सहयोग से 'पर्वतो वह्निमान्' इस प्रकार की स्मृति का जन्म हो सकता है। कहने का आशय यह है कि उक्त संस्कार धूमवस्वरूप से भासमान पर्वतआदि सभी धूमाश्रय देशो में अग्नि को विषय करता है । अतः सामान्यरूप से तो उस संस्कार से धूमवस्वरूप से ही पर्वत मादि में अग्नि की स्मृति उत्पन्न होती है, किन्तु जब 'पर्वतो धूमवान्' इस प्रकार के ज्ञान से उक्त संस्कार उद्बुद्ध होता है तब वह "यो धूमवान् सोऽग्निमान" इस रूप में उबुङ न होकर 'पर्वतो द्विमान' इसी रूप में उबुद्ध होता है । अतः उससे 'पर्वतो हिमान' इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका बहि. वि० ११७ पेसा मानने पर यदि यह प्रश्न उठे कि-"यो धूमधान सोऽग्निमान्' यह संस्कार तो घुमवस्वरूप से ही पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता है, पर्यतत्वमादिरूपों से तो पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता नहीं तो फिर वह 'पर्वतोऽग्निमान्' इस रूप में कैसे उबुद्ध हो सकेगा "-तो इसका उत्तर यह है कि 'यो यो धमयान् स सोऽग्निमान्' का अर्थ है 'यद्यद्धर्माधच्छिन्नो धमवान् तत्तधर्मावच्छिन्नोऽग्निमान्' । इस प्रकार यह शान और इससे उत्पन्न संस्कार धमाश्रयता के अवच्छेवक पर्वतत्वमादिरूप से ही पर्वत आदि में अग्नि को विषय करता है । अतः इस संस्कार के 'पर्वतो धमघान्' इस शान से 'पर्वतोऽग्निमान्' इस रूप में उबुद्ध होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि 'पर्वतो धमयान्' यह शान धमाश्रयता के अवच्छेदकरूप से पर्वतत्व को विषय न कर स्वरूपतः पर्यसत्य को विषय करने के कारण उक्तसंस्कार को धमाश्रयतावच्छेवकत्वअंश में उबुद्ध न कर स्वरूयतः पर्वतत्वांश में हो उबुद्ध कर सकता है। ____"किसी विशेष अंश में उद्बुद्ध न होकर अन्य अंशो में ही उद्बुद्ध होना और अनुद्योधित अंश को छोड कर अन्यअंशो में ही विसरशस्मृति को उत्पन्न करना" संस्कार के विषय में पाक की यह एकमात्र अपनी ही कल्पना नहीं है, अपितु यह तथ्य शब्द आदि को प्रमाण मानने वाले दार्शनिकों को भी मान्य है। इस सम्बन्ध में उदाहरण के रूप में 'तत्' पद को प्रस्तुत किया जा सकता है । यह सभी को मान्य है कि जो भी पदार्थ प्रथमतः बुद्धिस्थ रहता है, तत्पन् से उस सभी का बोध होता है, इस लिये बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वरूप से भासमान घटत्व, पटत्य आदि समस्त घर्मों से विशिष्ट अर्थों में 'सत्' पद की शक्ति मानी जाती है। उस शक्ति का शान 'बुद्धिचिषयतावच्छेदकावच्छिम्नः तत्पदशक्यः'-मर्थात् बुद्धिविषयतावच्छेदक का आश्रय तत्पद का शक्य होता है' इस रूप में होता है। इस ज्ञान से उत्पन्न होनेवाला संस्कार बुद्धिविषयतावच्छेदकत्वरूप से घटत्व, परत्व, आदि समस्तधर्मों से विशिष्ट अर्थ में तत्पर की शक्ति को विषय करता है । जब कभी कोई मनुष्य 'तत्' पद को सुनता है, तष उसे जिस प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ में बुद्धिविषयताचच्छेदकधर्म का शान होता है, अथवा जिस प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ उसे बुद्धिस्थ होता है, तरपद की शक्ति को विषय करनेवाला उक्तसंस्कार उसी प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ में उन्धुम होता है, और उसके द्वारा तत्पद से उसी प्रकार के धर्म से विशिष्ट अर्थ की स्मृप्ति होती है। जैसे 'गृहे घटा, तमानय' इस प्रकार के पाक्य को सुमने पर श्रोता को 'घट' शब्द से स्वरूपतः घटत्यविशिष्ट अर्थ बुद्धिस्थ होता है, अतः उक्त वाक्य में आये तत्पद से स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट अर्थ की ही स्मृति होती है, क्योंकि स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट को बुद्धिस्थ बनाने वाले तत्पद के शान से तस्पद की शक्ति को विषय करने वाला उक्त संस्कार बुद्धि विषयतावच्छेदकस्य अंशमें उद र न होकर स्वरूपतः घटत्वविशिष्ट में ही उवुद्ध होता है, और उससे 'युद्धिविषयतावच्छेदका घच्छिन्नः तत्पदशक्यः' ऐसी स्मृति न होकर 'घटः तत्पदशक्य.' इस प्रकार की हो स्मृति उत्पन्न होती है। यदि इस प्रकार की स्मृति को उत्पत्ति म मानी जायगी तो सपनघटितवाक्य से स्वरूपतः घटत्व आदि से विशिष्ट अर्थ का बोध न हो सकेगा, और उसके फलस्वरूप तत्पद्घटित वाक्य से लोकव्यवहार का उच्छेद हो जायगा । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो. ३९ __ अतः जिस प्रकार बुद्धिविषयतावच्छेदकावच्छिम्न में तत्पद के शक्तिशान से उत्पन्न संस्कार विशेष उद्बोधक द्वारा बुद्धिविषयतावच्छेदकत्व अंश में उद्बुद्ध न हो कर स्वरूपतः घटत्य आदि में ही उन्बुद्ध होकर स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट अर्थों में तत्पदको शक्ति को विषय करने वाली स्मृति को उत्पन्न कर तत्पद से स्वरूपतः घटस्वादिविशिष्ट की उपस्थिति उत्पन्न करने में सहायक होता है, उसी प्रकार धूमा. प्रयतावच्छेनक पर्वतस्वादिविशिष्ट में अग्नि को विषय करने वाला संस्कार भी 'पर्वतो. धूमवान्' इस प्रकार के कानरूप विशेष उद्बोधक द्वारा धमाश्रयतावच्छेदकत्व अश में उद्बुद्ध न होकर स्यरूपतः पर्वतत्वादि अंश में हो उखुख होकर 'पर्वतोऽग्निमान्' इस प्रकार की स्मृति उत्पन्न कर सकता है। फिर इस स्मृति से ही आवश्यक व्यवहार की उपपत्ति हो जाने से 'पर्वतोऽग्निमान्' इस प्रकार के अनुमित्यात्मक अनुभव की उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। (गौरवादिदोषप्रदर्शन) धूमपरामर्श से पति की स्मृति मान कर उसके द्वारा यहि को अनुमिति को गतार्थ करने वाले याठियों के उक्त कथन के प्रतिवाद में ग्रन्थकार का कहना यह है कि-स्मृति के प्रति उद्योधक को विशेषरूप से कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने में गौरव होता है, अतः धूमदर्शन सामान्यरूप से ही 'यो धूमपान सोऽग्निमान्' इस संस्कार का उरोध कर उस आकार की ही स्मृति को उत्पन्न करता है, न कि विशेष रूप से उक्तसंस्कार का उद्बोधन कर विशेष प्रकार की स्मृति को उत्पन्न करता है। इसी प्रकार तत्पद का शान भी सामान्यरूप से हो तत्पर की शक्ति को विषय करने वाले 'बुद्धिविषयतावच्छेदकावछिन्नः तत्पनशक्यः' इसप्रकार के संस्कार को उबुख कर उसी प्रकार की स्मृति उत्पन्न करता है। तत्पदघटित वाक्य से स्वरूपतः घटस्वादिविशिष्ट की स्मृति और स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट की शज अनुभूति तो इसलिये होती है कि बुद्धिविषयतावच्छेदकावरछेदेन तत्पशक्ति को विषय करने वाले मान से 'घटादिः बुद्धिविषयतावच्छेदकधर्मवान्' इस प्रकार के ग्राम के सहयोग से 'घटादिः सत्पद शक्य इस प्रकार का स्वरूपतः घटत्वादिविशिष्ट में भी तत्पद की शक्ति का शान हो जाता है, और उस शान से उत्पन्न संस्कार कालान्तर में सत्पद के शान द्वारा उद. बुख छो कर उस प्रकार की स्मृति उत्पन्न कर देता है। यह स्मृति ही तरपद से स्व. रूपतः घटत्व आदि से विशिष्ट अर्थ को स्मृति और शाद अनुभूति की उत्पत्ति के लिये उसकी सहायक होती है। उक्तरीति से धम परामर्श से बह्नि की स्मृति मानने में एक विशेष प्रकार की बाधा भी है। वह यह कि-यदि धूमपरामर्श से 'यो धूमवान् सोऽग्निमान्' इस प्रकार के शान द्वारा उत्पम्न संस्कार का विशेष रूप में उदयोध मान कर उससे वहि को स्मृति का उदय माना जायगा तो हेस्वाभासों का विलय हो जायगा । काने का आशय यह है कि-हेत्वाभासों को दोष इस लिये माना जाता है कि उनसे अनुमिति, व्याप्तिशान अथवा परामर्श का प्रतिबन्ध होता है, किन्तु हेतुदर्शन से प्रथमतः विद्यमान हेतुमस्यावच्छेवेन साध्यसम्यन्ध को विषय करने वाले संस्कार का Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका बहि. वि. तथाप्यनुमित्यभ्युपगमे प्रमाणान्तरप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अनुमितिस्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वात् । 'यहि न साक्षात्करोमि' इति प्रतीतेर्गुरूत्वादाविव लौकिकविषयताऽभावादेवोपपत्तेः । युक्तं चैतत् , अनुमितित्वावच्छिन्न प्रति चाक्षुषादिसामग्रीप्रतिबन्धकत्वाऽकल्पने लावादिति । तथा च 'इदानी घटः' इत्यादिप्रतीत सम्बन्ध घटकसया, परत्वादिलिनेन वा कालसिद्धिरिति नव्यचार्वाकाशय" इति चेत् । उत्सोधन मानकर यदि पक्ष में साध्य की स्मृति मानी जायगी, तो उसका या उसके किसी कारण का प्रतिबन्धक न होने से हेत्वाभासों को दोष मानना सम्भव न हो सकेगा। अतः हेतु के परामर्श से पक्ष में साध्य की स्मृति मान कर उसके द्वारा अनुमिति को गतार्थ नहीं किया जा सकता । (नव्यचार्वाक के मत में अनुमान-प्रमाणान्तरप्रसङ्ग नहीं है) "हेतु दर्शन से साध्य की स्मृति न मान कर साध्य की अनुमिति मानने पर यह प्रश्न उठ सकता है कि 'यदि अनुमिति एक अतिरिक्तप्रमा है तो उसके अनुरोध से अनुमान नामक अतिरिक्त प्रमाण भी मामना पड़ेगा, और यदि उसे भी मान्यता प्रवान की जायगी तो उस दशा में 'एक मात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य कोई प्रमाण नहीं है, 'इस चार्वाक सिद्धान्त की रक्षा कैसे होगी ?" स प्रश्न के उत्तर में सार्वाक की और से यह कहा जा सकता है कि-मन मिति कोई अतिरिक्त प्रमा नहीं है. शिस्त वह पक प्रकार का मानस-प्रत्यक्ष इस प्रकार अनुमितित्य मानसत्व का ध्याष्य धर्म है, न कि मानसत्व का विरोधी धर्म है । ऐसा मानने पर यदि यह शंका की जाय कि-"यदि अनुमिति मानसप्रत्यक्ष रूप है तो धम परामर्श से वह्नि का मानसप्रत्यन होने पर “वहिं साक्षात्करोमि-मैं घह्रि को प्रत्यक्ष कर रहा हूँ' इस रूप में उस मानसपत्यक्ष का संवेदन होना चाहिये, पर ऐसा न होकर उसके विपरीत यह संवेदन होता है कि-बहिं न साक्षात्करोमि-मैं धति का प्रत्यक्ष नहों कर रहा हूँ'-तो ऐसा क्यों होता है ?"-इस शङ्का का समाधान केवल इतना ही है कि 'पश्यामि, साक्षात्करोमि' इत्यादिरूप उसी वस्तु के प्रत्यक्ष का संवेदन होता है जिसमें उस प्रत्यक्ष की लौकिकविषयता होती है। जैसे,-घट साक्षात्करोमि, परं पश्यामि' इत्यादि। किन्तु जिस वस्तु में प्रत्यक्ष की लौकिकविषयता नहीं होती उस वस्तु के प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मक संवेदन नहीं होता, जैसे, न्यायादि मतों में गुरुत्य का मानसप्रत्यक्ष होने पर भी गुरुत्व में प्रत्यक्ष की लौकिकवियषता न होने से 'गुरुत्वं साक्षात्करोमि पेसा न होकर 'गुरुत्वं न साक्षात्करोमि' पेसा ही संवेदन होता है। उसी प्रकार धमपरामर्श से वह्नि का मानसप्रत्यक्ष होने पर भी 'वह्नि साक्षात्करोमि' इस प्रकार उसका संवेवन न हो कर वह्नि न साक्षात्करोमि इसी प्रकार का संवेदन होता है। विचार करने पर उक्त कल्पना ही युक्तिसंगत प्रतीत होतो है, क्योंकि अनुमिति को यदि मानसप्रत्यक्ष ने मान कर अतिरिक्तप्रमा माना जायगा तो जय जिस विषय की अनुमितिसामग्री के साथ उस विषय के चाक्षुषादिप्रत्यक्ष की भी सामग्री सन्निहित होगो तब उस विषय की अनुमिति के प्रति उस विषय के चाक्षुषादिप्रत्यक्ष Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० शास्त्रवासिमुध्यय-स्तवक १ प्रलो० ३९ की सामग्री को प्रतिबन्धक मानना पडेगा, अन्यथा उस समय उस विषय की अनुमिति के भी उत्पन्न होने को आपत्ति होगी । किन्तु अनुमिति को यदि अतिरिक्त प्रमा न मान कर मानसप्रत्यक्षरूप माना जायगा तो उक्त रीति से प्रतिबन्धक को कल्पना आवश्यक न होगी, क्योंकि अन्य प्रत्यक्ष की सामग्री की अपेक्षा मानसप्रत्यक्ष की सामग्रो के दुयल होने से मानसप्रत्यक्ष के प्रति बाक्षुषादिप्रत्यक्ष की सामग्री को प्रतिवन्धकता सर्वसम्मत है। तो इस प्रकार प्रतिबन्धक की कल्पना में लाघव के अनुरोध से भी हेतुदर्शन के अनम्तर होने वाली साध्यबुद्धि को मानसप्रत्यक्षरूप मानना ही उचित है। (प्रतीति और लिङ्ग से कालपदार्थ की सिद्धि) उक्त रीति से हेतुदर्शन से साध्य के मानसप्रत्यक्ष के उदय को मान्यता सिद्ध होने के फलस्वरूप यह असन्दिग्धरूप से कहा जा सकता है कि-कालसाधक हेतु के सुलभ होने से काल की सिदि भी निर्विवाद है। जैसे, "इवानी घटः-अस्यां सूर्यक्रियायां घटः-सूर्य की अमुक क्रिया में घट है" इस प्रकार की बुद्धि का होना सर्वमान्य है। यह बुद्धि सूर्यक्रिया के साथ सम्बन्ध को विषय करतो है। यह सुनिश्चित है कि सूर्य क्रिया के साथ दूरस्थ घट का कोई साक्षासम्बन्ध सम्भव न होने से कोई परम्परा सम्बन्ध बी मानना होगा, और यह तभी हो सकता है जब सूर्य और घर को जोग्ने वाला कोई पदार्थ हो, जिसके द्वारा सूर्यक्रिया के साथ घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसम घायरूप परम्परासम्बन्ध बम सके । काल एक ऐसा व्यापक पदार्थ है जो एक ही समय सूर्य और घट दोनों से संयुक्त होता है, फलतः घट से संयुक्त होता है काल और काल से संयुक्त होता है सूर्य, और सूर्य का समवायसम्बन्ध होता है उस की क्रिया के साथ । अतः सूर्यनिया के साथ घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायरूप परम्परासम्बन्ध उत्पन्न होता है। "इदानों घटः" यद प्रतीति सूर्य क्रिया के साथ घट के इस परम्परासम्बन्ध से ही सम्पन्न होती है, और इस सम्बन्ध के घटकरूप में ही काल की सिद्धि होती है। परत्व-ज्येष्ठत्व और अपरत्व-कनिष्ठत्व । ये दोनों गुणात्मकधर्म पूर्व और पश्चात् उत्पन्न होने वाले द्रव्यों में प्रत्यसिद्ध है। जिन द्रव्यों में इन गुणों का प्रत्यक्ष होता है, घे द्रव्य इनके समवायिकारण होते हैं. उन द्रव्यों में बहुतर सूर्यक्रिया तथा अल्पतर सूर्यक्रिया का सम्बन्ध ज्ञान क्रम से उनका निमित्तकारण होता है और उन द्रश्यों के साथ किसी अतिरिक्तद्रव्य का संयोग उनका असावायिकारण होता है। उन द्रव्यों के साथ जिस द्रव्य का संयोग उन द्रव्यों में उत्पन्न होने वाले परत्व-अपरत्व का असमवायिकारण होता है उसे लायवतर्क के आधार पर एक और विभु माना जाता है। यदि उसे एक न मामा जायगा तो विभिन्नद्रव्यों में परत्व-अपरत्व को उत्पत्ति के लिये अनन्तद्रव्यों की गुरुतर कल्पना करनी होगी, पचं यदि उसे विभु न माना जायगा तो दूरस्थ-समीपस्थ अनेक व्यों में उसका युगवत् (पककालीन) संयोग न हो सकने से उनमें परस्व-अपरत्व की युगपत् उत्पत्ति न हो सकेगी । तो इस प्रकार परत्व-अपरत्व के असमाथिकारण को उपपन्न करने के लिये जिस द्रव्य की सिद्धि होती है उसे ही काल कहा जाता है, परत्व-अपरत्व के द्वारा सिद्ध होने के कारण उसे परत्वादिलिाक भी कहा जाता है। Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ma स्या० का टीका वहि. वि. १२१ __ अत्राह-- लोकसिद्धस्य कालस्य आश्रये -अङ्गीकारे तु 'हन्त' इति खेदे, मात्मा कथं नाश्रीयते-श्रद्धीयते ? "लोकसिद्धत्वाविशेषेऽपि सकलप्रयोजनहेतोरनन्यसाधारणगुणस्यात्मनोऽनङ्गोकारस, 'तत्सद्वस्तुपरिणामान्यथासिद्धस्य कालाय चाङ्गीकारः, इति पुर:परिस्फुरतोमणिपाषाणयोर्मध्ये मणिपरित्याग-पाषाणग्रहणवदतिशोचनीयं विलसितमिद देवानांप्रियस्य", इति 'हन्त' इत्यनेन सूच्यते ॥३९॥ इन सारे विचारों के निष्कर्षस्वरूप कायचेतना के विषय में चार्वाक के अनु यायियों का यही अभिमत है कि उक्तरीति से जब कालनामक अतिरिक्त पदार्थ की सिद्धि मिधि है तब कालमेद से भूतों और उनके कायाकार परिणामों में मेव पर्व अमेई का समावेश मानने में भी कोई बाधा नहीं है। अतः भूतों के कायाकार परिणाम को चेतना का व्यन्जक मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती। काल की तरह लोकसिद्ध होने से आत्मा को भी स्वीकार करना चाहिए । चार्वाक की ओर से उनके नये अनुयायियों के द्वारा प्रस्तुत किये गये उक्तविचार के विरोध में ग्रन्थकार का यह कहना है कि लोकांस होने के नासे यदि काल का अस्तित्व स्वीकार करने में वार्याक को कोई हिचकिचाहट नहीं है तो उसे लोकसिद्ध आत्मा के प्रति भी श्रद्धावान होना चाहिये । उसका अस्तित्व स्वीकार करने में भी उसे कोई हिचक न होनी चाहिये । यह तो बडे खेद की बात होगी कि-यात्मा, जो समस्त प्रयोजनों का साधक पवं अनन्यसाधारण शान आदि गुणों का आधार है, उसे लोकसिद्ध होते हुये भी अङ्गीकार न किया जाय और अतिरिक्तकाल, जो वस्तु के विभिन्न परिणामों के द्वारा अन्यथासिद्ध हो सकता है, केवल लोकसिद्ध होने के नाते उसे स्वीकार किए जाय । चार्वाक का यह कार्य ठीक उस मूढमति मानव के कार्य के समान अत्यन्त शोचनीय है जो सामने रखे मणि और पाषाण में से मणि को त्याग देता है और पाषाण को उत्साहपूर्वक ग्रहण करता है। कारिका में 'हन्त' इस खेदसूचक शहन को रख कर चार्वाक की इस शोचनीयमनोदशा की ओर संकेत क्रिया किया गया है ॥३९॥ १ तत्तद्वस्तुपरिणामान्यथासिसस्य कालस्य 'काल तत्तद्रस्तु के परिणामों से अन्यथा सिद्ध है' इस कथन का आशय यह है कि अतिरिक्त कालवादी दार्शनिकों ने काल की सिद्धि में मुख्यतया दो हेतुओं का उल्लेख किया है-एक है 'हदानी घटः' इत्यादि प्रतीति, और दूसरा परत्व-अपररव । इदानी घटः' इस प्रतीति की उपपत्ति के लिए सूर्यक्रिया के साथ घट के सम्बन्ध की अपेक्षा है, वह सम्बन्ध स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायरूप हैं । इस सम्बन्ध को सम्पन्न करने के लिये सूर्य और घट के संयोजकरूप में विभु काल का अभ्युपगम आवश्यक माना गया है । इस विषय में केवल इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि सूर्यक्रिया के साथ घट का साक्षात् सम्बन्ध ही मान लेना चाहिये, उक्त परम्परासम्बन्ध की कल्पना अनावश्यक है, सूर्यक्रिया के साथ घर के स्वीकार्य साक्षात्सम्बन्ध को 'कालिक-विशेषणता' शब्द से व्यवहारयोग्य किया जा सकता है, यह सम्बन्ध अतिरिक्तकालवादी को भी मानना पड़ता है। चालु शा. पा. १६ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुदाय-स्तयक १ लोकसिद्धत्वमेवात्मनः स्पष्टयति नात्माऽपि इति । मूलम्-नात्मापि लोके नो सिद्धो जातिस्मरणसंश्रयात् । सर्वेषां तदभावश्च चित्रकर्मविपाकतः ॥४॥ आत्मा लोकेऽपिशव्दतदुपनोविप्रमाणातिरिक्तप्रमाणानुसारिण्यपि, अपिन्निक्रमोऽत्र सम्बध्यते, नो सिद्ध इति न, किन्तु सिद्ध एव, नद्वयादवधारणं प्रतीयते । (जातिस्मरण से आत्मसिद्धि) १० वी कारिका में आत्मा की लोकसिद्धता स्पष्ट की गयी है। कारिका में 'अपि' मात्मा' शब्द के अनन्तर प्रयुक्त है किन्तु उसका क्रम भिन्न है, उसे 'लोक' शम के मनम्तर पढना चाहिये । इसी प्रकार 'मात्मा' शब्द के पूर्व में प्रयुक्त 'न' शब्द को 'नो सिद्धः' के अनन्तर इति' शब्द के साथ पढना चाहिये, जिससे 'न' से 'नो सिद्धः' का निषेध हो कर आत्मा को लोकसिद्धता का अवधारण हो सके। उपर्युक्तरीति से 'अषि और 'न' शब्द के स्थानपरिवर्तन से कारिका का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि परव-अपरस्त्र के बारे में मी केवल इतना कहा जा सकता है कि ये दोनों द्रव्य के गुणात्मक धर्म नहीं है, किन्तु जिस द्रव्य की उत्पत्ति से पूर्व होने वाली सूर्यक्रिया से जो द्रव्य सम्बद्ध होता है वह उससे पर तथा जिस द्रव्य की उत्पत्ति के बाद होने वाली सूर्यक्रिया से जो द्रम सम्बद्ध होता है वह उससे अपर होता है, अतः परत्व-अपरत्व जब गुणात्मक धर्म ही नहीं है तब उनके असमवायिकारण के सम्पादनार्थ फाल की कल्पना असंगत है। निरीक्षककृत टिप्पणी : बतमान सूर्यक्रिया के साथ घट का सम्बन्ध कौन सी चीज़ है ? केवल यही कि सूर्यक्रिया सापेक्ष घट का बत्तनापयांव-वर्ननामरिणाम, जैसे नजेनोसापेक्ष मध्यमाअंगुलि में दीर्घत्व-पर्याय होता है। घट में इस वर्तनापर्याय से 'इदानी घर' वह प्रनीति होती है । जिस प्रकार 'मध्यमा (तर्जनी की अपेक्षा) दीर्घ इस प्रतीति के लिये मध्यमा में तर्जनी के सम्बन्धरूप अतिरिक्तपदार्थ को मानने की कोई आवश्यकता नहीं. इस प्रकार घट में 'इदानी घटा' ईस प्रनीति हेतु सूर्यक्रिया का सम्बन्धरूप कोई अतिरिक्तपदार्थ मानने की आवश्यकता नहीं, मात्र इतना आवश्यक है कि सूर्यक्रिया वर्तमान व घर भी वर्तमान होना चाहिये । 'धनवान चयः' इस प्रतीति में क्या है ? चत्र में धनस्वामित्व नाम का पर्याय-परियाम ही प्रतीति का विषय है. न कि चैत्र व धन के बीच कोई सम्बन्धरूप अतिरिक्तपदार्थ । तब जैसे धनस्वामित्व-परिणाम से ऐसा कोई अतिरिक्तपदार्थ अन्ययासिद्ध हो जाता हैं इस प्रकार 'इदानों घटः' प्रतीति के विषय में घट में वैसा परिणाम ही अन्तर्भूत है, न कि सूयें क्रिया व घट के बीच कोई अतिरिक्तसम्बन्धरूप पदार्थ | जिस प्रकार चैत्र में स्वामित्व धनसापेक्ष हैं, इस प्रकार वट में तादृशवर्तनापरिणाम सूर्यक्रिया सापेक्ष है इतना ही। अतः इस परिणाम से अति रक्त 'काल' पदार्थ अन्यथासिद्ध हो जाता है । घटादि द्रव्य में परत्व-अपरत्व भी घटादि द्रव्य के परिणामविशेष ही हैं, और परत्वपरिणाम अपरदस्योत्पत्ति के पूर्वसमय की सूर्यक्रिया को सापेक्ष होता है । परव-अपरत्व अतिरिकगुणस्वरूप न होने से इन को असमवायिकारण की अपेक्षा ही नहीं तन समवायिकारण के संपादनार्थ कालन्य की कल्पना भी अनावश्यक है। वर्तनापरिणाम से काल अन्यथासिद्ध हो जाता है। Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका व हिं. पि० कुतः ? इत्याह-जातिस्मरणस्य भवान्तरानुभूतार्थविषयस्थ मतिज्ञानविशेषस्य संश्रयात्= लोकेनाङ्गीकरणात् । न हि भवान्तरानुभूतार्थस्मरणमन्वय्यात्पद्रव्यं विनोषपद्यते, शरीरस्य भवान्तराऽननुयायित्वात् । 'भवान्तरादागमनाऽविशेषऽपि केपांचिदेव जातिस्मरणं न सर्वेषामिति कथं विशेषः । इति तटस्पशम.माह-सर्वेषाभिमाध्यतिरिकालो - भारश्व-जातिस्मरणाऽभावश्च, चित्रस्य बहुविधशक्तिकस्य, कर्मणः तदावरणस्य, विपाकः फलप्रदानाभिमुख्यकालस्तस्मात् । ४०॥ अत्रैव दृष्टान्तमाह 'लोकेऽपि' इतिमूलम्-लोकेऽपि नैकत्तः स्थानादागतानां तथेक्ष्यते । अविशेषेण सर्वेषामनुभूतार्थसंस्मृतिः ॥४१॥ लोकेऽपि इहलोकेऽपि, एकतो-विवक्षितात् स्थानाद् आगतानां सर्वेषाम् , अनुभूतार्थसंस्मृतिविशेषेण नेक्ष्यते । कस्यचिदनुभूत यावदर्थस्मृतिः, कस्यचित् कतिपयार्थस्मृतिः कस्यचिच्चार्थमात्राऽस्मृतिरिति विशेषदशनात् । एवं चात्र दृष्टविशेषस्य चित्रकर्मविपाकप्रयोज्यत्वाद् जात्यस्मरणमपि तत्प्रयोज्यमिति सिद्धम् । जो लोग शब्द और शम्बोपजीवी प्रमाणों को न मान कर केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते हैं, उनके मत में भी 'आत्मा नहीं सिद्ध है' यह बात नहीं है, अपितु उन्हें भी आत्मा का अस्तित्व मान्य है। क्योंकि वे लोग भी जातिस्मरण अर्थात् पूर्वजन्म में अनुभूतअर्थ का स्मरण मानते हैं जो जैनदर्शन में मतिमान का ही एक विशेष प्रकार है । यदि विभिन्नजन्मों में अम्बयी आत्मद्रव्य को स्वीकार न किया जायगा तो जातिस्मरण की उपपत्ति न हो सकेगी ! शरीर से जातिस्मरण की उपपत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि किसी एक शरीर का विभिन्नजन्मों से सम्बन्ध नहीं होता । “पूर्वजन्म से नये जन्म में आने वाले मनुष्यों में कुछ ही को जातिस्मरण कयों होता है ? सभी को क्यों नहीं होता ?" इस तटस्थ शङ्का का समाधान यह है कि 'जिन मनुष्यों के मतिशाम विशेष रूप जातिस्मरण के आवरणभूत कर्म का घिपाक-फलप्रदानकाल उपस्थित रहता हैं उन्हें उनके कर्मदोष से जातिस्मरण नहीं होता,' इस प्रकार की कल्पना करने में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि मनुष्य की आत्मा में अनेकजम्मों के अनेकविध कमों की राशि संचित रहती है, जो अपने विपाककाल में फलदायी होती है ॥४॥ (जाति स्मरणाभाव भी विचित्रकर्मविपाक से प्रयोज्य है) पूर्व कारिका में यह बात कहो गयी है कि वर्तमान जन्म में जिन मनुष्यों को पूर्वजन्म में अनुभूत अर्थ का स्मरण नहीं होता, उनका यह स्मरणाभाव उनके जातिस्मरणाव. रणीयकर्म के विपाक के कारण ही होता है, ४१ वी कारिका में दृष्टान्तद्वारा इस बात की पुष्टी की जा रही है लोक में यह देखा जाता है कि जब अनेफलोग एकस्थान से किसी नये स्थान में जाते हैं, तब उन सभी लोगों को पूर्वस्थान में अनुभूत सभी अर्थों को समान Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रषार्त्तासमुच्चय- स्तबक १ श्लो० ४१ अथ तत्र यदंशे संस्कारोद्बोधस्तदंशे स्मरणम्, नष्टचित्तस्य च संस्काराभावाद् न स्मरणम् इत्युद्बोधक संस्काराभावेनास्मरणोपपत्तौ किं तत्प्रतिबन्धकाऽदृष्टप. ल्पनेन ? इति चेत् ? सत्यम्, उद्बोधकानामपि स्मृत्यावरणक्षयोपशमाधायकतयैवोपयोगात् तस्यैव स्मृत्यन्तरङ्गहेतुत्वात्, विनाप्युद्बोधक क्षयोपशमपाटवात् झटितिस्मृतिदर्शनात् । १२४ अर्थों की स्मृति होती रूप से स्मृति नहीं होती, किन्तु कुछ लोगों को अनुभूत सभी है, कुछ लोगों को अनुभूत कुछ ही अर्थों की स्मृति होती है, और कुछ को किसी भी अर्थ को स्मृति नहीं होती। इस प्रकार - "पक हो स्थान से आने वाले मनुष्यों के स्मरण में जो यह विलक्षणता देखी जाती है, उसका कारण उनके कर्मवैचित्र्य को छोड और कुछ नहीं हो सकता। तो जिस प्रकार विभिन्न मनुष्यों को वर्तमान जन्म मैं अनुभूत अर्थों के स्मरण को विलक्षणता उनकी कर्मविलक्षणता से सम्पन्न होती है, उसी प्रकार पूर्वजन्म में अनुभूत अर्थों के स्मरण की विलक्षणता भी मनुष्यों के कम की से सोती है" ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है । इस लिये पूर्व - कारिका में जो यह बात कही गयी है कि "अनेक लोगों को जो पूर्वजन्म का स्मरण नहीं होता उसका मूल उनके चित्रकर्म का विपाक ही होता है," वह पूर्णतया युक्ति संगत है । ( स्मरणप्रतिबन्धक - अदृष्ट को कल्पना आवश्यक है ) प्रश्न हो सकता है कि - "पूर्वानुभूत अने अर्थों में जब जिस अर्थ का संस्कार जिसे उदुख होता है तब उसे उस अर्थ का स्मरण होता है, किन्तु जिस व्यक्ति के अनुभूत अर्थो के संस्कार सम्पूर्ण नष्ट हो जाते हैं उसे संस्काररूप कारण के न होने से किसी भो अर्थ का स्मरण नहीं होता । इस प्रकार जब उद्बोधक और संस्कार के अभाव से पूर्वानुभूत अर्थ के स्मरण का अभाव उत्पन्न हो सकता है, तब स्मरण के प्रति प्रतिबन्धक होता है, इस कल्पना की क्या आवश्यकता है " उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि- पूर्वानुभूत अर्थविषयक संस्कार के रहते हुये भो सदैव उल अर्थ का स्मरण नहीं होता, अतः स्मरण के प्रति अष्ट को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है । इस प्रतिबन्धक के क्षयोपशम के लिये ही उद्बोधक की अपेक्षा होती है । यदि प्रतिबन्धक का अस्तित्व न हो तो उद्बोधक की कोई आवश्यकता ही न होगी । सच बात तो यह है कि स्मरण के 'आवरणकर्म का क्षयो पशमं ही स्मरण का अन्तर कारण है, उद्बोधक द्वारा उसके सम्पन्न होने पर ही स्मरण की उत्पत्ति होती है किन्तु जब क्षयोपशम पडु होता है अर्थात् स्मृति का आवरण इतना दुर्बल होता है कि उद्बोधक के बिना ही उसका क्षयोपशम हो जाता है तब उद्बोधक के न रहने पर भी स्मरण की उत्पत्ति हो जाती है । क्षयोपशम की यह पटुता अर्थात् विशेषकारण के बिना ही क्षयोपशम की सम्पन्नया विषय के पुनः पुनः अनुभव और पुनः पुनः स्मरणरूप विषयाभ्यास पर निर्भर होती है । जो विषय अनेकशः अनुभूत और स्मृत होता रहता है, उसकी स्मृति में विलंब नहीं होता, क्यों कि उस विषय की स्मृति के आवरण का क्षयोपशम, उस विषय की और चित्त के Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० टीका च हिं० वि० संस्कारश्चोत्कर्षतः पक्षष्टिसागरोपमस्थितिकमतिज्ञानभेदान्तःपाती समतिक्रान्तसंख्यातभवावगमस्वरूपमतिज्ञानविशषेजातिस्मरणार्थ न प्राग्यभवीय उपयुज्यते, किन्तु स्मृतिसामान्येऽनुभवव्यापाररक्षार्थ जातिस्मरणनियतेहादिचतुष्टयान्तर्भूत एव, तथाविध. क्रमानुविद्धस्यैव मस्थोपयोगस्य साधनात् । क्वचिदपायमात्रस्य क्वचन धारणामात्रस्य च रत्वेऽपि टोपाटयानुगलक्षणाद । गदाड भगवान् जिनभदगणिक्षमाश्रमणः.... उप्पलदलसयवेहे च दुब्बिहावत्तणेण परिहाइ । समयं व सुक्कसक्कुलिदसणेवि सयाणसुवलद्धी ।।[वि. भा. गा. २९९] ॥इति।। तवमत्रत्यं मत्कृत्तज्ञानार्णवादवसेयम् । अभिमुख होने मात्र से ही सम्पन्न हो जाता है। उसके लिये विशेष उद्घोषक की अपेक्षा नहीं होती। (स्मृति में प्राम्भवीय संस्कार अनुपयुक्त है) संस्कार यह मतिज्ञान के अवग्रह-ईदा-अपाय-धारणा इन चार प्रकारों के अन्तर्गत एक प्रकार (संभवतः धारणास्वरूप) है-अतः भतिज्ञान की उत्कृष्ट स्थिति, अनुत्तर विमान में ३३-३३ सागरोपमवर्ष की आयु वाले दो बार जन्म के हिसाब से, ६६ सागरोपम वर्ष काल तक की होने से संस्कार की भी उत्कृष्टकास्थिति उतमी ही हो सकती है । जब कि जातिकारण अर्थात् अतीत पूर्वजन्मों का स्मरणात्मक मतिज्ञान संख्यात भवों का भी हो सकता है, जिनमें तो संभव है ६६ सागरोपमों से कई अधिक काल भी लगा हो। इनके स्मरण में प्रारभवीय संस्कार तो ६६ सागरोपम के बाद नष्ट हो जाने से, प्राग्भवीय संस्कार कहां से उपयुक्त होगा ? इसलिये मानना होगा कि वैसे जाति स्मरण के लिये प्राग्भवीय संस्कार उपयोग में नहीं आता। ऐसा जातिस्मरण शान तो उनस्थ अर्थात् ज्ञानावरण घाले असर्वच जीव को उस समय होता है जब उसके आवारककर्म का क्षयोपशम होता है अर्थात् उसका विपाकोदय स्थगित हो जाता है। इस क्षयोपशम में वर्तमानमयीय संस्कार ही उपयोगी होता है, जो ईहा अपोह-अगायधारणा के क्रम से उत्पन्न होने वाले जातिस्मरणात्मक मतिज्ञान का हो एक प्रकार विशेष है । इस वर्तमानभवीय संस्कार को उसकी उत्पत्ति में अपेक्षणोय इस लिये माना जाता है जिससे स्मृति सामान्य के प्रति पूर्वानुभव के व्यापार के रूप में संस्कार को उपयो. गिता अक्षुण्ण रह सके । स्मृति के प्रति संस्कार की कारणता का निर्वाह ऐसे जाति स्मरण में प्रारभवोय संस्कार से नहीं किन्तु वर्तमानसंस्कार से इस प्रकार होता हैकोई भी जातिस्मरण शान कुछ भी वैपा देख-सुन कर या याद कर ऊहापोह में सड़ने से होता है । यह ऊहापोह ईद्वादिवतुष्टय अर्थात् ईहा-अपोह-अपाय-धारणा स्वरूप होता है। 'अहो ! मैंने पूर्व में ऐसा कुछ देखा-सुना है ...यह ईहा दुई। "कहां कर देखा १ दो पांच साल में नहीं....यह अपोह हुआ। फिर 'उससे भी पूर्व में देखा लगता है'......यह ईहा हुई । 'बालपन में नहीं, इस जनम में नहीं'.......यह हुआ 'अपोह' । 'हो. . १-उत्पलदलशतवेध इव दुर्विभावत्वेन प्रतिभाति । समकमिव शुष्कशष्कुलीदशने विषयाणामुपलब्धिः ॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .................... शास्त्रवासिमुच्चय-स्तयक १ प्रलो०४१ 'बालकस्य स्तन्यपानप्रवृत्तिरिष्टसाधनताधीसाध्या । सा चानुमितिरूपा । सा च व्याप्त्यादिस्मृतिजन्या । व्याप्त्यादिस्मृतिश्च प्रग्भवीयानुभवसाध्याः इति "वीतरागजन्मादर्शन." न्यायाद् भवान्तरानुगाम्यात्मसिद्धिः' इत्यपरे वर्णयन्ति ।। वस्तुतः स्मरणान्तरान्यथाऽनुपपत्त्यापि लोकसिद्ध एवात्मा, शरोरस्य चैतन्ये बाल्येऽनुभूतस्य तारुण्येऽस्सरणप्रसङ्गात्, चैत्रेणानुभूतस्येव मैत्रेण, बालयुवभरीरयोर्भेदात् परिणामभेदे द्रव्यभेदावश्यकत्वात् ।। पूर्वजन्म में देखा-सुना था, यह दुभा 'अपाय' यानी निर्णय । उसको बराबर ण्याल में लिया जाप-यह हुई 'धारणा' । षही संस्कार है। इससे जातिस्मरण होता है, घ इसमें संस्कार कारणभूत हो हो गया इतना ही कि वह पूर्वभवीय नहीं लेकिन वर्तमानभवीय संस्कार। यहां अगर कोई कहे कि-'मातिस्मरण शान धैसे क्रमिक ईहादिचतुष्टय किये बिना ही उत्पन्न होता है'-तो यह ठीक नहीं, क्योंफि छमस्थपुरुष का उपयोग' अर्थात् मतिमान का पुरज नियमन अवरह-रहा-अपाय-धारणा के क्रमशः उत्पन्न होने से ही सम्पन्न होता है यह सिद्ध किया गया है। यदि कभी किसी को स्फुटरूप से सोधे अपाय भौर धारणा को उत्पत्ति होना प्रतीत होता हो तो वहाँ उसके पूर्व अधग्रह और ईदा की भी कल्पना कर लेनी चाहिये, उन शानों का उदय जो लक्षित नहीं होता वह अतिसत्वर उत्पत्तिरूपदोष के कारण ही नहीं होता, न कि उनकी अनुत्पत्ति के कारण होता है । मदनीय आचार्य श्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य में इस बात को दो प्रकार के दृष्टांतो से स्पष्ट किया है । एक है-पक के उपर एक के कम से रखे हुये कमल के सौ पत्तों का सूत्री द्वारा वेध, और दूसरा है सूखी लम्बो शकुली का चपन । आशय यह है कि जहां अवग्रह, ईहा, अपाय और धारणा का उत्पत्ति क्रम नहीं लक्षित होता, वहाँ एक तो यह कल्पना की जा सकता है कि वे सभी कान उत्पन्न तो क्रम से ही होते हैं, पर उनमें कालव्यवधान इतना सूक्ष्म रहता है कि वह क्रम ठोक उसी प्रकार नहीं लक्षित हो पाता जैसे एक के उपर पक के क्रम से रखे कमल के सौ पत्तों के सूची से होने वाले वेध का क्रम नहीं लक्षित हो पाता । अथवा दूसरी कल्पना यह की जा सकतो है कि वे समी शाम मानो एक काल में ही उत्पन्न होते है वैसा प्रतीत होता है, वह भी ठीक उसो प्रकार जैसे सूखी-लम्बी शकुली के चपाते समय उसके रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, और शब्द का ज्ञान साथ ही उत्पन्न न होता हो। प्रन्थकार ने इस विषय में विशेष जानकारी प्राप्त करने के लिये अपने ज्ञानार्णव नामक ग्रन्थ को देखने का संकेत किया है। अन्य दार्शनिक पक दूसरे प्रकार से जन्मान्तरगामी आत्मा की सिद्धि करते हैं। उनका कहना है कि-नवजात बालक को माता का दुध पीते देख कर दूध पीने में उसकी प्रवृत्ति का अनुमान किया जाता है, अनुमान द्वारा सात प्रवृत्ति से उसके कारण के रूप में इप्रसाधनतासान का अनुमान किया जाता है। अनुमान द्वारा शात यह इप्रसाधनताज्ञान शब्दबोधात्मक या प्रत्यक्षात्मक नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय बालकको Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका घहि. वि. न चोपादनेनानुभूतस्योपादेयेन स्मरणादुपपत्तिः, छिन्नकरादेरनुपादानत्वेन छिन्नकरादेः पूर्वानुभूतास्मरणप्रसङ्गात् । न च 'करेण यदनुभूतं तत् खण्डशरीरोपदानापरकिश्चिदवयवेनाप्यनुभूतमः इति तद्गतवासनासंक्रमाद नानपपत्तिरिति बाध्यम; प्रत्यवयवगतविज्ञानबहुत्वेऽनेकपरामर्शप्रसङ्गाना यावदवयवेषु व्यासज्यवृत्तित्वे च चैतन्यस्य यत्किञ्चिदाश्रयविनाशे बहुत्वसंख्याया इव विनाशासनात्। पूर्वचैतन्यविरहे उत्तरचैतन्यानुत्पादात्. परमाणुगतत्वे तद्गतरूपादिवच्चैतन्यातीन्द्रियत्वप्रसङ्गाच्च । न तो शन्द का संकेतमान होता है और न साधनता के प्रत्यवान के लिये अपेक्षित अन्वय-व्यतिरेक का हो शान होता है, अतः उक्त ज्ञान को अनुमितिरूप माना जाता है। दुग्धपान में इष्टसाधनता की इस अनुमिति से उसके कारणभूत इष्टसाधनता के व्याप्तिशान का अनुमान किया जाता है। यह व्याप्तिशान भी अनुभवात्मक नहीं माना जा सकता, क्योंकि बालक को इस ध्याप्ति के अनुभव का कोई साधन सुम्भ नहीं होता। अतः उसे स्मरणरूर ही मानना पडता है । इष्टसाधनता की व्याप्ति के इस स्मरण से उसके कारणभूत इष्टसाधनता की व्याप्ति के अनुभव का अनुमान होता है। यह अनुभव इस जन्म में बालक को सम्भव न होने से बालक के पूर्वजन्म का अनुमापक होता है । इस प्रकार बालक के पूर्वजन्म को अनुमापक इस प्रक्रिया से तथा वीतराग का जम्म उपलब्ध न होने से फलित होने वाले-'जो प्राणी जन्म ग्रहण करता है वह रागवान ही होता है, इस न्याय से जन्मान्तरानुगामी मात्मा की सिद्धि होती है। (वर्तमान जन्म में अनुभूत पदार्थ के स्मरण से आत्मसिद्धि) यस्तुस्थिति तो यह है कि-आत्मा की सिद्धि मात्र मातिस्मरण अर्थात् पूर्वजन्मों का स्मरण, किंघा नवजात बालक को दुग्धपान में इष्टसाधनता की व्याप्ति का स्मरण-इन जन्मान्तरीय अनुभवमूलक स्मरणों के ही अनुरोध से नहीं होती, अपितु धर्तमानजन्म के अनुभवमूलक स्मरणों के अनुरोध से भी होती है। कहने का आशय यह है कि शरीर से भिन्न नित्य आत्मा का अस्तित्व न मान कर यदि शरीर को ही चेतन माना जायगा, तो पर्तमानसन्म में ही बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का युवावस्था में स्मरण न हो सकेगा, क्योंकि शरीरयैतन्यघादी के मत में अनुभव और स्मरण का उदय शरीर में ही माना जाता है। तो जैसे चैत्र में परस्पर भेद होने से चत्र द्वारा अनभत विषय का स्मरण मैत्र को नहीं होता, वैसे ही वाल्यावस्था और युवावस्था के शरीरो में भेद होने के कारण बालशरीर द्वारा अनुभूत विषय का स्मरपा युवाशरीर को न हो केगा। यदि यह कहा जाय कि बाह्य शरीर और युवाशरीर एक ही है, क्योंकि बालशरीर और युवाशरीर के परिणाम भिन्न होते हैं। पालशरीर छोटा एवं पतला होता है, युवाशरीर लम्बा एवं घौडा होता है, अत: इस परिणाममे के कारण उसके आश्रयभूत शरीर में भी भेद मानना आवश्यक है, क्योंकि संसार के किसी भी एक दथ्य में दो परिमाणों का होना प्रामाणिक न होने से व्यरूप श्राश्रय में मेद माने बिना उसके परिमाणों में भेद मानना सम्भव नहीं है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ शास्त्रवातसमुच्चय- स्तबक १ श्लो ०४१ ( उपादान से अनूभूत अर्थ का स्मरण उपादेय को नहीं हो सकता ) शरीर चैतन्यवादी की ओर से यह कहा जा सकता है कि स्मरण के प्रति संस्कार -आश्रयता और स्वाश्रयोगदेयता, अन्यतरसम्बन्ध से कारण होता है । संस्कार आश्र यतासम्बन्ध से अनुभवकर्ता में, और स्वाश्रयोपादेयता सम्बन्ध से अनुभवकर्ता के उपादेयकार्य में रहता है, अतः जिस शरीर से किसी विषय का अनुभव होकर उस विषय का संस्कार उत्पन्न होगा, उस संस्कार से उस विषय का स्मरण उस शरोर को भी होगा और उस शरीर के उपादेय अन्य शरीर को भी होगा । स्मरण और संस्कार में इस प्रकार का कार्यकारणभाव मानने पर बालशरीर से अनुभूत विषय का युवाशरीर को स्मरण होने में कोई बाधा न होगी, क्योंकि बालशरोर और युवाशरीर में उपादान उपादेयभाव होने से बालशरीर के अनुभव से उत्पन्न संस्कार स्वाश्रयोपादेयता सम्बन्ध ले युवाशरीर में पहुँच सकेगा । ऐसा मानने पर यदि यह शंका हो कि - "बाल शरीर के नष्ट होने पर उसमें उत्पन्न संस्कार भी नष्ट हो जायगा अतः युवाशरीर में उसका उक्त सम्बन्ध होने पर भी स्वरूपतः अथवा व्यापारतः किसी भी प्रकार उसके न रहने पर उसके स्मरणात्मक कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि यह नियम है कि किसी कारण का कार्य तभी उत्पन्न होता है जब वह कारण या तो स्वयं रहे अथवा उसका कोई व्यापार रहे। बालशरीर का नाश होने पर तद्वत संस्कार का नाश हो जाने से वह संस्कार न तो स्वयं रहता है, और न कोई उसका व्यापार ही रहता है, अतः युवाशरीर में उसके स्मरणात्मक कार्य की उत्पत्ति असंभव है" - तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता हैं कि जब बालशरीर से युवाशरीर की उत्पत्ति होती है तय बालशरीरगत संस्कार से युवा शरीर में समानविषयक नये संस्कार की भी उत्पत्ति हो जाती है । यह संस्कारजन्यसंस्कार भी पूर्वानुभवमूलक होने के कारण पहले संस्कार के समान हो पूर्वानुभव का व्यापार होता है, -: - इस मान्यता के अनुसार संस्कार सर्वत्र आश्रयतासम्बन्ध से ही स्मरण का कारण होता है । अय स्वायमशेयादेयतासम्बन्ध से उसे कारण मानने की आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि उत्पत्तिद्वारा पूर्वशरीरगत संस्कार उत्तरशरीर में संकान्त हो जाता है ।" विचार करने पर शरीर चैतन्यवादी का उपर्युक्तकधन सभीचीन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि करयुक्तशरीर से किसी विषय का अनुभव होने पर कर छेदन के बाद शरीर के करहीन हो जाने पर भी उक्त विषय का स्मरण होता है किन्तु शरीर चैतन्यपक्ष में यह स्मरण न हो सकेगा. क्योंकि छिन्नकर करहीनशरीर का उपादान नहीं होता, अतः छिन्न कर से अनुभूतविषय के संस्कार का करहीन शरीर में संक्रमण न हो सकने से करहीन शरीर की उस विषय का स्मरण नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि " कर से जिस विषय का अनुभव होता है उस विषय का अनुभव शरीर के अन्य ऐसे अवयवों से भी होता है जो करहीन शरीर के भी उपादान होते हैं, अतः उन अवयवों द्वारा करदोन शरीर में करानुभूत विषय के संस्कार का सङ्क्रमण सम्भव न होने से करहीम शरीर में करयुक्तशरीर द्वारा अनुभूत Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- - -- -- ------ ...hand- - - - -- - स्था० का टीका प हिं. पि.. रूपस्कन्धवद् विज्ञानस्कन्धैक्योपगमाद न दोष इति चेत् ? न, तथापि 'योऽ इमनुभवामि सोऽहं स्मरामि' इत्यमेदावमर्शानुपपत्तेः । सादृश्येन वैसदृश्यतिरस्कारात् तथाऽवमर्शः, एवं च क्षणभने स्मृतिकर्वद्रुपपरमाणुपुजानामेव स्मृसिनियामकत्वाद् न कोऽपि दोष इति चेत् ? न, स्थैर्यप्रत्यभिज्ञाप्रामाण्ययोरुपपादयिष्यमाण स्वादिति दिक् ॥४१॥ विषय का स्मरण होने से कोई बाधा नहीं हो सकती"--तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शरीर के अनेक अवयवों में एक विषय का अनेक ज्ञान मानने पर उन अनेक झानों के अनेक परामर्श अनुसन्धान की आपत्ति होगी और समय से विभिन्न अवययो में यदि पक ही व्यासज्यवृत्तिज्ञान तथा तम्मूलक एक ही सज्यवृत्तिसंस्कार माना आयगा तो आश्रयभूत अवयवों में किसी एक अधयव का भी नाश होने पर उम ज्ञान और संस्कार का ठीक उसी प्रकार नाश हो जायगा जिस प्रकार पक मात्रय का नाश होने पर व्यासज्यवृत्तिबहुत्यसंख्या का नाश हो जाता है। फलतः करयुक्त शरोर द्वारा अनुभूत विषय का स्मरण शरीर के करहीन होने पर न हो सकेगा, क्यों कि कर का नाश होने पर पूर्व शरीर के क' आदि वषों में आश्रित हाम का नाश हो जाने से समानविषयकउत्तरशान की उत्पत्ति न हो सकेगी इस दोष के परिवाराचे यदि यह कहा जाय कि-"जब किसी शरीर को कोई शान उत्पन्न होता है तब वह तथा उससे उत्पन्न होने वाला संस्कार उस शरीर में अथवा उसके स्थूल अवयवों में आश्रित न होकर उस शरीर के सभी परमाणुभों में आभित होता है, अतः जब उस शरीर का कर आदि कोई स्थूल अवयप नष्ट होता है तब उस स्थूल अवयव के परमाणु खण्डशरीर से केवल दूर हो जाते हैं, किन्तु उनका नाश नहीं होता। अतः खण्डशरोर के घटक परमाणुओं द्वारा विनष्ट अवयवों से अनुभूत विषय के संस्कार का खण्डशरीर में संक्रमण सम्भव होने से उक्तस्मरण को अनुपपत्ति नहीं हो सकती" -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि शान को परमाणुगत मानने पर परमाणुगत रूप आदि के समान परमाणुगत शान भी अतीन्द्रिय हो जायगा। (पूर्वविज्ञानस्कन्ध से उत्तरविज्ञानस्कन्ध को स्मरण नहीं हो सकता) क्षणभङ्गवादी बौद्ध के मत से यदि यह कहा जाय कि-"शरीर ही बारमा, मोर शरीर यह रूपस्कन्ध, संसास्कन्ध संस्कारस्कन्ध, वेदनास्कन्ध और विधानस्कन्ध इन पांच स्कन्धों की समधि रूप है। इनमें विधानस्कन्ध हो अनुभव स्मरण आदि का उत्पत्ति स्थल है । करयुक्त शरीर के विज्ञानस्कन्ध से करहीन शरीर में ठी उसीके जैसा नया विज्ञान-स्कन्ध उत्पन्न हो जाता है, अतः करयुक्त शरीर के विज्ञानस्कन्ध से अनुभूत विषय का स्मरण करहीन शरीर के विधानस्कन्ध को होने में कोई बाधा नहीं हो सकती"-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि अनुभवकार्य विज्ञानस्कन्ध और स्मरण कर्ता विशानस्कन्ध में मेद होने पर अनुभवका भौर स्माणकर्ता में ममेद शा. वा. १७ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो० ४२ ... प्रकारान्तरेण लोकसिद्धत्वमाह 'दिव्येति - . मूलम् ----दिव्यदर्शनतश्चय तच्छिष्टाऽव्यभिचारतः । पितृकर्मादिसिदश्च हन्त [ नात्माऽयलौकिकः ॥१२॥ - दिव्यदर्शनतश्चैव-पात्रावतारादौ विशिष्टरूपस्य पुंसः स्पष्टमवेक्षणाच्चैव, 'हन्त' इति खेदे, आत्माप्यलौकिको लोकाऽगम्यो न । न हि भूतविशेषस्य मन्त्रविशेषाऽऽक स्याऽऽगमनं सम्भवति, जडत्वात् । न या तत्र विशिष्टशक्तिः सम्भवति । तथा, तेन दिव्यदर्शनविषयेण यच्छिष्टं कथितं तस्याऽव्यभिचारादविसंवादिप्रवृत्तिजनकत्वादपि, तथा बुद्धि न हो सकेगी, जब कि जिस मैंने जिस वस्तु का पहले अनुभव किया था वहो मैं आज उस वस्तु का स्मरण करता हुँ', इस रूप में अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में अमेंदबुद्धि का होना सर्वमान्य है। उक्त दोष के निवारणार्थ यदि यह कहा जाय कि, 'अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में में उक्तअमेदबुद्धिरूप ऐक्य की प्रत्यभिक्षा होती है, वह प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि अनुभवकर्ता और स्मरणकर्ता में मे होने पर भी उनमें ऐप की जो प्रत्यभिशा होती है यह उनके निरतिशयसाश्य के कारण होती है, उनकी असाधारणसमानता से इनकी साधारणअसमानता अभिभूत हो जाती है। इस लिये उनमें अनैक्य का ज्ञान न होने से उनमें ऐक्य का शान निर्वाध हो जाता है। बौदर्शन में प्रत्येक भाव क्षणभार होता है, अतः उस दर्शन में सामान्यरूप से कार्यकारणभाव न मान कर तत्तत्कार्य के प्रति तत्सत्कार्य के अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती (कारण) को सत्तत्कार्यकुर्वपत्वेन कारणता मानी जाती है। जो कार्य जिस कारण के सनस्तर उत्पन्न होता है इस कारण में उस कार्य के उत्पादनानुकूल अतिशय-एक प्रकार का उत्कर्ष होता है, उन अतिशय को बौद्धदर्शनमें कुर्वपत्य कहा जाता है. मिस कार्य का कुर्वदपत्व जिस कारण में रहता है उस कार्य को उत्पति उसी कारण से होती है । उपजाऊ साधासम्पन्न खेत में डाले गये बीज से अाकुर उत्पन्न होता है। किन्तु घर के कोठार में रखे बीन से अकुर नहीं उत्पन्न होता, इस विषमता की उपपत्ति कुर्वपम्ब से ही सम्पादित होतो है, बौद्धदर्शन की इस मान्यता के अनुसार स्मरण के विषय में भी यह कलाना की जा सकती है कि "शरीर के जिस परमाणुपुरज में जिस स्मरण का कुर्चद्पत्य रहता है उस उस परमाणु पुञ्ज में स्मरण की उत्पत्ति होती है। करयुक्त शरीर द्वारा अनुभूतविषय का समाण करहीन शरीर में भी होता है, अत: करयुक्त शीर द्वारा अनुभूतविषय के स्मरण का कुर्वद्रपत्व कर डीन शरीर में भी मान्य है।" . किन्तु विचार करने पर योद्धदर्शन की ये गाने उचित नहीं प्रतीत होती, क्योंकि भाव की स्थिरता अक्षणिकता एवं अनुभव कर्ता और स्मरणकर्ता के पक्य की प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणिकता का युक्तिपूर्वक उपपादन आगे किया जायगा ॥५॥ ४२वीं कारिका में अन्य प्रकार से आत्मा को लोकसिद्धता का प्रतिपादन किया गया है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - - - -- - - -- - -- स्या० क. टोका व हि. वि० तन्निर्वाहकातिशयितज्ञानदेवतिशयस्य विनाऽऽत्मानमसम्भवात् , पितृकर्म=घरप्रदानादिफलकपरलोकगतपितृप्रीत्यनुकुलाचारविशेषः, आदिना चिवालनादिपरिग्रहः तसिदैःतत्फलान्यथानुपपत्तेरपि, तथा तत्फलनिर्वाहकातिशयाऽऽश्रयतयाऽप्यात्मसिद्धेः।। (दिव्यपुरुष के पात्राक्तरण से मामसिद्धि) जिस प्रकार पृथिवी. जाल, आदि भूतपदार्थ लोक में 'अगम्य' दुई य नहीं है, उसी तरह भूतपदार्थी' से भिन्न आत्मा भी लोक में अगम्य नहीं है, किन्तु निवियाद रूपसे लोकगम्य है। उसे जानने के लिए अनेक साधन हैं । जैसे पात्र विशेष में मन्त्र द्वारा - दिव्यपुरुष का अवारण कर उसका अवलोकन किया जाता है, यह बात भूनभिन्न आत्मा को माने विना सम्भव नहीं हो सकनो क्योंकि मन्त्र द्वारा जहभून का आगमन सम्भव नहीं हो सकता । 'मन्त्र से पात्र में विशिष्टशक्ति का उदय हो जाता है' -यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जलपात्र में चेतनशक्ति के प्राकट्य की कल्पना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकती। पात्र विशेष में मन्त्रद्वारा जिस दिव्यपुरुप का दर्शन सम्पादित होता है, यह पुरुष जो कुछ कहना है वह व्यभिचरित' अमत्य नहीं होता । उसके अनुसार होने वाली प्रवृत्ति विसंवादिनी-विफल नहीं होती, इस बात से भी भूतभिन्न आत्मा की सिद्धि होती है, अन्यथा जहभूत द्वारा किसी बात का कथन और फिर उस कथन का अव्यभिचार युक्तियुक्त नहीं हो सकता, क्योंकि किसी नयी अव्यभिचरितमात का कहना ज्ञानातिशय और उसके सम्पादक त्यतिशय के विना संभव नहीं हो सकता और ये दोनों अतिशय आत्मा के अभाव में कथमपि उपपन्न नहीं हो सकते । मृतपितरों के प्रीत्यर्थ जिन भाचारों की अनुष्ठेयता शास्त्रों में वर्णित है तथा जिनके अनुष्ठान से प्रसन्न हुये पिता पुत्र-पौत्रादि को घरप्रदान करते हैं उन आचारों को 'पितृकर्म' कहा जाता है, लोक में इस पितृकर्म को करने की प्रथा प्रचलित है, यदि भूतभिन्न आत्मा का अस्तित्व न माना जायगा तो पितृकर्मों का अनुष्ठान न हो सकेगा. क्योंकि भूतात्मवाद में मृत पितरों का अस्तित्व, आचारविशेष से उनका प्रीतिसम्पादन और उनके द्वारा वरप्रदान, ये बातें कथमपि सिद्ध नहीं हो सकती। . . ___ साँप के सेंसने पर जब मनुष्य विष के प्रकोप से मूञ्छित हो मृत्यु का पाल होने लगता है तब विषवैद्यद्वारा विष उतारने के मन्त्र का प्रयोग होने पर मनुष्य को डसने. वाला सौप जहाँ कहीं भी होता है, वहीं से इंसे हुये मनुष्य के शरीर से अपना विष खोच लेता है, यह बात भी भूतभिन्न आत्मा के अभाव में नहीं बन सकती, क्योंकि साँप यदि शरोर मात्र ही होगा तो यह तो भूतात्मक होने से जड़ है, फिर मन्त्रप्रयोग से उसे यह मान कैसे होगा कि उसे अपना विष घापस खिच लेना चाहिये । साथ ही यह भी विचारणीय है कि सांप का जशरीर दूरस्थित मनुष्य के शरीर से विष को वापस भी कैसे खिंच सकेगा? उपर्युक्त पातों से स्पष्ट है कि विशिष्ट अतिशय के विना उक्त विशिष्ट कार्य नहीं हो सकते अतः उन कार्यों के निर्वाहक अतिशय के आश्रय के रूप में भूतभिन्न आत्मा का अस्तित्व मानना अनिवार्य है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रमा समुच्चय-स्तबक १ श्लोक ४२ ... अत्र यद्यपि हेसुत्रयेणाप्यदृष्टसाधनादेवात्मसिद्धिः, अदृष्टं चालौकिकम्, इति लोकसिद्धत्वं व्याहतम्, तथाप्यनायत्याऽदृष्टकल्पनात् तत्र शब्दस्यानपेक्षणाल्लोकप्रसिद्धकार्येण लोकमसिद्धत्वमित्यमिमानः । न चातिशयस्य भोग्यनिष्ठतयैवोपपत्तिः, भोगनिर्वाहार्य भोगसमानधिकरणस्यैव तस्य कल्पयितु युक्तत्वात् । अभिहितं चेदं-"संस्कारः पुंस एवेष्टः प्रोक्षणाभ्युक्षणादिभिः" इत्यादिना कुसुमाञ्जली [स्त० १-का० ११] उदयनेनापि | (भदृष्टवारा लोकप्रसिद्धि का साधन दुष्कर नहीं) आत्मा की लोकसिद्धता के समर्थन में कारिका में जिन तीन हेतुओं का उल्लेख किया गया है स्पष्ट है कि उनसे अइष्ट का साधन करके ही उसके आश्रयरूप में आत्मा को सिद्धि की जाती है, इस स्थिति में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-'जिस अदृष्ट के आश्रयरूप में मात्मा का अस्तिष मानना है वह अद्दष्ट ही अब अलौकिक है सब उसके द्वारा सिद्ध होने वाले आत्मा को लोकसिद्ध कैसे कहा जा सकता है? इस प्रश्न का पुत्तर यह है कि उक्त हेतुओं से जो इष्ट की कल्पना की जाती है, वह अगत्या (अनिवार्य होने से) को जाती है, क्योंकि उसके बिना उक्त हेतुओं की उपपत्ति ही नहीं हो सकती । अतः आत्मा उस अलौकिक अदृष्ट का माश्रय होने से यद्यपि अलौकिक ही है तथापि उसकी सिद्धि में शम्पप्रमाण की अपेक्षा न होने से तथा लोकप्रसिद्ध कार्यों द्वारा हो उसको सिद्धि होने से उसे लोकसिद्ध' कहा जा सकता है। (अदृष्ट का आश्रय भोग्य विषयादि नहीं है) अष्ट कारणमात्र से सम्पन्न न हो सकने वाले कार्यों की उत्पत्ति के लिये कल्पनीय अरष्ट को मात्मा में आथित मानने पर यह शंका ऊठ सकती है कि-"अडष्ट के आश्रय रूप में आत्मा को कल्पना उचित नहीं है, क्योंकि उसको भोग्य विषयों में आश्रित मानने में लाघव है, यतः वे विषय प्रयोजनान्तर से सिद्ध है, उनकी नवीन कल्पना नहीं करनी "सशंका के समाधान में यह कहा जा सकता है कि भत पवं भौतिक द्रव्य शरीर मावि जद होने से भोक्ता नहीं हो सकते, अतः भोक्ता के रूप में चेतन आत्मा को मान्यता प्रदान करना आवश्यक है। अदृष्ट की कल्पना भोग का नियमन करने के लिये पीक माती.. येही विषय जिस आत्मा में भोगानकल अहए होता है. उसी के भोग्य बनते. अन्य के नहीं, अतः यह को भोक्ता आत्मा में ही आश्रित मानता शुक्तिसंगत है, क्योंकि अहष्ट यदि भोक्ता में आश्रित न होकर भोग्यविषय में आश्रित होगा तो भोग का व्यधिकरण होने से उसका नियामक न हो सकेगा। न्यायकुसुमाञ्जलि में उदयनाचार्य ने भी कहा है कि यश के साधन बीधि-(धान्यविशेष) के प्रोक्षण (उपर की मोर से मन्त्र द्वारा जल का प्रक्षेप)-अभ्युक्षण (सभी पार्श्वभाग से मन्त्रद्वारा जल का प्रक्षेप) आदि कार्यों से ग्रीहियों में नहीं अपि तु लायवार्थ प्रोक्षणादिकर्ता में ही अदृष्ट की सत्पति मान्य है। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० का टीका व हि. वि. इदमभ्युपगम्योक्तम् , वस्तुतः प्रागुक्तरीत्या लोकसिद्धाश्रयणमपि चार्वाकस्य न युक्तम् । तथाहि-यत्तावदुक्तम् 'अनुभवसिद्धोऽर्थो नापहोतुं शक्यत' इति तदभ्युपगमबाधितम् , अनुभवसिद्धस्य जात्यादिवैशिष्टयास्यानभ्युपगमात् । परीत्यमाणस्य तस्यानुपपत्तेस्तदनुभवबाध इति चेत् ? तर्खनुगताकारविषयत्वेन विशिष्टज्ञानमात्र एव प्रामाण्याभावनिश्चयाद् दुरुद्रो व्यवहारबाधः । तस्य तद्वयाप्यत्वानिश्चयदशागां सन्देहसाम्राज्यात. कोट्यस्मरणदशायां तस्याप्यभावाद् या न तद्वाध इति चेत । तथापि विश्षदर्शिनस्तव प्रवृत्तिशून्यत्वापातः । धर्मिमात्रविषयकाद् निर्विकल्पकाद् धर्मिमात्रविषयिण्या एव प्रवृत्तरभ्युपगमाद् न दोष इति चेत् ? तर्हि यदुक्तमने 'तान्त्रिकलक्षण अक्षितमेवानुमान प्रतिक्षिप्यते, न तु स्वप्रतिपत्तिरूपं व्यवहारचतुरम् ' इति, नकि विस्मृतम् ? कथं च सविकल्पकव्यवहितस्य निर्विकल्पकस्य प्रकृत्युपयोगित्वम् ।, इति यूक्ष्ममीक्ष्यताम् । (लोकसिद्ध का स्वीकार चार्वाक को अनुनित) भूतचैतन्यवादी चार्वाक की ओर से जो यह बात कही गयी है कि "कालमेर से से शरीर और भूतों में भेव-अमेद दोनों मान्य हो सकते हैं" वह 'लाफ सिद्ध काल की सत्ता चार्वाक को मान्य है इस बात को अभ्युपगम करके ही कही गयो है। वस्तुतः तो लोकसिद्ध का आश्रय लेना बाकि के लिये युक्तिसंगत नहीं हो सकता । चार्वाक के अनुयायियों ने जो यह बात कही की लोकसि अर्थ का अपलाप अशक्य है वह चार्वाक की मान्यता के विरुद्ध क्योंकि अयं गौः, अयं अश्वत्यानि अनावों से सिड होने पर भी गौ-अश्व आदि में मोव, अश्वत्व आदि जातियों के वैशिष्ट्य को चार्वाक ने स्वीकार नहीं किया है। यदि यह कहा जाय कि-"परीक्षा करने पर जाति मादि की उपपत्ति न होने से वे अनुभव बाधित हो आते हैं, अतः जातिचैशिष्टय अनुभवसिद्ध ही नहीं है"-तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विशिष्टज्ञानमात्र अप्रमाण हो जायेंगे, क्योंकि वे सभी अनुगत आकार को विषय करते हैं और परीक्षा द्वारा वस्तु का कोई असुगताकार सिद्ध नहीं होता, फलतः विशिज्ञान से होने वाले सम्पूर्ण व्यवहारों का लोप हो जायगा, क्योंकि चार्वाक के मतानुसार इस व्यवहार लोप के परिहार का कोई उपाय नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-"जिस समय विशिष्टशान में प्रामाण्याभाव की व्याप्ति का अर्थात् 'जो जो विशिशान है बह वह अप्रमाण है इस व्याप्ति का निश्चय न होगा उस समय उसमें प्रामाण्याभाव का सन्देह ही हो सकेगा, निश्चय न हो सकेगा, और जिस समय प्रामाण्य - अप्रामाण्य इन दोनों कोधियों की उपस्थिति न होगी उस समय विशिघ्र शान में प्रामाण्याभाव का सम्वेह भो न हो सकेगा । अतः उन समयों में विशिष्टशान से व्यवहार सम्पन्न होने में कोई बाधा न होने से व्यवहार का लोप नहीं हो सकता"तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त रीति से अन्य जनों के व्यवहार का लोप भले न हो, किन्तु चार्षीक के अपने व्यवहार का लोप तो अनिवार्य है, क्योंकि वह तो Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ शास्त्रवार्त्तासमुच्चय- स्तबक १ श्लो० ४२ अथ "विशिष्टज्ञानस्यापि धर्म्यंशे स्वप्रकाशत्वांशे च ग्रामाण्यमेव, अतो धर्म्यंशेप्रामाण्यज्ञानाभावात् तदंशे ततः प्रवृत्युपपत्ति शुत्यादौ 'इदं रजतमित्यादिज्ञानानां च विशिष्टवासनोपनीतरजताद्यलोकधर्म्यवगाहित्वाद् व्यवहारवाया, 'सर्वे ज्ञानं धर्मिण्यभ्रान्तम्' इमि प्रवादश्वानुपपन्न'" इति चेत् ? न विशिष्टवासना सामर्थ्याविशेषे विशिष्टज्ञानमात्रस्यैव विशिष्टालीकर्मिविषयसम्भवात् सम्यङ् मिथ्याज्ञानविभागार्थमेता सृष्ट्यादरे चैकत्र धर्मिणि प्रकारीभूतधर्मसम्, अन्यत्र च तदसस्वमित्येतावन्मास्यैव लाघवेनाश्रयत्वात् । 'इदं रजतमित्यत्र पुरोवर्ति रजतमनुभूयते, अतस्तदेशेsati रजतं कल्प्यते सत्यम्य तु नैवं सत्यस्यैव पुरोवृत्तित्वात् इति विशेषाद् नोक्कापत्तिरिति चेत न, 'इदमितिविषयतायाः क्षयोपशमविशेषनियम्यतया तदनुरोनातिरिकाकल्पनात्, अन्यथाऽनन्ताचीकरजताद्युत्पत्तिविनाशतत्वादिकल्पने गौरवाद, अज्ञातधर्मिणि प्रवृत्यनुपपत्तेश्चेति । अधिकं प्ररहस्ये । · विशेषदर्शी है, उसे तो यह सदैव निश्चय है कि अनुगत आकार का अभाव होने से उसे विषय करने के कारण सभी विशिष्टज्ञान अप्रमाण है । इस पर यदि यह कहा जाय कि - "धर्मों की सत्ता तो नायक को भी स्वीकार्य है, केवल अनुगतधर्म ही उसके मत में अप्रमाणिक हैं । अतः सविकल्पक ज्ञान के अप्रमाण होने पर भी धर्मीमात्र को विषय करने वाला निर्विकल्पक ज्ञान तो उसके मन में प्रमाण है अतः उस ज्ञान से धर्मो का व्यवहार व धर्मी में प्रवृत्ति आदि होने में कोई बाधा नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निर्विकल्पकशान से धर्मिमात्रविषयक व्यवहार मानने पर चार्वाक की ओर से यह कहना असङ्गत हो जायगा कि 'शास्त्रोक्त अनुमान ही क को अमान्य है किन्तु लोकव्यवहार का प्रवर्तक लोकसि अनुमान उसे भी मान्य है', साथ ही यह बात भी असङ्गत है कि निर्मिकल्पकशान से व्यवहार की उपपत्ति हो जाने के कारण व्यवहार का लोप नहीं होगा' क्योंकि निर्विकल्पक के afone का होना सभी को मान्य है, भले धड प्रमाण न हो। तो जब सविकल्पक द्वारा निर्विकल्पक व्यवद्दित हो जाता है, तब व्यवहार के अव्यवहितपूर्व उसका अस्तित्व न होने से उसके द्वारा व्यवहार का निर्वाह कैसे हो सकता है ! (धर्मों और स्वप्रकाशत्व दो अंश में प्रामाणिकविशिष्टज्ञान से प्रवृत्ति उपपत्ति की शंका ) यदि यह कहा जाय कि - "विशिष्टज्ञान भी धर्मी अंश में और स्वप्रकाशत्वश में प्रमाण ही होता है, इसलिये धर्मी अंश में उसमें अप्रामाण्य का ज्ञान न होने से उसके द्वारा धर्मी में सफल प्रवृत्ति हो सकती है। धर्मी में प्रमाणभूत विशिष्टज्ञान से धर्मी में सफलप्रवृतिरूप व्यवहार मानने पर शुक्ति में होने वाले 'इदं रजतम् = यह रजत है इस कान से भी धर्मी में रजतार्थो सफलप्रवृत्तिरूपव्यवहार की आपत्ति होगी, यह शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि शुक्ति में होने वाला रजतशान धर्मोरूप में वास्तव रजत को विषय न कर विशिष्टवासना से उपस्थित असत्य रजत को विषय करता है, अतः उस = Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका घ हिं० वि० १३५ शान के धर्मों अंश में भी अप्रमाण होने से उससे रजतगोचरव्यवहार का सम्भावना नहीं हो सकती, क्योंकि चार्वाक, बौद्ध आदि को 'सभी शाम धर्मी प्रश में अभ्रान्त होता है' यह नियम मान्य नहीं है" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि शुक्तिस्थल में अलोक रजत को उपस्थित करने वाली वासना तथा सत्यरजतस्थल में अलीकरजतत्व धर्म को उपस्थित करने वाली बासना के सामर्थ्य में कोई अन्तर न होने से रजतत्व धर्म को उपस्थित करने वाली वासना रजतत्वविशिष्टरजत्तरूप अलीक धर्मी को भी उपस्थित कर सकती है, अतः सत्यरजत स्थलीय विशिष्टशान भी धर्मी अश में अप्रमाण हो जायगा। फलतः उससे भी धर्मों में सफलप्रवृतिरूपव्यवहार को उपपत्ति न हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि-"वासनावशात् अलीक रजतादि का शान मामने वाले वादो के मतमें भी सम्यग्ज्ञान एवं मिथ्याशाम के रूप में विशिष्टज्ञान का विभाग मान्य है, अतः उसनः उपपति के लिये शुशियालीय मसान को अलीकरजतविषयक और रजतस्थलीय रजतझान को सत्यरजतविषयक मानना आवश्यक होने से अलीकरजन का उपस्थित करने वाली विशिष्ट वासना पचं अलीकरजतत्वादि धर्म को उपस्थित करने वाली अघि शिष्ट वासना के सामर्थ्य में मेद मानना उचित हो सकता है"-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि सम्यग् शान पर्व मिथ्याज्ञान का विभाग तो इस प्रकार से भी किया जा सकता है कि जिस शान में भासमान धर्मी में उस ज्ञान में भासमान धर्म का समाव होता है वह शान सम्यग्रशान होता है और जिस शान में भासमान धर्मी में उस शान में भासमानधर्म का अभाव होता है वह शान मिथ्याज्ञान होता है। इस प्रकार स्वीकार करने में किसी अतिरिक्त सत्य अथवा असत्य पदार्थ को कल्पना न होने से लाघव है, अतः शान के उक्त विभाग की उपपत्ति के लिये धमिवासना और धर्मवासनाके रूपमें या मनामेद की कल्पना की कुष्टि करना उचित नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-"शुक्तिस्थल में भी 'इदं रजतम्' इस रूप में सन्मुखस्थित रजत का अनुभव होता है, किन्तु वहाँ सत्यरमत सन्मुखस्थित नहीं है अतः उस स्थल में सन्मुखस्थित अलीक रअत की कल्पना उचित है, किन्तु रजत स्थल में सत्यरजत सन्मुखस्थित है हो । अतः वहाँ अलीक रजतत्वधर्म की ही कल्पना उचित है, अलीक रजत की कल्पना अनावश्यक होने से उचित नहीं है, अनः रजतशान का सम्यक और मिथ्यारूप में भेद करने के लिये धमिवासना और धर्मशासना के रूप में वासना मेद की कलाना उचित होने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह ठोक नहीं है, क्योंकि इश्माकारशान की विषयता इदर्मश के ज्ञानावरणीयकर्म के क्षयोपशमविशेष से ही सम्पन्न होती है, और वह क्षयोपशमविशेष जैसे रजतस्थल में होता है उसी प्रकार शुक्तिस्थल में भी होता है अतः जैसे रजत स्थल में रजत का इदमाकारज्ञान होता है उसी प्रकार शुक्तिस्थल में भी रजत का इदमाकारमान हो सकता है, अन्तर केवल इतना ही है कि रजतस्थल में रजत सन्निहित होने से इन्द्रिय द्वारा उपनोत होता है और शुक्तिस्थलमें दूरस्थ होने से संस्कारद्वारा या स्मरणतारा उपतीत होता है। प्रतः शुक्तिस्थल में रजत के इदमाकाराम के अनुरोध से अतिरिक्त अलीकरजत की कल्पना · उचित नहीं है क्योंकि अतिरिकरजतकी कल्पना करने पर उस की उत्पत्ति, उसक Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ शास्ववार्तासमुच्चय-स्तबक १ लो० ४२ यच्चाप्युक्तम्-'अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमाद् न प्रमाणान्तरप्रसा इति', तदप्यसत् , तदानीं वह्निमानसस्वीकारे लिङ्कादीनामपि मानसापत्तेः । न चाचार्यमत इत्र तत्र तहानमात्र इष्टापत्तिः, एवमप्युच्छालोपस्थितानां घटादीनां तत्र भानापत्तेः । न च परामर्शादिरूपविशेष सामग्रीविरहाद न तदापचिरिति वाच्यम्, सामान्यसामग्रीवशात् तदापत्तः । न च घटमानसत्वस्य परामर्शप्रतिबध्यतावच्छेदकत्वाद् न तदापत्तिा, पठमानसत्वादीनामपि तथात्वेनानन्तप्रतिवध्यप्रतिबन्धकमावकल्पने गौरवात् , वद्भिघटोभयानुमितिजनकपरामर्शस्थले व्यभिचारात्, तत्तत्परामर्शाभावविशिष्टतसत्परामत्वेिन प्रतिबन्धकत्वे च सुतरां तथात्वात्, सामान्यतो मानसत्वेनैव तव तत्प्रतिबध्यस्वावच्छेदकत्वौचित्यात् । न चैवमनुमितिसामयो सत्या भोगोऽपि कथं भवेदिति वाच्यम्, भोगान्यज्ञान प्रतिबन्धकतावच्छेदकतया समानोतजातिविशेषयता मुखदुःखानामुत्तेजकत्वादिति । अधिकं मकतन्यायालोक-स्याद्वादरहस्ययोरवसेयम् ।।४।। विनाश तथा उसको उत्पसि एवं उसके विनाश के कारण आदि की भी कल्पना करनी पडेगी । इस प्रकार उस पक्ष में महान कल्पना गौरव की आपत्ति होगी । इस विषय में इससे अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिये अन्धकार ने 'प्रा रहस्य' नामक स्वरचित ग्रन्थ की ओर संकेत किया है। (मानसप्रत्यक्ष में अनुमिति का अन्तर्भाव अशक्य) 'लोकसिद्ध अनुमिति को प्रमाण मानने पर प्रत्यक्ष से भिन्न प्रमाण के अङ्गीकार की आपत्ति होगी' इसके उत्तर में चाक की ओर से जो यह बात कही गई कि-'अनुमितित्व को मानसत्व का व्याप्य मानने से प्रमाणान्तर की आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि अमित मानसप्रत्यक्षा में अन्तर्भत है-वह भी ठीक नहीं है. क्योंकि धमपरामर्श के पाद होने वाले वहिकान को यदि मानस मामा जायगा तो हेतु आदि के मानसमान की आपत्ति होगी । यदि यह कहा जाय कि "अनुमिति के प्रमाणान्तरत्व पक्ष में जैसे जदयनाचार्य अनुमिति में लिङ्ग का मान मानते हैं उसी प्रकार अनुमिति को मामसप्रत्यक्षरूप मानने पर भी उसमें हेतु का भान मानने में कोई हानि नहीं है"-तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि अनुमिति के मानसत्वपक्ष में केवल हेतु के ही मानस की आपत्ती न होगी किन्तु साध्य, हेतु, पक्ष आदि का घटक न होकर स्वतन्त्ररूप से जो भी घटादि पदार्थ धूमपरामर्श के समय उपस्थित होंगे उन सभी के मानस प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। ___ 'पहियोधकपरामर्शकाल में घटादि के बोधक परामर्श का अभाव होने से उनके मानसबोध की आपत्ति नहीं हो सकती' यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परामर्श तो मानसविशेष का कारण है, सामान्यमानस का कारण तो पदार्थ की उपस्थितिमात्र ही है, अतः मानसविशेष के परामर्शात्मक कारण के अभाव में भी मामसलामान्य के कारण से पति के मानसविशेषात्मकअनुमिति के साथ घट आदि के सामान्यमानस की आपत्ति Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा. ० टीका व हि. वि. उक्तः शक्तिपक्षः, अथ कार्यपक्षमधिकृत्याह 'काठिन्येति मूकम्- काठिन्याऽबोधरूपाणि भूतान्यध्यक्षसिद्धितः । __ चेतना तु न स दूपा सा कथे तत्फलं भवेत् ? ॥४३॥ काठिन्य कठिनः स्पर्शः पृथिवीमात्रवृत्तिा, इदमुपलक्षणं रसादीनाम् , अनीधो-अचतन्ये, तद्रपाणि तद्धर्मनिरूपितामताअयाणि, भूताने पनियादीनि । कुतः । इत्याहअनिवार्य है, घटमानस के प्रति वह्निमानसात्मकअनुमिति के जनक परामर्श को प्रतिबन्धक मानकर भी इस धापत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इस रीति से आपत्ति का परिहार करने पर घट, पट, मठ, दण्ड मादि मनन्तपदार्थों के मानस के प्रति बलथनुमिति के जनक परामर्श को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होने से अनन्त प्रतियध्यप्रतिबन्धकमाव की गौरवपूर्ण कल्पना करनी होगी। दूसरी बात यह है कि पति के अनुमापक परामर्श के समय यदि घट का भी अनुमापक परामर्श रहता है, तो पति की अनुमिति के साथ घट की भी अनुमिति होती है, अतः घर के मानससामान्य के प्रति वति के अनुमापक परामर्श को प्रतिबन्धक मानने में व्यभिचार भी होगा, यदि इस ध्यभिचार का धारण करने के लिये घटादि के मानस के प्रति घटादिअनुमापक परामर्शा भाष से विशिष्ट वह्नयनुमापकपरामर्श को प्रतियन्धक माना जायगा तो प्रतिबध्य-प्रतिप्रतिबन्धकमाव का कलेवर और गौरवग्रस्त हो जायगा, अतः इससे अच्छा पक्ष यही होगा कि अनुमिति का अन्तभाष मानसशान में न कर मानसमात्र के प्रति परामर्श को प्रतिबन्धक मान लिया जाय । यदि यह शंका हो कि-"मान समात्र के प्रति परामर्श को प्रतिबन्धक मान लेने पर परामर्शरूप 'अनुमितिसामग्री के समय सुखदुःख का मानसप्रत्यक्षरूप भोग भी । हो सकेगा"-तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि सुखदुःख का उदय होने पर उस का भोग ही होता है, अन्य कोई शान नहीं होता, अतः भोगान्यज्ञान के प्रति सुख और दुःख को उभयानुगतजातिरूप से प्रतिबन्धक मानना अनिवार्य है, तो फिर उस उभयानुगतजातिरूप से सुख-दुःख को मानसमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिबन्धकता में उत्तेजक मान कर मानसमात्र के प्रति विजातीयसुखाद्यभावविशिभनुमितिसामग्री को प्रतिबन्धक भानने से अनुमितिसामग्रो के समय सुखदुःख के भोग की अनुपपत्ति नहीं होगी। इस विषय में अधिक जानकारी के लिये ग्रन्थकार ने अपने अन्ध न्यायालोक और स्थाद्वादरहस्य को देखने का संकेत किया है ॥४२॥ ३३ से ४२ वी कारिका पर्यन्त पोतना भूतों की शक्ति है इस शक्तिपक्ष की समीक्षा की गई, अब ४३ चौ कारिका में 'चेतना भूतों का कार्य है' इस कार्यपक्ष की समीक्षा की गयी है। जय प्रथमक्षण भावी शान में अप्रमाण्य का ज्ञान, दूसरे क्षण में परामर्श और तीसरे क्षण में सुख यो दुःख उत्पन्न हो तब ऐसी स्थिति बन सकती है। शा. पा. १८ - - Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवातसमुच्चय- स्तबक १ श्लो० ४३ अध्यक्षसिद्धितः 'कठिना पृथिवी, अचेतना पृथिवी' इत्यादिसत्यप्रत्यक्षविषयत्वात् । चैतन्यपाऽचाक्षुषत्वात् तदभावो यद्यपि न चाक्षुषः, तथाप्युपनयजन्यं मानसं तदध्यक्ष ग्राम् । चेतना तु तद्रूपा न - काठिन्याबोधसामानाधिकरण्येन प्रमीयमाणा न, अतः सा चेतना, तत्फलं भृतोपादेया, कथं भवेत ? न कथञ्चिदित्यर्थः । अजायत एव 'स्थूलोऽहम् गौरोऽहम्' इतिवत् 'कटिनोऽहम्' इत्यपि प्रतीतिः, प्रतीयत एव च जाड्यमपि 'मामहं न जानामि' इत्यादिना इति किमापादितम् । इति 'चेत् ? न, 'कठिनोऽहम्' इत्यादि प्रतीतेर्भ्रमत्वात् इदन्त्वसामानाधिकरण्येनाऽनुभूयमानस्य काठिन्यादेरहेत्व सामानाधिकरण्याऽयोगाच्च, इत्युपरिष्टाद्विवेचयिष्यते । 'मामहं न जानामि' इति प्रतीतिश्च विशेषज्ञानाभावविषया न तु ज्ञानासामान्याभावविषया : भावरूपाऽज्ञान विषया वा ज्ञानाऽज्ञानयोर्विरोधान् भावरूपाऽज्ञानस्यान्यत्र निरस्तत्वाच्चेतिदिक् ||४३|| [ चेतना भूतों का कार्य भी नहीं हो सकती ] काठिन्य का अर्थ है कठिनस्पर्श, यह केवल पृथिवी में रहता है, वह रस आदि का भी उपलक्षण बोधक है, अबोध का अर्थ है अचेतनता, ये धर्म पृथिवो आदि भूर्ती में आश्रित है, यह बात प्रत्यक्षप्रमाण से सिद्ध है, क्योंकि कठिनता, अचेतनता आदि धर्म 'पृथिवी कठिन होती है, पृथिवी अवेतन होती है' इन सत्य प्रत्यक्षों के विषय है । चेतनता आत्मा या बुद्धि का धर्म होने से चाक्षुष नहीं है, अतः उसका अभाव अचेतनता भी हालाँकि खाप नहीं हो सकती, क्योंकि 'जो भाव जिस इन्द्रिय से प्राथ होता है। उसका अभाव भी उसी इन्द्रिय से ग्राह्य होता है' यह नियम है, तो भी उपनय अर्थात् ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से पृथिवी में उसका भी मानसप्रत्यक्ष हो सकता है। 'पृथिवी अवेतन होती है' इस ज्ञान को जो प्रत्यक्ष कहा गया है यह इस उपनयाधीन मानसप्रत्यक्ष की ही दृष्टि से कहा गया है। १३८ चेतना काठिन्य और अचेतनता के समानाधिकरणधर्म के रूपमें प्रमाणद्वारा गृहीत नहीं होती, अतः वह भूतों का उपादेय कार्य नहीं हो सकती। यदि कठिनता, जडला और चेतना में सामानाधिकरण्य माना जायगा, तो चेतन प्राणी को 'मैं कठिन हैं, मैं अड़ हूँ इस प्रकार के अनुभव की आपत्ति होगी । यदि यह शंका हो कि - " चेतन प्राणी को मैं स्थूल हुँ, मैं गोरा हुँ' इस प्रकार जैसे अपनी स्थूलता और गौरता की प्रतीत होती है, वैसे ही 'मैं कठिन हुँ' इस प्रकार उसे अपनी कविता की भी प्रतीति होती है, 'मैं अपने आपको नहीं जानता' इस प्रकार मनुष्य को अपनी जडता की भी प्रतोति होती ही है, अतः कठिनता, जडता और चेतना को समानाधिकरण मानने पर मैं जड हुँ' इस प्रकार की प्रतीति का जो आपादन किया गया वह असंगत है, चूंकि वस्तुस्थिति में आपादन कैसा ?" तो उसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि मनुष्य को यह जो प्रतीति होती है कि 'मैं कठिन हुँ' वह भ्रम है और आपत्ति उस प्रकार की प्रमात्मक प्रतीति की दी गई है, अतः उक्त मापत्ति असंगत नहीं है । यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि 'इदन्त्य' जड पदार्थ का धर्म है, और अन्त्य Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका व हिं. वि० १३९ भूतकार्यत्वे उत्पत्तेः प्राक् सच्चाऽसत्यपक्षयोर्दोषमाह - 'प्रत्येक मि’तिमूलम् -- प्रत्येकमसती तेषु न च स्याद रेणुतैलवत् । सती चेदुपलभ्येत भिन्नरूपेषु सर्वदा ॥ ४४ ॥ I प्रत्येकमसंहतावस्थायां तेषु भूतेषु असती अविद्यमाना चेतना, न च नैव स्यात् किंवत् ? इत्याह-रेणुतैलवद= रैणो तैलवदित्यर्थः । यथा तिलेषु विद्यमानमेव तिकसंघातात् तैलमुपपद्यते, रेणुषु तु प्रागविद्यमानं तत्संघातादपि नोत्पद्यते तथा भूतेषु प्रागबिधमाना चेतना तत्संघातादपि नोत्पद्येत, तसंघातजन्यत्वस्य तत्रास्तित्वव्याप्यत्वादिति भावः । वेद-र्याद, भिन्नरूपेपु - असंहतेषु भूतेषु सती = विद्यमाना चेतनाः तदा सर्वदापलभ्येत तदुपलम्भप्रतिबन्धनिराकरणाद आपादकयाज्यादिति भावः ॥ ४४ ॥ वेतन का धर्म है अतः दन्त्व के समानाधिकरण धर्म के रूप में अनुभूत होने वाले काहिन्य आदि अहन्त्व के समानाधिकरण नहीं हो सकते, इस बातका विवेचन आगे किया जायगा । "मैं अपने आपको नहीं जानता' इस रूप में जड़ता की प्रतीति होने की जो बात कही गयी, उससे ज्ञानसामान्याभाव रूप जड़ता की प्रतीति के आपादन को भी असंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मैं अपने आपको नहीं जानता' यह प्रतीति ज्ञानसामान्याभाव को विषय नहीं करती किन्तु विशेषज्ञान के अभाव को विषय करती है, अर्थात् यह प्रतीति छाता को अपने विषय में विशेषज्ञान का अभाव बताती है। अथवा यह कहा जा सकता है कि उक्त प्रतोति ज्ञाता को अपने विशेषस्वरूप के भावात्मक अज्ञान को बताती है, हाँ भाषात्मक अशान का अन्यत्र खण्डन होने से इस पक्ष को अमान्य कर दिया जायगा तो ज्ञान और ज्ञानसामान्याभाव में विरोध होने से 'उक्तप्रतीति ज्ञान सामान्याभाव को विषय करती है' इस पक्ष को भी अमान्य कर 'उक्तप्रतीति विशेषज्ञानाभाष को विषय करती है' यही मानना होगा, अतः ज्ञानसामान्याभाव की प्रतीति के आपादान में कोई असंगति नहीं हो सकती ||४३|| ४४ कारिका में चेतना को भूत का कार्य मानने पर उत्पत्ति के पूर्व भूतों में चेतना के सत्य-असत्व शेनों पक्षों में दोष बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार हैप्रत्येक असंतभूत में यदि चेतना असत् होगी तो उसकी दशा रेणु-तैल जैसी होगी, कहने का आशय यह है कि जैसे प्रत्येक तिल में पहले से विद्यमान होने के कारण तिलसंबात से तेल की उत्पत्ति होती है, किन्तु रेणु धूलिकण में विद्यमान न होने से धूलिसंघात से भी तेल की उत्पति नहीं होती उसी प्रकार प्रत्येक भूत में यदि चेतना अविद्यमान होगी तो भूतों के संघात से भी उसकी उत्पत्ति न हो सकेगो, क्योंकि यह नियम है कि जो जिसके संघात से उत्पन्न होता है वह असंध की अवस्था में भी उसमें रहता है, अतः बेतना भूतों में यदि असंघातभवस्था में न रहेगी तो उनका संघात होने पर भी वह उत्पन्न न हो सकेगी। और यदि भूतों के संघात से खेतना की उत्पत्ति के उपपादनाथं प्रत्येक भूत में चेतना को विद्यमान माना जायगा तो संघात के पूर्व प्रत्येकभूत में Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तषक १ उक्तनियमे व्यभिचारमाशङ्कते 'भसिदिति-- मूळम्-असत्स्थूल बमण्यादौ पटादो दृश्यते यथा । तथाऽसत्येव भूतेषु चेतनाऽपीति चेन्मतिः ॥१५॥ असद अविद्यमानं, स्थूलव-महत्वम्, मण्वादौ परमाण्वादौ, आदिना द्वयणुकग्रहः, घटादौम्घटस्य परम्परया कारणीभूते त्र्यणुके, यथा दृश्यते-चाक्षुपविषयीक्रियते; तथा भूतेषु असंहतभूतेषु, असत्येव अविद्यमानव चेतनाऽपि भवति, सामय्येव हि कार्योत्पत्तिव्याप्या, न तु तत्र तदुत्पत्तौ तत्र तदस्तित्वमपि तन्त्रम् , देशनियमस्यापि प्रागभावेन विशिष्टपरिणामेन वाऽन्यथासिद्धेः, इति चेद् मतिः परिकल्पना तब ? ॥४५॥ तत्रोच्यते-'नाऽसदितिभी चेतना की अभिव्यक्ति को आपत्ति होगी, क्योंकि अभिव्यक्ति का कोई प्रतिबन्धक है नहीं और आपादक है। ४५ यी कारिका में जो जिसके संघात से उत्पन्न होता है, वह संघात के पूर्व भी उसमें रहता है' इस नियम में व्यभिचार की शङ्का व्यक्त की जा रही है-- [अविद्यमान चेतना भी उत्पन्न हो सकती है-पूर्वपक्ष जैसे स्थूलत्व-महत्त्व परमाणु और द्रघणुक में नहीं रहता किन्तु परमाणुओं और यणुकों का जो व्यणुकरूप संघात घट का परम्परया कारण होता है उसमें देखा जाता है उसी प्रकार संघात के पूर्व भूतों में अविद्यमान भी चेतना भूतों के संघात से उत्पन्न हो सकती है। क्योंकि सामग्री कारणों की समग्रता ही कायोत्पत्ति की नियामक होती है, उत्पसियेश में उत्पत्ति के पूर्व कार्य की विद्यमानता उत्पत्ति को नियामक नहीं होती। यदि यह शक्का हो कि- "कारणों को समनता होने पर भी सभी कारणों में कार्य की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु कारणधिशेष में ही कार्य की उत्पत्ति होती है, जैसे दण्ड, सक्र, धीवर, जल, कुलाल और कपाल सभी के एकत्र होने पर उत्पन्न होनेवाला घट-वण्ड, सक आदि में उत्पन्न न होकर कपाल में ही उत्पन्न होता है अतः कारणविशेष में कार्य की उत्पत्ति को नियन्त्रित करने के लिये यह नियम मानना आवश्यक है कि 'जो कार्य जिस कारण में उत्पत्ति के पूर्व रहता है, वह कार्य उसी कार में उत्पन्न होता है"- तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि-उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता मामने पर तो उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होती है, अतः उक्त नियम को न मान कर यह नियम मानना उचित है कि 'जिस कारण में जिस कार्य का प्रागभाव होता है उसी कारण में उस कार्य की उत्पत्ति होती है और कार्य का प्रागभाव उसके उपदानकारण में ही रहता है।' अयषा यह भी कल्पना की जा सकती है कि 'जिस कारणा में कार्यास्मना परिणत होने की योग्यता होती है उसी में कार्य को उत्पत्ति होती है, अतः उक्त नियम निराधार है॥