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________________ १७२ णमपातसमुचप-रूपक १ को १४ अन्न गव्यनास्तिका: "अवच्छेदकवया ज्ञानादिकं प्रति तादात्म्पेन करप्पकारपताअस्य शरीरस्यय समवायेन सानादिकं प्रति हेतुत्वारपनषितम् । न चैवमात्मत्व मतिर्न स्यात्, पृथिधीत्वादिना सायर्यादिति वाच्यम्। उपाधिसार्यस्येव जातिसारयेस्पाप्यदोपत्वात् । न च तथापि भूवचनुष्कप्रकृतिस्थेन वरोरमतिरिच्येत स्वाभय समवेतस्यसम्बन गन्धायभावस्य गन्धाधिक प्रति प्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्क प्रकृतित्याऽयोगास, पार्थिवादिषरीरे जलादिपर्मस्यौपाधिकत्मात् । न चैवं परात्मरूपस्पशादीनामिव तत्समवेत ज्ञानानादीनामपि चाक्षुषस्पार्शनप्रसा, रूपादिशु जातिषिशेषमापगम्य रूपान्यतत्वेन वाशुपं प्रति स्पर्शान्यतारखेन च स्पार्शनं प्रति प्रतिबन्धकत्वफलानान, हस्थमेष रसादीनां चाक्षुषस्पार्शनस्वनि हात् । भादि की परस्पर पिलान्ध में मिला कि बाद में मैं उस की उपपत्ति नहीं हो पाती, क्योंकि चार्वाक को भूत से भिन्न को ख मान्य पदों है, और केवल भूतों से उक पिलक्षणता की उत्पति हो नहीं सकती ॥१५॥ [समवाय से जानोत्पत्ति पा कारण शरीर ही है-नूतननास्तिक नवीन मास्तिकों का स सम्बन्ध में यह पतव्य है कि "अब शरीरावोग मारमा में जान को उत्पत्ति हो भोर घटानि-मवच्छेदेनो स पात की उपपत्ति के लिये 'भवोकतासम्बन्ध से मानावि के भनि तावारण्य सम्बन्ध से शरीर कारण, यह कार्य. कारणभाष माममा आवश्यक है, तब समवायसम्बन्ध से मो जामाथि प्रति हरीर को भी कारण मान लेना अधित है, इस से भिन्न भास्मा की कपमा समावश्यक है। 'मारमय को शरीर का धर्म मामने पर उसके आतिष का भा हो जायगा, ज्योकि सूर्य के जम वीर में पृथिवीन्याभाय के साथ भान्मत्व रखता है और घट भाषि में मात्सत्याभाव के साथ पूधिषीत्य रहता है, और मनुष्य के पार्थिव शरीर में भात्मत्व और पृधियोरख दोनों साप में राते हैं. अतः पात्मत्व में पृधिधीत्व का सोकर्य हो जाता है, भौर सांकर्य जातिस्प का बाधक होता-या शंका करना उचित नोंद पोधि इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि जैसे उपाधियों का सोकर्य दोष नहीं होता, पैसे ही झातियों का भी सांकर्य दोष नहीं होगा। भार बह शंका कि-'पषिषी मादिबारों भूत वारोर के जापावान कारप है, उसमें किसी एक भूत में इसका प्रगतमाम मामले में विनिगमनामही है, और एक वस्तु का परस्पर मिगलबार बस्तुमों से भमेष युक्तिषित होने से चारो में अन्तर्माध हो नही सकता, अतः शरीर पूथिषी आदि भूतों से भिन्न पक साम्प्रतस्थ हो जायगा'-तो पाशका भी उचित क्योकि स्वामयसमवेतस्पसम्बन्ध से गधावि (के वृत्तिस्य) का अभाव गन्धादि (की उत्पति) का प्रतिबन्धक होता है, अतः यदि दृषिषी आदि पारो भूतों से शरीर की उत्पति मानी नायगी तो इसमें सलाविगत गाधामाष स्वानपजलसमवेतस्वलम्बन्ध से शरीर में तो के कारण उसमें गन्थ की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध कर देगी । फलतः शरीर निगन्यो जायगा । इसलिये पूधिषी आदि गारो भूनों को शारीर का उपादान कार नहीं माना
SR No.090417
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 1
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year
Total Pages371
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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