४॥ ४६ वीं कारिका में 'परमाणुओं में महत्त्व न होने पर भी उनके संघातभूत व्यगुको में महश्य की उत्पत्ति होती है' इस बात का खण्डन किया गया है जो इस प्रकार है Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्या० क० टीका व हिं० वि० मूलम् - नासत्स्थूलम्बमण्णादौ तेभ्य एव तदुद्भवात् । सतस्तत्समुत्पादो न युक्तोऽतिप्रसङ्गतः ॥ ४६ ॥ ) अण्वादौ==परमाणुद्रयणुकयोः, स्थूलत्वं महस्वम् असद - अविद्यमानं न । कुतः १ इत्याह तेभ्य एव = त्र्यणुक कारणत्वेन प्रसिद्धेभ्य एवाणुभ्यः, तदुद्भवात् = स्थूलत्वोत्पादात् । विपक्षे बाधकमाह - असत: - अणुष्व विद्यमानस्य स्थूलत्वस्य तत्समुत्पाद:- तेभ्योऽणुभ्य उद्भवः अतिप्रसङ्गतो न युक्तः ॥ ४६ ॥ अति 'मे'ति १४१ मूलम् - पञ्चमस्यापि भूतस्य तेभ्योऽसत्त्वाविशेषतः । भवेदुत्पत्तिरेवं न तव संख्या न युज्यते ॥ ४७ ॥ यदि तत्रादपि तत्पद्यते, तदाऽसच्चाऽविशेषतः पञ्चमस्थापि भूतस्योत्पत्तिः भवेत् । न चेष्टापत्तिरित्याह-- एवं च पञ्चमभूतोत्यन्यभ्युपगमे च तत्वसंख्या = ' चत्वार्येव भूतानि' इति विभागवचनोरा न युज्यते । एवं च देशनियमार्थमुक्तनियमाऽफल्पनेऽप्यसदनुत्पत्तिनिर्वादाय तन्नियमकल्पनमावश्यकमिति भावः । कारणाभावादेव पञ्चमभूतानुत्पत्तिः न त्वसत्त्वादिति चेत् ? सोऽपि कुतः ? असत्त्वादिति चेत् ? तदपि कुतः कारणाभावादिति चेद् ? अन्योन्याश्रयः । अस्ती[ असत् की उत्पत्ति में अतिप्रसङ्ग ] परमाणु और द्रयणुक में महत्त्व को अविद्यमान नहीं माना जा सकता, क्योंकि उन्हीं से suणुक में महत्त्व की उत्पत्ति होती है। यदि परमाणु और द्वयणुक में महत्व के अधिमान होने पर भी उनसे महत्त्व की उत्पत्ति मानी जायगी, तो अतिप्रसङ्ग होगा ॥४६॥ ४७ वीं कारिका में उक्त अतिप्रसंग को स्पष्ट किया गया है जो इस प्रकार हैयदि परमाणु अपने में अधिधमान महर को उत्पन्न कर सकते हैं, तो उन्हें अविद्यमान पञ्चमभूत को भी उत्पन्न करना माहिये। इस आपत्ति को शिरोधार्य नहीं किया जा सकता, क्योंकि यह मान लेने पर 'चार हो भूत होते हैं इस प्रकार भूतों की जो संक्या निर्धारित है, वह असंगत हो जायगी । अतः देशविशेष में कार्य की उत्पत्ति के नियमनार्थ उक्त नियम की भावदपकता भले न हो पर असत् की अनुत्पत्ति के नियमार्थ उक्त नियम मानना अनिवार्य है । 'म भूत की अनुपसि पत्रमभूत के असत्य से कारणाभाव से है, यह नहीं कहा जा सकता; क्योंकि rea से, और कारण का अवश्य कारण के अभाव से, होगा । अतः कारणाभाव का उपपादन में हो सकने से 'कारणाभाव से पञ्चममहाभूत की अनुत्पति है' यह कहना युक्ति संगत नहीं है। "अस्ति है' इस वुद्धि का विषय म होने से परममहाभूत की अनुत्पत्ति है" यह भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि 'अस्ति' नहीं, किन्तु पश्चमभूत के 'कारण का अभाव कारण के ऐसा मानने पर अन्योन्याभय Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो०४७ तिधीविषयत्वाऽभावादिति चेत् ! न, प्रध्वंसा प्राभिचारान् । विभिनयमावला. विषयत्वादिति चेत् ? न, 'पञ्चमं भूतं नास्ति' इति निषेधव्यवहारस्य जागरूकत्वात् । भूते पश्चमत्वं नास्तीति चेत् ? न, विकल्पविषयस्याखण्डस्यैव पञ्चमभूतस्य प्रतियोगित्वोल्लेखाभ्युपगमात्, अन्यथा इह पञ्चमं भूतं नास्ति' इत्यस्यानुपपसेः, त्वदभ्युपगमविरोधाच्च । ननु "एवं सत्कार्यवादसाम्राज्यापत्तिः, तथा च कार्यान्प्रागपि तदुपलब्धिप्रसङ्गः । अनाविर्भावाद् न तत्प्रसङ्ग इति चेत् ! न, अनाविर्भावस्य निर्वक्तु मशक्यत्वात् , उपलम्भाभावरूपत्वे तस्यात्माऽश्रयान्, व्यन्जकाधभावरूपत्वे च व्यजकादीनां प्राकपेसी बुद्धि का विषय न होने पर भी प्रध्वंस की उत्पत्ति होती है। विधि-निषेध अर्थात् अस्ति-नास्ति व्यवहार का विषय न होने से पञ्चमभूत की अनुत्पति है, यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि उसमें 'पञ्चमं भूतं नास्ति-पाँचवां भूत नहीं है', इस प्रकार के मिषेध व्यवहार को विषयता विद्यमान है। 'जसमं भूतं नास्ति' यह व्यवहार पाँचवे भूत के निषेध को नहीं विषय करता किन्तु भूत में पञ्चमत्व के निषेध को विषय करता है"-यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उक्त व्यवहार में विकल्पात्मक शान से उपस्थापित अखण्ड पञ्चमभून में अभावप्रतियोगित्व का पट उरलेस विद्यमान है । अर्थात् वस्तुगत्या सत् नहीं किन्तु वैकल्पिक पञ्चमभूत को उहिट कर उसी के निषेध का यानी धर्मा के ही अभाव का स्पष्ट उल्लेख किया गया है, न कि उस धर्मी में पञ्चमत्यरूप धर्म के अभाव का स्पष्ट उल्लेख । क्योंकि ऐसा न मानेगे तो 'इह पञ्चम भूतं नास्ति-इस स्थान में पांचवां भूत नहीं है। इस व्यवहार की उत्पत्ति न हो सकेगी, क्योंकि इह और 'भूतम् ' में समानविभक्तिकत्व न होने से उक्त व्यवहार को 'इस भूत में पञ्चमत्व नहीं है। इस प्रकार भूत में पञ्चमत्व के निषेध का ग्राहक न माना जा सकने के कारण उक्त व्यवहार की अनुपपत्ति अपरिहार्य है। भूत में पञ्चमत्व के निषेध को उक्त व्यवहार का विषय मान कर पाँचवे भूत के निषेधव्यवहार को अङ्गीकार न करने में चार्वाक के अपने अभ्युपगम का भी विरोध है, क्योंकि उनके अभ्युपगम के अनुसार तो अलोक को भी अभावप्रतियोगिता होती है, अलीक का भी अभाव मान्य है। [कञ्चित् सदसत्कार्यवाद की सिद्धि] "पञ्चमभूत को अनुत्पत्ति यदि उसके असव के नाते मानी जायगी तो सभी कार्य स्वोत्पत्ति के पूर्व सत् होने से असत्व के नाते उन सभी की अनुत्पत्ति की आपत्ति होगी। आपत्ति के निवारणार्थ कार्यों को उत्पत्ति के पूर्व भी सत् मानना पडेगा, फलतः उत्पत्ति के पूर्व भी कार्य की उपलब्धि को आपत्ति होगी। 'कार्य के रहने पर भी उस का आविर्भाव न होने से उत्पत्ति के पूर्व उसकी उपलब्धि नहीं होती'-यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि आविर्भाय के अभाव का निधन अशक्य है। जैसे कि-माविर्भाव का अभाव यदि उपलम्मामायरूप होगा तो उत्पत्ति के पूर्व कार्य की अनुपलब्धि को कार्य के मनुपलम्म से प्रयुक्त मानने पर आत्माश्रय होगा । और यदि व्यमकामाषरूप होगा तो Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका व हिं. विं० १४३ सरखे तदभावायोगात् असत्वे च तदनुत्पथेः । किं च एवमुत्पत्तिपदार्थं एत्र विली - येत, कार्यस्य प्रागपि सत्त्वेनाथक्षण सम्बन्धरूपतदभावात् इत्युभयतः पाशा रज्जुः" इति चेत् ! न कथञ्चित् सदसत्कार्यवादे दोषाभावात् द्रव्यरूपेण प्राक्सतः पर्यायस्य द्रव्यरूपेण प्राप्युपलम्भात्, पर्याय रूपेणाद्यक्षण सम्बन्धरूपपर्यायोत्पत्तेः सुघटत्वाच्च । न चेदेवम् उपादानकारणत्वमेव दुर्घटं स्वात् समवाय निरासेन स्वसमवेत कार्यकारित्वलक्षण तदसिद्धेः उपादाने कार्यप्राग्भावोऽपि न सिध्येत् प्रतियोगित्वविशेषण तयोः स्वरूपान सिरेकात् इत्यन्यत्र विस्तरः | " , J , कार्योत्पत्ति के पूर्व कार्यसत्यपक्ष में कार्य के साथ चक्षुः सन्निकर्ष आदि व्यञ्जक के रहने से उत्पति के पूर्व व्यञ्जकाभावरूप आधिर्भावाभाव का उपपादन असम्भव होगा । और यदि व्यक्त कार्य के साथ ही लगे चक्षुःसन्निकर्षादि को व्यञ्जक मान कर पवं कार्योंपति के पूर्व पेसे व्यञ्जक का असत्व मान कर इसके बल पर व्यञ्जक का समर्थन किया जायगा, तो सत्कार्यवादी के मन में असत् की उत्पत्ति न होने से व्यब्जक की उत्पत्ति न हो सकने के कारण व्यञ्जक का अभाव सदा बना रहेगा; फलतः उत्पत्ति के वक्त भी कार्य की उपलब्धि न हो सकेगी। उत्पत्ति के पूर्व कार्य की सत्ता मानने पर उत्पत्ति पदार्थ का ही विलय हो जायगा क्योंकि आरक्षण के साथ कार्य के सम्बन्ध को हो उत्पत्ति कहा जाता है; किन्तु यदि कार्य पहले से ही सत् अर्थात् विद्यमान रहेगा तो उसका कोई आद्यश्रण ही न होगा, क्योंकि किसी कार्य का आधक्षण वही हो सकता है जिसके पूर्व कार्य का अस्तित्व न हो, और उसी क्षण से कार्यसत्त्व का प्रारंभ होता हो । किन्तु यह सत्कार्यवाद में सम्भव नहीं है । फलतः दोनों और बन्धन की रस्सी झुल रही है, जिधर मुडे उधर ही बन्धन का भय है । कार्य की उत्पत्ति के पूर्व यदि उसका अलत्व माने तो श्रमभूत के समान उसकी अनुत्पत्ति का बन्धन, और यदि उत्पत्ति के पूर्व कार्य का सच माने तो उत्पत्ति से पूर्व कार्य की उपलब्धि की आपति का तथा उत्पत्तिपदार्थ के विलय का बन्धन । अतः उत्पत्ति के पूत्र कार्य के सत्व या असत्व किसी भी पक्ष के दोष मुक्त न हो सकने से कार्योत्पत्ति की समस्या दुःसमाधेय है । उक्त संकट के परिहारार्थ जैन दर्शन की ओर से ग्रन्थकार का कहना है कि उत्पत्ति के पूर्व कार्य का पूर्णरूपेण सत्य अथवा पूर्णरूपेण असत्य मानने में उक्त दोष अवश्य है, अतः इन दोनों पकान्त पक्षों को छोड़ कर इस अनेकांन पक्ष को स्वीकार करमा हिये कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कथंचित् सत् भी होता है और कथं चित् असत् भी होता है। कहने का आशय यह है कि कार्य में दो अंश होते है एक द्रव्य, दूसरा पर्याय | द्रव्यरूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व भी सत् होता है, और उस द्रव्यरूप में उसका उपलम्भ भी होता है। पर्यायरूप में कार्य उत्पत्ति के पूर्व असत् होता है, और उस रूप में उस समय उसकी उपलब्धि नहीं होती । पर्याय का पूर्व में सद्भाव न होने से पर्यायरूप में कार्य का आयक्षण सम्भव होने से आद्यक्षणसम्बन्धरूप उत्पत्तिपदार्थ की उपपत्ति में भी कोई बाधा नहीं हो सकती। उदाहरणार्थ, घटरूपकार्य की चर्चा की Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रधा समुच्चय-स्तवक १ प्रलो.ve अत एव शाक्योलूकानां सत्कार्यवादे, मांख्यानां चाऽसत्कार्यवादे पर्यनुयोगा एकान्तपक्षनिवृत्यंशे फलवन्त एक तान्त्रिकैरुताः । तथा च सम्मती वभाण वादी सिद्रसेनः – “जे संतवायदोसे सक्कोलूआ भणन्ति संखाणं । संखा य असवाए, तेर्सि सव्वे वि ते सच्चा" इति ॥१४७॥ पराभिप्रायमाशङ्कय निराकुरुते 'तज्जननेति – मूलम् - तज्जननस्वभावा नेत्यत्र मान न विद्यते । ___ स्थूलत्वोत्पाद इष्टश्चेत्तत्सद्भावेऽप्यसौ समः ॥४८॥ अण्वादयः 'तग्जननस्वभावा न'-असदुलादरवभागान तो न योऽयदुत्पत्तिः । न चैतारशस्वाभाष्येऽपि पर्यनुयोगावकाशः, 'वहिर्दहति, नाकाशम्' इत्यादिवत् जा सकती है । घट में दो अंश है-एक मृत्तिका और दूसरा जलाहरणादि की क्षमता का सम्पादक उसका आकार । इनमें मृत्तिका द्रव्य है और घटका आकार पर्याय मृत्तिका के रूप में घट पहले से है पर आकार के रूप में पहले से नहीं है । जिस क्षण इस आकार का उदय होता है वह आकारात्मक घट का आद्यक्षण है। उसके साथ घटाकार का सम्बन्ध हो घट को उत्पमि है । इसी प्रकार अन्य कार्यों में भी द्रव्य पर्याय का विचार कर समस्या का समाधान कर लेना चाहिये। उत्पत्ति के पर्व कार्य के इस सनसत्ववाद को न माना जायगा तो कार्य की उपा दानकारणता का उपपादन न हो सकेगा; क्योंकि न्यायादिमतों में दो ही प्रकार से कार्य की उपादानकारणता का निर्वचन होता, एक यह कि जो स्व में समवायसम्बन्ध सै विद्यमान कार्यका कारण होता है, वह उपादानकारण होता है, और दूसरा यह कि जिस कारण में कार्य का प्रागभाव विशेणना स्थरूपसम्बन्ध से रहता है व उपादान कारण होता है। इनमें पहला निर्वेचन समवायसम्बन्ध अप्रामाणिक होने से असंगत है। और दूसरा निर्वचन इस लिये असंगत है कि प्रतियोगिता और विशेषणता ये प्रतियोगी एवं विशेषण से भिन्न दुचंच होने से न तो प्रागभाव के साथ कार्य का प्रतियोगितासम्बन्ध हो सकता है, और न अनुयोगी के साथ अभाव का विशेषणता सम्बन्ध बन सकता । अतः उपादान में कार्यप्रागभाष होने को बात का उपपावन शक्य मही है। इसलिये सरकार्यवाद में बौद्ध और वैशेषिकों का दोषप्रदर्शन पर्व असाकार्यपाद में सांख्यों का दोषप्रदर्शन सर्वथा सार्थक है. क्योंकि उसमें पकान्तपक्ष की निवृत्ति होती है ओ जैनसिद्धान्त को अभिमत है। सम्मतितकग्रनय में वावी सिद्धसेनसूरि ने भी कहा है कि सत्कार्यवाव में बौद्धों और वैशेषिकों से कहे दोष तथा असत्कार्यवाद में सांस्यों से कई दोष पूर्णतया सत्य हैं ॥७॥ ४८ वी कारिका में पकान्समत्कार्यवादि के अभिमाय की आशंका का निराकरण किया गया है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है___ "अणु आदि का शा स्वभाव है कि वे असत् को उत्पन्न मही करते । अतः कार्य को पर्यायरूप में गदि असन् माना जायता सो अगु भादि कारणो मे उसकी उत्पत्ति Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व िचिक स्वभावस्याऽपर्यनुयोज्यत्वादिति भावः । 'इति' उपदर्शितायाम्, 'अत्र' प्रकृतोपपत्ची च 'मान-प्रमाणं न विद्यते, निर्विकल्पकेन तदग्रहणात, तद्विषयत्वस्य निश्चयैकोन्नेयत्वादिति भावः । स्थूलखोत्याद इष्ट:=अभिमतः, अतस्तदन्यथानुपपत्तिरेवाऽतिषसाभकायासदजननस्वभावत्वेनोपादानस्योपेयहेतुत्वे मानमिति चेद ! 'असौ स्थूलत्वोत्पादः, तत्सद्भावेऽपि तेष्वणुषु कथंचित्सत्त्वेऽपि 'समः' -तुल्यनिर्वाहः । तथा च लाघवात् सज्जननस्वभावत्वेनयोपादानस्योपेयहेतुता, न स्वसदजननस्वभावत्वेन । इति सत्कार्यसिद्धिः ॥४८॥ अत्र कार्यस्य सत्त्वं पूर्वोत्तरकालयोः पर्यायार्थिकनयानुसारिणः पर्यायद्वारेणैवादिशन्ति, द्रव्यस्य निष्पन्नत्वेनाऽदलत्वात् । द्रव्यार्थिकनयानुसारिणस्तु तेन रूपेण द्रव्यस्यानुत्पन्नत्वाद् द्रव्य द्वारैवादिशन्ति । तदिदमुभयाभिप्रोयेणोक्तं सम्मतौन हो सकेगी। अणु आदि के इस स्वभाव के बारे में कारण की जिज्ञासा नहीं की जा सकती, क्योंकि 'अग्नि दाहक होता है, आकाश दाहक नहीं होता' अग्नि और आकाश के इस स्वभाव के बारे में जैसे कारण की जिज्ञासा नहीं होती उसी प्रकार किसी भी वस्तु के किसी भी स्वभाव के बारे में कारण को जिज्ञासा को उचित नहीं माना जाता।" इस पर सिद्धान्ता का कहना यह है कि स्वभाव के बारे में कारण की जिबासा को उचित भले न माना जाय, पर उसके प्रमाण के बारे में तो प्रश्न हो ही सकता है, और यदि वस्तु के किसी स्वभाव को प्रमाणसिद्धता का समर्थन न हो सके तो उसका त्याग करना ही होगा, अतः अणुओं के उक्त स्वभाव में कोई प्रमाण न होने से उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । प्रतिवादी के मत में निर्विकल्पकप्रत्यक्ष ही प्रमाण है, और वछ निश्चय सधिकल्पक रत्यक्ष ले अनुमित होता है। अणुओं का उक्त स्वभाव निश्चयगम्य न होने से निर्विकलाकगम्य भी नहीं माना जा सकता, अतः वह स्वीकार्य नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-"अणुओं से स्थूलत्व की उत्पत्ति इष्ट है, किन्तु स्थूलत्व को अपत् मानने पर भी यदि उसकी उत्पत्ति मानी जायगी, तो अन्य सभी अलत् पदार्थों के भी उत्पत्ति को आपत्ति होगी, अतः उपादान कारण का असत् । को उत्पन्न न करने का स्वभाव मान कर उत्पत्ति से पूर्व सत् ही स्थूलत्व की उत्पत्ति माननी होगी तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अणुओं में स्थूलत्य का कचित् सस्व मान कर तथा उपादानकारण को सदुत्पादकस्वभारमान कर भी स्थूलत्व की उत्पत्ति का समर्थन किया जा सकता है । इसलिये उपादानकारण का असत् को उत्पन्न , करने का स्वभाव अप्रमाणिक है । इस प्रकार सत्कार्यवाद कथञ्चित्सत्कार्यवाद रूप में मान्य है। [दो दृष्टि से पूर्वोत्तरकाल में कार्य की सत्ता] जगत् का प्रत्येक पदार्थ सामान्य-विशेष उभयात्मक है । अर्थात् संसार के समस्त पदार्थों में परस्पर साम्य भी है और वैषम्य भी है। पदाथों की परस्पर विषमता ही शा.बा.१५ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तबक १ प्रलो०४९ 'पच्चुप्पन्नं भाव विगयभविस्सेहि जं सम्मपणेइ, एयं पडुच्चवयणं'।( का. ३-३) इति । अत्र चाधाभिप्रायेण टीकाकृतोक्तम्, 'न चात्मादिद्रव्य विज्ञानादिपर्यायोत्पचौ दलं, तस्य निष्पन्नत्वाद्' इति । अन्त्याभिप्रायेण चोपचयमाह ग्रन्थकारः प्रकृते मूलम्---न च मूर्ताणुसंधातभिन्न स्थूलत्वमित्यदः । __ तेषामेव तथाभावो न्याय्यं मानाऽविरोधतः ॥४९॥ न च मूर्तानां रूपवतामणूनां परमानना, संघालात्=परिणामविशेषाद् भिन्न स्थूलत्वं. मूर्तपदं चाक्षुषयोग्यत्वनिर्वाहाय, इतिहेतोः अदः स्थूलत्वं तेषामेव परमाणूनामेव, तथाभावः कथञ्चिदेकत्वपरिणामः न्याय्यं घटमानकम्, मानाऽविरोधतः = प्रमाणाऽवि. रोधात् । तदन्यभेदेन तत्त्वसाधनान्न हेतुसाध्ययोविशेषः । एवं च स्थूलत्वस्य मार्गाप द्रव्यरूपेण सर्व सिद्धम् ॥ उनका प्रातिस्विकरूप है और समानता ही उनका सामान्यरूप है। जैनदशन में सामान्य को द्रव्य और विशेष को पर्याय शक से अभिहित किया गया है। इस संसार की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्याय उभयात्मक है। वस्तु के 'द्रव्य'-सामान्यअंश को ग्रहण करने वाली इष्टि को द्रव्याथिकनय, और 'पर्याय'-विशेष अंश को ग्रहण करनेवाली दृष्टि को पर्यायाचिकमय कहा जाता है। नय का अर्थ है, दृष्टि बुद्धि-विचार । उत्पत्ति के पूर्व और उत्पत्ति के बाद कार्य का ओ सत्त्व माना जाता है, वह पर्यायार्थिक भयवादी के अनुसार पर्यायों पर आधारित होता है । अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कोई एक पर्याय रहता है, व उत्पत्ति के बाद पहला पर्याय निवृत्त हो जाता है और दूसरा पर्याय अस्तित्व में आ आता है। इस रष्टि के अनुसार द्रव्य तो प्रथमतःसिद्ध होने के कारण उत्पति का भागी नहीं होता, सिद्ध को उत्पन्न क्या होना । द्रव्याधिनयवादी के अनुसार द्रव्य स्वरूपतः पूर्वसिद्ध होने पर भी पर्यायरूप में असिद्ध रहता है, अतः उत्पत्ति के पूर्व पर्व उत्पत्ति बाद के कार्य का सत्त्व द्रव्य पर आधारित होना है । अर्थात् कार्य की उत्पत्ति के पूर्व कार्य का आधारद्रव्य पकपर्याय से रहता है और दूसरे पर्याय से नहीं रहता। उत्पत्ति के बाद पूर्व के पर्याय से रहना बन्द कर दूसरे पर्याय से रहने लगता है। इस लिये इस नय के अनुसार द्रव्य भी पर्यायों की उत्पत्ति में भागीदार होता है । सम्मानितर्क ग्रन्थ में पर्यायार्थिक, द्रव्याथिक दोनों अभिप्रायों से यह कहा गया है कि वर्तमान भाष (पदार्थ) को अतीत–अनागत पर्यायों से समन्वित करता है, वह वचन प्रतीत्य(सम्यग् बोधजन्य) वचन है"। सम्मतितर्क के दीकाकार ने पर्यायाथिकनय के अनुसार उक्तकथम की व्याख्या करते हुये यह कहा है कि 'आत्मा आदि द्रव्य विज्ञान आदि पर्यायों की उत्पत्ति का घटक नहीं होता, क्योंकि वह पहले से ही सिद्ध रहता है। सिद्ध की उत्पत्ति क्या ? किन्तु प्रस्तुतग्रन्थ के रचयिता हरिभवसूरि ने अपनी इस कारिका में द्रव्याथिक नय का अवलम्बन कर पायों के रूप में द्रव्य के उपचय आदि का वर्णन किया है. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० का टीका व हिं० वि० अत्रेयं प्रक्रिया-अथनामे वैकत्वसंख्यासंयोगमहत्वऽपरत्वादिपर्यायैरुत्पत्तिः, बहुत्वसंख्याविभागाशुपरिमाणपरत्वादिपर्यायैश्वानुत्पत्तिः, न च विशिष्टाऽण्यतिरिक्तमत्रयविद्रव्य मऽस्ति । न चैव विभक्तस्येव संडतस्याप्यणोरचाक्षुपत्वं स्वादिति वाच्यम्, 'नानास्वभावत्वेन तस्य तदा चाक्षुषजननस्वभावत्वात्, विप्रकृष्टसन्निकृष्टेषु रेण्वादिषु तथास्त्रमान्यदर्शनात्, प्रतिप्रतिपत्तारं च प्रति नियमेनाऽनतिप्रसङ्गात्' इति बहवः । 'त्र्यणुकत्वादिघटकसंयोगानां पिशाचत्वादिघटकसंयोगभिन्नानां वैजात्येन द्रव्यसाक्षात्कारत्वावछिन्न प्रति हेतुत्वात्' इति अन्यतन्त्रानुसृताः । [उत्पत्ति के पहले भी स्थूलद की विद्यमानता __ स्थूलत्व' स्थूलपदार्थ 'भूत'- रूपयुक्तपरमाणुओं के संघात से भिन्न नहीं होता । सहन्यमान परमाणुओं के रूपयुक्त होने से उनके संघातरूप स्थूलत्य में चाक्षुषप्रत्यक्ष की योग्यता भी आ जाती है । स्थूलत्व यतः परमाणुओं के संघात से भिन्न नहों होता अतः वह परमाणुओं का ही कथञ्चित् पकत्वपरिणाम होता है, अर्थात् स्थूलत्व पकत्व में परिणत परमाणुस्वरूप ही होता है । इस प्रकार स्थूलत्व में परमाणुसंधातभिन्नमेद से परमाणुरूपता का साधन करने से हेतु और साध्य में अवैलक्षण्य की भी भापति मही होती, क्योंकि दोनों में स्वरूपतः ऐक्य होने पर भी हेतुतावच्छेदक परमाणुसंघासभिन्नभेदत्व और साध्यतावच्छेदक परमाणुरूपता के मेव होने से चैलक्षण्य की उपपत्ति हो जाती है। "संहन्यमान परमाणु अनेक हैं, अनेक का पकरवपरिणाम अयुक्त है"-यह शंका भी नहीं की जा सकती, क्योंकि अनेक की एकान्ततः पकात्मकता असंपत हो सकती है पर कश्चित्-सापेक्ष पकामकता असंगत नहीं हो सकती, अर्धात् परमाणु व्यक्तिरूप में अनेक होते हुये भी समूहरूप में एक कहे जा सकते हैं। इस प्रकार समूहरूप में एकीभूत परमाणु ही स्थूलत्व स्थूलपदार्थ है, और जब स्थूलत्व पकात्मनापरिणत परमाणुरूप ही है तब द्रव्य के रूप में उत्पत्ति के पूर्व भी स्थूलत्व का सत्य निर्विवाद है। [परमाणुओं से स्थूलद्रव्योत्पत्ति की प्रक्रिया] अणुओं से स्थूल पदार्थों की उत्पत्ति की रोति इस प्रकार है विभिन्नस्थानों में बिखरे हुये परमाणु जब इकडे होते है तब वे पकत्यसंख्या, परस्परसंयोग, महत्परिमाण, अपरत्व-सामीप्य आदि पर्यायों-आगन्तुकर्मों के साथ उनकी नयीं उत्पसि होती है । और जो पर्याय उनमें पहले थे, जैसे बहुत्व, विभाग, अणुपरिमाण, परत्व-दूरत्व आदि, उन पर्यायों से उनकी नियत्ति होती है। इस लिये पकत्र होने की दशा में परमाणु अनेक, विभक्त, अणु और दूरस्थ न होकर एक, परस्परसंयक्त, महान और निकटस्थ हो जाते हैं, इसी से उस समय यह पक महान द्रव्य है। इस प्रकार का व्यवहार प्रवृत्त होता है । इस व्यवहार के लिये विशेषपर्यायों से विशिध अणओं से भिन्न किसी अषयची द्रष्य की उत्पत्ति मानने की आवश्यकता नहीं होती 1-"विभक रहने पर जैसे अणु चक्षु से गृहीत नहीं होते, वैसे संहत होने पर भी उन्हे बक्षु से गृहीत नहीं होना चाहिये, क्योंकि विभक्त और संहत अणु में भेद नहीं Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ शास्त्रवासिमुच्चय-स्तषक १ प्रलो०४१ तथापि "तन्त्वादिपरिणतानामानां कथं पटादिपरिणामः १ द्रव्यस्थानीयस्य परिणामस्य द्रव्यान्तरस्थानीयपरिणामप्रतिबन्धकत्वात् । अन्यथाऽन्त्यावयविनि द्रव्यान्तरोल्पत्तिप्रसङ्गात् १" इति चेत् ? न, अन्त्यावयविन्यपि पटादौ खण्डपट-महापटाधुत्पत्तिदर्शनात , पटत्वेन पटानाधारत्वाच्च 'पटे पट" इत्यप्रत्ययात् ।। होता"-यह नौका नहीं की जा सकती, क्योंकि अणुओं में स्वभावमेव मान लेने से विभक्तदशा में अचाक्षुषत्व और संहनदशा में चाक्षुषत्व इन दोनों विरोधी धर्मों का उनमें सामञ्जस्य हो सकता है । यह कल्पना कोई अपूर्व कल्पना भी नहीं है क्योंकि दरस्थ और समीपस्थ रेणुकों में अचाक्षुषत्व एव चाक्षुषत्वरूप स्वभावमेद प्रत्यक्षसिद्ध है। इस सन्दर्भ में यह शङ्का हो सकती है कि-"विभक्तअवस्था में वस्तु अचाक्षुष और संहत अवस्था में साक्षष होती है' सह नियम नहीं माना जा सकता, क्योंकि निकटस्थ पुरुष को विभक्तरेणु का भी साक्षुष तथा पिशाच के रूपमें संहतमणु का भी अचाक्षुष होता है यदि उक्त नियम माना जायगा तो विभक्तरेणु में निकटस्थपुरूष के अचाक्षुषत्व और पिशाचरूप में संहतअणुओं के धाक्षुषत्व का अतिप्रसङ्ग होगा।"इस शङ्का के उत्तर में बहुत से विद्वानों का कहना है कि "जो पदार्थकण जिस शाता को जिस स्थल से विभक्त अवस्था में अचाक्षुप होते हैं वे ही पदार्थकण विशेष प्रकार से संहत होने पर उसी माता को उसो स्थान में चाक्षुष होते हैं। इस प्रकार शाता के भेद से नियम की व्यवस्था करने पर उक्त दोष नहीं हो सकता।' पिशाबरूप में संहत अणुओं का चाक्षुष न होने के बारे में अन्यतान्त्रिकों का कहमा है कि "जो उयणुकादिस्वरूपअणुसंधान चाक्षुष होते हैं उनके स्वरूप में प्रविष्ट अणुसंयोग पिशाबात्मक अणुसंघात के स्वरूप में प्रविष्ट अणुसंयोग से विजातीय होता है। यह विजातीयसंयोग हो द्रव्यसाक्षात्कार का कारण होता है। पिशावात्मक अणुसंघात में इस विजातीयसंयोग के न होने से उसका साक्षात्कार नहों होता।" [तन्तुपरिणामआपन्न अणुओं का पटरूपपरिणाम कैसे ? स्थूल द्रव्य को अणुओं का परिणाम मानने पर यह प्रश्न ऊठता है कि-'तन्तु आदि रूप में परिणत अणुओं का पटआदिरूप में परिणाम कैसे होगा १ क्योकि अवयवों से अतिरिक्त अवयवी द्रव्य का अस्तित्व मानने वालों के मत में जैसे पकद्रव्य दूसरे द्रव्य की पुत्पत्ति में प्रतिबन्धक होता है और इसी लिये पक द्रव्य में उपब्ध अणुमों में ट्रष्याम्तर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार आगुपरिणामवादी के मत में 'अणुओं का एक परिणाम उनके दूसरे परिणाम में प्रतिबन्धक होता है' यह नियम माने जाने के कारण तन्तुपरिणाम-पटपरिणाम का प्रतिबन्धक होमा, अतः तन्तुपरिणाम के रहते पटपरिणाम की उत्पत्ति नहीं हो सकती । 'पक द्रश्य के रूप में अणुओं का परिणाम, द्रध्यान्तर के रूप में उनके परिणाम का प्रतिबन्धक होता है' यह नियम यदिन माना जायगा, तो अन्त्यअवयविस्थलीय अगुपरिणाम भी परिणामान्तर का प्रतिबन्धक न होगा - भौर उसके फलस्वरूप अन्त्यावयवी से भी द्रव्यान्तर की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा।"-- Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या. २० टीका व हि. वि० अथ "द्रव्याऽसमवायिकारणीभूतसंयोगनाशेन पूर्वपटनाशोत्तरमेवोत्तरपटोत्पादः । न चैकैकतन्तुसंयोगे द्वितन्तुकादेनाशे त्रितन्तुकाल्पत्तिः. पुनरेकैकतन्तुवियोगे त्रितन्तु कादिनाशे द्वितन्नु कानुत्पत्तिरिति अल्पनागौरमाद् द्वितन्तुकपटादेरेव तन्त्वन्तरसंयोगेन त्रितन्तुककादिपटोत्पादकत्वमिति वाच्यम्, द्वितन्तुकादिक्रमेणोत्पन्नचतुरादितन्तुकयरस्य द्वितन्तुकाऽसमवायिकारणसंयोगनाशाद् द्वितन्तुकादिनाशक्रमेण नाशः, अन्तरा पुनर्वितन्तुकादिक्रमेणोत्पत्तिरिति कल्पनागौरवसाम्यान पटादिजनकविजातीयसंयोगं प्रति तन्तुत्वादिना हेतुत्वाच्च", इति चेत् ! इस प्रश्न का उत्तर यह है कि-अणुपरिणामवादी को प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकमाय मान्य नहीं है, अन्त्यावयवीपटादि से स्वपडपट, महापट आदि की उत्पत्ति होने से 'अन्न्यावयवी से द्रव्यान्तर को उत्पत्ति नहीं होती है यह नियम अमान्य है । 'पट में पटान्तर की उत्पत्ति मानने पर 'पटे पट' इस प्रतीति को आपत्ति होगी' यह शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि पटत्वरूप से पट की आधारता स्वीकार न करने के कारण उक्त प्रतीति की आपत्ति का अवसर ही दुष्प्राप्य है। [पूर्वद्रव्य के नाश होने पर हो उत्तरद्रव्य की उत्पत्ति हो सकती है -पूर्वपक्ष] इस सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि -"द्रव्य के असमयायिकारणभूतसंयोग के नाश से द्रव्य का नाश होता है । पट का असमवायिकारण होता है तन्तुओं का संयोग; अतः तन्तुसंयोग का नाश होने पर पूर्वपट का नाश होता है और उसके बाद अगले पट की उत्पत्ति होती है। पूर्वपट के रहसे नये पट की उत्पत्ति नहीं होतो, यह वस्तु स्थिति है। अब यदि अणुओं का हो तन्तु आदि के रूप में परिणाम माना जायगा तब तन्तुस्वरूप परिणाम के रहते पटात्मकपरिणाम की उत्पत्ति न हो सकेगी, मत:-'अणुओं का ही विभिन्न द्रव्यो के रूप में परिणमन होता है किसी नये अवयवी द्रव्य की उत्पत्ति नहीं होती है'-यह कहना उचित नहीं है। इस पर यदि यह शंका की जाय कि-"पूर्यपट का नाश होने के बाद दो नये पट की उत्पति होती है' यह मानना अयुक्त है; क्योंकि पंसा मानने पर द्वितन्तुक-दो तन्तुओं से उत्पन्न-पट में एक नये सन्तु का संयोजन करने पर जो त्रितन्तुक पटकी उत्पत्ति होती है उसके पूर्व द्वितन्तुक पट का नाश मानना होगा, और उस नये तन्तु के अलग होने पर वितन्तुकपट का नाश होने के बाद पुनः द्वितन्तुक पर को उत्पति माननी होगी. अतः इस कल्पना में गौर है, इस लिये इसकी अपेक्षा यह कल्पना करने में लाधव है कि 'नये तन्तु का संयोग होने पर द्वितन्तुक पट से ही त्रितन्तुक पट की उत्पत्ति होती है, क्योंकि पेसा मानने पर त्रितन्तुकपट की उत्पत्ति के पूर्व द्वितन्तुक पट का नाश तथा तीसरे तन्तु के अलग होने पर पुनः द्वितन्तुकपट को उत्पत्ति ये दोनों बातें मानने की आवश्यकता नहीं रहतो" तो यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि इस कल्पना में भी पर्याप्त गौरव है, जैसे द्वितन्तुक, त्रितन्तुक आदि के क्रम से जब चतुस्तन्तुक आदि पट की उत्पति होगी, तब द्वितन्तुक Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवार्त्तासमुष्य - स्तबक १ श्लो०४९ न विजातीयसंयोगस्य द्रव्यहेतुत्वाऽसिद्धेः तत्रापि हेत्वन्तरापेक्षायामवश्याश्रयणीयेन स्वभावापरनाम्ना परमाणुगतातिशयेनैव द्रव्योत्पत्तिसम्भवात्ः स चातिशयः शक्तिः अन्यो वा इत्यन्यदेतत् । एवं च दशतन्तुका देवरमतन्तु संयोगवियोग कमेणेव प्रथमतन्तु संयोगवियोगक्रमेणापि नवतन्तुकोपलब्धिनिराबाधा, नवपर्यन्तैरिव द्वितीयादिभिरपि नत्रतन्तुभिरतिशयितैर्नवतन्तुकारम्भात् । न चैत्र प्रतिलोमक्रमेणानन्तपटकल्पनाऽऽपत्तिः, द्वितीयमादाय नवतन्तुकस्येव तृतीयमादायाष्टतन्तुकस्यापि स्वीकर्तव्यात्वादिति वाच्यम् ; इष्टत्वात्, एकानेकस्वभावाऽविरोधात् । एकतन्तुसंयोगविगमाऽभिव्यञ्जकाभावादेवाष्टतन्तुकाद्यनुपलत्रेः । अत एव महति पटे 'एकः पटः' इति प्रतीतिननुपपन्ना अङ्गुलीभूतलसंयोगात्रच्छदेन पाण्याद्यनन्तसंयोगानुपलब्ध्यादिवद्वा पटान्तरानुपलब्धेरिति दिकू । पट के असमवायिकारणभूत तन्तुद्वयसंयोग का नाश होने पर हितन्तुकपट का नाश और उस नाश से त्रितन्तु कपट का नाश होकर चतुस्तन्तुक पट का नाश होगा, इसी प्रकार चतुस्तन्तुकपट की पुनः उत्पत्ति के लिये द्वितन्तुक त्रितन्तुकपों की उत्पत्ति भी माननी होगी। पूर्वपट का नाश होने के बाद सोधे तन्तुओं से चतुस्तन्तुक पट की उत्पत्ति ग्रामने पर चतुस्तन्तुक पद के समय द्वितस्तुक त्रितन्तुक पट का अस्तित्व न होने से उनके नाश को कल्पना तथा अगले पथ की उत्पत्ति में पूर्वपद की अपेक्षा न होने से स्तन्तुकपट की उत्पत्ति के लिये द्वितन्तुक त्रितन्तुकपट की उत्पत्ति मानना अनावश्यक होगा । अतः पूर्वपट के रहते पटान्तर की उत्पत्ति का पक्ष ग्राह्य नहीं हो सकता । १५० पूर्व पर के साथ नये तन्तु के संयोग से पटान्तर की उत्पत्ति मानने में एक यह भी बाधा है कि जिस विजातीय संयोग से पट की उत्पत्ति होती है उस के प्रति तन्तु कारण होता है अतः पट में उस संयोग की उत्पत्ति न हो सकने से पूर्वपट में उत्तरपद की उत्पति का मानना संगत नहीं हो सकता। फलतः यही बात न्यायोचित प्रतीत होती है कि अणुओं का विजातीयसंयोग से अतिरिक्त अवयचीद्रश्य की उत्पति होती है, और उत्तसंयोग के नाश से द्रव्य का नाश होता है। अतः अणुओं का विभिन्न द्रव्यरूप परिणमन मानमा असंगत है ।" [परमाणुगत अतिशय से ही द्रव्योत्पत्ति सम्भवित है - उत्तरपक्ष ] उक्त बात के विरुद्ध ग्रन्थकार का कहना यह है कि वह ठीक नहीं है क्योंकि 'विजातीयसंयोग द्रव्य का कारण होता है, यह कथन अप्रमाणिक है, क्योंकि यह मानने पर भी यह प्रश्न ऊरेगा कि जिस विजातीयसंयोग से द्रव्य की उत्पत्ति होती है उस बिजातीयसंयोग का कारण कया है ? इसके उत्तर में यही कहना होगा कि परमाणुगत अतिशयरूप परमाणुओं का स्वभाव ही द्रव्योत्पादकसंयोग का कारण है। तो फिर परमाणुगत अतिशय से विज्ञातीयसंयोग की उत्पत्ति मान कर उसके द्वारा द्रव्य की उत्पत्ति मानने की अपेक्षा उक्त अतिशय से सीधे द्रव्य को दी उत्पत्ति मानना अधिक युक्तिसंगत है। 'द्रव्यों का उत्पादक यह परणाणुगत अतिशय कारणनिष्ठ कार्यानुकूल Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 141 स्पा १० टीका -fi.पि. ननु तथापि पूर्वावस्यानाशेयोत्तरावस्याभ्युपगमात् तन्त्वादिपरिणामनाशेनैव पटादिशति है, पा भग्य छ,' यह दूसरी बात है इस विषय में कोई मान नहीं है। घटक अंशों से सोधे प्रष्य की उत्पत्ति मानने पर यह भी एक लाभ होगा कि जैसे दातानुक पर के मम्तिमा के सलग होने पर भी नयनम्नुकपट की उपलधि होती है, उसी प्रकार प्रथमतस्तु के अलग होने पर भी नवतन्तकण्ट की उपलब्धि निर्वाध हो सकती है, पयोंकि जैसे प्रथम से मयस्यस तन्तुओं से नवतन्तुकपद की उत्पत्ति होतो. उलो प्रकार तूसो तन्तु से वश नक के नषनातुओं से भी पट की इापति अपरिहार्य है। [एक काल में अनेक पटों की भापति] सा पो पर हो की ....असम : द की उत्पनि मानने पर पूर्वपठ के नाश के पार की उत्तरपद की पति होने से, परासन्तुकपट के काल में सही तन्तुषों में मन्यपट का मस्तित्व को नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्वपटो का नारा होकर ही वशतामुकपट उत्पन्न होता है. पर प्रतिलोमनाम से वासनमुकार के काल में भोकपटों के अस्तिरब की आपत्ति अवश्य होगी. क्योकि अमे नुसरे तन्तु से वश तन्तु तक के नवतस्तुभी से मचतम्तुकपट की उत्पनि होगी उसी प्रकार तीमो तन्तु से उसो त क बाट सम्भों से गटनम्नुकाट, पचं बौथे सन्तु से इस तक के मास सम्मो से साततन्तुकापट आदि को भी उत्पति हो सकती है।" [एकाकस्वभाव भाव होने से इस्टम्पत्ति] इस शंका का उत्सर यह है कि-यह आपति इष्ट है, पोंकि पकस्वभाव मौर ममेकम्यमाष में कोई विरोध नहीं है । जो पस्तु किसो दृष्टि से एक है, दुसरी स्टि से वही अनेक भी हो सकती है, अतः यह स्वीकार करने में कोई संकट नहीं हो सकता शुओं की संयोग होने पर शतन्तुक पकपद भी उम्पन्न होता है, और साथ ही नवतन्तुक आदि गर्नकपट भी उत्पन्न होने है । 'वातन्तुक पट के समय यति मष सन्तुक, अष्टसन्तुक मावि अन्य पट भी रहते हैं तो उस समय उनकी उपलधि क्यों गादों होती इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पक, दो तीन आणि तन्तुमा के संयोग का विगम नवतन्तुक, अष्टनातुक, सप्ततन्तुक बावि पटों का अभिव्यम्मक, वातन्तुक पर के समय इन अभिव्यको का अभाव होने से उस समय विद्यमान होते हुये भी उन परों को सपलब्धि नहीं होती । यही सबब है जिससे महान पट में 'एकः पटः' इस प्रतीति को अनुपात नहीं होती। यान महान पट के अस्तित्वकाल में उसको उपलब्धि भनेक पट के रूप में होती तो पफपट के रूप में उसकी प्रतीति भनुपणान हो जाती। अथषा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे भूतल के साथ अक्युलि का संयोग होने पर, हस्त, शरीर मावि के अनेक संयोग को उत्पत्ति होती है, पर उपलब्धि भलिसंयोग को ही होनी है. भस्य संयोगो को नहीं होनी. इसी प्रकार एक महान पट के मस्तित्वकाल में अन्य अनेकलघुपों के होने पर भी पक महान पद की उपलब्धि होने के कारण भग्य पदों की उपलब्धि नहीं होती। पटक18 में सन्तुओ का प्रतीति न होने का आपत्ति-और परिहार शंका रो सकती है कि परमाणुगत अतिशय से प्रम्प की सीधी उत्पत्ति मानने के पक्ष में भी पूर्व प्रवस्या का नाश होने के बाद ही उत्तर मयस्था की उत्पति Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५ शवासिमुपय-तप को०४९ परिणामोत्पनेः पटकाले तन्तुमतीतिर्न पाद नष्टस्यातीतपदग्रहणादिति चेन ! न, दिवियो हि विनाशा,(१ प्रायोगिक (२)वैखसिकश्च । आधः समुदयजनित एम्ब, भन्स्यस्तु द्विविधा समुदयजनितः, ऐकत्विकष । छन्स्यो धर्मादीनां गत्याधारत्याविपर्यायोस्पादस्य वदनधारस्वध्वंसकत्वेनान्तता क्षणध्यसे तद्विशिष्टध्वसनियमाञ्चोपेयः । समुदयनित व विभेद:-समुदाविभागलक्षणः अर्थान्तरगमनलक्षणच । तत्राधस्य प्रतियोगिप्रतिपत्ति पिरोधित्वेऽपि अन्त्यस्याऽतथान्यादानुपपत्तिविरहादिति दक् ॥१९॥ मानी जाती है, अतः तम्तरिणाम के माल के बाद ही पट परिणाम की उत्पत्ति होने से पर के समय तन्तु की उपलब्धि नहीं होनी चाहिये, कयोंकि मतीस के समान मात्र वस्तु का भी ग्रहण हान) नहीं होता'-इल शंका का समाधान यह है कि-पटपरिणाम की उत्पत्ति के लिये तातुपरिणाम काको नाश अपेक्षित होता है. वह तम्तु के अस्तित्व का विरोधी नहीं होता । पतः पद के समय तन्तु का अस्तिथ सुरक्षित रहने से उसकी उपखन्धि में कोई बाधा नहीं होती। ___माशय यह है कि नाश के दो भेद है--पक 'प्रायोगिक' और दूसा चैनसिक' । इन में 'प्रायोगिक' अर्थात् पुरापश्यनम्म्य नाश लमुदयजन्य हो होता है। समुवातम्य का अर्थ है मूर्तबध्यावयविभागजम्य । 'यमिक' को प्रकार का होता है समुश्यजन्य पचं ऐकरियक । ऐधिक नाश का अर्थ है मूर्स अमून अपघद्रव्य के परस्पर सम्बन्ध के परिधन से होने वाला पर्ष स्थिति का नाश | यह घमस्तिकाय-अधर्मास्तिकाय व भाकाश के लम्बन्ध से षस्तु में नियमन गान स्थिति भयमावना पायों से होने थाले पूर्व के विपरीतपर्याय के माशस्वरूप होता| उवावरणार्थ, धर्मास्तिकाय बस्तु को गति में सहायक होने से गति का शाधार-गति का सरकारी कारण ना जाना है। जिल क्षण धर्मास्तिकाम का सहयोग होने पर भी किसी विशेष यस्तु में गति को उत्पत्ति ही नहीं हुई, उस क्षण में धर्मास्तिकाय में उग यम्मु की गति को अनाधारना रहती है, यही उस क्षण में उसका पर्याय है। किन्तु जब धमांत्रिकाय के सहयोगाधीन उस वस्तु में गति की उत्पति होती है तब धमास्तिकाय में उस वस्तु की गन्याधारनारूप पर्याय का उदय होता है। स मस्याधारता र्याप का उदय होने से गप्पानाधारताला पर्याय का नाश होता है। पस्तु में गति नहों ही हुई तब भी अन्ततोगत्वा प्रथमश्रण का दुसरो अग में नाश-फलतः सक्षगसम्बन्ध का नाश होने से तन्त्रणसम्बन्धविशिष धर्म का भी नाश होना है। धर्म का यह माश उसका रेकरिषक माश। समुदयमय के दो मे - समुदायमागरूप और पर्यावरगमनका (1) समु. उपविभाग का अर्थ है पस्तु के उन अशा का अलगाय जिनके संयोग से पस्तु उत्पन्न है, जैसे जिन अशुओं के संयोग से नन्तु उत्पन्न है इस भयुओं का मलगा । यातमरण समुदयविभागकर नाश है। (२) अन्तरगमन का ई. पूर्यस्वरूप के बने दुप किसी नये स्वरूप का प्रवण, जसे मातु जिस मूलद्रव्य की पक भयस्था है वह मूल पम्प आगे जा कर सन्तु के रहते हुए पट रूप को ग्रहण कर लेता है। जन्तु के मूल इण्य का यह परकपत्रहण तन्तु का भर्यास्तरगमनरूप नाश कहा जाता है। इनमें समु. Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका प हिं० वि० १५१ मनु-"न मधूलन्यं परमावभिन्न गुणगुणिनोभ्रंशात्, कारणपरत्व-कारणमारवप्रचयक्रमणोत्पन्नस्य तस्माऽवयविनिष्ठत्वाच्च । न चावयविनि मानामामा, विलक्षणसंस्थानाकछेदेन सन्निकर्षात् यद्र्यगतघटत्वादिग्रहस्ततळ्यक्तरुत्पादायिनासभेदा. दिप्रत्ययान्यथाऽनुपपस्या पृथगवविसिद्धः । न चाऽऽभूतत्वाऽनावसत्त्वाभ्यां वरमेदः, वयविभागका माश तो प्रतियोगी की उपलब्धि का विरोधो होता है, असे सम्भामो के संयोग से जहान है, यदि अशुयों का विभाग कर दिया जाय तो सम्न की उपलब्धि नको होगो । किन्तु अर्थान्तग्गमनलक्षणनाश प्रतियोगी की उपलधि का विरोपी नहीं होगा, भता पटास्माकपरिणामरूप जो सन्तुनाश उसके होने पर भी नन्तु की अपकम्चिनिर्वाध रखती है ||४| “अवविसिद्रि के द्वारा परमागतस्थूलप मानने में राष्ट्रा-पका] यह शंका होती है कि-"स्थूलन्य-महान परमाणुओं से अमिन्न नहीं हो सकता, क्योंकि गुण और गुणी में मेर होता है, स्थूलत्व गुण एवं परमाणु मुणी हैं, अतः उनमें शभिन्मना असम्भव है। दूसरी बात यह है कि स्कूटरव कहीं कारणबाहुग्ध से, कहीं कार णमहस्व से भौर कहीं प्रचय-शचिलसंयोग से उत्पन होना है। अतः यह भषयी में ही रहता है, वापरयों में हो रहना । तो जब स्थूल व परमाणुओं में रहता बीबी, तब उसे परमाणुम्बा होने का स्पसर कहाँ है! यदि यह कहे कि 'अवयरी में कोई प्रमाण नहीं है तो यह ठीक नहीं है, कयोंकि विलक्षण संस्थान गे साथ इन्द्रियसनिक होने पर जिस प्रण्य में घटत्व बादि की प्रतीत होतो ति लस द्रव्य श्री 'उत्पन्लो घटः, गरो घटः' इस प्रकार उपति गोर माश की नीति होती है ! यह प्रतीति घटामि द्रव्य को गतिरिक्त अपयशी मागने पर ही सम्भव है, क्योंकि मिस हाय में घटत्व कादि की प्रताति होती है उले परमाणुरूप मानने पर परमागुभों की उसपति न होने से घटकर आने वाले दृश्य की भी अन्पति आदि न होगी। फतः घट के उपधि-पिनाशकी प्रतीति न हो सकेगो । भसा परमाणुषों से अतिरिक्त पद आदि अवयषी का मस्तित्व मानना आवश्यक है। आवृत्तव-अनावृतत्व के विरोध की शंका और समाधान| यदि यह कहा जाय कि-'पट के पक भाग को किसी वस्तु से ढकने पर घट थाात भी कहा जाता है और अनावृत भी करा जाता है, घर में भावृतब मौर मनाचूतस्य म दो घिरोधी धर्मों का अस्तित्व नमी हो सकता है जन्य घट एक सक्तिन होकर परमाणुषों का समूबरूप हो, कयोकि घर के परमाणुग्नमूदरूप होने पर अस समूह के पक घटात्मक भाग पर थावरण और भूप्तरे घटान्मक भाग पर आवरणाभाष होने से घट में आतष और अमावृतत्य का समावेश हो सकता है। पर यदि घट पकयक्ति कोगा तो घर एकसमय में या तो भान दी हो सकता है, या तो भगातही हो सकता है, दोनों मह हो सकता । अतः परमाणुगों से मिल एक अतिरिक्त भवयवी की कल्पना उचित नहीं है।" या. वा. २ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ v was.. .. . १५४ शास्वधातासमु अष-स्तबक १ छो० ५० अबरुदमभेदेनाऽविरोधात् । न चाऽर्धाधूनेण्यषयविनीन्दियसन्निकर्पसरवे परिमाणादिग्रहप्रसा, पटवान, तहमास्तत्वादिजासिंग्रहे तु पायदवयषाऽयसोदेन सन्निकर्षस्प हेतुत्वात् । न च 'पाणौ शरीरं सकम्प निष्कर्म च चरणे' इति प्रतीतेः साम्पस्यनिकम्पत्वाभ्यां भेदः, तत्र पाणावेव फम्पग्गी फागन् । 'पाणी शरीर पलति' इति प्रत्य पस्य परम्परासम्वन्धेन पाणिप्तिकम्पावगाहित्वात् । न च कम्पाभावधीरेव परम्परास. म्पन्धेन चरणनिष्ठकम्पाभावमवमानतामिति-वाभ्यं, पाणिकर्मणव प्रत्ययापपचाबतिरिकारीरकर्म कल्पनायां गौरवात् । न चैवं कर्मणम्नुटिमात्रगतत्वापत्तिा, सच्छिदेनोपलभ्यमानकर्मवन्ति पारीगदी कर्मामावोपालम्मप्रसङ्गात् । एतेन 'शरीर एवास्तु क्रिया, नानावयत्र तत्कल्पने गौरयाद्य पालम्, पाग्यादौ कर्मामायोपलम्मापतेः । न च परम्परससम्बन्धस्य दोपत्वं, चरणादावपि तदनापत्ते, दोपत्वकल्पने गौरवाच्च।" इस्पाकायामाइ मेरे 'सददकम्' इति... .. तो यह कामा ठीक नहीं, कोकि जिस मा में घट पक्रयसिस स मत मैंभीचा प्रकमांग में थाखला और अन्यभाग में समस्या हो सकता । ममेर से पकपशि में परमारविरोधी धर्मों का सामस्थ मानने में काम नही हो सकती। यदि यह आपत्ति दी आप कि 'यदि मषयषों से भिन्न भषयची माना जायचा तो माघे भाग में के घटादिमवाधी के साथ इन्द्रियसम्निकर्ष होने पर भी उसके परिमाण का प्रत्यक्ष होने लगेगा'-तो इस भापति को शिरोधार्य किया जा सकता है कयोंकि आधे हुँके प्रबादि अवयत्री के परिमाण का 'या पक महान घर है इस रूप में प्रत्यक्ष होता हीही सांकृत अवस्था में यह प्रत्यक्ष अवश्य महों होता कि 'घर एक हाथ सन्या या दो हाथ लम्बा है तो वह तो इस लिये महा होता है कि इस प्रकार के प्रत्यक्ष लिये अव्य के सम्पूर्णभाग में इन्द्रियसन्निकर्म अपेक्षित होता है जो द्रव्य की अर्धाकृत अवस्था में सम्भव नहीं है। सम्पत्य निष्कम्पत्व के विरोध की दोका] अदि मा कहा जाय Eि-"नाथ में भारीर सकम्प है और पैर में निकम्प इस प्रतीति से शरीर में कम्प और कम्पाऽभाष सिद्ध है। शरीर को पकव्यक्तिकप मानने पर उस में एक ही समय कम्प और कम्गाऽभाव न विरोधी धर्मा का समावेश न हो सकेगा, अतः शरीर को करचरणमादि अवययों का समूहरूप मान कर करात्मक परीर में कम्प और चरणातक शरीर में काराभाष के द्वारा शरीर की लकम्पता और निकापता की उपपत्ति आपपर है"ता या ठोक महो है, क्योंकि पाणि में कम होने के समय पाणि में ही क्रम्प होता है शरीर में कम्प होना ही नहीं, अतः शरीर में कम्प और कम्पामाय का सामग्रस्य स्थापित करने का कोई प्रसझनी मानी है। पाणि में कम्प के समय कारीर को निकम्प मानने पर हाथ में शरीर साम्पस प्रीति की अनुपपत्ति भी नही होगी, फोकि कम्प के श्राश्रय पाणि में शरीर समवेत होने से स्वामयसमवेतस्वका परस्परासम्बन्ध से शरीर में पाणिगत फम्प की प्रतीति हो सकती है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थाom theref. पि. [कम्प और फम्पाभाव के विरोध की शंका और समाधान] पदि या कहा जाय कि-"पाणी शरीर सकम्पम्' अथवा 'पाणी शरीर कम्प' इस प्रतीति को शरीर में परम्परा-स्थाश्रमसमषेसायसम्बन्ध से पाणिगत कम्पका मादक मान कर पाणि में कम्प दिमायी पेने के समय केवल पाणि को ही कम्पयुक्त और शरीर को एकमात्र विष्कम्र हो भी माना जा सकता कयोंकि ऐसा मानने पर यह भी कर सकते है कि 'परणे शहरो. निकम्पम् मधया 'माणे कारो म कम्यते' पद प्रतीति शारीर में परम्परा-स्वापसमवसत्वसम्बन्ध से चरप्पमिण्ट कम्पामाष को ही महण करनी कि शारीर में विद्यमान अतिरिक्त फम्पाभाव को प्रहपा करती है, भता पानि में कम्प और चरण में कम्पामाष विखायी देने के समय परण ही निकम्प होता है, Arशिकम्पनहीं होता, बातो हुम्तभाग में कम्प्यक्त गीत। शतः हम पोनों पक्षों में कोई विनिमममा न होने से शरीर को साम्य भोर निकम्प धोनों ही मानना होगा । फलतः कम्प और कम्पामाव इन हो विषय धर्मों के पकष समावेश के परिहारार्थ शरीर को पक व्यकित न मान कर पणि, धरण, आदि अवयवों का समूह रुप मानना अनिवार्य हो जायगा | अतः अषयवों से भिन्म अययपी की सिद्धि नहीं हो सकती"- तो या कहना ठीक नहीं हो सकता, कोकि पाणि मैं कमा और चरण में सम्पाभाव दिखायी देने के समय पाणिभागयुक्त भारीर में जो कम्प की प्रतीति अथवा कम्पमानता का व्यवहार होता है इसकी नापत्ति अच परम्परासम्बध द्वारा पाणि के की कम्प से सम्भव सर पाणिकप से श्रोतारक्त शरीर में भी पृषक कम्र की कल्पना का कोई प्रयोजन न झोने से घर कामा गौरयग्रस्त होने के कारण त्याज्य है। कई के प्रमःगतत्व-शरीरसकर्मतः आपात और परिहार इस पर यदि यह कहा जाय कि "पाणि पि केही कर्म से शरीर में कर्म की प्रतीति और सकर्मता के एपबहार को उपपत्ति कर यदि शर्म को कमही हो माना कापमा, तप तो पाग मादि को भी कर्महीन मानना ही उचित होगा, कौकि उनमें कर्म को प्रनीति मार सकर्मना के व्यवहार की उपल पम्पासम्पन्ध्र द्वारा उनके अचमी के कर्म से ही की जा सकती है. अन्नतः कम पाणि आदि में भी सिय न होकर केवल रिन्प्रसरेणुमात्र में ही सिौगा, और उसका फल यह होगा कि यतः प्रस रेणु दातीर का साक्षात् भषयय नहीं होता अतः उसके कर्म का शरीर के साथ स्वाश्रय समषेतस्यक परपसम्म नबनसकने से शरीर में जाने वाली कर्म की प्रतीति मौर सकर्मला के व्यवहार के अनुरोध से शरीर में कर्म उत्पत्ति मानना अनिवार्य हो जायगा"-तो यह कहना ठीक नहीं हो सकता, कोकि कर्म की कपल बसरेणु में मानने पर उस के बारा जसे शरीर में फर्म की प्रतीसि मादिनी उपपत्ति न हो सकने से शारीर में कम की उत्पत्ति मामना भाग्यश्यक होगा, उसी प्रकार सरेणु के कम से पाणि आदि में भी कर्म की प्रमाति की उपपान न हो सकने से पाणि आदि में भी कर्म की उत्पसि मामना आवश्यक होगा । फिर आणि धादि अषयष और सभी में पर्म के सर की कल्पना में गौग्य रोगा, खतः कम की मेषल पसरेगुमान में न मान कर पाणि भावि में मानना और पाणि भाविकर्म से है। शरीर में कर्म की प्रतीसिका समर्थन कर शरीर को कर्महीन मानना ही युक्तिसंगत है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ शास्त्रार्था समुच्चय- स्तबक १०५० 'केवल शरीर में कम्य मानने से लागव की भावांका इस सन्दर्भ में कुछ लोगों का यह कहना कि जिस समय पाणि मावि मवयवों में अथवा उनसे युक्त शरीर में किया दिखाई देती है उस समय केवल शरीर में ही किया की उत्पत्ति मानना उचित है न कि पाणि आदि षयों में, क्योंकि शरीर पक है. मतः एक समय में उस में क्रिया भी एक ही होगी किन्तु पाणि आदि अवयव अनेक हैं अतः उन में क्रिया भी अनेक होगी, अनेकों में एक किंवा की अ महीं होती, अतः शरीर में क्रिया मानने की अपेक्षा पाणि आदि अपनों में किया सामने में गौरव है। इस प्रसङ्ग में यह शङ्का करना कि केवल शरीर में किया मानने पर पाणि आदि में किया की प्रमीति गीर सक्रियता के व्यवहार की अनुपपत्ति होगी'- उचित म है क्योंकि शरीरक्रिया का पाणि आदि अवयवों के साथ स्वाश्रयसमवायित्वरूप परम्परा सम्बन्ध होने से उत्तसम्बन्ध द्वारा शरीर की किया से ही पाणि आदि में किया की प्रतीति आदि होने में कोई बाधा नहीं हो सकतो" - [केवल शरीर में करप मानने पर अवयय में निष्क्रियत्व की भाति ] किन्तु इस रीति से केवल शरीर को ही सक्रिय कहना ठीक नहीं हो सकता क्योंकि इस पक्ष में यद्यपि शरीर के केवल सक्रिय होने से उसमें सक्रियत्व और मिष्क्रियत्व इन दो विदव धर्मो के समावेश की प्रसक्ति न होने से अवयवातिरिक अवयय की सिद्धि में कोई बाधा नहीं होती, फिर भी यह पक्ष युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि रगान को ही सक्रिय और पाणि आदि अवयव को निष्क्रिय मानने पर पाणि भवि में सक्रिय का वर्णन न होकर निष्क्रिय के ही दर्शन की आपति होगी. क्योंकि पाणि भादि में शरीरक्रिया का परम्परासम्बन्ध होगा और निष्क्रियम्बका साक्षात्सम्बन्ध होगा, अतः परम्परा से सम्बदयस्तु के दर्शन की अपेक्षा साक्षात् सम्पद्रवस्तु का ही दर्शन युक्तिसंगत हो सकता है यदि इस आपति के परिवारार्थ पाणि आदि के साथ शारीरकिया के परम्यगसम्ब को पाणि आदि में निष्क्रियत्य के दर्शन का प्रतिबन्धक माना जाय तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर जिस समय केवल पाणि में क्रिया दिखायी देती है, चरण में नहीं दित्रात्री देतो, उस समय चरण में जो निष्क्रियस्य का दर्शन होता है वह शरीरकिया के परम्परासम्बन्ध को निष्क्रियापदर्शन का प्रतिमन्धक मानने पर न हो सकेगा. क्योंकि भरण की निष्क्रियता के समय भी शरीरक्रिया का उस परम्परासम्बन्ध चरण में विद्यमानता है । बात तो यह है कि केवल शरीर को दी सक्रिय और पाणि भावि अवयवों को निष्क्रिय मानने पर पाणि में सक्रियत्व के दर्शन के समय भी सक्रियत्व का दर्शन न होकर निष्क्रियस्थ के ही दर्शन को आपति का परिहार हो ही नहीं सकता, क्योंकि मिल स्थान में किसी वस्तु को साक्षात् सम्बन्ध और उसके विरोधी वस्तु का परका होता है उस स्थान में साक्षासम्बन्ध से विद्यमान नित्य के दर्शन के प्रति शरीरक्रिया के परम्परासम्बन्ध को प्रतिबन्धक मानने की कल्पना गौरवग्रस्त होने से स्वीकार्य नहीं हो सकती । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका व वि. वि. मूलन-भेदे सवदले यस्मात् कर्थ सद्भावमश्नुते ! तवभावेऽपि ताव सदा सर्वत्र वा भवेत् ॥५०॥ भेरे स्थूलत्वस्याशुभ्यः सर्वथा पृथग्भावे, मदले सन् तत्-स्थलल्वं, यम्मान कथं समाजमश्नुते-ससान्यवहारं कथं प्राप्नुयात् ! सर्वधा द्रव्यपृथम्भूनत्वे, शनजवदसवप्रसङ्गात् । किश्व, सदभावेऽपि दलाभावेऽपि, सदस्यूनत्योपादे. 'अभ्युपगम्यमाने' इति गोषः, कालनियम हेत्वभावात् सदा, देशनियमहेन्रभावाच सर्वत्र वा भवेत्, 'वत' इति योज्यते । ____ मथ श्यणुकादेरेव महचोपादानवाद नाऽदलात्कम् ,अन्यादशमलत्वं चाप्रयोजक, समवायेन अन्य सस्थापरिहन्न प्रति तावात्म्येन न्यस्य हेतुत्वाच नातिप्रता रति चेत् ! म, समायनिरासाद, ध्वेससाधारपयेनाऽपृथग्भावेन अन्यत्वावकिछन्न प्रत्येव द्रव्य हत्वौचित्याश्य, TM बिस्तरः ।। भिकर्ष यह है कि पारीर में सक्रियत्व की प्रतीनि परम्पग सम्बन्ध प्राग पाणि माधि अषयों की क्रिया से ही उगमन हो सकती है अतः पाणि आदि अवयों की सकियतावशा में भी शारीर निस्किय ही रहता है. या कभी भी सक्रिय नहीं होता, फलतः शरीर में सक्रियरष और निस्क्रियत्य रूप बिशधों के समावेश की भापनि न बोमे से पाणि भादि अवयों से भिाल शारीर को पृथग्य मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती।" [पूर्वपक्षसमाप्ति नेपालिकों की इस पाहा का परिहार करने के लिये ही मेवेतदवले' इत्यादि ५०बी कारिका की रचना की गयी है, कारिका का अर्थ इस प्रकार है [स्थूलत्व को मिन्न मानने पर निष्कारणःन की आपत्ति-उत्तर पक्ष] स्थूलत्व-मधन्य को यदि स्थूल माने आने वाले वध्य के अाधों में सषया भिन्न मामा जायगा तो उसका कोई हल मावान कारण न बन सकेगा, क्योंकि भावों से भिन्न किसी इश्य का अस्तित्व विवादमस्त है, अत: अभिन्न प्य को उस का उपा दानकारण मानमा सम्भव नहीं है, भीर अणुव्रय एथं स्थूलत्व में आयन्तमेव मानने पर अश्यों को भी जस का उगमान नहीं मामा जा सकता, क्योंकि मत्यम्त भिन्न बस्सुमों में उपादाम-उपादेयभाय प्रमाणसिच नहीं है, इस प्रकार शूलत्व जब भदलउपादानहीन होग, तय बाद सस् के रूप में कैसे व्यवान छो सकेगा? फलतः द्रष्य से सर्वथा भिन्न होने पर शयनंग के समान स्थूलन्य भी मलद हो जाया | पति या कहा माय कि-उपादान के अभाव में भी शलन्य की उत्पसि मान लेने से उसके अस्तित्वलाम में कोई बाधा न हो सकती-तो यह ठीक नही है क्योंकि कारण के अभाव में भी कार्य की उत्पणि मानने पर 'उतपति किस काल और किस भानय में हो इस बात का कोई नियामक न होगा, अतः स्थूलस्य की उत्पत्ति किसी नियत समय मौर भियत आनय में न होकर सभी समय और सभी क्षाथयों में होने लगेगी, जो अनुपलम्भ से बाधित होने के कारण सर्वथा अस्वीकार्य है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुपप-रतबक १ महो० ५. स्थूिलाब में निष्कारणसामापति के परिवार का प्रयास यदि यह कहा जाय कि-'स्यूल वीखने वाले गणुकत्रसरेणु मानिनग्य मारों से मिसमोर येही स्थूलत्व-भाव के उपादान कारण है, अतः स्थूलत्ल भाल-उपादान हीम नहीं है। इस पर यह कहना कि-शान का भर्थ जानकारी होता मही है किन्तु ज्य-मात्रय से पृपा भिन्न होना है और यही असत्व का नियामक है, मप्तः स्थूलप को इश्य से प्रयक मानने पर उसका असत् हो जाना भनिवार्य अषित नही हो सकता, क्योंकि उपादामदीनता से भिन्न उक महसमय में मसाल की प्रयोजकता असिख है।-स्थूलाष को वध्य से भिन्न मामने पर मानपविशेष में उसकी सस्पति निश्चित न हो सकेगी. यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि 'समवाय सम्बन्ध से जयमायमात्र के प्रति ताम्यसम्पन्ध से भ्य कारण होता है इस कार्यकारण भाव से वष्य में अन्यभाष की उत्पनि का नियन्त्रण होता है, स्थूलप भी अग्य: भाष है अत: इसकी आपत्ति का नियन्त्रण भी इस कार्यकारणभाव के द्वारा हो सकता है। 'समी वन्धों में धूप की उत्पत्ति न होकर स्थूल दिखने वाले वठयो में ही उसकी उत्पत्ति हो' इस प्रकार का नियन्त्रण भी समवायसम्बन्ध से स्थूलत्व के प्रति भाभिम अविभुवघ्य को तादात्म्यसम्बन्ध से कारण मान कर किया जा सकता है. अतः इम्प से पृषक होने पर भी स्थूलस्व नियत समय पयं निग्रत प्राश्रय में हो उत्पन्न होकर मस्तित्वलाभ कर सकता है, सर्वत्र और सर्वत्रा उसको उत्पत्ति का मतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता ।' [समवाय अमान्य होने से यह प्रयास अनुचित ] तो यह कहना ठीक नहीं है क्यो कि युक्ति मोर प्रमाण न होने से लमयायसंबध असिस, भतः सप्लो माधार पर उक्त कार्यकारणभाष की रुपाना सम्भय न होने से उसके द्वारा स्थूलत्य की उत्पत्ति का नियन्त्रण भोर उसके अस्तित्वलाम का समर्थन नहीं किया जा सकता 1 दुसरी मात यह है कि उनका कार्यकारणभाष मानने पर उसमें बारा अन्यभाष की ही उत्पत्ति का नियन्त्रण होगा. यंस की उत्पत्ति का नियन्त्रण न हो सकेगा. षयोंकि त अमाषात्मक होने से समधामसम्यम्ध से नहीं उत्पन्न हो सकता, अतः जन्यमात्र का आश्रप के साथ अपृथग्भाय अमेव असा सम्बन्ध मानकर अपरभाषसम्बन्ध से अन्यामात्र के प्रति तावात्म्य सम्बन्धले दृष्य को कारण मानना ही उचिमोंकि इस कार्यकारणभाष से अन्यभाष के समान ध्वस की भी उत्पमिका नियन्त्रण हो सकता है और इस प्रकार का कार्यकारणभाष मानने पर स्थूलम्व गणुवों से भिन्न होने पर भवल प्रम्य से पुषभून होने के कारण उपादानहीन होगा और इस माने 'सत्' व्यवहार से अबरुप वंचित होगा, क्योंकि इस कार्यकारणभाव के रहते अभिन्न दृश्य का मस्तिष संभव न होने से स्थलाम को अमिम मानने पर उसका अवनत्व उगवानदीमय निषिधान है। इस विषय का सौर विस्तृत विचार अन्यत्र किया है अतः यहां से इतने में ही समाप्त किया जाता है। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० ० टीका - कि. पृथगवयविन्यपि च मानमस्ति. अननसाश्यव्याविकल्पने गौरवात् । कि आता-जनावृतत्याभ्यामपि मिधत एवाऽश्यबी, ज्ञान प्रतिबन्धकसंयोग-सदभावरूपयोराप्रवासमायोमिन्मान संभावपापवियना--ताप रूपयोर्विनाभेदमसमवान्, स्वरूपाऽपविभूताया विषयताया अध्यायमित्याऽयोगान् | सकम्पत्वनिष्कम्पत्ताभ्यामपि तथा, शरीरस्य निष्कम्पत्ये 'पाणी न चलति' इत्पस्याऽपि प्रसङ्गात् । शरीरत्वादेखि पाणे: फर्माऽभावानबच्छेदफन्त्रादयमदोष' इति चेत् । न, चरणे कम्पशायामपि पाणी म पलति' इत्यनापत्तेः । न च वोगाव पाणों न घालति' इति न प्रतीयत इति वाष्यम् । तारबायोपकल्पने गौरवात् । पृषक् मक्यदी को सता मो मप्रामाणिक है। प्रस्तुत पर्या के सातत्य में यह पता देना प्रत्यात प्रासंगिक प्रतीत होगा किअवयवों से भतिरिक भषयवी की सत्ता में कोई प्रमाण भी नहीं है। प्रत्युत अपयषों से अतिरि मनात अषययी और अन सभी के समस्त पागभाव तथा यस भावि को कल्पना में होने वाला गौरव उसकी सिद्धि में स्पष्ट बाधक है। इसके मतिरिक्त भावृतत्व और अनावृतम्व से भी अवयवी की अतिरित पकव्यरुपता की सिधि बाधित होतो है। जैसे अटके किसी एकही भाग पर अब कोर भावरप बाला जाता है नए घट मावृत भी होता है और मनात भी होता है। मातरम मौर मनातस्य यह दोनों परस्पर विखा धर्म है, अतः घर को पक व्यकि मानने पर उसमें दोनों का सह समावेश नही हो सकता, किन्तु समावेश देखा जाता है, इसलिये घट को अश्यों से भिन्न पक भषयवीद्रव्य न मान कर अपययों का समूबरूप मानमा हो उचित है क्योंकि ऐसा मानने पर घर के भावून मात उभयमागरूप होने से पकड़ी काल में उसका आवृत और अनापत प्रतीत प्रोमा सम्भव हो सकता है। पदि यह मानायकि "मायूसत्य का अर्थ है उपलम्भ का पापकर्स और ममादुसाप का अर्थ है उकसपोग का मभाव, अतः संयोग के मध्यापयत्ति-प्रवाएकमे से एक ही समय पर आश्रय में अपने अभाव के साथ रहने के स्वभाव से युक्त बोने के कारण परमप्ति में आतत्व और अनावृतत्व के सरसमावेश में कोई सभा न हो सकमे में उसके द्वारा घट का समूहरूपता नहीं सिम हो सकती" सो पा ठीक नहीं है क्योंकि घरभावि के समान घट आदि के रूपभादि गुणों में भी भासत्व और भनाखूनस्व का व्यवहार होता है अतः श्रावृतत्व मौर अमावृताव को उक्तसंयोग और उक संयोगाभाषका न मान कर सातत्य को चानुषप्रायविषयत्वाभाव मोर ममा. प्रसस्व को चाक्षुषप्रत्यक्षविषयस्वरूप मानना होगा और विषयता विषयस्वरूप से अतिरिक्त न होने के कारण यिग्य के समान वाध्य युति हो होगो, अध्याप्यवृत्ति होगी, मतः स प्रकार के सातस्य और मतावृत्तव का एक व्यक्ति में समावेश संभव ने से माकृत पर्ष अमावृत वस्तु को पा षस्तुरूप न मान कर अनेक व्यक्तियों का समूह रूप मानना हो बित होगा। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मामा -मान ! प्रलो० ५० किन, एवमुक्तयुक्तयाऽग्रादिनिटसंयोगादेरेव पक्षादी प्रतीत्युपपसी संयोगादेषि व्याप्यत्तित्यं स्यात् । अपि च, एवं कानमापकेभ्यः शनमापकाऽऽरम्भावपविनि गुरुत्वाधिशादयति विशेषः स्यात् । न चावपविन्यत्पन्तापकष्टगत्यस्वीकाराद् गुरुतरद्रन्ययोः समयोरुचोलने एकत्र संलग्नतामादिगुरुत्वाधिक्याइयनतिवदपपत्तिः, तसइन्स्पाववि [भवयवी की ममि में साम्पत्व और निष्पत्य का विरोध बाधक है। इसी प्रकार सम्पत्य और मिकम्पत्व-कम्प और कम्पाभाव इन परस्परविकछ धर्मों के समावेश से भी अथयों से अतिरिक्त अवयवी की सिद्धि का पापित होगा निबंधा है। अतिरिक्त अथयषी के अस्तित्व का समर्थन करते हुये ओ यह बात कही गयी है कि-"पाणि आदि में कम्प दिखने के समय पाणि मादि में श्री कम्प होता है शरीर तो निफम्प ही रहता है, क्योंकि इस समय शरीर में होने वाली सकम्यता की प्रोति परम्परा स्थाश्रयसमवेतन्यसम्बन्ध द्वारा पाणि के कम से ही उपपन्न हो सकती "-ब ठोक महीं है, क्योंकि पाणि को सम्पसा के समय यदि वागीर को निकम्प ही माना जायगा तो उस समय 'पाणी शहरी मचलसियाणि भाग में शरीर निश्चल है' इस प्रकार की प्रतीति की आपत्ति होगी। यदि था का जाय कि "शारीर को केवल निस्किप मानने के पक्ष में शरीर में काभाव च्याप्यवृणि धोता है अतः असे शरीरत्य मादि कर्माभाय का अपवक नहीं होता उसी प्रकार शणि भी शरीर में रहने वाले स्थाण्यापूणि कर्मामाघ का अवसवक नहीं हो सकता, भता राणौ शरीर म यति' इस प्रतीशि की धापत्ति नही हो सकती, क्योंकि भा प्रतीति पाणि के कर्माभाव का अपच्छेदकहोने पर ही संभव है और पाणि उक्त कारण मे कमाभाव का अयच्छेवक हो नहीं सकता".नो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार से 'पाणी शरीरं न वसति' हम प्रतीति की आपसि का परिवार करने पर कंबर चरण में कम होने के समय भी 'पाणी शरीरं न अलति' इस प्रतीति की अनुपसि हो जायगी। यदि यह को कि-"पाणि की सक्रियतावश में शरीर के निमिय होने पर भी 'पाणी गरम चलान' इन प्रतीनि की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि शरीर में पाणिक्रिया का परम्परासम्बन्ध उक्त प्रतीति का प्रतियम्यक है तो यह ठीक नहीं हो सकता, क्योकि नाशात्सम्बत बस्तु के अर्शन के प्रति उस पा के विरोधी पस्तु के परम्परासम्पन्ध में सामान्य रूप से प्रतिबन्ध कता मिज, होने से इस प्रकार के प्रतियघकत्व की कल्पना गौरवग्रस्त होने के कारण त्याज्य है। परम्पररा- स्वाश्रयसमावसम्बन्ध द्वारा पाणि आदि के कर्भ से शरीर में सकमैता की प्रतीति का उपपावन कर शरीर को निष्क्रिय मानने में पक और बाधा है. यह यह फि मिस युझि से शरीर को निष्णिय मानने की बात की जाती है उस युक्ति से वृक्ष भाषि मी मर्पधा संयोगहीन हो सकते है. क्योंकि वक्त परमागसम्म प्रारा अन, पृफ, मन मादि अयययों में विद्यमान संयोग से ही वृक्ष में संयोग की प्रतीति संभव होने से वृक्ष आदि दृष्यों में संयोग मामले को कोई आवश्यकता नहोस जाती, फलतः संयोग शापि मध्यान्यति गुणों में पायवृत्तिव की आपत्ति हो सकती है। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . .. २५ स्था क० टीका प हिं० वि० स्थेनाऽन्यन्चाऽपकृष्टगुरुत्वहेतृत्वे उत्कृष्टगुरुत्वप्रतिवन्धकत्ये च गौरवाद्, इत्यन्या विस्तर।। तस्मात् कश्चित् परमाण्वात्मकमेव स्थूलत्वं परमाणुपु सदेवोत्पाते, इत्युपचयेन सिद्धम् ॥५०॥ न चैव द्रव्यरूपेणाणा स्थूलत्वस्येव प्रत्येकावस्थायां भूतेषु तथा चैतन्यस्य सचेइप्पनुपपचिचिरहात् सिद्धं न समीडितम् , इत्यत्राह--- अतिरिक्त अवयवी के गुरुत्व से उन्नमनाधिक्य को भापति] अषयों में अतिरिक्त भषयपी को सत्ता मानने में एक ओर दोष, पद यह कि सो मासे तौल के इव्यकों से यदि एक अतिरिकद्रव्य की उत्पत्ति होगी तो उसका पष उस के भषयवभूत सो द्रव्यकों का मिलितगुयत्व केवल अपययों के गुरुप से मधिक होगा, फलतः सो मासे के सो व्यकणों के गुमय से अल्पगुहस्य के किसी व्य से केवल सो प्रव्यको एवं उनसे उत्पन्न अतिरिक्त प्रयों को तोलने पर उनकी भवनतियों में साम्य न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि-"अषयषी का गुयाय भवयी के गुरुत्य से भत्यात अपार धोता है अतः असे समामगुरुत्व वाले दो प्रज्यों के नोकने पर किसी एक भोर अस्पात अपकरगुरुत्य वाके किसी शुष कण के संपर्क से गुरुम्प का आधिक्य होने पर भी उनकी अधनतियों में कोई भातर नहीं होता किम्नु दोनों ही अवनति समान हो होती है उसी प्रकार मन्यात अपकर गुवत्व के मामयभूत मषयवी के साहचर्य से भषयवी युक्त अषयवों की मोर गुम्व का माचिस्य होने पर मी केवल भषयों तथ अचयपीयुक्त भवयवों को तोलने पर उनमें हुण्य मधमति की उपपत्ति हो सकती है" तो यह ठीक नही हो सकता क्योंकि यह बात सभी संभव हो सकता है जब मंतिममवयपी को विशेषरूप से मत्यन्त अपशगुरुत्व का कारणे मोर उत्कपरशुरुष का प्रतिबन्धक माना जाय जो गौरप दोष के कारण मर्सभव है। इस विषय का विस्तव विचार अग्या किया गया है। __संपूर्ण विचार का निश्कर्ष यह है कि स्थूलत्य कचित्-वव्यरूप से परमाणुसकर ही होता है अतः इम्यकप से पूर्वतः विधमान ही स्थूलम्ब कालान्तर में कारणों का सन्निधान होने पर पायरूप से परमाणुषों में उत्पन्न होता है यह उपमयसिस तथ्य की माप है ५०॥ [स्थलब की तरह चैतन्य को भी भूतसंघातजन्य नई कह सकते प्रस्तुत चर्चा के सम्म में यह कहा जा सकता है कि-"जैसे स्पलय पर से परमाणुषों में मपमतः विद्यमान रहता है और कालास्तर में परमाणुवों का विशिष्ट सनि घाम होने पर पर्यायरूप से जनमें उसका मम्म होता है उसी प्रकार यह मानने में भी कोई अनुपपत्ति नहीं है कि शरीर घरक पृथयो, जल भावि भूतदयों के पृषक भवस्थान काल में उनमें सम्य द्रव्यरूप से विद्यमान रहता है और बाद में उम भूतो का विशिषर सानिध्य सम्पन होने पर उनमें पर्याधरूप से चैतम्य का उदय होता है। मोर पा सा. बा. १ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्ववातासमुन्धप-स्तक र लो ५१-५२ मुहम्-न चैत्र मतसंष्ट्रातमात्र चैतन्यमिण्यते । भविशेषेण सर्वत्र तात् तदमावसंगतः ॥५१॥ न चैव स्थूलत्वं यथाऽणुसंघातमात्र तथा भूतसंघातमा चैतम्पमिष्यते चाबकि। 'तषेधों को दोषः । इति तटस्थावकायामाह आवेशेषेण संघातातिरिक्तविशेषानम्युपगमेन सर्वत्र श्रीवासहरीरवदन्पत्राऽपि, तद्वद्भूतसंघातवद तापसंगतेयतचैतन्यप्तभारप्रसाद ॥५१॥ रातः किम् ? इत्याह - मुखम् -- एवं सति घटादीनां व्यकसन्यभावतः । पुरुषान्न विशेषः स्यात्, स च प्रत्यक्षमाधितः ॥५२॥ पतिप्रकारण, 'व्यक्त पैतलामावता तसा सप्तम्पयंता । व्यक्तचैतन्यभाषे 'सति' इति योभनीयम् । पर्व सति' इत्यनेनोक्तार्थपरामर्श सर्वपदस्य घटादिरेवाऽर्य इति पौनकत्य स्यात् । घटादीनां पुरुषात् जीवच्छरोरात् , न विशेष: स्यात् । न पापमपीष्टः, इत्पाह--सत्र-घटादीनां पुरुषाऽविशेषच, 'प्रत्यक्षबाधिता' पदादीनामदेवनदेन प्रतीते ॥५२॥ स्वीकार करने पर विरोधी पार्षीक का पक्ष भूतचैतम्यवाय अनायास सिम हो जाता है"-स कथन को निरस्त करने के उद्देश्य से ही इस ५१ वी कारिका की रचना की गपी है जिस प्रकार स्थूलत्व अगुषों का संयातमात्र है, उसी प्रकार चैतन्य भी भूतों का संपातमात्र ही, बार्शको की यही मान्यता है। तटस्थ द्वारा इस मान्यता को मान की शङ्का का निरास कारिका के उत्तरार्ध द्वारा यह कह कर किया गया है कि पैतन्य यदि भूतसंघात से अतिरिक्त न होगा नो भूमो के संघात के समान बैतम्प का सहार भी सर्वत्र प्रसक्त रोगा, फलतः ओषित शरोर के समान घट आवि संघालों में भी म्यत तम्य के भस्तित्व की भापति होमी ॥११॥ [पादि में पुरुषलक्षश्यामान प्रत्यापित है] सर्षय यनतम्य के सभाय की भापन्ति होने से क्या हानि होगी। इस म का उत्तर ५२वीं कारिका द्वारा उपन्यस्त किया गया है । कारिका के उपाध्याकार करते है कि ' न्य तम्यभाषतः' शय में 'तसिन्द' प्रत्यय सप्तमीविभक्ति के अर्थ में प्रयुक्त है, भतः उसका तात्पर्य 'व्यक्ततन्यमावे' में है, 'सतिशम का माधय उसी के साथ है म कि 'पर्व' शब्द के साथ, क्योंकि 'सति' शब्द को 'पर्व' मा से अम्बित कर 'पर्ष सति का 'सर्वत्र व्यक्तबैतम्पसदमारे मर्च करने पर 'पठाशीमा व्यक्ततपशषत:' से इसकी पुनमक्ति होगी, क्योंकि पर आदि हो सर्वशाद का भी मर्थ होता है। फलतः कारिका का पाइ अर्थ निर्गलित होता है कि-जरूरीति से भूतों में व्यक बैतम्य की सत्ता मानने पर घट आदि में पुरुष के लक्षण्य का प्रमाण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... १५३ स्था का का व .पि. ननु स्थूलत्वमपि नाशुसवातमात्र व्यणुकादावभावाद , किन्तु संङ्गाप्त विशेष एव पयं च चतन्यमपि घटादिश्यापूचभूतसंपातषिशेष पवेति नाजुपपतिः, इति शकते मूलम्--अथ भिन्नस्वभावानि भूताम्येव यतस्ततः । ____ तत्सहासेषु चैतन्यं न सर्वेष्वेतदप्यसत् । ५३॥ अथ पतो मतान्य' शरीराम्भकाण्येव, भिन्नस्वभावानि घटाघारम्भफस्वभावविलक्षणस्वभाषानि । ततस्तत्संबातेषु शरीरेषु चैतन्य न सर्वेषुः पर्व च संइन्पमान विशेषतः संपातषिशेष इति भावः । अत्राध- एनदयसत् ॥५॥ मूलम्-स्वभावो भूतमा प्रवे सति न्यापाद न मियते | विशेषणं बिना यस्माद् न तुल्याम विशिष्टता ||५४॥ होगा, क्योकि पुरुष के समान ही घट आदि वस्तुगे भी ज्या देशना से युक्त होगी। 'घट भादि में पुरुष के पैलक्षण्य का अभाष भी हो है' यह नहीं कहा जा सकता पयोधि घट भात्रि की प्रतीति मधेशमरूप में होती है अतः उन में वेताप में प्रतीत होने वाले पुरुष के लक्षण्य का मभाष प्रत्यक्षमाधिन है ५५|| [शीर और घर में चन-य और जडता भूतलक्षण्पप्रयुफ़ नहीं है "स्थूलव अणुषों का सामान्यसात मात्र नहीं है क्योंकि घणक भावि में मणुको का समाप्त होने पर भी स्थूदाय नहीं होता अतः धुलाम असे अणुषो का विशिष्ठलङ्गलास रूप से ही तम्य भी मूसों का सामाग्य संमानमात्र न होकर भूतो का यह विशिष्ट संघात है जो घट भाव में न होकर वारीर में ही होता है। और ऐसा मानने पर भूतसन्ययार को स्वीकार करने में कोई भापत्ति नहीं हो सकती ।..५५वी कारिका में इस बात को प्रस्तुत कर इसे असत् कहा गया है। कारिका का अर्ष इस प्रकार है शरीर की प्रथमा मिन भूतो से होती है घट मादि की रचना करने वाले भूतों से स्वभावतः भत्यातभिन्न होते है, इस लिये शरीयत्मकभूतसंघात में बैतस्य मौर घटापात्मकभूतसंघात में भौतम्य कायोमा सर्वथा सुसंगत है। आश्य या किस होने वाले भूतों के येळक्षण्य से ही उनके संघातों में पैसक्षम्य होता है और उस पैकक्षाय के कारण ही पारात्मकभूनसंघात घेसन गौर घरापात्मनससंघात मतम होता है। इस सम्पन्ध में मूलप्रन्धकार का कथन है कि भूतपेनम्यवाही की यह पास भी असा ॥५३॥ [भेदकविशेषण के बिना भूनों का स्वभाव भेद मप्तम्भवित है। शरीर के भारम्भक भूत और घटादि के भारम्मक भूत शुद्धभूतमा है, उनमें कोई अतिरिक्त मेवक ही है, अतः उममें समायभेद की कल्पना मुश्किसंगत नही, Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-सबक १ पळो० ५४-१५ यतो 'भूतमात्रणे सति' भूसातिरिक्तभेदाकामा सप्ति, 'मायाद'-यूक्तितः, स्वभावो न भियते । कृतः ! इस्पाह-यस्मात्-कारणात, तुल्याना भूतत्वेन समानानां परशरीराबारम्मकाणां, विशेषण विना विशिष्टता न भवति। भूतस्य भूनान्तरभेदो हि न पास्तषः, फिन्तु विभिन्नधर्मप्रकारकवुद्धिविषयत्वलक्षणो भारु पय, विशेषणारप्रिनिविशेष्यमेवात्मको पा । न च विभिन्न विना तटिसमतसम्भत्र प्रति माम!! अत पल भूतान्तरनिष्ठकार्यमनकातिषायाम्यातिशपशालिवकलणवैधीरूपो भेदोऽपि निरस्ता, तारखातिशयस्य भूतातिरिकतत्वे तवान्तरप्रसङ्गाव, तदनतिरिक्तत्वे च स्वभाकमेनादिति दिग ॥५॥ स्वरूपत पर भेवो भविष्यति, इत्यत्राह मुला--स्वणपमात्रभेदे च मेदो भूतेतरात्मकः । __अन्य मेनकभावे तु स एवामा प्रसश्यते ॥५५|| क्योकि जो पदार्थ तुरूप-समानधर्मा होते हैं उनमें किसी अतिरिक्त विशेषण-मर्यात मेक धर्म के बिना विशिवता-भिन्नता नहीं होती। कहने का आशय यह है कि पक भूत में-मन्यभूत का जो मेव होता है, यह वास्तविक न होकर गौण होता है, उसे विभिन्मधर्मप्रकारकबुधिषिपयस्वरूप या विशेषणायनिछन्नविशेष्यमोदरूप माना जा सकता है। पहले का अर्थ विभिन्न धर्मों द्वारा जात होना, असे खेत गो और रक गो रमेशपरकत्व कप विभिन्न धर्मों से ज्ञात होने के कारण एक दूसरे से भिन्न समझे बात। दुसरे काम है विशेषणान विशेष्य का विशेषणविशिष्ठ विशेष्य से भिन्न होगा. जैसे वाहीनपुरुष का वष्टविशिषध से भिन्न होना । ये दोनों को प्रकार के मैव विभिन्न धर्म पवं विशेषण से घटित है। मतः भिन्न धर्म या विशेषण के माने विमानमेवों का मानना सम्भव नही है। सापक के मत में षिषी मादि चार भूतो से भिन्न कोई मतिरिक्त तत्व नहीं होता, पता भेदक तरख के बिना उनमें मेह का समर्थन शक्य नहीं है। यदि यह करें कि-"सभी भूत भूतत्वरूप ले समान होने पर भी भिन्न भिन्न कार्य उत्पन्न करते है, अतः इनमें भिन्न भिन्न कार्यों का मन बसिशय मानना यावश्यक है, अतः जम भतिशयों द्वारा भूतो में भेद का समर्थन किया जा सकता है"-नो पह जीक नहीं है, क्योंकि अतिशय को भूत से भिन्न मागने पर तखातर का मोगा, मौर मभिन्न मानने परः उनसे स्वभाषमेव उपपावम शल्यन होगा। अतः यह पए है कि शरीर के भारम्भक भूतों में तथा घट आदि के मारम्भक भूतों में स्वभावभोर की कपमा में की गुक्ति नहीं है | स्वस्वरूपमात्र भूतों का भेदक नहीं हो सकता परीर, अब मावि मतसंघातों में स्वरूपमात्र से मेव नहीं माना जा सकता, क्यों दिपमा मे मे का म अधिशियस्वरूप से मेक, और सभी भूतों का सबि. Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का दीका कि स्वरूपमात्र मेद व अविशिष्टस्वभावावन्निभेदे चाभ्युपगम्यमाने, 'भूतेतरामकः' भूवमितरयत्ति यस्तारस आत्मा- स्वरूपं यस्यैताहशो भेदः स्याद्-भूतापत्वं स्पार, 'नेदं भूतम' इति प्रतीतिसाक्षिकत्वाद भूतस्वरूपभेदस्येत्यर्थः। पत्रं च भूतान्यत्वेन परिशेषावाल्मसिद्धिरितिभाव: । 'अस्तु सहि अनायल्या भेदकान्तरम्' इत्यत्राह-अन्य भेदक भावे तु भूतातिरिक्तभेदकसरचे तु. स एव भेदकत्वेनाभिमत एन, आत्मा प्रसस्परो, समानभुजालपटेपु गगादिरिख घटादितुल्येपु शरीरादिषु सात्मकत्वेनैव विशेषात् । न व सात्मकत्वसनियतधर्माणामेव भेदकत्वम्। प्रत्येक विनिगमनाविरप्रसाद । न प सात्मकत्वेनाऽपि सर्म तत्प्रसङ्गा, अश्लतेन सम तदभावाम् । शिरूवरूप शुभभूतस्य, अतः स्वरूपमेव का अर्थ होगा भूतमेव, जो 'वं भूतंगपा भूत से भिगम' इस प्रतीति से लिख होने के कारण अपने आश्रय को भूतमात्र से मिलकर देगा, तो शारीर मादि सो भूतमात्र से मिग्न होते ही, भतः उनके स्वरूप मेन से उनमें परस्परमैन की सिद्धि न होकर मनसामान्य से भिन्म एक अतिरिक्त ही तख की सिसि हो जायगी, गो परिशेषात् आत्मा कहा जायगा। यदि य को कि भारीर, घट गावि में स्वरूपमात्र से मेन मानने में यदि यह पोपतो उनके प्रत्यक्षसिमेव की उपपत्ति के लिये अगत्या किसी भूतभिन्न ही मेदक की कल्पना कर लेनी चाहिये"--तो यह कयन चार्वाक के मनुफक नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर में मटादि मेद के जमावना जो भूत भिग्न मेहक माना जायगा, वही मारमा हो जायगा । इस बात को पटके स्टान्त से समझा जा सकता है, किसी म्पान में बहुत से पट रखे हैं, सभी गुमल होने से समान हैं। उनमें से जब किसी पट को अन्य पठा से पपर करना होता है तो उसे रंग दिया जाता है. 'पा रंगाइमा पट अपने रंग से भय पलों से पृथक हो जाता है। उसी प्रकार शरीर घट आदि सभी संघात भूत उप में समान , खममें शरीर को अन्यभूनसंघाती से पृथक् करना, मनः बसे सात्मक-मामा से युक्त मान लेना चाहिये, इस सात्मकता से ही पब घट मादिभिCIREभूतों से पूषा हो आया । [शरीरगत धर्म से घटादिभूतों का मेद नहीं हो सकता] यदि कई कि-"शारीर में सामकाव के समनियत अन्य भो धर्म है जैसे सेन्द्रियत्व, समाणा मादि, फिर उन्ही धर्मों द्वारा घर गादि से शरीर का पार्थक्य हो जायमा, भता शरीर में सात्मकत्व की कल्पना सनाबश्यक " तो यह टीकमी. पोलि सात्मकत्व * समनियत धर्म भनेक है, उनमें से किसे मेवक माना जाय और किसे. माना जाप, इसमें कोई विनिगमना-किसी एक के ही अनुकूल कोई मुक्ति न होने से सभी धो को मेरा मानना पडेगा । अतः इस गुरुकवाना की अपेक्षा या कल्पना ती मच्छी है कि पारीर लाग्मक होता है. और षा सात्मकत्व भी पारीर को पदावि मिन्न करता है। यदि यह कई कि-"यह प्रश्न सो सामान्य के सम्बन्ध में भी ऊठ सफवा है कि क्या सामस्व को घठादि से शरीर का भेवक माना जाच, पा उसके Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anwarmawammewww.a.0 भास्मासिमुच्चय-स्तबक १ को० ५५ मव वाचमिनिहारीरस्वेनैव पेसम्योपाबानत्वं, धमिग्राहकमानेन विशेषणस्यैव बेबन्योपादानतया सिद्धे, तरवेन परचैतन्यनिमित्त्वादिति निष्कर्ष तथा न न मिशेषणकतोऽपि संपातविशेष इति भाषः । पस्तुतः शरीरपरिगामिनामेव भूतामा नआत्मोपग्रह विना वैचित्र्य, तदुपग्राम वत्सहकारित्व चारद्वारा तया व पारीरं भोगसमानाधिकरणगुणसाश्य, भोगसाधनस्वात् अगाविषद इत्पा मास्पर्षम् ॥५५॥ समभिपत मान्य किसी धर्म को मेवक मामा माय? मता विनिगमता का विरह होमे से सामकरण के समान इसके पनियत भग्य अनेक धर्मों को भी मेरा मानना पडेगा"सो यह कहना चोक नह है, क्योंकि विनियमनापि का दोष तो पूर्वसिसवस्तुओं में ही होता है और जो धर्म प्रथमतः सिच नहीं है किन्तु किसी विशेषप्रयोजन के लिये ही उसकी वारपास जाती है, उस प्रोजन में पूर्वडिसों में मौर इस मूतमसिद्ध वस्तु में विनिगमनाविर का दोष नही होता. अन्यथा उस नयी वस्तु की कम्पनर ही निराधार हो आयगी। [चैतन्य का उपादान कारण शरीर नहीं है] यदि को कि-"जीवित शरीर में बेतमा की स्पए प्रतीति होती है अनः शामिविशिष्ट शादीर को ही बताय का उपाशन मानना चाहिये, न कि यात्मा को"-नो घर गेकमहीं है, क्योंकि जिस प्रमाणा से मात्मविशिष्य शरीरकप धर्मी की सिद्धि होतो है उससे विशेषण भूत भारमा दी थैतन्य के उपादान रूप में सिद्ध होता है। मामा के चेतन होने से ही मात्मविशिष्ठ शरीर में बननता की उपलधि होती है। इसलिये शरोरामक मृतसंपात और धादिका भूतसंघात में चैतम्यात्मकयिशेषणमूलक भी पैलनग्यनहीं माना जा समता, क्योंकि देवनाम्मा का शस्तित्व माने पिना शरीर में चैतम्यकप विशेषण के अस्तित्व का ही असम्भय है। सब बात तो यह है कि-भामा के महयोग के बिना शरीररूप में परिणत होने पाले भूतो में घटादिका में परिणत होने वाले भूतों की अपेक्षा बैलमण्य ही नहीं हो सकता । भतः शरीराम्मक भूतो को मामा का सायोग भाषश्यक है। यह सहयोग सहकारितारूप होगा भौर सहकारिता महराद्वारा होगी | काने का तात्पर्य यह है कि रीर की उत्पत्ति में मतो समाम मात्मा भी अहहारा कारण है. इसकी सिद्धि अनुमान द्वारा की जा सकती है। अनुमान का प्रयोग इस प्रकार होगा,-"शारीर की उत्पत्ति भोक्ता पुरुष के गुण से होती है, क्योंकि यह पुरुष के मोग का सामन होता है, 'यो वहातु जिसके मोग का साधन होती , इसके गुण से उत्पन्न होती है, जैसे माला भारि पस्तु-माली के भोग का साधन होने से उसके गुण-माला मादि बनाने की विधि का शान, माला आदि तैयार करने को इच्छा, माला भारि सैयार करने के -पर नतम्या' इति पाठान्तर', ३६ नुसारेण च तवनाशविशिमगिरस्पेन, पर केवल पारीरस्य चैतन्यनिमित्रायमेष न नूपावनभित्पर्यः । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ m AvwwmaNAA.... स्वा० का . कार्यभेवावेष स्वभावभेदो भविष्यति, इत्यापरते भूखम् - इपिप्रकणिकादिष्यसंघातलाम्यपि । यथा भिन्नस्वभावानि सायकानि सपेति चेत् । ॥५६॥ इविघुतम् , आविचमारचातुर्मासकादिपरिग्रहः, तत्संघानमान्यपि साधकानि, पपा समीर्यपिपाककार्य मेला हविरादिभिन्नस्राभावानि, तपा भूतसंपातमाग्यपि शाहीराणि चैतन्य कार्यभेदाद घटादिभ्यो मिन्नस्वभावान्युपपत्स्यन्ते । अब कार्य मेवे स्वमाषभेदः, स्वभावमेवे व कार्यभेत्' इत्यन्योन्याश्रय, इति दोषे सत्येव कार्यमेवासिर्वि दोषान्तरमाइ–ति वेद ? 'नैतदेवम्' इति शेषः ॥५६॥ सूकम्-व्यकिमानत एषां ननु मिम्नस्वमावता । रसवीर्यविपाकादिकार्यमेदो न विपते ||५|| यत पप = पापकाना, ननु इत्याक्षेपे, भिन्नस्त्रमावता व्यक्तिमानत एसव्यकिभेदमाधापीनेव । मात्रपदप्रयोमनमाइ रसवीर्यविपाकादिकायमेदों. रविशंसदिकार्यरसवीर्यविषाकादिविलक्षणहेतुत्वं न विद्यते । अयं भावः कारणोत्कर्षात् कार्योस्कऽपि कार्यभात्यस्य कारणवैजात्याधीनत्वाद खाधकधान्तनासंतभूतकार्यात सातस्तकार्योस्कर्षेऽपि धैतम्यलक्षण विलक्षणं कार्य पिलमणमात्मानमेव हेतुमामिपतीति ॥५७|| प्रयल रूप गुण से उत्पन्न होती है, शरीर भोका के उत्तप्रकार के नमामिणों से नाही उत्पन्न होता, भतः उसे उसके मरएगुण से उत्पन्न मामना भाषश्यक है ॥१५॥ [कार्यभेद से स्वभावमेव की आशंका ५६वीं कारिका में कार्यमेव से स्थमाघमेद की आशंका की गयी है. इस प्रकार है"जिस प्रकार वि-पृत, गुब. कणिक्कमतुर्मानक मावि के संघात से उत्पन्न होने वाले छ मादि पदार्थ रस, वीर्यविपाककप कार्य के मेष से प्रापेक घत मादि से मिन्न स्वमाष के होते है, उसी प्रकार भूतों के संघात से उत्पन्न होने वाले बारीर भी घटादि से भिन्मस्वभाव के गे; गोंकि शरीर का बैतम्याप कार्य प्रदादि के कार्य से भिन्न है।" यपि इस माaar में कार्य मेष से स्वभाषमेह मौर स्वमाषमे से कार्यमे मामले में भम्पोम्पाभरारूप घोष स्पष्ट दै. तथापि अप्रिम कारिता बररा बताये जाने पावे कार्य की प्रसिदिप भन्य दोष का संकेत इस कारिका के 'इति चेत्' पोदारा किया गया है, जिससे उक्क मान्यता का निषेध विदित होता है॥३॥ स्वभावभेदप्रयोजक कार्यमेही मसिर सदर मावि वाघपदाथों में उसके उत्पाचक रबि, गुरु अादि प्रत्येक मोमिन्न स्वभावता धोती है, वह व्यक्किमेवमात्र के कारण है कि कार्य मेद के कारण, क्योकि लामावि में प्रत मावि प्रत्येक के रस, वीर्यविपाकरूप कार्य से विलक्षण रसबर्ष विपाक कप कार्य की उत्पादकता भप्रमाणिक है। कहने का आशय या कि कारण Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्मयासिमुनय-स्तनक १ हो. ५८ महतेमुभम् तदात्मकत्वमानते संस्थानादिविलक्षणा | यपेयमस्ति भूतानां तथा साऽपि अर्थ न घेत् । ॥५०॥ तदात्मकत्यभानषेविर्गडकणिक्कादिवष्यसंघातात्मकमानत्वे सति, संस्थानादिना 'आदिसम्यात् परिमाणादिग्रह, विलक्षणा=विभिन्नसवित्तिसंवेधा, यवेयं साधकानां भिन्नस्वभावताऽस्ति तथा भूतानां भूतफार्याणां देहघटादिध्यक्तोनां, 'साऽपि चैतन्पोपादानव-अवपादानत्वलक्षणा विभिनवभावताऽपि ध न ? अनोत्तरम् इति चेत् ! नैतवाच्यम्, व्यक्तिमावत इत्यस्य हि स्वरूपभेदाऽप्रयोज्यत्वमर्थः, तत्स्वभावाकान्त. व्यक्तिस्तु मध्यापारादिकारणविशेपसमुस्पाधैव, अतो नाकस्मिकत्वम् अविशेषो या सब स्वभिमतथ्यक्तिविशेषस्यानुत्पत्तिरेच ॥५४॥ से कार्य में उत्कर्ष हो सकता है, पर विजातीयकारण के बिना विजातीयकार्य को जस्पति नही हो सकती । इपिश्यादिगुणों का संघात होने पर कारण उत्कृष्ट हो जाता है, मतः लाहह में इयि चादि प्रत्येक के रखदीय मावि से उत्कृष्ट रसवोर्य मावि कार्य की उत्पत्ति हो जाती है पर शरीर की पाल ससे भिन्न है, शारीर में तो पापिल मणकार्य पदीय परसाद, मो शरीर के उपायक प्रत्येक का कार्य नहीं है। मत स विलक्षणकार्य के मनुष से आत्मारूप विलक्षणकारण की कल्पना मायरषको ६७|| [संस्थान आदि के मैद से भी भिन्नस्वभावता का असम्भव कारिका ५८ में वह शखा की गयी है कि-"हषि गुरु बाहिर निमण से बनने पाके बाह आदि विभिन्न प्रकार के खाद्यपदार्थ यविधि, गुज भाविरूप ही है, फिर भी उनके संस्थान, नाप, तौल भादि भिन्न होते हैं, जिनके कारण उनमें विभिन्नप्रकार को प्रती. तियों से मिलस्वभाषता सिह होती है।तो जैसे मूल भूतों के समान होने पर भी विभिन्न माधों में भिन्नस्वभावता होती है, उसी प्रकार शरीर, घट आदि भूतकार्यों में बैतन्योपानानत्व और चैतम्यापाबामवरूप भिमनस्वभावता पयो भी हो सकती ! मर्यात् शारीर और घर के मूल भूत भले समान हो, पर उनके आकार में भिन्नता तो है, तो जैसे भाकार में मेव इसी प्रकार उनके स्वभाव में भी पह मे को नहीं हो समता कि बेहास्मकसंधान सन्य का उपावान हो, उसमें चैतन्य की मभिव्यक्ति हो, और महाविकपसंघात चैतम्य का उपादाम न हो, उसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति न हो !" कारिका में इस शंका के उसर का भी 'चेत्' संकेत कर दिया है, जो इस प्रकार है-पूर्व कारिका (१७) में विभिन्नखाधकों की सिम्मस्वभापता को यतिमात्रता' या पद से स्यक्तिमेवमात्रमयुक्त बताया गया है, जिससे थापावतः यह अर्थ प्रतीत होता है कि बाघों की भिन्न स्वभापता उनके उत्पावक हषि, गुड भाषि के केवल व्यक्तिगत मेह के कारण, मग्य किसी हेतु के कारण नहीं है। पर पास या हो । यो 'व्यक्तिमानता' का 'मूलकारणों के व्यक्तिगतमेव से प्रयोक्य पेसा मर्थ नहीं है, अपितु 'साकपमेद से मानयोग्य मय है, जिसका तात्पर्य यह है कि खाधकों की भिमस्वभावता Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा सः १ इति चेत् ? सूक्ष्म कर्त्रभाषा तथा देशकालभेदापयोगतः । न चासिदो भूतमात्रत्वे तदसम्भवात् ||५९ ॥ फलितमाह कभाषात् खायकानामिव शरीरस्थातिरिक्तकर्मभावात्, तथा देशकालमेवादीनास् मादिनादिपरिग्रहः 'मयोगत: ' - अभावात् । न वाऽसिद्धमदः उक्तवचन, विश्वस्य भूतैकस्वभावत्थे, सम्भवात् कधसम्मत् ||५ ९ || भूतमार 1 = ་་་ मूलम् तथा च भूतमात् न तत्संघातभेदयोः । भेदकाभावतो दो युक्तः, सम्यग् विचिन्त्यताम् ॥ २६०. ' तथा 'भावे च 'भूतमात्रत्वे' विश्वयभूतैस्वभावत्वेनेषां भूतानां संघात भेदयोः शरीरघटादिभेदयोः भेदकाभावतो मेदो न युक्तः । इति सम्यगु-उक्तनीस्या परमार्थविचारेण विचिन्त्यताम् = परामृश्यताम् ॥६०॥ THE उनके मूलभूतों के स्वरूपमे के कारण नहीं है, क्योंकि सभी स्वाधकों के मूल हर्षि गुड आदि में स्वरूपभेद है ही नहीं, दवि, गुडन्य भावि रूप से सब का स्वरूप एक दी है, फिर भी उनके मिश्रण से भिन्नस्वभायों से युक्त नायकों की उत्पत्ति हल छिपे होती है कि उनके निर्माता निर्माणविधि आदि भिन्न है। अतः उनकी निम्नस्वभावता नमकारक दी है और न उनमें अविलक्षणता ही है किन्तु आर्याक के मतानुसार देव पट मावि के रूप में भिन्नस्वभाबोपेत व्यक्ति की उत्पत्ति हो ही नहीं सकती ॥१५८ [मात्मा के अभाव में शरीरादि का भेद अघटित हैं। पूर्व कारिका में पाक के मत में घट आदि बिभिन्न व्यक्तियों को उत्पत्ति को दुर्घट बताया गया है । होता है कि ऐसा क्यों? क्यों चाक के मत में दे पठ मादि भिन्न व्यक्तियों की उत्पत्ति नहीं हो सकती ? प्रस्तुत (५९) कारिका में इस मन का उतर दिया गया है, जो इस प्रकार है, - जाचकों के समान शरीर का कोई अतिरिक निर्माता नहीं है । शरीर घट भाषि के देश और काल में तथा भट आदि में भी मेत्र नहीं है । एक ही घर में पकी समय दे पट मादि की उत्पत्ति होती है, एवं चाक के प्रत्यक्ष प्रभावकषावी होने से उसके मसमें अहमेद को सम्भावना ही नहीं हैं। शरीर के अतिरिक्त निर्माता भरि के आभाव की बात कही गयी. वह मसिद्ध नहीं है, क्योंकि वावकमत में जब पूरा विश्व केवल भूतात्मक ही है तो सब कुछ समान से है, उसमें कोई freter कर्ता कैसे हो सकता है ? अतः काकमल में शरीर के कर्ता गादि से शून्य होने की बात सर्वथा सुतिसंगत है ||१९|| उपर की कारिका में जो बात कही गयी, प्रस्तुत(६०) कारिका में उसका फखितार्थ बताया गया है। जो इस प्रकार है मार.. २२ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-साबको १५-६२ सूलम्-पकत्सथाऽपरी नाते तन्माण तथाविधः । पतस्तदपि नो भिन्न ततस्तुन्य च तसयोः ॥११॥ यत-यस्मादापाततः प्रतीयमानाद् निमित्ताव , को-भूतसंधानो देहादिरूपः तथा देहादिरूपत्वेन, भारी पधादिरूपा, तामात्र भूतसंघातमात्रत्वे, अपिर्गम्यते, तन्मानावेऽपीप, तथाविधा देहादिरूपी न, इति एताशी विभागः 'उच्यते इति चोपः । वदपि निमित्तं नो भिन्नं भूतातिरिक्तं, तवान्तरप्रसत्रात, ततः तस्मादेतोः, तम्रोः देठघटादिरूपयोर्भूतसंघातयोः, तन-भूतमात्रत्वं च, तुल्पम् । अतः पारीरस्य नामत्वमिति भावः ।।६।। अनभिज्ञः सन् पूना शहतेमूलम्--स्थावेतत्-भूतजस्वेऽपि प्राचादीनां विचित्रता । लोकसित सिंबैव न सा तन्मात्रजा न तु ॥१२॥ स्थादेतद्-भूत प्रदेशप याबादीना-पाषाणादीना विचित्रता-पटादिभ्यो विलक्षणवर्णस्प शादिरूपा लोकसिद्धेति, न कि 'सा नास्तीति वक्तंशययते, प्रत्यक्षसिदस्यायस्य प्रतिक्षे. पाऽयोगात्, तथा शरीरविचित्रताऽत्युपपत्स्थत इत्याशयः ! अत्राह सिदैव सा न सा प्रतिक्षिप्यते, 'तु पुनः जन्मात्रजा न-भूतमात्रमा न ||१२॥ पूरा विश्व केवळ भूतात्मक है। भूत से भिन्न कोई तस्य नहीं है, मतः मेएक का सर्वथा मभाष होने से भूसों के शरीर पय घटादिरूपसंघातों में मेद मानमा उबितरहीं हो सकता। यह तय उफ्तरीमिसे शान्ति से विचार करके निर्धारित करने योग्य है ॥६॥ [देह मौर घटादि तुल्य होने से घटादि की तरह शरीर भी आत्मा नहीं] सूतो का केवल संघातरूप होने पर भी पक संघात देहरूप होता है मौर दुसरा घराविरूप संघास देवरूप महों होता, इस घिभिग्नता का जो निमित्त आपाततः प्रतीत होता है। यह भी भूतों से भिन्म नहीं माना जा सकता, क्योंकि उसे भूतो से मिन मानमे पर सरवान्तर भर्यात अभूत भारमतस्य का प्रसन्न हो जायगा । अतः दोनों प्रकार के संघासों में भूनकता समान होने के कारण पठादिरूप संघात को अनारमा मौर देवरूप संघात को मारमा कहना उचित नहीं है। ' ६२पी कारिका में मनजान हो पेसे पुरुष की ओर से पुनः पक शङ्का ऊठायी गयी है, पर यह कि-"जिस पाषाण आदि पर घट आदि पवार्थ समान रूप से भूवमान से जाय हैं तथापि पागण आदि में घर आषि को भपेश्ना विलक्षणता लोक में भी जाती है। पर नहीं कहा जा सकता कि 'घर शायि के पर्ण, स्पर्श भावि से पाषाण मावि के धर्ण, साश मादि विलक्षण नहीं है। तो जिस प्रकार भूसमात्रात्मक होने पर भी पापाप घट में विलक्षणता होती है, उसी प्रकार शरीर और घंटादि में भी भूतात्मकता समान होने पर भी चेताम-भषेतमा विलक्षणता क्यों नही मानी जा सकती "इस शंका का कारिका में यह उत्तर दिया गया है कि पाषाण और घर की परस्पर घिसक्षमता जो Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका पहि. विक कुतः इत्याहमुलम् --अदृष्टाकाशकाला दिमाममीनः समुहवात् । तथैव लोकसवित्तेरन्यथा तदभावतः ।।६३॥ अष्टाऽऽकाशकालादिसामग्रीता, 'सभुरवात' तदुत्पादाभ्युपगमासू. 'तथा लोकेन न पतीयते' इत्यत्राह-तथैव उक्तवदेव, लोकसंवित अयुत्पन्नलोकप्रतीनेः । अन्यथा एकमनभ्युपगमे तदभावतो-विचित्रताऽभावप्रसारत् ॥६॥ सबैली फैस्तथा न अनीयते इति थे ! अाह मूलम् -न बेड लौकिको मार्गः स्थितोऽस्माभिविनार्यते । किनवयं ग्रुध्यते क्षेति त्वनीतो चोक्तपन्न सः ।।५|| न येह तथपरीक्षायो, लौकिकः - अव्युत्पन्नालोकमानाश्रितः, गरमतो मार्ग : "किमय मित्यं स्थितः' ? इति संशयोपास्टोऽर्थ अस्माभिविनायते-गतानुगतिकतया तहदेव सन्दियते किन्तु 'भयभित्यम्भूतोऽर्थ क्व युज्यने' ? इत्यादिजिज्ञासाक्रमेण परोक्ष्याते. परी. क्ष्यमाणधोक्तबदउक्तरीत्या स्वन्नीनो स्वदभ्युपगम स यथास्थितोऽर्थो न घटने ||६४॥ लोकसित है, उसमें कोई विवाद नहीं है. क्योंकि जो भई प्रत्यक्षसिद्ध है इसका अस्थी. कार शमय है, किन्तु कहना केवल इतना ही है कि पाषाण और घट की परमार पिकापाता भी भूतमाषजन्य नहीं है, इस विलक्षणता का मीमूल कुछ और दो २॥ - [घट और पाषाण की विलक्षणता का निमित] ६३वी कारिका में पाषाण और घर की विलक्षणता के उन कारपों को बताया गया को उनके घटक भूतों से भिन्न है। 'पाषाण, घट मादि की परसार पिलनणता अध, आकाश, काल आदि कारणसम् पाय से सम्पावित होती है। विक्षयर्ग को भाग्य होने के कारण इस तथ्य का मस्यीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि इसका अस्वीकार कर देने पर भस्य प्रकार से उकपिलसणता की उपपत्ति नहीं की जा सकती १६३॥ ३४ वीं कारिका में यह बात बतायी गयी है कि किसी तथ्य के प्ररियायम में भत्यात पामर जनों की प्रतीति का माश्रय लेना भाषश्यकही होता । कारिका..... तरवपरीक्षा करते समय पामर जो की नीति के आधार पर विचार नहीं किया माता, क्योंकि सामान्यज्ञान को तो अर्थ के विषय में पेया संवेश हो सकता है कि क्या ममुक पदार्थ पेसा ही है। या भग्य प्रकार का है अतः यदि सामान्यशन की प्रनीति का साधार किया जायगा ती तत्वपरीक्षक को भी गतानुगतिक होकर उनी संदेश कानु. पतन करना होगा, पर इससे सब का निर्धारण तो नहीं हो सकता, इसलिये तथपरीक्षक को किसी पातु की वास्तविकता का विचार करते समय उस वस्तु के बारे में विशेष का हो अवधारण है उसे भाधार मान कर यह परोना करनी होती है कि विहानों द्वारा स्वीकृत या वस्तुस्थिति से अपपम हो सकती है। और इस रधि से अप देह-पट Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ णमपातसमुचप-रूपक १ को १४ अन्न गव्यनास्तिका: "अवच्छेदकवया ज्ञानादिकं प्रति तादात्म्पेन करप्पकारपताअस्य शरीरस्यय समवायेन सानादिकं प्रति हेतुत्वारपनषितम् । न चैवमात्मत्व मतिर्न स्यात्, पृथिधीत्वादिना सायर्यादिति वाच्यम्। उपाधिसार्यस्येव जातिसारयेस्पाप्यदोपत्वात् । न च तथापि भूवचनुष्कप्रकृतिस्थेन वरोरमतिरिच्येत स्वाभय समवेतस्यसम्बन गन्धायभावस्य गन्धाधिक प्रति प्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्क प्रकृतित्याऽयोगास, पार्थिवादिषरीरे जलादिपर्मस्यौपाधिकत्मात् । न चैवं परात्मरूपस्पशादीनामिव तत्समवेत ज्ञानानादीनामपि चाक्षुषस्पार्शनप्रसा, रूपादिशु जातिषिशेषमापगम्य रूपान्यतत्वेन वाशुपं प्रति स्पर्शान्यतारखेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वफलानान, हस्थमेष रसादीनां चाक्षुषस्पार्शनस्वनि हात् । भादि की परस्पर पिलान्ध में मिला कि बाद में मैं उस की उपपत्ति नहीं हो पाती, क्योंकि चार्वाक को भूत से भिन्न को ख मान्य पदों है, और केवल भूतों से उक पिलक्षणता की उत्पति हो नहीं सकती ॥१५॥ [समवाय से जानोत्पत्ति पा कारण शरीर ही है-नूतननास्तिक नवीन मास्तिकों का स सम्बन्ध में यह पतव्य है कि "अब शरीरावोग मारमा में जान को उत्पत्ति हो भोर घटानि-मवच्छेदेनो स पात की उपपत्ति के लिये 'भवोकतासम्बन्ध से मानावि के भनि तावारण्य सम्बन्ध से शरीर कारण, यह कार्य. कारणभाष माममा आवश्यक है, तब समवायसम्बन्ध से मो जामाथि प्रति हरीर को भी कारण मान लेना अधित है, इस से भिन्न भास्मा की कपमा समावश्यक है। 'मारमय को शरीर का धर्म मामने पर उसके आतिष का भा हो जायगा, ज्योकि सूर्य के जम वीर में पृथिवीन्याभाय के साथ भान्मत्व रखता है और घट भाषि में मात्सत्याभाव के साथ पूधिषीत्य रहता है, और मनुष्य के पार्थिव शरीर में भात्मत्व और पृधियोरख दोनों साप में राते हैं. अतः पात्मत्व में पृधिधीत्व का सोकर्य हो जाता है, भौर सांकर्य जातिस्प का बाधक होता-या शंका करना उचित नोंद पोधि इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जैसे उपाधियों का सोकर्य दोष नहीं होता, पैसे ही झातियों का भी सांकर्य दोष नहीं होगा। भार बह शंका कि-'पषिषी मादिबारों भूत वारोर के जापावान कारप है, उसमें किसी एक भूत में इसका प्रगतमाम मामले में विनिगमनामही है, और एक वस्तु का परस्पर मिगलबार बस्तुमों से भमेष युक्तिषित होने से चारो में अन्तर्माध हो नही सकता, अतः शरीर पूथिषी आदि भूतों से भिन्न पक साम्प्रतस्थ हो जायगा'-तो पाशका भी उचित क्योकि स्वामयसमवेतस्पसम्बन्ध से गधावि (के वृत्तिस्य) का अभाव गन्धादि (की उत्पति) का प्रतिबन्धक होता है, अतः यदि दृषिषी आदि पारो भूतों से शरीर की उत्पति मानी नायगी तो इसमें सलाविगत गाधामाष स्वानपजलसमवेतस्वलम्बन्ध से शरीर में तो के कारण उसमें गन्थ की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध कर देगी । फलतः शरीर निगन्यो जायगा । इसलिये पूधिषी आदि गारो भूनों को शारीर का उपादान कार नहीं माना Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ल्या रीका हि. वि. न चोक्तस्मरणानुपपति, पूर्वघटनाशानन्तर खण्डघटे कारणगुणप्रक्रमेण तद्गुणसमय पूर्वशरीरमाता सरसरमा सगुणसक्रमाम् । न चैत्रपपयविशानादारव यत्रज्ञानादितताकरपने गौरखें, फरलमुखत्वात् । मास्तु वाऽवयवी, विजातीयसंयोगेनैव तदन्यथासिद्धेः । तथा व पारीरान्तरोत्पादेऽपि शरीरत्वघटकविभातीयसंयोगविशिष्टाणुचिसंस्कारास् तामस्मरणोपपत्तिः । जा सकता । 'मनुष्यमादि शरीर को जलागिप्रतिक न मानने पर उसमें जलादि के धर्म का (भीमापन) माधि की प्रतीति न हो सकेगी'-याशका भी उचित नहीं है, प्रतीति हो सकती है, क्योंकि मनुष्यादि के शरीर में जलादि का उपएम्भक-धारक संयोग सदैव रहने से कलादि कप उपाधि के कारण उनमें जलादि के धर्म की औपाधिक प्रतीति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। जाम भादिको शरीरगत मानने पर यह बम हो सकता है कि-"जैसे पकनकि को मान्य व्यसि के शरीर में रहने वाले रूप आदि का बाजुभदि प्रत्यक्ष होता है। इसी प्रकार उसमें खाने पाले कान आदि का भी चाक्षुषाविपक्ष कोमा चाहिये, क्यों किसामादि शरीर का धर्म होने पर कामादि के समान मानमाधि के साथ भी बच. भावि संयुक्तासमवायसम्मिको सम्भव है"-किन्तु इस प्रश्न का कोई महरम नहीं है, घोषित सफा सीधा की उत्तर या दिया जा सकता है कि समाधि के पाशुपादि. मरपक्ष को रोकने लिये जो उपाप किया जायगा-उसी से भान आदि के भी चाभु. पाविप्रत्यक्ष का परिवारहो जायगा और वह उपाय यही है कि रुप तथा सूचके साथ रहने वाले अन्य गुणों में पक जाति मानकर विषयतासम्बन्ध से क्षुषप्रत्यक्ष के प्रति रुपान्यतजातिमत् को तादाम्यसम्बन्ध से प्रतिबन्धक मान लिया प्राय, सी प्रकार विषयतासम्बन्ध से स्पाशेजप्रत्यक्ष के प्रति भी स्पान्यतस्मातिमत् को तारात्म्य सम्बम्म से प्रतिपापक मान लिया जाय । पेसा प्रतिवाय-प्रतिवन्धकमाय माम लेने पर हाम आदि के पानुषादिसम्यक्ष की भारमित नहीं होगी. क्यो कि उक्त आनि के सामावि में भी राने के कारण सानावि भी रूपाम्पसरातिमत हो जायगा 1 अतः उसमतिबारक पश उसके चाक्षुषामित्यक्ष की आपत्ति न हो सकेगी। भगर यह काकी आय कि-"परौर को ज्ञानाहि का भाश्रय मारने पर पायापस्था के शरीर का युवावस्था में अभाव हो जाने से बाल्यावस्था में अनुभूत विषय का युषाषस्था में, पर्ष युवावस्था के शरीर का जावस्था मै अभाव हो जाने से युवापस्था के अनुभूत विषय का वृयावस्था में स्मरण म हो सकेगा"-सो यह शका भी सचित नहीं है, क्योंकि से पूर्व घर का नाश होने के पश्चात् उम्पन्न होने वाले सर घर में पूर्व प्रर के गुण कारणमुणपक्रम से संकारत होते हैं, असो प्रकार पूर्व शारीर के मी गुण पूर्वशरीर के नाश के पाय उसके प्रयषों से उत्पन्न होने वाले नपेहरीर में संकात हो सकते हैं, मतः पूर्वधरोरगत संस्कार के उपरशरीर में मा जाने से पूर्व शरीर से अनुभूत विषय का उत्तरशरीर बाग स्मरण होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । इस कल्पना में मवयवगतमामाविको अवधिगतहानादि के प्रति Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ शास्त्रपातासमुन्वय स्तनक १t० ६४ . परात्मनोऽपि योग्यत्यान् स्वात्मन इन प्रत्यक्षतासमः, तत्तदात्मभानसे तत्वदात्मत्वेन हेनुस्वात् । परेषा तु सत्तदात्मप्रत्यक्षबावचिन्न प्रति देतुःचे विनिगमनाविहः । किञ्च, एवं संयोपस्य पृथर प्रन्यासतित्वाऽकल्पने लाघवम् । न व ग्यणुकपरमाणुरूपाद्यप्रत्यक्षवाय चक्षुःसंयुकमाभूसलपरत्ममवायवादिना प्रत्या सत्तित्वे पुटिनहाय संयोगस्य पृथक् प्रल्पाससित्वकल्पनमावश्यकमिप्ति वायम्; इव्यवत्समवे+प्रत्यो उम्भूतरूपमाहवयाः समयारसामानाधिकरण्याभ्यां स्वामध्येण देवाचे दोपाऽभावात् । अपि च एवमुद्भूतरूपकार्यतायोइक द्रनपग्रत्यक्षत्वमेक्र. नत्वात्मेत्यपि तत्र निवियत इति प्लाधाम"लालः ॥ तत्रोक्यतं . कारण मानने से यद्यपि गौरव है, नाति फलमुगल अर्थात् फलानर उपस्थित होने से गौरय दोषरूप नहीं है । अथषा यह भी कहा ा माता कि अययधी का अत्रयों से पृथक अस्तित्व की नहीं है। क्योंकि अधययों के विजातीयसंयोग से भवयषी का सारा ने मार्ग: लमसिन ही माना है। इस पक्ष में अचयनों के पूर्ववर्ती विजातीयमयोग का नाश हो जाने पर अवषयों का नया मित्रा सीयस योग शान प्राता है, और इस प्रयोग से विशिष्टषणसमुदाय की नया शरीर कहलाता है। इस पारी में में सभी छाते हैं जो पूर्व शरीर में थे, अतः पूर्व सरीरस्थ अणुषों में उत्पन्न संस्कार को नये शरीर में भी विद्यमान रहने से पूर्व शरीर से अनुभूत विषष का नये शरीर से स्मरण दाने में काई बाधा नहीं हो सकता । शरीरात्मबादी को आत्ममानसमायक्ष की भापति का पदार। छका हो सकती है कि-"यति शरीर ही मारमा हि न तो पकव्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के शारीर का जैसे बाभुषप्रायन होता है उसी प्रकार उसे उसका मानसपा पक्ष भी होना चाहिये । इस आपति को इष्टापति मान कर शिरोधार्य नहीं किया जा सकता. क्योंकि आत्मा का मामसप्रत्यश्न उसके मानादि गुणों के साथ ही होता है, अतः पकव्यक्ति को हमरे यक्ति के शरीर का आत्मा के रूप में यदि मानसपयश होगा तो उस दूसरे शरीर के सामादिगुणों का भो मानसप्रत्यक्ष लाथ माथ मानना पडेगा को इट महो "-रस वाश उमार पह है कि-नस पारमा के मानसमस्या में ननद प्रारमा मादाम्य सम्बन्ध मे कारण, मतः एक व्यक्ति को अन्य प्रारमा के मानसप्रन्या को आपात नहीं हो सकती । मो लोग आग्मा को शरीर मे भिन्न मामने हैं उनके मन में एक व्यक्ति को अन्य व्यक्ति के मामा के ग्रात्यक्षापसि को रोकने के लिये नादास्मविषयकमात्या के प्रति ननामा को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि पेला मानने में विनिगममा विरह होगा । जैसे इस मत में उक्त भापति का परिद्वार मध्य प्रकार के कार्यकारण भाष द्वारा भी हो सकता है, उदाहरणार्थ- अपकवकनासम्बन्ध से तत्तमात्मविषयकप्रत्यक्ष के प्रति तसस् शरीर. तावास्यसम्पम्य ले कारण है. एथै समवायसम्बन्ध में सवारमविषयकप्रत्यक्ष के प्रति विप्रातीयत तम्मनासयोग समयाय सम्बना से कारण, ऐसे अमेक में से एक ही कार्यकारणभाव मानने में कोई प्रबल मुक्ति नहीं है. मतः Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मा० क० टीका थ. वि० मुख- मृतदेद्देच चैतन्यमुपलभ्येत सर्वथा । धर्मादिभाषेन तन धर्मादि नान्यथा ||१५|| नं. मृतदेहे च सर्वथा - जोवच्छरीरकालीनप्रकारेण, देहधर्मादिभावेन देहधर्मत्व देहकार्यत्वाभ्यां चैतन्यमुपलभ्येत देहत्य देहरूपादिवदिति भावः अन्यथा योग्यानुपलमेन तदभाव एव स्यात् । तथा च तत् चैतन्यं समति तद्धर्मभूतं सत्कार्यभूत च न तद्भावेऽपि तदभावसार घटत्वष्टरूपादिवदिति भावः ॥६५॥ विनिगमनादि दोने से इन सभी कार्यकारणस्यों को स्वीकार करना पड़ेगा, जिस में गौरव का होना अनिवार्य है । , 1 १७५ , [ श्रीरामवादीको प्रत्यासत्ति में लाघव ] शरीरको मारमा मानने में एक यह भी गुण है कि संयोग को प्रत्यासति प्रत्यक्षमनिकर्ष मानने की आवश्यकता न होने से लाभ होता है क्योंकि संयुक्तसमवायसम्म से ही शरीररूपा का प्रत्यक्ष दो दिश से मिम्न नित्यभामा माना जायेगा तो उसमें संयुक्तसमवायसम हो सकने से संयोग का सन्निकर्ष मान कर मनःसंयोग से उसके घर की उत्पत्ति करनी होगी। यदि यह कहे कि "यक परमाणु पर्व वक्षु आदि के रूप के चार प्रत्यक्ष के परिहारार्थ मधुःसंयुक्तसमवाय को अक्षु संयुक्त रूपवत्समवायश्वेनैव प्रत्यक्ष के प्रति हेतु मानना होगा, ताकि व्यक और परमायु में महस्य एवं अनु मावि में रूप न होने से उनके रूप के साथ त्र का वाछित सम्निकर्ष न हो सके, तो फिर इस स्थिति में असरेणु का प्रत्यक्ष तो इस सर्विसेना सकेगा क्यों कि शुक के महत्वण्छोन होने मे श्रसरेणु वधु/संयुक्तमहासमवेत नहीं है, अन रेणु के प्रत्यक्ष को उपर्शन के लिये संयोग को स्वतन्त्र सन्निकर्ष मानना अनिवार्य है" तो यह कहना ठीक नहीं है क्यूकि त्य के प्रत्यक्ष में महत्व उद्भूतप कोलवा से स्वतन्त्ररूप से कारण मान लेने पर धनुःसंयुक्तसमवाय को युक्तसमवायन भी कारण मानने में परमाणु बक्षु आदि के रूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति हो तो अतः रेणु का संयुक्तसमवाय सम्किर्ष से हो प्रत्यक्ष सम्भय होने से योग का सम्मिक मानना आवश्यक नहीं है। शरीर को आत्मा मानने में एक मोर भी गुण यह है कि इस मन में भूतरूपकार्यतावच्छेत्र केवल द्रव्यमन्यथ भी हो सकता है, दूव्य में आरमेतरत्वविशेषण लगा कर आमेसर प्रत्यय की कार्यतावच्छेदक मानने का आवश्यकता नहीं है: क्योंकि इस मन में आत्मा शरीररूप होने से उत्भूतरूप का आश्रय है दो मतः प्रत्यविषप्रत्यक्षमात्र के सचिव को कारण मानने में कोई दोष नहीं है, इस प्रकार के कार्य में वय है ॥ [मध्यनास्तिक्रम संपूर्ण ] [नव्यनःस्तिक के मत का परिहार ] प्रस्तुत ( ६५ वीं) कारिका में देवात्मवाद के समर्थन में नवीन नास्तिकों द्वारा प्रकट किये गये विचार का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिनुच्चय-तरक र मो० ॥ 'यद् यद्धर्माविर्क, न तत् तद्भावे न भवति' इत्या अभिचारमाप समाधते मूलम्- म च भावण्यकार्कश्यश्थामत्वैमिचारिता । मृतदेहेऽपि समायावष्यक्षेणैव संगतः | | F जयकारण। तीन सदेव तेजप सदभावाद व्यभिचारितेति वाष्यम् अध्यक्षेपौव सं गतः परिदात् , मतदेहेऽपि सद्भावात् तेषा, विना विषय प्रत्यक्षाऽयोगात् ॥६६॥ ननु रूपमा सस्रोपलभ्यते, न तु नवदापग्रहजन्यं पावण्यादि । किरुष, उक्त नियमोऽप्यसिद्धः, पायजरूपादिना न्यभिचारात् । तदेवत्व-तस्संख्या-तत्परिमाणोपर्यवस्थापितकराप्रपातप्रत्यक्षोपसम्पत्याना(धना)पत्तिभिया तम परमाणुपर्यन्तनाचान पुन पगमात् । अत पाह-- चतम्य को दिई का धर्म और देह का कार्य माना जायगा मो जैसे शोषित पेर में चैतन्य रहना , और उपसम्ध होता है, उसी प्रकार. मृतदेह में भी उभे राना पाहिये और उपलब्ध होना चाहिये, किन्तु प्रत्यक्ष योग्य होते हुये भी चा मृतदेह में उपाय मदों होता। अतः योग्यानुपलब्धि से मृतोद में उसका मभाव निर्विवादरूप से मिस है। यदि कई कि-"शन्य मीवित देह में ही रहना, मृतदेश में नहीं रहता, असा उनकी अपलब्धि नहीं होती" तो यह काना ठीक नहीं है, क्योंकि देश के राते जब बैतम्य का अभाष दो आता है तो उसे वेद का धर्म एवं पा का कार्य नही मामा जा सकता । थनि बजीवित देह काही धर्म अथवा कार्य होता तो उसे देहत्य और गत कप के समान मृतदेह में मी रहना चाहिये था, किन्तु मृप्तदेह में या नहीं रहता। अतः घटत्य भोग घटरूप के समान या जीवित देह का मो धर्म या कार्य नहीं हो सकता ॥५॥ मिनार की भाशका और परिहार] कारिका १६ में जो जिसका धर्म या कार्य होता है, उसके रहते उसका प्रभाव नही होसा' इस नियम में ग्यभिचामाशा प्रस्तुत कर उसका समाधान किया गया है "लापण्य, कार्कश्य, और पयामता ये जीविनागरीम के धर्म पयं कार्य है, पर मृतपर में उनका अभाव हो जाता है, पेत्र के रहने देह के न धर्मों का मभाव हो जाने से यह नियम व्यभिषरित हो जाता है कि 'जो जिसका धर्म या कार्य होता है, उसके राते उसका प्रभाव नहीं होता। शराः मृतव में वैनग्य का अभाव होने पर भी उसे जीवित बह का धर्म और कार्य मानने में कोई दोष नही है"-इस शहा के उत्तर में प्रकार का कहना है कि सक निगम में बनाया गया ग्यभिचार असंगत है. क्योंकि मृह में समका अभाव होता तो मृतषेत्र में उसका प्रत्यक्ष न होता, पर वे धर्म मृतदेह में भी प्रत्यक्ष देसे आते है. मतः मृतदेह में उसका अस्तित्व धोने से उक्त म्यभिचार ठीक Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० हरेक हिं०वि० मूलभूत सामसद्भावो न स तन्मात्रकः । - मत एवान्यभावादसमास्मेति व्यवस्थितम् ॥६७॥ यदि मृतदेहे लावण्यसद्भावो न वदा स लावण्य सद्भावः तमामहेतुको न= वैमात्र प्रयोज्यो न, तन्मात्रहेतुकत्वे तद्रपादीनामित्र तत्वश्वेऽनाशप्रसङ्गात् । तन्मात्र[कावण्यादि के अनुपलम्भ और उक्त नियमासियि की आशंका यह शङ्का हो कि "मृतदेष में केवल रूप ही उपलब्ध होता है, लावण्य आदि का होता क्योंकि वे बलवान धातुओं के सम्बन्ध से उत्पन्न होते हैं, मृतदे में मानधातुर्थी का अस्तित्म न होने से उसमें वण्य मादि का होगा समय है, नवरदेव लावण्य आदि को प्रत्यक्षसि बताना ठीक नहीं है। इसलिये लावण्य आदि धर्मों द्वारा प्रदर्शित व्यभिचार ठीक है । पाकजरूप आदि के साथ व्यभिचार होने से भी उक्त निगम अलि है, जैसे कसे घट को पाक के लिये जब दिया जाता है तब उऔर के पूर्व पाकोत्तर होने वाले रूप आदि धर्मो का भाव होने से 'ओ जिसका धर्म पा कार्य होता है। उसके रहसे उसका अभाव नहीं होता' यह नियम असिक है।jors से परमाणुपर्यन्त नाश मानने में बाधायें | में से क यत्रि कहें कि शक के समय तो मठ आदि का परमाणुपर्यन्त नाश हो जाता अन्यथा घट यदि ज्यों का त्यों बना रहे तो उनके भीतरी परमाणु आदि अपवयी रह जायेंगे, अतः पाक से पूर्व घट का नाश और नये घट को उत्पत्ति होने से घर के हम के रूप आदि का प्रभाष सिद्ध न होने से उना नियम में कोई क्षति नहीं है"तो यह कहना ठीक नहीं है. क्यों कि पाक के लिये घट जहाँ रखा जाता है, सिवनी सपा में रखा जाता है. और जिस परिमाण का रखा जाता है पाक के बाद भी द बसी स्थान में, उतभी ही संख्या में व उसी परिमाण के साथ होता है । एर्व पाक के पूर्व यदि घट पर पर आदि कोई अन्य पात्र रखा रहता है तो पाक के बाद बद पाच घट पर पहले ही के समान हो सुरक्षित उपलब्ध होता है यह सब बातें पढ़ का परमाणु नाश मानने पर नहीं बन सकती, क्योंकि उस दशा में गये घट का स्थान पत्र जा सकता है, उसकी संख्या घट बढ़ सकती है उसका परिमाण छोटा वडा हो सकता है, उसके उपर रखे पर भावि पात्र आधारभूत उस मठ का नाश होने पर गिर सकते हैं। इन बातों को देखते ही मानना होगा कि पाक के समय घट का परमाणुपर्यन्त नाश नहीं होना यह ज्यों का त्यों पता रहता है, उसके सूक्ष्म कि द्वारा सूक्ष्म अग्निकण का भीतरी भाग के साथ सम्पर्क होने से उसके भीतरी भाग को को सकता है और उसकी वेश, संख्या आदि के विषय में पूर्व स्थिति भी सुरक्षित रह सकती है। इस प्रकार घट के रहते पाक के बाद उसके पूर्व रूपादिक पूर्व पाक के पूर्व उसके पाकोन्तर रूपादि का अभाव होने से जो जिसका धर्म या कार्य क्षेत्र है। उसके से उसका प्रभाव नहीं होता यह नियम मलिक है।"-- काका का समाधान कारिया में दिया जाता है T. MI. R3 Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ - -- ...शास्त्रमा समुनष:स्तबक र लो. १८ हेतुफत्वमत्र वत्सामग्रीसमनियतसामग्रीकम् , अतो न तपादावपि हेस्वन्तरसम्वादनु पपत्तिः । अस्तु ताई तत्र तदा गत्वरं हेन्वन्तरम्' अत्राह अत एव तदा लावण्यामा अपचैतन्याभावस्याप्यन्यप्रयोज्यत्वादेव, तादृशान्यपदार्थसदभाबाद मस्त्यात्मा शरीरा तिरिक्त चैतन्योपादानम् । इति व्यवस्मितम् सिबम् ॥६॥ मूलम्-न प्राणादिरसौ, मान किं, तबाषेऽपि तुल्यता । तदभावादभावश्वेदात्माऽभावे न का प्रपा : ६८|| पर आइ-भसौ चैतन्याभावप्रयोजकाभाषप्रतियोगी प्राणाविर्न किन्तु यात्मा, अत्र कि मानम् ! उत्तरवाघाह प्रतिबन्धा -'ग्राणायभावस्यैव' इति शेषः, तद्भावेऽपि= चवन्याभावप्रयोजकाभाषप्रतियोगित्वेऽपि, तुल्यता किं मानमित्यर्थः । तदभावात् प्राणाबमायान अभाषः 'चैनन्यस्य' इति शेष, तधा चाऽन्यथाजपपतिरेव मानमिति चेत् ! तर्हि आत्माभावे न चैतन्याभावः, 'इत्यत्र य' इति शेषः, का प्रमा=किं प्रमाण न फिशिद् , अन्यत्रानुपपचेरेकन पक्षपाताऽयोगादिति भावः ||८|| लावण्यादि में सात्मकशरीरप्रयोग्यता की सिद्धि] मृतदेह में यदि लावण्य नही है तो क्या है कि यह वेहमानहेतुक नहीं है, क्योंकि पदि यह मानदेतुक होता तो जैसे हमात्र हेतुक होने से वेगस रूप देह के रहते मही नट बोता उसी प्रकार देह के रहते देह के लावण्य का भी नाश न होता । देहरूप के प्रति देहापपय का रूप भी कारण होता है, अतः उसे मात्र देतुक करना मसंगत है'-या करना ठीक नहीं है, क्योंकि हमारहेतुक का अर्थ लामग्री ही सममियतसामग्री से अन्य । शाशय यह है कि जब देशसमकसामाग्री का सम्मि धान होता है नए नियमेन देहरूपजनक्सामग्री का भी मम्मिधाम होता है मता रे के साथ या पैन के अन्यहित उत्तर उत्पन्न होने के नाते देहरूप को पेहमानहेतुक कह दिया जाता है। मनः एका का देह से अन्य रे होने पर भो उत्ता से उसे मानतुक करने में कोई मौचिस्थमा नहीं है। पदि यह कहें कि-'मृतदेह में मायग्य का अभाव होने से उसे हमापनयन मान कर किसी ऐसे कारण से सम्म मानना चाहिये. भो मृतपेट में नहीं रहता'-तो उसी प्रकार अनन्य के सम्बन्ध में भी याद कहा जा सकता है कि तम्य भी बेइमात्र जन्य नहीं है अपितु उनका भी कोई पंसा अम्य हेतु है जो मृतदेह में नहीं रहता। उसके मरने से ही मृतदेह में चैतन्य की उत्पत्ति नहीं होती। तो इस प्रकार मिल कारण के अभाव से मृतदेह में बनाय का अभाव होता है का कारण धात्मा की है, इस रीति से बेह से भिन्न आत्मा को सिद्धि निर्विघाव है ॥६७।। अचेतन्य का प्रयोजक प्राणाभाव है या मामाभाष ] १.वी कारिका में 'मृतोह में बता का सभाष शणामाव के कारण इस कथन के प्रतिपापी रूप में 'मृतदेह में भारत के अभाव से चैतन्याभाव होने का प्रतिपादन कर रहे है। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका हि. मिक मूलम्--तेन तदभावमाविस्वं न भूयो नलिकादिना । सम्पादि सेऽ यतात्सः मोऽस्य एवेति चेन्न सत् ।।६९।। पर आह--तेन साम्प्रदादिना र को भी अवगन्यतिरेको, तात्विक वत्प्रतियोगित्य, 'तत्र मानम्' इति शपः । हेतुत्वेन क्लृप्तस्य तस्यैव कार्याभाषप्रयोनकाभावप्रतियोगित्वकल्पनौचित्पादिति भावः । अत्रोसाम्-'' अन्धयष्यतिरेकप्रतियोगिरवमेव प्राणादेसिमित्यर्थः । कुनः ? इत्याइन्भूयो मरणोनरं, नलिकादिना, भाविशवाद पस्त्यादिः , सम्पादितेऽपि -अन्तःसंचारिनेऽपि धायौं' इति शेषः । अतशिसवेः चैतन्यान्नुपरन्धययभिचारादिति भावः । पर आर-'+' नलिकादिना सम्पा. दितो वायु, अन्य पवन प्राणः, इति न व्यभिचारः। उत्तरवाधाइ-इति वेद ! न सत्-यदुक्रमेतत् ॥६॥ मृतदेह में किसके भाव से वन्य का अभाव होता है. यह प्राण मावि नहीं, किन्तु श्रापमा -समें क्या पमाण के? स प्रश्न का प्रतिमानी रूप में यह उत्तर है कि 'मुसवेश में मिलके अभाष से चेताय का अभाव होता है, वह भास्मा नहीं किन्तु माण मावि है, इसमें श्या प्रमाण । कहने का आशय यह है कि मो प्रश्न दोनों पक्षों में समामरूप से ऊठ सकता है उसे किसी पक पक्ष की ओर से नुमरे पक्ष के विरोध में ऊठाना गनुचिन है यदि यह कहे कि मृतोह में चैनण्य का अभाव तम्य के किसी कारण के अभाव के बिना नहों उपपन्न हो सकता. अतः स अन्यथानुपाति से हो या बात सिद्ध होगी कि 'प्रामावि तम्य का कारण हैं, मृमदेव में उसका अभाव कोने से पैतम्य का प्रभाव होता है तो इसका मी ग्रह नियन्दी उन्ना है कि आग्मा पैतन्य का कारण है, मृतदेह में उसका अभाव होने से अनन्य का अभाव होता है इस बार मागने में क्या प्रमाण करने का आशय यह है कि सन्यथानुगपति दोनों पक्षों के लिये समान है। अतः 'सन में चैतन्याभाव प्राणाभाष के कारण है केवल इसी पक्ष के समर्थन में उसका यिनियोग नहीं किया जा सकता ॥६॥ नलका वायुसंचार से प्राण में चैतन्यान्वयम्यतिरेकामाव की सिदि यदि यत्र को कि-"प्राणावि के रहने पर बैतन्य की उत्पत्ति होती है और प्राणावि के न रहने पर चेतन्य की उत्पत्ति नहीं होती. स प्रकार प्राणावि के साथ मतभ्य का मन्वयव्यतिरेक है। अतः माणादि मैं बैरभ्य के अवयव्यतिरेक के व्यापक अम्पपश्यतिरेक की को प्रतियोगिता, घही चैतम्य के प्रति प्राणावि के कारण होने में प्रमाण है। और जय प्राणावि चैतन्य का कारण है तो कारणाभाव के ही कार्याभाष का प्रयोजक होने से इसी को बैतन्याभाष के भयोजक अभाघ का मतियोगी मानना अर्थात् मागापभाषीले मृतदेह में सन्यको अनुत्पति मानना अम्रित है, अतःस के प्रतिवादी रूप में मात्मा के अभाव से मृतदेह में चैतन्य की अनुत्पति का प्रतिपादन ठीक नही है"--तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि मृतदेह में नली, मसती मानि से वायु का Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० --.-.-.. .maamanawwamm शास्त्रवाचमुच्चय-स्तक हो. मूकम्-वायुसामान्याप्तीसरेस्तत्वभावः स नेति चेत् ! मनापि न प्रमाण पचैतन्योल्पतिरेव चेत् ||७|| कुता ? इत्याइ-वायुसामान्यससिद्धेः-कोष्टान्तरसंचारिवायत्यं हि प्राणत्वं, ततः कोष्ठास्तम्संचारवायत्तयोस्तत्र सिद्धः कथं न प्राणत्वम् ! इति भावः । पर आइ-'स' चैतन्य जननस्वभावो न, अतो म प्राणः। अत्राह-दति चेत् ! 'अत्रापि-पैतन्य मननस्वभावस्वेऽपि 'वो':-युष्माकं, न प्रमाणम्. अप्रत्यक्षत्यानस्थ । चतन्योत्पत्तिरवावधानपदमाना प्रमाणमिति ने ७०॥ मन्तःसंचार करने पर पृतदेह में प्राण का सम्पन्न होने पर भी चैतन्य की उत्पत्ति न होने से अम्बयष्यभिचार होने के कारण प्राणादि के साथ पैतम्य के भग्ययव्यतिरेक का नियम को अमिय है, अतः प्राणादि में वैतम्यजनकना अप्रामाणिक है। यदि या कई कि-'नली मावि तारा मृतदेह में बतासंचारित वायु प्राण को पड़ी है, मतः उक्त भक्षयध्यमिवार नहीं है तो यह कथन ठीक नहीं है। यह कथन की ही मही यह बात गगली कारिका (७०) में विखलाएंगे ॥६॥ नलिकासंचारित वायु प्राण से भिन्न नहीं है] ५. बी कारिका में मृतदेह में मली द्वारा अन्तःसंचारित वायु को प्राणामक खिन कर प्राण में चैतम्य के अवयव्यभिचार का समर्थन किया गया है। कारिका का भय इस प्रकार है 'मृतदेह में नलीबार। अम्त संधारित वायु प्राणहा नही है, यह बात जो पूर्व कारिका में कही गयी है वह ठीक नहीं है, क्योंकि कोष्ट के भीतर संबाण करने वाले वायु को ही प्राग कसा आता है, तो फिर नही द्वारा सूतदेह के भीतर भरा गया घायु भी जब कोष्ठ के भीतर संपरण करता है और वायु भी है. सा उसे प्राण मानने में क्या पाधा है, हाँ यदि कोठ के भोतर संघरण म करता मघवा पांगु न होता, तब प्राण के उक्तलक्षण से संग्रहीत होने के कारण उसे प्राण करना उचित न होता; किन्तु अब वह प्राण है तब उसके रहते भी मृतपेट में बैतन्य की उत्पत्ति न होने से उसमें तम्य का भाप्रयव्यभिचार निर्विवाद है। यदि यह को कि तर संचरण कोवाला पाय माण' का इतना लक्षण हो.. किन्तु कोष्ठ के भीतर संचरण करने वाला बतम्यजननस्वभाष से उपेस पायु प्राण है प्राण का यह लक्षण है, जो धासु नली द्वारा मृतदेह के भीतर भर दिया जाता है, बस कोष्ठ के भीतर संचारी होने पर भी बैतग्यजना के स्वभाष मे युक्त न होने के भरण प्राणमय नहोनी सका, अतः उसके द्वारा प्राण में तम्प के अन्ययम्पमिचार का समर्थन अनुचित'-तो या कहमा भी ठीक नहीं है, कोंकि नालो मारा पता के भीतर भरे गये वायु में बैतन्यमनस्वभाष नहीं है मौर. जीवित देव के भीतर समय करने वाले वायु में चैतन्यजनस्वभाष है' इस बात में कोई प्रमाण नहीं है, कारणवैशम्पानामस्वभाव स्वयं अप्रत्यक्ष है । यदि यह कई कि-"मुतरे में गली द्वारा मायु भीतर Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा०क० टीका डि.वि० - म तस्यामेव सन्देहात् तवायें केन नेति चेत् ? ततःस्वरूपभावेन तदभावः कथं नु नेत् ॥७१॥ १८५ म, 'तस्यामेव' -चैतन्योत्पत्तावेव किमियं प्राणप्रयोज्या उतात्मप्रयोक्या' हसि सन्देहात् । तथा चान्यथासित्वशङ्कया न तत्र कारणत्यनिश्चय इति भावः । भारमन्यप्य सन्देहः केन कामेन नयेन कारणत्वमिः स्यात् इति चेत् तस्य चै न्यस्य तस्वरूपमावेन आत्मधर्मानुविधायित्वेन तथा श्राम्यति चैतन्यधर्मानु विधायकत्वेन विशेषदर्शनादन्यथासिद्धस्यशङ्कानिरास इति भावः । " भरने पर भी तय की उत्पत्ति नहीं होतो मोर जीवित देह में वेतको उत्पत्ति होती है यह वस्तुस्थिति है. इसके अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि अंधित देश के अन्तःस्थित वायु में चैतस्यजनन स्वभाव है। अन्यथा यदि उसमें या भावन माना जाना तो जीवित देह में भी तय की उत्पत्ति न होगा, गलः कचैतस्योत्पत्ति की अभ्यश्रा अनुपपति श्री जीवितदेहान्तःस्थित वायु के वैतस्य ननस्यभाषता में प्रमाण है तो इस कथन में भी सत्याश नहीं है। इस कथन में सत्यांश नहीं है, यह बात भिम कारिका से समझाएँगे ॥७०॥ | मोनुविधान से तात्पत्ति का प्रयोतक आता है ] ७९ व कारिका में प्राण में तम्यजनकता का खण्डन कर उसके द्वारा उसमें स्वभावता है साधनार्थ पूर्व कारिकोक्त प्रयास को मिल किया गया है'जीवित देश में मन्तःसंचारी वायु की प्राणजनन स्वभाव से युक्त मानना आव tयक है, या उसमें प्राणजनकता की उपति म दोगी' पूर्व कारिका की यह बात ठीक नहीं है. 'जीवित देठ में वैतभ्य की उत्पत्ति प्राणप्रयुक्त है वायु है'ऐसा सन्देह होने से वैवस्य के प्रति माण में अन्यथासिद्धत्व को शङ्का हो जाने के कारण मांग में चैतन्यजनकता ही असिद्ध है, मत्तः उसकी अन्यथाऽनुपपत्ति से प्राण में सभ्य जनमस्वभाव का साधन भाय है । यत्रि कहें कि - "इस प्रकार तो आत्मा में भी ज्ञानकारणंच का मिश्ाय न हो सकेगा, क्योंकि 'थात्मा में उक्त प्रकार का संदेह नहीं हो सकता' देखी घोषणा करने का आधारभूत कोई प्रमाण न होने से आत्मा के विषय में मी इस प्रकार का सन्देह दो ही सकता है कि 'जीवितदेद में चैतन्य की उत्पत्ति आत्म प्रयुक्त है अथवा प्राणयुक्त है ? प्राणमयुक्त होने पर वात्मा की अन्यासिद्धि ि घाव है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सैतन्य आत्मा के धर्म का विधान करता है, अर्थात् जिसमें शरमा के मध्य धर्म है, चैतस्य भी उसी में रहता है, जैसे स्टोक में वसा व्यवहार होता है कि 'मुझे यह ज्ञान है कि यह कार्य अनुचित है फिर भी मुझे यह कार्य करने की इच्छा है. मैं ऐसे कार्यों को अनुचित जानते हुये भी करता हूँ" इत्यादि । अतः आत्मा में चैतन्यात्मक धर्म के अनुविधायकत्वरूप विशेषधर्म का होने के कारण आत्मा में एक प्रकार का सन्देद न हो सकने से उसमें ज्ञान कारणत्व का निकाय होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापघातांसमुख्य-स्तषक १ लोक नन्धेवं प्राणम्य चैतन्योपादानत्यं मास्तु, निमित्ताने त्वविरुद्धमेव, सन्नाशादेव च चैतन्यनाशा, आत्माऽभ्युपगमेऽपि नित्यत्वेन तस्य नाशाऽयोगान् । न च समाहरीरे आरमसंयोगनाशास्चतन्याभावः, विभुधेन तसंयोगस्यापि सार्वत्रिकत्वात् । चैतन्योपादानं च प्रागुक्तरीत्या शरीरमेय इति मन्यनास्तिकस्य न दृपणं, इति चेत् ? न, प्राणनाशं बिना पि सुषुप्त्यावी ज्ञानादिनाशात् सन्नानस्य तमाशाऽहेतुत्वान् । एतेन 'विजातीयमनःसंयोगस्य नाशस्यैव स्वप्रतियोगिजन्यत्वसम्पन्न प्रतियोगितया ज्ञानादिनाशे हेतृत्वमस्तु' इत्यपास्तम् , सुपृप्तो पासप्रश्वामादिसन्तानानुरो. धेन विजातीयमनःसंयोगसवस्या यावश्यकत्वात् । [माण-निमित्तकारण, रोरोपादानकरण-नयनास्तिकर्वपक्ष] इस पर नध्यवास्तिकों का कहना यह है कि-"चेतन प्राण धर्म का अनुविधान माहीं करता, अतः प्राग कोबैतन्य का उपनानकार न मामा नाय, पर उसे तन्य का निमिसकारण मानने में, नया उन अभाप से चैतन्य को अनुपात मानने में कोई घिरोध नहीं है, अन्यथा पनि उसे चतन्य का निमित्तकारण भी न माना: ना जायगा तो कारणाभाष ही कार्यानुरपास का प्रयोजक होता है, अतः प्राणाभाव के चैतन्यानुत्प नुत्पादका प्रयोजक न हो सकने से धैतन्योत्पत्ति का कभी षिराम होन होगा, क्योंकि उसके सपाजानकारण मामा के निस्य होने से तम्योम्पनिको सतन सम्भावना बनी रहेगी। यदि यह को किससवारीरावदेन बान की उत्पति में सत्तरशरीर के साथ भास्मा का योग निमिसकारण है, अतः इस निमितकारण के मभाव से बैतम्य की अनुत्पसि मामी आ सकती है, तो यह डीक नहीं है क्योकि आन्मा के ल्याएक होने से उसका संयोग सभी मूर्स न्यों में तब तक रहता है जब तक ये भूलेंद्रष्य विधमान राते हैं। अतः मृतदेश में भी मामा का संयोग बने रहने के कारण शरीरात्मसंयोग के के समान से बैतम्य की अनुत्पत्ति मानमा उचित मही हो सकता । इस लिये विवश होकर या मानना आपश्यक है कि पूर्वतिरीनि से शरीर की शम्य का उपाहान और प्राण असका मिमित कारण है। मृतदेह में प्राणका निमित्तकारण का अभाव होने से चैतन्य की मनुस्मप्ति रहता है । इस प्रकार नयनास्तिकों के मत में दोष नहीं है।" किन्तु घियार करने से नयनास्तिक का उपर्युक कथन मसंगत प्रतीत होता है, क्योकि सुषुप्ति के समय प्राण का समाव होने पर भी चतन्य की भनुत्पत्ति हसी अतः प्राणाभाव को बेतण्यानुरूपति का प्रयोग नहीं माना जा सकता | विजातीयमनःसंयोगागाव चतन्याभाव प्रयोजक नहा है। 'प्रतियोगितासम्बन्ध से पानानि की अनुत्पत्ति के प्रति विजातीयमनासयोग का प्रभाष स्वनियोगिम्यत्वसम्बन्ध से प्रयोजक है', -पेला प्रयोग्य-प्रयोगकभाष भान कर शान के कारण विजानीयमनः संयोग में अभाव को भी बैतन्य की अनुत्पति का मपोजकानही माना जा सकता, क्योंकि, श्वास प्रश्वास के प्रवाद की मषिकिमानता की उपपत्ति के लिये सुषुप्ति के समय भी विजातीयमनासयोग का चना भावश्यक होता Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ स्था क टीका पनि अभ मीचनयत्नमरादेव सदा श्वासप्रश्वासादिसन्तानः, तन्नाशश्च प्रारब्धाsereनाशादेश, शति तदन्यनाशे विजानीयमन संयोगनाशो हेतुरिति चेत ? न, एवं सत्यावश्यकस्वास सर्वचाटनाशादेव शानादिनाशाभ्युपगौचिन्यात् । अत पर विजातीयमन:संयोगेऽपि न मानमस्ति, अष्टविशेपपरिपाकवशादेव मुगुप्स्यादिफाले सानानुत्पादाद, परेणापि मनसो निरिन्द्रियप्रदेशगमने नम्य धरणीकरणीयत्वात् । श्रष्टं च धमिग्राहकभानेन प्रत्यगात्मनिष्टमेव सिमिनि एतो नास्तिकः। है, फिर भी काम की उत्पत्ति नहीं होती अतः विशातीयमनासयोगाभाष मे भिग्न ही किसी को प्रसन्यानुम्पनि का प्रयोजक मानना मावश्यक है। सितिमिन्त दशा में विनाताश्गमासयोगहेतृत। की अनुपपत] यह कहा जा सकता है कि-"सुषुमि के समय भ्यास-प्रश्वास का प्रवाह पीयनयोनि परन से सम्पादित होता उसके लिये उस समय विमानोयमनःर्मयोग की ससा मामना मावश्यक नहीं है जीवनयोनियान प्रारब्ध- आमए से उनान्न भोता है, अतः उस अहद का नाश होने पर ज.वनयोनियन की उत्पत्ति नहीं होती । इस प्रकार प्रारम्ब-- मडा का समाय तो नोयनयोनियन की अनुमति का प्रयोग है, और विजातीयममा संयोग का प्रभाव जीवनयोनियन से भिन्न गाज्मा के विशेषगुणों की गनुत्पत्ति का प्रयोजन है। इस लिये उपादानकारण आत्मा के नित्य होने पर भी विजातीयमनासयोग के अभाव से पैतन्य की अनुत्पत्ति का निर्धाद सम्भव हाने से चैतन्योत्पत्ति के अधिगम की आपत्ति नहीं हो सकती" किन्तु इसका उत्सर या हो सकता है कि जब जीवनयोमियरन की भन्नुत्पत्ति का प्रयोजक प्रारब्ध हारष्ट के प्रभाष को मानना ही है, तब आत्मा के अन्य विशेष गुणों की अनुपनि के प्रति भी भष्टविशेष के शभाय को भी प्रायोजक मान लेना अषित है, जीवनया नियत्न की अनुमत्ति और गन्य शामिविशोषमुणों की अनुपसि के लिये प्रयोजकमेव की फस्पना उचित नहीं है। हानादि की अनुगम में यितातीयममासंयोगाभाष को प्रयोजक मानने में मय से वो बाधा गरेकि विज्ञानीयमनासयोग में हो कोई प्रमाण नहीं है। क्योकि सुषुति स्मादि के समय भानादि की अनुत्पत्ति के निहाय ही बागादि * कारणरूप में घिजातीयमनासयोग की पनपना की जाती है, किन्तु उसकी कोई भाषषयकता नहीं है. क्योंकि जिस आरए के परिपाक से सुपुति मावि अस्थाये समान होती है, उम्म अष्ट का परिपाक ही मानादि की उत्पत्तिका प्रतिवन्धक हो जायगा, पस लिये जानाविले कारणरूप में सुपुति आदि के समय मसम्भवरलताक घिमातीयममःपयोग की कल्पना निराधार होने से विजातीयमन:संयोग के प्रभाव से शानानि का अनुर्पानका उपपावन असंगत है। जो लोग विजातीय मनसंयोग बानादि का कारण मान कर उस के शभाष से कामादि की अनुत्ति का सामर्थन करना चाहते है उन्हें मी निरित्रिय प्रदेश में मनोगमन के सम्पादनार्थ महर की शरण लेनी पती है, अन्यथा मन यदि निरिन्द्रिय प्रदेश में न जायगा तो मुशि मावि के ममय बिमानीयमनम्सयोग का अभाव हो क्यों होगा, और यदि मरमविशेष के परिपाक को अपेक्षा किये बिना ही निनिस्ट्रिय प्रदेश में मनोगमन माना प्रायगा, तो Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ •P . . - . --- -- --- -- - -- - - -- १५ शास्त्रवासियब-तबा मो न च विशिष्टाणुत्सित्यमेव तस्य न्याय्यर, अमेकाश्रयकल्पनात एकाभयकल्पने लाघषात्, शरीरयषटकर्सयोगस्यैवात्मत्वपटकत्वेनात्मत्वारोरत्तयोस्तुन्यवित्तिवेधस्वप्रसङ्गारन । आत्मत्यघटकसंगोगस्य भिन्नाले स्वास्मन एत्र भिन्न किमिति इन्द्र । रोषयेः ' इति किमतिविस्तरेण । ___ परः शकते ननु पैतन्ये तरभावः प्राणधर्मानुविधा गिल्वाभावा, कथम् ? 'ब' गति विसके । 'हमशनीयायान् अई पिपासावान' इत्यवानीयापिपासयो। प्राणधर्मयोरायशाभकाल में भी उसके सम्म छोने से जायकाल में भी कामादि की अनुत्पति की भापति होगी, तो इस प्रकार जब महरूपरिपाक का एरणमहग श्रावक की तब उसी से सूपुति आदि के सममानानुत्पत्ति का निर्वाध हो जाने से विजानीयममा संपोग की कलामा निरर्थक है। जिस प्रमाण में अरूप धी की सिद्धि होती। उसी प्रमाण से उसका भीयान्मवृतिरूप धर्म भी सिम होता है। अतः गरम के प्राय के विषय में कोई यियार नाही या हो सकता ! और आत्मनिष्ठ अरष्ट का आश्रय लेने पर तो नास्तिकमन का आमूलचूल पम्मूलम हो जाता है। |म को श त मानने में गौरव ___E के सम्बन्ध में नास्तिक के उन मन है. विरोध में मामिल का या XIAL है कि पहए को शरीरनिष्ठ मानना उचित नहीं है, क्योंकि बिभातीयसयोगाषेशिम मणुषों का समूहाय ही शरीर, अस! भार को शारीनिष्ठ मानने पर उसके अणु. रुप नेक शाश्रय मामने होंगे। अतः उसकी अपेक्षा अनिरिसा आत्माका एक शानये की कल्पना हो लाधव से उचित है । शारीर को आत्मा मानने में दूसरा दोष यह कि विजातीय योगविशिष्ट अणुसमूहवरूप शरोरत्य की कृशि में प्रविष्ट संयोग की मात्मभ्य का भी घटक है, क्योंकि पानावि का श्राश्रयभून विजातीयसंयोगविशिष्ट अणु: सभूतत्व ही देहात्मयाच मारमावी. अतः शरीरस्प और भारमाय दोनो तुम्यचिनिषेध पकबीहानसामग्री से प्रायोगे, फलनः एक व्यक्ति के शरीर का प्राध्यक्ष से शरीर केप में होता है. उसी प्रकार आत्मा के रूप में भी उसका प्रत्यक्ष ने ले उसको ज्ञानादि गुणों के भी प्रत्यक्ष की मापति बोगो । यदि यह कहें कि-"मारमम्पपटक संयोग शरीरावधनकसंयोग में मिन्न, अतः हारीरथ भोर आमय में तुन्यविन्ति बेपता की मापनि नही हो सकती,''--तो यह ठीक नहीं है, प्योंकि आत्मघटकसंग को भिन्न मान करः शरीरस्य मौर भात्मत्व में से करना है तो फिर आत्मा की घरोर भिन्न पापों न मान लिया माय । पेमा मानने में बहारमपावों को अधिकाकों उचिसकारण नहीं प्रतीत होता, माता इस विषय का और पिस्तार फरमा अनावश्यक। [माग । आत्मा -पूर्वप] मास्तिक की ओर से पुनः या शङ्का होती है कि"-चैतम्य प्राणधर्म का अनुषिपान मही करता, यह बात जो कमी गयी, उसका क्या धाधार है ? विचार करने पर उसका कोई आधार नहीं लिसहोता, मायुत उसके विपरीत बाते सामने बीतीओ'म मघनीमाधान मुझे भूख है' 'माम पिसाबार-मुखे प्यासच प्रकार भूप्यासकर माराधर्मा का भावार्थ मरमा में अनुभव ता, निक्षसे अस की Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका व हिं०वि० सामानाधिकरण्येनातु भयात्, "अन्योऽन्तर आन्सस आणमया [तैशि० २-२-३] प्रति तेच प्राणस्य चैतन्यानभ्युपगमे महान विसर इति भावः । अभीच्यते - इति 'क' १ ।। ७१ । --WA"" मूळम् सवित्तमवचैतन्यजेयम् । ते तस्मिन्न दोषः स्यान्न न भावेऽस्य मातरि ॥७२॥ सर्वैलक्षण्यसंविनैः - प्राणधर्मसामानाधिकरण्येनाऽप्रमीयमाणत्वात् नैवमित्युपस्कारः । न हि प्राणधर्मः स्पर्शविशेषादिः अहन्त्वमामानाधिकरण्येनानुभूयते तथाऽनुभूयमाने पुनरशनीयापिपासेात्मकत्वादात्मश्रमचैिव न तु प्राणधर्मो, इति न प्राण एवात्मा । "अस्तु तर्हि कायाकारपरिषतं सूतमात्मा' इति मोलमेव मतम्, 'अहं स्थूलः' इत्यादि दूधर्म सामानाधिकरण्येनानुभवात् इति विस्तृतप्रागुक्तदोषः शङ्कते जयम् उक्तो दोषः हि निश्चितं मातृचतन्यजे ने पुत्रशरोरे, सस्मिन् चैतन्येऽभ्युपगम्यमाने न स्यान् न तचैतन्यदेवीचेतन्यस्याभावोऽस्ति ऐन मातृचैतन्यस्यैव तद्धेतुस्यात् नापि सुषुनियाक्काक्रीन विकल्पस्य जागरविकल्पहेतुत्वदर्शनात् । न च मातृचैतन्यमृत चैतन्ययं ळक्षय्याद् नहेतुहेतुमहति साम्प्र तम, वृश्चिकादिव गोमयादपि वृश्चिकप्रादुर्भावदर्शनात् चैतन्येऽपि मातापितृशुशोनियायासरसायनादिना नाहेतुकल्या विरोधादिति । पता का समर्थन होता है। इसी प्रकार अन्योऽन्तर आत्मा प्राणमयश्च - अन्तरात्मा वेद इन्त्रिय आणि से भिष्म प्राणस्वरूप है इस सृति से भी प्राण के आरमस्य का समर्थन होता है, अतः प्राण में चैतन्य न मानने पर इस सम्बन्ध में वितर्क का पूरा असर है कि चैतन्य को प्राण का धर्म न मानने का क्या कारण है 12 कारिका के 'म्' इससे इस शंका के समाधान का संकेत किया गया fasten कारिका में स्फुट करते हैं । ७१ ॥ [प्राण-आस्मरूपत्ववाद का खंडन. कारिका में अहम आत्मा में प्राण धर्मो के अनुभव का तथा माता के चैतन्य से सम्मान में चैतन्योत्पति का सदन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार हैarrai were में प्राणधर्म के सामानाधिकरण्य की प्रभा न होने से प्राण को आत्मा नहीं माना जा सकता। कहने का आशय यह है कि प्रान शरीर के भीतर संचरण करने वाला विशेषप्रकार का वायु है, शुरू होने से स्पर्श किस भादि उसके धर्म है, उन धर्मों का समर्थ मामा में अनुभव नहीं होता। अहमर्थ आत्मा में अनुभव होता है writer और दिपाला का, किन्तु ये प्राण के धर्म नहीं है, क्योंकि भाभीया का अर्थ है भोजन की इच्छा और विपासा का अर्थ है पीने को छ, स्पष्ट है कि इच्छा सात्मधर्म है प्राणधर्म नहीं है, यतः न धर्मों में अश्व के सामानाधिकरण्य कर था. वा. २५ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास्कबासमुच्चय-सह १ को ७२ अनुभव होने पर भी उसके पल से माण-मात्मय का साधन नहीं हो सकता । [कायाकारपरिणत भूत ही मात्मा है -पुनः मार्शका] हात्मयाद में पूर्वोक श्रोषों को भूल कर नास्तिक द्वारा पुनः यह पाका प्रस्तुत की आती है कि "यदि उक्त दोषयश प्राण को भागमा मह माना जा सकता तो मत मानो किन्तु यही माना माय कि शरीररूप में परिणत भूत ही मारमा है, क्योंकि आरमधर्म भरमय में भूत के स्थूलरय आवि धर्मों के सामानाधिकरण्य का अनुभव 'भई स्थूला मह प्रशः, आई लघुः, अनं वीर्घः' इत्यादि रूपों में सर्वमान्य है। प्राणात्मयाद में बताये गये पोष पेहात्मयाव में नहीं हो सकते; क्योंकि पुरषेद की उत्पत्ति माह से होतो है, अतः मातग्य से पुत्रथैतन्य की उत्पप्ति में कोई पापा नहीं है 1 पदि पुत्रदेश में बैतन्य की उत्पति मातहगतचैतन्य से सम्भव न होती तो बैतन्य अनुमसकारणरूप में आत्मा की सिद्धि होती किन्तु अब मातबैतम्य से पुष बैतम्य की उत्पति में कोई बाधा नहीं है,सब बैतन्य के कारणरूप में अतिरिक्त भारमा की सिद्धि नहीं हो सकती। काव्यवहितमाम से कार्यो नियम का थमीका ___ यदि यह शक की माय. "चैतन्य की उत्पत्ति सरश ही चैतम्य से होने का नियम है, अत: उत्पन्न बालक को जो इस प्रकार का चैतन्य उत्पन्न प्रोता है कि उसे माता के स्तम का दूध पीना चाहिये कि उसमें भूख की मिति और शरीर की पुषिद्ध होती है, उसकी उत्पत्ति माना केसी प्रकार के चैतम्य से मामनी होगी, और माता को या तम्य मामा के शवकाल में ही होता है, मो उसके पुत्र के अन्म के समय उसे नही है तो फिर माना के इस विध्यवहित तम्प से पुष में उक वैतम्य की उत्पत्ति कैसे होगी ।"-तो इस शाम का था उत्तर दिया जा सकता है कि कारण और कार्य में अव्यवहिन प्रताप माय का नियम नहीं है। अर्थात या नियम नहीं है कि 'कार्य के अर पहिनापूर्व में कारण के रहने पर ही कार्य की उत्पति होती है, क्योकि सुपुति के पूर्व उत्पन्न हुये शान से सुपुति के बाद जामकाल केहान की उत्पत्ति होती है, व उक निधम माना आपगा तो या उत्पत्ति भी न हो सकेगी, क्योंकि सुषुप्ति के पूर्वकाल में उत्पन्न मान उसो समय समान हो जाने से मुषुप्ति के बाद डाएन होगे याले बाग के शव्यजिसपूर्ष में नहीं रहता। [विलक्षण भावों में कार्यकारणभाव नहीं होने की शंका का परिहार] 'पुन का चैतम्य माता के चैतन्य से बिलक्षण होता है, यह उनके भनेक विलक्षण घ्य हार से सि , अतः जन चैतन्यो में कार्यकारणभाष नहीं हो सकता, क्योंकि विलक्षण पपाथों में कार्यकारणभाव अमान्य है।'-यह शंका करना उचित नहीं है, क्योकि वृश्चिक से वृश्चिक की उत्पत्ति के समान वर्षा के समय सो गोमय से भी वृधिक की उत्पनि होती है। कार्य के प्रति विलक्षणावार्थ का कारण होना बैतम्धभिन्नकापी तक ही सीमित नहीं अपितु चैतन्यका कार्य के प्रति भी माता के शोणित, पिता केशक, विपर्यायशेप का अभ्यास, रलायन भावि के सेवन से विलक्षण पयायों को कारण मानने में कोई पिरोष नहीं देखा माता, असा विलक्षण पदार्थों में कार्यकारण Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुप१० क० ठीका दि ९८७ अत्राह - भस्य चैतन्य हेतु चैतन्यस्य माती=मातृशरीरेऽभ्युपगम्यमाने 'दोषो न' इति न. किन्तु दोष पत्र, मातृनिष्टस्य चैतन्यस्य तनम्यत्वे गर्भस्न मानुभूतस्मरणप्रसङ्गात् । न किं प, गोमयविक्रयो जात्यस्वानुभवसिद्धत्वेन सवच्मियोः गोमयश्चिकपोत्वेऽपि चैतन्ये विशेषाऽदर्शनात् तत्र चैतन्यमेव हेतुः न तु मातृशरीरादिकम् । प्रज्ञामेधादिविशेषेऽप्यन्तरङ्गतया समानजातीय पूर्वाभ्यासस्यैव हेतुत्वम्, अन्यथा समानेऽपि रसायनाद्युपयोगे यमजयोः कस्यचित् कचिदेव महामेधादिकमिति प्रतिनियमो न स्याव, रसायनाद्युपयोगस्य साधारणत्वात् इति न मावचैतन्यात् तचैतन्यम् । न वेन्द्रियसमिदमेव ज्ञानोत्पत्ती सामान्यतो ज्ञानं प्रति ज्ञानहेतुत्वे मानाभावः सौ कानानुत्पति निर्वाणायोपयोगस्य ज्ञानहेतुत्वाऽसिद्धेः इत्यन्यत्र विस्तरः ॥ ७२ ॥ मात्र के मान्य होने से विलक्षण मातृतश्य से विलक्षण पुत्रचेतन्य की उत्पत्ति मामी आ सकती है "— F इसका उसर यह है कि मातृचैतन्य को पुत्रतस्य का कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि पुत्रम्य के कारणभूत मातृवैतन्य को मातृ में मानने में दोष नहीं ऐसा नहीं है. किन्तु दोष है ही, जैसे मातृगत चैतन्य को यदि पुत्र के चैतन्य का कारण माना जायगा तो गर्भस्थ चालक को माता से अनुभूत विषय के स्मरण की भनि होगी। कहने का आशय यह है कि यदि माता के चैतन्य से बालक में चैतन्य का उदय होता है, यह बात सत्य हो तो क्या कारण से कि गर्भावस्था में ही चालक को माता के अनुभूत विषय का स्मरण न हो? क्योंकि उस समय भी माता का अनुभवात्मक चैतन्य संस्काररूप में पालक के लिये सुलभ है ही । यदि मन किया जाय कि 'गर्भस्थ बालक को माता के अनुभूत विषय का स्मरण नहीं होता. यह कैसे जान लिया' ? तो इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि यतः मात को गर्भस्थ बालक की किसी ऐसी क्रिया का अनुभव नहीं होता जिससे बालक में उम्र समय आशङ्कित स्मरण की सूता मानी जा सके। मतः गर्भस्थ बालक को माता के अनुभूतविषय के स्मरण का भ दोनासु है । [] न होने से चैतन्य का कारण चैतन्य ही होगा ] साथ ही यह बात ध्यान देने योग्य है कि गोमय से उत्पन्न कि ओर वृक्षक से उत्पन्न वृश्चिक में वैजात्य प्रत्यक्षसिद्ध है क्योंकि दोनों के रूप-रंग में न अन्तर होता है | अतः गोमयजन्यवृधिक से निवृचिक के प्रति पृधिक को, वर्ष वृश्चिकजन्यवृश्चिक से विजानीयवृश्चिक के प्रति गोमय को सो कारण माना जा सकता है परंतु वैराग्य के प्रति विलक्षण गायों को कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि बेस में बजाय का होना प्रामाणिक नहीं है। अतः एकजातीयचैतन्य के प्रति ही बिक्षण पदार्थों को परस्परमिरपेक्षरूप कारण मानता होगा और ऐसा मानने में व्यति रेकव्यभिचार स्पष्ट है, क्योंकि ऐसे कारणों में एक का अभाव होने पर भी दूसरे से Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -..- ... . -...- M A . ..... शास्त्रवासात मुरुचय-स्तवक १ ग्लो० दोपान्तरमप्याह मृलम्-न च संस्थेदजायेषु गात्रमादेन सद भरेत् । प्रदीपज्ञासमन्यव निमतःवान बाधकम् | ५३|| नव संस्खेदजायेषु- यूकादिए, गावभावेन स्वनानफस्रोशरीगभाचेन, तत् चैतन्यमनुभवसिद्धमपि भवेत् । परं च व्यभिचारात् निमित्तकारणत्वमपि मानसरीरस्य नास्तीचैतम्पकी उत्पति हो जाती है। इसलिये चैतन्य के प्रति पतन्य ही कारण हो सकता है. मापारीर मावि कारण नहीं हो सकता । प्रहा मेधा भावि विशिष्ट सन्य के प्रति भी मम्यस्पमान पूर्वकालिक सकातोपतन्य ही कारण होता है क्योंकि वही चैतम्यविशेषात्मक कार्य के प्रति भरतरत है। सायम आदि का सेवन तो बहिर होने से कारण मा राकमा. ग. ह. प्रयोगा का जनक है, क्योंकि यदि वही तायशेष का जनक हो तो एक साथ उत्पन्न होने वाले नो व्यक्तियों द्वारा समान रूप से रसायज मान का सेवन करने पर भी उनमें से किसी एक ही को किसी विशेष षिषय का ही जो विशिष्टज्ञान होना है, उसे यह नहीं होना चाहिये, किस्तु होता ऐसा ही है, अतः इस की उम्पत्ति के लिये याही मानना होगा कि खैतन्य का उत्पादक चैतम्य ही है। जो व्यक्ति रसाया यादि का सेवन पारसे हुये जिस विशेष विषय के पैतम्य का अजवर्तन करता है, उसे रसायनालेवन के सहयोग से विशेष विषय के बैतन्यानुषर्तन से उस विषय का विशिष्ट हाम हो माना है. और जो रखायन का केयक सेवन ही करता है. किसी विशेष विषय के ज्ञान का अनुवर्तन नहीं करता उसे विशेष विषय का विशिष्ट शान न होकर उसके भानार्मम की क्षमता का उत्कर्ष मात्र होता है. अतः चैतन्य के प्रति चैन्य से विलक्षण पदार्थ की कारणता सिस, होने से माधिसभ्य से पुत्रश्चेतन्य की उत्पत्ति माननी उत्रित नहीं है। ___ यदि यह चाहा की जाय किन्द्रिय मैग्निकर्म थावि वहिरा फारणों से ही मान की उत्पति हो सकती है, अतः सामाग्गरूप से कान के प्रति शान को कारण मानना बावश्यक नहीं है तो यह शो उचित नहीं है. क्योंकि सुपुति आदि अवस्थाओं में कोमल कठोर विस्तार तकीये भादि के साथ स्वयूदन्द्रिय पा संजिकर्ष होने पर भी हानको उत्पत्ति नहीं होती अनः अर्थयोध के प्रति उपयोग को-सानात्मक बोधव्यापार को कारण मानना आवश्यक है, इस घिषश का विस्तृत विचार. अश्यप रष्टाय || पुत्र चैतन्य के प्रति मानतन्य मित्तकारण भी नह।') कारिका ७३ में पुतन्य के प्रति मातमैन-य को कारण मानने में एक अन्य दोष भी बताया गया है, जो इस प्रकार है । केश कीट, मस्छ मावि की उत्पसि किसी श्री शरीर से गहीं होती। नाबारीर अयोनिज होता है और स्प्रे बगर भारी रगरा या हितमल आदि से उलान होता मतः हम प्राणियों की मातायें नहीं होती | मष यदि बैतन्य की उत्पत्ति मानुशारीर के बसन्य से.बी मानी जायगी, तो इन प्राणियों में चेताय की उत्पत्ति न हो सकेगी, जब कि इनमें वेतन्य अनुभव सिम है। तो इस प्रकार उक्त प्राणियों में भारतम्य के विमा मा पेराम्य की उत्पत्ति होने से पुत्र के चतन्य के प्रति माहशरीरगत चैतम्प को कारण Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मारक टीका वषि १८५ चादू त्याशयः । अत एवाइ- प्रदीपज्ञातमधि यथा दीपाद दीपान्तरमुत्पद्यते तथा मातृ चैतन्यात् तयमिति निदर्शनमपि प्रदीपस्य निर्मित कारणत्वात् प्रकृते च तस्वस्याप्यमा के सिद्धिपतिम्। वस्तुतः शरीरविशेष इस चैतन्यविशेषे मातृशरीरस्य निमित्तकारणत्वसम्भवेऽप्युपादानत्वस्य सामान्यत एव कल्पनाद् मात्रशरीरस्य तचैतभ्योपादानत्यं नास्तीति ॥ ७३ ॥ फलितमाह मूलम् न तदुपादानं युश्यते तत् कथञ्चन । अन्योपादानमा च तदेवात्मा प्रसच्यते ॥ ७४ ॥ - इथक्कन्यागेन तर मातृसरीरं कथञ्चन - केनापि प्रकारेण तदुपादानं मृनचैतन्योपादानं न युज्यते । अन्योपादानभावे च मातृशरीरानिरिकसून चैतन्य न्योपादान | सद्भावे च स एव भूवातिरिक्त आत्मा तच राज्यते । शरीरवृद्धिविकारयांचैतन्यवृद्धिविकारोपलम्भस्तु न तदुपादानत्वसाधकः, अजगर - सात्त्विकादो व्यभिचारात् शरीरस्य सहकारित्वेऽपीन्द्रियपाद वाऽपादाभ्यां शरीरवृद्धि विकारयो चैतन्यवृद्धिविकारसम्भवाच्च । भागने में व्यतिरेक व्यभिचार होने से पुत्रसम्य के प्रति मातृतस्य को निमिन कारण भी नहीं माना जा सकता। इसी लिये 'शेप से दोपस्तर को उत्पत्ति होती इस छत से उसी प्रकार मातृयेतस्य में पुत्रन्तस्य की भी उत्पति हो सकती है' यह ह दिखाने से भी अतिरिक्त आत्मा की सिद्धि में बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि दीप के प्रति दीप के निमितकारण होने से दृष्टांत तो बन सकता है, पर उससे दाष्टांतिक जिसके लिये प्रयुक्त है, उसकी अर्थात् मदरसे तय को उत्पति का समर्थन नहीं किया जा सकता क्योंकि स्वेप्राणियों के तस्य में मातृतस्य का व्यभि यार होने से भ्रमस्य और मातम्य में कार्यकारणभाव हो नहीं सकता। हो सच बात तो यह है कि ऐसे मारी के बिना भी स्वैशरीर को से शरीर सामान्य के प्रति मातृशरीर तो निमित्तकारण नहीं हो सकता, पर मनुष्य व्यानि के शरीरविशेष के प्रति तो शोर निमित होता ही है. क्योंकि उसके चिना प्यादि के शरीर की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार चैतन्य सामान्य में मातृतन्य कारण मनुभले न हो पर मनुष्यादि के बेतन्य विशेष में माहवेतस्य तो निभित्र कारण हो ही सकता है, किन्तु प्रस्तुत है सामान्यरूप से वेतस्य के प्रति उपादानकारण का विचार, और उस विचार का निष्कर्ष यह है कि चैतन्य के प्रति मादचैतन्य को उपादान मानने में स्वेदज प्राणियों के चैतन्य में व्यभिचार होता है, महः पुत्र चैतन्य के प्रति मातृचैतन्य उपादानकारण नहीं हो सकता, इसलिये तस्य के उपादानकारण के रूप में मतिरिक्त भात्मा की कल्पना अनिवार्य है ||३३|| कारिका ७४ में चैतन्य के उपादान कारण के सम्बन्ध में उपर किये गये सारे विचारों का फलितार्थ बतला गया है, जो इस प्रकार है Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रासमुच्चय-स्तक २०७४ www 'इन्द्रियाण्येवात्माऽस्तु' इति चेत् न मिळतानां तेषां शानायाश्रितत्वे चक्षु रादिशुन्यस्यापि वाचाद्यप्रसङ्गात् । चश्रापस्यैव त्वगादि च त्याचादेरेवाश्रयः' इति श्वेत् ? 'योऽयं स्पृशामि सोऽहं पश्यामि इति प्रतीत्यनुपपत्तिः बभ्रुषा दृष्टस्प वस्तुननशेऽन्येन स्मरणानुपपसिंध | 'चक्षुरादिजन्यनानाज्ञानाधिष्ठानमेकमेव नित्यमिन्द्रियम्' इत्यभ्युपगमे तु संज्ञामात्र एव विवाद इति दिग् ||७४ || | नन्नुपादाने चैतन्यमस्तु किमात्मना ? इत्यत आह [निष्कर्ष–चैतन्य का उपादानकारण आत्मा भूल से भिन्त है ] उत्तरीति से मातृबैतन्य पुत्रम्य का उपादानकारण किसी भी प्रकार नहीं हो सकता तः मातृसमय से अतिरिक्त ही किसी को चैतन्य का उपादान मानना होगा, केतन्य का जो पेसा उपादान होगा उसी को भूतों से मित्र आत्मा के रूप में स्वीकार करना होगा । यदि दे कि शरीर की वृद्धि मे चैतन्य में वृद्धि और शरीर के हाल सेत में हास होता है अतः शरीर को चैतन्य का उपादान मानना आवश्यक है तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अजगर सर्प का शरीर विशाल होने पर भी उसमें चेतन्य की अपा होती है. और सात्यिक पुरुष का शरीर तप आदि से कृश होता है, तो भी उसमें शा की अधिकता होती है, वृद्धिहास के व्यभिचार होने से शरीर में ग्राम की उपादानता नहीं सिद्ध हो सकती। शरीर धाम की उत्पति में सहकारी अवश्य है, पर ज्ञान का बुद्धि द्वास उसके वृद्धि-कास पर निर्भर नहीं है, वह तो दन्द्रिय की पड़ता और अपडमा पर अवलम्बित है । [मात्मा इन्द्रियों से भी भिन्न है। यदि यह शङ्का करें कि जब कान का हाल इन्द्रिय की पतापयं अपटुता पर अवलस्थित है तब उसी को ज्ञान का उपवासभूत आत्मा मान लिया जाय, अतिरिक्त आश्मा की कल्पना व्यर्थ है" - तो ग्रह उचित नहीं है, क्योंकि सभी प्रक्रियों को मिलित रूप में शानादि का आश्रय मानने पर चीन को स्पार्शन आदि शाम के भी अभाव की आपति होगी और यदि तत्तत् प्रिय को सर्नु हुन्द्रिय से होने वाले ज्ञान का भाश्रय माना जायगा तो किसी एक ही आश्रय में चाक्षुष और स्पार्शन की उत्पति न होने से में ही स्पर्श करता है और में ही देखता है इस प्रकार एक व्यक्ति में चाक्षुष और स्पाशेन का अनुभव न हो सकेगा। साथ ही चक्षु से विषय का ऋतु के अभाव में स्मरण भीम हो सकेगा। यदि यह कल्पना करे फिक्षु भारिन्द्रियों से भिन्न कोई एक नित्य दक्षिय है जो उन सभी इन्द्रियों से होने वाले ज्ञान का आध्यय होता है तो इस कल्पना के अनुसार एक अतिरिक्त नित्य हाना की तो सिद्धि हो ही गई। अब पिवाद केवल उसके नाम में रह जाता है कि उसे इन्द्रिय कहा जाय या अम्मा कहा जाय, सो इसके विवाद का कोई महत्व नहीं है क्योंकि किसी भी नाम से भूतातिरिक माता की सिद्धि होने से आस्तिक का लक्ष्य पूरा हो जाता है ॥७४॥ माण, संतभ्य तथा रवि चैतन्य का तय की उत्पत्ति मानी जाय, अतिरिक होता है कि यदि कायाकारभूत उपादान नहीं होता तो बिना उपधान के ही Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाक टीका. वि. मुहम्-न तथाभाविन हेतुमन्तरेणोपजायसे । शिम : या पार महर्षिः ॥७५|| तथाभाविन' =कार्यरूपतया भरनशील, हेतुं विना कमपि न जायते, तत्परिणामकृतल्यावस्थाविशेपलगत्वात् तत्परिणामोत्पादस्य । न चैकान्तान्'-द्रव्ययम्भावन किश्चिद् नश्यात, तत्परिणामोसरद्रव्याघस्थारूपत्वात् तद्विनाशस्य । न चैवं द्रव्यमेव स्यात् न सूत्पादविनाशी, कश्चिद भिन्नत्वम्यापीटल्यात् । दिवसुत पम्मतो सिणि वि उप्पायाई अभिन्नकाला य भिन्नकाला य । अस्पतरं अणस्यतरं च दवियाहि णायचा || [५. १३२] आस्मारूप उपायान की कल्पना की क्या भाषषपकता ? इस प्रक्ष का उत्तर देने के लिये ही प्रस्तुत कारिकाका प्रणयन हुआ है। सुनिये : किसी भी कार्य की पति अहेतुक होती नहीं हैं। तथाभावी हेतु के षिमा अर्थात् कार्य के रूप में परिणममशीस कारण के बिना किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती. पोंकि कार्य की उत्पत्ति का अर्थ ही यह है कि कारण के परिणाम से द्रव्य की एक विशेष अवस्था सम्पन्न हो । उदाहरण के कप में घट की उत्पति को समझा जा सकता है, मृद् पक वष्य है पहले वह एक विण्ड की अवस्था में रहता है। बाव में कपाल की अवस्था में जाता है, और स्पवात वह घर की अवस्था में प्रवेश करता है. इस प्रकार कपालमप कारण के परिणमन से पिन की अवस्था से भनषतमाम व ट्रष्यकी पंकजयी घटात्मक अवस्था समानहोसीफलना मृत दक्ष्य को घटाक अवस्था की प्राप्ति ही घट की उत्पत्ति है। यह अवस्था कपाल के परिणमन से होती है अतः कपाल घट का उत्पादान कारण है, क्योंकि जिस कारण * परिणमन से य का नया अवस्था प्राप्त होती है बही पस नषी भषस्थाकप कार्य का उपायान कारण कहा जाता है, सभी कार्यों की उत्पत्ति इसी प्रकार सम्पा होती है, अतः उपावासकारण के बिना किसी भी कार्य का मादुर्भाव असम्भव है। पति और विनाश द्रव्य से सर्वथा पृथक नहीं है] जैसे द्रश्य से पृथक किसी कार्य की उत्पत्ति नहीं होती, उसी प्रकार ठप से सर्वथा किसी कार्य का सारा भी होता. क्योंकि कार्य का मायका भी यही पर्थ कार्य के उपलसमान स्व बान सके स्थान में व्यको पकायी अवस्था मातहो। अता घटकार के बाथै मृदय को प्राप्त होने वाली घटाबस्थ बस्था स्थान में सूर्णाति भवस्था हो घर का माश है। इस प्रकार नाशवशा में भी घट सवध्य से कोई पृषकही म होता है ऐसा नहीं है। घदमाश उपादानमृदय में ही होता। नाश के इस निर्वचन के अनुसार नामाका कार्य भी उगावामकरण के बिना नहीं होता। त्पत्ति और दिमाश के उस मिर्धवन को सुन कर यह कर की जा सकती है कि-"धट की उत्पत्ति और बिनाया जाय मुद्रण्य की विशोष भयरूपाये सब तो घट की उत्पावक पर्व घट की विनाशकसामग्री से घटारमक पर्व चमक बध्य की निष्पाम होग, उपनि और विनाश की निम्पति म होगी, क्योकि इण्य से भिन्न उनका कोई Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - * -*-* शास्त्रमा समुच्चप-स्तवक हो । अकप्रतियोगिनिरूपितस्पेन विशिष्टद्रव्यनिरूपितत्वेन योस्पादस्थितिषिगमाना मिन्नकालमा, यथा पटोत्पादसमये घटमिशिष्मदत्पादसमये या न तधिनाशः, अनुत्पतिप्रसक्तेः । नापि तद्विनाशसमये तदुत्पतिः, अविनाशप्रसक्तेः । न च तत्प्रादुर्भावसमय एव तस्थिति,नद्रूपणावस्थितम्यानयस्थाप्रसक्या प्रादुर्भावाऽयोगात् । अतो इत्यादयोन्तरभूतारते. अनेकरूपाणामेफद्रव्य रूपन्वायोगात् । भिन्नानियोगिनिरूपितत्वेन मिशिम्यनिरूपिनत्वेन पाऽभिन्नकालता, यथा कुशुलन विशिष्टमन्नास-पटतद्वितिष्टमृदुत्पादमृत्स्थितीनाम् । असारूप्येण पानीपतराना ३ प्रदाः । मस्तिस्य ही नहीं है, तो फिर 'घर उत्पयते, सपति ये व्यवहार कैसे हो सकेंगे Pसका उत्सर यह है कि उपर्युक्त निचा के अनुसार मचि मोर विनाश यद्यपि वष्य से आयाभूत-अभिम है, तथापि उक्त स्पषधार के भनुरोध से सम्झे प्राप से कश्चित् भिग्न भी माना जाता है। जैसा कि सम्मति प्रणव में कहा गया है कि "जयोऽप्युत्पावादयोऽभिन्नकालाय भिन्मकालाध ।। अस्तरमनान्तरं में प्रत्येभ्यो सासथ्याः ..."॥ [संस्कृतसपास्तर] अर्थ-उत्पत्ति विनाश और प्रोब्ध-सवातनप ये तीनों ही पकालिक भी है। भिन्नकोलिक भी है, द्रव्य से मिन्न भी हैं, अभिग्न भी है। [१-१२२] पनि-स्त्रिांत-नाश की समानाऽसमानकालोनतां उत्पत्ति, स्थिति मोर विनाश किसी पक प्रतियोगी से अपवा उससे विक्षिप्तव्य से निरूपिन होने पर भिम्कालिक रोते हैं। जैसे उत्पत्ति स्थिति और विनाश का पर प्रतियोगी है घटस घट से या घटशिष्टमध्य से जब वे घटोम्पत्ति या घावशिष्टमन् की उत्पत्ति, घट स्थिति या घटविशिष्ट मृत् की स्थिति, घरमाश या घटविशिष्ट भुद का नाश, इस रूप में निरूपित होंगे तो उनके काल भिम होंगे, सब का पाही काल होगा, क्योंकि घर की या घविशिष्ठमृद की उत्पत्ति के समय पठ या घरविशिष्टमन् का यति धिनाया माना जायगा । तो घर या घर बिशिष्ठसूत् की उत्पत्ति म हो सकेगी, क्योंकि बढ़ की उत्पत्ति मृद् की घटावस्थारूप और पद का धिनाच मृदू की भूषिस्था रूपी तो मृत् की ये दो विरोधी अयस्थायें पक साप कैसे हो सकती है। इसी प्रकार घड के या घर विशिष्ट मू के मास के समय घट की या पर विशिष्ट मृद की उत्पत्ति भी नही हो सकती क्योंकि उस किति में घट का विनाश हो सकेगा, घटावस्था को पान करता हुआ मृदय असी समय पूर्णावस्था का भी वान कैसे कर सकेगा ? इमो प्रकार घट की उत्पत्ति के अथवा घट के विनाश के समय पद की स्थिति भी भी हो सकती क्योंकि घररूप से प्रथमतः सिम की पटकप से यदि उत्पत्ति होगी तो घटीएस में भामरयकर अमवस्था की भापति होगी, क्योंकि मरमाश न होने तक बगवर घट की उत्पति होती रहेगी । घरमा के समय घर की स्थिति मानने पर घटनाश कभी सम्मान ही न हो सकेगा, इस लिये नीनों मनेकाप होने से पक न्याय नहीं हो सको, अतः ये वध्य से भिन्न होते है। यह तो उत्पत्ति मामि तीनो के पक प्रतियोगी से निरूपित होने पर की बात । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -.-... स्था रीका पनि यि अद निविष्यते--उत्पादादय आधारवानिवदनिरिक्ता अपि, म स्वाधक्षणसम्ब वादिरूणा मत, पण पाहता पाहताना रिपोनिम्, मुषादिन। चायोगित्वम्, इति 'मृदि पट उत्पन्न' इत्यादिधीः । द्रव्ये तु पायोपरितरूपेण प्रतियोगिस्, नत्र चानुयोगिताया। प्रतियोगिन्पेय समावेशाद् दण्यस्य माऽनुयोगित्वम्, यथा -'पविशिष्ट मरद्रष्पमुत्पन्नम्' इति । न चात्र विशेषणस्योत्पादो मिषया, विधिफ्टस्पैक प्रतियोगित्वानुभवान्। इतरमान्वितस्य घटस्योत्पादेऽप्रयायोगालमा म प निमिष्टतिफल्पने गौरवं, घटहेतूनामेव वविशिष्ट हेत्त्यात् । अत एव पणाईतूनामेष क्षणविधिप्टहेतुत्वान् सर्वप्राऽविशिष्टपैसिकोत्यावप्तिद्धिः। ___ उपसि, स्थिति और धिमाश नम भिन्न प्रतियोगी से मिलपित बने तबरेकालिक होंगे। सब का पकी कार होगा, जैसे कुशल-पिपश, पर मोर मु सीय शिन प्रतियोगी है. इनसे निकषित उत्पत्ति स्थिति मौर विनाश एक काल में रोते पथा कुशलविनाश-फुगविशिष्ट मिट्टी का विनाशा, घटोत्पति-परविwिeमादीबी उत्पत्ति मृत् की स्थिति में नीनों कार्य पकही काम में ले है, शिस समय मिमीको पिण पर होता है, उसी समय अट TUEन होता है और उस समय मिट्टी की स्थिति भी रसती है। इस प्रकार उत्पनि स्थिति और यिनाश तीनो मिहीला होने से प्राय से शभिन्न है। [उत्पादादि अतिरिक्त भी है आपक्षणसम्बन्धादिरूप नहीं] इस सन्दर्भ में पर विवेचन करना जमरी है कि मणि, स्थिति और विनाश पषि साधारज्य, गायत्व आदि के समान मतिरिकज , भात भाधारस्य, भाषेपाय बादि से आधार माय भावि से भिन्न है, उसी प्रकार त्यत्ति, स्थिति और बिना उस्म, स्थित और विमान होने वाले पदार्थ से भिन्न है तथापि बारक्षणसम्बम्ब मादि का नहीं है, क्योंकि सि को मायक्षणसम्बम्धरूप. स्थिति को मध्यक्षणसम्मान रूप और विनाश को अन्तिमक्षण के उत्तरक्षण के साथ असनाम्यकप मानने पर धन की उत्पति क्षण की स्थिति और क्षण के नाश में जापति, स्थिति और विनाशपता का भावो जायगा, क्योंकि सम्बन्ध के लिये भिन्न दो पक्षार्थ भावश्यक होने से क्षम में क्षण-सम्पान, क्षण शौकमात्रभीषी होने से, क्षण में अध्यक्षणसम्बन्ध होने से मीर क्षण का कोई क्षण न होने से अग्निरक्षणोत्तरक्षण के धुर्घच होने से, मन्तिमक्षण के उत्तर क्षण के साथ असम्बन्ध की उपपत्ति नहीं हो सकती | इस लिपे अपमान और उत्पत्ति में केवल इतना ही मेरह कि उपचमान इन्पति का मतियोगी पानी निसपक होती, और पति इस्पधमान से निरूप्य बोसी, नेमे घट थत्वप से उत्पति का प्रति योगी है, और घटोपनि यह परिसरवरूप से घसनिकण्य है, प्रतियोगिकी प्रकार स्थिति और विनाश के मम्म्य में भी बातम्य है, खम्पधमान जोरापति मावि खापसोने में कोई बाधा नहीं सकती, खोषिशणसी अस्पति भीनीकी प्रकार प्रथ्य की एकक्षणात्मक अवस्था है जैसे R की चपरिसरखप की पर पतास्मक अवस्था है। शा.पा.२५ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ CAAA शास्त्रपार्तासमुच्चय-स्तमा र लो० ७५ . इस प्रसङ्ग में यह भी जातव्य है कि उस्पति का निरूपण केवल प्रतियोगी से महों सम्पन्न हो जाता, उसके लिये अनुयोगी को भी अपेक्षा होती है. क्योंकि वस्पति किसी वस्तु की होती है और किसी में होनी है. ह. ' पनि तब मैं होती है, अस्पति का यह आधार ही उसका अनुयोगी होता है। इस प्रकार उत्पत्ति की पर्धा में बम्पत्ति, उत्पद्यमान घर, इत्पत्ति का माधार मृद्रव्य ये सीन वस्तुयें उपस्पित होती है, ये तीनों वश्यरूप में तो परमार में अमिान है किन्तु उत्पतिव, घरस्थ, बौर मृस्वरूप से मे परस्पर में भिन्न भी हैं, मतः पद पररषरूप से मारनी उत्पति का प्रतियोगी, मृद मुखरूप से अपने में सम्पन्न होने वाली उत्पति का अनुयोगी और उत्पत्ति उत्पमिन्धरूप से घट और मस्वरूप प्रतियोगी पचे अनुयोगी से निरूप्य होती है। स्पत्ति के साथ घट और मृत् का यह सम्बन्ध भूवि धट उत्पन्नः' इस प्रतीति से सिखोला है । 'मुदि पद उमः' इस वाक्य में मृ शाम के उत्तर शुथमाण सप्तमी का मर्थ है अनुयोगिन्य, उसका आयय होता है उत्पत्ति के साथ और उत्पन्न शन में 'क' प्रत्यय का अर्थ है प्रतियोगित्व या मनियोगी, इसका अम्बय होता है घर के साथ, WA: 'मृदि घट उत्पन्नः' का अर्थ होता है, 'मृनुयोगिक जाम प्रतियोगी घउः, जिस का स्पष चित्रमन्निष्ठ-गानुयोगितानिरूपित-प्रतियोगितापनिम्नो ' पकार यह बात विशदरूप से शात हो सकती है कि 'दि घर उत्पा' यह प्रतीति मिली घट और जापान के बीच उक्कप्रकार का सम्बन्ध मानने पर ही उपपन्न हो सकती है। स प्रसस्ग में यच पान ध्यान देने योग्य है कि मटकी पत्पशि को पविशिष्ट मध्य की भी उपसि कहा जाता है, पर पा पर्याय से मुक्त होकर नहीं, किन्तु पर्धाप से विशिष्ट होकर, क्योंकि कुलाल के व्यापार से शुममध्य की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु घटविशिष्टमूद्रव्य की उत्पति होती है। कहा जाता 'कुलाल के उपापार से मिट्टी ही घसा रूप धन गई । सामान्य मृ घटाकार सूत् बन गई । इस प्रकार अप घडविशिष्टमिष्टिव्य वत्पत्ति का प्रतियोगी होता है तब उत्पत्ति केवल प्रतियोगी से की निरुपित होती है, अनुयोगी से निरूपिन नहीं होती, क्योंकि अनुपोगी प्रतियोगी के ही गर्भ में प्रविस हो जाता है, अतः घटोत्पति जब घढषिशिष्टम्वन्ध की उत्पत्ति रुप में प्रतीत होती है नव प्रनीति का बदलेन्स 'वविशिष्टमृदय उत्पन्नम्' स वाक्य से होता है, इसमें अनुयोगी का पृथए उस्लेख नहीं होता । इस प्रतीति के बारे में यदि यह हो कि "मृद्धम्म नो पहले से रहता है, अतः उसकी उत्पत्ति समय होने से यह प्रतीति मृद्रध्य की उत्पत्तिको विषय न कर घट की ही उत्पति को विषय करती है"-तो इसका यह समाधि है कि 'मृदय घटविशिष्ट' मातम्' इस प्रतीति में घरथिशिष्ट मुदतव्य में ही प्रतियोगिता का स्फुरण होता है। दूसरी बात या कि पदोत्पत्ति को उक्त प्रतीति का विषय तभी सामा मा सकता है, जब उत्पति केसाच पिशेषणरूप में घट का अग्थय हो किन्तु यह संभव नहीं है क्योंकि घट मिकी ज्य में विशेषणरूप में अग्वित है और या नियम है कि 'जो बिसी एक में विशेषण से भवित हो कर जिस प्रतीति में भासित होता को पर इसी प्रतीति में किसी अन्य में भी विशेषण होकर भासित नहीं होता ।' Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...... १५५ w r - -- - - स्था• टीका कि ___ न चैवं 'शानमुत्पन्नम्' इतिवत 'आत्मोत्पन्ना' पति घ्यवहार: स्पान आत्मत्वे. नोत्पावाप्रतियोगिल्चे तु 'कम्युग्रीचादिमानुत्पन्नः इस्पपि न स्याद् इति वाच्यम् । गुरुरूपस्यापि प्रकारवायवच्छेदकत्वषदुत्पादादिप्रतियोगितावच्छेद फत्त्वात् । अत एव नित्पानिपतामोदयसाग । ___ नन्वेषं 'परमाणुनित्यः' इति ध्यवहारोऽपि भ्रान्तः स्यात् , परमाणोः परमाणुभावेन नाशस्याप्य युपगमाव , अत पवाययत्र-विभागोतरं तयोत्पादप्रतिपादनात् । तदुतम्-- "घरविशिमिट्टीवश्य को उत्पत्ति का प्रतियोगी मानने पर घविशिष्टमिट्टोद्रव्य के अतिरिक्त कारणों को कल्पना में गौरव होगा"-पेसा कुतर्फ ठीक नहीं है, क्योंकि घटकारणों से ही विशिमिट्टीदष्य की उत्पत्ति हो जाने से अतिरिक्तकारण की कल्पना मनावश्यक है। इसीलिये झण हेतुमों से ही क्षणविशिष्ठ को भी सापति हो जाने से पेसे सभी कार्यों को समानरूप से विस्रसा-उत्पाव-अर्थात पुरुषप्रयत्न के बिना ही स्वाभाषिक उत्पाद सिम होता है। [जीव उत्पन्न हुमा' इस न्यवहार को आपत्ति का निराकरण] पेसा मत समझीर कि-"विशेषण की उत्पत्ति के समय यदि विशिष्ठ को भी उत्पाद होगी तो शान के साथ शामाश्रय आस्मा की भी उत्पत्ति होगी अता से शाम उत्तम यह व्यवहार होता है, उसी प्रकार 'भारमा उत्पन्ना' यह भी व्यवहार होना चाहिये"फिनान की उत्पत्ति के साथ शानविशिष्ट भारमा की इरपरि होने पर भी आत्मा भास्मस्वरूप से वापत्ति का प्रतियोगी नहीं होता । मतः मात्मा को मामस्वरूप से उत्पत्ति प्रतियोगी के रूप में विषय करने वाले वात्मा वपन्नः' इस व्यवहार की भापति नहों हो सकती । या भी घोष नहीं है कि-"तय तो 'कम्युप्रीवादिमान जापानः' या मी व्यव दार न हो सकेगा, क्योंकि यह व्यवहार कम्युमोयाविमान में उत्पति की प्रतियोगिता को कम्युनीयादिमषरूप से विषय करतामीर कम्युनीवामित्व घटत्व की अपेक्षा गुरुधर्म होने से उत्पत्ति की प्रतियोगिता का अपच्छेरक हो नहीं सकता।" [गुरुधर्म को भी मवच्छेदक मान सकते है। कि 'कम्युनीयाविमहान् देश', 'अत्र देशे कम्नुग्रीवादिमान्' इत्यादि व्यपाहार के मनुरोध से जैसे कानुनीषाविमस्य को प्रकारता. विशेस्थता भादि का अपम्वक माना जाता है उसी प्रकार उसे 'कम्युनोविमान् उत्पन्न।' इस प्यार के अनुरोध से उत्पत्ति को प्रतियोगिता का भी धमछेदक माना जा सकता है। इसीलिये ज्ञानात्मकाय मोर भारमतव्य में अमेद होने पर भी पानं नित्यम्' 'आत्मा अनित्यः' इस प्रकार नित्यस्थ और अनित्यरथ के सांकर्य की भी गापति नहीं दी जा सकती, क्योंकि वोमों में द्रव्य मुखी रधि ने अभेद होने पर भी नस्प मोर मामत्व रूप से मेद माम कर तथा शान स्वरूप से केवल अमित्यता और भात्मस्वरूप से केवल निस्यसा मान कर उक्त लोकापति का निहार हो सकता है। बागबरूप से निस्यता न मानने का कारण यही है कि शाम जामाबरूप से उत्पन यं नष्ट होता है और यह नियम है कि 'ओ जिस से उत्पग्म पा न होता है पर उस कप से नित्य नहीं होता। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासिमुच्चय-सापक लो र हसरसोगादि के दवियस्य पेरित बप्पार्य । अपामस्थाऽकुलका विभागमायण छति ।। भा-दुणुपाहि पे मारले तिषणुम ति बपएसो। ततो म पुण बिमसो मात्ति जामो अशू होई || इति (सम्मतिगाथा १३५-१३६) मुम चैनल प्राक परमालासरचे स्थमाका भाषनसमात् इति चेत् ! न, व्यावहारिफनित्यबयाणे समाविमागरूपस्यैव व्यवस्थ प्रवेश्यत्वादिति । अधिकं निम् बालोके । उतायें ग्यासमतिमा 'एगाऽऽह व्यास महर्षिः।' छन्दाप्रतिलोमताप्रार्षत्वान्न दोषाय ।।७।। [परमाणुनिस्पताब्यबहारभ्रान्तता की भापति और परिहार "जिस कपको उत्पम्म या गण्ड होता है, उस कप से यह लिस्य नहीं होता".. इस नियम को तोड़ने के लिये कोई संशय करते हैं कि-"ता तो 'परमाणुः निस्पः' इस प्रकार परमाणुस्वरूप से परमाणु हो मित्यता का ग्ययार होता है, वह शमगागिक हो जायगा, क्योंकि परमाणुओं से स्थूल दव्य की उत्पत्ति के समय परमाणुस्वरूप से परमाणु का नाश होता है और स्थूलदाय के भवनों का विभाग होकर स्थूल व्य कम होने के साथ परमाणुबह परमाणु की उत्पत्ति होती है, जैसे कि 'सम्मति' नामक कप में बहा गया है ध्यान्सरसंयोगभ्या केचिद् द्रव्यस्थ बुधन्त्युत्पावम् । सत्पावार्थाशिला विभागजात नेति ॥ शणुम्यागुकै ब्ये भार घणकमितिष्यपदेशः। सतन पुनर्षिभक्तोऽणुरिति जातोगुर्भपति || (संस्कृतकपातर) -'हम लोग एकस्यध्यातरफयोगसेनयेष्य की कमाने है, लोग जस्त के अर्थ को पूर्ण रूप में समाने में सकुशल होने के कारण विभाग उत्पन्न होने वाले प्रष्य को नही स्वीकार करते। किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि से मन मोर चागुकों के संयोग से पक स्यूलद्रव्य को बम होती है और उस परपम्नवब्य को डणुक कहा जाता है, उसी प्रकार भागु और बपको का विभाग होने पर भणु प्रष्य की भी उत्पत्ति होती है, और उस उत्पम प्रग्य को भणु परमाणु कहा गता है।' स्पलाम की उत्पत्ति के ममय परमाणु के परमाणुभाष का नाश मानमा युक्ति कात भी है, अन्यथा विभिन्न परमाणुभों का संयोग होने पर भी परमाणुओं का परमायभाय यदि पहले ही असा बना रहेगा तो स्थूल मुश्य की उत्पत्ति हो न हो सकेगी। कार अब परमारवकर से परमाणु का नाश भौर उत्पाय होता है, सब वह पर बाप रूप से नित्य नहीं हो सकता। अतः 'परमाणुमित्यः' इस व्यवहार की भारतबापता मनिवार्य है।"- इस संशय का उत्सर पार है कि व्यावहारिकनित्यता के लक्षण सम्माधिमागरूपमा का प्रवेश, अतः परमाणु की व्यावहारिकनित्यता में कोई माया होने से उत्तयार में प्रमाणिकता की आपत्ति नहीं हो सकती । कहने का बायब पर किमाश को मप्रतियोगियो म्यापहारिकमिस्मरण का लमण है, इस सपा में प्रविष्ट नाश 'अमुवायषिमाग' सप है, अतर जिसका समुदापरिभागरूप वाक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सा स्था का टीका बी. वि. मुखम् नासतो वियते भावो नाऽभावो वियते सतः । उभ्यो।षि इटोडन्तस्त्वनयोस्तवदर्शिमिः" ||७६॥ मासतावरविक्षाणा, विद्यते भाव! वल्पावर, असावग्याघातप्रसवात् । सवय पृषिम्पादेः, अभावोऽपि नास्ति, अवशायदसत्यप्रसङ्गात् । उभयोस्पनयोरथयो, तस्वदसिमिः परमार्थयाहिमिः, अन्तो नियमः, दृष्टः प्रमिता,-'यद् यत्रोत्पद्यते-सत्र वन सद, यस यत्र सत्-तत् तमिष्ठामावाऽप्रतियोगीति ||६|| इदमेबापरेऽपि पदन्तिमुझम- नाभायो भावमाप्नोति, शशी तथागतेः । भवो नाभाताई, बीपश्चम सया || न हो अर्थात् अस्मारक अययों के विभाग से जिसका नाश हो षही व्यावहारिक नित्य होता है। परमाणु की खत्पत्ति भावों के संयोग से नहीं किन्तु वधाक के अायों के विभाग से होती है माता उसका समुदायषिमागरूप नाश सम्मषित ही नहीं है। इस लिये परमात्धरूप से समुदाय विभागरूप नाश न होने से 'परमाणु नित्या' रस व्यवहार की प्रामाणिकता की क्षति नही हो सकती, और पा रियम भी अक्षुण्ण बना रखता है। इस विषय में अधिक अिशासुमो के लिये उपाध्यायजो स्वरचित विध्यालोक नामक प्राध्यापकोकार की ओर संक्षेन करते है। "किसी पस्तु की न तो ऐकान्सिक उत्पत्ति होती है और न किसो वस्तु का पेकान्निर माश होता है'स विषय में महर्षि व्यास की भी सम्मति। प्रो अप्रिम कारिका में उन्ही के शब्दों में उचत करेंगे। या प्रस्तुन कारिका में 'यथा मासमाधिः' इस श में अनुष्टुप् उना रिन है, पर यह दोष नहीं है, क्योंकि कारिकाकार पक ऋषि है, उनका पचम भाप है, मौर रवि को लौकिक नियमों का बन्धम होता नहीं है ॥७॥ कारिका ७६ का भये इस प्रकार है [उत्पत्ति मौर नाश के विषय में व्यास की सम्मति खरविषाण भादि असतू पदार्थी की उत्पसि नहीं होती, क्योंकि उत्पत्ति होने पर उसके असरम का व्यापात हो जायगा । पृषिधी भावि सत् पदार्थों का शमाय नहीं होना, क्योंकि उनका अभाव होने पर शशशूम के समान उनका भी बलस्प हो पायगर । परमादी विद्यामों में शासन और सत् के विषय में पर नियम निधारित शिम कि 'जो पस्तु मह उत्पन्न होती है वहां बन पहले भी किसी न किसी बप में सा होती है, और जो पर जहां सत् होती है वह किसी मप में सदैव सा की सती है, पहा पकारततः उसका नाश यामी ममाव नहीं होता ॥३॥ उपन्ति और नाश के विषय में दूसरे लोगो भी सम्मति] ७ कारिका में उस विषय में अन्य लोगों की भी सम्मति प्रशित की गंदी है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्वपायांसमुखाय-स्तक । महो० ७७ न अभावःच्छा , मानमाप्नोतिपारमार्थिक प्रतिपद्यते, शशी तथाऽगतेःभावत्वेनापरिषदात । माशेऽपि पारमार्थिक जगति अभावतुम्नस्वभावं, नैति । मनु दीपो भावरूपः, स चालोकाभावात्मकान्धकारस्वरूपता प्रतिपद्यत इति चेत् ! स दीपस्याध हारपरिणामः, सर्वथाऽभावरूपो न, भास्त्ररपरिणामपरित्यागेऽपि इष्यत्वाsपरित्यागात् । तेजसोऽतिविनिवृत्तिरूपता स्वीकृता तमसि या फणाविना । द्रष्यता क्यममी मीक्षिणस्तत्र पत्रमालम्व्य चक्ष्महे ॥१॥ तमो द्रष्य, रूपवतात. घटयत् । न च देवसिद्धिा 'तमो नीलम्' इति प्रतीते सार्वजनीनत्वात् । न चासौ भ्रमः बाधकामावान् । न चोभूतरूपमुभूतस्पर्धव्याप्यम्, इत्युभूतरूपवरषे उदभूतस्पर्धापत्तियाँधिका, इन्द्रनीलप्रभासहरितनीलभागस्तु स्मर्यमाणारोपेणैव तत्प्रभायां नीलधीनिर्वाहाद् गौरवादेव न कल्पते, इति तत्र न व्यभिचारः, कुमादिपरितस्फटिकमाण्डे ___ मभावात्मक पदार्थ तुमच होता है। यह कभी भी परमाकर नहीं होता जैसे शश कभी भी सत् नहीं होता. उसमें कभी भी भाषरक्ष-परमार्थसारसा का परिच्छेद (बोष) नहीं होता। इसी प्रकार भाषामका पाथरूप होता है. पर सुख के असत्यस्वभाव को कभी नहीं प्राप्त करता, अर्थात् सवस्तु कभी भी असत् नहीं होती । का करे कि-"वीन भावात्मक पदार्थ होने हुये भी सेल या पसी के समाप्त हो जाने पर मधषा सीप पायु का झोंका लग जाने पर आलोकाभावात्मक अन्धकार रूप हो जाता है। मतः 'भाषामक पदार्थ कभी अभावात्मक महो होता,' यह निषम व्य. भिचरित है,"-तो घा व्यर्थ है, क्योकि वीप का अन्धकाररूपपरिणाम सर्वथा श्रमावरूप नहीं होता । उस में केवल भास्वरपरिणाम का अभाव होता है, व्यत्व का मभाव नही हाता । कर्म का आशय यह है कि अन्धकार मालोकाभाषरूप नहीं, किन्तु मापररूप से शुम्य पक म्य । [अन्धकार अभावरूप नहीं है। ज्यापयाकार का कहना है कि कणाद ने जिस अन्धकार को तेज का अयन्ताभाषमामा है. समीक्षक गण उसे ही प्रमाण के पळ से द्रष्यरूप मानते हैं। पर प्रमाण भनुमान है. जैसे 'अधिकार प्रष्यस्याप है क्योंकि यह नीकरूप का आश्रय है। जो कए का माशय होता है पर दृष्यस्वी होता है, जैसे 'घट' । अन्धकार में कपासक हेतु की मसिद्धि नहीं क्योंकि तमो मोलम्'- अन्धकार नील होतास सार्वजनिक प्रतीति से मम्धकार में रूप सिख है, अन्धकार में नोलत्य की प्रतीति अमरूप नहीं क्योकि भथविध प्रतीति से उस का पाय नहीं होता। [उदभूतरूपव्याष्य उगभूतस्पशे की अन्धकार में मापत्ति पा बा की जा सकती है कि-"अभूतरूप अभूतस्पर्श का पाप्य है, अतः मन्धकार में उपभूताप भागने पर उस में अभूतस्पर्श की भी भापति होगी इसलिये पह मापत्ति की मम्धकार के अपमान होने में बाधक है Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० ठीका व वि० हिरोप्यमाणपीताश्रयेऽपि न व्यभिचारः, तत्रापि स्मर्यमाणारोपेणैष पीतधीनिर्वाहा चहिपतद्रव्यकल्पनात् पहिर्गन्धोपस्तु षाध्याकष्टानुदभूत रूपमागान्तरे चैवोपपजेरिति वाच्यमानाभावात् प्रभायां व्यभिचाराच्च । न चोभूतनीरूपवन्यमेयोभूतस्पर्शव्याप्यम् न च धूमे व्यभिचारः, तत्राप्युत् भूतस्पर्शवत्वात् अत एव तत्सम्ब Paraast जलनिपात इति वाच्यम् चचूर्मसंयोगत्वेनैवापादनकस्वाद् घूमे उद्भूत स्पर्धाऽसिद्धेः, नीलित्रसरेण व्यभिचारान्ने । " १९९ यदि यह कहे कि 'नीरमणि की प्रभा सभ्य होने से स्वभाव शुभ है, किंतु उसमें सीमा की प्रतीति होती है, उसके अनुरोध से उस प्रभा में उत्तरप से शुन्य किसी भी की अनुमान है उसमें उ भूतरूप भूतप का व्यभिवारी है अतः उद्भूतरूप भूतदपूरी का ध्या हो सकता तो यह ठीक नहीं है, कि दूरस्थ उद्भूतरूपवान नीलव्य के रूप का स्मरण मान कर उसके आरोप से भी इन्द्रनील की मभा में नोलिया की प्रतीति का निर्वाह किया जा सकता है अतः घूमा में उदभूत स्पर्शशस्य नीलवग्य की अनुस्यूति की कपना गौरवग्रस्त होने से त्याज्य है । यदि यह कहे कि स्फटिकमणि के शुभ भाण्ड कुकुम भर देने पर भाण्ड के बाहिर पीतवर्ण की प्रतोनि होती है, उसकी उपपत्ति के लिये भाग्य के उपरी भाग पर किसी ऐसे पीतऋत्य का अस्तित्य मानना मावश्यक है, जिसमें उतस्पर्श नगर जिस के सम्विधान से भाषा के बाहर पीतिमा की प्रतीति हो सके उस पीतव्य में उद्भूतरूप प्रभूतरूप का व्यभिचारी है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि स्फटिकमा कुकुम से पूरित होने की दशा में भाण्ड के बाहर जो पीतिमा प्रतीत होती है उसका निर्वाह भो किलो दूरस्थ उद्भूतस्पर्शरूप के पीलरूप का स्मरण मान कर उसके आरोप द्वारा सम्पन्न हो सकता है। भसः स्फटिकमाण्ड के उपरी भाग में किसी पीतद्रव्य सग्निधान की कल्पना अमावश्यक है। यदि यह कहे कि 'रिकभाण्ड के बाहर प्रतिमा के साथ गन्ध को भी होती है, तो पीतिमा की प्रतीति का निर्वाद तो दूरस्थ वय के स्मर्यमान पोनरूप के आरोप से किया जा सकता है, पर गन्ध की उपलब्धि तो मधवानप्रस्थ के सन्निधान के बिना नहीं हो कतो, तो इस प्रकार जो गन्धवान् थ्य समिति माना जायगा, प्रतीयमान पीतरूप भी लाभ से उसका रूप माना जायगा अतः उस में उद्भूतरूप में उद्भूतरूपये का व्यभिचार अपरिहार्य है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गन्ध की उपलब्धि वायु द्वारा उपभीत अनुभूत रूपवान् व्य के गन्ध से भी सम्भव होने से उक्त रीति से व्यभिचार की शङ्कर भयुक्त है। फलतः उद्भूतरूप में उद्भूतस्पर्श की व्याप्ति के निर्वाध होने से कार में उतारी की मापत्ति उसके उत्भूतरूपवान् होने में सकती है". - [उदभूतरूप की उद्भूतस्पर्श में व्याप्त नहीं है । ] विचार करने पर यह शङ्गित भापति निराधार हो जाती है, क्योंकि उप में भूतप को ध्याप्ति का प्राहरू कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उक्त स्पाति के Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवाचिक पाटितपक्ष्मावयव तत्राप्युदभूत स्पर्शषश्यामाम भनुभूतरूपस्यो भूत कवजन कसा पर हवानुयूतस्पर्शस्यापि निभिसभेश्संसर्गेणोद्धूतस्पर्श मनफत सम्भा वा सम्प्रतिपते । अपि च प्रसरेणोद्भूतस्पर्शवत्वे तरस्पर्शस्पार्शनप्रत: । विशेषाभावाद न इति वत् १ न एकत्व विशेषाभावेन विनिगमनाविरहान् प्रया त्याच्च । 'आभावाचाभावस्य द्रव्यान्यसश्वा चप्रतिबन्धकत्वाद् म' इति उद्भूतस्पर्श भावस्यैव तत्प्रतिबन्धकत्वेन तादूत्वकल्पनाचित्यात् । वस्तुतः प्रभाघटपणा पराभिमतजातिस्थानीयत्वगत्रायतास्वभावादेव न स्वायत्यम् इति नेतास्विमपि न २०० + विघटनाथ प्रभा में उत्भूतरूप में उद्भूतस्पर्श का व्यभिचार विद्यमान है। यदि यह कहे कि "भा में व्यभिचार होने से यदि उद्भूतरूप में उद्भूतरूप की व्याप्ति नहीं है, वो मत हो पर भूतभीररूप में उपरी को व्याक्ति सो निर्वाध है। इस प्राप्ति में शक की हाय कि 'धूम में उतनी रूप में उद्भूतस्वर्ग का व्यभिचार होने से उक्त व्याप्ति में बाध है तो वह व्यर्थ है, क्योंकि वक्षु के साथ धूम का सम्बन्ध होने पर वक्षु से अनुपात होने के कारण धूम में उद्भूता का होना अनिवार्य होने से उत्सूतनीरूप में उतस्पर्श का व्यभिचार असिद्ध है। इस प्रकार जब भूतनीलरूप में उच्भूतरूप की व्याधि निर्वाध है, तब अन्धकार में यदि उद्भूत मीरूप माना जायगा तो उसमें उत्तरपर्श की भी आपत्ति योगी, अतः उस में उपभूतभीरून महीं माना जा सकता, नीकेतररूप भी उस में प्रमाण के अभाव में मान्य नहीं हो सकता, फलतः अन्धकार में रूप की सिद्धि न होने से रूप से गन्धकर र स्व का अनुमान दु तो यह कहना उचित नहीं है, क्योंकि चनु-धूमसंयोग को नुवान का जनक नाम लेने से भ्रम में उत्तस्पर्श मानना आवश्यक नहीं है अतः धूम में उद्भूतमरूप में उद्भूतरूपर्ण का व्यभिचार अभिवार्य है। इसी मकार नीलीकेसरेणु में भी उष्भूतमोरूप में उद्भूतस्पर्श का व्यभिचार अपरिहार्य है । इसलिये भूतनीरूप में उद्भूतस्पर्श की व्याप्ति म होने से उद्भूतरूप से उद्भूतरूपर्श की भाप का कोई भय नहीं है, अतः कोई बाधक न होने से अन्धकार में भूत नीलरूप सिन है और इसलिये रूप से मन्पकार में द्रव्यन्य का अनुमान करने में कोई बाधा नहीं हो सकती । [नीलिक्सरे में व्यभिचारापति के उद्वार का प्रयत्न ] चक्का हो सकती है कि- "किसी पट को फाडने पर जो उसके सूक्ष्म अवयव लिलते हैं उनका स्पर्श उद्भूत होता है, क्योंकि यदि पत्र उद्भूत न होगा तो उससे पड में अद्भूत स्पर्श की उत्पत्ति न होगी और न उसके सम्बन्ध से चलू से अनुपात होगा । तो पर उस सूक्ष्म मघव इष्टान्त से नीलव्य के सरे में भी उद्भूतस्वर्श फा अनुमान हो जायगा, अतः नीलिप के असरे में भी उद्भूतरूप में भूतपदी का चार नहीं हो सकता ।" - किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि फाये हुए पंड के सूक्ष्म भवन में मी उतरूप के होने में प्रमाण न होने से इष्कात दी सम्प्रतिपन्न Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डीका ... स्वीकत नहीं है। यदि यह को कि-" के सूरुम अपययों में उभूनस्पर्श न मानने पर पर में उचूभूतस्पर्श की आचि नबो सकेगी"-तो यह डोक महीं है, क्योंकि से भवभूतरूप से अभूतरूप की उत्पत्ति होती है उसी प्रकार अनुभूतमार्श से मार मावि विशेषमिमित्त के सहयोग से उभूतस्पर्श की भी उत्पति हो सकती है। मके सूक्ष्माषय के सम्बन्ध से बक्षु से अष्टपास की उत्पत्ति भी अनुपात के प्रप्ति पशु मोर पारित पट के सूक्ष्मास्यय मेयोग को कारण मान लेने से सम्पन्न हो सकती मतः पर के सूक्ष्मायनों में उमृतस्पश अप्रमाणिक हो, स प्रकार उद्भूतरूप पर के सूक्ष्म अवपत्रों में भी उदभूतस्पर्श का व्यभिवारी है। अथवा 'नच पादितपट'....सेवातालमविपत्ता, पर्यम्सन य की ष्णाल्या इस प्रकार की जा सकती है कि-पट के सम्मापयवों का रसात नीलिवथ्य के प्रप्तरेणु में उदभूतः स्म की अनुमिति के मनुकूल रवान्त के रूप में स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि मनु. भवरूप में उभूनकप को जनकमा के समान निमित्त विशेष के सहयोग से अनुभव स्वी में उपभूतस्पर्श की जनकना का सम्मष होने से यह अनुमान कि. "मीसिनव्य का असणु उदभूतस्पर्शवान है, पौषि उभयस्पर्शयान, चतुरणुक शादि का जनक है, जैसे पाटिन पद का लक्ष्माश्यष' अथवा 'नीलियुष्य के प्रणरेणु का स्पर्श उभूत है, कयोंकि बातुरणुक में भूसस्पर्श का जनक है. जैसे पाटिनपट के सूक्षमावयव का स्पर्ध"विराधार है। भानुभूतरूप में उद्भूतरूपजनकता पर प्रश्न] अनुभूतपश में उद्धृगस्पर्श की जनता में समर्थन में गनुभूतरूप में उभूतका की समकता को पासरूप में प्रस्तुत किया गया १स पर मशा हो सकता है कि"या जमकता मिज कहां है? कि सर्वत्र परमाणु तयणुक आदि में अद्भसम्प ही माना जाता है, उसी से पणुक मादि में उद्भनरूप की उत्पति होती है। परमाणु धौर अपाक में प्रभूतला होने पर भी पन का मानुषप्रया इसक्तिये नहीं होता कि जनमें चाक्षुषप्रत्यक्ष का कारण मस्य नहों रहता। अतः इस रष्ट्रात के सिर होने से जल के सहारे अनुभूनस्पर्श में उत्भूतम्पर्शजनकता के औचित्य का समर्थन प्राय नहीं है।"-ल प्रबन के उत्तर में या कहा जा सकता है कि मनु के प्राप्यकारिपसमिकरस्तुसम्पनोसकन पत्र में चक्षु से पर्यात दूरस्थ अप आदि के प्रत्यक्ष को हरपति के लिये कालिमार आवि विद्वानों ने यह स्वीकार किया है कि श्री रमि अब पाहर निकलनो है जय प्राय पालोक से मिलकर घन वृद्धत् चक्षुर विम को पन कर रेसो है । इस यातू पशुपक्षिम द्वारा दररथ दमों के साथ सच का सग्निकर्ष होने मे मा जारा उन का प्रत्यश्न सम्पन्न हाना है। तो यह जो पृष्च रश्मि छापामोतो है, उसे रश्यमान पायालोक से अतिरिक्त मानने में गौरय बोमें कारण इयमान बाालोकस्वरूप मानना ही उचित है और उसका उदभूतरूप बसुरक्ष्मि के भनुभूतरूप गवं वानमालोक के उचूभूतरूप से उत्तम होता है, इस प्रकार चक्षुरधिम के भनुष्मतरूप में पायालोक-साक्षरहिम के संयोग से डरपाल पाहालोकाम्मक पा. बा. २६ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ शरयासमुन्च-स्तबक १ को प्रहमचरहिम के उद्भूतरूप की जनकता सिद्ध है' 1 पसरेगु में उभृतसपर्श भागने में ना थोर है नाम परेशाना स्पर्श वि सभूत होगा तो उसके स्पानिप्रत्यक्ष की भापति होगी | 'स्मानप्रयास में विजातीय भाइरपरिमाण कारण है, पसरेणु में उसका भभाष होने से उस के कपर्श का स्पानिप्रत्यक्ष नही हो सकता'-यह कामा ठीक नही है, क्योंकि विनिगमना के प्रमाण में यह भी कहा जा सकता है कि स्पर्शनप्रत्यक्ष में विजातीयपकस्य, विजातीय एक पूषवस्व भावि कारण है. उनका अभाष होने से प्रसपा के स्पर्श का स्पार्शवप्रत्यक्ष नहीं होता, अतः इन कल्पनाओं की अपेक्षा यही मानना उचित है कि प्रसरेणु का स्पर्श मनुभूत होता है और उस अनुभूतस्पर्श से भी निमित्त विशेष के योग से चतुरगुक माधि में उद्भूतस्पर्श की उत्पत्ति होती है। महत्यधिशेष के अमाय मे प्रसरेणु के स्पर्श की स्पार्शनप्रत्यक्ष मी होता, या काना इसलिये भी ठीक नहीं है कि-स्प तो द्रव्य से भाग्य है मतः उसके प्रत्यास में महरख कारण की कैसे हो सकता है। ज्योकि बाद महत्व तो द्रष्य का धर्म होने से प्रन्य ही के प्रत्यक्ष का कारण हो सकता है। प्रतः प्रसरेणु में यदि मास्वविशेष का भाष तो उससे बसरेणु के श्री पार्शमाभाष की उत्पत्ति होगी, कि उसके स्पर्श के स्पार्शनाभाष की उपाति होगी। (२) भु-रश्मि और मायालीक के प्रयोग से जो हद परम तत्पन्न होती है, उसमें अनुभूत ही रूप पाना जाम, सो नभु के अद्भतरूप में उदभूतरूपचनकता नहीं हो सकती'- यह आशा करना ठीक नहा है, याक एण्यमान शम्पाखोक से भिन्न हद चक्षु-गरम की उत्पनि मानने पर उस समय दृष्ठा और दृश्य के मय उक्त बहद् चधु-रश्मि और बाबालोक-इन अतिरिता दो द्रष्यों की कल्पना में गौम है । "उना आलोकारमक वृहद् नक्षु-रदिम में भुम की उत्पक्षि मारपालोक के उभूतरूप से ही होती है, उसमें चक्षु का अद्भुतम्य कारण नहीं होत:'---मह श्यना भी दीक नहीं हो सकती, स्मोकि अवयमी के रूप में सभी अवरामी के रूप कारण होते है । दूसरी बात यह है कि अवि पुजा हद् बचरपिम में केवल बाबालीक का ही रूप कारण होगा, तो चक्षु-रश्मिभाग में न की उत्पत्ति न होने से वाद् पशुग में रूप भन्या गरि हो जाएगा और रूप की नैशिक अव्याप्यवृत्तिता न्यायमिवान्स से विकर है। "चतु-रभि और शपालोक से दृश्यमान आले.काश्मक हद् चक्षु-विम की उत्पत्ति मानने पर उसमें धष्ट्र और आटोकाव का सांच्च होने से धोनी के जातित्व का भा होगा"- यज्ञ का भी ठीक नहीं, क्योंकि उसे मानान्य बालीक अर्भात चध-रक्षित से अनारब्ध आलोक से विजातीयालोक स्वरूप मानने से सकिरी का हार हो जायगा |--"जक प्रेमात चा-रशिय गं नअष्ट्य न मानने पर उसके ब्रास दूरस्य ट्रम्प के साथ चशु का मतितकर्य न । मोगा और चाष्ट्रव मानने पर उसमें चक्षुष्ट्य के चाक्षषपक्ष की भापनि हंगी, क्योंकि जिस प्रन्निय से भो माया होता है उस में रहने यारी समस्त जातियों भी उसी इन्द्रिय से प्रामा होती है मन निगम है"- यह सब गी अनुचित है, क आलोकरब से तुम्न का अधिभव होने से उसकी अधाशुपता को उपपत्ति हो सकता है। हर भार-विगत आकाय भूल अक्ष में नहीं रखता अनः बहसव का व्यापक नहीं, इस लिंप उससे पाष्ट्व का अमिभव भानने में कोई अभंगति नही, प्रत्युत उक्त आलोकल ट्त का ध्याय अतः उससे चाट्न का अभिभष योनिकी, मीनि घट जगदि के घटत्यादिमायकवा से चाक्षुषप्रत्यक्ष की बधा में प्रविधीय, हायरव आदि व्यापक रूपों से मर आदि के चातुपपत्यक्ष का अनुभव न होने से न्यायधम से म्यापकधर्म का अभिनय Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का पोका प हि षि [भाररेणु के पार्शनप्रत्यक्ष की भापत्ति] यदि यह कहे कि "भाषय के स्पार्शमप्रत्यक्ष का प्रभाव आभित के स्पार्शनमायक्ष का प्रतिबाधक होता है, माता प्रसरेणुरूप भानय का स्पार्शन न होने से उसके स्पर्श का भी स्पाशन नहीं हो सकता, इसलिये प्रसरेणु के स्पर्श को उपभूत मानने पर भी उसके पार्शनम्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि स. रेणुरूप भाप का सामान प्रत्यक्ष फयों नहीं होता। इसके उत्तर में यही कहना होगा कि अभूतस्पर्श का मभाव उसके प्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक है. अता प्रसरेणु में अभूत. रूपाभाषका प्रतिबन्धक की समा उपपन्न करने के लिये इसके मार्ग को अनुभूत मानना ही उचित है । पयोकि यदि उसके स्पर्श को अद्भूत मामा आयगा तो उसके मान्य है। अपवा सह मी कल्पना की जा सकती है कि बृहदन-रम में नाव नहीं रहता, 'उस में चक्षुष्ट्य न होने पर उसके द्वारा चद्धान्तिकाय न हो सकने से दूरस्थ द्रव्य के पाशुप को अनापत्ति' की संका नहीं हो सकतो, स्वतंनिस्वास्वपयोध्यातियोमिकल्यानपतरसम्बन्धसे चच विशिष्टसभिकर्ष को कारण मान लेने से नूरस्प के चाचष की उपरान की पा सकती है। पर्व-चक्षु-रक्षिम और बाल श्रमान आलोक के संयोग से यादव - की उत्पत्ति नहीं होनी किन्तु मार पो हुये अन्य अनुदभुतावमार भालोकमणी के सापy- के योग से ना चटारभि की अपत्ति होती है. यह कल्पमा भोक नई है, क्योंकि बाहर अननुभूतकापभान आलोक कणों का प्रसार मानने में गौरव है। पर्वतमकार से वृहद् चक्षु-रश्मि की उत्पनि गानने पर उसका दृश्यय के पृष्ठ भाग में, एवं हष्ठा के.पृष्ठभाग में स्थित एन्य में भी प्रयोग का सम्मान होने से सम्भुन्यस्यद्रव्य के पृष्टभाग तथा टए। के पृष्ठभागस्थनम के भी चाक्षुष के आपत्ति होगो'-यह शङ्का भी उचित नहीं है, क्योंकि भापत्या में पनुःसन्निकर और रक्षा का सम्मुखता दोनों कारण है, सम्मानस्श ठन्य के पृष्ठभाग में तथा सटा के पृष्ठभागस्य पदार्थ में हा को सम्मुखता न होने से उनके चाक्षुष की आपत्ति नहीं दो मकनी, जे. ट्रम्य जिम ५) के सम्मुग्ण होता है उसका अग्रभाग ई। रा के माद माना जाता हैं, उसका पृष्ठभाग सम्मुत्र नहीं माना माता, क्योंकि पृष्ठभाग में सम्मुग्लीनाथ का व्यवहार नहीं होता | 'EET की सम्भुप्ता को चाक्षुप के प्रांत कारण मानने पर वक्षःसन्निको को कारण मानना व्यर्थ है-यह मौका नहीं की जा सकती, क्योंकि दृष्या के सम्मुख पर्याप्त निर्या दूर देश में स्थित इब्ध के चाक्षुपापत्ति के परिवागर्थ मानक की कारण मानन्दा आवद्यक । इस सन्दर्भ में यह प्यान देने योग्य बात है कि सम्मुगीन होने का अर्थ मुम्य की दिशा में अस्पत होना मान नहीं है क्योकि यह अर्थ मानने पर सम्मुखस्थ इन्म के पृष्टभाग की भी सम्मुखीनना अनिवार्य हो जायगी, अतः सम्मुखीनता का अर्थ है 'इदस्य सम्माबीनम्, इदं न इस यवहार का निवासक स्वरूपसम्बम्भनिशेष, नो मुख दिशा में अवस्थित उसी इन्य में होता है जिसमें उस बहार आनुभषिक हैं। अपग यह भी कल्पना की जा सकती है कि पा और रश के सम्मुलस्थ म के अयभाग के यम जी आलोक होता है उसके साथ मनः-शि के संयोग से उतने ही भाय में बद वास्नि की उत्पत्ति होती है, अता दृष्टा के टस्थ द्रव्प के साथ एवं ट्वा के समय नन्य के गुप्तधाग के साथ नक्षु का सन्निकर्ष न होने से उनके चाक्षुषप्रत्यक्ष की आपत्ति सम्भावित ही नही हो सकती । इस फल्पना की मान्य करने पर दृष्टा के माममुख्य को चासत्र के प्रति कारण मानने * अवश्यकता नहीं होती। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रपातसमुन्द्रयस्त७७ 'तमसि पत्र नाभिष्यज्यमानः शीतस्पर्शोऽप्यनुभूयत एव अत उद्भूत स्पर्शषमपि तत्र' इति साम्प्रदायिकाः । २०४ नीलरूपनं प्रति पृथिवीत्वेम हेतुचादिति चेत् न मम स्वभारविशेषस्यैव नीष्ठनियामकत्वात् । स्पार्क में उद्भूत स्पर्शभाव के प्रतिबन्धक न हो सकने से महत्त्वविदोवामा पक विशेषाभाव आदि अनेकों में विनिगमनाविरहवश उसके स्पार्शन को प्रतिबन्धकता मानना होगा जो पक्ष गौरवग्रस्त कल्पना होगी । प्राय होते ही वास्तविकात सां यह है कि कई पदार्थ ऐसे है जो त्वमिन्द्रिय नहीं। जैसे घट के साथ प्रभा का संयोग इस संयोग के आश्रय घट का स क्षेत्र है, यतः उसमें महत्त्वविशेष और उद्भूता दोनों भाग्य है, फिर भी इसमें भाभित प्रभासंयोग का स्थादर्शनप्रत्यक्ष नहीं होता। स्पष्ट है कि उसमें तिन्द्रिय से गृहीत होने की योग्यता ही नहीं है। यह अन्य चाल है कि जातिवादी उसमें एक विशेष जति मान कर विषयासम्वन्ध से मनप्रत्यक्ष के प्रति मानिमत् को तादात्म्यसम्बन्ध से प्रतिबन्धक मानकर उसे जात्या स्वगिन्द्रिय से अमात्य कहे और सिद्धान्ती जैम जाति के स्थान में स्वभाव मान कर स्वभावतः उसे त्वमिस्त्रिय से अप्राहर कहूँ । तो जैसे प्रभाघटसंयोग जान्या अथवा स्वभावतः स्वगिन्द्रिय से अन्नाहा है अतः उसके आय में भविशेष और उद्यूत्तस्पर्श के होते हुये भी उसका प्रत्यक्ष नहीं होता, उसी मकार नीलिव्य का सरे भी जात्या अथवा स्वभावतः व्यगिन्द्रिय से मया होने के कारण साईनिराश का नहीं होता, इस लिये उसके स्पार्शन के प्रति उद्भूत पाव में प्रतिबन्धकत्व की कल्पना अनावश्यक है यह इतना विशेष है कि पंकालेन अतिरिक्त अति व उसका समषाय सन्मतितर्क आदि अन्य में निरस्त किये गये है अब कि स्वभाव मेदसम्बन्ध से अनेकान्तमत में प्रमाण से अवाध्य है । जैन सम्प्रदायों का कहना है कि पवन से अन्धकार में शीतस्पर्श की अभि व्यक्ति होती है। यद अनुभव सिद्ध है, इस लिये लोग गर्मी के दिनों में खिडकियों और दरवाजे यन्त्र कर तथा गर्मी का रातों में दीप बुझा कर कमरों में अधेरा करते हैं । 'गर्मी के डर से ऐसा किया आता है, न कि शांतस्पर्श के लाभ की भाशा से पेला किया जाता है, यह कहना ठीक नहीं है. क्योंकि अधेरा हो जाने पर या बलाने पर शीतस्पर्श का अनुभव भी होता है, अतः 'अन्धकार में उदभूत शादी की सभा निर्विषाव होने से अन्धकार में उद्भूतरूप का भास्तित्व स्वीकार करने में कोई बाधा नहीं है । [ अन्धकार में प्राथवत्व को आपरांत को शङ्का ] यत्रि यह शङ्का की जाय कि "अधकार में नीलरूप मानने पर उसमें पृथिवीत्व की आपति होगी, क्योंकि समवायसम्बन्ध से नीरूप के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से पृथिवी कारण होती है, मतुः यदि अन्धकार में पृथिवत् तू होगा तो उसमें नीलरूप की उत्पत्ति हो न हो सकेगी- "तो का उत्तर यह है कि सिद्धान्ती जैन के मत में स्वभावविशेष ही विशिष्टनी का नियामक होता है। वह स्वभावविशेष जैसे पृथिवी में होता है वैसे अन्धकार में भी होता है। अतः अन्धकार को पृथिवो माने बिना भी स्वभावविशेष से Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क• टोका. पहि २०५ वाप्यषपवनीलादिनचाऽपपिनि नीलाधुपपतौ पृथिवीत्वेम तत्सममायिकारणता उभायान ! 'पप्पम पारमाणिमातालापीभूतनपत्ताभारादेव नीलादी नीलाधनुपपत्तिनिळतात् । मय नीलजनकविभातीयतेमासंयोगस्प जलादापि सम्भपात् तत्र नीलानुस्पतये नीलरवायचिम्म प्रति घृषिवीत्वेन हेतुस्त्र फरप्यम इति चेत् ! न, तथाप्युपस्थित विभातोयनोलवावच्छिन्नं प्रत्येय तहेतुयामित्यान्। व्यापकधर्मस्य पायधर्मेणान्यथासिद्ध। उसमें नीलरूप की पत्पत्ति हो सकती है। शेषिकगत में भी मोलरूप के प्रति पृथिवी को समधाधिकारण मामले की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अवविगन नीलरूप के प्रति मषयराम नीलकाप को कारण मानने से ही बाल वेन भादि में नाररूप का पुत्पति का परिहार हो सकता है। यदि यह शङ्का हो कि “भषयधिगमील में अययवगतनील मामानाधिकरण्य-सम्य* से कारण होता है तो अपयधमननील का सामानाधिकरण्य जैसे अग्यनिष्ठ अषयवी में है उसी प्रकार अपरागत नील आधि गुणों में भी है। फलतः अषयमस नील से मैले अषयषगत अवयषो में से अवयवगत नीलादि गुणों में भी-नोलरूप की उत्पत्ति का प्रसा होगा; अतः उसके निवारणार्थ नीलका के प्रति भिधी को समनायिकारण मानना भाषश्यया है". तो इसका उत्तर यह है कि व्यभिन्म में सम्यभाव की उमाति के परिहारार्य समषायसम्बन्ध से जायभाय के प्रति तावास्यसम्मम्ध मे ब्यको कारण माना जाता है। नीलमप भी अन्यभाव / भतः उसकी उत्पत्ति भी इम्य में ही हो सकती, गुणादि में न हो सातो | सलिये नीलका के प्रति पियो को मलग से समवाधिकारण मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। अतः वैशेषिकमत में भी प्रसवकार की नीलसरयान् मानने पर उसमें पुधियीत्य की भापति नो सकती। मालरूप की उपसि दो प्रकार से होती है. भवषयी में प्रययवमत मीलका से तथा परमाणयों में विजातीय सेनासंयोगरूप से, प्रिटोपली होती.लि. का रूप पहले से नीद नही होता, उस मिट्टी से बने यतन जग भाग में पकाये जाते है तो गोल वर्ण हो जाते हैं, इस से यिक्ति होता है कि उन बननों का माग के तीन तार से परमाणु पर्यन्त नाश हो जाता है भोर उभरे, परणावों में पाक से भील रूप की उत्पत्ति धोकर कारणगुण से कार्यगुण को उतासि को प्रक्रिया के अनुसार मील परमाणुषों से तयणक ग्यणुक आदि कम से नोल वर्ण के बर्तनों की उपत्ति होती है। पही पीच परमाणुपाकवानी पैशेषिकों का मत | अथया पिठरवययकी में भी एक मानने वाले मैपापिकों के मतानुसार वर्षों में बी पाक से मील का को उत्पत्ति होती है। इस स्थिति में यह शक हो सकती है कि जैसे विजातीयतेजः'संयोग से पृथिवी के परमाययों या स्थूलपदायों में भील कर की उत्पत्ति होता है, वैसे हीरक संयोग का जल भारि में भी सम्भव होने से जल आदि में भी नीलकर की उत्पत्ति की भापति होगी । अतः इस भापति के परिवारार्थ नीलरूप के प्रति प्रधिको Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ शास्त्रात समुच्चय- स्तवक १०७ अथ तमसो अन्यत्वे स्पर्शश्चयवारभ्यत्वं रूपादिति चेत न, तमसः स्पर्शबदपवारभ्यत्व) स्पेष्टत्वाद वक्त्याख्यस्यातिशयस्यैव द्रव्यजनकत्वाच्च । त्वयाऽपि च न स्पर्शवत्वेन जनकत्वं कल्पयितुं शक्यम्, अन्त्यावयविनि व्यभिचारात् । न चानन्स्थाचयवत्वमपि निवेशनीयं तस्य द्रव्यसमवायिकारणत्वपर्यवसितत्वात् । न च मन्यद्रव्यस्वानं प्रति (वष्यानारम्मक ) द्रव्यत्वेन प्रतिबन्धकत्वादन्त्यावयविनि द्रव्यानु स्प दोष इति वाच्यम्, तथापि नरादिष्वनुद्भूतस्पर्शानिभ्युपगमात् तहेतुत्वात् न च द्रव्यारम्भकत्वाभ्ययानुपपस्यैव तत्रानुद्भूतस्पर्शाङ्गोकार इति वश्यः अनन्ताजुदभूत स्पर्श कल्पनामपेक्ष्य लघुभूतेक तिकल्पनाया एवोचितत्वात् । www.n -- को समवायिकारण मानना मावश्यक है । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि विजातीयसेन। संयोगात्मक विजातीयनीरूप का हो कारण होता है. नील-सामान्य का कारण नहीं होता, अतः उससे तत्र आदि में कल के कां आपति हो सकती है तो उसका परिहार तरे विजातीयनील के प्रति पृथित्री को कारण मान लेने से ही हो सकता है. इस लिये उसके अनुरोध से नोलसामान्य के प्रति पृथिवी की कारणता नहीं सिद्ध हो सकती । अतः म्यार में पृथिवीत्व न होने से उस में पृथिवीजन्य विजातीयनील का ही अभाव हो सकता है, गोलसामान्य का अभाव नहीं हो सकता: और न नालसामान्य से उसमें पृथिवीश्व की आपत्तिही हो सकती क्योंकि सामान्य के प्रति थियो कारण ही नहीं है। यदि कहें कि "अल शादि में शक से विज्ञातीय नीलरूप की उत्पति का परिवार जैसे विजातीय नील के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भी हो सकता है, वैसे नीलसामान्य के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भी हो सकता है, अतः विनिगमनाविरह से नीलसामान्य के प्रति भी पृथिवी की कारणता सिद्ध होगी" तो यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विज्ञातीय नीलस्य व्याण्यधर्म है और भील व्यापकधर्म है | अतः अथ व्याप्यधमन के प्रति पृथिवी को कारण मानने से भो सिद्धि हो सकती है, तब व्यापक धर्मा म के प्रति व अन्यथासिद्ध हो आएगा। कहने का आशय यह है कि से ध्यायधर्म से कारणता सम्भव होने पर व्यापकधर्म से कारणता नहीं मानी जाती. पैसे व्याध्यधर्म से कार्यता सम्भव होने पर व्यापकधर्म से कार्यता भी नहीं मानी जा सकतो; क्योंकि व्यापकधर्म से करना मानने पर जैसे कार्यात्पाद में स्वरूपयोग्यतारूप कारणता की आपत्ति होती है वैसे व्यापकधर्म से कार्यता मानने पर अनु स्वाद्य में स्वरूपयोग्यतारूप कार्यता की भो आपनि हो सकती है। [ स्पर्शयुक अवयव में अति आपत्ति यदि यह आपसि श्री ज्ञाय कि अिधकार को नम्य म्रभ्य मानने पर स्पर्शवान षण्यों से उसकी मानसी होगी तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अन्धकार को जम्प य्य मानने पर स्पर्शवान अवयवों से अभ्यन्नव्य अन्धकार की उत्पत्ति तो ही है। किन्तु अश्यकार को जन्यवृष्य मानने पर भी उता मार्ग नहीं हो सकती क्योंकि जैन सिद्धान्त में द्रव्य के प्रति तादात्म्यसम्बन्ध या समवायसम्बन्ध से स्पर्शबाद Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ anr.. . - -...-- ---. स्था का टीका EिR न च भूतत्वेन तयात्वं, मनसि व्यभिचारात् । न च सम विजातीयसंयोगरूप त्यन्तराभावावेच द्रव्यानुल्पनिरिति वा पम्, यत्किय पदे आरम्भको मनसि थाऽनारम्भकः संयोगो जनितम्वनिक्रयाजन्यतावच्छेदाय संत्रोक्तवैनात्यावस्यकत्यात् । न च मनोऽन्यमूर्सत्वेन तथात्व, गौरवात् । एर्ष प तारानातिफल्पने, विजातीयसंयोगकल्पने, नोदनत्यादीनो तवजास्यध्याप्यत्वकल्पने, तदवचिन्न कारणकल्पने घ गौरवाव वरमतिषाय एवानतिप्रसक्तो ध्यजनक कलयने, इति बम विभाषनीयम् । कारण ही नहीं है, किन्तु सत्य के प्रति प्रज्यान फल किला अतिशय कारण है, भामः श्रन्धकार के अषयत्रो मै इक्त शतिशय मानने से भी नम की उत्पति हो सकने से उसके अषययों में स्पर्श की कपना मनावश्यक है। अतिशयविशेष को द्रव्य का जनक न पामने वाले पैशेषिक के मन में भी द्रव्य के प्रति स्पर्शयीन कारणता नो मानी जा सकती, पोंकि अन्स्याश्यत्री के स्पर्शवान होवे पर भी उस में हवा की जन्पत्ति नहीं होती। अतः स्पर्शधरप्रेम वष्यकारणता में व्यभिचार है। यदि इस उज्यभिचार के पारणाई अगत्यापयविभिन्नपर्शवत्वेन व्यकार: पता मानी जाय, तो घर भी ठीक नही है. फोंकि भम्त्याषयविभिनव अषययत्वरूप मौर मधयमाय इष्यतामयायिकारणस्वरूप है। अतः ग्य के प्रति स्पर्शयुक्ताव्यसमा वाधिकारणवन कारणता कहना भोगा, फलतः वरण के समयापिकारणता के मोदक कोटि में उसका प्रवेश करने से आरमाभय दोष हो जायगा। यदि कहै कि-'समायायसम्बन्ध से मान्यज्य के प्रति तादाम्पसम्बन्ध से ध्यानारम्सक द्रटप को प्रति माधक मानने से शभ्याश्ययषी में प्रग्य की उत्पत्ति न होने पर भी स्पर्शपत्येन दम्पकारणता में व्यभिचार नहीं हो सकता'-सो यह ठीक नहीं है क्यों कि नधीनों के मन में वश्च आदि में अनुभूतस्पर्श भी नहीं होता, अनः स्पर्शयन द्रष्यकारणता में प्रश्न मादि में व्यतिरेकव्यभिवार हो जायगा, क्योंकि प्रभु के स्पर्श धान न होने पर भी पचय के संयोग से चच में महाचक्षु की मथा चश्च-पाप मालोकात्मक महाखच की उत्पमि होती है । अतः स्पर्शवश्वन इज्यकारणता नहीं मानी आ सकती । यदि यह कई कि-'चक्षु मादि भी सण का आरम्मक होता है. पर उसमें स्पर्श म मानने पर म्यारम्भकता की अनुपपति होगी। गत्ता प्रत्यारम्भकरण की जापति के लिये अनु आदि में अनुभूतस्पर्श मानना मावश्यक है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त चक्षु आदि में अनन्त अनुष्भूतस्पर्श की रूपना की अपेक्षा समो द्रव्यारम्भक वय्यों में पक पजाम की. कापना कर जयद्रव्य के प्रति विशातीयरष्यस्वेन कारणता की कल्पना ही साधव से उचित है। ___ भूत्वरूप ले भी वत्यकारणता की कपमा नहीं की आ सकती, क्योंकि मा में भूत्व होने पर भी द्रव्यकारणता नही दोनो । 'मन में विजातीयसयोगकर द्रव्य के कारपास्तर का अभाव होने से मुख्य की उत्पत्ति नहीं होती, अतः मुरबेन भ्यकारपता मानने में कोई दोष नहीं है- यह कदमा भी ठीक नहीं है, क्योंकि जिस क्रिया से घट में भारम्मक और मन में भनारम्भकर्मयोग की उत्पत्ति होती है उस क्रिया की अन्यता Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ शास्त्रवार्त्तासमुग्धच्च-स् " "मोर आलोक मिरपेक्षत्वं न स्यात् प्रयचत्वा छिन्नं प्रति आलोक संयोगत्वेन हेतुत्वात् न पालोकचाक्षुषे व्यभिचारः तत्राप्यालोकसंयोगस्य सच्चात् । न चैवं पालमे तममि वर्णसाक्षात्काराच तानभिभूतरूपवदाको संयोगत्वेन तद्धेतुत्वान् । न चैकावर देना लोकसंयोगवत्पापापचिः संयोगावच्छेदकावछिन्न लोक सांगत कम्पोच्छेदकाल गुत्वाद चिन्नचक्षुः संयोगत्वेन का तुल्यमिति विनिगमनाविरह उद्योवस्थरुवस्यान्धकारस्थसाक्षात्कारादयश्य विनियमत्यात् । का बच्छेदक ऐसे बेजारथ को मानना दी होगा जो प्रयोत्पादकसंयोग में रहता है, अन्यथा धडगतसंयोग में भी उस बेजास्य का अभाव होने से उस संयोग से भी प्रयो त्पत्ति हो सकेगी। तो जब उक्त क्रिया की सभ्यता का अच्छे ही बैज है जो म्योरपासंयोग में रहता है तब इसे मनोयोग में भी मनना होगा अन्यथा क्रिया की जन्यता से न्यूनवृति हो जाने के कारण वह उस क्रिया को अन्धला कामछे न हो सकेगा और जब यह वैजात्य मनोगत संयोग में भी रहेगा तो भग में मूत्र और ज्योत्पाक विनयसंयोग दोनों रहने से उसमें की उत्पत्ति होनी चाहिये, किन्तु होती नहीं है, अतः मूर्भत्वेन इव्यकारणता में व्यभिवार अनिवार्य है । इस व्यभिचार के धारणार्थ गरि मनोम्यमूर्तस्प्रे द्रव्यकारणता मानी जाय तो विजातीययकारणता की अपेक्षा गौरव है तो करोति से दध्यारम्भक वयों में कातिविशेष को कहना, व्य अनसंयोग में अतिविशेष की कल्पना नोमत्व मादि जातियों में उमातिविशेष के व्याप्यत्य की कल्पना और तत्तजातिमत् में त्रध्यकार की कला में गौरव होने से उचित यही है कि प्रत्यारम्भक प्रयों में अध्यजनक एक ऐसे अतिशय की कव्यमा कर ली प्राय, मो इय्य के अनारम्भक प्रयों अतिप्रसक्त न हो । सूक्ष्मता से विचार करने पर इस कल्पना का हो ओभिश्य सिद्ध होता I [पूर्वेतसः सम्यकार को दयानने पर उसके चाक्षुष को अनुरपत्ति ] यह शङ्का हो लकती है कि "धकार को हथ्य मानने पर भलोकनिरपेक्ष चक्षु से उसका प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि दयविषयक मानुपत्यक्ष के प्रति आलाक संयोग कारण होता है। यदि यह कहें कि 'आटोक में आलोकसंयोग बिना भी मालोक का चाक्षुषप्रत्यक्ष होने से उक्त कारणता में विचार है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आलोक-गगनसंयोगरूप आलोकसंयोग आलोक में भी विद्यमान रहता है। अतः massोग के अभाव में आलोक का प्रत्यक्ष भसिद्ध है। यदि कहें कि 'इस प्रकार के आलोकसंयोग से यदि चाप्रत्यक्षकी उपपति की तो मरे कार में भी सुवर्ण के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि सुके का रूप होने योग भी मालोकसंयोग है और वह ष में विद्यमान है तो से मध्य में भाषा के संयोग को कारण मास कर Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - .-.... -. . . ...स्या का दीका पवि. वि. बालोकसंयोगानय कछेदकानवभिन्नचक्षुःसंयोगल्वेनापि न हेतुस्प, गौरपात, अन्धकारस्थस्योधोनस्थवस्त्वग्रहणप्रसकारच । अत पब समवापेनालोफाभावान्यस्लौकिकचाक्षुधं प्रति स्वायकछेदकारिद्वन्नसंयोगवश्चःसंयुक्तमनःप्रतियोगिकविमातीयसंयोगमदत एवं उपभूत तथा अनभिभूतरूपवान् मालोक के संयोग को कारण माना जाता है। सुवर्ण का हर सवर्णमतपीतथिषीभाग के पीसरूप से अभिभून होता है मतः सुषणगगमसंयोग उक्त प्रकार के आलोकसंयोग स्वरूप नहीं है, इसलिये उससे गहरे मापकार में सपणे केवावपात्यक्ष की आपत्ति महीं हो सकती। यदि कहै कि-चालोकसंयोग को फिर भी व्यचाक्षुष का कारण माना जा सकता क्योंकि किसी इन्य के एक भाग में आलोकसंयोग मौर मग्यमाग में पक्षसंयोग सोने की पशा में भालोकसंयोग होते हुये भी उस व्रव्य का चाक्षुध नहुने से अग्पयाशिबार होता है- तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि मालोकसंयोग को केवल मालोकसंयोगस्वरूप से कारण न मान कर संयोग के अमन हेदकभाग से गर्यारम भालोकसंयो. गत्वकप से कारण मान लेने पर उक्त व्यभिचार का परिवार को जाता है. क्योंकि माल फिली दृश्य में भिन्न भिन्न भागोहासंयोग मार भालोकसंगांतासापर बालोकसयोग अनुखियोग के अपहनकभाग से अवछिन्न नहीं होता। मालोकर्सयोगहेतुता का समर्थन यदि कहें कि उक्त कार से आलोपसंयोग को कारण मानने पर विनियमनाविरा होगा, क्योकि यनुसंयोग के प्रयच्छेवफभाग से भजनम्न मालोकसंयोग को कारण मानने से जैसे एक वृध्य में भिन्न भिन्न भागों द्वारा वक्षुसंयोग और मालोकसंयोग की दशा में इध्य के साक्षुषप्रत्यक्ष की भापत्ति का परिहार होता है उसी प्रकार मालेरसंयोग के मघण्छेदकभाग से मच्छिम्म चक्षु-संयोगको कारण मानने से भी होता. भता नवोनी में किसी एक मात्र में कारणता की प्राहक युक्तिरूप मिनिममना होने से दोनों को भी कारण मामने की अनिवार्यता से कार्यकारणभाष में गौरव होता है'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आलोकसंयोग के अधविक भाग से भनिन्न पक्षसंयोग को कारण मानने पर मालोकस्थ पुरुष को सम्धकारस्थ इष्य के चाक्षुषप्रत्यक्ष को आपत्ति होमे से उसे कारण मानना सम्भय न होने के कारण पशुःसयोग भवरोधक माग से अवछिन्न आलेोकसंयोग को कारण मानने के पक्ष में विनिगमना सुलभ है। कहने का प्राशय यह है कि अक्षयषिगतसंयोग अध्यष से अवभिन्न होता है क्योंकि भयपाली में जो संयोग होता है वह उसके किसी भवयव द्वारा ही होता है, भतः पश्चा के साथ जो भालोक का संयोग होगा यह और चक्षु के साथ जो प्रग्य का संयोग होणा वा दोलो अक्षु के अवयव से भावच्छिम्म होंगे, इसलिधे भाकोकस्य पुरुष के पक्ष में ना मालोकर्स योग है यह बच के जिस माग से अवच्छिन्न है उसी भाग से उसके पशु-भौर भग्ध-- कारस्थ इम्य का संयोग भी है, मतः भाकाकर्सयोग के अवाछेवक भाग से अपरिजन बक्षुर्सयोग अन्धकारस्थ इष्प में सुलभ होने से आलोकस्थ पुरुष को अन्धकारस्थ ट्रम्प के साशुपमरर को भारत भापरिहार्य है। शा. वा. २. Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवान्तसमुच्चय—स्तक १० ↑ सम्बन्धेनालोकसंयोगस्य हेतुत्वमपि न निरवयम् सम्बन्धगौरवात् किशिदवयवा लोकसंयुकमेव चक्षुषाऽन्धकारवह्नित्तिसंयोगेऽन्धकारेऽपि वस्तुग्रहणप्रसङ्गा .२१० इति चेत न, और मकारस्थ ग्रम्य का और वह अपयथ भालोक यदि यह कदे कि लोकसंयोगावच्छेत्र कार्याच्छन्नः संयोग को आलोक संयोगान लेषकाननसंयोगत्वरूप से कारण मानने पर बालोकस्थपुरुष को मम्बकारस्थ इय * enger की मापचि नहीं होगी, क्योंकि संयोग अन्धकार के घी संयोग का अनक है। अतः उस वक्षुः संयोग आलोकसंयोगाच्छे काम महतो नहीं है, क्योंकि प्रक्षु संयोगावच्छेदका विद्यन्न मालोकयोग की अपेक्षा बालोकसंयोगामधच्छेदकानयनसंयोग गुरु है, अतः सावरूप निगमक से उक्त बालोकसंयोग की कारणता सिद्ध हो जायगी। उक्त चक्षुःसंयोग को कारण मानने में गौरव से अतिरिक्त भी एक दोष है यह यह कि अन्धकारस्थ पुरुष को प्रकाशस्थ द्रव्य का पापप्रत्यक्ष न हो सकेगा क्योंकि अन्धकारस्थ पुरुष के पक्ष में विद्यमान प्रकाशस्थद्रव्य का संयोग आलोकसंयोग के अनधच्छेदक मन्धकारथचक्षु साग मे अव होने के कारण आलोकसंयेोगानव को काम पनि महीं होता । [मनःप्रतियोगिऋविजातीयसंयोगसम्बन्ध से हेतुता में गौरव ] भिन्न भिन्न भागों में य और मालोक से संयुक्त प्रय्य के चाक्षुषप्रत्यक्षापति का परिहार इस प्रकार के कार्यकारणभाव से भी हो सकता है कि समवायसम्बन्ध से भालोकामधान्य के लौकिक वाक्षुषप्रत्यक्ष के प्रति आलोकसंयोग स्वाधानियो बधुः संयुक्तमन प्रतियोगिक विज्ञातीयसंयोगसम्बन्ध से कारण है, जब किसी द्वय में चक्षुका संयोग अन्य भाग में होगा और आलोकसंयोग भागान्तर में होगा तय मालोकसंयोग का जनसम्वन्ध नयन सके क्योंकि द्रव्य के भिन्न भिन्न भाग के संयोग और भलोकसंयोग का वच्छेदक होने से सम्बन्ध के शरीर में for '' से माटोक योग को लेने पर भू स्थायीका सिकेर मतः उक्त सम्बन्ध से आलोक संयोगरूप कारण का अभाव होने से उस स्थिति में द्रव्य के चाक्षुष प्रत्यक्ष की आपत्ति न हो सकेगी किन्तु फिर भी यह कार्यकारणभाव स्वीकार्य नहीं सकता पितासम्भव से द्रव्यत्राभूष के प्रति संयोगावच्छेदको संयोग को समवायसम्बन्ध से कारण मानने की अपेक्षा उक्त गुरुतर सम्बन्ध से आलोकसंयोग को कारण मानने में गौरव है। गौरव के अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि मालोकय पुरुष का जब कभी आपने जिस भाग से आलोकसंयुक्त हुआ है उस समय यदि वह उसी भाग से अन्धकारस्थ मिति मादि से भी संयुक्त हो तो उस समय स्वाय दकावनियेगवचक्षुः संयुक्तमनः प्रतियोगि कविजातीयसंये [गसम्वन्ध से आलोकसंयोग कस्थ पुरुष में विद्यमान होने से मालोकस्य पुरुष को अन्धकारस्थ मिति मावि के क्षुषप्रत्यक्ष श्री आपत्ति होगी । उपर्युक सारे कथन का निष्कर्ष यह है कि मन्धकार में मध्य के समस्य की आपति के परिहारार्थ द्रव्यचाक्षुत्र के प्रति वाकयोग के कारण मानना अनिवार्य Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ स्पा • टीका व वि० दिय आकोकं विनाऽपि चूकादीनां द्रव्यचाचपोदयाद् व्यभिचारात् । न च चैत्रादिचाक्षुप पर तब्रतुवा' न व्यभिचार इति-वाश्यम्। तयाप्यम्ननादिसंस्कवचक्षुषां तस्करादीनां साक्षषे व्यभिचारात । न च अमनाघसंस्कृतचराविचक्षुर्जन्यचाक्षुषे तदेतत्वम, अठमनादीनामपि च स्वातम्येण पाचपहेतुत्वमिति वाच्यम् । अननुगमात् , आलोकापदपोध्यक्षयोपशमरूपयोग्यताया एवानुगतलन हेतुल्यौचित्यान् । है अतः अन्धकार को प्रध मामने पर मालोकनिरपेक्ष बक्षु से उस के प्रत्यक्ष की मनुपपत्ति दुर" [उत्सरपक्ष:-अन्धकार के चाक्षुषप्रत्यक्ष की उपसि] इस शङ्का छ उत्तर में यह कहा जा सकता कि उम्स्, बिली धादि अनेक मानवरों को माधकार में भी हृदय का चाक्षुषप्रत्यक्ष पाता है. अतः व्यभिचार होने के कारण व्यषिषयकवाष पत्यक्ष के प्रति भालेकसयाग की कारणता सिस्न होने से सम्धकार को प्रन्य रूप मामने पर भी आलोकनिरपेक्ष मनु से उसके प्रत्यक्ष की अनुपत्ति नहीं दो सकती। [शालोकसंबोग के व्यभिचार का वारण करने का निष्फल प्रयास] पवि यह कहें कि-"चत्र मैत्र शानि जीवो को भन्धकार में प्रग्य का पानुष होने से उन्ही अले भीषों कही द्रव्यमानुष के प्रति भालोकसंयोग को कारण मानने पर व्यभिचार न छोगा''-४ा यह नहीं है, क्योंकि पक्षको विशेषकार के अम्जन मावि से संस्कार करने पर जोर मावि को अग्धकार में भी द्रव्य का साक्षष होने से भालोकसंयोग की साक्षुषकारणता में भिवार अनिवार्य है। यदि यह है कि-". बादि के असमादि-असंस्कृतयच से होने वाले इयवाक्षुष के प्रति मालोकसयोग को तथा सम्झनाविसंस्कृत मश्च से इनेि वाले इण्यवानुष के प्रति सम्मवादिसंस्कार को कारण मानने से व्यभिचार न होगा'-तो याठ ठीक नत्री है, कोकि पेक्षा मानो पर द्रव्यमानसामान्य के प्रति उन दोनों में कोई कारण न हो सकेगा, क्योंकि अम बोनी का कोई पेसा अनुगत धर्म सातों मिस धर्म के द्वारा दोनों का मनगम कर दोनों को प्रख्यचाक्षुषसामाग्यकारण माना जा सके और यदि मालोकर्सयोगस्य पर्व भजनसिंस्कारस्य रूप से दोनों को स्वताप से कारण माना जायगा तो अनादिसंस्कार के अभाव में मालोकसंयोग से और मालोकसयोग के मभाव में यम्सनाधिसंस्कार से प्रत्ययाल की उपसि होने से दम्यवानुष में दोनों का पतिऐकव्यभिचार को झायगा । यदि इस भय से दोनों को पूष्पाक्षुषसामाग्य का कारण म मान कर दन्यवाक्षपषिदोष का ही कारण माना जायगा, तो द्रव्यमाशुषसामान्य के पनि पक्ष संयोगमात्र ही कारण होगा, और उस पधा में मालोकसंयोग एवं अलमाविकार के नरहने पर भी मम्धकार में उपचापसामान्य के उत्पाद की मापति होगी। श्रतः इन सभी प्रपत्रों को छोड़ कर यह कतरना करना उचित लगता है कि मालोक आदि से उबोधित बापाचरणीय कर्म के अपोपशमरूपा चाक्षुषयोग्यता ही घण्यवानुष का कारण है। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RER शास्त्रात समुच्चय-०७७ किं च एवं चशोदकत्वेनाहेतुत्वापतिः । अपि च चक्षुः संयोगावयोगम्बन्धेनैव लोकत्वेन हेतुता वाच्या, लाघवात् । न च तेन सम्बन्धेन tयालोक चियम्, इत्यालोक एव व्यभिचार:, इति भिन्न यः aapoverक्षुषे तथा हेतुता याच्या, तथा च लाघवात् वमोऽन्यद्रव्यनाक्षुषं पति तमसः प्रतिबन्धकत्वमेव न्याय्यम्, महदुभूतानभिभूतरूपषदालोकल्यापेक्षया तमोऽभावरवेन हेतुत्वे छावाच । [क्षयोपशमरूपा चाक्षुपयोग्यता द्रव्यवाक्षुप के प्रति कारण ] न माशय यह है कि जैन मत में चानुषाविज्ञान मात्मा का सह गुण है। उस पर मारक कर्मों के भाषण रहने से शाम प्रगट नहीं होता है, भाचरण कर्मों का क्षयोपचम होने से बाम अगर है के भारत में दी में म और भूतरूप रहता है, मैन सियाग्यानुसार वे उन तथ्यों के श्रानुपप्रत्यक्ष की सा अमीरूप है। इस सामग्री के होते हुये भी द्रव्य का चावयत्यक्ष इसलिये मगद नहीं होता कि वह यचाप के विरोधी भावरणीयकर्म से भवन रहता है। अब का आलोकसंयोग भाषि से चाक्षुभायरणोयकर्म का अभिष होता है, तब द्रव्य में योग्यतासंपन्न होने से हो दृश्य का आप प्रादुभूत होता है। पावरणीय कर्म के भय को धात्रों में झपोपशम कहा जाता है। दष्या के उत्पादन में यह क्षयोपशम सुखपरूप से सापेक्ष होने से यमतत्राक्षुषयोरधना को भी श्रोम से पचहत किया जाता है। यह श्रयोपशम आलोकसंयोग आदि परस्पर निरपेक्ष कारणों से सम्पादित होने से विभिन्न प्रकार का होता है। उन सभी प्रकार के क्षयोपशम का मध्यचक्षुषकर्मक्षयोपशमत्म अनुगम कर क्षयोपशम में ही इव्यत्रक्षुषसामान्य के प्रति अनुगत रूप से कारणता मानी जाती है। व्यापयाकार ने द्रव्यगत योग्यता को भलीक्षयोपशमरूप कह कर इन वालों का संकेत किया है । [आलोकसंयोग को कारण मानने में चक्षुकारणतान्न की आपत्ति | भाक संयोग को ः संयोगा छेदका चिन मालोक संयोगस्वरूप से कारण मानने पर बक्षु की आवकारणता का भङ्ग भी हो जायगा क्योंकि आलोक संयोग कारणता के मछेक कोटि में यक्षु का प्रवेश हो आने से घट के प्रति के समान चाक्षुष के प्रति नटु अन्यचासिज हो जायगा । [भालोकसंयोग की कारणता मानने में गौरव | दूसरी बात यह है कि आलोकसंयोग को भूः संयोगावच्छेदकावच्छिन्न स संयोगावच्छिन्न आलोकसंयोगश्वेन कारण मामने पर सौरय होगा, मला लाघव से योगायोगसंबन्ध से आलोक की की कारण माना जायगा, फलतः आलोक में ही संयोग से आलोक का अभाव होने पर भी बालोक का होने से आलोक में ही हम्याक्षुर आलोक का व्यभिचारी हो जायगा । अतः प्रत्यभामाच के प्रति मालोक का कारण मान कर मुवर्णभिन्नभिन्नद्रव्यवाक्षुष के ही प्रति उसे कारण मानमा उबित होगा; क्योंकि ऐसा मानने पर सुवर्ण एवं तेजोभिस्य केही Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क० ठीका पति. वि.. २१३ फिटम, पर्व तमसोऽभावस्थे सेजोमाने रिना मान में स्यात्, अभाषनाने प्रतियोगिज्ञानस्यान्वयष्यतिरेकाभ्यां हेतुत्वावधारणात् । भभावेष्टापत्तिः, आलोकं जानतामेम तमःप्रत्यक्षस्वीकाराम् । तदाऽराचार्या -"गिरिदरी विवरवचिनो यदि योगिनो न ते तिमिरावलोकिना, तिमायलोकिनरेत वन स्टालो." रहित ! न, देनाऽप्रतिसन्धानेऽपि तमोज्नुमवस्य प्रत्यक्षसिद्धत्यान् । म ''अभावस्य ज्ञानमात्र प्रत्यक्षमात्रे वा न प्रतियोगिवानं हेतः, प्रमेयस्मादिनाऽभावग्रहे, अभावत्वसामान्यलक्षणाधीनतन्प्रत्यक्षे च ग्यभिबारात । नापि तरभाबलौकिकप्रत्यक्षे तज्ज्ञानं हेतु प्राचां घटात्पन्ताभावादेः घटादि सत्तागभार-तत्प्रध्वंसप्रतियोगित्वात्, तत्वयाग्रहेऽप्येकग्रहे प्रत्पक्षात्। नव्यमले समनिधन कत्वपरिमाणाचभावत्यैफमात्रग्रहे प्रत्यक्षाश्च ।। पाक्षष में आलोक की अपेक्षा होने से संयोगसम्बन्ध से मालोकतन्य गालोक का प्रत्यक्ष होने पर भी उक्तभिशाप के प्रति गालोक को कारणता में व्यभिचार, होगा। किन्तु इस प्रकार का कार्य कारणमाय मानने को अपेक्षा लामय से तमोभिगमअष्य के प्रत्यश्न में नम को मतियन्धक मानना को न्यायसंगत है । साथ ही यह भी विधारणीय है कि सुषर्णभिमतेजोभिन्नइचाक्षुष के प्रति आलोक को केपल आलोकसोन कारण मामले पर मालोकपरमाणु, चक्षु, उम, सुवर्णरूप मालोक के भन्धकार में भी सुलम होने से मन्धकार में भी सुवर्ण पर्व शटार के साक्षुष को मापत्ति होगी । अतः मालोक को महाभूतानभिभूतरूपयज्ञालोकारवनय कारण मानना होगा, तो उसकी मपेमा तमोभिन्नद्रव्य के चाक्षुष में तम को प्रतिवन्धक मान कर तमोऽभाषत्वेन तमोऽभाष को कारण मानने में स्पर लायब है। प्रकाश के ज्ञान बिना अधिकार का ज्ञान न होने को भापति] अन्धकार को अभाव रूप मानने में पक और योष है, यह यह कि शम्धकार यदि तेजोऽभाधरूप होगा तो तेज का मान हुये बिना उसका हान हो सकेगा, क्योंकि मम्बय-व्यतिरेक से प्रामावमान के प्रति प्रतियोगितान की कारणता सिद्ध है। यदि यह कहे कि-"या आपत्ति प्रष्ट है. क्योंकि जिन्हें रोज का शान रहता है. उन्हें ही अन्धकार के प्रत्यक्ष का होना मान्य है जैसा कि प्राचार्य ने कहा है कि 'योगी जब एस की मधेरी गुफा में रहते हैं तब उन्हें भधकार का प्रत्यक्ष नहीं होता; मौर यदि होता है तो अवश्य ही उसके पूर्व उन्हें तेज का स्मरण हो आता है." ना यह ठीक नही है, कोंकि सेम काहान म रहने पर भी मम्धकार का अनुभव प्रत्यक्षसिद्ध है, जो व्यक्ति तेज को नहीं जानता, यह भी अन्धकार का अनुभव करता है, और उसे अपने उम्स मनुभव का 'तमः पश्यामि=अन्धकार वेन साइ' इस रूप में संवन भी होता है। 'भभाषज्ञान में प्रतियोगज्ञानकापणता पर विचार-पूर्वपत] अभावमाम के प्रति मतियोगिझान को कारणता भी विवेचनीय है, जैसे, भाव Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शस्त्रषार्तासमुच्चष-स्तबक ! लो.. अथ वदभावलौकिफप्रत्यक्षे तदभावयत्किश्चित्प्रतियोगिहानत्वेन हेतुत्वाद् न ग्यभिचार-दति चेत्! न, तया हेतुत्वे मानाभावान् वाधारिशानशून्यस्यापि सन्निकृष्टे इदावाबन्तन इदन्स्वादिनापि यायाधिशेपिततदभावलौफिकप्रत्यक्षस्येष्टत्वात् । पाचादिविशेषिततत्प्रत्यक्षं तु विशेषणतावच्छेदकवाहित्यादिप्रकारकशानसाध्यम्, इति तेजोमानं विनाऽपि तम प्रत्यक्षे न दोषः" इति चेत् ! धानमात्र में था मभाषपत्यक्षमात्र में प्रतियोगिताम को कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि प्रमेपत्य माधि का से अभाव का जो 'प्रमेय पेसा शाम होता है, पय भावत्व रूप से किसी पर प्रभाव का लौकिकास्यक्ष होने के बाद अमावत्यरूप सामाग्यलक्षण प्ररथाससि से समस्त भभायों का जो माया' मा प्रत्यक्ष होता है, यह प्रतियोगिपान के बिना ही छोता है, अत। प्रभावहान एवं अभाव प्रत्यक्ष के प्रति प्रतियोगिहान का मिवार हो जाता है । 'तस्पनियोगिक अध्यष के लौकिक प्रत्यक्षा में तत्पतियोगी का कान कारण है-यह भी कपमा नहीं की जा सकती, क्योंकि इसमें भी यभिचार है, जैसे प्राचीन नैयायिकों के मत में घटाचभाष के तीन प्रतियोगी होते हैं (२) घदावि (२) घटादि का प्रापभाय और (३) घटादि का स, क्योंकि उनके मन में घटादि के समाप घटादि का भागमाय और घटादि का यंस भी घटाचभाष का विरोधी होता है, मौर पर नियम हैक 'जो मिस अभाव का विरोधी होता है, यह उस वाभास प्रातियोगी होता है। इस प्रकार घटादि का अमात्र अंसे घातिप्रतियागिक घटादि प्रागभाषप्रतियोगिक पर्व घडाविसनियोगिक भी है, किन्तु उसका लौकिकप्रत्यक्ष घटादि माणभाव पवं घटारियल का ज्ञान न रहने पर भी घटादि के माममात्र से 'भत्र घटा विनास्ति-यह पानि का मभाव है स कप में होता है.1 मनः घटादिपागभाष, भाष घनाविश्वसम्पमतियोगी के शानाभाचशा में भी घटादिमागमायमनियोगिक पर्व घठाविषयसप्रतियोगिक घटागभाव का लौकिकपत्यश्न नि से सम्प्रतियोगिकमभाष के सौकिकमत्यक्ष होने से तत्पतियोगिकमभाव के लौकिकप्रत्यक्ष में तमतियोगिहान का म्यमिवार पर है। तस्पतियोगिक प्रभाष के किकपत्यक्ष में तम्प्रतियोगीमान को कारण मानने में समीनमैयापिकों के मत में भी व्यभिचार है-जैसे मधीनमत में सभी समनियतभाषों में लाघव ले अमेव माना जाता है, नदनुसार एकत्याभाष, परिमाणाभाव माहि सभी समनियत अमाप परस्परपतियोगीमसियोगिक होते हैं, अर्थात् पकवाशाय एकत्यति योगिक होने के साथ परिमाणमौतयोगिक भी होता है, पवं परिमाणाभाय परिमाणमति योगिक होने के साथ परस्पतियोगिक भी होता है, किन्तु पत्याभाय लौकिक प्रत्यक्ष परिमाण के रहने पर भी पकत्वमा शान से पष' परिमाणाभाव का मौकिकास्यक्ष भरवशाम रहने पर भी परिमाणमात्र के ज्ञान से सम्पन्न हो जाता है मत परिमाण पप्रतियोगितान न रहने पर भी परिमाणप्रतियोगिक पकत्वामाव एवं एकस्वरूपतियोगिहान न रहने पर भी एकरवप्रतियोगिकपरिमाणामार का लौकिकप्रत्यक्ष होने से माम्य मत में भी तमतियोगिक ममाष के लौकिकन्यक्ष में तन्प्रतियोगिमान का व्यभिचार Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या-बाटीका वि न, प्रतियोगितानस्याभावप्रत्यक्षाऽहेतुरुपे विना प्रतियोगिशान 'न' हत्याकारकप्रत्ययापः । न पाभावत्वस्यापीदन्त्वेने प्रहादापादकाभावः, पथममभाषाभाषत्वयोनि तदभाव के निवेश में प्रमाणाभाव-पूर्वपश्न अनुवर्तमान] यदि 'सबभाग के लौफिकमन्यक्ष में नरभाव के यत्किञ्चित् प्रतियोगी का ज्ञान कारण होता 'पेसा मान कर सक व्यभिचार का वारण करे तो इस प्रकार के कार्यकारक भाष में कोई प्रमाण होने से पर मी डोक नहीं है। यदि कई कि-"किसी भी प्रति. योगी का मान न रखो र सबके औ..4 क रो ले कार्यकारणभाष मान्य है"- तो यह लीक नहीं है, क्योंकि प्रतियोगिहान का सर्वण भभाव होने र भी दिमस्वरूप से अभाय कालोकिकप्रत्यक्ष माना जाता है। जैसे पर सभी को। है कि जिस व्यक्ति को मिस समय पछि आदि का ज्ञान नहीं रहता उस व्यक्ति को उस समय भी सम्मिरूप हवय आदि में 'होयम्सद में यह है इस प्रकार यहि माथि से अधिशेषित बहुभ्यभाष का सरवर लोकिकत्याहोता। यदि यह कहे किपति आदि से विशेषित अमाव के प्रत्यक्ष में विभादि का ज्ञान कारण है, इस कार्यकारणभाष को मानमा आवश्यक है, क्योंकि त भादि का हान न रहने पर पति आदि से विशेषित अभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता, और ऐसा मानने में व्यभिचार मादि दोष भी नहीं है"-तो यह टीक नहीं है, क्योंकि 'रक्तो वयः' इस बान के न राने पर 'रतपणवान पुरुष इस प्रकार का शान न होने से धिशिष्टवैशिफवाषगाडी भनुभष के प्रति विशेषणताक्छेदकप्रकारकमान को कारण मानना भाषषयक होता है। वे पहि मास्तिदमें वाइन्यभाव है' पा प्रत्यक्ष भी भभाष में बहिस्थविशिष के प्रतियोगिताकर वैशिएप का अवगाहन करना है, अतः पति की महान वशा में उसकी मापति नहीं हो सकती, इस लिये उक्तरीति से विनिवेशिरपाषणाही अनुभव के प्रति विशेषणसापकप्रकारकशाम की सर्वमान्य कारणमा से ही सामजस्य हो जाने से प्रतियोगी विशेषित अभाध के प्रत्यक्ष में प्रतियोगिझान को पृथक कारण मानमा प्प है। निष्कर्ष पर है कि जप अभावप्रत्यक्ष में प्रतियोगिताम को कारणता प्रामाणिक नहीं है तब तम को तेमोऽभारम्पकार मानने में भी कोई दोष नही है, पौकिशोबान न होने पर भी उसका प्रत्यक्ष होने में कोई बाबा नहीं है। न' इत्या कारकप्रत्यक्षापत्ति-उत्तरपक्षारम्भ] बपर्युक्त के विकत व्याख्याकार का कहना यह है कि प्रभाव प्रत्यक्ष में प्रतियोगिशाम को कारण न मानने का पक्ष उचित नहीं है, क्योकि उकाल में प्रतियोगिताम के अभाधकाल में प्रतियोगी से विशेषित अभाय को विषय न करने वाले केवल भभाषe अप से प्रभाष को विषय करने वाले 'न' न्याकारक प्रत्यक्ष की भापत्ति होगी । यदि यह कहें कि-"अमावस्वरूप से अभायप्रयक्ष की सामग्री के सानिधान के समय बिग के माधक सग्निकर्ष का भी सम्बिधान अवश्य होने से मनायव में दमय का भान अनिवार्य है, मनः स्वरूपतःनिविशेषणभमायग्ध को घिषय करने वाले '' इस्पाकारक मस्पक्ष का कोई मापावक न होने से उनकी भापति नही हो सकती'- तो यह ठीक १- रथेनाम० इन से० प्रती । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ शास्त्रवाचांसमुच्चय-स्तक हो०७४ विपके 'अभाव:' इत्याकारकप्रत्यक्षापतेर्दुर्वारत्यात् । न चाभावत्वमात्रेण प्रत्यक्षस्यैष्टत्वम् 'शुन्यमिदं यते' इत्यादिप्रत्ययात् इत्थमेवाभावत्यस्य मानभेदस्य पिशाचादिभेश्वद् योग्यस्य घटो नास्ति इत्यादी स्वरूपतो मानमपि मात्रां सम्भवदुक्तिकम्। नल्लेखस्तु प्रतियोगिवाचकपदनियते। न लार्वत्रिक इति बाध्यम्, अन्धकार इव इदादावर्ष शुभ्यमिदम्'' इति वङ्गन्यमावाद प्रत्ययापतेः । 1 'अभावप्रत्यक्षे योग्यधर्मापनिज्ञानत्वेन हेतुत्वान्नायं दोष:' इत्यतिमन्दम्. नहीं है, क्योंकि इदस्य पुरोवर्तित्वरूप होने से लण्ड है, अतः अभाव और अभाचन्य के निर्विकस्यक काल में उसके ज्ञान की सामग्री का लम्मिघाम न होने से उस निर्विकल्पक के नगर स्वरूपतः अभावस्य को विषय करने वाले 'अभाषः प्रत्याकारक प्रत्यक्ष को आपति अपरिहार्य है । का खंडन — [ अभावरूप से प्रतियोगिमविशेषित अभावप्रत्यक्ष यदि यह कहें कि मधेरे में 'शून्यमिदं दृश्यते यत्र शून्य भाववान् खता है इस प्रकार की प्रतीति के सर्वमान्य होने से केवल मभावस्वरूप से प्रतियोगी से अविशेषित अभाव का प्रत्यक्ष ही है. यह मानने पर ही प्राचीन माचिकों का यह कथन भी उन्हो सकता है कि 'घो नास्ति पद घटाभाव है इस प्रत्यक्ष में अभारांश में भाषमेवरूप अभाव का स्वरूपतः भान होता है, अन्यथा प्रत्यक्ष में यदि प्रतियोगिषिशेषित दो अभाव का भान माना जायगा. तो भावमेव रूमभावत्व का भाषात्मक प्रतियोगी से विशेषित की भाग होने से उसके स्वरूपम्मान का प्रतिपादन असंगत हो जायगा । 'भावर योग्यभावप्रतियोगिक होने से अयोग्य है भा प्रत्यक्ष में उसका भान गर है - यह शङ्का नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रत्यनयोग्यता में प्रतियोगों को प्रत्यक्ष योग्यता के प्रयोजफ न होने से विधानभेद के समान भावमेव मी प्रत्यनयोग्य है । 'Hernias से अभाव का प्रत्यक्ष मानने पर 'न' इस शब्दमात्र से भी ममाचप्रत्यक्ष का उल्लेख होना चाहिये यह शंका भी नहीं की जा सकती, क्योंकि 'मह प्रतियो fares के समिधान में ही प्रभाव का वो होने से सार्वत्रिक नहीं होता" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि 'शुपति इस प्रतीति को यदि प्रतियोगि भविशेषिल प्रभाव का ग्राहक माना जायगा तो जैसे अन्धकार में उक्त प्रतीति होती है, वैसे को प्रकाश में हर आदि में भी वश्यभाव का विनय करने वाले 'शून्येोऽयं इद' इस प्रकार के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । मः प्रतियोगी से प्रोिषि अभावप्रत्यक्ष के अनिष्ट होने से अमात्य में प्रतियोगिवान को कारण न मानने पर अभाव-मभाषस्य के निवि के बाद 'अभाव:' इस प्रकार के प्रत्यक्ष की आपत्ति दुनिवार है । योग्यधर्मावच्छिन्नानारूपेण हेतुना मानना निर्दोष नहीं है। यदि यह कहै कि 'अभाव:' इस प्रकार के प्रत्यक्ष को व्यापत्ति का परिहार करने लिये अभाषत्यक्ष में प्रतियोगिवान को कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि * अन्धकार में जो 'शुन्यांमंद' पहल है उसका अर्थ अ न कमपि दृश्यते इस वह भी प्रतियोगी से अषिशेषित अगाल की नहीं विषय करती । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कटीका हिंछ वि. योग्यधर्माणामननुगयत्वाता घटत्यायन्यतमत्वेन अनुगमे गौरवान्, पिशापस्पाययोग्यविमानस्य मई 'विशाची जय' इत्यादिमीतध। ___ अम 'न' इत्याफारकप्रत्यक्षषारणाय इन्द्रियसम्बद्ध विशेषताया एवं प्रतियोगिविशिषतप्रत्यक्ष हेतुत्वम् | म चेन्द्रियस्य चक्षुस्त्वगाविभेवभिन्न नेन्द्रिय सम्बद्धप्रभाष भौर प्रतियोगी के अनन्त छोम से बात कार्यकारणभाव की भापति होगी, तवपेक्षया बषित यह होगा कि प्रभावत्यप्रकारकप्रत्यक्ष में योग्यप्रकारको कारण माना माप, क्योंकि ऐसा मानने पर कार्य चोर कारण के शरीर में कर प्रतियोगी का प्रवेश न होने से कार्यकारणभाय में भानप नहीं होगा, पार्ष कारणभाष से काम निपट जायगा, इस कार्यकारणभाष को स्वीकारने पर मभावस्थप्रत्यक्ष के पूर्व किसी न किसी योग्यधर्मावच्छिन्न का हान पाममा पोगा, और नाम कोई योग्यधर्माछिन्न उक्त प्रत्यक्ष के पूर्ष अवश्य उपस्थित होगा, तप मभाष में विशेषण विषया उसके माम का कोई विरोधी न होने से अमात्र में उसका भान माशय रोग, अता कोई भी अमायरयाकारकप्रत्यक्ष भावा' पाकारक न हो सकेगा । तमो मोऽभावका मानने वाले लोगों के मतानुसार नमका यवि अमावस्वरकारका होता है तब वह जोषिशेषित अभाघ को ही विषय करने के कारण से - रहने पर ही होता है, अन्यथा राम का प्रत्यक्ष भाषायप्रकारक न हो कर मारक या सम्पयनमस्स्यप्रकारक ही होना"-त. या ४म नहीं है, पयोंकि घटत्ष पवाद योग्यधर्म अनन्त, उन सबको संगृहीत करने वाला कोई पेसा अनतिग्रसका गतधर्म नहीं है जिससे उन सभी का ग्रहण कर योग्यधर्मप्रकारकमान में एक कारणमा मानी जा सके। मत इस कार्यकारणभाव में भी योग्य धर्म के मनस्त होने से भामाप की भापति दुर्मिधार है। यदि पा को कि-- 'घरत्य, पटत्व मादि सभी धमों का आयतमायरूप से अनुगम हो सकता है'-तो पबित नहीं क्योंकि इस प्रकार अनुगम करने में मार गौरव है, जैसे अत्याम्पसमत्य घटत्याक्षिमेवटमिन्नकरूप ही होगा, उसमें मनमामिमेदों के कुट का प्रवेश पकविशिअपरमेवरूप में ही होगा, फिर भेदों के विशेग्य-विशेषगभाष में विनिगमनाचिरह होमे से घरस्वागन्यतमत्व गुबरूप में भगतविध रोगा। बता मरत्वादि का सम्पतमत्परूपले मनगम करने में अनि महान गौरप। इसके मिलित उक्त कार्य-कारणभाव में व्यभिचार भी है, क्या कि पिशावत्य यानि अयोग्यधर्मापनि के शान से भी नायं पिशाः ' प्रत्याकारक अभावस्थामकारकप्रत्यक्ष की उत्पत्ति होती है। ['न' इत्याकारकप्रत्यक्षापति के वारण का प्रयास पूर्वपक्षी प्रस्तुत सन्दर्भ में पक पन यात उपस्थित होता है- "Fक 'न' इत्या कारकमस्या की आपत्ति का परिहार करने के लिये इन्द्रियसा एसपिशेषणतासम्मिकर्ष को अभायमत्यक्ष मात्र का कारण मान कर प्रतियोगिधिशेपिसमभावप्रत्यक्ष का कारण मान लेना चाहिये, इस 'न च' का मागे पृष्ट २५. में 'फेवलाभावापानविकल्प कापतेः' के पूर्व में आने वाले प्रति पाम्यम्' से समाप है। पा.बा. ९० Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झाराभिमुच्चय-स्तचक १ सोस पतापाः प्रतियोगिविशेषितप्रत्यक्षातुल्ये गौरवात् पृषक प्रतियोगिधीहेतुतव युक्ता । न म तनुत्वेऽपि 'न' इल्याकारकप्रत्यक्षापत्तिः, उपस्थितस्य प्रतियोगिनोऽभावे वैशिष्टपमाने पाचकाभाषात् । न च 'अभाषो न पटीयः' इत्याक्षिणावधीदशायां वापतिा, अभावत्वावर देनाभावे ताहनवाधिय आहार्यकार, अभावत्वसामानाधिकरण्येन च तपशायामपि प्रतियोगिवैशिष्टयभानसम्मयात् । कोकि पेसा मान केमे पर प्रतियोगिविशेषित प्रभाव का विषय न कर के शुद्ध अभाव मानको विषय करने वाले 'न' स्पाकारकप्रत्यक्ष का कोई मापायक न होने से उसकी भापत्ति न होगी। [पूर्वपक्षी का भवान्तर विस्तृत पूर्वपन्न . इस पक्ष के बिठा यह कहा जा सकता है कि इन्द्रियो घक्षा त्यक आदि ममेक महार की होती, अनमें पक पत्रिय के सम्माविशेषणतासग्निकर्ष से अन्य इन्द्रिय से अमावस्यक्ष की उत्पांस नहीं होती, मतः समादियजन्य अभावत्यक्ष में तसत् पद्रियसम्बधिशेषणता को कारण माना जाता है, मय यदि उसे अमावप्रायक्षमात्र का कारण न मान कर प्रतियोगिविशेषिसममाषप्रत्यक्ष का कारण माना जायगा तो जिस प्रतियोगी के प्रभाष का प्रत्यन मिन मिग्न इन्द्रियों से होता है, उस प्रतियोगी में विसषित अभाव के प्रायत में भिन्न भिन्न इन्द्रियसम्पविशेषणता को भिन्न भिन्न रूप से कारण मामले में गौग्य होगा। अतः उसको अपेक्षा इस कपना में दो माधय होगा कि इन्दियसम्बधिशेषणता अभाषधियकवत्यक्षमात्र में हो कारण और प्रतियोगिः विशेषित नभायमस्या में प्रतियोगिवान पृथक कारण है। क्योंकि इन कल्पना में जिस मतियोगी के मभाव का प्रत्यक्ष भिन्न भिन्न इन्द्रियों से होता है उस प्रतियोगिविशेषतः भभाय के प्रत्यक्ष में इन्द्रियलम्बरपिशेषमना को इमियमेव से भिन्न भिन्न इम में कारण मापने की मावश्पकसानहोगी. पदि कहे कि-"प्रत्यक्ष में प्रतियोगितान को कारण मानने पर भी 'म' इस्याकारक मत्यक्ष की मापति तो धनी ही रहेगी क्योंकि प्रतियोगिद्यान रखने पर भी इन्द्रिपसम्बनविशेषणतासमिनकर्ष से शुद्धामावषिषयकश्यक्ष होने में कोई पाषा में होगी"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अभावमायश के पूर्व प्रतियोगी फा जान रहने पर अभावमायक्ष में भभार्याछ में विशेषयिधया उसके भान का कोई विराधी न होने से अभाषांश में बस का भाग अषण होगा, अतः प्रमियोगी को विषय न करने वाले समाचप्रत्यक्ष उदय की आशा व्यर्थ है। यांचे कद -प्रमायमायक्ष के पूर्व पररूप प्रतियोगो के शाम के साथ अभायो न बढायः-अभाष प्रतियोगितासम्पन्ध से घरशम्य' इस प्रकार का बाघमाग रखने पर समाष में प्रतियोगितासम्बन्ध से विशेषविषया घर के मान में बनी विरोधी हो जायगा, शतः उस समय म त्याकारकपपक्ष की मापसि हो सबनी"-तो यह टीक नहीं है, क्योंकि अभाषो म घडीय' पर काम दो प्रकार का हो समा-एक, अभावस्थापनदेन अमावसामान्य में घटामाघरकारक और दूसरा 'ममावस्वसामानाधिकरण्येन स्किम्बित् बनाव में पटाभावमकारक । इनमें यदि इसरे Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था-१० का . . न च 'प्रतियोगितासम्पन्धामभिप्रतियोगितयाऽभावे घटवैशिष्टय विषयकत्वात् प्रतियोगितासामान्येन पटवाधग्रहाभावेऽपि संयोगादिसम्बन्धावधिानप्रतियोगितामा 'म स्टीयः' इति पारधीकाले संयोगादिना पटाभावादेः 'न' इत्याकारकप्रत्यलापतितवाऽपि प्रतियोगितासम्बन्धावमितियोगितया घटस्य प्रकारतया भाने पापकाभावात , घटत्वाचवचिन्नप्रकारवा-5न्य प्रकारत्वानिरूपिताऽभावविषयताप्रत्यक्षे घटादि. घियो हेसुस्वास; अन्यथा घटाघभावस्य पटाबभावत्वादिना हे व्यभिचारापतेः । प्रकार का प्रसाई: 1. स्टीयः' : दान मार के पूर्व में जातोपातो अमावस्वसामानाधिकरण्येम अभावविशेष में प्रतियोगितासम्बन्ध से पदभाव का विरोधी पोगा मही, भातः उसके बागमे पर भी अभाव में घट का भान सम्भय होने से 'म' स्याकारक प्रत्यक्ष को खापसिमको सकेगी । मौर यदि पहले प्रकार का 'मभाषो न घटीया' यहहान अभावप्रत्यक्ष के पूर्व रहेगा तो बच आहार्य होगा, क्योंकि उसमें विशेषण की मोर प्रतियोगिल्यसम्बन्धाष्टिलप्रतियोगिता के प्रवाभावरूप विशेषणभूत भावषिशेष में प्रनिमोगित्वसम्बन्धामछिन्नतियोगितारूप प्रतियोगिताविशेषसम्बन्ध से घटका मान होता है और विशेष्य की ओर अमायसामान्य में प्रतियोगिस्पसामान्यसम्पत्यायबदिशन्नमसियोगिता के घटाभाष का भान होता है अनः विशेषण की ओर ममावस्या सामानाधिकरण्येन फिधित प्रभाय में प्रतियोगिताधिशेरसम्पन्ध से घटमकारक और विशेष्य की ओर अमावस्यासमेत अभावसामान्य में प्रतियोगितासामान्यसम्पायन घटाभावप्रकारक होने से उसकी आहार्यरूपना मनिवार्य है, और इस प्रकार जब वह भाहार्य है तो हाहाय होने दी के कारण यह भी भभाष में प्रतियोगितासम्बन्ध से विशेषणषिधया घद के भान का विमोधी छोगा । अतः खसके रहने पर भी संभाष में घर का मान सम्भव होने से 'न' प्रत्याकारकपत्यश्व की भापत्ति म हो सकेगी। |'न' इस्याकारक प्रत्यक्ष को पुनः आपत्ति] याद है :- "यह है कि 'भावो म घटीयः' इस अमाहार्यशाम में विशेषण भाग में प्रतियोगिस्तसम्बम्धाधारिमतियोगिमार.प प्रतियोगिताविशेषसम्बन्ध से ममाष में घट का प्रकार विधया भान होने से, उसे अभावत्वापरछेदेन अभाषसामान्य में प्रतियोगितासामान्यसम्बन्धाचनमा प्रतियोगिताकघरामाविषयक नहीं माना जा सकता मतः पह प्रतियोगितासम्बाघ से थमाष में घनभान का विरोधी महो हो सकता। किन्तु प्रतियोगित्यसम्बम्धावविहान प्रतियोगितासम्बन्ध से घर के साथ संयोग लम्बाधाविकालप्रतिपोगितालाप मे घराभाव का विरोध न होने से, अकलाम में अभाव में योगसम्म ग्घावनिमप्रतियोगितासम्बन्धानमग्नप्रतियोगिताक पठामाथ का भान हो सकता है। अतः उस मान से प्रभाव में संयोगसम्बाधामप्रतियोगितासम्बाध से प्रभास का प्रतिया हो सकता है। फलनः 'शभाषो म घटीय' रस बाघहान के अनम्तर संपोगसम्बग्धापरिहानप्रतियोगिताकपदोभाव को विषय करने पाथाकारकपस्या की आपत्ति हो सकती है, क्योंकि इस अभाव में यदि पद का भान होगा तो संयोगसम्प Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- rrrrry २५० शास्त्रपातासमुच्चय-स्तबक ग्लो०७० इस्य पाभाषांशे निर्षिकस्पर्क, 'अमाषः' इत्याकारकप्रत्यक्षं च न जायते, निक्षिकप्रतियोगितानकार्यवाय पदकाकान्तेशाप्रत्यक्षस्य यत्किञ्चित्प्रतियोगिज्ञानेऽसंभवात् , पाषरप्रतियोगिज्ञानस्य पाइसंभवावः अभावत्वांशे निर्षिकरपक स्वभावांशे यत्किठिनत्मखियोगिविशिष्टविषयत्वात् यस्किळिचत्प्रतियोगिधासाध्यमेवेति नानुपपत्तिः। बिस्वेन तमम्प्रत्यक्ष स्वनुपपन्नम्, भमानांशे निर्विकल्पकवद् यावत्प्रतियगिधी कार्यता पच्छेदकानावरात्-इनि वाभ्यम्, केत्रलाभावत्यनिर्विकल्पकापत्तरभारत्वस्याऽखण्डवाव. पानिप्रतियोगितासम्म्य से ही होगा, और उसमें उक्त बाधमान शभाषसामान्य मै संयोगसम्बन्धायकवानप्रतियोगित्यसम्यग्वाचिन्नप्रतियोगिनाक घटाभाषविषयक होने से प्रतिबाधक हो जायगा । । उक्त बाधवान के भनन्तर संयोगसम्बाधापनिप्रतियोगिताकवाभाष का जो प्रत्पन होगा, यह ' नथाकारक ही हो सकता है। [पांत का मार] तो यह ठीक नहीं है. मैं अभावामान योगािरिता प्रतियोगिताधिशेषसम्बधापछिम्मतियोगिताकपाभाष पो विषय करने वाला उक बाधमान संयोगसम्पन्धाचषिकानप्रतियोगितारूप प्रतियोगिताविशेषसम्बन्ध से ही अभाव में सम्मान का विरोधी छोगा, किन्तु प्रतियोगितासामाम्पसम्बन्ध से अभाव में घटमान का विरोधी नहीं होगा। पतः उक्त बाधमान के अनन्तर होनेयाले संयोगमभ्ययावकिमप्रतियोगिताकघरामाविषयकास्यक्ष में धमाव में प्रतियोगितासामान्यसम्बाप से घरका मान समय होने से उक्त घटाभाष के नायकारक प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती। मम्प में प्रतियोगिरसम्बन्धच्छिम्मप्रतियोगितासम्बन से संयोग सम्मम्माभिमप्रतियोगितासम्याधापच्छिन्नप्रतियोगिताकघटामाव में घट का भान होने की बात की गयो है, सो संयोगसम्बन्धावन्छिाससियोगिताक घटाभाष के साथ घटका प्रतियोगिषसम्पन्धावरिन्नप्रतियागितासम्बन्ध न होने से आपासता असंगत प्रसोत होती है, किन्तु उक्त प्राधमान काल में उषत घटाभाव में प्रतियोगिस्वसम्बरमा बलिप्रतियोगितामान से घट के भासक दोष का सन्निधान बने पर भ्रमय उम्क मागप्रमोने से यह भी धर्समत नहीं है। [अमावांश में निर्विकल्पकप्रत्यक्ष की आपत्ति भी नहीं है] उसरी बात पर कि मभावमत्यक्ष और प्रतियोगितान के बीच जो कार्यकारण भार माना जाता है, उसे 'बत्यापयन्छिानप्रतियोगिताकामाय के प्रत्यन में घटत्वादिप्रकारका कारण है, इस रूप में नहो म्बीकार किया जा सकता, क्योंकि घट जानकारी पर मी पठाभाषस्न घटाभाव का प्रत्यक्ष होने से व्यभिचार होभायगा भता बढत्याwिaप्रकारता से मध्य प्रतियोगित्वसम्बधावहिम्मतकारता से गणि पित ममाविषिषमताकमन्यक्ष में घटत्यादिप्रकारकहान कारण है"। इसी रूप में इस कार्यकारणभाव को स्वीकार करना होगा, भौर उस स्थिति में 'नस्याकारक परपस की भभाषनिधविषयता के किसी भी पतियोगित्वलाधावनिमकारता से निकपित न होने के कारण 'इत्याहारकपत्यक्ष प्रवत्वादिसमस्तधर्मप्रकारक काम के कार्य Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ .... . .. . .. .. स्या क. टोका. प.लि. अन्यथाऽभाषविशिष्टदायपि वन्निर्विकल्पकाऽयोगात् । किंच, 'घरपटौं ' इत्यादिप्रत्पर्श घटज्ञानपटज्ञानाविकार्यतावच्छेदकानाक्रान्त तया तद्विरहेऽपि स्यात्, तत्र घटस्त्र-पटत्य-दिवाना पकारतावकछेदकस्वेऽपि नीलघायभावप्रत्यक्ष व्यभिचारबारणाय 'घटत्याचयक्छिन्न' इत्यस्य घटत्वादिपर्याभावपछेदकताफल्यार्थल्नवतोपानुबाराव । नस्माद् घटत्वादिप्रकारकप्रत्यक्षस्य लापवान् घटस्वारच्छिन्नप्रकारतानिहपितविपयताकमत्यासत्वमेव कार्यतावच्छेशकम, शुद्धाभाषप्रत्यक्ष तु प्रतियोगितासम्बन्धावचिन्नप्रकारतानिरूपिताभावविषयताकप्रत्यक्ष एवं विशेपणताया हेसुखाइ न भवतीति युक्तम्. कोटिप्रतियोगिनानहेतुत्वाऽकल्पने लाघवान् । तासगळेवक से भाकात होगा, गसः घटत्यानि धर्मों में यत्किचित्धर्मप्रकारकासान से मी उसकी उतपसि छीपी नहीं और घाव भावि समस्त प्रकारकशान का सग्निधान कभी होगा मही। फलतः सभावांश में निर्विकल्पक 'म'इस्याकारकप्रत्यक्ष की जापत्ति की सम्भावना हो सकेगी, और अमावस्वाश में जो निर्विकल्पक होगा, घह अभाषांश में यत्किविमतियोगितकारक ही होगा, अत: यस्किविन्प्रतियोगिहान से उसकी उत्पत्ति होने में कोई यात्रा न छोगी । अभावमल मोरप्रतियोगिहामो उक्तका से कार्यकारणभाव मानने के पक्ष में बम्व या अन्नगतमस्रषरूप से हेमोsभाषरुप नम का प्रत्यक्ष मान्य नहीं है, क्योंकि भावांश में निधिकपकप्रत्यक्ष के समान यह भी यायप्रतियोगिशाम के कार्यतापरक से आकाग्न होता , आग. यावरप्रतियो गिज्ञान का सम्बिधाम कभी भी नवा सकने से उसकी उत्पत्ति सम्मान नहीं है। इस मकार माषप्रत्यक्ष में प्रतियोगिझान को कारण मानने से ' प्रयाकारकप्रत्यक्ष की भापति का परिहार सम्भव छोने से यह कथन सर्वथा समुचित है कि इन्द्रियसम्बनविशेषणता अभावविषय कास्यक्षमान में कारण है। और प्रतियोमान प्रतियोगिविशेषित प्रभाषप्रत्यक्ष में कारण ' [भवान्तर पूर्वपक्ष समाप्त तयापि केवल अभाववनिर्विकल्पक को आपत्ति किन्तु विचार करने पर यह कथन संगत मदों प्रतीत होता, कोंकि अभाव विषयकमरमा मात्र में इग्लियसम्पाविशेषणता को कारण मानमे पर केबलमभावन्यविषयक निधिकम्पकप्रत्यक्ष की भापत्ति हांगी, कयोंकि मभावविषयकविशिमुशि में निविशेषण अमायत्व का भान होने से मभावात्य को अखण्ड मानमा अनिवार्य है। [घट...पट के अज्ञान में भी 'घरपटौं न' इस प्रत्यक्ष की आपत्ति अभाव में विशेषणविघया प्रतियोगो का अयगाइन न करने पाले 'ज' रयाकारक अमावस्या की भापति म हो सकमे का ओ दूसरा कारण यह पतापा गया "कि-'' रस्थाकारकपत्यक्ष पायस्पतियोगिधाम के कार्यतापछेदक से मामास हो जाता है, अतः पायतियोगिधाम का समधान सम्भव म होने से उक्त प्रत्यक्ष की भापति मही हो सकती"-प्रह ढोक नहीं है क्योंकि घटस्वरूप से घटखान रखने पर भी नीलपरत्वप्रका - Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ शास्त्रमा समुपाय-स्तबक १ प्रलो. न च अभावो न घटीयाः' इनि प्रत्यक्षे व्यभिचास-तत्रापि प्रतियोगिस्पसमयावरिछन्नप्रतियोगितासम्बन्धावपिछन्नप्रकारतानिरूपिनामावधिपयताकत्वस्याऽक्षतत्वात् । यदि वैषमवि मतियोगिनामात्रेण यं नास्ति, मेये नास्ति' इत्पादेरापतिः, तदा प्रभारीभूतफिश्विदर्माविभिन्मत्वेन प्रतियोगिनाया विशेषणाद न दोषः । श्रभावस्यनिर्विकल्पकं पाती क्रियम एक, निरजिन्नाकारतासुद्धौ निरवसिविषयताकमुद्धईतुत्वादिति चेन् ! म, रकबाग के अभावकाल में 'मोलघटो नास्ति' इस अभाय का प्रत्यक्ष न होने से पठम्याघवकिशन मकारतान्यप्रतियोगिस्थ सम्बम्धावनिम्न प्रकारता से अनिरूपित प्रभावनिष्ठविषयताक प्रत्यक्ष के प्रति घटत्वाविप्रकार कशाम को कारण मामले में व्यभिचार हो जाता है। मनः घटत्यादिप्रकारकहान को बरावाविमात्रामप्रकारतापप्रतियोगित्यसम्बन्धापच्छिमामकारता से भनिपित अभानिबढविषयताकप्रत्यक्ष के प्रति कारण मानना मावश्यक हि, भोर' उस स्थिति में 'घटपटी म स्त;' यह प्रत्यक्ष घटस्वप्रकारकहान पर्व पढत्यप्रकारकमान के कार्यतापमछेक से प्राकाम्न न होगा । फलतः घर पट के अज्ञानवशा में भी उक्त प्रत्यक्ष की प्राप्ति होगी । मत अभायप्रत्यक्ष और प्रतियोगिशान में अक्स प्रकार के कार्यकारणभाष का परित्याग का साधष से बढत्याचवडिछम्म मे विज्ञषित अभाष प्रत्यक्ष में श्री घटायाधिकारकसान को कारण मानमा उचित होगा किन्तु येला मानमें परन' प्रस्यामारक प्रत्यक्ष प्रावियावत्पतियोगितान के कार्यनारनक मे पानान्स मी होगा । शतः केवल इरिष्यसम्पविशेषतान्निकर्ष से उक्त प्रत्यक्ष की प्रालि होगी। अतः उसके पारणार्थ इभिनयसम्बअधिोरणता को मात्र भमाप्रत्यक्ष में नहीं किन्तु पनियोगिविशेपित श्रभावप्रत्यक्ष के प्रति कारण माममा उचित पर्व आवश्यक है 1इस कार्यकारणभाव में कार्यवायच्छेनकवल में प्रतिपोगि का विशेषरूप से प्रवेश नहीं है, कोकि प्रतियोगिविशेषितभभापमयक्ष का अर्थ हैं. प्रतियोगिरवलम्ब न्धामिछम्नान कारतानिरूपितमापनिषविषयताशाली प्रत्यक्ष, भगः जिम मनियोगी के अभाष का प्रत्यक्ष कई इन्द्रियों से होता है उस प्रतियोगो से विशेषित अमाय के प्रत्यक्ष में इग्मियसम्पषिशेषणता की इन्द्रियमेव से भिन्न भिन्न रूप से कारण न माने जाने के कारण पूर्वोक्त गौरव भी नहीं है, साथ ही 'न' इत्याकारकप्रत्यक्ष को पूर्वोकरीनि से यावन्प्रतियोमिक्षान के शार्यतायक्वक से आकान्त मनाने की आवश्यकता न होने से मभावप्रत्यक्ष में प्रतियागिशान को पूर्वोक्त गुरुसररूप से कारण भी नहीं मानना पड़ेगा। अतः यह पक्ष लायवयुक्त होने से उपादेय है। 'अभावो न बयः' इस प्रत्यक्ष में अन्नय व्यभिचार] यदि यत्र को कि-"भभावो न पठीयः' इस प्रक्ष में समाधनिष्ठविण्यता घटोपायामामिस्वरूपसम्म बानियमनकारता से निरूपित है, प्रनियोगिम्बमम्माधाष. छिन्नप्रकार करना से निषित नहीं है, फिर भी यह प्रत्यक्ष इग्लियसम्बविशेषणता सम्निकर्ष से उत्पन्न होता है, मसः उक सन्निर्थ से प्रतियोगित्वसम्बन्धावरिया Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क टीका पं० १२३ प्रकारया से निपित होने से व्यभिवार होगा" तो यह टैंक नहीं है, क्योंकि विशेषणभाग में अभाव में प्रतियोगितासम्बन्ध से का प्रकार विधया भान होने से प्रत्यक्ष में भी प्रतियोगित्वसम्बन्धानिएकारतानिरूपित भावनिष्ठता है। गमः उक्त प्रत्यनस्थल में भी इन्द्रियसम्बज विशेषणशासक कर अभ्यभिचार नहीं है. यदि यह शंका करें कि "इब्रिय सम्बद्ध विशेषणता के कार्याले में विशेषरूप से प्रतियोगी का निवेश न करने पर तथा किकबाल को माद्य से विशेषित अभावविषयकप्रत्यक्ष ही के पति कारण मानने पर उस विशेषतासि कर्म से कान न रहने पर भी वयं नास्ति मेयो नास्ति इस रूप में घटाभाव के प्रत्यक्ष की आपति होगी क्योंकि इस प्रत्यक्ष में प्रतियोगित्यसम्बन्धाद्रिध्य-मेषभिष्ठप्रकारात या पिता के होने से यह प्रत्यक्ष भोस विशेषण के उफ कार्यवाहक से माफ़ान्त है। तथा भभाष में प्रत्याि विशेषण न होने से उसकी उत्पत्ति में घटत्वादिकारकशान की कोई अपेक्षा नहीं है'सा उत्तरे कि विशेषणमा प्रकारीभूममितियोगित्व कारसा निरूपित अभाव निष्ठविषयाशी प्रत्यक्ष का कारण है, न कि केवल प्रतियोगित्वसम्बन्धा चिनप्रकार हामिरूपित प्रभावनिष्ठचिपताकी प्रत्यक्ष का देवास्ति मेयो नास्ति इस प्रत्यक्ष में घटाभाव में मध्य-पेय का भान केवल प्रतियोगितासम्बन्ध से ना हे प्रकारीभूताद्यश्षा अनि प्रतियोगिता सम्बन्ध से नहीं होता, क्योंकि यदस्यायनमतियोगिताकघटाभाव में इव्यस्थ व निमतियागिता सम्बन्ध नहीं रहता | | अभावत्वनिर्विक्रय की आपत्ति का अङ्गीकार यदि यह शंका करें कि “घटाभाव के साथ रष्ट्रिय का सम्बद्धविशेषता सम्मि कर्ष होने पर जैसे घटा रहने पर अभाव में प्रतियोगिता से घर प्रकारक और अभाषम्य में भिविशेषणक 'घटो नास्ति इत्याकारकपत्यक्ष होना है, उसी प्रकार घट शान न रहने पर उस मनिक से केवल अभाषत्व का निर्विक्रयक्ष डोना चाहिये तो यह का ठीक नहीं है क्योंकि अभters का मिधिकसपक प्रत्यक्ष इ है । अन्यथा यति क्षमावत्य का निर्विकल्प माना या मोटो नाति' इस वश में भी भाव का रूपमः भान न हो सकेगा, क्योंकि निरवतिद्धि में विनाकमान कारण होता है। अतः यदि अभावत्य का निर्थिक न होगा तो अमायांश में स्वरूपतः अभाग्यमकारक प्रत्यक्ष न हो सकेगा। उपर्युक्त विचार से मिचकर्ष निकलता है कि सम्बद्धविशेषणता प्रतियोषिविदोषिन अभावविषयक प्रत्यक्ष का कारण हि गतः गायक का अभाव होने के कारण अभाव में प्रतियोगिता सम्बन्ध से प्रतियंांगी का अवगादन न करने वाले 'ल' प्रत्याकारक अथवा 'अभावः त्याकारक प्रत्यक्ष को आपत्ति नहीं हो सकती । [विस्तृत पूर्वपक्ष समात] Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवास समुच्चय- स्तचकः १ छो० ७७ एवमपि घटाभावामावयोरुभयोः सन्निकर्षे घटाभावांशे प्रतियोगिविशेषितस्य पदाभावदशेषितस्य समूहालम्बनस्य प्रसात् किं च. एवमिदन्त्वादिनाभावप्रत्यचं न स्यात् न स्थाच 'अभावप्रतियोगी घटः इत्यादिः साध्ययत्यक्षेष्वपि पृथक् कारणत्वकल्पने जातिगौरव | अभावत्वप्रकारकप्रदाय भावविषयकप्रत्यक्षं घटत्वा दिना घटादिज्ञानस्य हेतुत्वम्, पटाभावत्वेन च भूतले न घटाभावादिज्ञानम्, नत्र पटाभावस्यैवापात् इत्यालोकज्ञानं विनाऽपीदन्त्वेन तमाप्रत्यक्षं नानुपपन्नमिति चेत् न 'घerद् भूतलम्' इति ज्ञानोत्तरं 'अभाववत् भूतलम्' इति ज्ञानप्रसङ्गात् तादृशाऽसंसर्गास्थाssपादकस्य सच्चात् । किं च परमभावप्रत्यक्षे प्रतियोगिज्ञानापेक्षायां चिना प्रतियोगिज्ञानं जायमानं तमस्त्वप्रकारकं तमः प्रत्यक्षं तमसो मात्रत्वमेव साधयतीति fearfभानमिवं देवानांप्रियस्य । २२४ सन्निकर्ष से घटाभावोऽभावश्च समूहालम्बन की आपण उचरपक्ष | विचार करने पर पूर्वोक पक्ष उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस पक्ष में भी यह शेष है कि जब घटाभाव और पठाभाव के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष के समय घट का काम है और घट का ज्ञान नहीं है, तब उस सन्निकर्ष से प्रभाव में तो रूप प्रतियोगी को विषय करने वाले और पटाभाप में प्रतियोगी को विषय न करने वाले 'घटाभावः अभावद्य' इस प्रकार के समूलम्बन प्रत्यक्ष की मापति होगा क्योंकि पक्ष प्रत्यक्ष भी घटा भाषांश में इन्द्रियसम्रा विशेष सालिकर्ष के कार्यसाय से भाकात है, अतः उत सन्निकर्ष इसका आपादक हो सकता है । | दन्त्वादिरूप से अभावप्रत्यक्ष न होने की व्यापत्तिj इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि इम्य गादि रूपों से तम का 'वं तमः' याकारक प्रत्यक्ष तथा समावपतियोगित्वेग घट का 'सभाषम थियोगी घटः स्याकारक प्रत्यक्ष न हो सकेगा, कयोंकि हम प्रत्यक्षों में अभाव में प्रतियोगिता से कोई भी प्रकार होने से इन में मम्बन् विशेषता सन्निकर्ष कारण न हो सगा । यदि इनकी उपपत्ति के लिये इनके प्रति उन सन्निकर्ष को पृथक कारण माना जायगा तो अतिगौरव होगा। यदि कहें कि - "अभाव प्रत्यक्षमात्र में उक्त विशेषता को तथा सभावन्यप्रकारक घटाभावविषयकप्रत्यक्ष में घटादिज्ञान को कारण मानने से उपर्युक्त दोषों में कोह भी दोष न होगा। क्योंकि ''इस्याकारकमयक्ष अमावश्यमकारक घटाभावादिविषयक धोने मै घटादिज्ञान की अपेक्षा भव करेगा और य पूर्व में घटादिज्ञान रहेगा तो अभाव विशेषणतया घटादि का भाग अवश्य होगा । 'अभाव प्रतियोगी घटा' इसकी भी अनुगपति नहीं होगी, क्योंकि पक्ष अमावस्यप्रकारक घटाभावविषयक होने से घटतामरूप कारण से सम्पन्न हो जायगा पटवल में पठान घटानाव के प्रत्यक्ष में Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० क० टीका व हि० वि० २२५ पच भावलौकिकप्रत्यक्षस्य घटत्वाद्यन्यतमविशिष्ट विषयकत्वनियमाद् विशेसामग्री बिना सामान्यसामग्रीमाचात्कामत्पचेन भावनिर्विकल्पकं, 'न' इत्याकारकप्रत्यक्ष वा विशेषणादिज्ञानरूपविशेषसामग्रधभायात् । न च अभावलौकिकप्रत्यक्षत्यपटस्वा दिविशिष्टविषयकप्रत्यक्षत्वयोर्व्याप्यव्यापकभावाऽभावात् कथं विशेषसामग्रीत्वमिति वाप म कार्यतावच्छेदकीभूतत सर्माश्रययत्किश्चिव्यक्तिनिष्टकार्यतानिरूपित कारणतावच्छे काल में भिवार भी नहीं होगा क्योंकि एक भूतल में पदाभावेन घटाभाव का प्रत्यक्ष न मान कर पदाभाव का दो आरोप मानने से 'भूतसं घटाभाववत्' इस प्रतीति का निर्वाह हो आया। इस कार्यकारणभाव को मानने पर तेज के बाधिक से उसके प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति भी नहीं होगी, क्योंकि वह अभावस्य कारक न होने से उसमें तेजरूप प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा ही न होगी। गतः अभावमस्थ में उरूप से सन्निकर्ष और प्रतियोगिज्ञान को कारण मानने में कोई क्षति नहीं है" - हो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा कार्यकारणभाव मानने पर 'चटष भूतलम्' इस ज्ञान के are 'भूख' म अभाववत्' इत्याकारक असंसर्गग्रह के अभावरूप आपादक से । 'अभाषवद् भूतलम्' इस प्रकार के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी । मात्य और प्रतियोगियान में उक्त प्रकार के कार्यकारणभाव को स्वीकार करने में सपने पड़ा क्षेत्र यह है कि उक्त कार्यकारणभाव को स्वीकृत कर लेने पर तम की अभावरूपता सिद्ध न हो सकेगी; क्योंकि उक्त रीति से अभावप्रत्यक्ष में प्रतियोगि शाम अपेक्षणीय होने पर भी तमस्वरूप से तम का प्रत्यक्ष तेजरूर प्रतियोगी के बा विना ही सम्पन्न होता है, जिससे राम की भावरूपता ही सिद्ध होती है, मतः उक के प्रतिकूल होने से उसकी 'देवानांप्रियता' अता का ही सबक है । | सामान्यकार्य की स्वामग्री से विशेषकार्य की अनुपपत्ति, दादी की ओर से यह भी कहा जा सकता है कि "अभावप्रत्यक्ष में प्रतियोगिवान की कारण न मानने पर भी 'अभाव:' इत्याकारक प्रभाव के निर्विकल्प कमत्यक्ष तथा 'न' हत्याकारकप्रश्पक्ष का धारण किया जा सकता है, जैसे 'घटो नास्ति पठो मास्वि' इम्यादि रूप में मभाषविक जिनमे लौकिकप्रत्यक्ष प्रसिद्ध हैं वे सभी स्वादि अन्यतम धर्मो से विशिष्ट घटादि को अभाष के विशेषणरूप में अवश्य विषय करते हैं। यतः अभावविषयकप्रत्यक्षस्व सामान्यधर्म है और घटत्यायन्यतमं विशिष्टविशेषित भभावकिलोकिकवत्यक्षत्वविशेष धर्म है । सामान्यधन का कारण है ि यसस्यविशेषणता और विशेषधर्मावळिस्म का कारण है घटादिमन्यतमधर्ममकारक ज्ञान । 'विशेषधर्मावच्छिन्न की उत्पादक सामग्री के विना केवल सामान्यधर्माव नको सामग्री से कार्य की उत्पत्ति नहीं होती है' यह नियम है। इसलिये पटादि की भहानशा में केवल इन्द्रियसम्बधिशेषणता से 'मभावः प्रत्याकारक भच्या 'म' हत्याकारक प्रत्यक्ष की भाति नहीं हो सकती । झा.पा. १९ " Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. - ---- - -- - २२६ शास्वार्थासमुच्चय-स्त्रका । मो० . दक पाच , प्रत्येकं वदछिन्मसरोवन्यः तदविछिन्नोत्पत्तिरित्येव नियमात, 'तदध्यायपविस्मिन्नस्किश्चिदृष्यक्तिनिवार्यतानिरूपित' इत्यायुक्तो व्याप्तिज्ञानपरामर्शयोः सवे पापधीसवेऽप्यनुमित्यापतर सर्मव्याप्पध्यापकधर्मावच्छिन्नयस्किश्चिद्व्यक्तिनिष्ठकार्यनिरुपित' इत्यायुक्ती गौरवात्,-'घटस्वादिविषिष्टवैशिष्टयविषयकप्रत्यक्षलवस्याशावादीनिमपत्यक्षपातमासानिका ग्र कृत सिद्धेश्व-इत्युक्तावपि न साध्यसिद्धिः । घटादिज्ञानघाटेत सामग्री में विदोषसामग्रीव की शशा का उत्तर] पदि यह कई कि-"अभावविषयकलौकिकात्यात्म के समरूप से होने वाले अभावप्रत्यक्ष में भी रहने के कारण घरत्याविमापातमधर्मविशिषियोषितमभावविषयकखोकिकपत्यक्षष उस का व्यान्य ही नहीं, मतः तवपछिम्म के कारण पठाविज्ञान खे घटित सामग्री विशेषधर्माचारनम्न की सामग्री ही नहीं है, लिये प्रभाषिषयक लौकिक प्रत्यक्षस्थापन की उत्पत्ति में उसकी भपेक्षा न होने से विशेषणतासग्निकर्ष से 'भभाषः' और 'न' इत्याकारक प्रत्यक्षो की भापत्ति होने में कोई बाधा नहीं है"-तो यह ठीक नही है, क्योंकि विशेषसामग्री के बिना सामान्यसामग्रीमात्र से कार्योत्पति नहीं होती इस नियम का अर्थ यह है कि 'कार्यसषच्छेवकीभूतसमर्म के मामय यत्किविपत् कार्यभ्यक्ति में नियमान कार्यता से निषित कारणता के मबरोदक जितने धर्म होते है, उस घों में प्रत्येकधर्मावलिम का सन्मिधान होने पर ही तयाग्छिन की उत्पति होती गस नियम के अनुसार केवल त्रिपसम्पाविशेषणता से 'मभावः' हरयाकारक मभावविषयकलौकिकमस्या की भापति नहीं हो सकती, क्योंकि अभावषि षयकलौकिकपत्यमत्व के मामय जिसने भी प्रत्यक्षात्मक कार्य है जैसे पदस्वरूप से भमा ष का प्रत्यक्ष, पर्ष 'घदो नास्ति, पटो मास्ति' इत्यादि पटाभाषावि का प्रत्यक्ष, उनमें किसी भी पक कार्य व्यक्ति में विद्यमान कार्यता से निरूपित कारणता के अषच्छेदक जिसने धर्म है। तत्प्रत्येक मायनियम की ससा केवल इवियसम्माविशेषणतालनिकर्ष के काल में हो , उक शंका तब अवश्य होगी अब 'विशेषसामग्री के बिना सामान्यसामग्रीमापसे कायोत्पत्ति नहीं होती'स नियम कायर मर्योता कि किचित कार्यष्यक्ति में विद्यमान सर्मध्याव्यविधिसम्मकार्यतामिक्तिकारणता हेमवडेवक जितने धर्म होते है. तम्प्रत्येकवछिन्न का सम्निधान होने पर ही सवान्छिन की उत्पसि बोनी है। क्योंकि घटायादिधम्पतमधिशिष्टविषयकवायतत्व के अभाषिषयक लोकिकास्यक्षत्व का च्याप्प होने से घटत्यादिमायतमविशिषविषयकायम स्वाछित के कारणों का सम्मिशन इक्त नियमानुसार अमावविषयकलौकिकात्यक्षावा. परिहान की नापत्ति में अपेक्षित नहीं होता। पर उक्त नियम का यह दूसराय सती. कार्य ही नहीं है, क्योंकि इसे स्वीकार करने पर यातियान मौर परामर्श के राने पर बरघामानकाल में भी अनुमिति की भापत्ति होती है. षा लिपे कि पापसाना-- मात्र कार्यतापगोषकमिशिवकुमित्व प्रत्यक्ष-शाब्दकोष भादि में भी रहने से मनुमितिरख का प्याय नहीं होता. अतः उक्त नियमानुसार अनुमितिवादविलम्सकी अपत्ति में विशिबिवावळिम्म के कारण पाचशानाभाष की अपेक्षा नही होती. । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टीका वरि. वि. ..... २२०... म वा घटस्वाधवकिछन्न प्रकारत्वातिरिक्तप्रकारस्थानच्छिन्नाभावत्वचौफिकविषयत्वावधिनाभावकौकिकषियताकप्रत्यक्षे, पटस्वातिरिक्तधर्मावच्छिन्नप्रतियोगित्वसम्पभावच्छिन्नप्रकारषानिरूपितत्वे सत्यभावत्वविषयत्वापच्छिन्नाभावलौकिक-विषयताकप्रत्यक्ष वा पटवस्थापकिन्नप्रकारताकसानहरवेऽपि निर्वाहा, समीषियताया पर्वोक्त नियम में विशेषप्रवेश से दोषाभाव को शङ्का का उत्तर यदि को कि-"उक्त नियम के दूसरे अर्थ में 'यरिकश्मिरका व्यक्तिनिष्ठतद्धर्मव्याप्यधर्मायनिवार्यता' के स्थान में 'परिमित्कार्यव्यक्तिनिष्ठतवर्मष्याप्यव्यापक भावनिकारणता' का प्रवेश कर देने पर गह दोष नहीं होगा, क्योंकि वाघमानाभाष का कार्यतापनवकविशिषशित्व मो अनुमितिरष के व्याप्य नमसूअनुमितिरष का ज्यापक है, अतः विशिएशिस्वावनि की सत्पत्ति में मपेक्षणीय है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि उक्त मियम का जो पहला अर्थ बताया गया है उसको अपेक्षा इस मय में गौरव है, और दूसरी बात यह है कि इस दूसरे परिका अर्थ को स्वीकार करने पर मो चल दिसम्बचिशेषणता से 'मभाव!' तथा 'म' इत्याकारकप्रत्यक्षों की भापति का परिहार हो जाता है क्योंकि घटस्वादिमन्यतमविशिषियकमावत्य अभावविषयकलौकिकप्रत्यक्षत्व का व्यापक है, अतः तदस्लिाम के कारण घटादिवान का सग्निधान ममाविषयकलौकिकप्रत्यक्षत्वापत्रिजग्न की उत्पत्ति में अपेक्षित हो जाता है और यह केवल इन्द्रियासम्बधिशेषणताकाल में होता नहीं है। विचार करने पर वादी के उक्त कथन से भी उसके 'तम सेमोऽभाषकपल साधनोय पक्ष की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि तम यदि तेसोऽभावरूप है, सब अपत नियम के अनुसार जोहान के भसन्निधान में उसका प्रत्यक्ष नहीं होना चाहिये, किन्तु होता है। मता तमको अभावरूप कहना असंगत है। विशिष्ट कार्यकारणभाव से विवाह होने का शका का उसर] पस्वादि धमों से अग्नि प्रकारशा से अतिरिक्त क्रिश्चियमावहिलम प्रका. रता से मनस्किान जो अभावनिउशौकिकविषयता, ताशषिषयताशालीप्रत्यक्ष में मचा घढस्वादि से अतिरिक्त धर्मों से अपरिमन्न प्रतियोगिश्वसम्मग्यास्मियकारता से ममकिन प्रो सभापत्यविषयता से भवच्छिन्न ममाविषयता, सारशविषयताशाली प्रत्यक्ष में धटरवादियान का पान कारण है, ऐसा मानने पर भी कायल द्रिय 'सम्पपिलेपणता से 'अमावस्याहारक पर्व 'स्याकारकप्रत्यक्ष का परिवारमो सकता है, क्योंकि प्रत्यक्षों में नो अमावषिषयता है बह अमावस्ववियता से भयधिमा पर्थ उपस प्रकारताओं से मनिरूपित है, अत: घटत्वाचवच्छिन्न शाम के कार्यतापजीदक से आक्राम्स इन प्ररपक्षों के प्रति घटादिहान की अपेक्षा होने से इसके अभाव में न प्रत्यक्षों की आपत्ति नहीं हो सकसी"-पर इस प्रकार के कार्यकारणभाष से भी सम की अमानकरता का निर्वाह नहीं हो सकता, पोंकि समाप्रत्यक्ष को तमोमिष्यविषयता भी तमहाविषयता से भयग्छिन्न होने के कारण अभायरषविषयता से सबसिन क्यों कि तमस्वसेजोऽभाषण से अतिरिक्त नहीं है। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ शास्त्रपातासमुच्चय-सबक १ प्रलो० ७. स्तमस्त्वविषयतावच्छिन्नत्वेऽभापत्यविषयताऽवच्छिमत्वनियमात्, तपस्त्वस्य तेजोऽभाव सतिरिका अभावाममय गौरवाव, तमसो द्रव्यत्वस्यैव युक्तत्वात् इति विक। किं च, नालोकप्रतियोगिकाभावमा समोव्यवहारविषयः, एकालोकवस्यप्याऽऽलोकतान्तराऽभावान् । न वाऽऽलोकसामान्याभाषा, आलोकवत्यपि सम्पन्धान्तरण तदभावाच । न च संयोगसम्बन्धावच्चिमतदभाव, आलोकेऽपि तत्सवात् । नाप्यालोकान्पत्तित्वविशिष्वदभावः, अन्धकारेऽन्धकारापोः ।। न च 'आलोकान्यद्रव्यऋतित्वविशिष्टः स' तथा, त्वदात्मन्यपि तत्प्रसङ्गात् । न व कदाचिदालोकसंसर्गमित्वविशिष्टः स सथा, कदाऽप्यालोकसंसों पत्र नास्ति मिन्धकार को द्रव्य मानना ही उचित है। दूसरी बात यह है कि उक्त कार्यतापछेदक की कुक्षि में प्रभावविषयता में अमाजस्व विषयावपि का प्रवेश गौरयग्रस्त होने से स्याज्य भी है। इसी प्रकार सम में प्रतियोगितासम्बन्ध से किसी का मान न होने से समाप्रत्यक्ष की तमोनिष्टरिषयता वक्त प्रकारता से मनभिन्न भी है । अततमःप्रत्यक्ष के सेजस्वाक्षिणानविषयकवान * कार्यतावच्छेदक से आक्रान्त होने के कारण तेज के महान की पशा में उसकी उत्पत्ति नहीं होमो बाहिये, किन्तु होती है, इस लिये तम को समाषरूप न मान कर म्यरूप मानना की युक्तिसंगत है। [लोकमतियोगिकाभावमा तमोव्यवहारविषय नहीं है] तम को तेजोऽभाषरूप मानने में पक याचा यह भी है कि पेसे तेजोऽमाम का निधन नहीं हो सकता, जिसे तम छटा जा सके । जैसे, यदि भालोकप्रतियोगिक प्रभाव को नम कदा मायगा, तब पक आलोक से युक्त स्थान में भी भालोकारवर का प्रभाष होने से यहां तमःप्रतीति पर्व तमोच्यवहार की प्राप्ति होगी। मालोकसामायामाप को यदि सम का मायगा, तो आलोकसंयुकदेश में संयोगसम्बन्ध से मालो. बसामान्याभाव न होने पर भी समवायसम्बन्ध से पालोकसामाग्याभाष होने के कारण पहा भी वम के प्रत्यक्ष पपं व्यवहार की भापति होगी। संयोगसम्बन्ध से आलोकसामान्यामाष को यदि तम कहा जायगा, तो मा पक हो माको वहां उस स्थल में मालोकसामान्याभाष न होमे पर भी उस भालोक में कोई मी भालोक न होने से संयोगसम्पन्ध से आलोकलामान्याभाव, भता उस भालोक में तम के प्रत्यक्ष पर्व तम के व्यवहार की आपत्ति होगी । यदि मालोकापवृत्तियषिशिएमालोकसामान्याभाष को तम कहा जायगा तो आलोक में मायोकामाय भालोकवृत्तित्वविशिष्ट होने पर भो मालोकाम्पत्तित्वषिशिर सालोकसामापामाव के रहने से माझोक में सो सम के प्रत्यक्षावि की भापति न क्षेगी, पर अन्धकार में उक्त आलोकसामान्यामाब के रामे से 'अन्धकारमयकार: अग्धकार में भी अग्यकार इस प्रकार के व्यवहार को आपत्ति का वारण न हो सकेगा। १. गतिवद्' इति पाठान्तरम् । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था क ीका च.िलि. २२९ वापि पोरनरकादो तकनगाव, अवतमसे यालाओं का[भाषा]भाषाञ्च । किं चै. तारघटकाप्रतिसन्धानेऽपि समस्त्वप्रसिसन्धाना घटत्यवद् मातिरूपमेतद् न्याग्यम् । पतेन 'याबदाछोकसरपे नान्धकारख्यवहारस्तावन्निष्ठवहत्यविशेषावच्छिन्नमतियोगितामाभावस्तमः' इत्यमास्तम्, महत्वस्प पुद्धिविशेषादिना विनिगमनाविरहाच्च । भखण्णाभाव एव तम; 'अखण्ड पा तमस्त्वम्' इति कल्पयतस्यतिरिक्ततमोट्रष्यफल्पने किंक्षीयते । अपि च तमसोऽभावत्वे उत्कर्षाऽपकर्षाऽसम्भवाद् अन्तमसावतमसादिविशेषो न स्यात् । न च महाभूतानभिभूतरूपरदयारत्तमोभावोऽन्धतमसं, ऋतिपयतदभारश्चावतमस, इत्पादिविभागो पारपः दिवा प्रकष्टालोकेऽपि सत्सवात् । मालोकान्यदश्यपतित्वविशिष्ट भागेकामाव तमोष्यवहार का विषय नही है ___ यदि आलोकाग्यद्रज्यवृत्तियविशिष्ट भालोकसामान्यभाष को नम करा जायगा, दो सम को भमायास्मक मानने वाले यादो के मा में नम के प्रधान होने से जम में उक्त भापत्ति का कारण तो हो जायगा पर वादी के भास्मा में नम को भापति लगेगी, 'वावी छ आरमा में भो मधेरा है इस प्रकार के व्ययहार की आपत्ति होगी। जहां कभी बालोक का सम्मान होता हो, Evion शाके की मालोकसामान्यभाष को यदि तम माने तो पेला सम मामने पर इस भापति का परिहार तो हो सकता है पर घार नरक पाधि, कहां कभी भी मालोक नहीं होना यहां मो शास्त्रों में सम का अस्तिष रताया गया, किन्तु भव पह मसंगस हो जायगा । पयं मयतमन-मनमायकारयुक स्थाम में यत्किचित् भालोक रहने के कारण भासोकलामाम्पाभाष के न रहने से यहां तमप्रतीसि की अनुपपति होगी । पर्ष उक्त प्रकार के आलोकाभाष को नम मानने पर तमस्य के घटक उपयुक्त पदार्थों कि महामशा में तमस्य का प्रत्यक्षात न हो सकेगा, किन्नु होता है मतः घर के समान तमस्त्य को ट्यगत जाति मामना बी न्यायसंगत है। नियतसल्याक आलोक का अभाव अन्धकार नहीं है] जो लोग यह मानते है कि-"जितने मालोक के होने पर भन्धकार होने का व्यवहार नहीं होता, उतने मालोको का सभाष तम है, और उसका स्वकर ताव आलोक में रहने वाला जो पापविशेष-तपशिलानप्रतियोगिताक अभाय । बहुवषिशेष स भभाष का पर्याप्तिमिम्मस्वरूपसम्मम्घ से प्रतियोगितावादक है, न की पानिलम्बन्ध से, अतः उस बहुत्व के आनयभूत पक आलोक के रहने पर भी उक्त अभाय सम्भव न होने से उस प्रकार के पक भालोकके रहते तमप्रतीनि की धापत्ति नहीं हो सकती।"-- या कल्पना भी उचित नहीं है, क्योकि बहुस्वरूप से मालोक की महानदशा में भो तम को प्रतीसि होता है, किन्तु उक्त मभाघ को तम मानने पर उक्त पशा में बहस हो सकेगी। इसके अतिरिक्त यह भी दोष है-उक्त भभाषके प्रतियोगितायस्क के विषय में इस प्रकार का विभिगमनाविरह होगा कि बटुव को प्रतियोगिताबावक माना जाय पा र मालोको को बिषय करने वाले मुशिविशेष को प्रतियोगितामहेवक माना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारूषपाचांसमुख्य-क र लो०० ___ न च छायायामतिव्याशिवारणाय 'स्वन्यूनर्सस्यपाद्यालोकसंपलने सतीति विशेषणदामाऽऽवश्यकस्यात्, तदानीं व पाशाकोकस्य स्वापिकसंख्यत्वाम्न दोष पति पाच्यम् । तषिमातिरिक्तामदिनश्चिमायालोकाभावानामेयाधिकस्यात्, तामरूपाऽअनिसन्धानेऽप्यन्धतमसत्यापनुभवाच । एतेन 'रूपस्वग्राहकतेमापतितस्तदवारतरविघोषणाकपावसासाऽभाशेचनमसम्, रूपत्वावान्तरमासिग्राहकतेजःसंवलिना प्रौदप्रकाश्यावसेजःसंसर्गाभावपळाया, यापदालोकामाचश्वाऽन्धसमसम्' इति निरस्लग | पानगर्भतयाऽवतमामादीनामचा पत्तमसमान, ताशमात्यसिद्ध्या तासम्शानविशेषरिचायितजासिविचोपविश्विद्यालोकनिशाइसम्भावाति विक्र । माय । पर्व को निमावि रुप * अपेक्षाशि से उत्पन्न बस्य का तथा किस पुरुष के पुअिधिशेष को प्रतियोगितायछेदक माना शाय? फलतः अनेक ग्यों से किया अनेक मियिझेब से भवच्छिम्नप्रतियोगिता के मिरूपक मनेक अभाव को संमोकप मागने में भर्भातगौरव होगा। 'तम पक अश्रय भभाष है, मधवा तमस्य एक सम्पर उचिसा मानने पर यषि उपर्युक्त वाष नहीं हो सकते, तथापि इस प्रकार की कल्पना करने पाले को का असरमा कठिन होगा कि अब नया समय में अखपता की ममता करनी है नय तम में व्यरूपता का स्वीकार करने में क्या नानि है? तम को अभावरूप मानने पर सरदोष पर है कि यदि भभाषक छोगा नो अभाव में तो उत्कर्ष-मपकर्ष की कल्पना को नहीं सकतीः तो फिर परफटतम 'मग्यतमल है और अपकप्त सम 'मयतमस' स प्रकारः समोमेव की कल्पना मक सकेगी महद्-भूत-मनभिभूतरूपषत् यापत् देश का भभाय 'बनगम' है और इस प्रकार के कतिपयतेज का प्रभाष 'अवतमाम इस प्रकार सम का विभाजन न्यायसंगत महीनो सकता, पोंकि पेसा मानने एक दिन में प्रकट मालोक के समय भी कतिपय तारतेम का अमाप होने से भवसमस के ग्यवहार की आपत्ति होगी। भिन्घतमसन्मयनमस के लक्षण की अनुपात यदि यह कहा जाय कि-"महत्व पर्व धुमत तथा मनभिभूलकप जिन मा में होता है उनमें से कतिपय तेज के प्रभाष को मषतमस माने पर छाया में अतिव्यानिका धारणा करने के लिये उस भभाव में उस ममाव से अथवा उसकप्रतियोगीले अस्पत. स्यक यालालोक संवला का निवेश करना होगा। सेवलम का अर्थ है पक देश मोर पक कालमें मशिनस्य । इस संघलन का निवेश करने पर मवनमल का स्वका पद बनेगा कि स्थकी भरक्षा अथवा स्वातियोगो की अपेक्षा भत्यसण्या बाबालक से क्षमामदेवारण और स्वसमानकालाव उभयसम्बन्धसे विशिष्ट भो कतिपय उत्तका सभाष भषसमस है| लक्षण का या स्वरूप होने पर छाया में मिपातिबोगी। पोंकि उसप्रकार के कतिपय तेज के जितने मभाष के रहने पर छापा का व्यवहार साखन समायोप्रथा उन सभायोकेशियोणिों से युनलायकवाखालोक Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा टीका पति... जि का संघलन छाया में नहीं होता कि मषिकसानपकासाह्यानोक कर संकलन होता है। अचसमस का यह लमग बिप्पान रोने पर दिन में प्राप शलोक के समय अषतमस की प्रसीत पवं उसके म्यवहार की आपसिनाती हो सकती। क्योंकि उस समय उपक्त प्रकार के नेमका जिसमा अमाच होता है उससे मधषा असो प्रतियोगि से भधिक सम्यक पायालोक दिन के प्रलोक के समय राता है। मत. पम उक्त समय में विमान उक्त प्रकार के तेजोऽभावों में उसकी अपेक्षा मथवा उसके प्रतियोगि को अपेक्षा म्यूमसाश्वयक वायाकोक का संपलम नही राता।" किन्तु यह कथन भी टीफ नही है । क्योंकि जिस दिन प्रकटालोक के समय अश्वनयस का भापावन करना है उस दिन केवल उस दिन केही कतिपय बायपालो का अमात्र नहीं है, अपितु उस विम से भिन्न अन्य भानगत दिनों के बाम मालोको का भी प्रमाण है। मता उस दिन जितने बाध्य पालोक का संपरुन उस मभाय मे है उनकी समस्या का प्रभावों अथवा उनके प्रतियोगियों से म्यून की। अतः अघसमस का प्रस्तुम-लक्षम स्वीकार करने पर भी हिनमें प्रकष्टालोक के समय मयतमास की प्रतीति भऔर उसने व्यवहार की भापति का परिहार नहीं हो सकता । और इसके अतिरिक्त दुसार योग याक यदि उक्त प्रकार के तलवतेय के प्रभाव को मन्नतमस आदि मामर जायला तो उस प्रकार के तलाशय की महानदशा में तसंडोभाय काबान न हो सकेगा । क्योंकि माशान में प्रतियोगिताघरकमकारक प्रतियोगिवान कारमा होता है। अतः उक कप की महादशा में तत्तेजोऽभाव का ज्ञान न हो सकने के कारण अग्नतमलत्व आदि प से भग्धकार के अनुभव की उपपत्ति गशम्य हो जापगा । सदोष तथा मप्रिम मोष के कारण इस रीति से भी भवताल गावि का लक्षण नहीं कर सकता कि... "रूपत्वमाइकोज से संघलित जो कपन्ययाध्यजाति के ग्राहक यावत्र का संसर्गाभाव बह अम्रतमल है। पर्व परवश्याप्यमासिक प्रारक तेज से संक्तिको प्रौढप्रकारकयाषनम का संसर्गाभाष पर छापा । तथा सपथग्राहक एवं पस्न्यायनातिपालक यावत्तेज का संसर्गाभाष अग्धतमस है।"-इन लक्षणों का भाघार यह मान्यता है कि कुछ सामान्यतेन इस प्रकार के होते हैं जिनसे पसामान्य का प्राण होता है किन्तु नीलरवपीसत्याविरूप में रूप का प्राण नहीं होता । मक तमल में घस्तु के रूपसामान्य का प्रत्यक्ष तो होता है किन्तु एस्तु की नोट-पीवि रूपता का प्रत्यक्ष नहीं होना एवं छाया में वस्तु की नील नीतादिरूपता का वर्शन होता है किन्तु घस्तु का प्रोद प्रकाश -मतिस्पट दर्शन नहीं होना । और अन्वतमान में षस्तु कपसामान्य काही प्रहण होता और न उसकी नोखपीसाविकपता का. ही प्रारपन होता, पर्ष न पहनु का ही चाक्षुष प्रत्यक्ष होता । परन्तु मयतमस आदि का यह निर्वचन भी दोषयुक्त नहीं है. क्योंकि जिस प्रकार के तेल के संसर्गाभाव का निवेश उक्त कक्षों में है उस उस तेग की अमानवशा में उसके अभाव का प्रण सम्भव न होने से अवतमसात्वादिकप से अन्धकार का प्रात्वंस म.हो सकेगा । पर्व उक्त लक्षणों में प्रतियोगिकी में धान का भी निवेश है और हाल बाभुष नहीं होता । म शानदिलप्रमियोगी के अचाक्षुष होमे सेमा Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ शास्ववात्तासमुन्धप-हताक ! कोक . किं च अत्यन्ताभावो तमस उत्पत्तिनाशादिप्रतोतोना ममत्वं स्यात् । न च 'आलोकसंसर्गाभावसमुदाय एवान्धकारः, तत्र राशिष्षिर किश्चित्समुदायिन्यतिरेकप्रयुक्त एव विनाश, एवझत्पत्तिप्रत्ययोऽप्यूयः' इति शशधरशर्मणो बचन रमणीयम्, रामिषु बहुत्वविशेषनाशोल्पावाभ्यां तदाश्रयनाशोत्पाट प्रतीत्युपपत्तावपि प्रकने तदयोगात्, समूहविलक्षणमहदेकोरपादापनुभवास्न । म च, एक नीला' इत्यानिधियो भमत्वं, तत्र 'नेदं नीलम्' इत्यादि साक्षात्कारे वस्तुस्वरूपस्यादृष्टविशेषस्य वा दोषस्य वा प्रतिषम्यकत्व, तत्राप्यप्रामाण्यग्रहामावविशिष्टतेप्रोभावत्वप्रकारकज्ञानादीनामुखजकत्वं कल्पनीयम्, प्रस्थतिगौरवम् । मी अचानुष होगा 1 मतः उपस जमाव को अपरमस मावि कप मानने पर का बानुषप्रत्यक्ष न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय नि- "वक्त समाज के प्रतियोगी का रूपन्यवान जमकत्व या रूपत्वम्या यजातिवामजानकायका से उक्त लक्षों में प्रवेश न कर इन विशेषजातियों के रूप में प्रपेश किया जायगा ओ आसियां उन तेजो में उन तेजों के भस्तित्वकाल में होने वाले रूपस्वप्रकारक पर्ष रुपयव्याम्पमासिमकारक प्रत्यक्षहान से बात होती है। भाशय यह है कि जिस तेज के सम्भिधाम में वास्तु के कपसामान्य काही प्रत्यक्ष होता है उस सेज में प्रेसी जाति मानी जायणीस जाति के द्वारा यह तेज धस्तु के रूपसामान्य का ही ग्राहक हो, पवं जिस तेज के सन्निधाम में वस्तु की नीलपीताविकपता का प्रत्यक्ष होता है उस सेज में पेसी काति मानी शायणो जिसके द्वारा तेज रूपत्वष्याप्यजाति का ही प्राहक हो । इस कातियों के रूप में तत्तसओं को मयसमसादिकप अमाय का प्रतियोगी मानने पर मघतमलादि के पावषप्रत्यक्ष की भनुपपत्ति न होगी क्योंकि मषतमसावि कप अभाव के प्रतियोगि-तेश वम जातियों के रूप में बाह्य होते है ।"-किन्तु यह धन टिक नहीं हो सकता । क्योंकि बिन तेलों से वस्तु की पीताविरूपता का प्रत्यक्ष होता है उनसे वस्तु के कपसामाग्य का भी प्रत्यक्ष होता ही है। इस प्रकार जिन तेको से सामान्य मनुष्य को वस्तु के रूपसामान्य काही प्राण होता है उस तेज से तीन नेत्रनिवाले मनुष्य की नीलपीनादिरूपता का भी प्राण होता है। अतः रूपप्राशक तेसो में पक रीतिसे झातिभेद की कापना अशक्य होने के कारण उनके आधार पर अवतमस आदि के कथित अमानुषत्व की भापति का परिहार असम्भव है। {'तमः उत्पन्न नाम वा' प्रतीति की मनुपपत्ति] तमको भालोक का अभ्याताभाष मानने पर एक दोष यह भी होगा कि 'तमः अत्यन, समो मधुम्' इस प्रकार सम की वत्पत्ति मादि को जो प्रोति होती पान हो सकेगी, क्योकि अत्यन्ताभाव के निरय होने से उसकी बरपति और उसका बिना मसम्भव है। इस पर भाधर शर्मा का यह कहना है कि-'भालोक का केवल भAT Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था १० टीका वहिक वि० यत्त 'तमसो नयस्वे प्रौद्यालोकमध्ये सर्वनो घनतरावरणे नमो न स्यात्, तेनोऽपगोन तत्र तमोऽवश्वानां प्रागनयस्थानाम. सर्वतस्तेराम पाऽन्यतोऽप्यागममाऽसम्भवान' इति वर्षमा नेनोक्तम् । तदसत् , 'यद् द्रव्यं यद्न्य साजन्यं वद तपादानोपादेयम्' इति कपातेस्तेजोऽभिरेव तत्राधिकारारम्भस्थीफारात् । न च तेजसस्तेमस पवारम्भकत्वादमुक्तमेतविति वामे, नियतारम्भनिरासादिति दिए । भाव ही तमनही मार मालोक के संसर्गाभाष का समुदाय तमदास समुशाप में मालोक का धंस मौर आलोक का प्रागभाष भी प्रदिए म समुदाय के पक्षक भावले की जारी दामे कर समुदाय उत्पान की और भालोकमायभाय का माश होने पर समुदाय के माश की प्रतीति ठीक उसी प्रकार. उपपम्म हो सकती है जैसे किसी राशि के फन में को उत्पत्ति, पबै कुछ अंश का नाश होने पर उस पशि की उत्पत्ति, और कुछ मश का नाश होने पर उस राशि को उत्पसि पोर इस गांव के माया की प्रतीति होती है।"-केतु विचार करने पर यह कहना भी उचित नौ प्रतीत होता, क्योकि ऋथ्य की राशि और अमाय के समुदाय में अन्तर है, ध्यराशि में से किसीप के राशि से अलग हो जाने पर राशिमतपूर्वबहुत्य का माश और राशि में किसी सजानीय नये अन्य शामिल होने पर नपे बन्द की उत्पत्ति होने से उस बहुग्ध के मre iशि में भी नाश एवं उम्पशि का व्यवहार नो हो सकता है, पर अभाव पव्य न होने से उस में बाघ को इासि आदि का सम्भव न होने से भभावसमुदाय में उम्पत्ति-विनाश फी प्रनीति का आपन शक्य नहीं है 1 दूसरी बात यह है कि तम के उत्पभि-विनाश की प्रतीति एक माम् व्यनि की उत्पति विनाश के रूप में अनुभूत होती है, जो समूह के पास घिनाश की प्रतीति सर्वथा विलक्षण है। नील तमा' प्रतीति में भ्रमरूपता की धापत्ति इसके अतिरिक्त तम के अभा त्रत्व पक्ष में यह भी गोप है कि तम को अभावरूप मानने पर उस में होने याली नीलप्रतीति को भ्रम मामना पडेगा, और मानीलमनोति के वारणार्थ भनीलसनीति में तम स्वरूपो . अरविशेष को या नीलनमानकदोष को प्रतिबन्धक मानना होगा. सम में से जो भायश्व फाक्षान रह पर और रस काम में अमा माण्य प्रान न रहने पर मनीलप्रतीति का प्रतिबन्ध नहीं होता, असा प्रसिवन्धक में मप्रामाण्यवानाभायषिशिवतेजोमाघयकारकशालाभाष को विशेषण Aा कर उस शान को प्रशियाधकता में उनका मानना पडेगा, जिसके कारण नम की अभावरूपसा का पस अस्थत गौरवग्रस्त बोस | वर्धमान उपाध्याय के मत का खंडन तम मुस्यत्वपक्ष में बगान उपाध्याय ने यह होप दिया है कि-"जिल प्रदेश में प्रौद भालोक फैला है, उस प्रदेश के मध्यभाग को चारों ओर से दुभंघ गापरणों द्वारा सम्पम्स घनरूप में बात कर देने पर यह साधकार हो जाता है, किन्तु अन्धकार यदि वष्यरूप होगा, तो वहाँ से अत्यलाभ हो सकेगा, क्योकि भाषण के पूर्व अस पा. वा. . Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रमा समुल्लाप-पतयक { प्रयोक . पत्र तमसोऽभावर गतिमस्य-परत्याउपरत्ययि मागादिप्रत्ययानामध्यनुपपत्तिः । न च स्वाभाविकातेराश्रयगल्यनुविधाननियमानुपपसिा, पारागप्रभायो सयादर्शनात कुवयायावरणभरे तन्नियमभङ्गस्य च प्रमायामिव छायावावपि तुल्यत्वात् । तदिदशकम् "तमः खल चलं नीलं परापषिमागवत् । प्रवद्रम्पधम्याद भषभ्यो भेसुमईति" । इति । 'तमो द्रष्पं, वरनरनिकरलहरीप्रभृतिशब्दैठयपदिश्यमानत्वान, फिरपारदिवत्' इत्यपि वदन्ति । स्थान में तेज के अवयव भरे थे, अतः उस समय यहां तम के अवयवों का होगा सम्भव 1. और आचरण के बाद आवरणरी कारणा प्रयखा आपरमार बात और असयों केही व्याप्त कारण से भी हम के मंखयका उस स्थल में पहुँचमा सम्भय नही फलनतम के अषयों का अभाव होने से उस स्थान में तम की उत्पत्ति सम्मय है।" विचार करने पर यह बोष सिद्ध नही होता, क्योंकि उक स्थान में जिस आलोक का वंस होने से तम की बात होती है उस मालोक के मवयवों से ही तम की पत्ति माग सको है। पह मामला भसंगस भी नहीं है क्योंकि जो व्य जिस इयर यल से उत्पन्न होता है यह उस वस्तवण्य के उपादान कारणों से ही उत्पन्न होता है, यह ध्या, सतनावी होती है यह नियम है, मन सेज के तेजोरूप मययों से तेज के विरोधी तम की उत्पत्ति नहीं हो सकती'-या शंका नहीं की जा सकती क्योकि पकजातीय से अन्यमासीय का आरम्भ नहीं होता या सजातीय से तामातीय का हो प्रारम्भ होता है. इस प्रकार का नियतारम्भ प्रमाण के अभाव में अमाग्य है प्रत्युत अग्नि के सम्पर्क से काष्ठ आदि म्यमों का दाह होने पर सम्मन के भारम्भक पृथिवी परमाणुषों से नये अग्नि की उत्पत्ति पचं भनि बुझने पर. उसके भारम्भक तेजपरमाणुमों से पार्थिव भस्म की उत्पत्ति होने में उस नियम का भङ्ग हो जाता है। [मक्रियावादप्रतोति को अनुपपत्ति] तम को अभावका मामने पर उस में गति, परत्वाऽपरस्य, विभाग भादि की प्रतीति भी उत्पन्न न हो सकेगी । करने का गाशय यह है कि भालोक दूर होने पर 'तम मागतम, पये भालोक का मन्निधान होने पर तमो गसम्' इस प्रकार तम में गति की प्रतीति होती है। "तमः पर --तमो दुर-नमः श्रपर तमो निकटम्' इस प्रकार तम में वैशिक परस्वणपरत्व की प्रतीप्ति होती है। एच 'वं समः तस्मातमसा पर -ज्येष्ठम, सत् तमःमस्मासमस पार-कनिष्ठं,'पस प्रकार तम में कालिक परव-मरत्व की भोप्रतीति होती है। 'तमः अस्मात स्थाना विभक्त स्थानान्तरेण च संयुकाम्' इस प्रकार तम में स्थाविशेष से विभाग की मार स्थानविशेष से सयोग की प्रतीति होती है, पर सम पषि अभावी होगा तो उस में गति-कर्म-परत्व मादि गुण न होने से उक्त प्रतीतियों की अनुपपति होगी । अतः व्यरूप मानना ही उचित है। १. रस्माकंगवारिया वितीयपरिच्छेदे भरत्नप्रभावकागिना गम | Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० क० ठोका पहि० बि० 'नामालोकः किन्त्वन्धकारः' इति व्यवहारादष्या कामावाद भिन्नं तमः नात्र घटः किन्तु तदभावः' इतिषद् विवरणपता विनाऽपि स्वारसिकप्रयोगदर्शनात्, अपकटाळोकप्यन्धकारव्यवहाराच्च । अत एव उत्कृष्टालोका भावोऽन्धकार' इति चेत् ! न तदुम्कर्षप्रतियोग्यपकर्षशालितयैव तमसि द्रव्यत्वसिद्धेः । २३५ www प्रगति का अनुविधान बन्यच में बाधक नहीं है ] यदि यह कि - "तथ को दूव्य मान कर उस में स्वभाषिक गति मानने पर उसकी गति में भय की गति का अनुविधान होने का नियम टूट जायगा ।" तो यह टीक नहीं है, क्योंकि पथराग मणि की प्रभा में स्वाभाविक गति होने पर भी उसको गति में पद्मरा रूप आश्रय की गति का अनुविधान देखा जाता है इसलिये राम में स्वाभाविक गति मानने पर भी उसकी गति में आशय की गति के अनुविधान की उपपत्ति हो जाती। दीवार आदि भावरण का भ होने पर समय गतिहीन होने पर भी तम का प्रसार देखने से तम्र की गति में गाय की गति का अनुविधान न होने से उक्त नियम की अनुपपत्ति की शंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह शंका पद्मराग की मभा की गति के सम्बन्ध में भी समान है, पद्मराग की प्रभा भावरण का भंग होने पर पद्मराग के स्थिर रहते भी आगे और फैलती है अतः उक्त नियम को इस रूप में मान्यता देनी होगी कि मासित में स्वतन्त्ररूप से गति का उत्पादक न होने पर याति को गति आश्रय की गति का अनुविधान करती है, और यह प्रभा और छाया दोनों में समानरूप से मश्रुण्ण है। ये वासे 'समः खलु चलं०' इत्यादि कारिका में इस प्रकार वर्णित है कि तम गतिशील एवं नील है, घट परत्व अपरस्य और विभाग का आश्रय है, साथ श्री पृथिवी आदि फलन्त नम्र प्रयों से भिन्न है, अतः उसे अतिरिक्त दशम त्रभ्य के रूप में स्वीकार करना आवश्यक है । श्री रत्नप्रभसूर आदि जैन विज्ञानों का यह भी मत है कि 'घनतर' समः तमो निक तमो लहरी' इस रूप में व्यवहार होने के कारण भी तभ में यर श्री सत्ता ठीक उसी मकार स्वीकार करनी चाहिये, जैसे उसी कारण से फिरण आदि में दध्यस्थ की सा मानी जाती है । व्यवहार विशेष से अन्धकार में भाछोकाभावाभिन्नत्व की सिद्धि] 'यहाँ भालोक नहीं है किन्तु अन्धकार है इस व्यवहार से भी 'तम भालोकामा से भिन्न है, यह बात सिद्ध होतो है क्योंकि 'नाथ घर। किन्तु तत्रभाय यह घट नहीं है किन्तु उस का अभाव है इस व्यवहार में जिस प्रकार उत्तरभाग से पूर्व भाग कर विवरण अभिप्रेत होता है, उस प्रकार 'भावालोका किन्तु अन्धकारः इस व्यवहार में उत्तरभाग से पूर्व भाग का विवरण मभिप्रेत न होने पर भी घर व्यवहार होता है। अतः इस व्यवहार से अधकार की raiकाभाव भिन्नता निधिवार है । उसी प्रकार अपकृष्ट आलोक रहने पर भी अन्धकार का जो व्यवहार होता है उस मे भी अन्धकार आलोकाभाथ रूप नहीं है यह सिद्ध होना है, क्योंकि यदि मन्धकार आलोकाभावरुण होगा तो अपकर भालोक के समय मालोकाभाष न रहने से अन्धकार की प्रतीदिन Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श शास्त्रषात्तासमुच्चय-स्सबक लो0 0 "तमा तेजः]प्रतियोगिफाभावेनैर [तेजो तमोज्यवहारः, तत्र तत्तेनोमान प्रतिबन्धकम्" इति शेषानन्तवचनं त्वत्यनादरणीयं स्पष्टगौरवान, पवर्तव्यज्ञाने सति सत्या वेच्छायां व्यसारेऽधिकानपेक्षणाच्येति दिक् । ___प्राभारास्तु - तेजोमानाभाव एव तमा, 'नीलं तम' इति धीस्तु स्मृतनीलिम्ना हो सकेगी। 'उस्कृष्ट आलोक का भभाव सन्धकार है' यह भी नहीं कहा जा सकता क्यों कि अन्धकार के प्रतिरूपों भालोक को उत्कृष्ट कहने पर अबकार उस की उपेक्षा अवश्य ही अपकर होगा, और मय वह अपए होगा तब उसकी अपकृष्टता से ही उस में अध्याय की सिजि अनिवार्य हो जायगी क्योंकि उत्कर्ष सजातीय में ही माम्य होता है। पानी का कहना है कि मम्मतियोगिक अमाव ही सम है. मालोकयान् देरा में स्किचिस् सेम का अभाव होने पर भी तम का व्यवहार इसलिये नही ताकि सतत् ते काबान तय के व्यवहार का प्रतियम्धक है'- किन्तु इस पक्ष में तमोग्यषहार में विभिन्न तेज के शान का पृथक् पृथाह प्रतिबन्धक मानने के कारण भतिगौरव स्पर रहने से यह पक्ष क्याम्य है । दुसरी बात यह है कि व्यवहतेय का शान और व्यवहार को इच्छा रहम पर ध्यत्रहार होने में किसी अन्य की अपेक्षा नहीं होती भस: तेसोयुक्त स्थान में अब तेजामियोगिकंगमावरूप सम का गान और तमोप्यवहार की बलातय तमोग्यवहार में किसा अन्य के भक्षणोय नहाने से तसस्नेश के जानाभाष को भी अपेक्षा किये मिना तम का व्यवहार होमा को बाहय । पर उक्त व्यवहार न होता, मतः तम को दृश्य पथ तसत्तेमासरपकाल में उसका अलख माम कर तेजोयुवा देश में तमोग्यवहार का धारण करना ही उचित है। [आलोकज्ञानाभाव ही तम है प्रभाकरमत] प्रभाकर के अनुयायियों का कहमा है कि तेजोवाम का प्रभाव हो नम है। इसका भाशय यह है कि मिस स्थान में मनुष्य को आलोक नहीं पीता, पहां वा तम का उपहार करता है, इससे सिद्ध होता है कि आलोकदर्शन का भायनी तम। भालोकर्शनाभाय का अर्थ है--स्थीयमालोकनिधभकारतामिपितविशेष्यता, एवं पी. समालोकठियहोयसानिमितभायत्मसम्वन्धानकारता-जन टोमा समय में किसी भी सम्बन्ध से दर्शन का ग होना, गर्धास् उक विशेष्मता उक्त प्रकारता-पताम्यसरसम्बन्धाग्छिन्नप्रतियोगिताकदर्शनामाव । मिस देश में 'आलोकवान अये देश' इस मंकार मालोक का दर्शन होगा, उस देश में उक्त विशेष्यतासम्बन्ध सेवाम रहेगा क्योंकि उक्तदर्शन में भालोक प्रकार भोर देश पिक्षिय, अतः उक्त पिपतालम्बन्ध में 'स्व' शब्द से उका र्शन को लेने पर उक्त दर्शन स्थायालोकनिष्ठम कारतानिक पितषिशेषतासम्बाध से देश में रहेगा और जब नेश में 'अव देहो थालोकः' इस प्रकार मालोकदर्शन होगा, तप यह दर्शन उक्त प्रकारतासम्बन्ध से देश में रहेगा, क्योंकि इस छन में मालोक विशेष्य है और देश उसमें आधेपक्षासम्बन्ध से प्रकार है, अतः एक प्रकारतासम्बन्ध में 'स्व' शाद से इस दर्शन को लेने पर यह दर्शन देश में उक्त प्रकारतासम्पन्ध से रहेगा, जिस देश में अब उक्त दर्शनों में कोई भी वर्गम रहेगा, तब Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टोका - वि० MINI.. AAMV २३७ सममानने फज्ञानामात्रस्याऽसंग्रहात् । अत एव आलो [क]काद् गर्भगृहं प्रविशतः प्रथममालकाय नीलं तमः' इति श्रीः । तदुक्तम् अप्रतीतादेव प्रतोतिश्रमो मन्दानाम्' इय्यः । तदप्यसत् 'तमः पश्यामि' इति प्रतीत्या तमश्वानुषात् ज्ञानाभावस्थ चामात्वात् निमीलितनयनस्य न न तमःप्रतीतिरस्ति किन्त्वर्थान्तिरप्रतीतिरेव अन्यथा 'गेहे तमोऽस्ति ना " इति संशयानुपपतेः । गर्भ च नमः प्रत्ययो अप पत्र, आछेाकज्ञानप्रतिबन्धको मस्य तत्र स्वीकारावश्यकत्वादिति दिक | , उस देश में उस विशेष्यता वयं उक्तप्रकारता दोनों हो सम्बन्धों से कामाव रहेगा, वैसी ही स्थिति में वां नमःप्रतीति पत्र तमोव्यवहार होगा । प्राभाकरों का कहना है कि "म के आलोकदर्शनाभावरूप होने पर भी नीलिमा के स्मरण एवं उक्त दर्शनाभाव के साथ नीलिमा के असंसर्ग के अज्ञान से उक्त अभायरूप राम में 'रामो मील" इस व्यवहार को उपपत्ति हो सकती है। अब मनुष्य पार के तेज आलोक से गृह के भीतर प्रवेश करता है तो सहसा उसे यह स्थित शास्त्र आदर्शका दर्शन नहीं होता और वह सर में बाद पडता है 'अत्र अन्धकारः यहां तो है। इस व्यहार से भी यही सिद्ध होता है कि आलोकदर्शन मात्र ही तम है अन्य यदि मालोकाभाव तम होता तो आलोक सो वहाँ हे डी. फिर आकास का कैसे हो सकता था। यदि घर मध्यरूप होता तब भी भलोक से गृह में प्रवेश करने पर ना ही उसका ठीक उसी प्रकार न होता जैसे यहां स्थित अन्य दस्यों का कालदर्शन नहीं होता। इस प्रकार आलोकदर्शनाभाव को नम मानने में युति की अनुकूलता का दे कर प्रभाकरानुयायां कहते हैं कि जो लोग शाळांकहित स्थान में नम की प्रतीति स्थी कार करते हैं ये मधुद्धि है क्योंकि वे मालोक की अपनीति को ही तम की मनील माम कैसे हैं । | प्रभाकरमत का निरसन विचार करने पर प्राभाकरों का यह मत सीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि 'तमः पश्यामि' इस अनुभव अनुरोध से हम का चाषमत्यक्ष माना जाता है, किन्तु नम यत्रि आलोकदर्शनाभावरूप दोना तो दर्शन के बभ्रुम न होने से आलोकदर्शनाभावरूप राम का भी जन्य ज्ञान न हो सकेगा, फलतः 'नमः पश्यामि' इस सर्वसम्मत अनुभव की उपपत्ति न हो सकेगी। यदि केन्द्र कर लेने पर भी राम की प्रतांति होती है भातम का मात्य अमान्य है'' यह ठीक नहीं है, क्योंकि अब करने पर तम की प्रतीति का शीना प्रामाणिक नहीं है भध्या आंख म्य करने पर भी पवि रूम की प्रतीति मानी जायगी, तो आँख बन्द कर घर में जाने वाले को 'ते नमः अस्मि घर में अन्यान इस प्रकार अधिकार का सन्देद न होगा क्योंकि आफ रहने पर भी उसे नम का ग्राम हो सकता है । अब प्रश्न हरु जाना है कि यदि आलोकमा म नहीं है किन्तु आका भाव तम है, गधा नम एक अतिरिक्त द्रव्य है. तब आलोक से युद्ध में जाने परम Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ शास्त्रधार्तासमुच्चय-इतबक १ प्रलो ७७ कन्दली कारस्तु 'आरोपित नील रूपं तम' इत्याह । तन्न, नोमीद्रव्योपरक्तेषु यस्त्रचर्मादिपु तमोत्ययहारप्रसङ्गत. 'गणे शुक्रादयः पंसि (म. को०१-५-१७) इत्यनुशासनेन भूमादिपदजन्यमूकसायश्चिान्नमुखयविशेण्यताकशाब्दबोधे पुलिझकाक्वादिषदशक्तिशानजन्योपस्थितेतृत्वेन 'नीलस्तम' इति प्रयोगप्रसङ्गाख । न चात्र नोछस्य तमोविशेषणत्वमेव, अनुक्कलिङ्गविशेषगपराना प विशेष्यालिबनाया औत्सर्गिकत्वात् नीलपवे लोवत्वमिति वायम्; नोलस्य सामान्धतया विशेष्यवान्. विशेषणविशेष्पभाषे कामचाभिधानस्य परस्परभ्यभिचारितदयविषयत्वादिति दिक। की प्रतीनि कैसे होगा ? क्योंकि वह शान्त गालोक रहने से आलोक विरोधी तम का अस्तिष मही हो सकता ।' इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वहां जो तम की प्रताति होती है वह भ्रम है । क्योंकि शालोक के ससे भी जा रहां आलोक का शत रही होना है उसके अनुरोध से भालोकदशेन का कोई न कोई प्रतिबन्धक मानना ही होगा. फिर जो आलोकवर्णन का प्रतिबन्धक लोगा यही नम के भ्रम का जनक दोष हो जायगा । मतः उपर्युक्त कारणों से भालेोकदर्शनाभाय को तम मानना उचित नही है। [आरोगतमलरूप हो तम है-मन्दलो कारमत] न्यायकन्दलाकार श्रीकण्ठ का कहना है कि भारोपित नीरूप ही नम है। उनका आशय यह है कि जहा थालोक महों होता, वहा मौलिमा की प्रतीति होती है, यह सार्वजनीन मनुभष है, असा शालोकशम्य वेश में प्रतीयमान इस नीलरूप को ही सम मान लेना चाहिये उससे अतिरिक्त जम की कल्पना अनावश्यक है, नीलकममात्र को तम मानमे पर आलोक शम्य सानील देश में सम की प्रतीति न हो सोपी, कोकि यहाँ वास्तविक नीलकप नहीं है, अतः भारोषित नीलकप को नम कहा गया है। अनील देश में भी आलोकाभाव के समय नीलरूप का मारोप होने से यहां भी भारोपित मोलरूप सुलम हो जाने से स पक्ष में वहाँ तमापतीति की अनुपपति नही हो सकती।" [कन्दलीकारमत का खंडन] विचार करने पर यह कथन भी ठीक नहीं पता, क्योकि आरोपित नीलरूप को तम मानने पर मोली मुख्य से संसट आलोकस्थ वस्त्र, धर्म गाधि में भी नीलकप का भारोप होने से उस पशा में भालोकस्थ वस्त्र आदि में भी तम को प्रतीति होने लगेगी। इसके अतिरिक भी एक दोष है, वह यह कि आरोपित नीलहर को तम मानने पर 'नीले नमः'केवरले 'नीकस्तमः' या प्रयोग होने लगेगा, क्योंकि इस पाश्य में नील शार गुपरक एवं मुख्य विशेष्य का धावक है. और अमरकोश का यह अनुशासन कि "गुणे शुषलावयः पुसि गुणिलिङ्गास्तु तहनि-शुपापरक शुक्ल आदि सम्म पुलिस होते है और गुणायपरकोने पर गुणाय के पोधक सन्निहित शम्य के समालिक होते है तथा इस अनुशासन के आधार पर या कार्यकारणभाष कि शुक्ल मानि पषो से होने वाले शुक्ला व गुण को मुवषिशेष्य के रूप में विषय करने वाले हामपोध के प्रति पुस्लिा गुल्ल मावि बान के शक्तिवान से उत्पन्न होने वाली गुलादिगुण Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३५ स्या. ६० टीका र हि. वि. 'नीलाऽऽरोपविनिष्टसोजसंसर्गामास्तम' इति शिवदित्यः । तदपि न, नीला. कप अर्थ की उपस्थिति कारण होती है, अतः नीलामक अर्थ जब पुलिक मील पम्प से उपस्थित न होगा तब तक उस में तमापवा का शाबोध भी न हो सकेगा, इसलिये पुस शानयाध के विहार्य नीलस्तमः इस प्रयोग का मौखिस्य कवीकार करना मावश्यक बाजायगा। न तमः' प्रयोग में नीलपद विशेष्यवाचक है। ____ यह कई कि-"उक्त प्रयोग की भापति तो नीलरूप को वियोण्य मोर सम को विशेषण मानने पर होती है, अतः पेसा न मानकर तम को विशेष्य और नील को उसका विशेषण मान लेना चाहिए । पेसा मान लेने पर उक्त प्रयोग की भापति नही हो सकती क्योंकि जिन विशेषणपदों में विशेष अनुशासन द्वारा मियालगता का निर्धारण नहीं होता ये उत्सरी से विशेष्यवारकाव के समानसिक होते है पेसा नियम है इसलिये प्रकत में विशेष्यवान्त्रक समापन के नपुंसक होने से विशेषणधायक नीलपत्र भी नपुंसक ही होगा । अतः 'नीलस्त: योग युक्त मनोकर पलंगा" ही प्रयोग होगा ।" तो यह टीक नना है, क्योंकि नीलसामान्य का अभिधायक होने से नील पद की विशेव्यपरक पानना ही अमित है। माशय यह है कि विशेषण यह होता है जो व्यवच्छेदक हो और विरोध पर होता है जो व्य य हो ।' सामाग्य का विशेषद्वारा व्यवचकेव होना ही स्वाभाविक है। नीमपदार्य बहुषित्र, तम अगमें एक है, अतः तमकर विशेष से नोलकपसामाग्य का स्यबहेव करने के लिए नौल को विशेष्य और तम को विशेषण मामना ही उचित है। यदि यह कहें कि-"विशेय-विशेषणमाष के सम्बन्ध में शास्त्रों में म्यमकानुसरण माना गया है, अतः जिम पदार्थों में बामेव प्रतिगदनीय हो उनमें दानुसार किसी को भी विशेष्य और किसी को भी विशेषण माना जा सकता है। इस स्थिति में अब नील को विशेषण माना जायगा तब तो भील तमः' यह प्रयोग ठोक है पर जब भील को विशेष्य माना जायगा तब 'नीलस्लम इस प्रयोग की भापति होगी-तो यह ठीक नहीं है, कि विशेषय-विशेषणमाथ में कामधार को बहो मान्यता है ! विशेष्य-विशेषजका में प्रतिपादनीय अर्थ एक दुसरे के व्यभियागी होते है-जैले 'पण्वितजनः' और जैनपचिता' पण्डित अनेतर पण्डित में जैन का पर्ष जैम परिहतेतर जैग में पण्डित का व्यभिचानी है अतः इमामों में विशेषण-विशेष्यमात्र वक्ता की इच्छा पर आधारित है। किन्तु प्रशस में अमोल नम के न होने से मम नोल गाभिमारी नहीं है। मतः पहा सामान्यका होने से नील का विशेष्यता और विशेषरूप होने से नील को विशेष णताही उचित है। शिवादित्यकृत तमोलमण का निम्मन] शिवादिस्य का कहना है कि 'नीसारोप से घिशिर तेशर्ससांभाष नम । भाण्य पह कि-"अभिजीलासेप को ही तम कहा जायगा तो नीलीदव्य के संपर्श से मालो स्थ वस्त्रावि में भी मीलरूप का भारोप कौमे ले उसमें भी तम का व्यवहार प्रसक होगा और यदि कंवल तेजसमभाव को तम कहा जापगा तो भाकीक Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ............ शास्त्रवातासमुच्चय-इतबक र लो० ७८ रोषाधग्रहेऽपि तमस्त्वप्रहात्, ताशतमस्त्यावरिकन्नधर्मिकनीलारोपाऽयोगापन इति अधिकं शदमालायाम् । इमा गिरं समाकये सकर्णा बाहुलीमिव उद्वमन्त मुर्श ध्वान्तेऽत्राऽभावस्वभ्रम विषम् ॥1 मस्मान्न जायने किविवेकान्तान्न च नवपति प्रसिद्ध निखिसायीनां लक्षप हि लक्षणम् ॥२॥ ॥७७॥ उपसहरन्नार एवं चैतन्यमानात्मा, सिवः सततभावतः । परलोक्यपि वितेयो युक्तमार्गानुमाभिः ||७८॥ एवमुक्तयुक्त्या, चनन्यवान ज्ञानोपादानम, मामा पारीरभिन्नः, मिमः । में भी तेजासंसर्गाभाव होने से उसमें भी सम का प्यषधार होने लगेगा। पता नीलपारोपििशष्टतेजासंसर्गाभाव ही समई, मीलो दृष्टय से संस्तु आलोकस्य वस्त्रादि में जासंसर्गाभाव न होने से पर्व आलोक में नीलरूपासेप न होने से उक्त मोष नहीं हो सकते ।" .|कन्तु यह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि नीलोप का हान न रहने पर भी तमको प्रतीति होनो है, पर यदि उसे तम के स्वरूप में प्रविध कर दिया जाएगा तब उसकी मानवशा में नम की प्रतीति न हो सकेगी। दूसरा दोष कि इस मत में 'नीनं नमः इस प्रकार समः पदार्थ में मीसप का मारोपमो सकेगा, क्योंकि तम पवार्थ के (जारिका शारीर में नीत्वरूप पहले से ही प्रविष्ट है भल। उसमें नीलरूप का आरोग निरर्थक है। नमके यारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिये प्याक्याकार ने 'बदमाला नायक स्वनिर्मिन प्रस्थ देखने हो सिफारिस की है। दो निमित पद्य में पायथाकार कहते है कि सम की आभाषरूपमा के निरा. करणार्य प्रयुक कीये गमे वचन को सुनकर सभाषामतमोयादियों का अन्धकार में भमावत्य के भ्रमरूप विप का ठीक उसी प्रकार वमन कर देना पहिये जैसे विषय के विषहरणामन्त्र की वाणी को सुन कर साप से इसे मनुष्य माप के विध का मन कर देता है। [अन्धकारद्रव्यमान समाप्त उपर्युक युक्तियों से यह सिख किन किसी घम्नु की अपूर्व उत्पत्ति होती है और किसी घस्तु का भात्यातक नाश होता है, किन्तु उत्पा-व्यय-धौष्य इन सीनों से समेख युस देना भी सभी पदार्थों लक्षण है। मात्ममिद्धि का उपसंहार मात्मा के सम्बन्ध में अब तक किये गये सभी षिवारों का कारिका ७८ में उपर्स हार कर रहे उक्त मुकियों से यह सिद्ध है कि हाम का उपादाम शरीर से भिगा है. और यही -ग नाहमाला का प्रलाकार प्रकाशन स्तृत FIT नफा है निगमें 'अन्धका मन्त्रमा मी विस्तार से दिया है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्मा का टोका पहि.जि. मतभावतः अनादिनिधनत्वात, परलोक्यपि युक्तमागानुसारिभिः: उपपतिसहिताऽऽगमातुहोनातिभिः विज्ञेयः । आपत्रारीरधर्माणामन्यवहितपर्ववर्तिचैप्रक्षरीरधर्मानुविधायित्वात् पुत्रशरीरे तया दर्शनाद, अनुगतकाणशरीरासदपा तापभागाश्रयस्य परकरसिद्धे। । न च पटे घटनन्यत्वस्येव शरीरे शरीरजन्यत्तस्पाऽपि न नियम इति वाच्यम्, आत्मनः क्रियायवेन बेधारूपनरिफयानियामकशरीरत्वस्याऽऽधशरीरहेनुर्मणि सी. कारादिति ||७८॥ अनाइ पर सतोऽस्य किं घटस्येव प्रत्यक्षेण न दर्शनम् ! मत्स्येव दर्शनं स्पष्टमईप्रत्ययवेदनात् ॥७९॥ भारमा है। सतत विद्यमान होने से अर्थात् अम्मा और मविनाशी होने से यह परखक मामी भी होता है। इसकी परलोकमामिता युक्तियों से विभूषित आगमशास्त्री से सब पत होती है। माशय यह है कि -'किसी नवोत्पन्न शरीर में जो धर्म सर्वतः प्रपम उपलक्षित होते । वे लस शरीर के निष्टतमपूर्षयन्तिशरीर के धर्मों से ही उत्पन्न होते हैं यह नियम क्षेत्रादि के कुमारावस्था के शरीर के अनन्तर उत्पन्न होने वाले उसके युवकारीर में होने से सभी शारीरों के विषय में मान्य है। अतः इस नियम के भनुलार यह मानना जरूरी है कि मनुष्य का सम्मसमय बी शरीर प्राप्त हुआ है उसके पूर्व भी हाई उसका शरीर अवश्य होगा जिसके धर्मों से जामकाल में उसे प्राप्त नये शरीर में प्राथमिकधी की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार मनुष्य के नये सन्म से पूर्व जो उसका शरीर सिता है उसे जन परिभाषा में कार्मण शरीर कहा जाता है। कार्मण शरीर का स्वरूप है कर्मरूप में परिणत पुनल(परमाणु)वष्यों का समूह । प्रत्येक जीव अनादिकाल से इस शरीर संतति से तब तक बैंधा रखता है जब तक इसे मोक्ष प्राप्त नहीं देता । इस कामगशरीर से उत्पन्न होने वाले मागका आश्रय देने से ही आरमा परलोकमामी होता। यदि को कि-'असे घट में पटजन्यस्य का नियम नहीं है उसी प्रकार शरीर में शरीरज का भी निपम मही, भतः मनुष्य के नवजात (ओवारिकापल शरीरखे उसके कामेषशरीर की सिधि नहीं हो सकती-ई मह उचित नहीं, क्योकि मषज्ञात स्थल शरीर से पूर्ष यदि कोई शरीर नहीं माना जायगा तो मशरीर होने से मामा में यह किया दी उत्पन्न होगी जिसके द्वारा पा मावी नूतन स्थूल शरीर को बना सके। फलतापमान शरीर मिरात्मक होने से गिरको जायगा। अतः जिस श्रीवकर्म से इस शरीर का काम होता है उसे इस शरीर में जीवस्थिति के अनुरुल जीर्षाकया का सम्पापा घरीर मानना आवश्यक है। [मात्मा का प्रत्यक्षदर्शन क्यों नहीं हासा !] कारिका ७२. में मास्मा के विषय पठाये गये पक और प्रम का समाधम किया गया है । मम यह है-'मारमा पदि शरीर से भिन्न पक भावात्मक वस्तु पटके या. था. १ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वधासमुच्चय-स्तवक १ श्लोर सहा- मावरूपस्याऽऽत्मनः सतः, घटस्येव प्रत्यक्षेण वर्षने कि न भवति । तथा पानुपलायाऽभाव एष तस्येस्याशयः। तमानुपलघिरेय नास्तीति समाधते-पष्ट अप्रत्ययस्य वेदनात अनुभासदत्वाद अस्स्येव दर्शनम् । न नेदं न प्रत्यक्षमिति वाच्यम्. व्याप्त्यादिप्रतिसंधाननिरहेऽपि 'मायमानस्यान, आनमत्यविशिल्यायोग्याने माध्याऽप्रसिदयाऽनमानासम्भवाच्च । एतेन 'तपाऽस्मा तानन प्रत्तातो न गृह्यते' इति न्यायभायोकामपास्तम् | नु यधवमात्मा प्रत्यक्ष:, फर्थ त िनत्र शरीराऽभेदबुद्धि, धर्मिस्वरूपस्य शरीभेवस्याऽपि प्रहात् इति चेत् ? न, धर्ना न्तर्भाषेन बग्रदेऽपि शरीरभेदाकारफारामावाद तदभेदबुद्ध्युपपंचः इति नानुपलायाऽऽत्माभायनिश्चयः । न म नक्षुराभनुपलक्ष्या सदमाता, वारयादेप्यभावप्रसङ्गान्, न घानुपाधिमात्रया भात्रसाधकत्वम्, अन्यथा स्वगृहाद निर्गतो वराकमा को न हमासादयेत्, पुत्रासमान उसका प्रत्यक्षदर्शन क्यों नहों होता ! प्रत्यक्षदर्शन न होने से यही सिद्ध होता है कि शरीर से भिन्न भान्मा का ममाय है कि अभाष का माहक प्रमाण अनुपलब्धि नीरा मारमाऽमाय के लिये सुलभ है। इस प्रश्न का 'बनमाधान या दिपाकभामा समुपलाच नाही , अति 'महंत्यय'='मामा का प्रत्यक्ष पर्शम' 'मरमात्मान आमामि'-इस प्रकार अनुमतिम है। 'अपत्यय प्रत्यक्षरूप नहीं है इस शहा को मवकाय नहीं है क्योंकि याति आदि का नाम न रहने पर भी अप्रत्यय की उत्पत्ति होती है। दूसरी बात यह है कि प्रत्याशिष्ठ को प्रत्यक्ष के अयोग्य माना जायगा तो भास्मायविकिप साध्य की मसिदि होने से अनुमान आदि से भी आत्मा की सिसि ग हो सकेगा। इसी लिये न्यायभाष्य का यह कथन भी असंगत है कि मात्मा का प्रायस नहीं होता। अब प्रश्न पड होता है कि-"दि आत्मा प्रत्यक्षता निश्चय ही उसमें विद्यमान शोरमेन भी प्रत्यक्ष क्योंकि आत्मगन रोर मेद मान्मा से भिन्न नहीं, मोर जब शरीर भिन्न मारमा प्रत्यशसिद्ध है तो उसमें 'भाई गौर' 'भद स्युला' इत्यादिकप में शरीरभेद की पुजा कसे होगी-सका यह उत्तर है कि भारमगर भेद भास्मरूप होने से आत्मचमी के रूप में भवश्य गृहीत है। परमात्मधर्म के रूप में भास्मवि शेषणतया गुहीम नही है । अत: आत्ममिक शरीरभवनमारक बाघसुदिन होने से वामा में शरीरामेन की बुद्धि होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । माना यह स्प कि आत्मा की अनुपलब्धि सिम न होने से भनुपलभि द्वारा प्रारमा के मभाष की सिद्धि होगा मशक्य है। | अनुपलब्धिमात्र अभाचमाघक नही है। __ "चक्षुः मावि से मात्मा की उपलब्धि न होने से भागा का अभाष सिस होगा"-यर नहीं कहा जा सकता, क्योंकि एक इन्द्रिय या गन्य प्रमाण से उसको सप. Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपा १० का बि. पि. २५३. विभिस्तबष्टया तदभावसिद्ध, प्रत्युत पुनधनाप्रभावापधारणाकछोकविकलो बहु विक्री शेन्, तदा पुत्रादिसच्चे चानुपालन्यभिचाराद् नार्थाभाबसाधकम् । अथ सन्निकटेऽधिकरणे पुत्रायत्यन्ताभावग्रद्देऽपि तदवसाग्रहाद् न शोक इति वेत् ? तथापि पूधाधुपलम्भहेतुचक्षुराधनपलम्भेन तदभावान पुत्राधनपलम्भेन परावृत्तस्य तस्प सूढता स्यात् । तदिवमुक्तम् तद् निर्गको पूलो पदारईशि" इति । भय चक्षुरादिसंभावनामच्चाद् न तदनुपलब्ध्या तदभावसिरिनि चेत् १ तात्मनोऽपि सम्भावनासवाद न तदनुपालभ्या नवभावसिद्धिरिति परिभाबनीयम् ॥७९|| लब्धि न होने से उसका प्रभाव माना जायगा, तो प्रायु आदि का भी अभाध हो भागमा पयोंकि स्वश इन्द्रिय से अथवा साशा विलिंगा रनुमान से उसकी सिद्धिदौमे पर मी बश्च से उसकी भनुपरग्धि है। दूसरी बात यह है कि अंकली अनुपलब्धिको अर्थाभाव का साधक भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि यदि अनुपलधि अकेली आर्य के प्रभार की सधक होगी नो घर से बाहर गना चाकि अपने घर में वापस न लौट नका, क्योंकि गृह में विद्यमान पुत्रदिवारा बाहुः गये धार्याक की पसचिन देने से उस मभाध सिद्ध हो जायगा । फिर जब पा होगा ही नहीं त घर पापाल कमे लोट लकेमा.. इसी प्रकार माहर ममे भाषाक को गृह में स्थिति पुत्राधि की उपाधि न होने से पुरादि का सभाम सिज हो जायगा, अत: पाक को पुषादि के शोक से विकल हो रोमे को विवश होना पडेगा। और यदि यह माने गे कि पुत्रादि की उक रीति से अनु पलब्धि होने पर भी पुदि रचनाबी, उसका अभाष सिद्ध नहीं होता तो यभिचार होने से भनुपलब्धि को म भाव की साधकता सिद्ध न हो सकेगी। ____ यदि यह कई कि-"दिर्शन पाक को समिकच स्थान में पुनि के भयन्ताभाव का की शान होता है, उसके ध्वंस का काम नहीं होना, अतः उसे छोक से विकल हो रोने का प्रसा नहीं हो सकता" तो वह ठीक नहीं है कि उसोप का परिहार आने पर भी यक दोष अपरिहार्य होगा कि पुत्रादि-प्रत्यक्ष के जनक चक्षु आदि की मनुपलरिय से चक्षु आदि का प्रभाय सिद्ध हो जाने से पुत्रादि की उपलब्धि न होने के कारण घर पर लौटे चार्वाक को पुत्रादि-मार्शम कमिनमोह का शिकार होना पडेगा, इन सय कारणों से चार्वाक का घर को पापस लौट सकना सम्भव न होगा, जैसा कि कहा गया है'अनुपलब्धिमान संभाष का मादक होने पर घर से बाहर गये भाषोक का घर को वापस लौटना सम्भव न हो सकेगा" | यदि कहे ... जिस धम्तु की सम्भावना नहों होती चली की अनुपलब्धि पके अभाष पा गाधक होती है. यह नियम दिः पशु दि के मस्तित्व की सम्भावना है अतः अनु गाय को अनुपनि से वक्षु भावि का अभाव सिहोने से उपदीय नहीं हो सकना" - सावन गामवास के अनुकूल नहीं क्योंकि बान्मा के भो अस्तित्व को सम्माषना होने से मात्मा की अनुपलाग्ध से थाम्मा के अभाव की सिधि महीं हो सकती ॥७९॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ शास्त्रषाससिमुल्याए सरकार ठो० ८० उक्तप्रत्ययो न प्रमा, इत्यामरते . . भ्रान्तोऽहं गुरुरिष्येष सत्यमन्यस्त्वसौ मतः । व्यभिचारित्वतो नास्प गमकावमयोभ्यते ।।८०॥ 'आई गुरु' इत्येष प्रत्ययो प्रान्ता गुरुत्वाऽनाश्रयेनत्यवत्पात्मनि गुरुत्वावगानात् । यद्यपि घटस्यैव कदाचित् भ्रमविषयत्वेयात्मनो नानुपपत्तिः, तथापि तत्मस्पयाडमाचे प्रमाणानाशास्वादसतम्यातियानत्वेनाऽलीकत्वमस्येत्यभिमानः । तप्रोग्यते-सत्यम्, उक्तप्रत्ययो भ्रान्त एव तु पुन:, स्मो-अमारूपोशम्पत्यय: अभ्यः 'भाई गुरु।' इत्यायतिरिक्ता 'अहं माने पर मुखी' इत्यादिरूपः, मतः अङ्गीकृता । भयास्प अहम्प्रत्ययजनकोपयोगस्य, व्यभिचारित्वतो-भ्रमजनकत्वात गमकरय-प्रमाणत्वं नेति-उभ्यते ।।८०|| कारिका.८० में महमश्यय को भ्रम पताकर उसे माम्मा की सिसि से प्रतिफल बतापा गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है (प्रत्यय में भ्रम की साशंका) "महम्मत्यय को गामा के अस्तित्व में साक्षी नहीं माना जा सकता । 'मई गुरुः' पर मामस्यय गुबरम के अनाथय अहम आरमा में गुरुत्वको विषय करने से भ्रम, मोर भ्रम से विषय की सिसि नहीं मानी जानी । इस पर यह शंका की जा सकती है कदाषित फिमा भ्रम का विषय घटोने पर भी उसका अस्तित्थ भनुपपन्न मही होता, उसी प्रकार भवं गुमस बम का विषय आमा होने पर भी मारमा का मस्तिस्व अनुपपा सही हो सकता, अतः उसे भ्रम का विषय बसाना व्यर्थ "-तो इसका उत्तर पहहै कि मईप्रत्यय ही मान्मा का प्राहक होता है, फिर जब षही भम हो गया, सब भात्मा का प्राइक कोई अन्य यथार्थ प्रत्यय होने से उसे असत्यपानि से माम माममा होगा, फलतः पह असम्पयासि से प्राहा आकाशी पुण शादि के समान महीक (मिथ्या) हो जायगा, मतः गात्मा के मलीकत्व का मागदा होने से 'माई गुमः' इस मतीति को श्रम बताना अनात्मवादी राशि से अत्यन्त सापक है।" इसके उत्तर में मलकार का कहना है कि यह सच है कि 'मह गुषः' यह प्रतीति अम है, किन्तु इससे मिल भी माम्प्रत्यय ६ जो पधार्य होने से भामा के अस्तित्व में लाक्षी हो सकता है, पा, महमर्थ आत्मा में हान-मुख आधिको प्रहण करने पाशा जाने, म सुत्री' प्रत्यादि प्रत्यय । ये प्रत्यय यथार्प इस लिये है कि हम में हामाधि के आभय भात्मा में सामादि का मान होता है। इनमें किसी धर्म का स्वशून्य में भाग नहीं होता, अतः ये प्रत्यय आत्मा में प्रमाण हो सकते है। यदि को कि-मई गुवा' स भ्रम का जनक होने से महम्मस्यय के उत्पावक उपयोग में मायग्यभिचार तो सिसीनाता, फिर कौम कह सकता है कि वस उपयोग से उत्पन्न होने वाले पूसरे म प्रत्यय आम न होकर यथा बी होगे, अतः अन्य अहंप्राययों में भी प्रमस्थ की शंका होने से अप्रत्यय को भासा का साक्षी काला ठीक नहीं है तो इसका सर अगछी कारिका से स्पष्ट करते हैं ॥८॥ E Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० डीका हिं.वि मृष्यम् - प्रत्यक्षस्यापि तत्याज्यं तसद्भावाऽविशेषतः । 1 प्रत्यश्चाऽऽमासमम्यभ्येषु व्यभिचारि न साधु तत् ॥ ८१ ॥ तर्हि रथस्यापि चक्षुरादेरपि तत्सद्भावाऽविशेषतः अमजनकत्वाऽविशेषात् तत् प्रमाणस्वं त्याज्यम् । अथ प्रत्यक्षामा द्विचन्द्रादिप्ररपक्षं म्यभिचारि विसंशदिव्यमदारमनस् अन्यत् सत्यादिप्रत्यभिन्नवत् साधु प्रमारूपं न । तथा च न अमाजनकत्वशण प्रामाण्यमभिमतं किन्तु प्रमाजनकत्वं तच घटादिप्रमाजननाद व मित्याशय इति चेत् 1 !!१॥ मूलम् - आहप्रत्ययपक्षेऽपि ननु सर्वमिदं समम् । २७५ अतस्तदसौ मुषः सम्यक् प्रत्यक्षमिष्यताम् ॥ ८२ ॥ 'नु' इत्याक्षेपे, इदं सर्व प्राक्प्रकटितमाकृतम् अहम्प्रत्ययपक्षेऽपि समम् असत्याप्रत्ययपरित्यागेन सत्यापत्ययमादाय प्रमाणत्वाविरोधात् दुष्टाऽदुष्टकारणजन्यत्वेन प्रत्ययवैविध्यात् । अतः प्रमाणवाद्यत्वाद् नालीकत्वमात्मनः, किन्तु पारमार्थिकत्वमिति [प्रत्यय सप्रमाण है ] पूर्व कारिका ८० में कहाये गये मन का कि-'भ्रम का जनक होने से प्रत्य के जनक उपयोग को प्रामाण्य न हो सकेगा इस कारिका में यह उत्तर दिया गया हैअम्मायक उपयोग को कचित् भ्रम का जनक होने से यदि अप्रमाण माना जायगा, तो वमादि प्रत्यक्षप्रमाण के भी प्रमाणत्व की हानि हो जायगी, क्योंकि अादि से भी काचित् भ्रम का जन्म होता ही है, किन्तु उन्हें अप्रमाण नहीं माना जाता मतः अप्रमाण का भारी होने से आमजन से अपस्थय के शम उपयोग में अप म्हणत्य का भाषादान नहीं हो सकता। यदि वह कहें कि "विबन्ध आदि को ग्रहण करने वाला प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास है, भर्थव्यभिचारी होने से विसंवादिनी प्रवृति का जनक है। es सत्य घटादि का अवमान करने वाले यथार्थ प्रत्यक्ष से भिन्न है, अतः वह पमाण रूप नहीं है। कहने का अशाय यह है कि चक्षु आदि में यदि भ्रमाजनकस्वरूप प्रमामात्य सिद्ध करना होता तो कयाचित् भ्रम का जनक होने से उस में अमाज मकत्वरूप प्रामाण्य की हानि अवश्य होती, किन्तु उसमें उक्त प्रामाण्य की नहीं, अपितु प्रमाणन कररूपप्र माण्य की स्थापना करनी है अतः कदाचित् भ्रम का जनक होने पर भी काचित् प्रमा का भी जनक होने से उस में अभिमत प्रामाण्य की हानि नहीं हो सकती" - तो इस का भी उत्तर अनि कारिका (८९) से प्राप्त करना चाहिये ॥८॥ ( प्रत्यय के प्रामाण्य का समर्थन ] चक्षुवाद से अन्य जन्य सदस्य के विषय में जो कुछ कहा गया है पहल प्रत्यय के विषय में भी समान है, अशा जिस प्रकार असत्य घटप्रत्यय को छोड Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्यासोसमुभय-सागक र लोक० ८३ व्यञ्जयति । अतः उक्तसाम्यान, तहत् सत्यघटप्रत्ययवत् , म भो 'अहं नामे इत्यादिप्रत्ययः, मुख्यः सयवहारजनका सम्यक् प्रत्यक्ष प्रल्पालप्रमाणरूप ण्यताम् अङ्गीक्रियताम् ॥८२|| ननु 'भई मामे स्पादिनस्पयस्य न प्रान्तत्त्वम्, 'आई गुरु' ति प्रत्ययस्य ष भ्रान्तत्वम्, इत्यत्र किं विनिगमकम् ? इत्यत माह - मूलम्-- गुर्वा में समुश्त्यिादौ मेदप्रत्ययदर्शनात् । भ्रान्त साऽभिमतस्यैवास्य युक्ता नेतरस्य तु ||८३ | मुवाँ गुरुत्वासी, मे-अम, यादौ प्रयोः दादा समस्येप : स्वया बाधत्वेनाङ्गीकृतस्यैव, अस्य 'रई गुरुः' इतिप्रत्ययस्प, भ्रान्सता युक्ता, तु कर सत्य घटप्रत्यथ का मन होने से पनु मादि में प्रमाणरय की उपपत्ति होती है, जसी प्रकार - गुरुः' इस गमत्य अप्रत्यग को छोटकर 'मह माने त्यादि सत्य मह प्रत्यय का जनक होने से अप्रत्यग के उपायक उपयोग में भी प्रमाणाप की उपास की जा सकती है, क्योंकि कुष्ट कारण पर्व अपुष्ट कारण से उत्पन्न होने के नाने असत्य भ्रम और साय अमाप में ज्ञान का विम सर्वसम्मन है, इसलिये उति से मारमा में प्रमाणप्राशाब सम्भव होने से बान्मा में भलीकन्ध का प्रसंग नहीं हो सकता । उपर्युक्त रोति से प्रत्यय में घटप्रत्यय का साम्य होने से सस्यवस-प्रय के समान 'मह जाने त्यातिप्रत्यय भी अपने विषय में साध्यवहार का जनक, अर्थात जैसे घटप्रत्यय थे यथार्थ होने से उसके विषय घर में घट सम्' या व्यवहार होता है, उसी प्रकार 'महं जाने' इत्यादि मत्यप के भी यथार्थ होने से इस प्रत्यय के विषय मात्मा में मारमा सम्' इस प्रकार का व्यवहार हो सकता है। इस लिये पाई जाने' इत्यादि रूप में होने वाले म प्रत्यय को सम्यक सम्यक्ष पमाणभूतप्रत्यक्षरूप भागने में कोई बाधा नाही, से प्रसारमा प्रत्यक्ष के रूप में स्पीकत किया जा सकता है ।।८२॥ 'भई जाने' स्यादिप्रत्यय अमरूप नहीं है और 'मई मुमः यह प्रत्यय अमरूप, पस में क्या विनिगमको कारिका ८३ से इस प्रश्न का लत्तर दिया गया है ['अहं गुरु: हम ज्ञान की प्रतिरूपता में मुक्ति 'मम तनुः गुवी-मेग शरीर मुमत्व का आश्रय है' इस प्रयोग में मनमानी अस्मद् राम के उतर. 'मम' शबघटक पाठीविभनि से गुरुत्वाय शरीर में माहमर्ष भात्माका मेस्सा है। अतः शारीरभिन्न भात्मा के बाघकरूप में मनामवादी द्वारा प्रस्तुत किये गये भर गुरुः' इस प्रत्यय को दी भ्रमरूपता उचित है, क्योंकि यह प्रत्यय गुरुत्वाश्रय में हमर्थ के अमेव को विषय करने से गुरुत्वाश्रय में आम के मेन को विषय करने पाले 'मम तनुः गुर्थी' इस प्रत्यय ले बाधित है । 'मह' नामे' इत्यादिमत्यपों को भ्रमकाता को मानी जा सकती, क्योंकि ये प्रत्यय किसी विपरीतविषयकप्रत्यय से माभित नहीं है। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टोबा fo पुनः, ताम्प या जाने इस्यादिप्रत्ययस्य, तत्र बाध काऽनवतारात् । 'भत्र पष्टया पद्यपि सम्माचमर्थः, तथापि तस्या भेदनियतत्वेन शगेरेजस्वयमेवस्य पामपोषोमरमाक्षेपण थत्वेन ममिन्नविषेनोक्तायवेव पधिकरण प्रकारचलभपाश्रमस्वग्रहः' इति वदन्ति । 'भेदविशिष्टः सम्पन्ध एव पाचर्थ, 'राहो। भिर' इत्यादौ तु धाधाद भेदशिस्त्यज्यते', इत्यन्ये । पर्याप 'ममात्मा' इत्यावापि पाटीप्रगोगो रज्यते, सथापि गुरुत्वादावेवाइम्स्यव्पधिकरणत्वम्, अन्यत्र स्लुप्तत्वात, इदन्त्वसंवलिताप, न हुमानादावित्यत्र नात्परम् ।।८३॥ पाविभक्ति का अर्थ केवलसम्बन्ध या मेदांवशिष्ट सम्बन्ध] सम्म सन्दर्भ में यह मात्रम्य कि 'मम ननुः गुर्षी इस प्रयोग में 'मम' शायघटक पक्षी का अर्थ केवल गमवाय है पनी के अर्थ में एक पाये नही है। मनः पठी से शरीर में शामर्थ के मेड़ को पनीत नहीं हो सकता किन्तु 'पा जिस सम्बन्ध का बोधन करती है यह सम्बन भेनियत है। अतः पो से गुरुवानय शरीर में महम के सम्बन्ध का ज्ञान होने के बाद आनुमान द्वारा गुरुवाश्रय में अहमर्थ के मेव का शाप होता है | अनुमाम का भाकार यह होता है, 'गुरुत्यवती तनुः सहमभिगना, अामर्ष सम्परिचयात् सन्तश्री गपुस्ता घन् । इस कानमामिक मेरमशीनि से गुरुत्व में अहमयातनवृत्तियरुप अन्त्वयधिकरण का ज्ञान होने से मन गुरुर' इल प्रतीति में अहम्पयधिरजगुरुयप्रकारका का बान होता है । यह हमवण्यधिकरणमुकत्य प्रकारकत्व दो अहमर्थ में मयप्रकार कश्रमाय है। इस प्रकार उक्त पति से मप सतुः गु:' इस प्रयोग के द्वारा 'k गुवः' इस प्रनीति में अमन्य का राम सम्पम्म होता है। किसो प्रतानि में अन्यमनोति द्वारा प्रमत्य का ज्ञान होगा की भाग्य प्रतीति से उस प्रतीति का पाथ कहा जाना है बाधित प्रतीति दी भ्रान्त प्रतीनि मानो जाती है। ___ अन्य लोगों का तो यह कहना है कि ' मे गसम्बन्ध' हो षष्ठी का अर्थ है, मनः बड़ी से मेर का शास्दयोध ही हो जाता है। राहो शिरः' में मेव का पाय होने से सम्माध मात्र में पानी की लक्षणा हो जाती है। यति मात्माशि पाचक गारमाशद के सन्निधान में मकान में उत्तर षष्ठी का प्रयोग कर मलबत्ता 'मम धात्माम प्रकार का प्रयोग किया जाता है। मिर भी इस प्रयोग द्वारा मारमत्व को बाहर का व्यधिकरण नहीं माना जाना, किन्नु 'मन तनुः गुर्श स प्रयोग के द्वारा गुरुम्ब को भारमत्व का ग्यधिकरण माना जाता है। पर इस लिये कि गुरुत्व प्रामभन्नशरीर आदि में सिख है, ना पद गुरु' पविण्यवहार के अनुरोध से गुरुत्वावि पायधर्म इतन्त्र का समानाधिकरण , पर मामत्व महमर्थ से भिग्न में न तो सिखनी है, और इवत्व का समानाधिकरण है | Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ शास्त्राच्यस्व १०८३ नवयमप्रत्ययों न प्रत्यक्षः इन्द्रियत्वेनेन्द्रिय नन्यज्ञानस्यैव प्रत्यक्षत्वात् अत वात्मापि मत्यक्षस्यव्यपदेशकमा प्रत्यक्षज्ञानविषयतयैव विषयस्य प्रत्यक्षश्वपदेशात् । 'स्पातिरिक्तानं विनाऽप्यपरोक्षत्वेन प्रतिभासनात्प्रत्यक्ष आत्मेति चेतू ! [प्रत्ययो में विस्तृत पशंका पूर्वपक्ष " मन होता है कि प्रत्यय को प्रत्यक्षरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि जिस ज्ञान के प्रति इन्द्रिय इन्द्रियत्वरूप से कारण होती है, वही ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, अर्थात् इन्द्रियत्वाचिन इन्द्रियनिष्ठजन कता निरूपित जम्यतावसानथ ही पश्पक्ष का लक्षण है। लक्षण में इन्द्रियाभ्यजनकता का निवेश भावश्यक है, क्योंकि केवल इन्द्रियमिष्ठजनकानिपितजन्यतावानत्व को मत्यक्ष का लक्षण मानने पर सामा के मनोजन्य होने से अनुमिति आदि में प्रत्यक्ष लक्षण की मतिभ्याप्ति होगी। जनकता मैं इन्द्रियानिवेश के बाद शिवेश मेवल परिक्या होता है मन को शानमात्र में कारणना मनस्वरूप से होती है, इन्द्रियन्यरूप से नहीं होनी, गतः इयानकता का निवेश करने पर उक्त तिष्या नहीं हो सकती । * अनुमित्यादि को मनस्त्येन मनोज मानने पर उसमें मानसत्य की होगी पद का उचित नहीं है क्योंकि मनोजन्यस्य अर्थ में मानव ही हैं, हाँ, अनि है प्रापरव्यायमान सत्ष तो उसको आप नहीं हो सकती, क्योंकि उसका नियामक मनोज नहीं है, किन्तु मगः सन्निकर्षयत्व है, अनुमित्यादि मनःकर्मभ्य नहीं होता, अतः उसमें प्रत्यक्षत्वव्याप्यमानमत्य की पति नहीं हो सकती । यद्यपि चमादि इन्द्रियां बानुषादि के प्रति चक्षुष्षादिकर ले तो कारण होती है, अतः उन्हें इन्द्रियरूप से प्रत्यक्ष के प्रति कारण मानने में आपाततः मन्दीविस्य प्रतीत होता है, तथापि विशेषयोः कार्यकारणभावः स तत्सामान्ययोरपि-जिन विशेष धर्मों द्वारा कार्यकारणभाव होता है. उन धर्मों के व्यापक धर्मों द्वारा भी कार्य कारण मात्र होता है इस नियम के अनुरोध से चाक्षुषत्वादि और पशुपाविरूप से कार्यकारणभाव होने पर पान के व्यापक अभ्यप्रत्यक्षत्व और त्राहि के व्यापक रूप से भी कार्यकारणभाव की सिद्धि होती है। इसके अतिरिक दूसरा नियम यह भी है कि 'जो धर्म कार्यमात्रवृति होता है वह यही कारणप्रयोज्य होता है इस नियम के अनुरोध से भी अन्यत्यक्ष के प्रति इन्द्रियत्वेन द्रिय में कार जता की सिद्धि होती है. अन्यथा चानुवस्यादि के वमादिभ्धरण से नियश्य होने पर भी जन्यप्रत्यक्षस्य किस से विषय न हो सकेगा हो तो अब पच्छि पितायवान् कान श्री प्रत्यक्ष होता है, तब अहं प्रत्यय उक्त जग्यता से शुन्य होने के कारण प्रत्यक्ष कप कैसे होगा ? और अब तक प्रत्यय प्रत्यक्षरूप नहीं होगा भो आमा भी प्रत्यक्ष कैसे कहा जा सकेगा ? क्योंकि विषय तो प्रत्यक्ष ज्ञान का विषय होने से ही प्रत्यक्ष शब्द से व्यपदिष्ट होता है । यदि कहें कि 'जैसे प्रत्यक्षाम के विषय को प्रत्यक्ष कहा जाता है मकार मो Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका ०वि० " किं तत् ? स्वप्रतीतौ व्यापारी वा विद्रूपस्य सत्ता वा नाथः कर्मणीव स्वात्मनि व्यापारानुपलम्भात् । न द्वितीयः, स्वतः प्रकाषायोगात् । अत एव न स्वसंविदितज्ञानत्वेनापि तथात्यम् सदसिद्धे, सिद्धौ षा प्रमाणान्तरप्रसङ्गात् 1 अथ सर्वशान्दानां 'घटम जानामि' इत्याकारत्वात् प्रत्यक्षेणैव स्वविषयत्वसिद्धिरिति चेत् न तत्र ज्ञानेऽपि स्वस्थ ज्ञानविषयत्वाऽग्रहात् स्वस्य स्त्राविषयत्वेन स्वविषयsav, अन्यथा 'चटज्ञानमानवशन्' इत्याकारप्रसङ्गात् 1 २४९ वभिन्न कान के विना भी अपरोक्षरूप से भालित होना है उसे भी प्रत्यक्ष कहा जाता है आत्मा इस दूसरे प्रकार के ही प्रत्यक्ष से व्यपदिष्ट होता है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि 'स्पभिन्नान के विना भी अपरोक्षतया प्रतिभासित दोने का निर्वाचन नहीं हो सकता; जैसे वह 'स्व की प्रोन वर्ष 'चित्र में तू दोना' यह उसका अर्थ है इस में पहले अर्थ का स्वीकार नहीं किया जा Rent क्योंकि ज्ञान के अन्य कर्म घटादि में जैसे ज्ञानानुकूल इन्द्रियसन्निकर्षादिरूप व्यापार प्रमाणिक है, इस प्रकार माध्मा में हाल कोई व्यापार प्रामाणिक (प्रमाणसिद्ध) नहीं है। दूसरे अर्थ को भी नहीं स्वीकार किया जा सकता क्योंकि आत्मा चि में सत् हूँ इस बात की सिद्धि भी प्रमाणसापेक्ष है, भतः प्रमाणात होने से स्वप्रकाशता की सिद्धि असम्भव है । !ज्ञान की स्वप्रकाशता का खंडन - पूर्वपक्ष ] यदि कि- 'स्वसंविदित ज्ञान का विषय होने से आत्मा को प्रत्यक्ष माना जा सकता है मीठीक नहीं है, क्योंकि स्वसंचिदिन स्वप्रकाश ज्ञानमसि है, और यदि शाम को शानारवेध मामले में अमवस्था आदि के कारण स्वयित्रित ज्ञान सि भी होगा, तो यही आत्मा का प्राइक अम्य प्रमाण होगा, मतः उससे माथ यत्मा को चाहे और कुछ कहा जाय, पर उसके द्वारा उसकी प्रत्यक्षता की उपपत्ति नहीं की जा सकती । यदि यह कहें कि "प्रत्येक काम किया स्वस्वरूप, कर्म-विषय और कर्ता स्वाथ्य इस त्रिपुटी का हक है। इसलिये समस्त ज्ञान 'घटम जानामि' इत्यादि आकार में ही उत्पन्न होते हैं जनः 'ठम ज्ञानामि' इस प्रत्यक्षज्ञान का विषय होने से हम आत्मा भी प्रत्यक्ष हो सकता है" तो टीक नहीं है, क्योंकि 'ज्ञानामि इस ज्ञान से घट तो ज्ञानविभ्यता का ग्रहण होता है, पर ज्ञान या भारमा में ज्ञानवियता का भरण नहीं होता है। इससे रूप होता है कि ज्ञान स्वयं तथा उसका आश्रय ये दोनों उसका विषय नहीं है इसलिये उक्त धान में घर के सम्मान ज्ञान एवं आत्मा में भी ज्ञानविपता का मान नहीं होता। यदि घट के समान ही ज्ञान पयं व्यमा भो ज्ञान के विषय होते तोशाम का उक्त आकार न होकर 'घटामतदाथ यज्ञामधान महम्' यह आकार होना किन्तु यह आकार नहीं होता, अतः 'प्रत्येक हाम त्रिपुटीविषयक होता है। यह कथन नप्रामाणिक है । था. की. ३२ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ५.. . ..... ... शास्त्रवासिनुवष-स्तवक र मो० ८३ किं च 'घटमई जानामि' इति ज्ञाने क्रियायाः कृतया समशायित्वलक्षणभारममा फत्वं, परसमवेतक्रियाफलशालिव करणव्यापारविषयत्न वा विषयस्य कर्मत्वम्, धात्वर्थस्वं कृतिजन्यत्वं वा ज्ञानस्य क्रियात्वमयोग्यत्याद न भासत इति न वाइसत्रिपुटीप्रत्यक्षात स्वसंविदितत्वसिदिः, अन्यथा घट चक्षुपा पक्ष्यामि' इति व्यवहारात करणविषयत्वमपि सिध्येद । किं च अहिषयफत्वेनैव शानस्य प्रवर्तकत्यम्, न तु स्वविषयत्वेनापि, गौरवात् । तथा च 'अर्थमात्रविश्यक एवं व्यवसायः' इत्यभ्युपगमः श्रेयान् । अपि च 'अहमिदं जानामि इत्यत्रेदन्यविशिष्टज्ञानवैशिष्ट्यमात्मनि भासते, न च स्वप्रकाशे तदुपपत्तिः, ज्ञानस्य पूर्वमशातत्वेन प्रकारवानुपपत्तेः । न भाभावत्याभानेऽप्य. त्रिपुट प्रत्यक्ष से स्वप्नकारत्व की सिद्धि दाशक्य] दूसरी बात यह है कि 'घरमहं जानामि इस यनुसन्य बाग में अहमध में कर्तृत्व, घट में कर्मत्र और शान में क्रियात्व का भान हो भी नहीं सकता, क्योंकि फियासमपायित्व प्रथया कतिसमधायियही कतृत्त्य है. पर्व परसमयेनियाजन्म्यफल शालित्य अश्यया फरण व्यापारविषयस्य धी कमरख है मथा धावन्य गथया कृतिजन्यत्य ही क्रियान्य है और यह सब उक्त नाम के समक बन के अयोग्य है । अमः प्रत्यक्ष में कर्ता, कर्म और क्रिपा, इस त्रिपुटी की पगालफसा सिाद न होने से निपुटीविषयकयक्ष से कान में स्वसंधिदितत्व की निधि को आशा नुराशा मात्र है। और यदि 'घठमई मानामि' इस ग्यपहार के अनुरोध से घमान में विषयकन्व और क्रियाविषयकाष की कल्पना करेंगे तो 'घटं पानुषा पक्ष्यामि' सञ्चबहार के अनुरोध से पटमाम में पाविषयकाव भी मिज होमे से सच को भी घटदिशाक्षुष का विषय मानना पड़ेगा। जमके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि विपर्याधशेष में जाना को प्रवृत्त करना तथा विषयविशेष से माता को निवृत्त करना ही पान का प्रयोजन है। अतः जिस वस्तु को जान का विषय माने विमा इस प्रयोजन की सिजिद न हो उसे ही ज्ञान का विपय मानना चित है। पंसी वस्तु फेयल हातव्य अर्थ ही होता है. शान-शाना या प्राग का साधन महों होता । अतः अले बाम का साधम वन आदि को पान फा विषय मानना भ्यर्थ होता है । उसी प्रकार माम या ज्ञाता को भी ज्ञान का विषय मानता व्यर्थ प्रत्युत पसा मानने में निमायोजन गौरवमान है। अत: व्यवसाय शानसामनी मे सम्निधान के अनन्तर उत्पन्न होने पाला पहला ज्ञान अर्थमात्र यवराक ही दोता ६ या मत ही श्रेष्ठ है। यह भी शाशय है कि अमित जानामि' इस शान में अहम आत्मा में प्रत्यथिशिविषयकलाम के वैशिया भास होता, किन्तु ज्ञान यदि स्वप्रकाश होगा तो श्योपत्ति के पूर्ष भास होने से स्य में पारविष्या भासित न हो सकेगा क्योंकि तामकारक शान में तविषयक शाम कारण होता है, अनः 'घटमर जानामि' इस बानप्रकारकहानपूर्व हान का शान आवश्यक जी मान के स्वप्रकाशवपक्ष में उन शाम के पूर्व दुर्घट है, क्योंकि उल पक्ष में वह मान ही शान का पता लान । यदि यह को वि-समावस्य Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ रूपा कसोफा. यदि वि. . भास्वविशिष्टयोधात सत्र भ्यभिचारयारणाय स्वप्तमानवित्तिवेद्यभिमविशेषणशानत्वेन विधिपृयुद्धी हेसुस्वाद न दोष इति भाग्यम्. पद्धि येन बिना न भासते तत्-तसमानविनिवेधम्-तद्ग्रहसामग्रोनियतसामग्रीकरवमित्यर्थः न च सामाऽभाने भात्माऽभानमित्यस्ति, तदमानेऽपि 'अई सुखी' इति भानस्य सर्वसिद्धन्वात् । अपि च, प्रत्यक्षविषयतायामिन्द्रियसन्निकर्षस्य नियामकत्वान् कथं तदनाश्रयस्य स्वस्य प्रत्यक्षल्बम् ? कथं वा प्रत्यक्षाऽजनकस्य प्रत्यक्षविषयत्वम् । प्रत्यक्षविषयतायास्तुन का काम पूर्य में न रखने पर भी अमानविशिए का बोध होता है मतः उक्त गोष में तत्प्रकारक शान के प्रति नविषयकशान को कारणना में कामिनार हो जाता है, इसलिये इस भिनार के पारणार्थ विशिशान में इसी विशेषण फैजान को कारण मामा माताजी विशेष्य का नुस्यवित्तिवेध न हो | घरी विपोषण विशेष्य का तुल्यवित्तिवेद्य होता झिसके भाग के विना विशेष्य का भान न हो, अर्थात जिस विशेषण के मान की सामग्री विशेषनाशकसामनी की नियध्यापक हो । घर के भान के बिना भी भूतल का भान होने में घटनाहकलामन्त्री भूभालनाटकमापसी की मियत मी है, प्रतः घड भूतल का मुन्यपिनियन नहीं है इस लिये पटनान प्रायशिरभूतल के शान का कारण होता है। अमावस्या के भान के धिना प्रभाव का भान नहीं होता, अतः अमापर प्राहकसामग्री अभाषाहकलामन्त्री की नियत है, इमलिये सावध भमाच का तुरुपवित्तिवेच अनः अभावस्वतार अभावयपिशिनाभाय के मानका कारण नालों होता, भारमा का भी मान शानमान के बिना नहीं होना । अतः माननाहकलामन्त्री पाश्मनादकलामग्री की नियम होने से ज्ञान भी आमा का तुल्यषित पेय है, इसलिये शामान भी ज्ञानविशिष्ट आमा के पान में कारण न होगा, फलतः पूर्व में शाम के अज्ञात होने पर भी भानप्रफारक मारमयिशेयक 'घटम सानामि' इस शानके कोने में कोई पाधा नहीं हो सकी" नो यह नीक नहीं . क्योंकि ज्ञान भाम के यिना भी 'भाई सुखी' पस रूपमें मास्मा का भान होने से शामभान के बिना आत्मा का भान नहीं होता' या धन सिद्ध है। अतः साननाशकसामग्री आत्मन्नादफसामग्री की नियत - होने से ज्ञान मारमा का तुष्यचित्तिय नहीं हो सकता, इसलिये मानविभिआरमशान में बानज्ञान की कारणता शमिघाय होने से मान के स्वयकाशस्य पक्ष में उसके बुर होने के कारण उस पभ में 'घटमाई जानामि' इस शान की उपसि का असम्भय है। इन्द्रियसनकर्ष फे अमात्र में ज्ञान प्रमश से ?? शाम को यमाहा मानमें के विरुद्ध पक बात यह भी है कि-'इन्द्रिय समिकर्ष प्रत्यक्षषिषयता का नियामक होता है, घोर शाम में चक्षु भादि का सन्निकर्ष नही होता, अतः उसमें चाभुषादि शान की विग्यता सम्मघ महोने से घर पठामि के समान प्रश्पक्ष कैसे हो सकता है" दुसरी बात पर कि-घर के साथ यश्च का सन्निकर्ष होने पर उत्पन्न होने वाले प्रत्यक्ष के प्रति व यशामकान तो जमक होता नहीं, फिर पा उस प्रत्यक्ष का बिग्य कैसे हो सकेगा। क्योंकि प्रत्यक्षविषयना प्रत्यक्ष Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ शास्त्रवासिमुबाय-सबक लो० ८३ . उजनकत्वन्यात्वाम् । न च संस्कार-हत्यापनमतचाची म्यभिवारा, अनागतगोचरसाक्षात्कारमनप्रस्वासश्यजन्यप्रत्यक्षविषयतावास्थास्वाव, वस्तुतो लौकिफप्रत्यक्षविषयवाया। प्रत्यक्षजनकत्वन्यासत्यात्, तदजनके स्वस्मिन् सौफिकसाक्षात्कारविषयवान स्थाविधि जनकता को न्याय है अतः प्रत्यक्षजानकतारूप पापक के प्रभाव से प्रत्यक्षविषयताप पाप्य के अभाध को सिणि समान में अनिवार्य है। याद यह फा करें कि-"सोऽय घटः' इस प्रत्याभकारूप प्रत्यक्ष में 'सा' शब्द से तचा का मान सूचित होता है। तत्ता का मर्ष होता है तद्देश सस्कारसम्बन्ध, वदेश के दूरस्थ और तत्काल के भतीत होने से सद्देश-तत्कालसम्बन्धरूप तप्ता के साथ इन्द्रिय का बौकिकस्मिकर्ष न हो सकता मतः सञ्चाविषयक वसंस्कार अथवा सत्ताविषयकस्थति से उक्त प्रभिशा में तसा का भाग होता है। अतः इन्द्रिय से भसनिक पई अरु प्रत्यभिक्षा के क नम्रा में खत प्रत्यभिशारमक प्रत्यक्ष की विश्यता समे से प्रत्यक्षविषयता में प्रत्यक्षशनकता को म्यापित व्यभिचारित है. मतः बाम में प्रत्यक्षजमकरवाभाष से प्रत्यक्षविषयस्यामाप का सात अशफ्य,"-तो इस का उत्तर यह है कि प्रत्याविषयतामात्र में प्रत्यक्षजनकमा की व्याति न मान कर अनागत पदार्थ के साक्षात्कार को उत्पन्न करने पालो प्रत्यासक्तिइन्द्रियन्निकर्ष से अजय प्रत्यक्ष की लिपगना को प्रत्यक्षतामा ग्याप्य मानने से पाक भिधार नहीं जा सकता, क्योंकि 'साऽयं घर' पा प्रत्यक्ष सताविषयकस्मरणरूप शामलक्षणसन्निकर्ष से उत्पन्न होता है और हानलक्षणाग्निकर्ष थमागत घटादि के साक्षात्कार का अनक होता है, क्योकि 'घदो मविपति-घटो पर्नेमामबागभावप्रतियोगी इस प्रत्यक्ष में भाषी घद का भाग 'भावी घर के मानक कानलक्षण लन्निकर्ष' से ही होता है, और भाषी घर का ज्ञान घटत्यका सामान्य लक्षणमस्यासत्ति से होता है अथवा 'श्रयं घटः घटपूधयी, घटत्वात् पतबरपूर्वोपनिषत्वत्-पर घट घट का पूर्ववती है, पाकि घट है, जैसे पस घट से पूर्व डरपान घट" इस अनुमान से होता है। मतः प्रत्यक्ष में 'अनागसमोचरसाक्षात्कारजमकप्रत्यासस्य तपस्य' विशेषण के देने से तमा में उक्त प्रस्थासशिन्य उक प्रत्यभिधारमा प्रत्यक्ष की विषयता होमे पर मो ताशप्रयासस्वसम्यान रपक्षविषयक्षा में प्रत्यनजाकता को व्याक्षि मधुण्ण है, विपुलोप्रत्यक्षवादी 'घटम सामामि' इस घटप्रत्यक्ष में हान पर्व हाता का मानधनलक्षणसंस्निकर्ष से नहीं मामते मग यार प्रत्यक्ष अनागतगोषरसाक्षात्कारजवक प्रत्यासति से अमन्य है। इस लिये इस प्रत्यक्ष की विषयता प्रत्यक्षजनकता की व्याज्य होने से प्रत्यक्ष के मजनक शाम में नहीं सफली । वास्तविक बात तो यह है कि-लौकिप्रत्यक्षविपयता-थलोशिकान्यनत्यस विषयता प्रत्यक्षामकता की व्याप्य होती है, 'सोऽयं घटः' या प्रत्यभिज्ञा तसा 'श में बलौकिक होने से लोकिकान्य नहीं है अतः उस प्रत्यक्ष की विषयता उस प्रत्यक्ष के अजमक में रहने पर भो भिनार ही हो सकता। त्रिपुटीप्रत्यक्षवारी के मन में 'घटमहं जानामि' पद घटप्रत्यक्ष किसी भी अंश में अलौकिक नहीं माना जाता, अतः इस अलौकिकाम्य प्रत्यक्ष की विषयता उस प्रत्यक्ष के हनक बाग में नहीं हो सकती। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पा० का टीका व हि. वि. २५३ दृष्टव्यम् । तेनानुपदोक्तनियमे 'विघामा मान्यजनात्यावि: या बारमाया मागतत्वस्थानेऽजनकत्वस्य निवेशावश्यकत्वे प्रत्यासत्पादिमागमपहायाऽजनकविषयसासात्कारान्यप्रत्याविषयताया एव प्रत्याशजनकत्वच्याप्यत्वकल्पमे स्वस्याऽजनकत्वेन स्वविषयतायां जनकत्वस्याऽनियामकत्वेन स्वविषयता न बाधिता' इत्युक्तावपि न क्षतिः । किं च लौफिकविषयत्वेन कापशादिन्द्रिययोम्पत्वालागस्य परिशेषाद् मनोग्राबस्वसिद्धो न स्वप्रकाशत्वम् । किं च, एवमनुमित्यादी सांकर्यात प्रत्यक्षत्वं जातिर्न स्थाद । [पूर्वोक्त नियम में दोष पूर्वोक्त नियम में भर्थात् 'प्रमागरागो परसाक्षाकारजनकप्रन्यासस्यजन्यप्रत्यक्षयियता प्रत्यक्षामकता का व्याप्य है इस नियम में पक दोष यह है कि विद्यमानम्वरूप सामान्य लक्षणाप्रत्यासति विद्यमान के श्री साक्षात्कार का नामक होने से मनामनगोचरसाक्षात्कार का अनक नहीं है। अतः उस से अन्य सम्पूर्ण विधमानविषयकमन्यन अनागतगीमरसाझास्कारजनकमत्पासात से अमन्य है। उस प्रत्यक्ष की विषयता में उस प्रत्यक्ष के नाममकरस्थ विद्यमान पदार्थ में प्रत्यक्षमनकता का पभिखार है. इस व्यभिचार के पार णापे 'समागत' के स्थान में 'अजनक' का निवेश करने पर 'अजनकगोचरसाक्षात्कारजमकास्थासस्यजन्यत्व' की अपेक्षा प्रत्यक्ष में 'श्वजनविषयकसाक्षाकारास्यत्व के निवेश में लापव होगा, सोर अप उसका निवेश कर यह नियम बनाया सायगा कि 'समक विषयकलाक्षात्कारान्यप्रत्यक्षविषयता प्रत्यक्षजनकता का व्यापय है, तो इसके आधार पर प्रत्यक्षात्मक शान में प्रत्यक्षाजनकस्य से उक्त प्रत्यक्षविषयश्व का साधन न किपा मा सकेगा, क्योंकि स्त्र स्व का अजनक है, अनः स्व को विषय करने वाला स्यात्मकप्रत्यक्ष मानकविषयकमाक्षात्कार है. अतः प्रत्यक्षमाव से अजनविषयकसानाकास्यप्राय विषयस्वाभाष का साधन करने से भी अजनकविषयकसाक्षात्कारात्मक स्वात्मकप्रत्यक्ष विषयता का बाध स्व में नहीं हो सकता । .ज्ञान मात्रा है-पक्ष अनुवर्तमान ज्ञान को स्यमकाश-स्वास्मशान से प्राहा मामले में एक गौर भी पाधक है, पर या कि प्रामाविभिगो लौकिकविषयः इन्द्रिययोग्य' इसकी अपेक्षा साव होने से यह नियम माम्यहै कि 'यो यो लोकिको विषयः स इन्द्रिययोग्य' । इस नियम के आधार पर लौकिकविषयत्वहेतु से शाम में भी इन्द्रियागयत्व सिद्ध होता है । कान में चक्षुरादिवहिरिन्द्रिययोग्यय का बाघ होने से परिशेयानुमान से उस में मनोरूपम्बियप्राध्यस्य की सिद्धि होती है अतः हान में मामोमास्यत्व प्रमाणसिद्ध होने से असे स्वप्रकाश नहीं माना जा सकता । दूसरी पान यह है किवान के नकारात्घ पक्षमें सभी हाल स्पषकाच होगे । फलना अनुमिन्याविरूप बान भी स्यप्रकाश होने से अपने स्थकप को और अपने श्राश्रय को विषय करेगा। सबसुलार धूप में याहिटगाप्ति और पर्वत में धूपसम्पान के मान से अथपा पर्वत में हिच्याप्यम के परामर्श से मो पर्वत में पति की ममिति होगी यह 'पर्वते यहि वधिमस्वेन पर्वत', वकिमपर्वत या मनुमिनोमि' इस आकार को होगी । यह अनुमिति पनि पर्यन के सम्बन्ध अंश में शामितिरूप मौर Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रया समुच्चय-स्तपक १ "लोक ८३ नस विषयस्ये तानाऽमपेमात्रं ना टू, नागिरिति माया एकत्र ज्ञानापेक्षानपेक्षोविरोधाव । न च भ्रमे धर्मविषयकल-धर्मिविपयफत्वावच्छेदभेदेन दोषापेक्षानपेक्षाक्दनुमित्यादावपि वागदिविषयकत्वस्य धिपयफत्वावच्छेदभेदेन मानापेक्षानपेशोपपत्तिरिवि पायम् ओषापेक्षे भ्रमे नदनपेक्षानभ्युपगमात् धयंशे स्वभावादेवाऽनमत्वात् । ___किं घ, 'शानजन्यतानयच्छेदक यत्किभिज्जन्यतायाछेदकं यद्विपयत्वं, तक्षयच्छे. भनुमिति पर्व अनुमाता अंश में प्रत्यक्षात होगी, क्योकि अनुमिति या अनुमाता के व्याप्ति मादि के झाम के चिगा उत्पन्न होने से उस अंश में अनुमितिरूप मी हो सकती। फलतः अनुमिति आदि में प्रत्यक्षव के सोक्यग्रस्त-अत्याध्यवृत्ति हो जाने से उसके जाशिस्य की हानि हो जायगी । प्रत्यक्षत्र जसिरूप है। भई कहै क-प्रत्याशस्य जानि नहीं है किन्तु विषय में स्वज्ञानानपेक्षशामस्वरूप धि, अर्थात् जोहान जिस पस्नु को विषय करने में इस पस्तु के ज्ञान की रक्षा न करे वह शाम उस वस्तु का प्रत्यक्षबान होता है। अनुमिति साध्य को पिपय फरने के लिये हेनुरुपायकसया साध्यज्ञान की अपेक्षा करती है। शाब्बयोघ पदार्थ को विषय करने के लिये परमन्यपदार्थोस्थिति की अपेक्षा करता है। अतः अनुमित्यादि में प्रत्यक्षरूपना नहीं होती । प्रत्यक्ष-गर्थ को विषय करने के लिये उसके शान की अपेक्षा नही करता अपितु समर्थ के साथ इन्द्रियन्निकर्ष की अपेक्षा करता है, भता था प्रत्यक्ष के हक छनण से संगृहात होता है तो यम बक नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षाव को यदि स्वविषयवे स्वज्ञानानपेक्षत्वरू' माना जायगा, तो अनुमित्यादि को परिमादि भछ में प्रत्यक्षानात्मक होने से उसे स्वविधयन्ने स्थानसापेक्ष' मी मानना पडेगा, और स्व एवं स्वाश्रय अंश में प्रत्यक्षात्मक होने में उसे 'स्वविषयावे स्वहानामपक्ष' भी मानमा परेगा जो कि स्यज्ञानसापेक्षम्य' और 'स्घशाननिरपेनस्व' में परस्पर विरोध होने से मसम्मचित है। ___ यदि कहें कि-" असे भ्रमस्थल में पक ही ज्ञान धर्माश में भ्रम और को अंश में मनमरूप होना है, मतः उसमें 'धर्मविषयकश्यावच्छेदेन नोक्सापेक्षत्व' और 'धमिविषयकस्वाषपेन दोषानपेशाव' माना जाता है, उसी प्रकार भनुमिति में भी 'पहिविषयकवायसवेन भानसापेक्षत' और 'स्व-अनुमितिविषयक्रत्यापनको नानपे. मारव' माना जा सकता है". यही नहीं है क्योंकि भ्रम दोषापेक्ष ही होता, धर्मी अशा में जो यह गभ्रमहा होता है व उसमेंश में नोवामपेक्ष होने के कारण नहीं होता है किन्तु स्वभाव होता है, ' हाने धामणि शनान्तम्' यह ज्ञान का स्वभाष ही है. मतः भ्रम में अयम् दकमेर से योषापेश्नत्ष मोर दोवानपेक्षत्य का सम्मिबेस प्रामाणिक महोने से उस पार से अनुमित्यादि में जामापेशव मौर बागानपेक्षस्थ के साचार का समर्थन नहीं किया जा सकता 1 ज्ञानमामणीजन्यताब लेदक मात्र ज्ञानाब ) माम को स्थशि में प्रत्यक्षरूप मानने में पक वाधक भौर , चद या किशानजन्यता का मनषषक और यत्किविहानसामग्री का जग्यतारमरक यद्विपयकस्य Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था- क. ठीका प. वि. देन तस्य प्रत्यक्षत्वम्, इति स्वविपत्वाशे न नथात्वम्, ज्ञानसामग्या मानस्वस्येच अन्यतावच्छेदकत्वात. विशेपसामग्यां च समातिनसातवान्य कस्यात् । . वश्यवेद्यत्या स्वप्रकारात्वम्, नो वेत, या बित्तिने वैद्यते तदधीनसस्वस्य विषयपर्यन्तस्याऽतम स्यादिति यायम्, सर्वासा वित्तीनां ज्ञानज्ञानत्वेनावश्यवेधत्वात् । 'परप्रकाशेऽनवस्थानान स्वप्रकासिद्धिरित्यपि न युक्तम् , स्वप्रकाशवस्यापि परिशेषानुमेयतया तदनुमितिस्वप्रकाशनाया अप्यनुमानान्तरमभ्यतयाऽनयस्यासाभ्यात् , विषयान्तरसंघासदिना प्रतिवन्धन तबङ्गस्याप्युभयत्र साम्यात् । इत्यत आह जिस कान में रहता है, यह नाम उस अंश में प्रत्यक्ष होता है पञ्च नियम है, जैसे पक्षुः पाउसग्निकार्य के अनम्तर होने वाले सान में प्रामसम्यता का अनघच्छेदक और एवबाभु. पम्प परिकषिय ज्ञान की अनुःघटसग्निकर्षाविरूप सामग्री का जम्यतावनोदक घटविषय कर पाना है इस लिये धन्न शाम घर अंश में श्यश्न होता है किन्तु 'घटम जानामि' रयाकारक घटप्रत्यक्ष में विद्यमान शामयिषयकल्प प्रान सामान्य की मामनी काही अन्य सापच्नेदक होता है। क्योंकि ज्ञान के त्रिपुटीविषयकायमन में सर्वज्ञानमुसिमानविशेषसाममोजन्पना के प्रति मसत्ता हो जाने के कारण मानविशेषनाममो का जम्यतस्यमयक नही होता, अतः शाम को स्वशि में गायनका मानमा सम्भय नहीं हो सकता । ज्ञान की ज्ञानवेचना के नियम 'फा मन] यदि यह है कि-'साम को ज्ञानवेध मामना आवश्यक है, अन्यथा जो मानविषित होगा उसकी सत्ता सिद्ध हो सकेगी, क्योकि फिली भी वस्तु की सत्ता उसके मान से ही सिम होती है। फलमः वदमान सिम मूल विषय के ज्ञान की परम्परा में जल मूल विषय तक की सना र्सवादग्रस्त हो जायगी। क्योंकि स्तिमज्ञान के असत् होने पर उसका विषयभूत लान अलन्, एध उसमें असत् होने पर उसका विषय भत मान अस होता आगया और अन्ततोगत्वा प्रथमाझान के असत् होने से मूल यिकीही सत्ता का लोगो जायगा। लिये यह परम सभी मानवानवेधा मान आय, और मन की शानद्यता का यह नियम अन्तिम नाम मसत् नहोसाय पसलिये. ग्राम को स्वप्रकाश माने बिना सम्भव नह है. मन शान को स्वप्रकाश मात्रामा नावश्यक जं. गप हैE IE , श्योकि सभी बात को श्राममात्र मानने से भी ज्ञान की अवश्ययेचना की आपत्ति हो सकती है, अतः मान की स्वकाशता अनायस्थक यदि कि-"क्षान को जानान्तर से मकान मानने पर प्रथमहाम को वितीय से, द्वितीय को तुतीष से. मुनीर को पतुर्थ से. इस कम से प्रत्येक ज्ञान को स्वोसरयती वान से प्रकाश्य मानने पर अनर्वाक्थिन जान की कल्पना में गौरव होगा" तो यक नही है, क्योंकि गा वीष नोसान के स्वयकाशाव पक्ष में भी अनिवार्य है। जैसे गानस्वावधानी के मा में भी मान स्वप्रकाश है. उसका स्वकाशत्व तो स्वमकामा हैनी, मतः स्वप्रकाशम्बो अनुमानध मानमा होगा, फिर उस अनुमान Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 शास्त्रवासिमुनय-स्तबक र लो०६४ मूलम् -- आत्मनाऽपग्रहोऽयत्र तबाजुभवसिदितः । तस्यैव तत्स्वभावत्वाम्न ज युक्त्या न युध्यते ॥४॥ आत्मनाऽऽत्माहोऽपि कर्न-कर्म-क्रियागोचरत्यापि, अत्र:-प्रकृताईप्रत्यये, सपाअनुभवसिद्धित स्वसविदितत्वानुभवसिद्धया, नस्यैव-आत्मन पर, तत्स्वभावत्वाद-कर्मस्वादिकिमी रितशक्तियोगित्यात्, न च 'युक्त्या तण, न युज्यते न साध्यते, अपि दुसाध्यत एवेत्यर्थः । यथा कथायां प्रविशन् परस्य नैयायिकः कार अति प्रभाम् । तथा पथार्थागमनदास्यामि नास्यापि शिर शिक्षाम् ॥ के स्वप्रकाधव को अनुमानान्तर से श्रेय मानना होगा । अतः स पक्ष में भी स्वप्रकाशप के मावि मनुसनमान ले ! हैन: कि-'जिस विषय के साम में स्वप्रकाशन अनुमेय है उस ज्ञान के स्वम काशश्वानुमान की परम्परा से विषयान्तर में मम का संचार हो जाने पर इस अनुमान परम्परा का निरोध हो जाने से अषस्था का परिवार हो जायगा'-तो इस पार अनघस्था का परिवार शो शान के हानाम्लरवेद्यसा पक्ष में भी सम्भव है । अतः उस पक्ष की उपेक्षा निज हो जायगो। इस प्रकार विचार करने से ज्ञान की स्वग्राहकता सिज न होने से महंप्रत्षय की प्रत्यक्षरूपता नहीं सिम हो सकती । श्रतः या प्रश्न प्राने स्थान पर ज्यों का ग्यों घमा हुमा है कि प्रत्यक्ष वाम का विषय न होने से प्रारमा में प्रत्यक्षपापपदेश कैसे हो सकता है" [पूर्वपक्ष समाप्त ] इस प्रश्न का उत्सर कारिका (८५) में दिया गया है. अनुभवचल से स्वसविदितत्व को शियि - उमरपक्षारम्भ अहंप्रत्यय में अर्थात् 'घटम जामामि' पावि प्रत्यय में स्य से स्व का न होना सिच, इसमें कर्ता, कर्म और क्रिया का भान होना नियिंचा है क्योंकि उसमें स्वसंषिक्तिस्य अनुभवसिद्ध है और वह सरिहये कि उक्त प्रतीति में भाग्मा का भानोसर्वमान्य और बात्मा में ती स्वाभाविक शक्ति है जिससे उसका स्वरूप कोष मादि से ग्रसित (मिश्रित) राता है। इस प्रकार जम श्रात्मा के स्वभाय में कच, विषयभूत मर्ग के स्वभाव में फाव और माल के स्वभाष में आत्मविशेषणत्य सम्मिविष्ट है, तब उन प्रत्यय में आत्मा अर्य और शान स्वरूप का भान होने पर फर्मा, कम और किया का भान होने में क्या वाचा हा सकती है? अप्रत्यय द्वारा कई कर्म और किया के अवगाहन का होगा युकिनिन नहीं है, या बात नहीं है. मषितु सर्वथा युक्ति अप्रत्यय के उक्त स्वरूप के विरुद्ध अपनी मान्यता पर गिराने पाले मेया यिक के बारे में व्याख्याकार । एक स्थनिर्मित पद्य द्वारा यह मभिप्राय व्यक्त किया है कि जैसे निवायिक कथा-शास्त्रीय विचार' में पावर होने पर दूसरे को अपनी पाव कहने के पक्ष की प्रतीक्षा के लिये पिया कर ऐसा है, अर्थात् अपने पास के समर्थन Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ श्या० क० ठोका० हिं०वि० क तथावि जानामि' इति सार्वलोकिकं ज्ञानमेव पूर्णपरकल्पनामा कर्म - क्रियासिद स्वविपयत्वे प्रभाणम्, ज्ञानस्य' प्रदं जानामि इदं खानं जानामि' इत्युमाकारत्वात् । एतेन "स्वविपयत् सिद्धे गौमहिने शानगोचरवाया ग्राहक प्रत्यक्ष स्वप्रकाशसाय प्रमाणम् तेन च मानेन तस्य स्वविषयतासिद्धिः इत्यन्योम्याश्रयः " हयपस्तम्: झानविपयत्वेनानुभूयमानस्य छात्रवाद यानैक्यसिद्धी पत्रकाशवासिद्धेः कालभेदेनोमयानुभवस्य शपथप्रत्यायनीयत्यात् । " तथा परपक्ष के निराकरण में युक्ति पर युक्ति देते रहने के कारण प्रतिवादी को अप प्रस्तुत करने तथा नैयायिक के पक्ष में दोषोज्ञायन करने का शीघ्र असर नहीं मीलता, किन्तु उसे उसकी प्रतीक्षा करनी पडती है, उसी प्रकार व्यायाकार भी शान के स्वसंवेदन के विषय में नेपायिक को घडी पाठ पढाने का दरिकर है। उनको धारणा है कि वे यथार्थ आगम द्वारा परिपोषित अपनी बुद्धि के बल पर अपनेपक्ष के समर्थन में करते हुये तैयार को भरना आशय प करने का अवसर पाने की प्रतीक्षा करने को विवश कर दंगे | उनकी यह धारणा उनके अगले नर्को से भी भाँति प्रमाणित हो जाती है । [जनस्वयकाश है - उरक्षारम्भ | 'ज्ञानामि यह एक समान है, उसके दो है, एक 'इ जानामि' और दूसरा 'इवं ज्ञान जानामि । इनमें गरले आकार से ज्ञान में नयभूत व विश्व का और दूसरे से नाम में ज्ञानविषयत्व का स्पशंकरण होता है अब इस शमशान को अर्थप्राकशान का परत मान कर उसमे यम् पूर्वज्ञान का मह माना जाएगा तो पूर्वापरीभूत दो शानों की कल्पना करने से गोरव होगा, अतः एक ही ज्ञान को कर्ता, कर्म और क्रिया का प्राइक मान कर उसी को मान के स्थथियार में प्रमाण मानना चाहिये । उक्त रीति से ज्ञान में स्वविषयकत्व की सिद्धि मानने पर यह शंका हो सकती है कि "इस ढंग से ज्ञान में स्वप्रकाशता का साधन करने पर अन्यान्याश्रय होगा, जैसे प्रत्य ज्ञान और ग्राहक ज्ञान ऐसे भिन्न हो ज्ञानों की कल्पना करने में गोरव का ज्ञान होने पर ही श्रमविषयस्थ का अक प्रत्यक्ष यह ज्ञान के स्वरूप स्वका शा में प्रमान होता है, और उक्त प्रमाण से ज्ञान में स्वविकास हो जाने पर श्री उगवानसहरूत प्रमाण की नित्ति होती है, अतः उस प्रमाण के निष्पन्न होने में शाम के स्थविषयत्वरूप स्वप्रकाशय की सिद्धि की अपेक्षा होने से और प्रकाशश्व को सिद्धि में उक प्रमाण की अपेक्षा होने से अन्याय र दोष है"उसका यह है कि मानव सान का अनुमय निर्विवाद है, उस अनु ज्ञानज्ञान से पूर्वज्ञान से भिन्न मानते में लाघव है यह भी स्पष्ट है, और ज्ञानमान जब पूर्वज्ञान से है सब उसी से ज्ञान में स्वविषयकत्वरूप प्रकाश भी सिद्ध श.- वा. ३२ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ शास्त्रातांसमुख्य-सायकलो ८४. नन्वेवं घटानज्ञानानन्ताफारस्वं स्यादिति चेत ? न, घटज्ञानज्ञानादिविषयताया अपि वस्तुको घटानविषयताऽननिरेफान, अभिलापमेदस्य विवक्षाधीनत्वात् । सत्र चाश्रयत्वरूपं कर्तृत्व, विषयत्यरूगं , विशेषाश मिपाल पायवाद भासत, करणाशे स्वयोग्यस्थाद न साक्षाचमिति किमनुपपन्नम् । परप्रकाशे च ज्ञानस्य प्रत्यक्षानुपर्शतः, अनुव्यवसापक्षणे व्यवसायाभायात् । न च है। यदि कोई कि-'मर्थनातीधाम और पानझाम का अनुभव कालमेर से होता है, तर दोनों के पेश्य की सिजि पतनी सरलता से सम्भव नहीं है तो यह टंकना है, क्योंकि कालमेव में सोगंद से अतिरिक्त कोई युक्ति नहीं है, और सौगद कोई प्रमाण नही है। [अनन्ता मारता मापत्ति का परिहार] प्रश्न होता है कि-"पदि प्राहाज्ञान और प्राकमान में मेम् नही माना जायगा तो घटज्ञान में घटज्ञानज्ञान, तज्ज्ञान,तज्ज्ञामझाम आदि अनन्त मामाकारता की प्रसति होगी, और उम अनन्त शाकारों के दुय होने से बमान स्वयं तुझेय हो जायगा"इसका उत्सर यह है कि घटना में दो दी विषयतायें -एक घविषयता और दूसरी घटज्ञानविषयता, घदशामज्ञानादिविषयनारूप को अन्य विषयतायें प्रसक्त होती है घटज्ञानविषयता से अतिरिक्त नहीं है, क्योंकि परसामधानाधि घोषषयक होमे से घटसाप ही है। इस उत्तर पर यह शंका हो सकती है कि "यदिघन मानथिपयता मोर मामलामा विविधयतायें अभिन्न है, नथ "Pट मानामि "घटज्ञान जानामि" अन विभिन्न शायों से उनका अभिलाप क्यों होता है ? तो इसका समाधान यह है कि अभिलपमेव पका के विवक्षामेव पर निर्भर करता है, जैसे एक ही घट का कोई घटशब्द है, कोई कुम्भशाद से और कोई कलशशब्द से अभिलाग करता है। किता को और क्रिया का ज्ञान] उत सुति से ज्ञान में स्थविषयकाय सिम होने पर उसमें कां कर्म और निया के भामकी सम्भाव्यता भी समान में या जाती है, क्योकि साल में शान की फा. शाम केही कर्म और ज्ञानात्मक दो क्रिया का भान होगा, उसमें कोई कठिनाई नहीं हैं. क्योंकि शाम को कस्य सानभनकक्रियाकतन्वरूप या ज्ञानातुकलकतिसमवामित्यरूपन होकर ज्ञानाश्रयत्वरूप है, ओर मामाश्रयाय प्रत्यक्षयोग्य है। इसी प्रकार ज्ञानकर्मत्य मी परसमवेतक्रियाजन्यफलशालिन्यरूप या करणयापारविषयत्वरूप न होकर मानधिययरषरूप है, अतः बाद भी अत्यनयोग्य है। धानातक्रियान्व भी धावत्यरूप या ति साम्यवरूप न होकर चिशेषणत्यरूप है, क्योंकि ज्ञान मामा का विशेषण होता है, मनः पर भी प्रत्यक्ष योग है। प्रत्यायोग्य दोने से प्रत्यक्षात्मक शाम में कर्मा कर्म मौर किया के धर्मरूप में उनका मान हो सकता है, 'मनुषा पश्यामि' इस व्यवहार के अनुरोध से परप्रत्यक्ष को प्रभु मंश में साक्षात्कारात्मक नहीं माना जा सपाना, क्योंकि वच स्वभावतःप्रत्यक्षायोग्य है। नास्पर्य यह है कि स्थप्रकाशमानवादी के मन में प्रत्यक्षात्मक पाविज्ञान में कर्ता, कर्म और किया का भान मानने में को अनुपपनि नही है। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -. .. . _स्या का टीका पवि. वि. मानवनिर्विकल्पमन्यज्ञानक्षणे कपरसायस्याऽभावेऽपि पूर्व तत्सम्यान तदा तत्प्रत्यक्ष ततो विशेपणज्ञानादात्मनि ज्ञानविशिष्टधी, विशेषणं च न विशिष्टप्रत्ययहेत,तचा विनाऽपि तबुदेः प्रत्यभिन्नादनादिति वाच्यम, प्रत्यक्षे विषयस्य यसमयत्तित्वेनैव हेतुत्वात् , अन्यथा विनश्यवस्थघटनक्षुमत्रिकर्षाद घटनाशक्षणे घट प्रत्यक्षप्रसागत, मानस्मानीतत्वेन 'मानामि' इति वर्तमानत्यमानानुपपत्तेव । नत्र वर्तमानत्वेन स्थूल उपाधिभासते न तु क्षणः तस्यातीन्द्रियत्वादिनि वाश्यम्, संसर्गशवादितः क्षणस्यापि मुज्ञानत्यात् । [परप्रकाशमत में ज्ञान प्रत्यशानुपपत्ति, बाम को परप्रकाश्य मानने में कई अनुपपलिया है, जैसे ज्ञान को यदि परतः प्रकाश माना जायगा तो उसका प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि ज्ञाम को परप्रकाश्य मानने वाले लोगों के मतानुसार ज्ञान पहले क्षण में प ता है, दम क्षण मापक नir कल्पक पानसप्रत्यक्ष होता है, और तीसरे क्षगर में मानवधिशिष्ठज्ञान का मामलातत्यक्ष होना है. मिसे व्यवसाय ज्ञान के गधातदान म अनुपयसाय कहा जाताई।कन्तु इस तीसरे क्षण में उन्हीं के मतानुसमा परसाप-ज्ञान नष्ट हो जाता है, क्योंकि उनका यह भन है कि नान्मा प्रोर आकाश के प्रत्यक्षयोग्य विशेषणो का जैले आत्मा के झामादि गुणों का और आकाश के शम्दगुण का-उनके अनस्तर बोने वाले गुण से नारा हो जाता है। इस मत के अनुसार कपघलाय के अनन्तर उम्पन्न होने वाले ग्रामस्य के निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से अगले क्षण में व्यवसाय का नाशा ध्रय, मो व्यवसाय जय तीसरे क्षण रडता ही नहीं तो उपक्षण में उसका प्रत्यक्ष कैसे हो सकेगा ? व्यवसाय के उत्पति श्रण में और ध्यवसाय के दूसरे प्रण में भी उनका प्रथम नहीं हो सकता । व्यवसाय के उत्तिक्षण में ती म लिये नहीं हो सकता कि उसके पूर्व व्यवसाय के साथ मन का सन्निकर्ष नहीं है और दूसरे माग रस लिये नहीं हो सकता, कि उसके पूर्व ज्ञान वरूप विशेषण का सामनाही. फनतः शान के परप्रकाण्यतापक्ष में इसका प्रत्यक्ष गनुपपन्न है। याद कहे कि-"ज्ञानविकरूपक के साथ अनन्तरक्षण में व्यवसाय का भभाय होने पर भी उस क्षण उसका प्रत्यक्ष हो सकता है क्योकि उसके पूर्षसम्म में वह विद्यमान है। और अब इस प्रकार ज्ञान का प्रत्यक्ष हो जायगा तब शानरूप विशेषण के उस प्रत्यक्षारमकमान से धानविशिष्ट आन्मा का भी मानसप्रत्यक्ष हो जायगा, पोंकि पिशिष्टतान में विशेषण ज्ञान कारण होता है, विशेषण स्वयं नहीं कारण होता, अन्यथा सत्ता के अभाव में तसा के ज्ञान से तसविशिष्ट घट को 'सो घटा' पेली प्रात्यमिः शाम होती । तो अब यितिर ज्ञान के लिये विशेषण का होना आवश्यकतहों सके ज्ञान में ही विशिष्ट ज्ञान सम्पन्न हो सकता है, ना मानविशिष्ट आत्मा के मामलप्रत्यशकाल में भी उसके अन्नघदिसपूर्व में ज्ञान के न रहने पा. भो उसके होने में कोरवाया नहीं हो सकती'. तो यह नहीं थे, क्योंकि प्रत्यक्ष के पात प्रत्यक्षसमामकालविचमान विषयही कारण होता , अन्यथा यदि प्रत्यक्षकाल में न बहमे पर भी प्रत्यक्षपूर्वकाही पृसिमाध सोने से 'वषय प्रत्यक्ष का कारण होगा नो विनश्वयम्श्रपट के साथ बाचसंयोग होने पर अर्थात् घटनाश के अरपति पूर्थक्षण में घर के साथ पशुसंयोग होने पर घटनाशक्षण में भी घर के बानुषपस्यक्ष की पापप्ति होगा । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१॥ शास्त्रषातासमुकमय-स्तथक १ प्लोक ८४ किच, 'अरे, घसानवान' इतिवद 'मयि घटज्ञानम्' इत्यप्यनुभवो नेच्छामात्रेणापहोतुं वाक्यो, तत्र न व्यत्र पायम्य विशेयस्याऽसमात् मयं तत्प्रत्यक्षम् ? ज्ञा समान जोगवना का मनुपपाश] उक्त रीति से पान को प्रभाव दशा में शानविशिष्ट आमा के मानस प्रत्यक्ष की उपपत्ति करने में एक पाधा और घह था कि 'घटमः जानामि म प्रत्यन में शान में वर्तमानत्व का भान दाना है, किन्तु यघि यह परमान, शान के नाश के पाद होगा तो इसमें प्रान में चर्तमानस्य का भाम न हो सका।। ८ ई * "उक्त प्रत्यक्ष मान में शो पर्तमान मासिन होता है. यह वनमानक्षागत्तित्वमा नहीं हो सका, मों कि क्षपा के अनीरिय होने से प्रत्यक्ष में उसका भान सम्भय , किन्तु वर्तमानकाल पुस्तित्वरूप है. मोर. वर्तमानकालनुत्तिन्य मालकाल को लेकर उस क्षण में विद्यमान भी शान में सम्भव है. भर उफ मस्या में उस क्षण में अविद्यमान भी शान में घी मानकालमित्यरूप धर्ममानस्य के भाग गं बाधा नहीं है। य ह कि मतीन्द्रिय पदार्थ भी शान हो का प्रत्यक्ष का विषय होता है, अनः उक्त प्रत्यक्ष में बान में वर्तमानमा सय रूप वर्नमानन्य काही भान होता है, मान के उस क्षण घिद्यमान न रहने से अनुपपन्न है। स्थलकाल को लेकर वर्तमानाय फा पपादन बुद्धिसंगत नहीं है, क्योकि ये यतमानत्व के चिर्पीन याल भी सम्भव होने से इस प्रकार का वर्तमानन्त्र सच्यावनक है । यार की . 'प्रत्यक्ष में नाम दारा अतीन्द्रिय पदार्थ का भान मानने पर भी क्षण के भाने का उपासन न किया जा सकता फोकि क्षण का शाम दुबैट है . :I: यह कहना है, क्योकि राशन मादि से क्षण का ज्ञान सुसम्पाय । लाने का आशय यह है कि संसर्ग शन् का अर्थ होता है 'यिोग्यावशेषणभिन्नत्वे नि विशिष्यत्ययननयोगप.' अर्थात् ओ विशेष्य पयं विशेषण में भिन्न होते हुये विशिष्ट प्रत्यय के उत्पादन में योग्य दो उर्म 'संसर्ग' अर्थात् संबन्धकहा जाता है, जैसे घटभूसन्म का संयोग घटसप विशेषण और भूतलरूप विशेष्य से भिन्न होने टुये 'विशिष्ट भूगलम्' इस विशिष्ट प्रत्यय का जनक होने से घट-भूतल का संसर्ग है। पक्षण में उत्पन्न होने वाले पापी में योगाय एकक्ष गोभयत्व संसर्ग होता है। यह भी संसर्ग है उक्त लक्षण से संगृहोत होने से संसर्ग शप का मर्थ है, थतः संसर्ग शब्द के अर्थ विशेष योगपन का घटक हाने से क्षण भी संसरी शम्द से क्षध है. और अपक्षाण का जान सम्भय है न उसके द्वारा प्रत्यक्ष में उसका भान होने में कोई बाधा न होने से उक्त प्रत्यन में पान में धनमानक्षणप्तित्व का डी भाभ उपपाननीय है। गाय घा' अनुभव में व्यवपापल्लक्षिानुपति शान के परमका पतापक्ष में एक यह भी दोष है कि इस पक्ष में मयि घटना नम् इस प्रत्यक्ष की टपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि इस प्रत्यक्ष में घशानरूप ठपण साय विदोन है, अतः विशेषय के रूप में उनका प्रत्यक्ष होने के लिये प्रत्यक्षकाल में उसकी सना आवश्यक छ । या नही कदा जा सकता कि - मधि घरमानम्' इस प्रकार घटमाम का प्रत्या ही नहीं होता कि अर्ब घटनामवान' इस घटनामविशेषण Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० ० टीका प दि० वि० २६१ एतेन 'ज्ञानत्यनिर्विकल्पकमन्याने घटस्पायुपनीतस्य भानात् तत्र धर्तमानत्वभान सूपपदम्' इत्युक्ता अपि न निस्तारः, व्यव गय प्रत्यक्षानुपपादनात 'घरं पश्यामि' इति प्रयोगानुपपश्च । एतेन 'यदि च जास्यतिरिक्तस्य फिधिद्धर्मप्रकारेण भाननियमाद् मानविशिष्टयुद्धी ज्ञान विशेष्यफनानमेव हेतु, तदा निर्विकल्पकोत्तरमपि 'ज्ञानम्' इति ज्ञान प्रहे 'जानामि' इति मानांशेनौकिकप्रत्यक्ष मूषपदम्' इत्पपास्तभू ,घटनाक्षपांशेऽलीकिात्ततः 'पश्यामि' इत्यपयोगात्. 'पश्यामि इति विक्षणविषयतयाचव्यवसाये विलक्षणविषयतया चाक्षुषस्य नियामकत्वेन नदभावं तदनुपपत्तः।। प्रत्यक्ष के समान 'मधि घटानम्' इस घटानविशेष्यक प्ररपान भी गनुभयसिस है, और भनुमसिम का प्रसार फेत्र र इच्छामात्र से नहीं किया जा सकता । सान के परप्रकाश्यता पक्ष में 'घदम जानामि इस प्रत्यक्ष में घशान में यन मानव के भान को जो अनुपनि बनाया गया है. घर मा ज्यों की रौ है। यदि इसके परिवागर्थ यह कल्पना की जाय कि "शामत्य के निर्षिकरुप से प्रो नान का नाम उत्पन्न होता है, इसमें शाम के विशेषगारूप में उपनीत घट का भी मान होता है, अर्थात् बह 'ज्ञानज्ञानम' त्या कारक न होकर घटज्ञानम्' इत्याकारक होता है, जो 'घटे जानामि' इस प्रत्यक्ष काल में भी रहता है, अतः इस प्रत्यक्ष को विशेषपक्षानान्मकघरज्ञान में पर्तमानव का प्राइक मान लेने से उस प्रत्यक्ष में घवज्ञान में वर्तमानस्य का माम माम्म हो सकता है"-तो साक नहा है, क्योंकि पेसा मानने पर अषसायमानामक विशेषण शान के प्रत्यक्ष का पालन होने पर भो व्यवसाय के प्रत्यक्ष का उपपावन न हो सकेगा। और इसकी बात यह है कि विशेषण नानाभिक घटशान तो मानसमान है, भानुचज्ञान सो है नहीं, अतः उसमें यमानत्य का भान मानने पर भी 'घटे पश्यामि' इस प्रयोग की उपाशि तो नहीं हो सफेगा, क्योंकि यद प्रयोग घटवानुष में वर्तमामय का बोधक है. गौर घटनाक्षुष के प्रतीत हो जाने से उसमें वर्तमानस्य का सम्भव नहीं है। ज्ञाग के अलोकि प्रत्यक्ष की पति का नल प्रयास माम को परप्रकाश्य मानने वाले लोग मान के अनुषयमाय का उपपादन करने के लिये पक प्रयास यह करते हैं कि "घ जानामि' इस अनुयायसाय के समय घटज्ञान के न रह से उसमें उसका लौकिकमान तो नहीं हो सकता, पर मलौकिकभान हो सकता। उनके कान का आशय या कि घतान उत्पन्न होने पर मानव मिपिकापक के पाय जो घरहानरूप विशेषण का ज्ञान उत्पन्न होता है। यह झाम को विशेषणरूप में विषय नहीं कर सकता, क्योंकि उसमें यदि ज्ञान विशेषण के रूप में भासित होगा नो उसका भाम किसिद्धर्मप्रकारेण माजना होगा, क्योंकि यह नियम है कि 'जानि में निरिक्त पदार्थ किञ्चिद्धर्मप्रकारेणेव विशेषण होता है, अतः यदि उस ज्ञान में शाम 'यशेषण होगा तो या ज्ञान जानामि' ल्याकारक होगा, और AT उस समय हो नहीं सकता क्योंकि इसके लिये प्रामस्पेन जान का मान अपेश्रित है, जो ज्ञामत्व के निधिकलाक काल में नहो, अनः घा. शान 'जानम्' याकारक अथवा 'रानम्'स्याकारक होगा और उसके बाद जो मनुष्यवसाय बोगा उसमें घटतान Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ हास्यवातासमुच्चय-रसबक १ [को० ॥ ने पापयांशमममनदीपाद निवायास् 'भाकाचं पश्याम' इत्यादाविषोपपतिः 'घर्ट पश्यामि' इत्यत्र सर्वापाप्रमाया एवानुभवात् । दिदमुक्तं स्याहादरत्नाकरे "कि 'प, इन्द्रिय प्रत्यक्ष सग्निकुण्टे विषये प्ररत ने, अतीतक्षमनिनधनानस्य मनो. लक्षणेनियसमिकों न पुज्यने, सतः कथं प्राचीनहाने मानसप्रत्यक्षबाचाऽपि ? इति । 'व्यवसायनापक्षणोल्पामच्यवसायान्तर झानत्वविशिष्ट्युद्धिा' इत्यायत पत्र निरस्तस, वद्धतावासभिकादेस्तदानीं नियतसमिधिकत्वाभावान्, अनुमित्युखरज्ञानल्यनिज्ञानरूप मानलक्षणसनिक से घठमान का अलौकिक भान होगा। इस प्रकार घटनामरूप ध्यबसाय के न रहने पर भी बस अश में मलौकिकप्रत्यक्षात्मक 'घर्ट जानामि' स्याकारक अनुध्ययसाय के होने में कोई बाधा नहीं है" किन्तु विवार करने पर इस रीति से व्यवसाय के अमुव्यवसाय का उपवन अचिन नहीं प्रतीत होता, क्योंकि इस प्रकार के उपपादन से 'घई परामि' इस प्रयोग की उपत्ति नहीं की जा सकती, कारण यह कि पस प्रयोग से जिस गनुष्यवसाय का अभिलाप होता है, पटवानुष में उसकी अलौकिकविषयता से बिलनणयापयता प्रतीत होती है, और जिस प्रत्यक्ष की भलोकिक विषयता से बिलसणविषयता जिस विषय में दोनी पर स्वयं विधमान होकर उस प्रत्यक्ष का नियामक होता है. धनः घटयाक्षुष के गभायकाल में उसका शानुष्यवसाय हो सकने से उसके मिलापार्थ 'घर्ट पश्यामि न प्रयोग न हो सकेगा। निःशुपक्षश में श्रमजनक दोष से 'घर पश्याग' की उपत्ति मशक्य] यदि यह कई कि ... अखे मिद्रा अवस्था में वायुपत्यभ्रम के अनक शेप का सन्निधान होने पर पानीनन आकाशस्मरण में चाशुपत्र को यिय करने वाले 'आकाशे पश्यामि सि मान की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार जातिकाल में अनुष्यवसाय के सम्वर्म में भी शानिर्षिकबारक के भनम्तर उत्पन्न समानुष घरवान में भी चाक्षुषत्वभ्रमझनक होष से वायूपन्य को विश्य करने वाले 'टं पक्ष्यामि'समान की उत्पत्ति मौर उसके द्वारा 'पद पपयामि' इस प्रयोग को उपपति हो सकता है"-ता रह ठीक नहीं है. क्योंकि 'घर' पश्यामि' इस अनुष्यवसाय में सर्वाश में प्रमान का अनुभव होता है, जो पसे चाक्षुषाध मघा में भ्रमरूप मानने पर असंगत दो मायगा। हान के मानस प्रत्यक्ष की यह अनुपत्ति 'स्थावादरत्नाकर' में इस प्रकार चबित है कि-"इन्दियजन्य प्रत्यक्ष सन्मिए विषय में ही होता है, और अतीतमाम के साथ ममरूपायिका सरिक हो नहीं सकता: अतः प्राचीन शाम के मानस प्रत्यक्ष की पात भी नहीं हो सकती।" [यवसायानर की उत्पत्ति की मिथ्या कल्पना ] कुछ लोगों का कहना है कि-'ययसाय के नाशक्षण में उसीभकार का दूसरा भ्यवसाय उत्पन्न हो जाता है, उसी में जानत्व के वैशिषय को विपथ करने वाले अनु. अपसाय की उत्पसि हस्ती है'-किरमु. ५६ नाक नहीं है, क्योंकि (२) उस समय विषय के साथ चक्षु गादि के सन्निकर्ष का नियम न होने से अनुन्यबसाय के पूर्व सवा व्ययलायाम्बर की उत्पत्ति की कल्पना नहीं की जा सकती भौर (२) दूसरी बात यह कि Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वा० क० टीका व०ि ि 專案 विश्वको तरमनुमित्ययोगात्, अन्यत्रानुमितित्वाभावात् 'अनुमनोमि' इत्यनुपपणे, पूर्वव्यवसाय विशेष्यकज्ञानस्य कथमप्यनुपपत्ते । एतेन ज्ञानं ज्ञानत्वं च निर्षिकल्प के मांसते तो ज्ञानत्ववैशिष ज्ञाने ज्ञानवैशिष्टयं चात्मनि भासते इति विशेष्ये विशेषणं तत्र व विशेषणम्" इतिरीच्या ज्ञानप्रत्यक्षस्यम्' इति मिलम् 'ज्ञानं घटीर्य न वा ?' इति सन्देहेऽपि बुद्धिप्रसङ्गाच्च । वक प्रकार की कल्पना की शरण लेने पर भी 'अनुमितोम' इस मनुष्यवसाय की उपपत्ति वो नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रथम क्षण में जिस विषय का अनुमित्यात्मक व्यवसाय उत्पन्न होगा, द्वितीय क्षण में अनुमिति पर्व अनुमितित्य का निर्विकल्पक होने के बार तृतीय क्षण में उस दिन की अनुमिति की उत्पांस को नहीं सकती क्योंकि उसके पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि अनुमिति के कारणों का स्वभाव है। और उस समय ओ ज्ञान मनुमिति और अनुमितित्धका विविकल्पक विमान है उसमें अनुमति है नहीं, अतः अनुमितित्वरूप से ज्ञान होने योग्य किसी ज्ञान की सत्ता न होने से अनुमतिस्व रूप से ज्ञान का अवगाहस करनेवाले 'अनुमितोम' ख्याकारक अनुष्यवसाय का उपदन असम्भव है । (३) इस कल्पना में एक ओर त्रुटि है जिसका परिहार नहीं हो सकतावह यह कि इस कला को स्वीकार करने पर भी 'तथि घटकानम इस पूर्वोक व्यवसाय विशेष्यक अनुष्यवसाय की उप नहीं हो सकती, क्योंकि यह अनुव्यवसाय घटविषयक विशिष्टज्ञान में मध्य को विषय करता है। अतः इसके लिये विवकरमरूप से ज्ञानज्ञान आवश्यक है। कर्मोक जमेत्रिशिविशेष्यत्यक्ष में प्रका रेण विशेष्य का ज्ञान कारण होता है ओर यह ज्ञान इस कल्पना में भी सम्भव नहीं है क्योंकि इस अनुध्ययनाथ से पूर्व जो नया बटशान उत्पन्न होगा. वह उस समय पटविषयक ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पूर्व उसके साथ मन का सन्निकर्ष नहीं है, और घटान भी घीयस्वरूप से ज्ञात नहीं हो सकता, क्योंकि यह स्वयं नहीं है | अतः भात्मा में ज्ञान को और ज्ञान में घट की विशेषण से अक्षमा हम करनेवाले 'अहं परवान्' इस मनुष्यवसाय की किसी प्रकार उपपत्ति हो सकने पर भी शिकवेन शामशानरूप कारण के अभाव से अमुव्यवसाय की उपपति तो नहीं ही की जा सकती । मशिनम् [विशेष्य में विशेg .... इत्यादिति से ज्ञानप्रत्यक्ष परिहार ] किसी का कहना यह है कि "घटज्ञान की उत्पत्ति के बाद शाम और सामन्य का निधिकल्पक हो कर अग्रिमक्षण में 'भई घटशानयानू' इस मनुष्यवसाय की उत्पत्ति हो सकती है, क्योंकि यह ज्ञान आस्मा में प्रात्यविशिष्ट के वैशिष्टय का अवगाहन न कर विशेष विशेषणं, समाधि विशेषणम्' इस गीति से आत्मा में ज्ञानवैशिष्ट्य और साम मैं सागरवधैशिष्ठय का अवगाहन करता है। अतः इसकी उत्पत्ति के लिये बान और का निर्मिक पर्याप्त है, हिन्तु घटखानत्वेन घटान के ज्ञान की अपेक्षा नहीं - वर यह नहीं है क्योंकि इस पद्धति को अपनाने पर भी 'मथि घटमानम्' इस मनुष्यलाय की उपपत्ति नहीं हो सकती साथ हो विविशेषणं विशेषणम्' इस रीति से अदं घरानवान् रस पान की भी उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ... शास्नधासारामबाप-स्तबक १ "लो० ८५ यत्त ... "सान ज्ञानत्यं च विशिष्टज्ञानविषय एव अनुष्यबसायस्य विषय रूपविशे. पणविषयकव्यवसायसाध्यत्वेन विशिष्टज्ञानमामग्रीमच्चा, लानाबमपि तत्र भासते सामग्रोसरवाद, अंगो तत् समकारक निष्प्रकारकं चेति नरसिंहाकार, तत्रैव विशिष्ट ज्ञानस्ववैशिष्टयं च भासते, अनुमित्यादी च न नथा अनुष्यासायेऽनुमिमित्वाभावाद्' इति, 'वस्तुतस्तु०' इति कृत्वा निम्तमणिकत कम्' सनसन, सार्वत्रिकप्रकार विना क्वाचित प्रकाराभिधानस्य प्रयासमापवान्, अभावप्रत्यक्षस्य घटत्यायन्यतमविशिष्टविषयकनियमशानप्रत्यक्षे तन्नियमाभावान्, 'आं मुसी' दतिवन 'अहे मानवान दामि विषयविनिर्मुक्त प्रतिते सार्वजनीनखान, सम्निकर्षकार्यनायो विपयागर्भाचे गौरवात, ज्ञाने नृसिंहा कारतोपगमे विषयेऽपि तदभ्युपगमौनियेन म्याहादापाताच्च । सा मानने पर 'कानं पढीय नधा-शान में घट का शिव है या नहों ? यह सन्देह रहम पर भी कई घटज्ञानवान्' इस नाम की आपत्ति होगी । चिन्तामणिकारगत -निरसन| इस सन्दर्भ में चिन्तामणिकार ने 'घस्तुसस्नु' इत्यादि ग्रन्थ माग या प्रतिपादित किया है कि-'लाम मोर शानाय शुष निर्विकलाक के विषय न हो कर विविध ज्ञान के ही विषय इसे धै, क्योंकि अनुव्यवसाय में विषयविशिष्ट व्यवसाय का भान होता है अनः घर विशेषण को विपय काने वाले व्ययमायामयिशेषणशाम से जम्माना। इस जन्मता की लपति के लिये अनुध्ययमाय के पूर्व विशेषणविषयक व्यवसाय का होगा सौर उसके बल से व्ययामाग्यवाही शान में व्यवसाय के विशेषणका में विषय का भान होना अनिवार्य है, क्योंकि विशिवान को सामग्री के उपस्थित रहने पर पिजिनाम की उत्पत्ति ही स्वाभाविक है । इस लिये व्यवसाय के अनमार होने घाले शान में व्यय साप के विशेषणरूप से विषय का मान होने से मांग व्यवसाय में सामग्य के सम्पध का भान न होकर स्वतन्त्र रूप से मानन्ध का भान होने से घर जाच 'घटीय (हान) बानाधं ब' अथवा 'घटीयमानाये' इस प्रकार का होता है. मोर इसीलिये बह "शाम' अंश में सप्रकारक भाग. 'शानाय' अश में निगमकारक होने से नरसिहाकार बान कहा जाता है। यह भारसिंहाकारमान ध्यघमास के नीसरे क्षण में रहता है। अपनः उस क्षण में उस ज्ञान में विषयवैशिष और शान शिव का भान होने में कोई बाधक न होने से घही शान उस धपा में 'घट जानामि' इस प्रकार के अन्यबसायरूप में उत्पन्न होता है। कहने का आशय यह है कि पहले क्षण में उत्पन्न दाने वाला घट का व्यावसाय दूसरे क्षण में केवल पठीय-घटनधीरुप में शान होना किन्त रमानन्धर से नfine होता । तीसरे क्षण में तो यह नष्ट होता है. अतः उस क्षण में किसी भी रूप में उसके सोने कीबोरी सघना भी नहीं हो सकती। फलतः तीसरे में परमान स्वरूप से प्रत्यक्ष होनेवाला हान पहले श्रण में उत्पन्न हनिवाला घट का पयमाय नहीं होता, अपितु दूसरे पक्ष में उत्पन्न होनेयाला पटीयार में पटध्ययसाय को ही प्रारण करनेवाला गासिंहाकार शाम होता है। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या का टीका यहि वि 'नृसिंहाकारमाने शानत्यपटत्वप्रकारफत्वोभयाश्रयज्ञानवैशिष्टयधीन स्यात्' इति प्रसवनं तु समाहितं मि श्रेण- 'विषयनिरूप्यं हि ज्ञान, न तु विषयपरम्पयनिरूप्यम्' इत्याविना, अधिकाविषयोऽपि च व्यवसायस्य प्रवृत्तिजनकत्वमविरुद्धम्। इष्टतावरखे. दमप्रवृत्तिविषयवैशिष्टयावमाहिल्न प्रतिहेतुत्वात् ।। उम्मोने या भी कहा है कि यह उपपत्ति प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के ही सम्बन्ध में है। मनुर्भाित मादि व्यवसायों के सम्बन्ध में यह उपपत्ति सम्भव नहीं है, क्योंकि अनुमिचि मावि की उत्पत्ति के दूसरे क्षण जो अनुमिति आदि मंध में विषयमकारक नया अनुमितिष मश में निप्रकारक नरसिंहाकार हान होगा षछ अनुमिति का अनुष्यबसापात्मक मानसशान होगा, अतः उसमें अनुमितित्व का अभाव होने से अनुमिनिस्वरूप से उसका नाम नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत मन्थ के व्याख्याकार यशोविश्पजी ने चिन्तामणिकार के उफ प्रतिपादन को भसंगत बताया है । उसका कारण यह बताया है कि मनुव्यवसाप की उगति का उपत प्रकार साधिक नहीं है निम्न कात्रिक बर: जमको मिपावन एक प्रममा क्योंकि अनुमिति आदि के ज्ञान की उपपास जय अन्य प्रकार से करनी ही होगी तब इसी प्रकार से प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के भी शान की उपपत्ति हो जायेगी, अतः यस उसके लिये उक प्रकार का प्रमिवाहन पफ निरर्थक व्यापार है। श्री यशोयिजयजी का यह भी कहना है कि घट आदि के प्रत्यक्षात्मक व्यवसाय के इसो क्षण में जरहाकार मान होना भी प्रामाणिक नहीं है, यद नय प्रामाणिक हो सकता कप यह नियम माना जाय कि जैसे अभाष का प्रत्यक्ष नरमायांश में घटत्वादि धर्मों में किसी एक धर्म से विशिष्ट प्रतियोगी को विशेषणरूप में विषय करमा हो क्योकि अमाघ फा प्रत्यक्ष 'घको नास्ति' इत्यादि रूप में ही सर्वानुभवनिम, उसी प्रकार व्यवसाय का मानसशामरूप अनुष्यवसाय भी व्यवसाय वश में घठन्य आशियमों में किसी न किसी एक धर्म में विशिष्ट विषय को विशेषणरूप में विषय फरना दी है, परन्तु अनुव्यवसाय के सम्बन्ध में यह नियम अप्रामाणिक है, क्योंकि जैसे 'मह सुखी' इस प्रकार सुम्न का प्रत्यक्ष सुख में किसी विशेषण को अवगाहन किये बिना ही उत्पन्न होता है उसी प्रकार कान में किसी विशेषण को विषय न करने वाले 'अई सामयान्' इस प्रकार के शानप्रत्यक्ष का होना भी सर्वजनानुभवसिद्ध है। इस सम्बन्ध में यह कहना, कि ."काम के साथ मम का को सम्मिकार्य होता है घट पान में विषय को विशेषणरूप से अपगाहम करने वाले ही प्राणप्रत्यक्ष का प्रमक होता ६, मतः उक्त सन्निकर्ष से विषय से मुक्त शाम का ग्रहण नहीं हो सकता"- ठीक नहीं है, क्योंकि इन सम्निकर्ष के फार्थतापच्छेवक धर्मों में विषय विशेषण फत्व का अन्तर्भाव करने में गौरव होता है. अतः उसका कार्यशावक केदक वामपस्यमय ही होता है, विषय विशेषितहानपक्षम्य नहीं होता। इसलिये उप सम्जिकर्ष से अहं सानयान' इस प्रकार के विषयमुक्त वान का प्रत्यक्ष होने में कोई बाबा नहीं हो सकती। शा. मा. ३४ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घासासमुष्यय-स्तबक र लोकन इस प्रसंग में तीसरी बार उन्होंने यह भी कही कि यदि हान को मसिहाकार माना जायगा सो विषय को भी मरसिंहाकार मानने में आपत्ति नहीं की जा सकती, और यदि विषय को भी मरसिहाकार मान लिया जायगा तो ममेकाम्सपाय की भापति भनिवार्य हो जायगी, अतः भने काम्तयाद को स्वीकार न करने वाले नैयायिक मादि के लिये रसिंहाकार बाग का मानना चिस at 4 समना [नृतपक्षणभाविज्ञान को द्वितीय क्षणमावत्रान का प्राहक मानने में मापति | घटसान के तीसरे क्षण में होने पाले 'घट'मानामि' इस मामसमान को सो क्षण में होने वाले 'घटीयशान इस नृसिंहाकारमान का प्रारक मानने पर पर भापति हो सकती है कि-'भूसिहाकारमान मानानन्ध को स्वरुपता प्राप्त करता है, मान में हामरख के चैशिएप को तो प्राण नहीं करता, मतः 'घटं मामामि समान में ग्रामरवा भय के वैशिष्टय का भान नहीं हो सकता, क्रस घटत्वप्रकारकायाभप के बी वैशिश्य का भागमो सकता है, क्योंकि नुसिंहाकारमान सान में घटत्वप्रकारकत्व को प्रहण कर लेता।___ यशोषिजय उपाध्यायजी ने इस भापति को कोई महत्व नही दिया है, क्योंकि इस भापत्ति का समाधान ग ने कर दिया है। मिश्र ने इस मापति के समाधान में यह कहा कि शान का निरूपण उसके समस्त [घचयों द्वारा होता है' यह नियम नही, किन्तु हान का मिकरण उसके विषय जाग होता है' इतना ही नियम है, और इसका निधोंड किसी पक विषय द्वारा मान का निरूपण मानने से भी हो जाता है। प्रकृत में सृसिंहाकार ज्ञान के वो पिपय है, कोयत्वेन बान और कामस्य । घटीयन साम का भान होने ले घर भी उसका विषय है। इसी लिये या घरवकारक भविशेष्यक मी है। भसः 'घट गानामि' इस शान में घटरूप विषय के द्वारा नृसिहाकार ज्ञान का माम होने से, मानस्वरूप विषय के द्वारा उसका मान न होने पर भी 'सान विषय से निप्प होता है' इस नियम में कोई त्रुटि नहीं हो सकती।' भाग्य यह है कि 'घट जानामि' यह बान घायशिशान के वैशिप को विषय करता है, हामस्वविशिए के वैशिष्ट्य को विषय नहीं करता, बानाथ सो घीयत्यरूप से भासित होने वाले सिंहाकार ज्ञान में विशेषणरूप से भासित हो जाना है। व्यवसाय को स्थप्रकाश मानगे पर यर शंका हो सकती है कि- 'व्यवसाथ स्वप्रकाश होने पर म्वविषयक मी होगा और स्थविषयक होने से प्रसि की अपेक्षा अधिक विष एक हो जाने से प्रन्ति का कारण न हो सकेगा, क्योकि प्रवृत्ति के प्रति समानषिययकसान को ही कामम माना जाता है किन्तु इस शंका का समाधान खुलम है और १. इस मान्यता के विपरीत रद शंका सस्त. -'पर जानाम' इस मान में पीयत्वेन सिंहकार शाम का मान बभव नही है क्यों के गुर क्ष। तिहा कारखानदारा घटीपरपन यमाय गृहीत होता है, न कि स्षय सिहाकार शान-जिना उरार कर दिया जा सकता है कि पदोस्चन व्यवसाय के शान में गो घटीयरवेन मिहाकार शान के शमय का शान होने में कोई बाधा नहीं हो सकता, क्योंकि विशिष्टवैशिष्ट यज्ञान में विशेषणताबछेदकपारफशान को जो कारणता होती है उसके लिये कार्यकारणभूत पानी में विशेषगतानन्ध र से गांक के गान गया हो। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या . टीका हिं. पि. २९७ म च 'अन प्रमेयमिति नानात्प्रवृत्यापत्तिः, इलायक दफे सद्भिन्ननिमुधर्माप्रकारफत्त्रविशेषणात् । न चेष्टनारच्छेदकप्रकारकवानस्य मुल्यविशेष्यनया प्रष्टत्ति हेतुल्लम्, 'बद्रनतम्, एवं द्रव्यम्' इमि लामात् प्रतिधारणाय प्रकृत्तिविषय विशेयकत्वावको देनेष्टताक्छेदकप्रकारफत्त्वस्य वास्यत्वे इष्टतावच्छेदकविशेषयकवायच्छेदेन प्रति विश्वप्रकारकत्वेनापि हेतुतायो परिमारिहार, पायगर रोग हेतुलौमिरन । वह यह है कि प्रकृति के प्रति समानविय कशान कारण मी दाता किन्तु प्रतापरक और प्रतिधिषय के वैशिष्टय (परस्पर सम्बन्ध) का मान कारण होता है, अतः मधिक विषयमान में प्रवृत्तियिषय में इष्टनापच्छेदक के शिष्य (सम्बन्ध) का भान होने से उसे प्रवृत्ति का जनक होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। । 'मत्र प्रमेये इस ज्ञान से प्रवास आपत्ति की आशंका ] 'अब प्रमेयम् समान में 'श' का अर्थ है "शुको कि में'। 'प्रमेयम्' का अर्थ है 'रजसत्यम्'। इस प्रकार यह शान समय से भासमान शुकि गौर प्रमेयस्वरूप से भासमान रमतत्व के परस्पर सम्बाध का विषय करता है, इसहाम से रजतेन्द्र की प्रति घस्तुप्त नही होती है. किन्तु प्रवृत्ति के प्रति प्रवृत्तिविषय और प्रताप दक के परस्पर सम्बन्ध को विषय करने याले शाम को कारण मानने पर डाल नाम से रजतेन्छु की प्रवृत्ति को आपत्ति होगी। इस आपति का परिहार करने के लिये यह कहा जा सकता है कि- बही मान प्रवृत्ति का अनक होता है जो एतापलेषक से भिन्न में रहने वाफे धन का प्रतासक धर्म में प्रकारविधषा महण न करे । 'मय प्रमेयम्' यह गान तापक रजस्व में उसले निम्न शुरुत्व भादि में रहने वाले प्रमेयषधर्म को प्रकारविधया ग्रहण करता है, अत: सशान से रजतेकी असि की आपत्ति नहीं हो सकती। [प्रवृत्ति के प्रति मुनयविशेभ्यना से ज्ञान को देतुता का खंडन] 'अत्र प्रमेयम्' इस शान से प्रवृत्ति की आपसि का परिहार करने के लिपे पर भी कहा जा सकता है कि- 'मुक्यविशेष्यतासम्पन्ध से प्रवृति के प्रति इमामशेरकर्मप्रकारक भान मुख्यविशेषतालम्बन्ध से कारण होता है-'सन्न प्रमेयम्'साम में - सापच्छेवक रजतष प्रमेयस्यरूप से विशेष्य होकर भासित होता है और प्रवृत्ति का विषयभूस पार्थ उसमें माधैयनासम्बन्ध में प्रकार है, जो 'अम' शब्द से सूचित होता है, इस प्रकार यह काम न तो इवतापरावधमाकारक है और म यह मुग्यषिदो. प्यतासम्बन्ध में मवृसिविषय में विद्यमान है, अतः इससे पदार्थ में रजतेमा की प्रभूति की मापनि नही हो सकती"-किन्तु इस भापति के परिहारार्थ यह उपाय उचित नहीं है क्योंकि इष्टनावशेषकप्रकारकशान को मुफ्यविशेष्यतालम्बम्प से प्रवृति का Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...२६८ शास्त्रपातासमुपप-तक १ "लोक ४४ यस “वहिव्याप्यधूमवत्पर्वतवान् देश इति परामर्शत 'पर्वतो वद्धिमान्' इत्यनुकारण मानने पर 'सव रजतम् , पम्' इस शान से भी इद पवाय में रमतार्थी की प्रकृति की आपत्ति होगी, क्योंकि इस शान में तत्पवार्थ में रजतत्व प्रकार मोर व्यवश में वं मुचविशेष्य है, अतः यह मान परतापनवकमकारक है और मुक्या विशेष्यतासम्बन्ध से विपदार्थ में विद्यमान है । 'सद् रजतम्, गवं द्रष्पम् समान से इदंपदार्थ में रजतार्थी की प्रवृत्ति के परिद्वारा यह +1 आ मकता है कि-प्रति के प्रति सभी पतायछेदकप्रकारकमान कारा नहीं होता किन्तु जिस कान में प्रवतावटसप्रकारकत्व प्राप्तविशेष्यकरष से भय होताचही जान प्रशि का कारण होता है, उक्त माम में में रजसत्व प्रकार न होने से विशेष्यकरपाषष्ठले देश रजसत्यप्रकारकस्य नहीं है अर्थात रजतत्यप्रकारकत्व पर विशेष्यकन्य से सघन नही है, अतः उस शान से इन में रजतार्थी की प्रवृति को आपत्ति नहीं हो सकती". किन्तु यह कहना उचित नहीं हो सकता क्योंकि जिस शाम में प्रतापल्लेदवाप्रकारकत्व प्रतिविषयविषयकस्य से अबकच । उसी की प्रवृति का कारण पर असे 'तर रजतम्। ६ म्यम्' इस शान से प्रवृत्ति की मात्ति नहीं होता, उसी प्रकार जिस शान में पताचस्छेदकविशेष्यकस्व प्रवृत्तिविषयमकारकाय से भवष्य हो षही पान प्रवास का कारण होता है या मान लेने से 'तत्र रजतस्यम् , मत्र इम्पत्यम्' इस नाम से भी प्रसि को आपत्ति न होगी क्योंकि इस शान में नम्पवा के विशेष्यरूप में रमप्तत्व का मान लोता हे दर पदार्थ के विशेष्यरूप में भान हो बाता. भत्ता इस काम में रजतत्वविशेष्यकत्व के दिप्रकारकत्व से अवन्य महामे के कारण इससे पक्ष में रहताधों की प्रवृत्ति की सापशि नहीं हो सकती। 'वं शतम्' इस मान को पदविशेष्यकत्वापळे गरजसत्यप्रकारकरररूप से भीर 'अत्र रजतषम् स सान को रमतर्घायशेयकस्यापदकस्वरूप से प्रवृति का अलग अलग कारण मानमे पर पक ज्ञान का-दुसरे शान से होनेवाली मति के प्रति व्यभिचार होगा। सत्सद शाम के व्यवहित उत्तर में होने वाली प्रवृत्ति के प्रति तसान का कारण मान कर इस व्यभिचार का परिदार करने पर दो गुयतर कार्यकारणभाष स्थीकार करने होंगे मतः उक्त दोनो प्रकार के क्षानों को इतावदक धर्म और प्रवृत्ति विषय के परस्पर सम्बन्ध को प्राण करने घाले बान के कप में ही कारण मानमा इचित है। कान को चमकाश मानने पर इव में रजतत्व का शान 'वं मतम्' पेसा न होकर 'इदं रजत आमामि स प्रकार का होगा, मतः घद प्रवृत्ति के मन में अनुपयोगी मश का प्राहक होने पर भी इष्टतावच्छेदक रजतत्व और पति विषय वं के परस्पर सम्बाघ का माइक होने से निर्वाधरूप से प्रवृति का उत्पाद हो सकेगा। इस लिये जान को प्रकाश मानने पर उससे प्रवृत्ति की अनुपपत्ति का प्रसंग होने से शाम को स्वप्रकाश मामले में कोई बाधा नहा प्रतीत होती। स्वाकार ज्ञानवाद में गौरव भापत्ति का परिहार] खाम को स्वप्रकाश मानने पर यर अंका हो सकती है कि-'पहिव्यायधृमयान पर्वतः' इस प्रकार के परामर्श से ही वद्धिमान इस अनुमति का जन्म होता है, 'पविण्या Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Eur • टोका• दि. २३ मितेरनुदयाद रहिव्याप्यधूमत्यापन्निप्रकारतानिरूपितपर्वतत्यावच्छिन्नमुरुषविशेष्यताकनिश्चयत्वेनानुमितिहेतुस्वात, स्त्रप्रकाशनये तु पर्वतस्य मानविशेष्यत्यान तदतिरिक्तविशेध्यतानिरूपितप्रकारलानात्मकत्व-शुरूपत्वनिवेशे गौरवमिति, मन्न, स्वप्रकाश्यस्य व्यवसायालुक्यवसायोमयाकारत्वेऽपविरोधाद। तव मानमानसादो बहन्यनुमितिसामग्या दिप्रतिबन्धकल्वकल्पने महागौरवान्, घटचाक्षुषे सनि चानुपसामग्या सत्य तदनुम्यचसायानुपपसंवा तदानीं चक्षुमनायोगादिवि मकल्पनायां मानाभावान, परदर्शनोत्तर माहत्येव पटरर्शनान्, तदा चक्षुर्मनोयोगान्तगदिकल्पनयाऽनिगौग्यात् । प्यधूमघत्पर्वतवान् देशः' इस प्रकार के निश्चय से उक्त अनुमिति का जन्म नहीं होता । इस लिये वहिल्यायधूमधापन्छिम्न नकारतानिरूपितपर्षमयावच्छिन्नामुग्यविशेष्यताम निश्चय कोही भनुमिति का कारण माना जाता है । उक्त 'पर्वतवान् देश' या, सान पर्धनमुख्यविशेष्यक माहीं है, क्योंकि इस मान को पर्वत मिष्ठविशेप्यता में प्रकारताभिग्नरवरूप मुखमय नही है । अम! इस हार से क्रि की अमिति की भारमि नहीं हो सकती । पान को स्वप्रकाश मानने पर पर्वत में लियायधूम का समर्श 'मिस्याप्यमवरपर्वतं मानमि' म प्रकार का ही होगा कार इस में शानरूप विशेष्य में पर्यत विशेषण है, अतः पर्वतनिष्ठविशेषयता शाननिष्ठविशेष्यतानिरूपित कामतास्वरूप मोने से यद भान पर्वनमुगिशेप्य महों है. अतः इससे मनुमिति का जमन न हो सकेगा । इस आपत्ति के निराकरणार्थ यदि पमियशेष्यता में त्रानभन' नवशेष्यनानिपित्तप्रकारताभिन्मस्वरूप मुख्यत्व का निवेश किया जायगा नी कारण तापलेक में गोरष होगा, अतः शाम को स्वप्रकाश मानना असंगत है - इस संका का उत्तर यह है फि हाम को स्यप्रकाश मानने पर यदि उसे मनुव्यवसाय के ही आकार में स्वीकृत किया जाय तो पहनापत्ति भयश्य हागी, पर यति उसे केवल अनुष्यपसाय के आकार का न मानकर व्यवसाय और अनुव्यषलाय दोनो आकार का मामा आयगा तो पर भापति नहीं हो सकती क्योंकि जय पर्वत में शिष्यायधम का परामर्श 'पर्वती शिव्यायभूमधान' तथा 'मद वाशिव्याप्यधूमवत्पर्वतं जानामि' इस प्रकार के भाकार का होगा तो इस में पर्यतनिष्ट पक विशेष्यता शानिष्ठविशेष्यतानिरूप्रकारता से अभिग्म होने पर भी पतनिष्ठ सही योग्यता में कारताभिनन्यस्यरूप मुण्यत्व कोने से इसे अनुमति का कारण होने में कोई बाधा नहीं हो सकती1 ज्ञान को मनोमान मानने में गौरव दोष शाम को स्वप्रकाश न मान फर यदि उसे मानसप्रत्यक्ष का विषय माना जायमा तो चलि मादि के अनुमिति के पूर्य होते घाले परामशरिमा शान के मानमप्रत्यक्ष की शामिप्तिकाल में उपसि के धारणार्थ अनुमितिसामग्री को मानसप्रत्यक्ष का प्रतिबन्धक Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० शास्त्रवासिमुदाय-सषक १ लो० ८४ न च ममापि स्वविषयकत्वनियामकहेतु कल्पने गौरवम्, आलोकस्य प्रत्यक्षे आलो कान्तरानपेक्षत्रवत् स्वभावत एव बानस्य स्वसंविदितत्वात, अस्तु वा स्परप्रकाशनशक्तिभेदस्तथापि न गौरवम्, फालमुखत्वाच । मानना होगा, अस। इस प्रतिबन्धककाना से होने घाले गोरख के कारण ज्ञान को मनो. वेध मानमा जधित नहीं है। इसने भतिरिक्त ज्ञान को मनोवेध मानने में यह भी दोष है कि घट के चाक्षुष शाहि ज्ञान का मानसप्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि घट का अनुप उत्पन्न होने पर भी घट के अन्य बाभुष का सामग्री नी बनी ही रहेगो, फिर उसके रहते ठसाक्षुष का मानसप्रत्यक्ष फैसे हो सकेगा ? क्योंकि वासाइन्द्रियजन्यप्रत्यक्ष की सामग्री मानसप्रायक्ष को सामग्री की अपेक्षा बलवती होने से मानसप्रत्यक्ष की प्रतिबाधक होती है। उनके उत्तर में यदि य: करा ना कि- 'घट का वालपपरयक्ष होने पर बभु के साथ मन के संयोग का कारण का निवृान हो जाती है मनः नाभुः पातर की सामग्री न होने के कारण घटवानुष के मानस प्रत्यक्ष में बाधा नहीं हो सकसी.-" तो यह लोक नहीं सुगा, क्योंकि 'बदनानुष होने पर उसके कारपाभूत क्षु: मनासयोग की निति हो जाती है इसमें कोई प्रमाण नहीं है, परयुत घटचाक्षुष के ठीक दावी पटादिमाशुष की उत्पत्ति होनी मोहै, अतः उसके अनुगमन से घटनाक्षुष की बपति के समय बचमनःस योग का अस्तित्व मानना अनिवार्य ही है। ____ यदि घाइ कहा जाय कि-"घटवानुष होने पर उसके कारणभूस चक्षुमनासयोग की मिति तो हो हो जाता है, पयोकि अन्य असचाशुष का जन्म मानने को कोई मायायकसा न होने से उसके अस्तित्व का स्त्रीकार निरर्थक है, किन्तु जहाँ घटसाक्षुप के याद दी पसानिमानुष का जन्म होता है, यहाँ उसमे पूर्य नये अक्षुमनासयोग की उत्पति हो जातो है, ऐसा मानने पर घर चाक्षुप के बाद पटनानुष के छोने में किचित् विलम्ब अवश्य हो सकता है, पर यह विलम्ब उतना सूक्ष्म और सुध होता है जिसका अस्वो. कार केपल शपथ से ही हो सकता है जो प्रतिपादों को स्वीकार्य नहीं हो सकता"तो मह भी ठीक नहीं है, क्योंकि घरवाशुष के कारणीभूत क्षुमन:संयोग के माध की कापमा भौर पराविचाक्षुष के मनुरोध से नषेचनुमनासेयोग के माम को कक्षामा करने में अत्यंत गौरव होगा, अतः शान को मनोवेध न मान कर स्यप्रकाश मानना को अषित है। __[स्वप्रकाशज्ञानपक्ष में गौरव भापत्ति का परिहार साम की स्थप्रकाशता के विषय में यह आक्षेप किया जा सकता है कि-"प्रत्येक ज्ञान सपने स्वरूप को ही प्रवण करता है किन्तु अन्य झाम के स्वरूप को मही प्रक्षण करता, अतः शान में स्थप्राहकाव के लिए किसी नियामक हेतु की कलापमा मावश्यक होने से गौरवग्रस्त होने के कारण वाम की स्थप्रकाशता का पक्ष माहा नहीं हो सकता-" किन्तु इसके उत्तर में इतना ही फाइमा पर्याप्त होगा कि जैसे मालोक का प्रत्यक्ष अन्य भोलीक विमानो जाता उसी प्रकार मान का घेवन भो किसी अन्य। आदि मियापक हेतु के बिना ही उसके अपने सहा स्वभाव से ही सम्पन्न हो सकता है। मतः उक गौरव की को ससाना ही नहीं हो सकती। इसके अतिरिक यह Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का ष . . २७१ ... ... ... .. .. .. . . .. .. .. .morrn.rr. __ यच्चोक्तम् – 'झानस्य पूर्वमनुपस्थितत्वात् कथं प्रभारस्वम्' इति-तन्न, सस्पात्म पित्तिवेधत्वान्, 'अ सुशी' इत्यस्यापि 'मुंख साक्षात्करोमि' इत्याकारकत्यात, अनभ्यासादिदोषेण सयाऽनमिहापात् । यदर्षि 'प्रत्यक्षविषयातायामिन्द्रिय सन्निकर्प पत्र नियामक' इत्युक्त-तदए न, अली किफप्रत्यक्षविषयतायां व्यभिचारात् । न च लौकिकत्वं त्रिषयताविशेषाग, दोषविशेषप्रभवप्रत्यक्षविषयतायो व्यभिचारात्. बाने पराभिमतलौकिकविषयमाऽभावस्पेहत्वाच । साशावीकार करने में भी कोई गौरव मही होगा कि ज्ञान में दो शकिया होती है, एक स्वय मार को प्रकासितरने पालो गरी बिनय कशित करने वाली, मतः प्रत्येक शाम अपनी इन स्वाभाषिक शक्तियों से अपने विषय और अपने स्वरूप पोनों का प्राहक हो सकता। __ झाम की स्वप्रकाशना के पक्ष में यह शका की जा सकती है कि--"शाम अपनी उत्पति से पूर्व तो खान नहीं रहना, नया ज्ञाता में प्रकारका से 'अई घटानामि' इस प्रकार के ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है क्योंकि साप्रकारक ज्ञान के प्रति तविषयक धान कारण होता है-" किन्तु यह शंका ति नहीं है, क्योंकि शाम प्रारमवित्तिषेध होता है प्रगमे स्वरूपमाहासामग्री से ही प्रकारविधया भी पहीत होता है। माशाय यह है कि--'तत्यकारक ज्ञान में तहिषयकवान कारण होता है। यह नियमझानप्रकारक ज्ञान के लिये लागु नहीं होता। शान के समान सुख भी आत्मबिसिपेय होता है, इसी लिये मुख का ब्रान केवल 'अहं सुखी' पस प्रकार न होकर 'अई सुख साक्षास्करोमि' इस प्रकार ही होता है, इस रूप में सुखसान का ममिलाप का न होना तो उस प्रकार के मिलाप के अभ्यास न होने का फल है। प्रत्यक्षाबंघयता में इन्द्रियसीनकर्षनियामकरव का खंडन ज्ञान की स्वरकाशना के पक्ष में यह भी शंका की जाती है कि-'प्रत्येक स्वप्रकाश होने से अपमे स्वरूप के बारे में प्रभ्याक्षात्मक होता है अतः सान में जो स्थ विषमता होती है पर प्रग्याविषयताकपदी होती है, तो फिर यह कैसे उत्पन्नो हो सकती है ! क्योकि प्रत्यक्षविषयता का नियामक तो इखि यसमिकर्ष होता हो झानोपास के पूर्व बान के साथ सम्भव नहीं है'-किन्तु इस शंका का सर बहुत सरल है और पाया है कि अलौकिकपत्यक्ष को विषयता इन्द्रियसग्निकर्ष के बिना ही सम्पन्न होती है अतः इन्द्रियस्मिकर्ष को सामान्यरूप से सम्पूर्ण प्रत्यक्षविषयता का नियामक मही मामा जा सकता 1- लौकिकात्याविषयता इन्द्रियमिक से हो नियम्य होती है मता कान में कौकिक प्रत्यक्षविषयता मैली वषिषयतारूप में प्रकाशता नहीं मामी जा सकसी -यहा भी चित्र हो कहा मा सकती, क्योंकि पित्त दोष सेषित नेत्रवाके मनुष्य को शंख में रीतरूप का लौकिक प्रत्यक्ष होता है-सीलिये यह प्रम्यक्ष 'शले पोर्स साक्षाकरोमि' स प्रकार साक्षात्कार लोकिकपत्यक्ष के रूप में दी गृहीत होता है । फलतया वोपविशेष से क्षेत्र में घस होने वाले पीतरूप में इन्द्रियाग्निकर्ष Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ शास्त्रार्त्तामु १०८४ स्करोमि इति प्रानियामकस्पष्टताख्यमितायां च सम्बन्धविशेषेण विषयनिष्ठस्य प्रत्य क्षपतिबन्ध कज्ञानावरणापगमस्य शक्तिविशेषस्य वा नियामकत्वमिति न किञ्चिदनुपपन्नम् । के बिना ही लौकिकप्रत्यक्ष की विषमता होने से सामान्यतः लोककथा को भी सिन्निकर्ष से शिवस्य नहीं माना जा सकता। इस के अतिरिक्त यह भी कहा सकता है कि इन्डियनकर्ष से शिवम् मो लौकिकप्रत्यक्षविषयता यात्री को मान्य है वह शाम को स्वप्रकाश मानने वालों को ज्ञान में मान्य भी नहीं है, अतः उसकी अनुपपत्ति की शंका का कोई असर ही नहीं है। [ स्पष्टतानामक विपयत साक्षात्कार नियामिका है ] अब प्रश्न केवल यह रहा है कि जब ज्ञान स्वप्रकाश होगा तो वह साक्षा करोमि इस प्रकार के शाम का विषय कैसे होगा ? क्योंकि साक्षात्कार की विश्यता यिनिक वस्तु में ही होती है और मान को स्वप्रकाशता के पक्ष में यसन्निकर्ष के बिना ही गृहीत होता है"- किस्तु इसके उत्तर में यह कहना पनि है कि 'साक्षात्करोति' इस प्रकार के ज्ञान की विश्वतायिसन्निकर्ष से सम्पन्न होने बाली प्रत्यक्षविषयता के अधीन न होकर स्पष्टमानामक विलक्षण विध्यता के मधीन होती है और वह विषथता किसे नियम्य न होकर प्रत्यक्ष के प्रतिबन्धक ग्रामावरण के भाव से निस्य होली है। कहने का आशय यह है कि संसार की समस्त पस्तु सनातन प्रत्यक्ष चैतन्यात्मक मात्मा से शानसम्बन्ध द्वारा देय सम्पृक्त होती है, किन्तु कर्मत्रोष जिसे कालाधरण कहा जाता है उस से चैतन्य आवृत होने से धन्तु का स्पष्ट प्रकाश नहीं हो पाता. किन्तु यह तब तक जब तक उस मामाकरण-कर्म की निवृत्ति नहीं होती जब वर्तक कारण का सम्मान होने पर शाभावरण कम की निवृत्ति होती है, तब वस्तु का स्पष्ट प्रकाश होने लगता है। शाभावरण की ग्रह निवृत्ति स्वभावतः चैतम्पगत होने पर भी एक विशेष सम्बन्ध से विषयनिष्ठ होकर उसे स्वछता प्रदान करती है। उस सम्बन्धविशेष को स्वप्रतियोग्यावरणावच्छेदकत्व नाम में कहा जा सकता है । 'स्व' का अर्थ है सानाधरण का अभाव उसका प्रतियोगी है आदरण उसका अवश्य विषयभूत वस्तु में यह है कि आत्मस्वरूप सनातन सहज बैतन्य भिन्न भिन्न विवस्त वस्तु रूप भवच्छेदकों से अच्छन हातावरण से सदा भावृत रहता है, और जब जिस विषय वस्तु से अम्नि चैतन्य के शातावरण का अभाव होता है तब मान वक्त सम्बन्ध से विषयगत होकर उसे स्पष्टता प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जा सकता है कि शान में विषय को स्पष्ट करने की एक विशेष शति होती है यह शक्ति जिस बान में रहती है उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। इस शक्ति से ही प्रत्यक्षज्ञान में भारित होने वाले विषय में स्पा आती है। इस प्रकार इस स्पष्टता नामक विश्यता इद्रिसन्निकर्ष से नियमन न होने के कारण इसे इन्द्रियमन बिना भी ज्ञान में स्वीकार किया जा सकता है, मत्रः मान की स्वप्रकाशता का पक्ष उक्त शंका से धूमिल नहीं किया जा सकता । दे Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० टीका व क्रि० वि० 'अमेत्य ?' 'किस' इस चेत् वभाव तुमशक्यत्वेऽपि प्रत्याख्यातुमशऋत्वान् । चे गथा घटाभावे घटाभावविशेषणत्वम् । अनिर्वचनात् तदसिद्धिरिति चेन्न तस्याख्या यस्यत्वमेवविपयत्व' इति तत्र, आत्मन्यतिप्रसङ्गात् ज्ञानपददाने छापा पदार्थानामाश्रयद्धारेऽपि तस्या अनन्यथासिद्धनियतपूर्ववृत्विज्ञानन्यान्योन्याश्रयानेति विभावनीयम् । [ अनन्य पदार्थ विषय-विभव का मगन] भाव भिन्न 10 an अब गफ शेष रह जाता है वह यह कि शाम यदि स्वप्रकाश है तो हम और उसके संवेत्र में निची अभेद है, फिर साग अपने से अभिश्न संवेदन कर विषय कैसे हो सकता है क्योंकि विषय विमाघ भिम गवार्थों में ही हैकिन्तु इस ग्रह का अनायास दिया जा सकता है जैसे विशेष्य- विशेषण स्थामि स्थलों में ि * me dar† cá nær s Aux-lankama fare qua i ए होने पर भी शान के साबन्ध में से अभिभो मानने में कोई बाधक नहीं हो जैसे जाता है कि घटाभाव में घटाभाव पर्ने विशेषणता घटाभाव की ही पार्था घटाभाव अपने स्वभाव से हो अपना विशेषण चनता है उसी भी माना जा सकता है कि शाम की स्वविषया भी ज्ञान का म्यभाव है, अर्थात ज्ञान अपने स्वभाव से ही अपना विषय बनता है, इस स्वभाव का कोई न सका तथापि निखन न होने मात्र से इसे अस्वीकार नहीं किया जा सका पर्याक इसका प्रत्यास्थाम भी नहीं किया जा सकता और नियम विजय तक किसी वस्तु का प्रत्यास्थास महोब रुकमाया असंगत है । [स्वविषयस्त स्वभ्यवद्वाफ्तत्वरूप नहीं है ] ज्ञान को स्वयता के बारे में एक बात यह कही जाती है कि "ज्ञान की स्वि यता छात्र का स्वभाव नहीं है किन्तु ज्ञान में जो स्वयमपहारकना है यही उसकी स्वविषयता है | यह कि ज्ञान से भिन्न वस्तुयें सपने व्यवहार के सा इसमें शक नहीं वाली किन्तु भवने ज्ञान के द्वारा शत होती है, पर पान स्वयं ही व्यवहारका करने में शक्तता है सो ज्ञान में जो पस्य शहता है या उसकी विस्वाशना है किन्तु यह बात ठीक नहीं है। कि यदि स्वश्ववहारात काश्यता माना जायगा तो आत्मा में भी स्यधियता का पति होगा क्योंकि पप स्वयं स्वव्यवदारक होता है। इस दोष के के राजा कि वारशामत्व विषयता है तो यह भी शा.पा. ३५ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ शास्त्रवालिमुरुपय-मयक प्रो० ॥ __यदपि 'प्रत्यक्षाजनकस्य प्रत्यक्षाऽविषयत्वं स्याद' हत्युक्त नदपीश्वरादिप्रत्यक्षविपये गगनादौ व्यभिचारग्रस्तम् | लोफियपयत्येनेन्द्रियग्रामवाजाने न स्वप्रकाशत्वमा र्याप रिक्तमुक्त, शक्तिविशेषेणैवेन्द्रियग्राहात्यात, शौकिकापयत्वेनाइतवान्, तपस्यानीन्द्रिय आपाधठीक न होगा क्योंकि उस दशा में छा आदि में मानव न रहने से उनमें स्वविधयता न हो सकेगी, सब कि स्थघिधिन मानवानी को इन्छा गादि में भी स्ववियना मान्य है। इसके अतिरिम्स यह भी न ऊन सकता है कि स्वव्यवहारशनाव स्वषिषयता से मभिम्न है या भिम्भ ? यदि अभिन्न माना जायगा सो स्वविषयता से अभिम स्थव्यपवारशकता को ही स्वषिष्पना का नियामक मानने से भामाश्रय दोष हांगा । यदि इस दोष के परिहार्य व्यवहारातत्य मो म्पविषयता से भिन्न मामा जायगा नो भन्योन्याभय होगा, क्योंकि ज्ञान स्पषिपयक होने पर हो स्यग्यपहारशक्त हो सकेगा और स्वारशक होने पर ही मविषयक हो सकेगा। सम्योन्याय की पर आपत्ति प्रास्ट में इस प्रकार कही गयी है कि जो वस्तु जिस वस्तु के प्रति मनम्मासिस और लियतपूर्वषोंरूप में बात होती है उस वस्तु में उस वस्तु की सम्पादिका पाक्ति मानी जाती है अतः जाम में स्यव्यवहार की शक्ति भी उसी प्रकार झंग हो सकती है, फलतः म्यव्यवहार के प्रति स्वविषयक नान के कारण होने से ज्ञान में स्वविषय सियाहोने पर ही असमें स्वम्याहार के प्रनि अनन्ययालिनियनपूर्ववत्वका कारणता का कान होकर स्वयबहार शक्ति की सिसि हो सकेगी और उन शक्ति को स्वविषयकाय का नियामक मानने पर उक्त शक्ति की सिद्धि होने पर ही शान में स्यविषयकाय की सिधि हो सकेगी, वातः स्यव्यवहारशक्तत्व और विषयकाय घोनों के परस्पर सापेन होने से शम्योन्यालय सपए है। [प्रत्यक्षाजनक-प्रत्यक्षाविपन नियम का भङ्ग शान की स्थविषयता के विराय एक पात यह भी कही जाती है कि-"मो जिस प्रत्यक्ष का जनक नहीं होता बह जल प्रत्यक्ष का विषय नहीं होता, या नियम है। अतः कारन स्वारमकप्रत्यक्ष का जनक न होने से स्याम्मायक्ष का विषय नहीं हो सकना"-किन्तु पह यात भी ठीक नहीं है क्योकि गगन गावि पदार्थ ईश्वरीय प्रत्यक्ष का अनकम होने पर भी उसके विपय होते है अना उत्त नियम व्यभिचारग्रस्त होने से अमान्य है। फलतः जैसे गगन भावि पदार्थ ईश्वरीयप्रत्यक्ष का जनक न होने पर भी उसके विषय होते है वैसे ही जान स्थात्मक प्रत्यक्ष का जनक न होने पर भी स्वारमकप्रत्यक्ष का विषय से सकता है, यह मागने में कोई बाधा नहीं हो सकती। हिन्द्रियग्नत्व का नियामक लौकिकविषयत्व नहीं है ] 'यो विषय लौकिक होता है या इग्विय से गृहीत होता है, वान भी लौकिक शिय है, अतः यह इन्द्रिय से ही माघ दो मकता है. स्वप्रकाश नही हो सकता'यह कथन भी युक्तिशून्य है, क्योंकि कोई भी वस्तु लौकिकषिपय होने से इन्द्रिप्राहा Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या० ० टीका पह. वि. २७५ त्वात् । शक्तिविशेषस्यैव नियामकन्धे लेन रूपेणाऽन्यथासिद्धेश्च । एतेन 'ज्ञानमानसा नभ्युपगमे धर्मादीनामिव तस्यायोग्यस्वाय मानससाक्षात्कारप्रतिबन्धसत्वकल्पने गौरवम्' इति नव्यमतं निरस्तम् 'अयोग्पत्यस्य प्रतिबन्धकत्वेऽविश्रामात् स्वरूपायोग्यतयैव तवान् इति यौक्तिकाः । यत्त-अनुमित्यादी सांकर्यात प्रत्यक्षत्वं जगति स्याद्' इत्युक्तं-राथैव, शानमही होतो अपितु अपना विशेष शक्ति से इन्दियनाय इती है। यवि लौकिक विषय होने से घस्तु को पन्द्रियमाहा माना जायगा तो अतीन्द्रिय यस्तु में भी इन्द्रियप्रावस्य की मापति होगी, क्योंकि "वस्तु लौकिक होने से निगमाय हो भोर मलौकिक होने से इन्द्रियग्राहा न हो' इस बात में कोई युकि नहीं है। अतः लौकिकविषय को भी पतिपिशेष से जीन्द्रियगाना भान ना होगा और जल फिनिक्षेप को दिमाहात्य का नियामक माना जायगा नव उत्तासे इन्द्रियप्राहा को उत्पत्ति हो जाने से लौकिकधिघयत्व भन्यथासित हो जाने से इन्द्रियपात्यन्व का निधायक न हो सकेगा । फलित यह हुआ कि वियप्राबल्य का नियामक दौकिकधिषश्च नहीं है जिन्तु शक्तिविशेष है मौर वह शक्तिविशेष धान में महों , अतसोविकविषय होने पर भी नाम इन्द्रियप्राय नहीं हो सकना, अतः उसे स्वप्रकाश मानने में कोई बाधा नहीं है। ज्ञाग के मानसप्रत्यक्ष का मन्तव्य मयुक्त है] इस सम्बन्ध में नवीन विधामों का यह मन है कि-"शान को मान समस्या का विषय न मानकर यदि स्यसविविन माना जायगा तब उसे मामलामत्या के मयोग्य लिख करने के लिये विषयतासम्बन्ध से मानसनत्यक्ष के प्रति तादाम्यसम्बन्ध ले ज्ञान को ठीक उसी प्रकार प्रतिबन्ध मानना होगा सिस प्रकार धर्म (म) मादिको मानसमत्यक्ष के अयोग्य सिह करने के लिये उन्हें विषयतासम्पन्ध से मानसप्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य सम्बाध से प्रतिबन्धक माना जाना है, फलतः मान को स्वप्रकाश मानने पर उक्त प्रतिबन्धाता की कल्पना से गौरष हागा, अनः हाम को स्वप्रकाशन माम कर मानसप्रत्यक्ष का विषय मानना ही उचित है" किन्तु युक्तिवात्रियों की राष्ट से यह मत भसंगत है: स्योंकि वस्तु की प्रत्यक्षाऽयोग्यता प्रयास के प्रति उसकी प्रति पन्धकता के कारण नहीं होती, अपि तु उसको स्वरूपगत भयोग्यता के कारण होती है। प्रत्यक्षाव का जातिम्प न होना इस है] "ज्ञान को स्वप्रकाश मानने पर अनुमिति आदि जान भी स्वप्रकाश होगा, और जब षड स्वप्रकाश होगा तो घर वपने रूप के विषय में प्रत्यक्षात्मक होगा, भता मनुमिति आदि क्षानों में शामितियिषय के श में परोक्षय और अनुमिति स्वरूप के मंच में प्रत्यक्षात के समावेश होने से प्रत्यक्षरय में पोशल्य का सांकर्य होने के कारण प्रत्यक्षत्य आति न हो सकेगी, अतः शान का स्वप्रकाश मानना ठीक नहीं है ।"-किन्तु घर का भी मन नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षय कोइ जाति नहीं है, अपितुषहमालजम्यता का अनवच्छेदक तद्विषयकम्य रूप उपाधि है' यही मान्य है। अत: प्रत्यक्षरव में मातिन्वाभाव का आपायन एट होने से उस भप से मान की स्वयकाशता का त्याग Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E शास्त्रधाखसि मुरुमय- स्तबक ग्लो० ८४ अन्य तानयच्छेदन वस्त्र प्रत्यक्षत्वात् तच्च च स्वाच्छिनकनाज्ञानोपहिवर्षा विश्वविशिष्टज्ञानजभ्यतावच्छेदकमिन्नत्वम् तता प्रत्यक्षेषशेऽप्रत्यक्षत्वं क्षित्रियकल्स् वृमणराम तावदिति बोध्यम् । कोई ज्ञान आन्या प्रत्यक्ष एष तु होने से प्रत्यक्ष होना है । अनुमिति व्यामिशन से उर्माि माशान से, शाब्दबोध पश्शान से स्मरण अनुभवमान में जन्म होने के कारण प्रत्यक्षरूपता नाम कन्तु जन्य अथवा अत्मा के शक्तिविशेष से अन्यज्ञान किसी ज्ञान से जय न दानं क कार प्रत्यक्षात्मक होगा में मद्द किया जा सकता। आशय यह | अतः ज्ञान की प्रत्यक्षस्वरूपता प्रस्वत के अधीन करू शानाजन्य या पान अगर जानव एक सयत्व के धान है अतः स्थय में तानियाभाव है । शिवप्रत्यक्ष में आया की पतका परिहार | इस संदर्भ में यह शंका दो कि-"यदि बावजस्तातपच्छेदक तद्विषयक को समरूप माना जायेगा तब किसी अंश में अलकिकशोर ि में खांकित भादश मे प्रत्यक्षात्मक न हो सकेगा, क्योंकि वह प्रत्य जिस मंथ में अलाफिक होगा उस जश में राज्य दोने से उस छान में रहनेवाला किविषयी ज्ञानजनका जायगा से व िवायुमान यह बायु में अलोकिक हाने से छा यह बानुज्ञान व जन्यः स जानने वाला घायु विषय जैसे शोतजन्मनसा प्रकार इसमें रहने चानुपप्रत्यक्ष अशोक यच्च भी ज्ञान की जन्यताको बाधक है। आशय यह है कि एक कारण से कार्य - अम्मीने से समय का कार्य का जयक मानना होगा, सामग्री के मांतर भाने बाले पदाथ स्वतन्त्ररूप से कारण होंगे, फळतः 'मान्य यदि नाथ इन्द्रियां से अन्य होगा गांर उस जन्यता का होगा, तथ अथ उस अत्यक्षदश्य रुप घाणमामा का अन्ताक होगा तो आयुशन का संग अन उपलक्ष में ज्ञान जन्यनामयमें कत हो । और वायुशान से घटित सामग्री वायुकारक विशेष प्रत्यक्षत्व एक पक्षिविषयकत्व न दान हो सकती है, की जान वह अन्य कारण से भो द्राणखान का जन्यत से में बांध यह कि अनुमित होता है और समाज की विषय में वह्निमान्' इस प्रकार की पति होगा और घर धूपराम का जन्याकरान से ज्ञानजन्यता का अन प्रत्यक्ष मं ज्ञानजस्वराच्छेविन ढोने से रहन चालक एक 1 क न की सकेगा, इसलिये वह डिश में प्रत्यक्षात्मक Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या क. टोका २२३७ ननन्यताबन्छपकस्योपक्षिनोंद्देश्यमायियसाचारमाविषयताम्यत्वं वा तदर्थः, বন নাথুরাবিবিসিস নবিকারূকাভিলাষখানাগলিখা 'मेत क्षति नानगान नन्सामग्रीनः' इत्यनुमिताबहेविषयकत्यादिनापि ज्ञानजन्य बाच्च नशेऽअन्यसत्यम निदान । जितु यः धिम् शंका प्रत्यक्ष के सम्बन्ध में उस मान्यता को बाधक नहीं हो सक, पर शानजन्यमान पदमाय हा अयं सामान्यतः मानमाष को जन्म ना का सानयापक न .न्नुि जा ज्ञान पावच्छिन्न जनता के घाययभून पान से युक्त गुरुप विमान दो पझार भी जम्पा का भनवालले इफस्य विषक्षित व का प्र य पात्र. निर्वाचन नदिषय कन्य । 'बहिः वायुपान' या प्रत्यक्ष जिस पुरुष | हाई पर यक्ष के पूर्व वायुनान से युक्त होता है. न किवति शान से युक्त श्रीनाद, मार घायुसान बालविषयकन्याछन जसकता का शाथय महो हाना, अत: * प्रत्यक्ष पक्षियपरम्प के सावनिम्तजनकता के भाभयभूत ज्ञान से पुन पुररनेवाले जाल की उम्पता का अमवर होने से उक्त प्रत्यक्ष में बनिया में अपना नापनि नदो हो सातो। दगो प्रकार पता बालमान बन अमिति के प्रति यहिविषयमानायनशान के कारण नापू । अनुमान का गानयभूम पुरुर भी विषय या ग : I TI प्राधमा साग से युक्त होता, अतः उस अनुमति का नमक 1. पजवषयकवाधारसन्नजनकता को आश्रयनशानयुक्त, घुमर में न रहने के कारण उ म हा जयनारस कम्य प्रत्यक्षात यांविषयकाय * विवक्षित मा.न का जप का आनन्छेक होने में बाधा नी डाला , अतः पणिविषयमय के घूमनामी का जाय तापकने पर भी प्रत्यक्ष में यदि श में अपत्य सत्य का भापत्ति नहीं है। सकता । [पुन: अप्रत्यय के आपात का परिकार] वायनानवच्छवाय #r शान वशेष का जन्यतानयरछेदकत्व' अर्थ मानने एस मा मनोक..."धनामक एक व्यक्ति का स्वरूप से ये स प्रधा। प्रत्यक्ष होता है, चैत्रय यतः एक ही व्यक्ति का धर्म है। अतः उस व्यक्ति के पूर्व काही यच अन्य का प्रार सम्भय महोने से उस प्रत्यक्ष के प्रति प्रायज्ञान को को माना जा सक, I उनी कारण वैधत्य विषयमानस्यायरिछतजनमापसी | 1 चैत्रत्याविपय कस्य स्याम्मिानना के आश्रयभून पुगत पुरुप में बहने वाले सान की प्रन्यता के अजयमका में शाय न जान से कम्यक्ष में चयविषयकप्रत्याभव को अनुपातो कामी. मतः एक शिशाय यस्य की शानजन्यानवम्छे स्व' का अर्थ नहों माना : सकता। ये बात से उना लौकिकमायस में शि में अप्रत्यक्षाब की आगत फागदार मुर-हमा प्रकार यद भी शंका हो सकती है कि-"अमुक शाम को पाममा से मान्मा # अमुक भान को को 'अहम मुकशानयान इस प्रकार की अनुमिति ती ६. वह मुकमाल अंश में तो परोक्ष है पर आई अंश में प्रत्यक्ष Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ... शास्त्रषासमुपय-मतबक कोक ॥ वस्तुतः स्पष्टताख्यपिपता प्रत्यक्षत्यम, अत एव 'पर्वतो वहिमान्' इत्यत्र पर्वतांशेऽपि स्पष्टतया प्रत्यक्षमिति 'वहिं न साक्षात्करोमिनियन पर्वतं न साक्षास्करोमि' इति न धीः । अत एव प 'स्पष्ट प्रत्यक्षम् प्रमाणनय० २.२। इनि प्रत्यक्षलक्षणं मूत्रितम् । विवेचितं चे ज्ञानाणवे । अतश्च स्वसिदितस्य प्रमाणान्तरवप्रसनोऽप्यपास्तः । पर उक्त शामसम्यतानवच्छेद कतद्विषयवाय को ततिपयकप्रत्यक्षवरूप मानने पर उक्त मनुमिति महम् मश में भी प्रत्यक्षरूप न हो सका, क्योंकि उफत अनुमिति के प्रति 'महम् ममुकमान पायामुक सामग्रीमान्' पद परामर्श आई यग्यकन्य सा से भी कारण होता है अतः उक्त भनुमितिगत भई धिक्यात स्त्रावच्छिम्नशनकता के भाशयभूत उक्त परामानिमक पान से युक्त पुरुष में रहने बाहे उक्त परामर्शमकशान की जन्यता का अवच्छेत्रफ हो जाने से विपक्षितज्ञान की सभ्यता का अनववक न होने से मषिषयक प्रत्यक्षपका हो सकेगा।" इन दोनों शंका का यह उत्तर दिया जा सकता है कि शानजस्यतानबमोदक तदिपयकत्वरूप पियकमात्यक्षस्य के गर्भ में जो शामजन्यतावच्छदकत्र प्रविष्ट है वह हैश्यता विधेयता मानि विषयता का उपलशक है अतः प्रानजन्यतामवर एकत्व का अर्थ व्यविधेषताविमिनाय । फलतः वयं त्रा' रस प्रत्यक्ष में सहयता विप्रेयता मादि से भिन्न क्षेत्रवषिषयमा होने से और उस मनुमिति में उपता आदि से भिन्न भी महविषयता होने से उक्त प्रत्यक्ष में बेत्रावविषयकप्रत्यक्षस्य की मोर उक्त मनुमिति में महंविषयकप्रत्यक्षाव की गनुगपत्ति नहीं हो सकती। स्पष्टता नामक विषयता हा प्रत्यक्ष व है | सप बात तो यह है कि प्रत्यक्षाय न तो कोई जाति है और न मानसन्तानवरके. एकविषयकावरूप या उद्देश्यता विधेयता भादि से भिन्न तद्विषयताकप है किन्तु स्पष्ट तामामक विलक्षणविषयताकप है। ___ आशय यह है कि किसी वस्तु का स्पए शान ही उस घस्नु का प्रत्यक्ष । अनुमिति भाविज्ञान साध्यवस्तुमादि में स्पष्ट न होने से ही साध्याधि अंध में प्रत्यक्षात्मक नहीं होसे, स्पष्टता ही प्रत्यक्षत्य है। इसीलिये 'पर्वतो हिमान' यह भनुमिसि भी पर्वत अश में स्पष्ट होने से ही उस अंश में प्रत्यक्षरूप होती है और पर्तन अश में प्रत्यक्ष रूप होने से ही इस अनुमति के पाद 'म साक्षात्करोमि' के समान 'पर्वन न माना करोमि यह धुशि मर्यो उत्पम्म होती है | तात्पर्य यह है कि उक्त अनुमिति हिमश में नहाने में उस गश में साक्षा काररूर नहीं है, अतः उक्त मनुमिति के बाद 'पनि सातारकरोमि' पर युद्धि तो हो सकती है, परन्तु पर्यत अंश में स्पष्ट होने से उस अंदा में साक्षात्काररूप होने के कार० उन भनुमिति के याद 'पर्यतं न साक्षात्करोहि' या बुद्धि नहीं हो सकनो, क्योंकि अनुमिति के रूप में पत्र का साक्षात्कार विद्यमान है। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या कपका परि० वि० न चैयं प्रत्यभिज्ञायस्तिनांशे स्मृतिरूपत्वेनेदतांश च प्रत्यक्षत्वेनोपपत्ती स्पतिपार्थक्येन परोक्षमध्ये परिगणन विरूध्येगेरि मापू, शिपोशमन माझा तस्याः पृथक परिगणनादिसि युक्तमुत्पश्यामा, अधिकं 'न्यायालोक' । बोधः स्वार्थावबोधक्षम र निहतानानदो पेण इष्टः सस्मादस्माकमन्त विरचयनि चमत्कारसार विकासम् । येपामेषाऽपि वाणी मनसि न रमते स्वाग्रहप्रस्ततस्यालोका कोकास्त पते प्रक्रनिपाठधियो पन्त । इन्तानुकम्प्याः ॥८४॥ एसा ही प्रत्यनम्न है यह सात प्रमाणनयतयालो' नामक अन्ध में दिये गये 'पर' प्रत्यक्षर' इस मग्यलक्षण से भी सिच है: अथवा प्रायसव के सानारूप होने से ही प्रत्यक्ष का उक लक्षण मो मूत्रित हुआ है। इस स्पमताका प्रत्यक्षत्व का षिवेषा सपास यशोविजयत हानार्णव' नामक प्रमथ में भी उपलभ्य है। स्पता को प्रत्यक्षम्यरूप मानने से इस शैका को भी अपलर नहीं कि 'शाम को स्थ का संवेदक मानने पर उसे एक स्वतन्त्र प्रमाण मानना होगा क्योंकि हम अपने स्थरूप में भी स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष प्रमाण में ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है। प्रत्यभिज्ञा का पृथक पारंगणन अनुचित नहीं है। इस सन्दर्भ में या शंका हो राफनो , * "श्याभिशा-'सोऽयं धन: इस शाम को स्मृति में भिान परोक्षशान के रूप में प्रथों में परिगणित किया गया है, किन्तु स्पषता को प्रत्यक्षम्यरूप मानने पर उसे स्मृति से भिन्न परोक्षहान कहना उचित नहीं हो सकता क्योंकि न प्रत्यभिशात्मकमान तप्ता अंश में स्मृतिकप होने से स्मृसिभिन्न मही हो सकता और बसन्ता वश में स्पष्ट होने से प्रत्यक्षात्मक होने के कारण परोक्ष भी माहों हो सकता। - इस शंका के उत्तर में यह कहना उमित प्रतीत होता है कि प्रत्यभिशा का स्मृति से भिन्न परोशमान के रूप में जो परिगणन हुआ है उसका कारण या मही है कि यह तत्ता अंश में स्मृतिरूप और सता मंश में प्रत्यक्षरूपनों के सकता, किन्तु उसका कारण यह है कि जिस श्नयोपशम में स्मृति मोर प्रत्यक्ष का जन्म होता, प्रत्यमिता का जन्म उस प्रकार के क्षयोपशम से होकर उससे बिलक्षण क्षयोपशम से होना। अतः स्मृति और प्रत्यक्ष की सामग्री से षिलक्षणसामग्रीहारा उत्पन्न होने से उसे प्रभृति और प्रत्यक्ष बोमो से विभिन्न मानना ही न्यायसंगत है। इस विषय में अधिक विचार 'उपाय यशोषिप्रय के 'भयायालोक' नामक प्राय में उपलभ्य है। इस समस्त प्रकरण का निष्कर्ष या है कि शामावरणीयकमंडप महानतोष से मात काम उस दोष के निवृत होने पर ही अपने विषय को प्रकाशित करणे में समय होता है । विषय के प्रकाश में उक्त दोष की निवृत्ति के मतिरिक्त किसी वस्तु की अपेक्षा उसे नहीं होती।' इस मापना से ही इस आईतों का सिपमहत मौर उकसित हो जाता है। किन्तु इस उमम बात में भी जिन लोगों का मन नहीं रमता, निश्चय हो वे स्वमात्र से शल्युष्टि है , उनका तरवमान उनके काम से प्रस्त है, अतः उक्त तथ्य का पुनः पुनः उपदेश देकर उन पर छपा करमानी अषित | | Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०० शास्त्रवासासमय-स्तबक १ प्रलो० ८५ ____ "नन्ययमपत्ययो नामनि साक्षी, नीलादेरिवार कारस्यापि बुद्धि विशेषाकारत्वात, नीलादि-पनविदो विषेकाऽदर्षानेन 'मेदाऽसिद्धः कर्मनया भानम्ग पूर्व प्रान्तिानामसकत्वात, बाबार्थ पिनाऽपि तदापास्य रजतादिभ्रम य , मनुमा भेगांड र्थाभावसिंदेः, परोपलम्भे मानाभावान्ः भावेऽपि म्बार दृष्टनीको म्यवसादिवडे कत्वाऽसिद्धा, कर्याचदेव किनिदाकानियमस्य च म्बनमायामा नागरायायायामपि नियत्तबासनाप्रबोधेन संवेदननियमादपपमः" इत्याशङ्कायमा [विज्ञानवाद का मामविरोधीनो । ] नित्यात्मवाद के वरोध में कार की ओर से यः ई.का 1 सकती ६ मि... "अहम-"में इस प्रकार की प्रतीति में विग्नि निन्य सागा की मिति ft 1 मनमी पोकि नील आदि पवाघों के समान आकार देश में सा हमादामी पुद्धि का ही एक विशेष आकार है, अतः पुरंद में एक उमा स्नाय नी ? सकता । यदि यह कहा जाब कि- नील आनि घार्थ संनद घुस प.1 विशेष दाःकार होने से बुद्धि से भिन्न नहीं है. इस बात में कोई HR. IF में में शान्तमा में प्रस्तुत नहीं किया जा सकना" तो यह नाकमा , क्यों, नीran दि संघिद' वृद्धि से भिन्म होते तो धुनि से पृथक उनका प्रशंग होना, गा गा नी दाता * किन्तु युनिट के निवेदन के साथ ही नील आनि .1 मा . मान सार्थ में बुद्धि का मे सिजन होने में !न्हें विशेषका मानव निसिंगन लिये भईकार को शिविशेषामक बनाने टिप्रे .I. A का एकमा प्रस्तुत करने में कोई पात्रा नहीं हो पनी । नील आह को मंयिम् से अभिन्न मानों पर सका संघर के कर्म कप में भार माटी हो सकता'- पह शंका नहीं की जा जत्रो योकि अनागों को न भात वाया में सचिव की कमता का मो भ्रम है उनी में उत्तरोना भी सर प्रकार का भ्रम होते रहने में कोई नियाध नहीं हो सकता। ___ बाह्य दुलि से भिन्न अर्थ की सना यति न होगी तो युमि का अर्थ का बाका न प्राप्त हो सकगा' पर पोका भी नाही की पा सकती, क्या करमत न होने पर भी रजनम को बजन का साकार प्राप्त होता . मा प्रकार अन्य बुया का भी अर्थ होने पर भी भार्थ का साकार मागत होने में कोर बाधा नहीं हो सका। सत्सवमकार बुद्धि से पृथक तत्तद् अर्थ की बना न गानने का एक या मो काग है कि तसभोंकार बुति के उगलम्म के पूर्व नमद्भय का परम्म होता । यदि नार्थ का रस पी कार बुद्धि से पृथक मिनत्य हाता तो कवर के पूर्व भी उन को भाकार प्रदान करनेघाले अर्थ का उम्मTIT, पर मानी होता, मातः समन् वर्षाकार युग्म मे मित्र जनन् पर्थ की सना का सम् नी । "रिस काल में जिस मनुषय को तत्सत् अशाकार बुद्धि होती है. उस काल से पूर्व उस मनुष्य को तत्तत् अर्थ का उपसम्म न होने पर भी अन्य मनुष्य को तरा अर्थका Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ . ... ....... . स्या का टोका : वि० उपलम्भ होता है, अमः भाय मनुष्य के रस उपलम्भ के बल से नल अर्थ की बुद्धि से भिन्न तत्तत् मर्य की सत्ता सिद्ध होने में कोई बाधा नही हो सकती. पोंकि इस प्रकार के बस्तम्भ में कोई प्रमाण नही है और यदि इस प्रकार का उपनाम मान भी लिया जाय तो यह मानने में कोई युति न ई कि एक मनुष्य जिमील एदाय को देता है, भम्य मनुष्य भी उस्त्री नील पदार्थ को देखता है, प्रत्युत यह मामला अधिक युक्तिसंगत है कि जैसे विभिन्न मनुष्य के अनुमय में आनेवाले सुखों में पश्य नहीं होता उसी प्रकार विमिन मनुष्यों के अनुभव में आने वाले नील मादि पापों में भी ऐक्य नहीं होता । मतः यह मानना को विन प्रतीत होता है कि नसत् मनुष्यों को प्रतीत होमे ले मील मावि पदार्थ नत्तत् मनुष्यों को होनेवाले तत्सम्मकारखानों से भिन्न नहीं है। "पशाम का मो आकार होता है, वही अन्य ज्ञानों का भी ध्याफार नहीं होता, किन्तु नियमितरूप से भिन्न-भिन्न हान भिन्न भिन्न आकार के ही होते हैं, प्रान के थाकार का यह नियमन अर्थमूलक की हो सकता है, पर यदि शान से भिन्न पर्ष का मस्तिस्य ही न होगा तो गक साधनसामन्त्री से होनेवाले सब मान समान माकार के ही होंगे क्योंकि उन में प्राकारमेव का कोई आधार न होगा, असा शानी में अनुभयसिम श्राकारमेर की इपत्ति के लिए यह मानना आवश्यक है कि प्रत्येक पान अर्थमूलक होता है, अन। जो काम जिल अर्थ में मान्म होता है या उस अर्थ के आकार को प्रास करता है।"-किन्तु पर युकि भी मानभिन्न गर्थ को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त नहीं है, क्योंकि स्वयकाल में भी मनुष्य को विभिन्न धाकार के काम उत्पन्न होने पर उस समय शान को आकार प्रदान करनेवाले अर्थ जप म्थत नहीं रहते, अतः यह मानना पडताकि उस समय होनेवाले सानो को को विभिन्न भाकार प्रास होते है ये अर्थ से प्राप्त न होकर समानाकार वासना से ही प्राप्त होते हैं. तो फिर मैंग स्वयकाल के भिग्नाकारमान भिन्नाकारचालना से उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार जागरणकाल के भिन्नाकार ज्ञान भिन्नाका. याममा मेही उत्पन्न हो सकते हैं, अतः उनके लिंग शाम से भिन्न विविध अधों की कल्पना निरर्थक है। आशय यह है किसान और बासना का प्रवाद मनादिकाल से चला था रहा है। दोनों के अनावि होने से यह कहना सम्भव नह है कि इन दोनों में किसका उदय पहले हशा और किसका बादमें, किन्तु इस सम्बन्ध में इतना ही कहा जा सकता है कि काम से यातना और पासना से शान की उत्पत्ति का कप वीज और बंकर की उत्पत्ति के मर के समान अशातकाल से चला जा रहा है। इस क्रम में उन दोनों से भिसा किसी पली पस्त की अपेक्षा नही है जो अपने आकार से पनो आकारमान यमाये, पयोंकि ये दोनों निसर्गतः मियताकार ही उत्पन्न होते हैं। अतः यह शेका स्वाभाविक है कि “जैसे नीलभाविपदार्थ नीलादिभाकार में होने माले संवेदन से भिन्म नहीं है, उसी प्रकार. अहमर्थ आत्मा भी आमाकार संवेदन से अपना कोई भिग्न अस्तित्व नहीं रग्नता, इसद्धिप गरूप से अनुमय में भाने पाली शा. पा. ३६ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ २८२.... शास्त्रवानीलमुषय-सबक लोक मूलम् - न च बुद्धिविशेषोऽयमई कारः प्रकल्पते । दानादिबुमिकामेऽपि तथाऽहकारवेदनात् ॥८॥ न चार्य = प्रकृतबुद्धिविषयोऽहंकारः, बुदिविशेषः अर्थविनिर्मुक्तताद्धयाकाररूपा, प्रकलप्यते, कुतः ! इत्याह-दानादिदिकावेऽपि नथा--'अहं ददामि इत्यादि प्रतिनियतोल्लेखेन अहंकारवेदनात् 'अहम्' इत्यनुभवात् । वासनामभवत्वेऽन्यवासनाया भन्याकाराजनकल्वेन दानादिवासनाया अहंकारबुश्यनुपपसेरिल्यानया । ननु युगपदुभयवासनाप्रपोधादुमयाफारोपपत्तिरिति चेत् ! कथं तकारवासना शमादिवासनाप्रयोधनियतकालीनप्रबोधा, न तु नीलादिवासना-इति वाच्यम् । 'स्वभावादिति चेन, तया सति तेन वासनाश भयन्पशासिद्धे । 'नत्कालभ्य नोलादिचासनानुयोधकस्वादि'सि चेन्न, सत्काल पयान्येषां तदुद्गेधात् । 'तदीयतद्वासनोद्घोचे तत्कालीन हेनुरिति चेद् ! गतं त वासनया, तत्कालेनैव सदाकारप्रति नियमान् । तस्मात् तत्तदर्थसन्निधानेनैव क्षयोपन्नमरूपा वसम्मान जननी वासना प्रबोध्यते, इत्यहकारस्पार्थविषयन्वमकामेनापि प्रतिपत्तव्यम् । पस्तु को निाय आरमा के रूप में स्वीकारना अनुचित है।'' इस शंका का समाधान करने के लिए ही मूलप्रन्धकार ने "न युधिधिशेषोऽयाहकार" स्यादि कारिका की रचना की है, जिसका अर्थ इस प्रकार है प्रकार को थनिरपेक्षतामाकाग्युमिचिशेषरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि थानादि की प्रतीति के समय भो 'अहं शामिन्मैं वान करता है। इस रूप में परिकार का अनुभव होता है। इस अनुभव को दानाकार बावना से पा सकार बासनाने उमान्न महो माना NT सकता कि मानाकावासमा से उत्पन्न होने पर यह प्राइमा कार नहीं हो सकता, और पदमाकार. वासना से उत्पन्न होने पर वह हासकार नहीं हो सकता, क्योंकि अनि प्रसंग के भय से पकाकार पासना को अम्पाकार भनु पय का कारण नहीं माना जा सकता। मामाकार और दानाकार योनौ घालाओं का एक साप उद्धोधन होने पर दोनों थाकारों से युक्त है पदामि' इस शान की उपपति हो सकती है' यह कहना उचित नहा हो सकता क्योंकि पानाकार घासना के साथ ही बहुमाकार वासना के उद्योधन का कोई नियामक न होने से कभी नोलाकार यामना के साथ भी अहमाकार पासमा का उपयोधम हो जाने पर व मीदः' इस प्रकार के मनुमय की भी भापति हो सकेगी। 'अइमाकार पासना का यह स्वभाव है कि यह वानाकार पासमा के साथ उद्बुद्ध होती है, नीलाकार बासना के साथ ही प्रानुस होती'- करना भी युक्तिसंगस नहीं हो सकता, क्योंकि स्वभाववाद को स्वीकार करने पर स्वभाव से ही नियः ताकार शानों की व्यवस्था हो जाने से बासना अन्यथासित हो मायगी । 'मामाकार पापना जिस काल में उखुश होती है, यह काल पानाकार वासना काही प्रमोधक होता है. नीलाकार पासमा का प्रयोजक नही होता'-यह कहना मी Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० स्था .. टोका दिन पतेन 'अईस्वाद्याकारस्याप्यालीफत्वमेव, एफस्य विज्ञानस्य नानाकारभेवाऽयोगादः तदुक्तम् किं स्यात् सा चित्रकस्यों न स्यात् तस्या मतावपि । यदीय स्वपमर्थानां रोचते तत्र के यषम् ।' इति माध्यमिको तमप्यपास्नं, स्वरूपानुभवलक्षणार्थक्रियया वानस्येव तदाकारस्य अर्थचित्रताधोनाया ज्ञानचित्रनाथाध सिद्धरिति । अधिकमग्रे विवेचयिष्यने ||८५॥ समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि जिस काल में मनुष्य को भहमाकारः वासना उद्युत होती है उसी काल में अस्य मनुष्य को नीलाकार वासना भो मधुर होती है, किन्तु अहमाकार वासमा के प्रबोधन काल को नीलाकार' यासना का प्रबोधक ने मानने पर यह बात न बन सकेगो, फलसः पक मनुष्य को आई ममामि' यह ज्ञान जय होगा तब अन्य मनुष्य का 'भयं मील.' इत्यादि ज्ञान महो सकेगा. जब कि ऐसा होना समान्य है। ___ "जिस काल में जिम मनुष्य को शमाफार वासना का परोध होता है घर काल उस मनुस्य की नीलाकार वासना का उड्योधक मही होना' इस प्रकार का नियम मानमे पर उक्त वीष मली तो सकता'- यह कहना भो संगत नहीं हो सकता क्योकि काल विशेष से बासनाधिशेष का उत्योधन मानने की अपेक्षा काविशेष से प्रकार विशेषतपन्नशान की उत्पत्ति मान लेने में अधिक औचित्य होने के कारण विभिन्नाकारमान की जापत्ति के लिए विभिन्नाकारवासमा को कल्पना धनापश्यक छो जायगी। उक्त चर्चा के आधार पर अन्य मतों को अपेक्षा अन्नदर्शन की या मा पना ही अधिक मनोरम प्रतीत होता है कि अर्थ और ज्ञान दोनों की स्वतन्त्र सना है तथा तदर्याकारमान की उत्पत्ति नसद भर्थ के सम्मिधान से सनद अर्थ को क्षयोपशमप वासना के उदयुद्ध बोमे पर सम्पन्न होती है। महत्वाचाकागळीकत्ववादिमाममत का वाहन इस प्रसंग में पौच माध्यमिक का कहना है कि- "ज्ञान में प्रतीत होमेवाले भवन्य भाव आकार भी ज्ञानभिग्न अर्थाकार के समान लीक हो है, उनकी सत्ता में भी कई प्रमाण नहीं है, क्योकि असे पक अर्थ में माना साकारों का होना युक्तिविक्षस है, उसी प्रकार एक शान में भी नाना गाकार का होना युक्तिया । इस विषय में मामिक की कि स्मात् साल कारिका मननीय है, उसमें यह कहा गया है कि - 'क्या एक वस्तु मैं पिता-मामायाकारसम्पन्नता हो सकती है? यदि नही तो एक बुशि में भी वह कैसे संभव होगी? और यदि विषशा अर्थी को मखमी हैमर्थात् मार्थ की मित्रता गाभा है तो असा निरोध करने वाले हम कौन है अर्थाम् हमारे द्वारा उसका अस्वीकार मसंगत है, किन्तु सत्य है कि एक वस्तु की चिता के समर्थन में कोई मुक्ति नहीं है। मनः विधाकारज्ञान की कहाना भी निराधार होने से साकार विज्ञान का अमितस्य न मानकर सभ्यता कोही नभ्य रूप में स्वीकार करना उमित है।"-इल नंबन्ध में प्रकृत प्रथकार का आलोचन गrtfक प्रक्रिया से ही घस्तु की विधि होती है जिस प्रकार मान के स्वरूपानुभषरूप भक्रिया ने शान की सिनि होती है उसी प्रकार लामाकार के गनुभयरूप मफ्रिथा से जानाकार की और भषि Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ मुथ स्वयंक १ लो० ८६ ननु यधे स्वतः प्रकाश एवात्मा तदा सदा कि न कर्तृ- क्रियाभावेन प्रकाशते ! इत्यत आह मूकम् आत्मतात्म तस्य तत्स्वभावत्वयोगतः सवाणं हा विज्ञेयं दोषः ॥ ८६ ॥ आत्मना त्मनः अधिकत तत्स्वगावलायोगतः तादृशज्ञानजननशक्तिसमन्वितत्वात् 'उपपाद्यमानायाम्' इति शेषः ह निश्चितम् एव अह जाने' इत्याद्यु लेखेन सदैव = सुत्यादावपि महणम्अमतिसन्धानम्, फर्मदाक्तः = तथा प्रतिबन्धकज्ञानावरण साम्राज्यात् ज्ञेयम् । } ननु एवं त्यज्यतां स्वप्रकाशाऽऽग्रहः इन्द्रियाद्यमासदेव तदाऽग्रहणोपपते न च 1 = : J. त्रता के अनुभव से धर्थवित्रता की तथा उसी से ज्ञान की सिद्धि में भी कोई बाबा नहीं है। अतः माध्यमिक का उत्तम निस्सार है। इस विषय का विशेष विवे न आगे किया जायगा । प्रकाश में सदाग्रहण की आप का परिहार ) प्रस्तुत विचार के सन्दर्भ में यह यक्ष उडता है कि "यदि आत्मा स्वप्रकाशशान स्वरूप है स आत्मा को कलरूप में और ज्ञान को किप्रारूप में ग्रहण करनेवाले भई आपने' इस प्रकार के ज्ञान का उदय सदैव सुपुप्ति आदि के समय भी होना चाहिये, क्योंकि आत्मा सुपुति के समय भी रहता हूँ और उसके स्वप्रकाशज्ञानस्वरूप होने से उनके ज्ञान के लिये किसी अन्य सावन की अपेक्षा नहीं होती, तो फिर ऐसा क्यों नहीं होता ? " इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत कारिका (६) द्वारा यह दिया गया है कि आत्मा का स्वात्मकज्ञान से 'आई जाने प्रकार का ज्ञान होता है व अब उस प्रकार के थान की जन्म देनेवाली उसकी महक से दो संपन्न होता है, फिर भी उस शक्ति से युयुक्ति के समय उक्त वन को उत्पत्ति नहीं हो सकता, क्योंकि उस समय यह शामात्र रणरूप से आवृत रहता है और उक्त दोष से भमानशक्ति ही उक्त ज्ञान के उत्पादन में सक्षम दोनों है । सुषुभि के समय उस भावरण का निवृति का कोई साधन उपस्थित होने से उस भबूत शक्ति द्वारा उक्त ज्ञान का उत्पादन संभव नहीं हो सकता | [मदाभण उपास लिये स्वप्रकाशा छोडने की सलाह पूर्वप यदि कहा जाए कि आत्मा की स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप सामने पर अब सुपुप्ति भावि के समय भी उस के ग्राम की आपत्ति होती है तो उसे स्वप्रकाश शानस्वरूप सामने के आम का परित्यागत है, प्रयोंकि जब वह स्थप्रकाश न होगा तो विषय श्री उनका ज्ञान आदि किसी न किसी प्रमाण के व्यापार से ही संपन्न होगा, फल: पुनि के समय किसी प्रकार का व्यापार न होने से उस समय के कान की आप िन हो सकेगा । 'आमा स्व स्वरूप नहीं है किन्तु ज्ञानान्तरय है। इस पक्ष में भी यह Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टीका वह बि सुषुप्यनुकुलमनः क्रिययात्ममना संयोगनावाकाले उत्पन्नेन सुपुतिसमकालोत्पलिकमनोयोगसन परामर्शन गुप्तिद्वितीयक्षणेऽनुमित्यापत्तिरिति वाच्यं तत्काले परामर्शोपनौ मानाभावात् सरसामग्रीभूतव्याप्तिस्मृत्यादेः फलैक कल्प्यत्वात् । आत्मादिमान सोत्पत्तिः विशेषगुणोपधानेनात्मनो मानमिति वाभ्यम सविषयकप्रकारकात्ममानयत्वस्य मनोयोगादिजन्यतावच्छेदकत्वे गोश्वात्, न चनोयोगाभावादनापत्तिः तस्य जन्यज्ञानत्वावच्हेितुत्वाद्, अन्यथा रासनानुपतिका त्याचोत्पत्तेः । मानसस्यावच्छिन्नं प्रति तद्धेतुत्वे च त्वाचत्वान्निं प्रति पृथक कारण गौरवानि ו ९८५ का हो सकता कि मन की जिन क्रिया से पूर्ववर्ती योग के ना काल में जो परामर्श उत्पन्न होगा तथा सुपुष्यिकाल में श्री नचीन आत्मनयोग होगा उन दोनों सेपित के क्षण अनुमति की आप हो सकती है किन्तु इस शका का यह उत्तर दिया जा सकता है कि सुपुति को संपन्न करनेवाली मनः क्रिया से पूर्व मनः संयोग के नाशकाल में परामर्श उत्पन्न होने में कोई प्रमाण नहीं है, प्रत्युत उसके पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि कारणमात्रो का सन्निधान न होने से उसकी उत्पत्ति सम्भव है । 'उक्तकाल में परामर्श की आपलि के लिए उससे पूर्व व्याप्तिज्ञान आदि को कम को मा सकती है- यह करना भी उचित नहीं हो सकता क्योंकि सामग्री की कल्पना कार्य के चल में की जानी है, तो फिर उक्तकाल में परामर्श की उत्पत्ति अब प्रामाणिक नहीं है तब उसके पूर्व परामर्श के कारण व्याप्तिज्ञान आदि की कल्पना कैसे को जा सकेगी ; | सुषुप्तिकाल में मानसप्रत्यक्ष क्यों नहीं होता !! इस सम् में इस शंका का सम्भव है कि "सुपुतिकाल में आत्मा का मानल प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता ? पर्थ्योकि उस समय आरमारूप विषय तथा उसका ग्राहक आत्म मनःसंयोग दोनों विद्यमान है और उसके मानसप्रत्यक्ष के लिये किसी अन्य ऐसे साधन की अपेक्षा नहीं है ओ सुषुदिन में सम्भव न हो सके इसके उत्तर में यह कहना ठीक नहीं हो सकता "आत्मा का मानसपत्यक्ष उसके किसी न किसी योग्य विशेषगुण के साथ ही होता है अतः सुपुप्ति के समय से गुण का अभाव होने से उस समय मा के समय को वाशि नहीं हो सकती" यांकि 'ज्ञान माहि विशेष के साथ ही मामा के मानसप्रत्यक्ष का नियम तभी हो सकता है जय सविषयकप्रकारक या योग्यविशेषगुणकारक आत्मविषयक मानसत्य अश्व को आत्मनः योग का कार्यावछेक माना जाय और यह माना नहीं जा सकता, क्योंकि मानव या गारमविषयक मानल की अपेक्षा उपमानसत्य गुरु होने से उसे कार्य मानने पर कार्यकारणभाव में गौरव होगा | काल में ममः संयोग होने से उस समय आत्मा के मानप्रत्यक्ष भी आपत्ति नहीं हो सकती-य में कहा जा सकता क्योंकि भ्यानमात्र के प्रति मनः संयोग के कारण न होने से आत्मा के मानसप्रस्थ के लिये व अन पेक्षित है अन्यथा यदि उसे जन्यज्ञानमात्र के प्रति कारण माना जायगा जो रासनप्रत्यक्ष Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ शास्त्रात मुस्तक १०८६ _F युवी जीवनयोनियत्नानभ्युपगमेन विजातीयमनःसंयोगस्यैवाभावात् । नववक्रियया त्मनः संयोगनाशे पुरीतविषया पुरीवन्मनः संयोगरूपगुत्युत्पत्तौ पातनात्ममनः संयोगनाशाभावात् तदा ज्ञानोत्यन्यायचिरिति वाच्यम्, सर्वश्र मनःक्रिययैव तिस्त्रीकारात् । तदुक्तं यदा मनः स्वर्च परिहृत्य इत्यादी'ति चेत् ? न जीवन नियत्नस्य तदाऽवश्यं सस्यात्, नाडादिकिययापि सुप्तिसम्भवात् 'या मनः' इत्याद्यमानस्य प्रायिकत्वात् मनोयोगनिष्ठ वैजात्याच्छितोदृष्टाति रिक्तस्थादर्शनात् उपनामनः संयोगवशायां त्वङ्गनः संयोगस्वाप्यावश्यकत्वात् त त्याचप्रतिबन्धकस्यातिरिक स्वीकारे चाधुवादिसामग्रीकाले मानसानुत्पच्यर्थमध्ये तत्प्रतिबन्ध कल्पना तो तेनैव ज्ञानाद्युत्पत्तिप्रतिबन्धोपगमी चित्याच | किन ज्ञानज्ञानादी विषयान्तरसंचार प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवात् ज्ञानस्ये न्द्रियाऽग्रात्य कल्पनान् स्वसंविदिततत्प्रतिपदोपकल्पना गौरवमपि फन्दसुखन्याभ ariकमिति दिक् । ८६॥ आदि के लिये मां उसके सग्निधान की आवश्यकता होने से समक्ष आदि के समय भी प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी । जन्यज्ञानमात्र के प्रति स्मसंयोग को कारण न मानकर केवल मानसमात्र के प्रति कारण मानने पर उसे प्रत्यक्ष के प्रति प्रथ कारण मानने में गौरव होगा । अगः उसे जन्यज्ञानमात्र के प्रति कारण मानना और स्वाप्रत्यक्ष के पति उस समय में विमान हो सकने वाले किसी पनिबन्धक की कल्पना करना यह उचित है। फलतः सुषुप्ति काल में उसका अभाव होने से उस समय आत्मा के मानव प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती। किन्तु इस उत्तर को अपेक्षा यह उत्तर अधिक संगत है कि 'सुलिकाल में जीवनयोनियन के न होने से उस समय विजातीय आत्ममनःसंयोग हो नहीं होता अतः उस समय आरंभा के मानसप्रत्यक्ष की कोई सम्भावना ही नहीं हो सकती ।' [पुतिकाल में माला नोपल का परिहार | में यह शंका अधिक संगत प्रतीयमान उमा उत्तर के सम्बन्ध है कि 'जब स्वर की किया से रोग का नाश होकर पुरीम् ना को किया मे पुरीगमन:संयोग सुपुको उत्पति होती है नव पूर्ववर्तीयोग की माफिया के न होने से वह संवांग बना ही रहेगा. मन उससे उक्त सुति कान में मन की उत्पति आपति हो सकती है शिन्तु नहीं क्योंकि मन की किया से ही सर्वत्र सुषुप्ति होती है यह सिद्धान्त है। कहा भी गया है किन परिस्कर पुरी में संयुक्त होता है तब होती है। अमः सुषुप्ति के पूर्व मनःकिया से पूर्ववर्ती आत्ममन:संयोग का नाश हो जाने से और सुषुप्ति के अनय जोग शब्टल को मत्ता स्वीकार न किये जाने से मीन आममनयोग की उपनि समय न होने से उस समय श्रात्मज्ञान की उत्पति की आपत्ति नहीं हो सकी। Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्या० क० ठीका यदि वि. २८७ [सुप्ति में जीवनयोनियान की मला आवश्यक उत्तरपत] पर विचार करने पर उक्त शंका का यह समाधान समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि पति के समय भी मनुष्य के शरीर में वेष्टा देखी जाती है अतः उसकी उत्पत्ति के लिये उस समय मा जीवनयोनियमन मानना आवश्यक है। अतः सुपुप्ति सम्पादिका मनःकिया से प्राकन आत्ममनः संयोग का नाश हो जाने पर भी वनयोनियल से नयी मनःक्रिया होकर उससे ये आत्ममन:संयोग की उत्पति का समय होने से उसके बल से सुपुटिस के समय आत्मज्ञान की उपति निर्वाधरूप से पारित हो सकती है 'सुपुति के पूर्व मनःकिया से प्राम ममममः संयोग का नाश सर्वत्र हो हो जायगा' यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि नाडी आदि की क्रिया से भी होती है तो जहाँ नही की किया से सुरित होगी वहाँ उसके पूर्व मनःकिया न होने से प्राकम आम्मममःसंयोग सुरक्षित रह सकता है. अतः उस से भी जक सुप्रति के समय ज्ञान को आपत्ति हो सकती है। सर्वत्र मनःक्रिया से ही सुषुप्ति होती है यह कथन सार्वत्रिक न होकर क्वाटिक है. अतः गाडी आदि की क्रिया से सुपुति मानने में वो कम जोकि 'खुपुटिन सर्वत्र मनःक्रिया से हो होती है. अतः सुनि पूर्व के प्राक्तन आयोग का नाश अनिवार्य है साथ ही यह भी मान लिया जाय कि 'सुप्त मनुष्य के शरीर में जो चेष्टा जेल यस्तु देखी जाती है घर पोष्टा न हो कर सामान्य किया होता है जो वायुसंयोग से भी हो सकती है। मसः सुपुति के समय जीवन मानने की आवश्य कता न होने से नयीन आश्मासंयोग को भी उत्पत्ति नहीं हो सकती' तब भी पुलि के समय आत्मज्ञान को उत्पस्यापति का परिवार नहीं हो सकता, क्योंकि विजातीय भारम मनःसंयोग का भर से अतिरिक्त कोई कारण नहीं है, बोर काल में भी विद्यमान रहता है. अतः उस से नघोन विजातीय आयोगको उत्पत्ति होकर उसके ताल से उस समय आत्मा की आपत्ति में कोर पाधा नहीं हो सकती । समयकाल में त्याचप्रत्यक्ष की आपत्ति के भय से जो यह कहा गया है कि 'रसना मन:संयोगकाल में त्वमासंयोग नहीं होना ठीक नहीं है, क्योंकि जन्यज्ञान मात्र के प्रति मनः संयोग के कारण होने से उस समय भी उसकी लता आवश्यक है । उस समय म्याच प्रत्यक्ष की प्रो उत्पति होतो उसका कारण यह है कि उस समय मनःसंयोग नहीं रहता, किन्तु उसका कारण है हम द्वारा उसका प्रनियध हो जाता माधुपप्रत्यक्ष की सामग्री के समय उन सामग्री में निषिष्ठ काम का मानस प्रत्यक्ष नहीं होना क्योंकि वह भी मष्ट से प्रतिबध्य हो जाता है। तो जैसे समयकाल में त्वा का और बाप प्रत्यक्षकाल में प्रसमीट ग्राम के मानप्रत्यक्ष का अट से प्रतिवन्ध माना जाता है उसी प्रकार सुपुतिकाल में माम ज्ञान का प्रशियन् भी अष्ट से ही मानना उचित है, अतः वात्मा स्वमकाशानरूप नहीं है किन्तु प्रमाणान्तर है। खुतिकाल में प्रमाणश्यापार न होने से हो उल समय आत्मक्षति का जन्म नहीं होगा यह कदम असंगत है। इस सन्दर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि जो लोग ज्ञान को स्वप्रकाश न मान कर इन्द्रिय मादि से ये मानते हैं उनके मन में सभी काम का संवेदन मान्य Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ उपसंवराह शास्त्रबातसमुचय - स्तबक लो० ८७ मूलम् -- मतः प्रत्यक्षसिद्धः सर्वप्रथम । स्वयंज्योतिः सदैवात्मा तथा वेदेऽपिच ॥८७॥ अतः = अहम्प्रत्ययस्य । ऽनन्तात् अयम्-आत्मा सर्वप्राणभृतां प्रत्यक्षसिद्ध = प्रत्यक्षप्रमाणविषयः । न केवलमिदमनुभयगर्भया युक्त्यैव म: किन्तु परेषामागमो ऽप्यत्रायें साक्षी इत्याह--अनुभवानुसारेण वेदेऽपि आत्मा सदैव स्वयंज्योतिस्वमितिज्ञानाभिन्नः पाते "आत्मज्योतिर पुरुष" इति । एतेन वेदप्रामाण्याभ्युपगन्ता ज्ञानपरोक्षत्ववादिनां मीमांसकानां मतमपहस्तितम् परोक्षत्वे ज्ञानस्यैवाऽसिद्धेः । न च ज्ञावतालिङ्गेन तदनुमानं तस्या एवाऽसिद्धेः । घटादेः कर्मवान्यथानुपपच्या तस्मिद्धिः क्रियाजन्यफलशास्त्रित्वं हि तत् न च घटे ज्ञानजन्यमन्यत् फारमस्तीति वाभ्यम् एवं सति घटः कुतो पट इत्यादिप्रतीतितादेर्शप सिद्धिप्रसङ्गात् । 3 नहीं है किन्तु किसी भी ज्ञान के उत्पन्न होने पर उसके मानस प्रत्यक्ष को उत्पत्ति का परिवार नहीं हो सकता क्योंकि उसका माइक मनःसिक सहित रहता उसके परिहारार्थ ज्ञानज्ञान प्रतिविषयान्तर में मनसंचार का प्रतिबन्धक मानने में गौरव होगा, इसलिये ज्ञान को इन्द्रिय आदि से बेथ न मानकर उसे हदप्रकाश मानकर ज्ञानमात्र को सर्वेय संविदिन] मानना ही उचित है। सुपुत्रिकाल में जो 'अहं जाने' इस प्रकार के आत्मज्ञान का उदय नहीं होता उलका कारण उतमान के किसी साधन का अभाव नहीं है अपितु उसका कारण हे वातावरणकर्म अ से उस शाम को जन्म देनेवाली शक्ति का आवरण इस साम्यता में भाश्मशान के प्रति अरू प्रतियक की कल्पना से जो गोरव प्रतीत होता है वह फलमुख होने से राज्य नहीं है । ही है प्रस्तुत कारिका 49 में उपर्युक्त सभी विचारों का उपसंहार किया गया है[नास्तिक मतनिराकरण का उपसंहार] मम इस प्रकार की प्रतीति सभी प्राणियों को होती है । यह प्रतीति भ्रमभिम्म प्रत्यक्षरूप है, अतः इसके बल से आत्मा सभी प्राणियों की दृष्टि से प्रत्यक्ष सिद्ध है । यह बात केवल अनुभव गर्भ युक्ति पर ही आधारित नहीं है किन्तु परकोप आगम- बेद से भी यह बात समर्थित है । वे में रूप कहा गया है कि 'भात्मा सदैव स्वयं ज्योति है' अर्थात् स्वप्रकाशशानस्वरूप है । [परतः प्रकाश ज्ञानवादी सीमासकमत का खंडन ] वेद में स्वप्रकाशज्ञान का घन होने से ही वेद को प्रमाण मानने वाले महमीमांसकों का यह मत भी निराकृत हो जाता है कि 'ज्ञान स्वप्रकाश या प्रत्यक्षवेध न होकर Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा कर टोका पनि चिय कि म 'अतीतो बढो शास' इत्यादी तपसम्भवः, न प्रतीते घटे छाततोत्पतिसम्भवः, समवायिकारणं विना भावकार्यानुस्पत्तः । न च तत्र ज्ञातवानम एव, वाघकाभावात् 'वत्र स्वरूपसम्बन्ध एवं ज्ञातते ति चेद ? विद्यमानेऽपि स एवास्तु, त्वयाऽपि ज्ञानेन ज्ञाततानियमार्थमवश्यं तस्य स्वीकव्यत्त्रात, समायेन ज्ञातवायां विषयतया ज्ञानस्य देवत्वात् । कमलमपि विद्यमाने घटेऽतीतपट इव गौणमेवेति । परोक्षोता है क्योंकि परोक्ष माममे पर ज्ञान की सिद्धि ही न हो सकेगी । "ज्ञान से विषय में उत्पन्न होनेपाली हासता' कानी घटस प्रकार विपक्ष में प्रयास है-उसी से शाम का अनुमान होने से उसे परोक्ष मानने पर भी उसकी सिद्धि में कोई बाधा मही है"-यह कमा संगत नहीं हो सकता, क्योंकि विषय के मार ज्ञान में हातता की सम्पचि में कोई प्रमाण नहीं है। "तान सामने पर घट आदि विषय मान के कर्म न हो सकेंगे क्योंकि फियानाम्यफल का भाथय ही कम होता है, और भातसा से भिन्न कान का कोई फल विषय में नहीं होता" यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर घट गादि विषयों में इच्छा कति आदि की कर्मता की उपपत्ति के लिये 'हलो घदः छत्तो घट इन प्रतीतियों के अनुरोध से उनमें हरता मौर कृतता भी माननी होगी जो मीमांसक को इष्ट नहीं है। [ज्ञासतालिङ्गक अनुमान का संहन] यह भी ध्यान देने की बात है कि 'घटो हातास प्रतीति से घट में शामजप शातता की ससा को प्रमाणित नहीं किया जा सकता, क्योंकि विद्यमान पर समान अतीत घट में भी पासता की प्रतीनि होती है और उसमें शातता की उत्पत्ति का सम्भव नहीं है, क्योंकि समवायिकारण के अभाव में भायात्मक कार्य की उत्पत्ति नहीं होती। 'अतीत घट में शातता की प्रतीति मम' यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जाल प्रतीति का कोई बाधक नहीं है और जब तक प्रतीति का बाधम हो तब तक उसे भ्रम कहना युक्तिविकर है। 'अतीत घट में प्रतीत होने वाली हासता नाम का कार्य, होकर अतीत घट के साथ शाम का स्वरूपसम्बग्यविशेषरूप है'-यह कहना मी संगत महीं है. क्योकि अतीत घट में मतीत होने वाली शातता यदि स्वरूपसबाघ योगी तो विद्यमान घर में भी चैसी ही पासता स्वीकार्य होने से उसमें भी हान के फलमत जातता की सिद्धि होगी। सच बात तो यह है कि साततावादी मीमांसक को भी विषय के साथ बाम का स्पपलबाधिशेष तो मानना ही होगा भन्यथा अमुक से भमुक विषय में ही प्रातता की उत्पत्ति का नियम होने से घरमाल से पट आनि में भी शातता के जन्म की भापति होगी। एक वस्तु के जान से अन्य परत में हातमा की उत्पनि को रोकने के लिये समवायसम्बन्ध से पासताप्रति सानो विषयतासम्बाध से कारण मानना यावश्यक है, यह विषयता स्वकपसम्बन्धविशेष अस। शाम की या विषयता ही शासता है, उससे मिन्महान के फलभूतशतता में कोई छा.वा. ३७ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९० शास्त्रमा समुच्चय-शाक र लो०७ अस्तु या शातता मापन तर नानुमानसाः, साता। विक निष्ठत्वादधानस्य चात्मनिष्ठत्वात् । अथ समशयेन घटप्रत्यक्ष सम्बन्धविशेषेण घरप्राकट्य स्वसमानाधिकरणं जनयति, इति सेन तदनुमानम्। अत एव तबीयप्राकटचस्पनान्पेन माने, विषयतया तनीयज्ञानप्राकटयपत्यशे तादात्म्येन नदीपप्राकट्यस्य हेतृत्वादिति चेत् ! न, तथाऽप्यनुमिल्पादेरसियापत्तः, परोक्षज्ञाने प्राकट्यस्यापि पदार्थान्त रस्य स्वीकारापत्तेश्य ! न च प्रत्यादिना तदनुमानं किंगाननुगमस्याऽदोपत्वादिति वाभ्यं, प्रमुल्यादेवि ज्ञानस्य प्रत्यारो बाधकामावान्, पापाचन कर्मत्वानरभासस्प क्रियात्वेनानुषेधादपपत्तेरिति किमप्रस्तुवेन ! इति चार्वाकमनिरासः ।। बामसिद्धेः परं शोकारकोका ! बोकायताननम् । समालोकामहे म्लान, तत्र नो कारणं वयम् ।।८७|| प्रमाण नहीं है । 'मानसन्य फल का मानय हुप दिना घट झान का कर्म न हो सकेइस मापंक्तिका उत्तर यह है कि जैसे अतीतघट शानजन्य फल का आश्रय नबो सकने से जान का मुनयकर्म न हो कर गौण फर्म है उसी प्रकार विद्यमान घर भी हान का गौण ही कम है। ज्ञानता से ज्ञान का अनुमान अशक्य.] पदि यह मान भी लिया जाय कि घट मादि विषयों में शान से शाततामामक धर्म की उत्पत्ति प्रामाणिक है, तो भी उनसे हान का अनुमान नहीं हो सकता, क्योकि हासता विषय में रहती है और ज्ञान आमा में रखता है और नियम यह है कि लिग अपमे भाश्रय में ही साध्य का अनुमापक होता है। इसके उत्तर में यदि यह कहा आय कि -"मिस सम्बन्ध से प्राकट-ज्ञानता घट आदि विषयों में उत्पन्न होतो उस सायचो तो वह भास्मा में समयायसम्बन्ध से रखनेवाले पठादिप्रत्यक्ष का समाना. धिकरण नहीं है, किन्तु स्थविषयकमत्यनमयायिन प्रादि विशेष लम्पन्ध से भास्मनिष्ठ होने से उसका समामाधिकरण है, मतः उक्त विशेषसम्पन्ध से शातता को मारमात पान का अनुमान कराने में कोई पायक नहीं है। जिप पुरुषके शान से जो प्राकटय उत्पन्न होता वह उस पुरुष का प्राकटय कहा जाता है और एक पुरुष प्राकट्य का पाम पूसरे पुरुष को नहीं होता मतः विषयतासम्बन्ध से तत्पुषीयपाकटपहान प्रति तत्पुषीयपाकटय को तादात्म्यसम्बन्ध से कारण माना जाता है, अतः प्राप की विषय मिष्ठता के समान सम्बन्धविशेष से उसकी प्रानिष्ठता मी निर्विषाव , इसलिये प्राकटय से आत्मा में ज्ञान का भानुमान निर्वाध सम्मान हो सकता"-सो यह कपन ठीक नहीं है क्योकि माग्दा से केवल प्रत्यक्षात्मक शाम का ही मनुमान हो सकता है क्योंकि उसीसे विषय में प्राकट्य की उत्पत्ति होती है । अनुमति मादि पेशवानी से तो विषय में प्राकट्य को उपसि होती नी, अमः बान को परोक्ष मानने पर भर्मित भाषि कामों की खिसि न हो सकेगी, इसलिये पाममात्र को स्व Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्या० क० टीका यदि बि० Pacha win6111111 sasta प्रसवेन वातन्तरमाद मूलम् - अत्रापि वर्णयन्यये सौगताः कृतबुद्धयः । क्लिष्टं मनोऽस्ति पनि तद्यथात्मक्षणम् ||८|| १९१ = अत्रापि आत्मसिद्धावपि कृतबुद्धयः = चाकापेक्षा परिष्कृतधियः एके सांगता वर्णयन्ति किम् ? इत्याह-- किन विशिष्ट न तु मालाकार, यद् नित्यं मनोऽस्ति तत्र यथोक्तामलक्षणम् -- अहम्प्रत्ययाल*बनान्मध्यपदेशभा ॥८८॥ संविदित मानना ही उचित है। साथ ही यह भी दिवारणीय है कि जिस युक्ति से प्रत्यक्षज्ञान से उसके विषय में प्राय की सिद्धि होती है उसी प्रकार की युक्ति से अनुमिति आदि ज्ञानों से उसके विषय में अनामक अतिरिक पदार्थ की सिद्धि की भी भापति होगी, क्योंकि जैसे प्रत्यक्ष के विषय घट आदि में 'प्रकटो घटः इस प्रकार प्राकट्य की प्रतीति होती है वैसे दो अनुमिति आदि के विषयभूत घटादि में 'अको पदः' यह भी प्रतीति आनुभविक है । यदि यह कहा जाय कि यह ठीक है कि 'अनुमिति भात्रि से प्राकट्य का जन्म न होने से प्राकटण हेतु ले अनुमिति आदि का अनुमान नहीं हो सकता, पर अनुमिति से प्रवृत्ति आदि का जन्म तो होता ही है. फिर उसी से अनुमिति मादि का अनुमान हो जायगा अतः ज्ञान के परोक्षत्य मन में भी अनुमिति आदि की असिद्धि नहीं हो सकती, धूम आलोक आदि विभिन्न लिगो से ध िका अनुमान होने से लिग के अनुगम को दोष नहीं माना जाता श्रतः कर्त्री प्राकटय हेतु में और कहीं प्रवृत्ति हेतु से ज्ञान के अनुमान में कोई बाधा नहीं हो सकती है-" = तो यह भी टीक नहीं है, क्योंकि प्रवृति आदि से अनुमिति के समान हान का भी प्रत्यक्ष मानने में कोई बाधक नहीं है। मन यह होता है कि-"यदि ज्ञान प्रत्यक्ष का विषय है तो याह्य अर्थ के समान उस में भो प्रत्यक्षकर्मता की प्रतीति क्यों नहीं होती ?" - सो इसका उत्तर यह है कि शाम विषय होने के साथ ही क्रिया भी है, अथः क्रियात्व के गनुवेध कारण उस में कर्मता की प्रतीति नहीं होती । "उक्त युक्तियों से आत्मा की सिद्धि न हो जाने पर आत्मवादी धायक का मुँह पनि मानवी पड़ता है तो उस मलामता का कारण हम साम्यवादी नहीं है, किन्तु अप्रामाणिक असारमयाद के प्रति उसकी दुरामपूर्ण निष्ठा ही कारण है" ॥ इस तरह भार्याक के मत का पूर्ण हुम । [ आत्मा के बारे में बौद्ध मत ] प्रसह समृति में भय कारिका ८८ और ८९ द्वारा भीदों के आत्मविषयक मत का उपन्यास और निराकरण किया गया है। पहली कारिका में कहा गया है कि बौद्ध वाक की अपेक्षा परिष्कृतबुद्धिवाले होते हैं, मतः उसका कहना है कि उदयमान सभ्वरदेह मात्मा नहीं है किन्तु क्लेश-विविध वासनाओं से युक्त नित्य मतही 'महम्' इस ज्ञान का विषय है उसी का नाम आम्मा है, उस से भिन्न कोई शादयत आत्मा नहीं है ||८८ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शारवातासमुच्चय-स्तबक र लो० ८०-९०.. ___ अत्र निस्पत्यं वनानाम्ययत्यम्, क्षणविशरारुपरिणामप्रवाहपतितत्व वा । इति विकल्प्य दृषयति-- मूकम्--यदि निः तदात्मैव सजा मेदोऽत्र केवलम् । मथानिय तत चेदं न यथोक्तात्मलक्षणम् |८|| यदि स्वदभ्युपेतं मनो नियं - सहावेनाव्यय, तदाऽऽत्मैव उत्ः अत्र = अस्मिन् बादे, कवलं संज्ञाभेदः न त्वर्यभेदः । अथानिस्पंद्रव्यतयाऽपि नश्वरम्, 'तदा'इति प्राक्तनमनुषष्यते, ततश्च-अनित्यन्माच्च, इदं :मना, न यथोकमत - मुक्तमामा याचमात्मनो लक्षण सिदं तन्मेत्यर्थः ॥८९|| आत्मकक्षणमेघाप्रभम् -- यः कर्ता कर्मभेदानां भोला कर्मफलस्य च । संसा परिनिर्माता स यात्मा नान्यरक्षणः ३९०॥ यः कर्मभेदाना = ज्ञानावरणादीनां कर्ताः कर्मफल्टस्य = सुखदुः मादेश्च भोक्ता, तथा संसा = स्वकृतकर्मानुरूपनरकादितिगामी, तथा परिनिर्वाता - कर्मक्षयकारी; हि = निधितंस प्रात्मा; नान्यलक्षणः पराभिमनकूटस्थादिरूपः । इसरी कारिका में शौच मत का खण्डन किया गया है जो इस प्रकार हैबौर जिल पलंशयुस नित्य मन को आत्मा करते हैं, उसकी नित्यना के दो रुप हो सकते हैं, पक नो यह कि वह एक व्यक्तिरूप में वय्यरूप में स्थिर नित्य हो, और दूसरा पार कि यह न्यचिरूप में तो नएयर हो किन्तु क्षमापूरपरिणामों के अधिच्छिन्न प्रवाह का घरक होने से नित्य हो । यमि उसकी पहली मिस्यता स्वीकार की जायगी नथ तो बह पड़ी आत्मा होगा जो आत्मयावी जैन को मान्य है, अतः उसे नौब की ओर से केवल 'मन' की ना संज्ञा दी प्राप्त होगी, स्वरूप में कोई मेव न होगा। और यदि उसकी दूसरी लिस्यता स्वीकार को जायगी सप यह उस आत्मा का स्थान में ग्रहण कर सकेगा जिसको युक्तियों और भागो मारा गारमवादी विद्वानों में प्रतिष्ठित कर रखा है || [प्रायमस्वरूप की पहचान ] इस फारिका १० में भास्मा का प्रामाणिक स्थरूप बताया गया है जो कामावरण आदि विविध कर्मों को करता है तथा उन कर्मों का फलभोग करता है, परे अपने कर्मों के अनुसार नरक आदि गतियों में जाता है और अपने कर्मों को ज्ञान, वर्शन, चरित्रबारा नए कर के मोक्ष प्राप्त कर सकता है-मिश्चितरूप से बड़ी मात्मा है। जो पेसा न हो, किसी माय प्रकार का है वह आत्मा नहीं हो सकता से पेवाती मौर सांख्य का कूटस्प तथा नैयायिक शेषिक का विभुया मनारमयादियों का देह, Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ० क० ठीका मषि कर्तृत्वादिक चानित्यस्य नोपपद्यते, कार्यसमये नेतो हेतोः कार्याननकरशास् अन्य पिकात्पत्तेः प्रसङ्गात् । इति न त्वदुक्तं मन एवात्मा, किन्त्वन्य पत्र विज्ञानघनः शाश्रत इति सिद्धम् ॥ २९०॥ मूळम् सात्मत्वेनाऽविशिष्टस्य वेचियं तस्य यशात् । नरादिरूपं तश्चिश्रम कर्मतिम् ॥९१॥ १९३ = नित्यत्वे cres पिम् ? इत्यत आह- आत्मत्येनाऽविशिष्टस्य = एकजातीमस् तस्य = आत्मनः, नरादिरूपं वैचित्र्यं कार्यवैचित्र्यनिवडकविचित्रशक्तिकलित, कर्मसंज्ञित = कर्मापरनामकम् अ सिध्यति । न च नरत्वादिवैचित्र्यं नरगत्याद्यर्जविभवोपपद्यतां वि न्तव्यापास्व्याप्यत्वावधारणात् । तदिदमुक्तं न्यायाचार्यैरपि "चिरध्वस्तं फलाथा, न कर्मा प्राण, मन आदि । किसी भी नित्य पदार्थ को भात्मा नहीं माना जा सकता, क्योंकि आत्मा के कर्तृत्व आदि उक्त लक्षण अतिश्य पदार्थ में नहीं उत्पन्न हो सकते, क्योंकि को कार्य के समय स्वयं नष्ट हो जायगा वह कार्य का कारण नहीं हो सकता। यदि जो वस्तु जिस समय विद्यमान नहीं रहती उस समय भी उस से कार्य का जन्म माना जाय तब उस वस्तु के दूसरे क्षण में जैसे उनके न रहने पर मी उस से कार्य होगा उसी प्रकार उस तु पूर्व तथा उसके माथ के विरकाल पाद भी उस से कार्य की आपत्ति होगी। अतः वशिलम्मत मन को आत्मा नहीं माना जा सकता। मात्मा सो वही हो सकता है जो विद्यामघन, स्थिर, नित्य तथा कर्मकर्तु कर्मफलभोक्तृत्वभाविक मास्मलक्षणों से सम्पन्न हो ॥१०॥ [आत्मवचयप्रयोजक स्पष्ट की उपति ] मन होता है कि- "जब सभी भारमा समानरूप से नित्य है, उन में कोई सहज नहीं है, तब में कोई मनुष्य कोई पशु और कोई पक्षी कैसे होता है, यह विचित्रता उन में कैसे भा जाती दे ।" प्रस्तुत कारिका १२ इसी प्रश्न का उत्तर देने को निर्मित हुई है, जिसका अर्थ इस प्रकार है- यह ठीक है कि सभी आत्मा समान रूप से मिथ्य है, मात्मस्वरूप की मात्मत्वासि की दृष्टि से उन में कोई भेद नहीं है, किसी प्रकार का सहज वैविध्य भी उन में नहीं ई. फिर भी मनुष्य, पशु, पक्षी भावि के रूप में उन में विचित्रता होती है। यह विधिसाजिस कारण से होती है उस का नाम है अछ, जिसे कर्म भी कहा जाता है, इस भर में विचित्र कार्यों को उत्पन्न करने वाली विचित्र शक्ति भी होती है, अतः उसके द्वारा समानरूपवाले विभिन्न मात्माओं में उक्त वैषिष का होना नितान्त संगत है । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ .... शास्त्रवातासमुराध-स्तवक १ लो० ९१ विष्य बिना"न्या. 'कु०१-९]इति । अथ नरादिशरीरपैविध्यं तदुपादानवैविण्यादेव, भौगनिध्यं च पानिधान, बारीरसंयोगवामानादावियात्मन्यपि, इत्यहष्ट कशेपयुज्य. तामी इति चेत् न, घरीरसंयोगस्याकापादावपि सत्वेन तत्रापि मोगापत्तेः । उपप्रमकसंयोगेन शरीरस्य मोगनियामकस्वे तु वासंयोगप्रयोजकतयवादृष्टसिद्धः ॥११॥ इस उत्तर के विषय में यह शमा हो सकती है कि- "मनुध्य पूर्व जन्म में जो विविध किया करताजाही से जन्मान्तर में उले मर आदि के बारीर को प्राप्ति हो जायगा फिर उन क्रियामो और जम्मान्तर में प्राप्त होनेयाले नरादि शरीर के बीच मिरर्थक अष्ट की कहाना असंगत है।"-इस शङ्का का उार यह है कि पूर्वजन्म की क्रिया पूर्वजन्म में पी गए हो आसो है भतः या जन्मान्तर में मोले स्वर्ग गरादि शरीर का कारण नही हो सकती, क्योंकि यह मिपम कि 'जो कारण कार्य से व्यशिन होना है, अर्थात कार्यशाम के समय स्वयं नहीं रख सा बद का जप तप रह सपनपने कभी व्यापार के द्वारा ही कार्य का अनक है' RTः पूर्वमन्म को क्रिया जब जामान्तर में गराविशरीर की प्रासि के समय नहीं मानी तब उस समय रहने वाला कोई उनका व्यापार मानना हा होगा, इस प्रकार का जो पापार अवश्यमाग्य शिकी का नाम , अक्षर मथवा कर्म । ___ उक्त का का सही उत्तर भ्यायाचार्य उदयन ने अपने न्यायकुसुमामलि प्रम्य में 'चिरम्वस्तं.' कारिका में भी दिया है. जिसका अर्थ इस प्रकार है-- 'मनुस्य की क्रिया भावी काल के चिरपूर्व ही ना हो जाती है अनः बह भाषी फल के सम्म समय तक रहमेषाले अपने किसी व्यापार के बिना कालान्तर में माधो फल को नहीं उत्पन्न कर सकती।' उक्त उमर के सम्बन्ध में पक या न होता है कि-"मात्मा को मनुष्य, पशु, पक्षी मावि मो विधि शरीर मात होते है. उन शरी, की मित्रता उनके उपावान कारणों ही विचित्रता से हो सकती है और शरीरों द्वारा आत्मा को जो विचित्र भोग होते है, उनकी विनिता शरीरों को चिन्मित्रता से हो सकती है और शरीर का संयोग से भाकाश मावि के साथ होता है वैसे ही आत्मा के साथ भी सहज रूप मे हो सम्पन्न हो सकता है, तो प्रकार. मनुष्य, पत्र, पक्षी वादि के रूप में प्रात्मा का विध्य जम जात रीति से उपपन्न होता है तब उस चिय के उपपादन में अहए का क्या उपयोग है?"-Tस प्रयास का 31 मा कि आकाश आदि के समान शात्मा में सहजरूप से धाले सामान्य संयोग से भोग की सिद्धि नहीं हो सकतो; क्योंकि उस संयोग से पर्वि भोग होगा तो उस प्रकार का शरीरसंयोग नो गाकाश आदि में भी होता है अतः मौकाश मावि में भी सुखदुःख के भोग की श्रामि दांगी । इसलिए गात्मा के साथ पारी के उपरम्भक-विजातीयर्सयोग को ही माग का नियामक मानना होगा, और यह विनांतोय संयोग भए के बिना किली मन्य हेतु से नहीं हो सकना, अतः उस संयोग के सम्पादनार्थ मर की सत्ता भनिधारका से स्वीकार्य है ॥२१॥ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० टोका० हिं०वि० अपरथाऽपि कार्यचियमाह २९५ मूलभूतथा तुल्येऽपि चारम्भे सदुपायेऽपि यो नृणाम् । फलभेदः स युक्तो न युक्त्या देवन्तरं दिना ॥९२॥ तथापि समानेऽपि च आरम्भे कुष्यादिमयन्ने, सदुपायेऽपि अकुण्ठित शुक्तिकर्तादितर याचत्कारणसहितोऽपि नृणां चैादन, फलभेदः = धान्यसम्पत्यसम्पतिरूपः स्वल्पबहुधान्यसम्पत्तिरूपो वा यः स युक्तया 'विचार्यमाण' इति शेषः । हेत्वन्तरं स्प्तकारणातिर अद्याववैषम्येऽप्युत्तर का ले सामग्री पम्पादेव कार्यवैपम्यमिति चेत् न सामग्रीवैपम्यस्यापि हेत्वन्तराधीनत्वात् । अथवा समानेऽप्यारम्भे एकजातीय दुग्धपानादी, यः फलमेवः रुषभेदेन सुखदुःखादितारतम्यलक्षणः, स हेवन्तरं बिना अतिरिक्तहेतुतास्तभ्यं बिना, न युक्त इत्यर्थः । न चात्रापि क्वचिद् दुग्वादेः फर्कदयादिचतु पिचादिरसोद्रोधादुपपत्ति, [ कार्ययिका उपपादक अष्ट इस कारिका में कार्यवैविध्य की उत्पति के लिये अकल्पना की आवश्यकता का प्रतिपावन एक अन्य प्रकार से भी किया गया है। कारिका का इस प्रकार है- त से मनुष्य कृषि आदि कार्य समानरूप से करते हैं. सभी की कृषि सामग्री भी समान रूप से समोबीन होती है, फिर भी ऋषि करने वाले मनुष्यों में किसी को धान्य की प्राप्ति होती है, किसी को नहीं होती, एवं एक दो प्रकार की कृषि से किसी को स्वाप धान्य की प्राप्ति होती है और किसी को अधिक धान्य को मात होती है तो कृषि के लिये समान प्रयत्न होने पर भी कृषकों को प्राप्त होनेवाले फल में जो मेद होता है वह ४ कारणों से तो हो नहीं सकता, क्योंकि कारण तो सभी के समान है, अतः इस फल मेद की उपपत्ति के लिये अहमेवरूप अतिरिक्त कारण की कल्पना आवश्यक है । यद यह कहा आप कि-"प्रारम्भ में विभिन्न मनुष्यों के कृषिप्रयत्न के समान होने पर भी बाद में उनकी कृषि सामग्री में वैवस्य हो जाने से धान्यातिप फल में वैश्य हो सकता है अतः उसके लिये हमे रूप कारणमेद की पना व्यर्थ है " तो ठीक है कि भवैषम्य के विना सामभीषम्य का असम्भव है । कारिका का एक दूसरा भी अर्थ हो सकता है जो इस प्रकार है [कारिका का वैकल्पिक अर्थ ] बहुत से मनुष्य समानरूप से कुवपान करते हैं, उनमें किसी को उससे विशेष सुख और किसी को अल्पसुख को प्राप्ति होती है, किसी किसी को तो हो जाने से दुःख भी हो जाता है। इस प्रकार एक हो ढंग के दुग्धपान से विभिन्न मनुष्यों को जो यह भिन्न फल प्राप्ति होती है यह अरू कारण के बिना नहीं हो सकती । यद यह कहा जान कि "मनुष्य का शरीर बात, पित्त और कफ इन धातुओं से बनता है उसमें ये तीनों धातु विद्यमान रहती है, तो जिस मनुष्य के पित्त का रस दुग्धपान से उमस जाता है उसे दुग्धपान से सुख नहीं होता और किसके पिच का रस पान Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..२९६ शास्मातासमुपप-इतबक १ प्रलोक ९२ सर्वम तदापन । न प भेगमात् तथा, नतः साक्षात् मुखादितौम्यान, धानुवैषम्यारे रुत्तरकालवार, पिचादिरसोझोध्यक्षानुवैषम्यादिविरहिनदुग्धपाननादिना मुखादिहेतृत्वे गौरवात, अप्रपोग्यजातिभ्याथजात्यच्छिन्नं प्रत्येव दुग्धपानातुनौचित्याकति दिग ॥१२॥ से नहीं उमडता उसे उससे दुख होता है। ककसी के भक्षण में भी किसी को सुम्र और किसी को गुम्ब उपर्युक कारण से ही होता है। तो इस प्रकार दुग्धपान से होने वाले शिरस के उबोध मोर पनरोध से ही जब मुम दुःख श्रादि प्रितम फल की प्रापति हो सकती है तब उसके लिये भइयमेव की कल्पना अनावश्यक "-तो यह कथन होक नहीं है, पोंकि उक्त धामुयें तो सभी मनुष्यों के शरीर में विद्यमान रहती है तो दुग्धपान से किसी मनुम्म में पित्तरल का उपोध होता है और किसो में न हो, या पेषम्य भी मरवैषम्य के बिना कैसे सम्मय हो सकेगा । अतः स चैपम्य के लिये ही मर वैषम्य की कल्पना भाषश्यक हो जायगी । औषध के स्थान्त से दुग्धपान से मुखादिमेव की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि औषध से मुखादि का उदय सब को समान हो होता है, बाद में होने वाला परिणामधेसम्म तो बाद में होने वाले धातुवैषम्य से होता है। यदि यह कहा जाय कि-"पित्तरस से उबुद्ध होने वाले यातुयैषम्य से शून्य पुग्धपान तो सुख का कारण है, कुग्धपानमा सुख का कारण नहीं है"-तो दुरपान की अपेक्षा गुरुर समविष बुधव को कारणावरुछेदक मानने में गौरव होने से यह कथन संगत नहीं हो सकता । दूसरी बात था कि दुग्धपान को मुखमात्र के प्रति कारण मानने की अपेसा मष्ठायोग सुयत्वजाति से व्यायविभातीयसुरवाडिया के प्रति कारण मानना का पिता है। बाशय पर है कि भार के दो भेद होते है-धर्म मौर अधर्म जिन्हें पुण्य भोर पाप भी कहा जाता है। पोनों प्रकार के मष्टों में दो प्रकार की कारणताये रहती है। एक कारणता कार्यसामान्य की कारणता और तृतरी मुन-तुम्न की कारणता । संसार के प्रत्येक कार्य से किसी को सुख और किसी को दुःख होता है अतः सभी कार्यों के प्रति धर्म और अधर्म ये दोनों ही प्रकार के मर.ए कारण होते हैं। कार्यमात्र के प्रति भर की या कारणता पाले प्रकार की कारता है। धर्म सुख मात्र का और अधर्म तुम्नमाण का कारण होता है क्योकि धर्म के विमा किसी प्रकार का सुन मोर भधर्म विना किसी प्रकारका तन्त्र नहीं होता, धर्म और मधर्म में सस्त्र-हास की या कारणताही महकी खरीकारणताहैइस इसरी कारणता के अनलार सखा साल से भीर अधर्मका अरए की प्रयोज्य जातिवा. सौर विशातीय. सुखख एवं विशातीय सरव मंदमप्रयोग्य उमातियों की व्याप्य जातियां है, दुग्ध पान भादि सुखमात्र के कारण म होकर इन व्याप्य बातीयानुग्न केही कारण होते हैं, पोति यति पाम भादिको खुखासामान्य का कारण माना जायगा तो धान, पत्रिपान, मधुपान, भारसपान भाति से होनेवाले सुखों में लोकानुभवसिद विश्व की अपपत्ति न होगी। पुरधाम से विजातीयमुख भी सब को एक ही समान नाही Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ arn - - -- - - - -- - - - .. M .." स्था ठीका पEिO इवमेवामिमेल्याहमूलम् - तस्भादवश्यमेष्टव्यमत्र हेत्वन्तरं परः । तदेवाहमित्यारन्ये शास्त्र कृतश्रमाः ॥ १३ ॥ तस्माम् तुल्येऽप्यारम्भे फाममेवदर्शनाव अत्रफलमेनिमितं, परेश चावाकः, हेत्व. न्सरमवकपमध्यम् अनायत्या नियमनासयकायम् । तदेव इत्यन्तरं शासकृतश्रमा:अध्ययनभाननाभ्यां गृहीतशास्त्रतात्पर्याः, अन्येः-आस्तिका, अष्टमाहुः । तथा पार भगवान् भाष्यकार: 'जो तुलसाठणाणं फले विसेसो न सो विना हेउं । कज्जतणो गोयम ! घडोन हेक असे कम्मः || [वि. मा भा० २०६८ ॥ इति ।। ९३ ।। होता, मतः विभिन्न मनुष्यों को सुगनपान से होनेवाले विजातीय मुममेदों के लिये धर्माघर मेव की भी कसपमा अपरिहार्य है। इस पूरे सन्दर्भ का निष्कर्ष यह है कि लोक में पश्यमान कार्यवित्र्य की उपपत्ति अपविश्य को लोग किसी अन्य हेतु से नहीं हो सकनी अनः अष्ट की सिद्धि इच्छा ने पर भी अवश्य माननी होगी |२२|| [ महरा का स्वीकार खावश्यक है ] भर के लम्बन्ध में पूर्वकारिका के अभिमाय को ही इस कारिका ३३ में स्फुट किपर सपा अनुप्यों का प्रयन्न समान होने पर भी उनके प्रयत्न मन्य फलों में भेद देखा जाता है, रस की उपसि के लिये वार्याक को इच्छा न होने पर भी हेत्वन्तर की सत्ता स्वीकार करनी होगो, उसी हेवातर को घे आस्तिक-झिम्हों ने अध्ययन-मनन द्वारा शास्त्रों का सापर्य समझा है- 'घर' कहते है। विशेपावश्यक भाष्य की मोतुजल' गाया में भगवान भाष्यकार जिनमतगणी समाधमण ने भी यही यात कही है, गाथा का अर्थ इस प्रकार है___ 'साधनों के समान होने पर भी जी उपके फलों में मेव होता या किसी विशेष कारण के विना नहीं हो सकता, कोंकि वे कन्ट कार्य है और कार्यो में भेर कारणमेव सोता ने घटे एक कार्य है उसके औरट आदि कार्यों का विक मादि सामान्य कारण समान है, किन्तु मर चक आदि कारणों के भेड में घट पर आदि कार्यों से भिन्न होता है. दसी प्रकार समान साधनों में होने वाले फलों में उपलभ्यमान मेव के लिये भी हेसुमेर आवश्यक है, वह विलक्षण हेतु दी कम अर' ||३|| [ फा भेदोपपति के भन्न प्रकार का निरसन ] 'समान साधनों से फलभेव की उपाणि अन्य प्रकार में भी हो सकती है'-चार्याक केस गभिप्राय का प्रस्तुत कारिका ९४ में भिगकरण किया गया है १-यस्तुल्पसाधनागां पति विपन बिना हेनन् । कार्यसतो गोनन । घटः च नृश्य तम्प कः ॥" छा.या.२८ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रपालमुख्यष-स्तबकलो. १५ पराकूतमाशय मिराकुरुतेमूलम्-'भूतानां तस्वभावस्वादयामि यस्यनुताम् | न भूतात्मक पवारमेत्येतदव निदर्शितम् ॥ १४ ॥ भूताना-राजादिपरिणतभूतानां, तरम्पमावाबान-विचित्रमोगहेतुस्वभात्यात्, अब फलभेवा', इत्यपि धायकोकम्. अनुत्तरम् - उत्तराभासा । कुतः १ इत्याह-'यता' इति शेषः, 'भूतात्मक पवात्मा म इत्येनत्, मत्र-पूर्वपघटके, मिदर्शित-व्यवस्पापितम् । प्रात्मस्वमात्रभेदश्वाऽदृष्ट्वाधीन इति भावः ॥१४॥ 'भूतपदस्थाहीतविशेषस्योपादाने उत्तरमेव वैतत', इति स्वाभिमायादार मूडम्- कर्मणो भौतित्वेन यतदपि साम्प्रतम् ।। ___ यात्मनो व्यतिरिक्तं तचित्रमा यतो मतम् ॥ १५ ॥ कर्मणः अस्य, भौतिकापेनम्पौद्गलिकत्वेन, एनदाप='भूतानां तत्स्वभावत्वात फलभेद' इत्युत्तरमपि, 'यद्रा' इति प्रकारान्तरे, सा प्रसं-समीचीनस् । साधन समान होने पर भी फलमे कैसे होता है। इस प्रश्न के सम्बन्ध में पाक का उत्तर गा.कि- "पृषिधी. जल शारि भृतहटयों का राग, र आदि के शरीर के कप में शो चाचा परिणाम होता है, तो मामा, वे अपने म स्वमाश्चिय सेही वियत्रभोग के हेनु दाने हैं, अतः भोगवैचित्र्य के लिये अप्ठ की कल्पना आषषयक नहीं है"-किन्तु उक्त प्रवन का उत्तर समीचीन उसर होकर उत्तराभास है, क्योकि भूतो के शरात्मक परिणाम भी भूत ही है और 'सारमा भूतस्वरूप नहीं हो सकता' या तश्य पूर्व प्रकरण में युक्ति प्रमाणों द्वारा प्रतिष्ठिन किया जा चुका है। यदि कहा जाय कि-. "आमा को भूत भिन्न मानने पर भी उममें स्यभायमेव तो माननाही होगा, अन्यथा समो भात्मा को समानस्वरूप का ही मानने पर भूतभिन्न मात्मा से भी भोगविण की उपपत्ति न हो सगो। तो इस प्रकार अब भारमा के स्वभाषमेव से पी भोगमेर की आपत्ति हो सकती है तब मष्टपू की कपना अनावश्यक है-" किन्तु यह कथा ठीक नहीं है कि सभी आत्मा ध्यरूप में समान है. उनमें कोई सहज स्वभावमे नहीं होता, मनः उम में मावश्यक स्वमायमेव की उपपत्ति के लिये मायमेव की कम्पना भमिधार्य है ॥२४॥ [ फर्म भौतिक होने से चायाक मन का औचित्य ] इस कारिका ९५ में यह पताया गया है कि- " भूतम्रव्यों के परिणाम ही अपने म्वभाषमे से फराभेद को सम्मारक होते है"बाक का यह उत्तर भाईनों की छाप में सीबीमद भाशय यह है कि यदि यह ने कमा प्राय कि 'रामा, रक भावि के शरीराम्मक भूतपरिणाम ही अपने स्त्रमायमेर से फटमेद को सम्पादक होते हैकिन्तु इसमा ही कहा जाय कि- 'भूती के परिणामही अपने स्वभाषमेर से फलमेरक सम्मारक होते. तो या कैयन माता की मान्यता के अनुसार अबित ही है, कि आदत के अनुसार प्राय भी प्रतिकित है, भूतदयों का यह विशिष्ट परित णाम होव, म. उसे स्वभाव से फलमे का प्रपोजक मानने पर भूतवष्य के परि Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या क० टीका लिपिक २५१ . मचिदमसंगवाभिधान, भोगनिर्वाहफस्यात्मधर्मस्यैवाटस्य कल्पनात् । तदुक्तम् - "सम्भोगो निर्विघोषाणो न भूतैः संस्कृतैरपि" न्यिा००१-९] इति । तथा वित्रस्वभावत्वमप्यदृष्टस्यानुपपन्न, तजारपे मानाभावावः तत्सत्ये क गो विनिष्पादृष्यहेतुत्वे गौरवाच । न च फोननाश्यतावकछेन कसया तसिद्धिः, तददृष्टत्वस्य स्वाश्रयमन्यताविणामथिोष की ही फलमेवप्रयोगकता सिम होती है। ___ अदृष्ट को भूतधर्म मानने पर यह यक्षा होती है कि- "तुम्न दुःसा " भोगरूप फल तो भास्मा में होता, अंतः थाए आत्मा का धर्म होने पर ही उसका ससान कर सकता है, किन्तु यदि घर भूतधर्म होगा सो धधिकरण होने से पह आत्मभोग का सम्पादन न कर समगा, जैसा कि उवयनाचार्य ने 'न्यायकुसुमालि' में 'सम्भोगो निर्वि शेषाणां इस कारिका से कहा है कि शात्मा द्वारा किये जाने वाले शुभ, अशुभ कर्मों से यति माग्मा में किसी विशेष संस्कार या भनट का उपयन होगा तो उन कर्मों से भूनदयों में संस्कार प्रष्ट का जन्म होने पर भी उन से आत्मगत भोग का अपेक्षित रीति से जापान न हो सकेगा । 'मरघट अपने रूपमाषमे-जातिमेर से विभिनफलों का निर्यातक होता है'-या कथम मी ठीक नहीं है क्योंकि अहट में जाति में होने में कोई प्रमाण ना है। समी शुभकमों से पकनासोय ही अष्ट्र का जन्म होरा है। यदि भिन्न भिन्न कर्मा से भिन्न भिन्न जाति के मदृष्ट का जन्म माना जायगा तो धर्मामास्य के प्रति शुभम मात्र को पर्व मघम सामान्य प्रति अशुभम सामान्य को कारण न मानकर विजातीय चिजातीय धर्म-अधर्म के प्रति भिन्न भिन्न कर्मों को कारण मानने में गोरष होगा। [अदृष्ट में जातिभेद अभामाणिक नहीं है, WE में जातिमेम मानने के बिस यहा डोती है कि "यह ठीक नाते हो सकता कि भिन्न भिन्न शुभकमों एकजानीयको भर का सम्म हो । फलभेद तो तसत् कमों की भिन्नता से ही उपपम हो जायगा मरए तो उन कमों का फलजन्म के समय तक रहने वाला एक व्यापारमात्र, अतः फलभेद के लिए उस में जातिमेद की कल्पना अनारवयक है"--पर निवारणीय नर है कि यदि महट में जाति मेहनहीं माना जायगा तप तत्ताकर्मों के कोर्तन से ततकम्य अहए के माश की व्यवस्था कैसी होगी ! माशय यह है कि विभिन्न कर्मों से अपनानेवाले मप यदि भिग्न शिम जाति के म बोगे तो उन्हें भटपुरवा से हो सत्ता का के कीर्तन से पाइप मानना होगा और तप यह व्यवस्था न बन सकेगी कि अमर कर्म के कीन से ममुक भरष्ठ काबीनाश दो, अपितु कमै केकीन से भापकम्य मयू का भी नाश होने लगेगा मतः मिग्नभिन्न का से ही तत्कमप अरर को तत्ताकर्म के कीर्वन का माश्य मानना होगा तो इस प्रकार कीर्तन र नावपतबाइक कप में NEE में आतिमेव की कल्पना भाषश्यक होने से यह कहना कि 'माए में जातिभेद Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ སྐོན. स्वात[समुच्चय-स्तक १० ५५ शेपसम्बन्धेनाश्वमेधत्वाविषवितस्यैव तथात्वात् अभ्यथा मयाऽश्वमेवाजपेयी कृती, मया वाजपेयज्योतिप्रोमो कृती' इत्पादिकीर्तन नाश्तावक्रेदकातिसिद्धी सां स्यापि सम्भवात् । अस्तु वा तत्कीर्तन भाव विशिष्ट तत्कर्मत्वेन हेतुषम् भयो न समूहालम्बनइरिगङ्गास्मरणजन्यापूर्वस्य गङ्गास्मृतिकीर्तनान्नाशे हरिस्मृतेरपि फलानापत्तिः, तज्जन्यापूर्वयोरेकतरस्य नाशेऽप्यपरस्य सत्ये गङ्गास्मृतेरपि वा फलावते, इति नैयाचिकमत साम्राज्यात् " इत्यत आह-यतः यस्मादेवीः, तत् कर्म आत्मनो व्यतिरिक्तं भिन्नaaranr oयवस्थितं तथा चित्रभाव फलवैचित्र्यनिवशिकवे चियाल मतम् अङ्गीकृतम् 'पारगतागमषेदिभिः । इति शेषः । प्रामाणिक है' मिलान्स असंगत है ।" किंतु विचार करने पर उक्त शंका उचित नहीं प्रतोत होती क्योंकि अमे आदि कर्मों से उत्पन्न होनेवाले अष्ट को स्वायतन्यतासम्वन्ध से अध्याद विशिष्ट रूप से तत्कर्मकीर्तन का धय भार लेने से एक कर्म के कीर्तन से स कर्म के माथ की आपस का परिहार हो जाता है भतः सवर्थ में जाति मेद की कल्पना अनावश्यक है । इतना ही नहीं कि अष्ट में कीर्तननादयतावच्छेदक जाति की कल्पना मनावश्यक प्रत्युत सपना से अतिसांकर्य को भी शायचि सम्भव है जैसे मेध मोर कमों के सदकोशन की नाइयतावच्छेदक एक जाति होगी और पाजपैथ पवं ज्योति प्रोम के लडकीवन को ताइयतावच्छेदक एक दूसरी जाति होगी हम में पहली जाति अभ्यमे अट में भी है किन्तु उस में दूसरीजाति नहीं है, दूसरी जाति ज्योतिष्टोमजस्य अट में है किन्तु उस में पहली जाति नहीं पर दोनों ज्ञातियां बा पेयजन्य भर में है क्योंकि उसका नारा उक्त दोनों ही लड़कीर्तन से होता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि कर्मों के कीर्तन से कर्मजस्य अष्ट कर नाश होता ही नहीं अतः अत्र में कोननाश्यतावच्छेक जाति की कल्पना के सम्बन्ध मैं कोई बात ही नहीं ऊ सकतो मन होगा कि 'यदि कीर्तन से कर्म अभ्यम का नारा नहीं होता तो कोर्तित कर्म से भो फलोदय क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि कर्मकर्तनाभावविशिष्ट ही तत्तत्कर्म तत्तफलों का कारण होता है। अतः कर्म का कीन हो जाने पर कीर्तनाभाघ विशिष्ट कर्म न होने से उस का फल नहीं होता । ree को कोममाय मानने पर एक और आदि का सम्म है वह यह कि र और गंगा के स्मरण से जोबट उत्पन्न होगा: गङ्गास्मरण के कीर्तन से उस का नाश होने पर हरिश्रण का भी फल न हो सकेगा क्योंकि हरि और गङ्गा दो के सहस्मरण का द्वारभूत अन् एक ही था जो गणास्मरण के कोर्तन से हो गया। बंद कि "हरि और गहा के सदस्मरण से एक ही भट्ट की उत्पत्ति नोकर दो अष्टों की उत्पति होती है अतः स्मरण के कीर्तन से एक अदृष्ट का नाश हो आने पर भी दूसरे अरष्ट द्वारा इरिस्मरण के फलोदय में को war नो सकती" यह हः ठीक न होगा क्योंकि ऐसा मानने पर गा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -............................ २०१ स्था का पोका ५० दि तत्र पौदगलफत्वे इदमनुमानम् अहट पोद्गलिफम् आत्मानुग्रहोपयातनिमितत्वात् शारीरवत् । म चाऽनयोजकत्वं, कार्यकार्थप्रगासल्या नस्य मुखादिदेताये त्वन्नीत्याऽसमयायिकारणत्यामानात्' इति यति । वस्तुतो धर्माधर्मयोनिसप्रतिबन्धकस्यादिकल्पनाऽपेक्षगानास्मधर्भत्त्रमेव कल्पनी यम्, इत्यादिकं 'नाण' अनुसन्धे. का कीर्तन हो जाने पर भी उग के फार की आपत्ति होकीमा हुभा दुसरा महष्ट जैसे हरिम्मरण का मापार है उसी प्रकार बर गकाम्मरण का भी व्यापार है क्योंकि यार और मङ्गा दोनों की सदस्य से उत्पन्न है। इस प्रकार 'भत्र में जातिभेद नहीं होता यायिकों का यह मत पफ मानन्नाट के मा प्रतिछिन है। प्रस्तुत कारिका के उसरार्थ में स गतसाम्राज्य को यह कहकर वस्न किया गया है कि पारगत भगवान के आगमों का परिशीलन करनेवाले भाचार्यों ने यह सिद्धान्त पतिष्ठिन कर रखा है कि अट जातिभेवशीन कोइ धामसमवेत धर्म नहीं है, किन्नु उसमे भिन्न पौनिक द्रव्य है तथा मालवधिन्य के निर्वाह के लिए मपेक्षित मनेक विचित्रतामों से सम्मा हैं। बिष्ट पोलिमात्य का मनमान कर्म-गट * भौतिकस्य अनुमान प्रमाण में सिद्ध है। अनुमान इस प्रकार हैअरर पौलिक (भौमिक है, क्योंकि वह आरमा के अनुप्रय गाय या नृद्धि और सपथात- मात्रय या वाम का कारण, जसे शी । 'उक्त हेतु मोFrar का प्रयोजक नहीं है' यशक्षा करना उचित नही है, कि यदि उसे मोनिकायका प्रयोजक न मान कर बाट' को प्रारमा का गुण माना प्रायमा, मो आन्म होने पर यह कार्य कार्यप्रस्यामसि-नुन मादि कार्य के साथ थारमारूप एक अर्थ में प्रत्यासम्म होने से समपायसम्बाध से सुम्य आदि कार्यों का कारण होगा, भौर नय बस मिति में उसे नयायिकों की असमाधायिकारण की परिभाग के अनुसार सुग्न आणि कार्यों का असमायिकारण मानना होगा को न्याय की मान्यता के विरुद्ध है। अभिप्राय यह है कि न्याय मतानुसार 'जो जिस कार्य का कार्य का प्रत्यासचि-कार्य के साथ एक वर्ष में प्रयाससि अर्थात समवाय अध। कारणेमार्थप्रयासत्ति-कार्य के कारण ही साध पक अर्ध में प्रत्यासि मर्यासू स्वसमवापिसमवायसम्परन से कारण दोसा है वह उस कार्य का मसमवाधिकारण होता है. मेले घट के साथ काल में प्रत्यासन्न कपालयमयोग पद का समघायसम्माध से स्व प्रवरूप के समयायिकारण घर के साथ पालामक छ अर्थ में प्रत्यासम्म कपालरूप घरका का स्त्रसमयायिसमयायसम्बन्ध से असमवाधिकारण है। किन्न मरट मुख मादि का समयाय सम्बन्ध से कारण होने पर भी ग्यायमतानुसार उसका असमाथिकारण नहीं है, किन्तु बरष्ट को प्रात्मगुण मानने पर न्याय की यह मान्यता सकंहीन हो जाती है । सब बात तो यह है कि धर्म अधर्मरूप अट को आत्मा का गुण मामने पर उस के मामलप्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि मन स्वसंयुक्त समयाय सम्बन्ध से योग्य मारमा गुणों के प्रत्यक्ष का जनक होता है, अत: अदृष्ट को मानसप्रत्यक्ष के अयोग्य सिख Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०२ मु भू । तद्वैचिश्पमपि बन्धहेतुत्वावैचित्र्येऽपि संक्रमकरणादिकृतं परिणत प्रवचनानां ज्ञानमेव । परेपामपि कीर्तनादिनाश्यतावच्छेदकं वैजात्वमावश्यमेव, अम्वमेधानपेयादिपरितस्य गुरुत्वात् खजात्यघटनाऽविनी माच्छन समूहाउम्चन कीर्तनाच्चो भयोरेव खयंजात्यावच्छिन्नयनः अन्यथा प्रत्येकनानाप्रसङ्गात् तत्र विचित्प्रतिप्रकादिकल्पने गौरवाच्चेति किमिहात्मक सपर गृह विचारप्रपन्चेन ! ॥९५॥ करने के लिये वियत्तासम्ध से मानसश्य के प्रति उसे ताम्पसम्बन्ध से प्र बन्धक मानना होगा। फिर इस प्रतियप्रतिपन्धकभाष की नवीन कल्पना से अष्ट का आत्मगुणत्व पक्ष गौरवशस्त होगा। इस प्रकार की बातें, जो अहद के आरमगुणाव में विरोधी है, उपाध्यायजी विरचित 'ज्ञाना' नामक ग्रन्थ में उसका अनुसन्धान प्राप्त कर लेना । अदृष्ट के भौतिकत्व के समान उसका वैश्रिव्य प्रतिमे भो आवश्यक है । यद्यपि सभी षष्टबन्ध का हेतु होने से पकशालीय है तथापि संक्रमकरण आदि निमिलों से उसमें वैविध्य का होना अनिवार्य है। यह श्रात दूसरों को सुगम भले न हो पर जिन लोगों ने प्रवचन - जैनागम में निपुणता प्राप्त की है, उन्हें तो यह यात अति सुगम है। दूसरे लोगों को भी आगमों के आधार पर न सही, पर कोर्तन आदि के माइयावश्रूप में अनुमान के आधार पर अष्ट में जातिभेद मानना होगा, अन्यथा अश्वमेघजस्य अष्ट की भाजपेय कीर्तन से एवं बाजपेय नस्य अदृष्ट की अश्वमेधकीर्तन सेनापति के निवारणार्थ अश्वमेधादिजन्य अनार के प्रति स्वायजम्यतासम्बन से अश्मेघरवारिविशिष्ट अष्टत्वेन कारण मानने से कार्यकारणभाव में गौरव अनिवार्य है, और यह गौरव तब और यह जाता है जब इस में कोई विनिगमना दो पक्षों में किलो एक ही पक्ष की समर्थक युक्ति का अभाव हो जाता है कि अश्वमेध आदि से अन्य अष्टमाश के प्रति अश्यमेत्यादिविशिष्ट र कारण है या भवमेध आदि से होनेवाले विजातीयसुत्र आदि का जनक मष्ट कारण है। आशय यहाँ यह है कि इस दोनों प्रकार के कार्यकारणभार्थी से एक कर्म के कीर्तन से अन्यकर्मम्य अस्य की नाशापति का परिवार होता है, अतः इन दोनों में किसी एक ही पक्ष की समर्थक कोई युक्ति न होने से इस दोनों ही कार्यकारणभावों को मानने पर अतिशय गौरव भनि वार्य है । अमेध और वाजपेय मयं हरिस्मरण और स्मरण के लकीर्तन से उभयकर्म जम्प एकजातीय अहष्ट का एक नाम होकर उभयकर्मजस्य विजातीय हो भरष्टों के दो नाश होते हैं, अतः दो कर्मों का कीर्तन होने पर किसी कर्म का फल नहीं होता। यदि यह विचार करें कि दो कर्मों के सड़कीर्तन से एकजातीय अदृष्ट का एक नाश मानने है। फलतः अभ्यमेधाजपेय के सकीर्तन को नामपता छेदक जाति और बाजपेय-ज्योतिष्टोम के कीर्तनाछेक जाति का बाजपेयीर्तन अष्ट में सकर्य मनिषा है, मतः कीर्तनाश्यत । वच्छेदकरूप में अण्ड में जाति की कल्पना मलम्भव है तो यह विचार उचित नहीं होगा क्योंकि यदि दो कप के संकीर्तन से एकजातीय महष्ट का ही नाश नागर जायगा तब सहकोर्तन स्थल में पक एक कर्म मात्र में Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० ठोका० हिं० अत्रैवान्येषां वार्यान्तरमाह मुखम् - शक्तिरूपं तदन्ये तु सूरयः सम्प्रचक्षते । अन्ये तु वासनारूप विचित्र तथा ॥९३॥ 1. रात अष्टम् अन्ये तु प्रत्यः शंकरूप कर्तुः प्रत्यात्मकं सम्प्रचक्षते व्यावर्णयन्ति तु पुनः सेभ्योऽप्यन्ये वासनारूपं तत् विचित्रफल - नानाविधफलजनर्क, तथा = उक्त वम् सम्प्रचक्षते ॥१६६॥ = तत्र प्राध्यपक्षपणप्रकारं प्रादेना मूलम् मन्ये त्वभिदधस्य स्वरूपनियतस्य वै । ३०३ = कर्तुर्विमान्यसम्बन्धं शक्तिकस्मिकी कुतः । ॥९७॥ श्रन्ये तु प्राववनिकाः छत्र- विचारे, पवमभिदधति । किम् 1 इत्याह = निश्चितं स्वरूपेण = आत्मत्वेन नियतस्यञ्चभविशिष्टस्य फतु, अन्यसम्बन्धम् - आत्मातिरिकहेतुसम्बन्धं विना शक्तिरास्मि ही अकस्मादुत्पत्तिका सती कुतः कथं भवेत् न फर्म चिदित्यर्थः । "शक्तियैवात्ममाश्राजन्यत्वे सति तदतिरिकाऽसाधारणकारणअन्या न स्यात्, गन्या न स्यात्" इत्यापादानं बोध्यम् ||१७|| P के कीर्तन से होनेवाले अनुष्ठनाश की भी उत्पत्ति माननी पड़ेगी क्योंकि दो कर्मों का कीर्तन होने पर एक एक कर्म का भी कीर्तन हो ही जाता है और यदि इस मापस के परिहारार्थं कर्म कीर्तनमा अन्य मरष्टनाश के प्रति अन्यकर्मकीर्तन को प्रतिबन्धक मानेंगे तो इस नवीन प्रतिबध्य प्रतिबन्धकमा की कल्पना से गौरव होगा। इस सदर्भ में यह शातव्य है कि यह सपने पराये घर की है. अतः इस पर विस्तार से विचार करना व्यर्थ है । [शक्तिरूप अथवा शासनारूप अक्षय का मत | इस कारिका में भर के डी सम्यग्ध में अन्य विद्वानों के दूसरे प्रकार के विचार are किये गये हैं। कारिका का अर्थ इस प्रकार है जैनाचार्य और नैयायिक आदि से भिन्न fear भय को कर्ता आएमा की शक्ति कहते हैं। उनका आशय यह है कि अश्वमेध मादि कर्मों से भीतक व्यय भारम गुणरूप किसी अह का जन्म नहीं होता किन्तु अश्वमेध भाति कर्मों के कर्ता में पक शक्ति होती है जो कालान्तर में उन कर्मों के फल का जनन करती है अतः त उस कर्मों से अ नामक किसी नये पदार्थ को उत्पत्ति की कल्पना निरर्थक है । को कर्ता की शक्ति कहनेवाले विद्वानों से भी अन्य कुछ ऐसे विज्ञान हैं जो मढ को मोतिद्रव्यगुणरूप या कर्ता को शक्ति न मानकर उसे पावनारूप मानते हैं और उस घासना का हो विभिन्न कमों से होनेवाले विभिन्न फलों का जनक बनाते हैं । उनका अभिगम यह है कि 'दाना' नामक एक पदार्थ है जो भता Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रदातासमुप-सतमा हो. १९ अत्र विशेष्याऽसिद्धिमाक्षिप्य परिहरतिमूकम्--सक्रियायोगसः सा चेत्तद पुष्टौ न युज्यते । नवन्ययोगाऽभाषे च पुष्टिरस्य कथं भवेत् । ॥९८॥ तस्यात्मनः क्रिया = छपात्रदानादिका तस्या योगतः = सम्बन्धाद, सा शक्तिः तषा चास्मातिरिक्ता साधारण कारण जन्यत्वमेव इति चेत् ? तस्यात्मनोऽपुष्टी = अनुपचये सति न युज्यते, 'क्रियाजन्या शुकिः' इति शेषः । 'यथा मृदः पुधावेश घटादिनिका शक्तिर्भवति, तथाऽऽस्मनोऽपि पुष्पादेव सवाटिजनिका पाक्तिः स्यात्, न त्वन्यति दिकाल से प्रबदमाम है, इन अनादिमषाव की घटक भिन्नमिन्न यातनाये ही कर्म आणि नये कारणों के उपस्थित होने पर भिन्न भिन्न कार्यों को जन्म देती है, भलः 'वासना' से भिन्न फिसी प्रकार के क्रममन्य शतष्ट की कल्पना निष्प्रयोजन है ॥९॥ शक्ति का माकस्मिक अस्तित्व भासद्ध है] इस कारिका [७] में जैम अजों के प्रयाद के आधार पर बहए कना की शक्ति है' इस पूर्वोच पक्ष का ग्नान किया गया है । कारिका का अर्थ यस प्रकार है___अट को कर्ना की शक्ति मामने पाले विद्वानों से अन्य जैमागर्मानष्णात विभागों का इस लर्भ में यह कहमा है कि सभी का आमरूर मे सपान है, अतः मामा से भिन्न किसी अन्य हेतु के महयोग के बिना उन में शक का आकस्मिक मस्तित्व से लिव हो सकता है। अर्थात् किसी नूनन कारण को न मानने पर कर्ता में शक्ति का स्वस्थित बस्तिष कथर्माप सिम नतों हो गकता । आशय यह है कि पक मनुष्य जर कोई कर्म करता है उसका फल उसी को प्राप्त होता है, अन्य को नहीं भता यह मानना होगा कि उस फल की उम्पादिका शक्ति उसी मनुल्य में रहमी है, किन्तु पार शसि उस मनुष्य में केवल यदि इस लिये मानी जायगो कि यह मनुष्य पक भास्मा मता उक्त शक्ति प्रारमधमे होने से स म विद्यमान है ना वाारमानो उस मनुष्य के समान ही अन्य मनुष्य भी है. अतः या शक्ति केपल कर्मकर्मा मनुष्य में भीम रहकर गन्य मनुरूप में भी रहेगी: फलतः एक मनुष्य के कर्म का फल उस निकेबल पर दुसरे. मनुष्यों का भी प्राप्त होने लगेगा, अतः स शनि को मारमामा के अधीन नहीं माना जा सकता, तो फिर उन शकि. जव शारममात्र से जन्म होगी और मात्मा से भिन्न किती अमाधारण बाण में भी जभ्य न होगी तो कारण के सर्षया भभाय में उक्त शक्ति या कर्मका में भी नो मरेगा । प्राप्ति (क) का स्वरूप इस प्रकार सातव्य है __ "कतंगत शक्ति यदि भाममात्र से जन्य न होती प्रामममिग्न किमी असाधारण कारण से भी अन्य न होगी नी जाय ही नहीं हो सकती, क्योंकि यह सामान्य नियम है कि जो पदार्थ किसी पक कारण से जन्य न होने हुए अन्य भासाधारण कारण से भो ब्राय नहीं होना वह अमन्य हो होता है जैसे यायमन में भामाश आदि मौर अन्यमतों में शशशु मादि ॥२७॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...........३०५ स्थाका टोका व हि वि० भावः । अस्तु वार्ड पुष्टि, इस्पत बाद · नया क्रिययाऽन्येषा कर्माणूनो योगाभाषे = बन्धविरहे, अस्य :: आत्मनः पुतिः - उपष्टम्भकाणुसंवैधरूपा, कथं भवेत् ? एवं च पुष्टिइतुतया फर्मसिद्धिगवश्यकीत्याशयः | पर्याप पुष्टिरन्यत्र स्थास्य एवोपयुज्यते, तथाऽपि क्रियया न हेतुशल्याधान, हेतुमारे तत्वसङ्गाव, आत्मन्येव तदाधाने तु कर्मण एवं नामान्तरं तदित्यभिप्रायः ॥९८il [सुपात्रदानादि क्रिया से शक्ति का भाविर्भाव शश्व नहो । उस अपायक देतु मै मात्ममानासन्यस्य विशेषण है भोर मात्मातिरिक्त मला धारणकारणम्य विशेण्य, अ को अन्यचालिम करने वाली कगत शति में शुक्त विशेष्यभाग असिस होने ले उक्त आपत्ति असम्भव है-इस माक्षेप का प्रस्तुत कारिका [५८] से परिहार किया गया है.. 'कर्तगत शक्ति कर्ता की सुपात्रदान गादि क्रिया से उत्पश्म होती है अतः उस में आमा ले अतिरिक्त उनक्रियारूप असाधारणकारणजस्यत्व होने से उक आपावक हेतु से पूर्वोत. आपत्ति नहीं हो सकती'-पन बाहना ठीक नहीं है. क्योंकि उस क्रिया से कर्ता आत्मा की पुष्टि (अपचय) न होने पर उस में शक्ति का उलय नही हो सकता। जिस प्रकार कुलाल की क्रिया से कपालरूप में मिट्टी की पुष्टि होने पर ही उस में घटानकशक्तिका उम्मेप होता है उसी प्रकार का की सुनवाम भादि क्रिया से धोकृत आत्मा में ही सुम्मादिजनक शक्ति का उम्मेष उचित हो सकता है, अन्यथा महों 'उक्त क्रिया से आत्मा की पुषि होती है भौर उस पुष्ट आत्मा में हो कर्मफलजनक शकि का उम्मेष होता है'.- यह बात भी सम्भघ तभी हो सकती है ना क्रिया द्वारा का ओत्मा में कर्मरूप में परिणत होनेवाले भौतिक अणुगों का विशिष्टसंयोग माना जाय । यदि इस प्रकार का संयोग म होगा तो आत्मा की पुष्टि नहीं हो सकती, क्योंकि नये अणुओं का उपाटम्भक-विशिष्ठयोग को की पुष्टि कहा जाता है, तो इस प्रकार क्रिया से कर्ता की पुष्टि के लिए ही कियाअन्यगष्ट की सिजि आवश्यक है। का होती है क- अन्य पवाघों में पुष्टि का उपयोग तो उसे स्थूल बनाने में होता है जैसे मिले कपालरूप में पुष्ट होकर स्थूल पन माती है, पर कता मारमा में उस प्रकार की स्थूलता तो अपेक्षित महों तो फिर क्रिया द्वारा उसकी पुष्टि मानने का पपा उपयोग ? "-इस शंका के उत्तर में यह कहना है कि 'किया से की को पुष्टी की जो पात कहो गयी है उसका अभिप्राय यह है कि क्रिया से जिस शक्ति का उश्य मानकर अरगद को भायथासिल करना मभीए है उस शक्ति का उदय कत्ती में यदि इस लिये मामा जायगा कि यह क्रिया का एक हेतु अतः उसमें क्रिया से पाकि का अन्म होता है, तो किया के खन्य हेतुओं में भी उस के उदय को आपत्ति होगी, और यदि आत्मा में ही मियाजम्यशकि का सदय माना जायगा, तब पा को महसही होगा, 'कि' तो उसका नामाप्तरमाण होगा ॥२८॥ था. घा, ९ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ शास्त्रवातासमुच्चय-स्तबक १ लो० ९९ अस्तु सहि अजन्यवादृष्टरूपा शक्तिी, इत्पन्याहमृलम्-- अस्स्येव सा सदा किन्तु क्रिया व्यभ्यते परम् । भास्ममात्रस्थिताया न तस्या व्यक्तिः कदाचन ।।९९|| सा = भष्टरूपा पानिा, सदाऽस्त्येव, किंत परं -- केवलं, किराया - मुपायदानादिफया, न्यज्यने = फलप्रशानयोग्या क्रियते 'न तु जन्यने इति 'परम्' इत्यनेन स्पष्टीक्रियते । वारय, यत आत्ममात्रस्थिताय - अनापने कस्वरूपव्यवस्थिताया तस्याः = पाक्तः न = नैव, व्यक्तिः = आवरणनित्तिरूपा, कदाचन-मातुचिन् ॥१९॥ कथम् । इत्या:-- मूलम् ---सदन्यावरणाभाबा भावे वाऽस्यै कर्मता 1 तन्निराकरणार व्यक्तिरिति तदसरिधांतः ॥१०॥ तस्याः शक्तन्यस्यावरणस्याभावान-अनायतायाः शक्तरावरण मेव नास्ति, कितर्षि क्रियया तब निवर्तनीयम्, असतो नित्यनियुत्तत्वात ? तथा च का नामऽऽवरण निवृत्तिरूपा व्यक्तिस्तक क्रियया क्रियताम् ? इत्याशयः । उमथ यदि 'शाश्वत्यास्तस्याः सकतेः कार्यातरं प्रत्यनायुतत्येऽपि प्रातफलप्रदानाभिमुख्याभावात् तत्रातत्वमि स्यनरतीय स्वीकि [सुपात्रागादि से व्यङ्गय शाश्मन शक्ति के अभ्युपगम में दोष | 'भरट के स्थान में अभिषिका की जानेवाली कक्ति किया से पैदा नहीं होती किन्तु बकना में समा विषमान रहता है- प्रस्तुत कारिका १५९) में इस कपल का निराकरण किया गया है, अर्थ इस प्रकार है-- यह कहा । गहना है कि- "अपस्थानीया शक्ति का में सर्वदा रहती है, सुपार पान मानि क्रिया यों से केवल उसकी भमियक्ति होनी है, उसमें क्रिया का फल देने की योग्यता मात्र उन्मीलिन होती है, किया से उसका काम्म मह होता"- किन्तु वह कहना ठीक नही है क्योकि शक्ति यदि आवरणाहीन आश्मा के रूप में दी अपस्थित मानी नापणी तो निया से उसकी प्रभिव्यक्ति न हो लगी। क्योंकि प्राघरपानिवृति काही माम भिव्यक्ति है और यद गाारण ननिमारनामक प्राधरणदीनता शक्ति में पहले से दी सिद्ध है। शक के दामारफरूप में गी अतिरिक्त अट को Folor] पाक्ति को अनावृत आत्मा के भर में अवस्थित मामने पर उसकी अभिव्यक्ति पयों नहीं हो सकती ! प्रस्तुत कारिका (१००) में इस प्रश्न का उत्तर दिया गया है.- शकत जब अवामृत शात्मा-रूप होगी तो उस का कोई भावरण न होने से किया द्वारा किम की मिनि दरमा । आवरण असत होने पर तो नित्य ही निवृत्त रहेगा, तो फिर किंया से मारननिरूपा भिव्यक्ति कैसे होगी । और यदि आपे भाग में युधा और आध माग में पृत किसी कम्पित व्यक्ति के समान यह माना जाय कि Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था का टोकाव it. पि. यते, तदाऽप्याइ–भावे या तइयार होकारे सत्र नदीमा फर्मता, पतस्तस्यावरणस्प निराकरणात्, व्यक्तिः भक्तेः, इति तयो क्यान्मनो: सका. पाद भेदसंस्थितिः भेदमर्यादा अस्ति' इत्पनुपश्यते । एवं चान्य आत्मा शत्र सा शक्तिः अन्या च शक्तिः या क्रिययाऽभिव्यज्यते, अन्यकच कर्म यदारणरूपं सदा नश्यति, इति प्रयसिद्धापपि कर्मणो नासिद्भिरित्पम्युच्चयः । शाम्धतशक्तेरात्माऽनतिरेकाच्च द्वयमेव वा पर्यषस्यति । वस्तुतः सा शक्तियदि वदैव क्रिययाऽभिव्यज्यते, वदा वदेव स्वोंस्पतिः स्यात । गदि च क्रियाजन्यावरणध्वंससहकता कालान्तर पर सा फल जननी स्वीक्रियते तदा किमतावत्कुमृष्टया तजन्यधर्मस्यैव स्वविपाककाछे फलजनकत्वादिति स्मर्वयम् ॥१०॥ इदमेवाहमूलम् -- पापं नजिनमेवास्तु त्रियान्तरांनंबन्धनम् । एवमिष्ठत्रियाजन्य पुण्य किमिति नेपयते । ॥११॥ शक्ति मन्य कार्यों के प्रति मान्नुत होते हुए भी प्रक्त क्रिया के कालान्तरमावी फल के प्रति आवृत' रहती है, तो भी शक्ति से अक्षय को अन्यधासिद्ध करने का लक्ष्य मही सिद्ध हो सकता. क्योकि इस प्रकार शक्ति का जो गायरण माना जायगा पारी श्ररया आषरण का अस्तित्य निर्विवाद सिम होगा, क्योंकि उक्त माम्यता के अनु. सार यह स्प है कि मारमा एक अन्य वस्तु जिसमें यह शक्ति रहती है, और शषित एक दुसरी यस्तु है जो क्रिया से व्यक्त होती है पर्थ कर्म भदए एक तीसरी वस्तु जो भाषरणकप है-क्रिया से जिस की निवृति होती है। इस प्रकार मात्मा शक्ति और उसका आवरण इन तीनों की सिद्धि होने से भावरणरूप में कर्म अट को सिसि अनिवार्य अद्यया पेसा कहिये कि-पआरमा को शाश्वती शक्ति मारमरूप ही इस से मिन्न नहीं है. अतः आत्मा और उस का भावरणकमे ये वो ही घस्तुयें सिख होती है। ___सम पात तो यह है कि भष्ट से भिन्न कदंगत शक्ति हो ही नहीं सकती क्योंकि यदि ऐसी को शक्ति मानी शायनी सो क्रिया से उस की भभिव्यक्ति क्रियाकाल में ही मानने पर उसी समय स्वर्ग की उत्पति का प्रसंग होगा और यवि किया से भावरण असो काने पर कालान्तर में हो उसे फल का जनक मामा जायगा तो था केवल एक फुसुष्ठिकल्पना ही होगी, इस से अच्छा तो यही होगा कि यह माना जाय कि क्रिया से धर्म कर बाट का अन्म होता है और यह धर्म की अपने परिपाककाल में फल का जनक होता है||| [भाभक्रियाजन्य पाप को तरह शुभक्रिया जन्य पुण्य] इस कारिका (१०१) में पूर्वोक्त विषय को ही पर किया गया है, भी इस प्रकार हैयह कहा जा सकता है कि-'कतगत शक्ति से भिन्न एक वस्तु मो कालनिषिज Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रपालमुच्चय-स्तक १ ग्लो. १०२. सन-आवारकत्वेनाभिमतं मियान्तरनिबन्धनम् अनुभक्रियानिमिचकपापं गिन्नमेव= अत्यतिरिक्तमेव अस्तु' इति चेत् ? एका अशुभक्रियाजन्यपापवत इमानेया नन्यगबिदित. क्रिपानिमित्त पुण्यं किमितिकृतो हेतो। नेष्यते ? पकभावेनान्यथासिद्धावविनिगमादिति भावः ||१०१॥ पासनैवाष्टमिति द्वितीय पक्ष निराकर्तुमाह-- मुलम्-वासनाऽप्यन्यसम्बन्ध विना नैवोपपद्यते । पुष्पादिगन्धयकश्ये तिलादी नेभ्यते यतः ॥१२॥ वासनाऽप्यन्यसम्बन बिनावास्यातिरिक्रयोग विना, नैत्रोपपद्यते । कुत: ? इत्याह पुष्पादिगन्धर्वकल्ये यतस्सिलादो रासना नेष्यते । एवं च वासना वास्यातिरिक्त सम्बन्ध अन्येति नियमः सिद्धः ॥१२॥ ततः किम् ? इल्या-. मुरम्-जोधमाप्रातरि तयासक किञ्चिविष्यताम् । मुख्यं तदेव : फर्ग न युक्ता वासनाऽन्यथा ॥१३॥ भागुमक्रियाओं से उत्पन्न होता है, किन्तु शास्त्रहित कियाधों से भी किसी वस्तु का जन्म होता है, यह मानने की आवश्यता नहीं है, क्योंकि उन क्रिया को से कशक्ति को मात करने वाले पापकर्म की नियुक्ति होने पर कर्वशक्ति से ही उम मियाओं को फल सम्पन्न हो सकता '-किन्तु यह कथन कहो क्योंकि जिस प्रकार भशुभ कियाओं से पाप का जन्म होता है उसी प्रकार शुभ क्रियाओं से पुण्य का जन्म म मानने में कोई युक्ति नहीं है। यह कहना कि-कहगत शक्ति के आवरणार्थ अशुभमियाजन्य पाप की सत्ता मानना तो पायायक है, शतः शुभ क्रियाओं से पाप की निवृत्ति होने पर उन कियामों के फल की निष्पत्ति सम्भव होने से पागभाव द्वारा पुण्य का अस्तित्व अन्यथा लिक हो जाता है- नई हैं, फोंकि जैसे अशुभ क्रियाओं से पाप का अम और शुभ कियामों से उसकी निवृत्ति मानकर पापामात्र से पुण्य को अपमास्सिाह किया जा सकता है, इसमें कोई निगमक (-पक्षमात्र का समर्थक) युक्ति नहीं है जिससे पाणामाय से पुण सन्यासित हो किन्तु पुण्याभाव से पाप अभ्यासिक न हो ||१०|| कारिका (१०२) में 'पासना ही पडघट है' इस दूसरे पक्ष का भाकिया गया है घासनीय वस्तु से अतिरिक्त पस्तु के सम्ध के बिना यासना भी नही डापन्न हो सकती, कोपि पुष्प आदि के गाय के अभाष में नेल में वासना नहीं होती, अतः यह नियम निविषाद सिज' है कि 'वासना याममाय से भिन्न वस्तु के सम्पन्ध से ही पत्पन्न होती है.२| कारिका १०३ में अफल निग्र से प्रस्तुत विषय पर क्या प्रभाव सुभा, इस बात का स्पीकरण किया गया है. कारिका का अर्थ इस प्रकार है Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा० क० ठीका व शि० वि० बोधमात्रातिरिक्त=त्रास्यज्ञानभिन्नं तत्= तस्मान्नियमात् किश्चिद्वासकमिष्यताम्, तदेव = इष्यमाणं वः युष्माकं, मुख्यं वस्तुसत् कर्माऽस्तु । अन्यथा परमार्थसदतिरिक्तकर्माseater चासन्दा न युक्ता । न हि असहयात्युपनीतभेदाऽग्रहाज्ज्ञानासनेत्यभ्युपगमः प्रामाणिकः तैलादिगन्धेषु पुष्पादिगन्धभेदादेऽपि तद्वासनोपपत्तेः । न च कादिवासनाविज्ञानवासनोक्तस्त्ररूपाऽसौ नानुपपत्तिरिति वाच्यं ज्ञानेऽह भेदानानका लिकभेदाऽप्रयोजक दीपसवाद् नेदानीं तन्निवृत्तिरिति चेत् तर्हि दोषाभावविशिष्टमेाभावो वासनेति फलितम् दोप तत्र वासनैवेत्यात्माश्रयः । किञ्चैतादशवासनापेक्षयाऽवश्यकल्पनीयादृष्ट एवाडामाणिकत्वकल्पनाऽपेक्षया प्रामाणिकत्वकल्पनमुचितमिति परिभावनीयम् ॥ १०३ ॥ 姿召唤 इदमेवाभिप्रेत्याह उक्त नियम के फलस्वरूप ra मानना होगा कि शान से भिन्न कोई वस्तु ६, जिस के सम्बन्ध से ज्ञान वासित बासमायुक्त होता है, तो ऐसी जो वस्तु वासमाषादी को अभिमत है सिद्धान्तवादी की दृष्टि से घड़ी कर्म अष्ट है, उसी के सम्बन्ध से ज्ञानमात्मा का बासित होना उचित है। कर्म की वस्तुसत्ता स्वीकार न करने पर वासमा को उपत नहीं हो सकती । 'अर की वस्तुसता नहीं है, भसत् शशशु आदि की क्याति जिस प्रकार होतो है उसी प्रकार असत् भी अज्ञान का विषय बन जाता है, इस प्रकारात भट कर शान में मेद न होने से हानपासना को उत्पत्ति हो सकती है' यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि मेद से वासना की उत्पत्ति मानने पर तेल में का सम्बन्ध न होने पर भी तैलगन्ध में पुष्पगन्ध के मैदान से तेल में वासना की उत्पत्ति होने लगेगी।" संघासना से ज्ञानवासना विलक्षण है अतः वह तो ज्ञान में अमे से हो सकती है पर वासना उक्तमे से नहीं हो सकती' यह कहना भी ठीक नहीं के प्रभाव से यदि मानवासना का जम्म माना जायगा तो ज्ञान में अनुमेर के पद से उस घासना की निति होने पर संसारदशा में भी मोक्ष की आप दोगी। उत्तरकाल में दोनेवाले भेदाह का प्रयोजक रहने के कारण areer ही नहीं हो सकता' कहता है से यही सिद्ध होगा कि दोषाभावविशिष्ठ भेदाभाव ही वासना है, निर्वयन में वासनात्मकदोष का ही सम्निवेश होने से 'माय' का मत होगा । शान में कि इस कथन फलतः बासना के इस अतिरिक्त दूसरी बात यह है कि इस प्रकार की वासना को अपेक्षा तं यही मानना उचित है कि जय ज्ञानवासना के लिये अपेक्षित मेवा की उपपत्ति के लिये अवश्य वनीय है तो उसे मप्रामाणिक पर्व असख्याति का विषय न मान कर प्रामाणिक मानना ही सर्कसंगत है ॥ १०३॥ पूर्व कारिका के अभिमाय को ही कारिका (१०४) में सष्ट किया गया है Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० .... शास्त्रवातासमुच्चय-स्तषक प्रलो. १०५ मुलम्-बोधमारस्थ तसावे मासि ज्ञानमवासितम् । ततोऽमुक्तिः सदैव स्यात् वैशिष्टयं केवलस्य न ॥१०॥ बोधमात्रस्य अविशिष्टज्ञानस्य, तावे वासनावे 'अङ्गीक्रियमाणे' इति शेषः, ज्ञानमयासितं नास्ति, सर्वस्यैव शानस्थ बासनारूपत्वात् । ततः सदय वासितज्ञानसम्वादमुक्तिः स्यात् । अष विशिष्ट वानं वासना स्वीकरिष्यते, इत्यत्राइ फेवळस्यअषिविज्ञानस्य चैशिष्टय न, विशेषकस्वीकारे च उक्तवत् तदेवाजमिति भावः । प्रय पोकतनवानप्रवाशरूपा वासना, मतो नानुपसिरिति चेत् ! न, क्षणपरम्परातिरिक्तसन्तानस्वीकारे द्रव्याभ्युपगमप्रसङ्गाद, अन्यथा चासिप्रसमाऽपरिधारादिति म्फुटीभविष्यत्यने ॥१०॥ उपसहरन्नाहसकम् -- एवं शल्यादिपक्षोऽयं घटते नोपपत्तितः । बन्धाद् न्यूनातिरिक्त तावानुपातितः । १०५|| [ज्ञानमात्ररूपवासनापक्ष में मोशामाव की भापत्ति ज्ञानमात्र समज्ञान को वासनारूप मानने पर अघासित-पासतामुक्त वा पासमा भिम्म माम फोई न होगा अतः घासनात्मक खान काही सवत्रा समाप होने से मोक्ष के भभाष का मसा होगा, क्योंकि मिर्यासन बान या मान की निर्वासनता ही मोन, मो हानमात्र को वासनात्मक मानने पर सम्भय नहीं है । 'शानमात्र वासना नहीं किन्तु विशिरमानमात्र वासना है'-यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि किसी विशेषक का अस्तित्व माने विना विशिष्ट ज्ञान एवं विशिष्टयान में कोई लक्षण्य ही नही हो सकना और यदि शान का कोई विशेष माना जायगा तो उस विशेषक केही मापकप में मान्य होने से अहट के अस्तिस्य का निराकरण न हो सकेगा । "क्षणिक सानो का प्रयाही पासना है और इस प्रघाह का परम ही मोक्ष पेला मानने अनुपपत्ति नहीं हो सकती " यह कथन भी संगत नही हो सकता, क्योंकि 'उत्तरभावी काम से ज्ञान का घासिम होना या पूर्थशान से उत्तर. शाम का वालिश होना-पेसा स्योकार करने पर बुध से भिन्न व्यक्ति के पान से युद्ध के बान की बासमा छोम लगेगी क्योंकि मोनों के हो राम प्रषमाम हैं और दोनों में पूर्वोत्तरभाष है।'पक सम्तानगामो शामों का प्रवाह घानना है, खुज और घुझेनर के नाम मिन्नसम्तालगामी शतः पोंक दोन नहीं हो सकता'-यह कथन भी समीचीन नहीं हो सकता, क्योंकि सातास भणी-झानात्मकक्षणों को परम्परा से भिन्न मानने पर स्थायी के अस्तित्व का प्रसा होगा मोर क्षणपरम्परा को छी सन्तान मानने पर समस्तक्षणों को भी एक परम्परा होने से अश्रया मानक्षणी से भिन्न किसी परम्पराका अस्तित्व न होने से पूर्वांत मनिप्रसाद का परिवार न हो सकेगा ॥१४॥ - [अहल का शक्ति- वासनारूपाय अघाटन है-उपसंहार] इम कारिका (१.५) में पूर्वक भूर्मा का उपहार किया गया है'शकि या वासना दी पहा है उससे भिन्न क्रियाजन्य भरष्ठ की सत्ता में Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्या टोका प हि वि० ३११ एवम्-उक्तविशा, अर्थ मन्तव, ५.. तिमासगीरहनवाद: उपपसितम्यूक्ते न घटने । उपपत्तिच प्रतिस् मागक्तंस | तामेव साधारणीकृत्याहपन्धासकाशात न्युनत्वे किचिदवन्धवदनित्ये अतिरिक्तत्वे व बन्धाभाववत्तित्वे सति तद्भावानुपपसितः अप्रसङ्गानि प्रसाराभ्यां मध्यवन्धनीयभावाऽव्यवस्थाप्रसाद्धेनोः । शब्दमया प्रागुनदोपस्मारणमेदिति ध्येयम् ॥१०॥ नतः किम् ? इत्यार . मूलम्-तस्मात् तदाःमनो भिन्न सञ्चि नामयोग च । अष्टमवगन्तव्यं तस्य शस्यादिसाधकम् ॥१.३।। तस्मात् उक्तहेतो), सत् नरादिमित्र्यप्रयोजकम्, आन्मनः, साझाशाद् भिन्न-पृथए दृश्यमूने न त्वात्मगुणरूप, सत् पारमार्थिक न तु कल्पनोपारुई, चित्रं मानास्वभावं न स्वेकमातीयम्, मतमयोगमा:मप्रदेशेषु क्षीरनीरन्यायेनानुभविष्टं न स्वात्मनः कूटस्यात् पृषगेय चिवत्तेमानं, सपेकचुकापर्यव त्रा वर्नमानम् । चः समुनये, मेन प्रवाइतोअनादियादि समुधोयने । नरपभात्मनः शस्त्याः पराभिमानमत्यादिपक्षस्य सापक-निर्वाहकम्, भाई-कर्म, गनगन्तव्यम् मदिशा पालोचनीयम् ॥१०६|| कोई प्रमाण नहीं है' यह गक्ष जिसे सभी प्रस्तुत किया गया है याद पूर्वोक्तरीत्या युक्ति से समर्थित नहीं हो पाता जैसे कि प्रत्येक पक्ष के लिये सम्भावित युक्ति का उल्लेख किया जा चुका । सामान्यरूप से दोनों पक्षों (शक्ति-चासत्रा) के सम्बन्ध में यह कदा जा सकता है कि शफि पा यासमा को बन्ध-अहट से न्यूमति किसो बस में अत्ति मानने पर, मधा 'गन्ध से अतिरिकम-साधन शून्य में सि मामने पर शक्ति या वासना बन्धन है और उसका शाश्रय यध्य है इस प्रकार का बध्यबन्धनभावन बन सकेगा क्योंकि पहले पक्ष में उस बद का संग्रह महो सकेगा जिस में शक्ति या पासमा न बोगी और सुसरे पक्ष में उस व्यक्ति का भी संग्रह होने लगेगा जो नित्य मुक्त हो चुका है। इस प्रकार शब्दातर से इस कारिफा में पूर्वोक दोष का स्मरण भाच कराया गया है ॥१-५|| चक्ति था वासना बद्दष्ट का स्थान नहीं ग्रहण कर सकती' स स्थापना से क्या उपलधि हुई प्रम का प्रस्तुत कारिका (१-६) में उसर दिया गया है। [मात्मा से मिन्ना पौदल अट का स्वरूप शाक्ति पर्व वासना को अटकाना के थियन पसाये गये कारणों तथा पूर्वांक मम्य कारणों से पद मिज है कि मनुष्य, पशु, पक्षी, आदि रूप में भारमा के विरुध का सम्पायक अष्ट मात्मा से भिन्न एक भौमि द्रव्य है. गारमगुणरूप नहीं है पारमार्थिकसत् है. काल्पनिक नहीं , पर्व अनेकविध स्वभावों से सम्पन्न है, एकजातीय नहीं है। जिस प्रकार क्षीर में भीर. घुलमिल जाता है उसी प्रकार मान्मा के प्रदेशों में Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रवासांसमुख्यय-स्तबक १ ग्लो० १.६ ___अबोला नायिका :--'अस्तु तत्तनिकन्यास एवं व्यापार, किमपूत्रंण ? न चैव क्रिषायाः प्रतिपयकत्वव्यवहारापत्तिा, संलगीभावत्यादिना कारणीभूतामावतियोगित्वेनर तदुपयहारात् । न चैत्र संस्कारोऽघुक्ति , अनुभवसेनौंवोपपत्तेः उद्योधमाना विशिष्य हेतृत्वेनानतिप्रसङ्गादिनि धान्यम्, इष्टत्वात् । न च प्रायश्चिता दिकमणोऽपि फलापतिः प्रायश्चिसाधभाववत्कर्मत्वेन कारणवान् । न च दसदसफलो. देश्यकप्रायश्चित्ते कृते प्रतियोगिनि तत्प्रायश्चित्तस्य निवेशे दत्तफलादपि फल न स्थान, निवेशे चादनककादपि फल म्यादिनि स्याम्अदत्तफलनिष्ठोदश्यतया तबभावस्य वाच्यत्वात् । एतेन “प्रायश्चितं न नरकादिप्रनिबन्धकम्. भाविनाशित्वेन घुलमिला रहता है, न कि आत्मा कृटस्थ निष्प्रदेश है भोर मरट उस से अत्यन्त गृया अपना अस्तित्व रखता है और न याहो कि जिस प्रकार के सांप के पार के अपर विचमान रखता है उसो प्रशार आए श्रात्मा में सम्पन्न होता है। शहर एक पक तिरूप में सादि होते हुये भो प्रघाट रूप से भवामि होता है। सूक्ष्म रष्टि से विषय का पर्यालोचन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि अन्य विद्वानों ने भामा में जो शक्ति या पासना मानी । उसके प्रयोजनों का मिर्थातक पा माप को है। इस से मिग्न शक्ति या वासना का अस्तिन्य तर्कसंगत नहीं है। विवासात्मक व्यापार से बह के गतार्थत्व को शंका-उखल] सैघाकि मारपता का यधन म माननेवाले नायिकों का इस मद में यह कहना कित्तरिया के पर्वस को नतरिक्रपा का व्यापार मान लेने से कालान्तर में किया के फल की उपासि हो सकमा है बब-नः उसके लिए अपूर्व अहए की कल्पना व्यर्थ है। A कहना कि-"क्रियानंस को कालान्तरभावी क्रियाफल के प्रति कारण जन पर क्रिया में उसके फल प्रति विषयक व्यवहार की आपत्ति होगी क्योंकि कार्य के प्रति जिस का अभाय कारण होता है उस कार्य के प्रनि पा प्रतिवन्धक हाता-"ठीक नहीं है क्योंकि या नियम नहीं है कि 'जिप्त का भभाष जिस का कारण हो यह कार्य का प्रतिबन्धक श्रोता है किन्तु यच नियम है कि 'जिसका जित कार्य का में लगामायस्वरूप से कारण होता है, यह उस कार्य का प्रतिव होता। तसक्रिया का च कालान्तरमावी तत्तक्रियाफल के प्रति शसरिका पाध्यसत्य रूप से कारण है कि संसर्गाभावत्वकप से अन्यथा तत्तत्मिाया के पर्ष भी मिया का प्रागभावरूप संलगायाध रहने से, तसस्क्रिया के पूर्व भी तसलियाफल को आपत्ति होगी, पर्व नसक्रिया के प्रका में भी नसस्किया का अत्यन्ताभाष निसर्गाभाव रहने से तसलियर के अकतों में भी अत्तरिया के फल की मार होगकलतः संसर्गामायस्वरूप से कारणीभूत अभाष का प्रतियोगी न होने से सशस्क्रिया से सत्तरिक्रयाफल के प्रति प्रतिवम्धकत्व व्यवहार की मापत्ति नहीं हो सकती। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था०क० ठोका थ०वि० ३९३ तदुपपवारकत्वात् नापि तद्ध्वंसः आयश्वितानन्तस्कूल गोवषादिसोऽपि नरकालुष्पस्थापतेः । न च तत्तत्प्रायश्चित्तप्राग्वर्तिगोवधादिजन्यनरके तचत्प्रायश्विचतध्वंसस्था, | संस्कारउच्छेद भापति का परिहार ] इसके विरोध में यह कहना कि " किया तो अनुभव से अनुभव सभ्य संस्कार की भी गतार्थता होने से संस्कार का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि स्मरण के प्रति स्वस द्वारा अनुभव को एवं तद्भविषयक स्मरण के प्रति संस्कारबादी के मतानुसार नमयविषयक संस्कार के उद्बोधक को विशेष रूप से कारण मान लेने से अननुभूत अर्थ के तथा पक अर्थ के अनुभव से अन्तर के पर्व सत्त अर्थ अनुभव से नियतकाल के पूर्व ही अर्थ के स्मरण के अति का परिवार हो जायगा "टीक नहीं है, क्योंकि जिसको क्रियास से अपूर्व की व्यर्थता मान्य है उसको अनुभव से संस्कार को भी पर्यत मान्य है । "अपूर्व न मानने पर जिस पापकर्म का प्रायश्चित कर दिया गया था जिस पुण्यकर्म का कीर्तन कर दिया गया है उस कर्म उन पुण्यकर्म के भी फल की आपति होगी, क्योंकि प्रायश्विन आदि होने पर भी तकिया नया का व्यापार अक्षुण्ण बना रहता है यह कहना नहीं है, क्योंकि मायदिवसाभाषवि शिष्ट पापकर्म को एवं कीर्तनाभार्थीविशिष्ट पुण्यकर्म को तत्रफल का कारण मान लेने से इस आपत्ति का अनायास ही परिक्षर हो जाता है। "दत्तफलककर्म एवं अतफलक फर्म दोनों को उद्देश्य करके भी प्रायश्चित किया जायगा, उस प्रायश्चित्त को भी प्रायविष का प्रतियोगी बनाने पर फलक कर्म से फल की पति और उसे प्रतियोगी बनाने पर असफलक धर्म से भी फलोरपति की आपत्ति होगी" यह कथन भी ठीक नहीं है कि उस प्रायश्चित्त को फल फकर्म नि उद्देश्यता सम्बन्ध से प्रायश्चित्ताभाव का मनियोगों चना देने से उत्तर आपत्तियों का परिवार को जाता है, क्योंकि मुत्तफलक कर्म में उक्त देवता से प्राय न रहने से वह मात्र freeteere [sो जाता है, अतः उसमे फल की उत्पत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती. एवं अतफलक कर्म में उक्त उद्देश्य मात्राभाववत्कर्म नहीं बन जाना, अतः उसके से प्रायश्चिल रहने से वह कर्म पति की आपत्ति नहीं हो सकती । का समर्थन ] प्रायश्विवत्कर्म मे फलो प्रश्न होता है कि अयं को प्रायश्वित्तनाय न मानने का प्राधिको रक मादि का प्रतिबन्धक माना जायगा स प्रायश्वितध्वंस को मा नहीं हो सकता, क्योंकि प्रायश्चित शिविनाश होने से कालान्तरभावी नरकारि की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध नहीं कर सकता हा प्रकार दूसरा पक्ष भी प्राय न हो सकता क्योंकि दूसरे पक्ष में प्रायश्विन्त के पात्र किये गये गोवध आदि गायकर्मों से भी नरक मात्रि की उत्पत्ति हो गयेगी. क्योंकि पूर्ववर्ती प्रायश्वितस से उसका प्रतिबन्ध हो जायगा । था. पा. ४० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शास्त्रार्त्तासमुचय-बक १०१०१ प्राग्जन्मकृतगौवधादितोऽपि नरका जुत्पश्यापतेः । ' तज्जन्मकृत०' इति प्राग्वर्तिगोषविशेषणे वप्रसिद्धिः" व्यपास्तम्। न चापूर्वास्वीकारेपान यवस्थानुपपतिः, प्रधानावृतत्वादिनाकुलम् गुसवा-हत्याहुः | तदसत् तत्कियोदेशेनान्यप्रायश्चित्ते कृतेऽपि फलानापतेः । 'तुचत्प्रायश्चिवाभाजनिवेशान् ततम्प्रायगिविन्दितातिरिकमस्य व्यापारत्वाद्वा नानुपपतिरिति चेत् तथाऽपि तस्यानक्रियया भोगापत्तिः । तद्ध्वंसातिरिक्तत्वमपि निवेशनीयमिति तू तथा सस्यानन भोगावापमः । चरमभोगा १९४ इसके उमर में यह कहना कि "तप्रायश्वित के पूर्ववर्ती गोवादिजन्य नरक भावि के प्रति ही ततरवायवलयंस को प्रतिबन्धक मानने से यहीं नहीं है, क्योंकि वर्तमान जन्म में गोषध के बाद प्रायश्चित करने पर वर्तमान जन्म के गोवध से सो मरक प्राप्ति नहीं होती, किन्तु पूर्वजन्म में किये गये गोवध से तो नरक प्राप्ति होती ही है, किन्तु करीति से प्रायवित्तध्वंस की प्रतिबन्धक भागने पर पूर्व में किये गये गोबध से भी तरफ की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध हो जायगा क्योंकि पूर्वजन्मकृत गोयध भी प्रायदिवस का पूर्ववर्ती गोध है अतः उस गोषध से प्राप्त होने वाला नरक भी प्रति बध्य कोटि में अपना इस दोष के निवारणार्थ यदि पूर्ववर्ती गोवध में 'तज्जन्मकत' विशेषण देकर तत्प्रायसि तम्मत मोघमभ्यनरक के प्रति तत्समाय दिवसको प्रतिबन्धक माना जायगा तो जिस जन्म में गोवचनम से प्रायश्विच करने के बाद गोवध हुआ. पायवपूर्ववत जम्मत गोवध की सिद्धि होने सेवक रीया प्रति प्रतिबन्धमा सकेगा। किन्तु यह सब दोष प्राथवाभावकर्म को कालान्तरमाया कर्मफल के प्रति कारण मानने पर नहीं हो सकते। [प्रधान भाव अनुपपांस का परिहार ] 'अपूर्व न स्वीकार करने पर कर्मों में मङ्ग-प्रधानभाव की उवस्था न हो सकेगो, क्योंकि उस पक्ष में अवान्तर अपूर्व का अनक कर्म न होता है और परमापूर्व का तक कर्म प्रधान होता है। यह बात न बन सकेगी यह शंका भी नहीं की जा सकती क्योंकि अपूर्व न मानने पर अङ्ग-प्रधान की व्यवस्था के लिये यह कहा जा सकता है कि जिस कर्म की कथमता अमुक कर्म किस प्रकार किया जाय इस आकाशा से मो कर्म विहित होता है वह अन होता है। अतः अपूर्व स्वीकार न करने पर कर्मों में अङ्गभाव की व्यवस्था में कोई बाधा नहीं हो सकती । लम का अपहरण सैद्धान्तिकपरम्परा के विरोधी नैयायिकों का अपूर्व के सम्बन्ध में उस पर्चाछोधन ठीक है क्योंकि गवामयत्क्रिया को फलजनक मानने पर सि क्रिया के उद्देश्य से कियान्तर का प्राचाश्चस कर दिया जायगा उस किया के फल की प्रत्पत्ति न हो सकेगी, कारण यह क्रिया भी प्रायश्विसाभाषषक्रिया नहीं होगी। "प्राय Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याक• ढोका व दि. वि. नन्तरं यापारसत्वेऽपि प्रागभावापावा र भोगा नुत्पचिरिति किं नदमावादिनिचेक्षेन ! प्रापचिवविधितामध्ये तु विजातीयप्रायश्चित्तानो रिजातीयादृष्टनाशकत्वमेवोचितम, आगमासंकोचालायवारच । न चामभोगमागमा विशिष्टोक्तध्यसाधारतासम्बन्धेन क्रियाहेतुस्वमरणपास्लम, विशेष्यविशेषणभावे विनिगमनाविरसाच्च । किश्च तत्ततिक्रयागी तसस्प्रायश्चित्तोश्रयत्वमपि तत्कियानन्यकर्मनाशेच्छाविषयतयैव सुप्छु नि हति, नाम्पमा, इस्यतोऽप्पदृष्टसिदिः । चिमत्ताभाव के यदले तमामायश्चित्ताभाव को किया का विशेषण बनाने से मचवा तत. रमायश्चितविशिष्ठ अवतफलकामध्यसातरिक्त खम को किपा का पागार मानने से परमोधन होगा -यह कहना ठीक नहीं हो सकता. गोंकि ऐसा करने प र शानी की क्रिया से भोग ही शान टोपी । 'प्यारभूत कियाध्यस में तरबझानिक्रिपा ध्वंसातिरिका विशेषण मेने से यह भी नोष नहीं होगा- यह करने से भी निस्तार नहीं हो सकता, क्योंकि क्रियाचस को किया का व्यापार मानने पर किया ध्वस का कमी अन्त न होने से क्रियाफल का भी अन्न न हो सकेगा । फलतः किसी शुम किया से कमी स्वर्ग मिल जाने पर स्वरीत मनुष्य की स्वरों से युति कमोन हो सकेगी। 'बरम मोग के बाद ग्यापार रहने पर भी अग्रिम भोग का प्रागभाषरूप कारण म बोने से अप्रिम भोग की आपत्ति न होगी-बह कथन भी ठीक नहीं हो सकता, क्योकि पागमाय के प्रभाव से फलानुपति का समर्थन करने पर प्रायश्चित्तस्थल में भी पागभाव . भभाष से ही कलारसि का घारण हो जाने से क्रिया में प्रायश्विसावि के मभाष का निवेश व्यर्थ हो जायगा | प्रायश्चिम विधायनशास्त्र की सार्थकता के मनुरोध से क्रिया में प्राय दिसाभाव के नियेश का मौचित्य समाने पर तो या कहना भधिक उचित होगा कि 'विजाती। प्रायश्चिन विधातीय अइष्ट का माशक होता है, क्योंकि इस पक्ष में गागम संकोच भी नहीं करना परता और पूर्व पक्ष की अपेक्षा लायब भी होता है। पूर्वपक्ष में मागम का संकोच इस प्रकार करना पड़ता है कि शास्त्र सामान्यत: कर्ममात्र को फलामक पताता है, किन्तु पूर्वपक्ष के अनुसार प्रायश्चित्तामाक्वरको फल का जनक मानने पर छात्र का प्रायश्चित न किये गये कर्म में संकोष करना होगा । लाग्य इस प्रकार है कि सिहारनपक्ष में निर्षिशेषण महर क्रिया का बार होता है, किन्तु पक्ष में तत्तन्मायश्चित्तविशिष्ट अष्टफलककर्मध्वंस से एवं नयवानिक्रियाप्रयंस से गतिरिक्त झिपाध्यस द्वार होता है, ना सिचान्सपप्त की अपेक्षा पूर्णपक्ष में गौरव बोष स्पष्ट है। उक्त गौरव के कारण भी यह कल्पना भी समीचीन नहीं हो सकती कि-'परम भोगप्रागभाषायश्मिध्यसाधारता सम्मान से क्रिया कालाम्मरभावी फल का जनक होती है। क्योंकि उक्त गौरवो है ही, साथ ही चरमभोगप्राममाय और स्वयंस के विशेषणविशेप्यभाष में यिनिगमक न होने से स्वयंसपिशिएयरमोग गमभायाघारतासम्बन्ध से भी किया को फल नकर की आपत्ति होगी। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्त्रवासिमुच्चय-स्तक र प्रलो. १.६ किच, प्रारजन्म कृतानां नानाकर्मणां न योगोश्टेश्यत्यमस्ति, न च ततस्सज्जन्यफकम् इति योगरूपमायसिस्थाऽनाशकत्वं विना न निवाडः । न च योगात कायपुर द्वारा भोग एपेति साम्मत, नानाविधानन्तपारीराणामेकदाऽसम्भवादिति स्पष्ट पाया हो। न च योगस्य प्रायश्चित्तत्वस्वीकारे भषतामपसिद्धान्त इति वाच्यम्, "सम्वा वि य एषमा पायपि भवन्तरकडाण | पावाणं कमाणं " [पञ्चाशक १६-२] इति अन्धकतैवान्पप्रोक्तत्वा।। अपि व कार्यक्षमा पिसव मशोना जतिमा ज बसविता, दु:खध्वंसस्य पुरुषप्रयत्न विनय भारात, इत्यपि विवेचित न्यायालोके', इत्यतोऽपि कर्मसिद्धिः । अपि च लोकस्थितिरपि कर्माधीनव, अन्यथा ज्योतिश्बकादेर्गुरुत्वादिना पासादिप्रसाद, न चेवराधीनर, तरूप निम्स्यत्वादिति किमतिविस्तरेण ! मरीचिकच्चैः समुदचनीय जनोक्तिमानार्यपष्टसिदिः । निमीत्य नेत्रे तद सौ वराकश्चाचिकः श्रयतां दिगन्तम् ॥१०।। इसके अतिरिफा विचारणीय बात यह है कि नक्रियो में जो समाधिन को उदयता होती है यह मनप्रायश्चितन्य कर्मनाशेच्छाविषयत्वरूप ही होती है, अर्थात् जिस पर्म से उत्पन्न NET को नाश करने की इच्छा से जो प्रायश्चित किया जाता पह कर्म उस प्रायश्चित्त का उद्देश्य होता है, तो फिर प्रायश्वित से नाश्य भारत को मान्यता भी प्रदान की जायगी, तब उक्त गति से किया प्रायवित्त का उपप कैसे हो सकेगी। भतः क्रियाओं में प्रायश्चित यो उद्देश्यता को उपपनि के लिये भी माट की सिधि अपरिहार्य है। योगन यास से अराद्ध तसरी पाल यह है कि पूर्वमा को पिविध कियार्य इस जन्म में मुमवारा किये भाने वाले 'योग' का रुप नाही कोसो, frतु योग के पश्याम् उन क्रियामों का फल मो न हाता, तो फिर यह पान योग की पूर्वम की क्रियाओं से उत्पन्न भएका नाशक माने बिना कैसे बन सकती है। क्योंकि उद्दश्यतासम्बन्ध से उन क्रियाओं में योगात्मक प्रायश्चित के न रह से वे क्रियाएँ पायपियसाभाषपाली हो जाती है। पता प्रायश्चित्ताभाषयाली क्रिया को फलमानक मामने से उक बात की उत्पत्ति नहीं हो सकी। यह फलना कि-'योगो योगपल से रमित कायस्यूर- अनेक काया से पूर्वजन्म की क्रियामों का फलमोग कर लेता है-ठंफ है कि एक साथ एक गारमा को अनेक प्रकार के अमन वारोग हो ही नहीं सकते, क्योंकि पहले ना भारमा के पास उन मनः शरोसे के साथ सम्पपीने के हेतुभून चित्र अनन्त अटए ही नहीं हो उस रोरों से सम्बन्ध हो म होने पर उनके द्वारा फलभोग कैसे हो सकेगा । अनन्त शरीरों साथ सम्बन्ध न हो सकने की पात 'पायानाक' नामक प्रन्थ में स्पर की गयी है। योग को प्रायविसरूप मानने पर जैन धान्त होगा' यह भी नहीं कहा जा सकता पोकि 'सव्वा पिन पधज्जा.' इत्यादि यवना से प्रस्थकार दी मे समस्न योगों को जम्मातर के शो और सभी कर्मों का प्रावित कहा है। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्था० क० ठोका 4 fre पि... अधास्यैव दर्शनपरिभरपाअनितान् व्यअनपर्यायानाहमुहम्- --मट कर्म संस्कारः पुण्यापुण्ये शुभाशु रे । ____ प्रधिम' तथा शशः पर्यायास्तस्य कार्तिताः ||१०|| 'अहम्' इति वैशेपेक्षाः, 'कर्म' इति नै गाः, 'संस्कार' इनि सौगत :, 'पुण्यापुण्ये' इनि पद वादिनः, 'शुभाशुभे' इनि गणकाः, धर्माधों' इति 'सामाः, 'पाश' पति यौवाः, एवमेने तस्य =अदृष्टम्य, फ्यायाः व्याजनपयाः कीर्तिताः । समानप्रनिनिमितकत्वघटिवपर्यायन्वं तु न सर्वश्रेति चोध्यम् ॥१७॥ म अतिरिकः न्यायालीक' प्राथ में यह भी विवेषन किया गया है कि मोनोमय के अनुच्छान में मोक्षार्थी की जो प्रवृत्ति होती है वह पूर्वजन्मों पर वर्तमान प्रन्म को क्रिया में से इस्पन बापामक कर्मों के ही क्षयार्य करती उचित है कि उन किया से कालान्तर में होने वाले दुको के पार्थ, क्योंकि कुल उत्पन्न होने पर उसका क्षय पुरुषप्रयत्न के बिना अमागास ही हो जाता है. इसलिये मोक्षोपाय प्रवृनि की सार्थकता के अनुरोध से भो असिसि आषषयक है। यह भी पक यान ध्यान देने योग्य है कि लोक की स्थिति मो नहर पर ही आभित है, भन्यथा अन्य कोई दोकघारक न होने से ज्योतिश्यक पहननयमाडल मादि गुरुप दार्थों का पतन हो जाने से लोकस्थिति दुर्घट हो जायगी। 'लोक की स्थिति प्रवाधीन है-' या नहीं कहा जा सकता, क्योंकि मुन मारमधिशेप से भिन्न भतादिसिस सर्वत्र समिमाम विर का नामामों में निरास किया गया है। इस प्रकार डर्षक मनेक युशियों से उपन्य की सिद्धि सम्भय होने से इस विषय पर मोर मधिक विचार कामा ह है। जसे सू का किरणजाल रहने पर उस्ट पक्षी भी बन कर किसी कोमे में छिप जाता है उसी प्रकार मनिजामतरूपो सूर्य के पासिशिरूपी किरणसमूह का प्रसार हो जाने पर बेबारे माया रूपी इलक को मो मोच मेकर फिपी कोमे में छिप मामा दी श्रेयस्कर । ॥१०६. [मष्ट के भिन्न-भिन्न दर्शनाभिमत भिन्न भिन्न नाम] इस कारिका में भ्रष्ट के उम पयायों का सकलेन किया गया है जो विभिन्न दर्शनों में परिभाषित हुये हैं। काका का अर्थ इस प्रकार है उक्त युक्तियों से शाम्यधिनित पयं शास्त्रनिविस क्रियाभों के व्यापारूप में कालातरभावो उनके फलों के निर्यातक पदार्थ का सिजि होती है, उसे वेदोनिको ने 'भार', जनों ने 'कर्म', बोली मे 'संस्कार', नेदप्रामाण्यवादी मीमांस आदिकों ने 'पुगपापुण्य', गणको ज्योतिषियों ने 'शुभाशुम', मषिका ने 'धर्माधर्म', तथा देवी ने 'पाश' कहा। इस प्रकार ये सारे नाम उसपा के पर्याय है। ये पर्याप मो पानपोष है, नन पर्याय का अर्थ है विभिन्न «il से पक ही सर्थ के बोधक विभिन्न शम्य । र यस नगर्याय इसी Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114 शास्त्रचा समुच्चय-स्तक र लो० १०८ कपमनेनारमा संयुज्यते :मुलम्-- हे तमोऽस्य समाख्यासाः पूर्व दिसाऽवतादयः । वान् संयुश्यते तेन विचित्रफलदायिना ॥१०८॥ मस्य-कर्मणः पूर्व-"हिंसातादयः पञ्च" इत्यादि [का०५] निरूपणका, हिंसा नृतादयो हेतवः समारख्याताः । सदान-तक्रियाध्यवसायपरिणतः, विचित्रकलदापिना तेन कर्मणा, संयुज्यते अन्योन्यसम्बन्धेन बध्यते॥१०८|| उक्तेषु वादेषु का श्रेयान ? इनि विवेचतिमलम् -नैवै होट बाधा यात्मद्भिश्वास्याऽनिवारिता । - तदेनमा विद्वांसस्तत्ववाद प्रक्षते ॥१.९|| एत्रमात्मनः कर्मसंयोगे स्वीक्रियमाणे, न दृष्टेपूवाधा, अमृतस्यापि मूर्सन सहाफाशादी संयोगस्य दर्शनात् अमृतस्यापि ज्ञानस्य प्राग्रीवोपभोग-मद्यपानादिनानुनहोपातयोरिष्टलाच । सिदिवास्य फर्भगः, उक्तविशाऽनिवर्गरता-प्रतितोऽवाधिवप्रसरा तत्तत्माच कारणाव, एन अबाइमेय, विद्रातः मध्यस्थमोतार्थाः, तत्त्ववाद-मामाणिकाभ्युपगम, प्रचक्षते ।।१०९॥ लिप कहा गया है कि ये सारे नाम भिन्न भिन्न रूपों से एक ही तारिखक भर्थ का उपक होते है, एक दो अर्थ का प्रतिपादन करते हैं। और हम में इस प्रकार का पर्यावरण, जिसे 'समानप्रवृत्तिनिर्मिनकस्बे सति विनिम्नानुपूर्वी कस्वरूप में परिभाषित किया जाता है, नहीं है। यह दूसरे प्रकार का पर्यायल्प किसी वस्तु के इन नामों में होता है जो एक ही रूप से पदी वस्तु के बोधक होसे है, किन्तु इनके मानुषीसरूप में मे होता है, जैसे भूप मोर भूगाळ शम्, ये दोनों शम् भूमिपालकत्व' इस प री कप से 'राजा' के पोधक हैं और दोनों के भानु-स्वरूप में मे हैtos [अद के साथ भात्मा के सम्बन्ध को प्रक्रिया] १०८ वी कारिका में यह बताया गया है कि कर्म के साथ मारमा का सम्पन्ध कैसे होता है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है बर्म के हिसा-अन्त भादि य कारण पहले बताये जा चुके हैं। जो आत्मा इम पांचों में से किसी एक या एकाधिक मथषा सभी कियाों को करने का मध्यवसाय करता है यह यिन्यित्र फलों के जनक कर्म से पंधता, कर्म मोर मात्मा का यह मात्र जभपपक्षीय होता है, अर्थात् कर्म से आरमा और आम्मा से कर्म का परस्पर पब होता है।॥१०८ ॥ सपी कारिका में यद बताया गया है कि 'मरसिद्धि के सम्पर्म में कडे गये बादी में कौन वाद सय श्रेष्ठ है. अब इस प्रकार है मामा का कम से धन्ध स्वीकार करने पर कोई अष्टपाधा या एबाधा नहीं क्योंकि मेसे भामाश आदि शमूत द्रव्य में घट मादि मूर्तवष्य का संयोग मान्य है उसी Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्पा क• ढोका पहि. वि. पवारफलमेवार भृतम्'- बीकात काय पौवाकाशम् । इत्थं तत्वविलोमे थत्तथाऽज्ञानविवर्धनम् ॥११॥ लौकायनमः-नास्तिकदर्शनम्, प्राज्ञैः मेक्षिभिः, पापौषस्य=फिलफर्मसमूहस्य, कारण सेयम् । कुता ! इत्यार अत्यामादेतोः इत्यम्-उक्तप्रकारेण, तसविलोमम्= यथार्यहानप्रतिक्लम, तश्रा, अज्ञानविवर्धनम्=क्लिष्टयासनासन्ततिहेतुः ॥११०।।. अत्र द्रष्याऽसत्यत्वमपि नास्ति, इति परोक्तसदुपसिप्रकारदूषण वाले नाहमूलम् - मुन्द्रयतारमायेदं च किल नस्पतिः । पदोऽपि पक्तिशून्यं यन्नेत्यमिन्यः प्रतायने ॥१११॥ इन्द्रातारणाय-प्रदानवव्यापादनाय हिंसादिभीतस्येन्द्रम्य धर्माधभाव भ्रममाधाय लोकमुखाय प्रेग्णाय, इदं -लोकायतमतं, 'किल' गति सत्ये, स्पति: तुरगुरु, पर बदोऽपि एतदपि यवन, युक्तिन्त्रम् अविचारितरमणीयम् । कुतः इत्याह 'यत् = यस्मात्, इत्यम् अनेन वृरस्पन्युक्तप्रकारेण, इन्द्रो न प्रतायते, दिव्यदृष्टित्वात् तस्येति भावः ॥११॥ प्रकार भभूत आत्मा में भूतं मे का मयोग होना सम्भव है। इसी प्रकार से पानीपत के सेवन में गभून शान का उपचय और प्रयपान से अपमय होता है, उसी प्रकार विचित्र कर्मों के नम्पर्क से अमूल मामा का एपचय और अपाय भी मान्य हो सकता है। किसी प्रतिफल नर्कका मापात न होने से कर्म की सिदि भी निर्याध माता मध्यस्व मालोषकों से प्रशंसनीय इस शापवान को दी विवरजन श्रेष्ठ पर्व प्रामाणिकपार कहते है ॥१०॥ इस १५. वो कारिका में यह बताया गया है कि पूर्व कारिका में सवेनमेष रस प्रकार जो 'पष' ज्ञान का प्रयोग किया गया है, उस का फल क्या है? सूक्ष्म बधि से पस्न का विकार करने वाले विद्वानों को यह समझना चाहिये कि पाक का मत पाचसमूह-क्लिष्कर्मों की राशि का कारण है, क्योंकि उस रीति से पह पथार्थहान का विरोधी और अमान शिलपालनामों की परम्परा का षर्मक है ॥१०॥ १११ षो कारिका में इस फन का अपमान किया गया है कि शाक मत जिस कप में भून बस रूप में माय ने तो असाय नहीं कि द्रव्यरष्टि से भी भस्मम ही क्योंकि उस का प्रादुर्भाव तम्य के प्रतिपादनार्थ होकर एक विशेष पोश्य से हुभा है।' कारिका का भी इस प्रकार है Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० शास्त्रयातासमुच्चय-स्तबक टोक २९ । उपसंहरन्नाछ - मुहम्-तस्माद् दुष्टाशयकर विलासरव मितिसम । पापश्रुतं सदा वोर्षिय नास्तिकदर्शनम् ॥११२॥ तस्मान:-सर्वथैवाऽसत्यवान, दुष्टापायक परलोकायभावमाधमेन पियेरामाप्रपर्यवसायिनित्ताभ्यवसापनिबन्धनम्, नया विम्सच्चैः अचिन्तिनामुष्मिकारायः ऐहिकमुख वाऽस्यन्ते यूद्ध विधिलित-मवेनट्या प्रफटोकृतम्, अत एव पापचतम् श्रूयमाणमप्यनुपरुगतः पापनिबन्धनम् :-ज्ञानपदः, नासिकदर्शनम् सा ज्य शारपा परिहरणोपम् । न त्वत्राग्रे वक्ष्यमाणेस बान्तिरेषिया इमाऽपल्यत्वाऽऽनकापि विषया, अन्यथा तामेत्र छापलभ्य प्रतिष्ठा विपयपिपासापिशाची छापये दिति भावः । ११२॥ [द को उगाई के छिये चावधि मन का प्रतिप दन - यह वर यकशून्य] व बान ने विविध भस्यागरों में लोक को भीत कर रखा था । वेघराज पन्द्र इल मय से उसे मारने को अपत महों होते थे किया प्रमा का प्रमण है, अतः उस के वश में प्रयाहत्या का पाप होगा । इस लिये देवगुरु पृहस्पति ने पाकिमत का सायम कर इन्द्र को यह बताया कि वे से मिम्न आत्मा का अस्तित्य नयाभरष्ट एवं स्वर्ग, नरक मावि के ग्रामाणिक होने से वृत्रयध से प्रारया आदि होने का भय करमा पर्थ है, तुम्ने निषित होकर वृध का वध करमा धाइये जिससे लोक सम के माता से मुक्त हो सके। अन्धकार का कहना है कि वार्याकमत की इस प्रकार से अपात्र बनाना ठीक नहीं है क्योंकि विपक्ष इन्द्र को इस प्रकार पदों भुलाया जा सकता था ९१९॥ विषय लाम्पत्यजनक नास्सिक दर्शन सर्वधा स्याश्य है। इस कारिका में पूर्वोक्त घियारों का उपसंहाय किया गया है कारिका का अर्थ इस प्रकार है चार्वाक मत केवल व्यष्टि से ही मसत्य नहीं है किन्तु सर्वथा असत्य है-स लिये किया परलोक भादि सभाव का साधन कर अध्येता के त्रिसको विषयासक्त बनाता है, पथ परलोक की चिन्ता, करने वाले पहिक सुख को ही सर्वस्व माननेवाले लोगों से स्व पूर्यक सिमित हैं और इसी लिये सुमने मात्र से ही पाप का अकमला सिमाल ममुष्पों को नास्तिकदम को इस प्रकार मानकर उसका समिना परित्याग ही करना चाहिये । मागे अन्य शास्त्रों की जो बाते कही जायगी, जो पचायत में इण्यालयव को शर भी नहीं करती गाहये भम्यथा स्वभावपुषा विषयों को पिपासाका राक्षसी उसी बहाने मनुष्य को सहने लगेगी ॥५या H4 Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२१ यूक्तिमुक्तिप्रसरहरणी नास्ति का नास्तिकानाम् । सर्चा गर्वाध फिम न दलिता सा नगरास्तिकानाम । ध्यस्ताऽऽलोफा शिट जगति परिवार तस्माद : कि नोरलेस्त्री रविकरतिस्सहोदेति तस्याः । ॥१॥ बाप्तामिमामम निशम्य सम्यक् त्यक्त्वा रसं नास्तिफदर्शने पक्रान्तिकास्यन्तिकशमहेतुं श्रयन्तु वाई परमाईतानाम् ।।२।। नास्तिकों की कौन सी युक्ति है जिस से मोक्ष लाभ में बाघा नको होती। और जिसे आस्तिक लोग अपनी नीति से गर्षपूर्वक निरस्त नहीं कर देते । संसार में भाधकार की कौन सी धारा है जिस से आलोक का प्रसार भषयच नारी घोसा। भौर जिसे नष्ट करने के लिये सूर्य.की दुस्सह किरणमाला का उदय नहीं होता! इस विषय में उन घनों को सुनकर मास्तिक दर्शनों से मन को पूर्णतया बना लेना चाहिये और केवल धीतरागसपक्ष मईत् के भनुयायी अंगों के सिद्धान्त काही भाश्रय लेना चाहिये क्योकि उसी से निश्चितरूप से गम्तिम कल्याण हो सकता है॥शा अभिप्रायः रेरिह हि गहनो दर्शनातिनिरस्या दुधर्षा निजमतसमाधान विधिना । तथाऽप्यत: श्रीमन्न पविनयविशाहिभजने न भग्ना चेद् मक्किन नियनमसाध्यं किमपि में ||३|| यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयप्राशाः प्रकष्टापाया, भ्राजन्ते सनया नयादिविनयपाज्ञाश्च विद्यापदाः । प्रेममा यस्य प सम पारिनयो जातः मृधीः सोदरः मेन न्यायविधारदेन रचिले अन्ये मनिर्दीयताम् ।।४।। [पा. श्रीमद् यशोविजय ना की अपने गुरुदेव श्री भव जय महाराज के प्रति श्रद्धा] मूलप्रयकार श्रीहरिभवसूरि का अभिप्राय दुर्गम है, अपने मन को प्रतिष्ठित करने की प्रणाली से दुर्घष मण्यदार्शनिक मिनालों का झण्डन करना है यपि यह दोनों ही कार्य गत्यात तुकर हैं, तथापि यदि विवषर श्रीमान् नपविजय के चरणों में मेरी भनट भकि है तो मेरे लिये कुछ भी मसाथ्य नहीं है ॥३॥ महामना प्रायवर 'प्रीतविजय' जिस के परमगुरु थे तथा मयमिपुण विखवर 'जयविजय' जिस के थियावायक(दीक्षा)गुरु है, पायं मैम के माधार विधान पविजय' जिसके सहोदर माता है, उस पायविशारर ने रस प्रमथ की चर्मा की*. Faratha प्रार्थना है कि वे इस प्राय छे अवलोकन में :दसमित हो || प्रथमस्तवक समाप्त Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकार ७८ श्लोकापम् अचेतनानि भूतानि..... मतस्तत्रय युद्धास्था..... अतः प्रत्यक्षसस्सिा.. भनापि पर्णवन्त्यके..... अथ मिन्नत्यभामानि.... महष्ट कर्मसंस्कार..... माकासकालादि. भनित्यः प्रियसयोगः.... भनित्याः सम्पदस्तीन..... अनभिन्यतिरप्यस्या..... अन्ये त्वभिदधत्यत्र..... अशेपदोषजननी..... असत् स्थूलत्वमपवादो..... अस्त्ये व सा सदा..... आ-प्रत्ययपक्षे..... भारमावेनाऽविशिष्टस्य..... मात्मनात्माहे तस्य..... मात्मनामाहोऽप्यन्त्र..... आह तत्रापि नो युक्ता.. इथं न तदुपादन .... इदानी तु समासेन..... इन्द्रप्रतारणायेदं..... उथ्यःन एवमेवत..... उपदेः।: गुभो नित्यं..... उपादेयश्च संसार .... एकस्तथा परो नेति..., परिशिष्टं प्रथमम माशोमामागमकिया भोकाका लोकाग्रम् ११ एवं गुणगणोपेतो..... २७ एवं चैतन्यवानात्मा..... १७ पर्व शक्त्यादि एशोऽय..... ८८ एवं पति घटादीना..... ५५ कर्वभावात् तथा देश..... १०७ कर्मणो भौतिकवेन..... ६३ काठिन्यायोपलपाणि..... १२ गुवों मे तनुरियादो..... १३ ज्ञानयोगस्तपःशुद्ध..... ३५ तग्नननस्वभावाने...., ९७ सदम्यावरणाभावाद.... तमिवायोगतः सा चेत्..... ५५ तदात्मकावण ..... ९९ तलक्षण्यसवित्ते..... तथा च भूतमात्रत्वे... ९१ तथा तुल्येऽपि चारम्भे, तमन्तरेण तु तयोः..... तस्मान जायते मुक्ति तस्मास वातानो भिम्ने... ७३ तस्मादधर्मवत् त्याग्यो..... तस्मादवपमेन्यः ..... १११ तस्मादवश्यमेव्यमन्त्र. २० तरभार दुराशयकर...., ७ तेन तद्भावभावत्व..... १५ दिव्यदर्शाताव..... ६१ दुख पापात मुलं..... १०॥ ११२ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म...... Qisqiurgio:..... न च बुद्धिविशेषोऽयै...... न च मूर्खाशुसंघात..... लावण्यकार्कश्य...... न च संवेदना.. .... न चाय सस्य बन्धस्य. ... न चासौ स्वरूपेण.. न चासौ भूतभिन्नो यत्..... न लावण्यसद्भावो.... न चेह लौकिको मार्ग..... न चैव भूतसंघात...... न तथाभाविन हेतु न तस्यामेव संदेहात् ..... न प्राणादिरसौ मानं..... IPPI नामापि लोके नो. नाऽभावो भावमाप्नोति..... नासतो विद्यते भावो..... नासत् स्थूलत्वमण्यादौ...... नैवं दृष्टेष्टवाणा यव..... पखमस्यापि भूतस्य.. पापं वह्निन्नमेवास्तु... नग्म पुनर्मृत्यु...... प्रश्चिन्यादिमहाभूत...... प्रकृत्या सुन्दरं क्षेत्र.... प्रणम्य परमात्मानं..... प्रत्यक्षस्यापि तस्याज्यं. PIT 144 1 प्रत्येकमतीतेपु.. बोधमात्रस्य तद्भावे...... बोधमात्रातिरिक्त तद् ..... ܕ १२ २६ ረ ४५ ६ ६ ७३ १८ ३६ ३८ ६७ ६४ ५१ ७५ ७१ 穿在 ४० フ ७६ RE ४७ १०१ १४ ३० १५ શ્ ? ४४ १०४ १०३ ३२३ लेटे..... भोगमुक्तिको घः...... भूतानां तत्स्वभाषत्वा भ्रान्तोऽहं गुरुरिध्येष...... मुरा धर्म जगह...... मृतदेदे च चैतन्य...... मैत्री भावतो नित्यं ...... यदि निस्य तदात्मैव.... यदीयं भूतधर्मः स्यात्..... से श्रुत्वा सर्वशास्त्रेषु.. यः कर्त्ता कर्म मेदान...... कामतमतं प्राज्ञै... cappe लोकेऽपि नैकतः स्थाना...... वायुस |मान्यस सिबेः..... वासनाप्यन्य सम्बन्धं...... विपरीतास्तु धर्मस्य..... विशिष्टपरिणामाभावो...... व्यक्तिमात्रत एषां.. शक्तिचतन्ययोरैक्यं ....... शक्तिरूपेण मासेषु..... शक्तिरूपं सदन्ये तु ..... सोऽस्य किं परस्येय..... साधुसेवा सदाभवस्था. यावेत व भूसमध्येऽपि...... स्वाऽभिन्न इत्येषं...... स्वभावो भूतमात्रा.... स्वरूपमात्रभेदेव..... हविर्गुड कक्का दि....... हिंसा नृतादयः पन्च..... दे तवोऽस्य समाख्याताः..... 4874 * २३ ९४ ८० १६ ६५ ረ ८९ ૩૨ २ ९० १०८ ૪૨ ७० १०२ ५ ३ अ ५७ ३४ ३३ ९५ ૬ ६ ब२ ३९ ५४ ५५ ५६ ४ १०८ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रधान १९१ २६ १८५ परिशिष्ट उद्धृताः श्लोकादयः उद्धरणांचा अणु-दुमणुएहि दले. सम्मति० १३३] अनित्यारिवानात्ममु [पात ३-५] मनुमतविपयाऽमम्प्रमोपप्रत्ययः स्मृतिः [पा० १-११] मनुमानव्य ::न्न १- ५ अन्योऽन्तरमा प्राणमयश्च तास. २-२-३] भभाषात्य याद्ध बना पान. १.१२] मन्यास गया या सन्निरोधः पात० १-१२J मासे वार सन्त - [ महिंसया क्षमया | मागमेनानुमाने [भाष्य ! आत्मज्योतिपय पुरयः [ माथे परोक्षम् [तस्त्रार्थ ० १-११] मानन्दं प्राणी रूप उप्पलदलमायदेव नि. पा. भा. २९९] ऋतम्भरा तत्र प्रज्ञा [पात: १-१८] कदाभिहितो भादो ट्रन्यवत् • [ क्षीणवृत्तभिजातस्येय [पा० १-५१ गिरिदरीविबरदसिनो [ ] गुणे शुक्लादयः पुंसि भमर० १-५-१०] निरम्यस्तै फसायाले० [न्या • कु. १-९] चैतम्यविशिष्ठः कायः पुरुषः [ ] जत्ती विजय पव० [ जाणिजद नितिग्नह [ से संसवायोसे• [वि. मा. भा. १५७] जो तुल्कासाहणाण [वि. आ. २०६८] २८८ २५८ २९३ २९७ Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२५ २४२ २१५ १५१ १९६ ८ द तदविवास्मितारागः पाभिनिवेशमेवेन पञ्च [पा. १-२-३] तत् परं पुरुषख्याते: - [पात. १-१५] सत्र प्रत्यक्षावोनि प्रमाणानि [पा० १-७] तत्रात्मा तागत प्रत्यक्षतो. न्यायभाष्य सत्र स्थिती यानोऽम्यासः [पात०१-१३] तगः खल्ल पलं नील. [ ] तस्यापिं निरोधे सर्वशिरोधा० पान. १-५१] ताः प्रमाणविपर्ययविकल्प पा. १-] तिण वि उप्पासाह. [सम्मति ० १३२/ सेपा गई. पापीयान् [4सू० -१ दवसरस मोगा दि. [सम्मति-१३५] दुम्नानुशयी पः [पात. २-८| दुखामावोऽपि नायः [ गार्शनशक्योः !पाल २-६] दृष्टानुविकविषय पात० १.१५] धर्मस्य फलमिच्छन्ति [ ] नासती विमले....गीता-२।१६] नित्यं विज्ञानमानन्द निविचारशारणेपास१-४७] नो इस्लोगवाए। प चुप्पन्न भावं किंगय सम्मति १००] परिणामतापस्कार। |पात. २-१५] पुणफले दुक्खं चिय. [वि० मा० मा.] भानोम्येप्तप० [ मोक्षः कर्मधया चैव [योगशास्त्र-४-१९६] विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् [पा. १८८] सियमुई दुख चिय कि पाक वीतरागमन्माऽदर्शनात् [न्या. सू०] शम्दज्ञानानुपाती वस्तुशम्य [पात. १-९] ५३ ४ ६९ १२८ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ : संस्कारः पुंम एपेष्टः [न्या कु०१-११] संस्कारशेषोऽन्यः [पास १-१८] समोमो निर्विशेषाणा [न्या० कु. १-९] स तु दीर्घकाल [ सनु जुसुमाणं पुण• भावः नि० ७८९] सर्वत्र पर्वनुयोग सर्वेभ्यो दर्शपूर्णमासो [ सध्या वि य पचग्जा | पञ्चाशक १६-२] सुखमाल्पन्तिकं यत्र | मुखानुशयी सगः [पा. २-४] सूरमविषयत्वं० [पात ०१-५५] स्पद प्रत्यक्ष | प्रमाणनमः २-२] स्वरसवाही विदुषोऽपि० [ परिशिष्ट ३ उल्लिक्षिता न्याया न्यायः समिशेषणे हि रुदमिहितो भावः. लदश्वभ्यायः मुप्तमण्डितप्रबोधदर्शनन्यायः वीतरागजम्मानन्यायः ८२ पृष्ठाका २९ : Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धिकरण पृष्ठा पंक्ति १११२ ११।२५ योता है। जाय तो होता है हो आम सो प्रमाण तदभावप्रकारक सम्बन्ध नही हो । दृश्यते सुधीः । . ३७११८ ३९.११ दि मासकि ५१२७ ७२।१० प्रमणा तदमाषप्रकार सम्बन्ध हो पृश्यते 'मुष्ट्रष्यते' सुधीः। লব্ধি स्वस्थ मोधमार्ग को जानकारी और मोक्षमार्ग में अभिरुचि होने पर भी बद... देभयस्य मान्नदः उस विषय अन्तःमरण दिव्य प्रमाण न हो सकेगी। बुसि विषयता. -विधा दसणेवि सयाण पक ही है क्योंकि ५९/९ ८०१ ८०२८ ९७५ १.४३६ १०८२६ ११७/३२ १२५५२ १२५/७ १२७१२९ करदेव मोक्षमार्ग में अभिरुचि होने पर मोक्षमार्ग की बानकारी के मभाव में भी वह.... हेममयस्य सानन्दः सस विषय का अन्तःकरण देव प्रमा न हो सकेगी। बुद्धि विषयता. विशेष दसणे विसयाण एक ही है, चैत्र मंत्र के समान उनमें भेद नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि परिमाण विशेषदर्शित १२७१० परिणाम विश्वदशि Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1282 1393 1420 16 / 17 सदाबह भिन्नरूपेषु विशेणता विशिष्टसाहात रणपमान मेदे हविज्ञमाविगुणो पुत्रमतन्य •कत्वमपि वदध्यक्ष मिन्नरूपेषु विशेषणता विशिष्टतात स्वरूपमाप्रमेये हरि-गुष्ठ पुत्रचैतन्य कस्वकल्पनमपि 168/12 182121 मान भान उर्वश्य 2261 2273 उपर्य लौकिकविष दोषमुम्न उत्पत्ति और लौकिक-विष. दोषयुक उत्पत्ति, एवं कुछ मंश. का नाश होने पर उस राशि की उत्पत्ति, और 23311. 23 // 2. प्रतीसि पतीति से होना ही समी पायी का होना भी सभी पदार्थों अशांय आशय नमपवेशकमा ध्यपशिभाक प्रमाणामाब प्रमाणग्राम 24028 255/23 २१दा२ 205 / 15 २५७ार 2768 28-135 2984 302 / 3 प्रमाण प्रमाण जन्यज्ञान कोर तत्त अन्य ज्ञान की तसा समावस्यात् विनिगमाग्म; स्वभावान विनीगमागच